बाल उपन्यास "मनीष और नर भक्षी" लेखिका - आभा यादव प्रकाशक - विश्वविजय प्रकाशन, देहली. (लेखिका की अनुमति व सहयोग से प्रकाशित) -- भाग...
बाल उपन्यास
"मनीष और नर भक्षी"
लेखिका - आभा यादव
प्रकाशक - विश्वविजय प्रकाशन, देहली.
(लेखिका की अनुमति व सहयोग से प्रकाशित)
--
भाग 1
1-
"बेटे, शुरू करो. "मनीष की मां, रीता जी ने डबलरोटी पर मक्खन लगाकर मनीष की प्लेट में रखते हुए कहा.
"पिताजी भी आ जाएं. "मनीष ने द्वार की ओर देखते हुए कहा.
"आज उन्होंने अपना जलपान अपने कमरे में मंगा लिया है. "रीताजी ने अपनी डबलरोटी पर मक्खन लगाते हुए बताया.
इसके बाद मनीष ने मां से कुछ नहीं पूछा. चुपचाप जलपान करने लगा. वैसे भी यह कोई नई बात नहीं थी. अक्सर ऐसा होता था. अधिक काम होने पर मनीष के पिताजी, अजीतसिंह जलपान अपने कमरे में ही मंगा लेते थे.
मनीष ने जग में से अपने गिलास में दूध डाला और पीने लगा. उसे पता था कि आज मां जल्दी में हैं. पिताजी पर काम अधिक होने पर मां का काम भी बढ़ जाता था.
जब तक रीता जी नाश्ता करके उठीं, मनीष भी नाश्ता कर चुका था. नाश्ते की मेज से उठकर वह सीधे अपने कमरे में चला गया और बस्ते से गणित की पुस्तक निकाल कर सवाल हल करने लगा.
विद्यालय का काम पूरा कर के मनीष ने घड़ी की ओर देखा. नौ बज चुके थे. उसने सारी किताबें बस्ते में रखीं और बस्ता अलमारी में रख दिया. इसके बाद वह अलमारी में रखी गेंद लेकर कमरे से बाहर निकल गया. रविवार होने के कारण विद्यालय की छुट्टी थी. मनीष ने सोचा, थोड़ी देर गेंद खेल ली जाए. वैसे वह रविवार का दिन मां और पिताजी के साथ गुजारता था. मां पिताजी के पास अधिक काम होने पर वह अपना दिन खेल कर तथा कहानी की पुस्तक पढ़कर गुजार लेता था. आज भी जब मनीष ने पिताजी को व्यस्त देखा तो गेंद खेलने का विचार बना लिया.
मनीष लान में जाते-जाते पिताजी को देखकर रूक गया. पिताजी कोठी के बाहर वाले कमरे की सफाई करवा रहे थे. मनीष को पता था इस कमरे को तभी साफ करवाया जाता है, जब कोई अतिथि आने वाला होता है. वह गेंद लेकर लान में नहीं गया बल्कि पिताजी की ओर बढ़ गया.
अजीत सिंह अपने नौकर गगन को कुछ आदेश दे रहे थे. मनीष रूककर पिताजी की बात समाप्त होने का इंतजार करने लगा. जैसे ही गगन पिताजी के पास से हटा, मनीष ने पूछ ही लिया, "पिताजी, अतिथि आ रहे हैं?"
"हां, बेटे. "अजीत सिंह ने मुस्कुराते हुए कहा.
"कौन आ रहे हैं?"मनीष ने उत्सुकता से पूछा.
"शमीम, रार्बट और विजय. "
"मतलब आप शिकार का कार्यक्रम बनायेंगे. "मनीष ने कहा.
"यह तुमने कैसे जाना?"
"पिताजी, क्या में इतना भी नहीं जानता कि आप इन तीनों चाचाजी के साथ मिलकर शिकार का कार्यक्रम अवश्य बनाते हैं. "मनीष ने गेंद उछाल ते हुए कहा.
अजीतसिंह ने प्यार से मनीष के गाल पर हल्की सी चपत लगाई और हंस पड़े. मनीष गेंद उछालता हुआ लान में भाग गया.
. . .
मनीष नाश्ते की मेज पर पहुंचा तो चौंक गया. उसे यह तो पता था कि पिताजी के शिकारी मित्र आ रहे हैं, लेकिन उनके नाश्ते की मेज पर मिलने की आशा नहीं थी. वह आश्चर्य में डूब गया.
"कहो, मनीष, कैसे हो?"विजय ने मनीष को देखकर चहकते हुए कहा.
"नमस्ते चाचाजी, कब आए?"मनीष ने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए. वह इतना आश्चर्य में डूब गया था कि राबर्ट और शमीम को नमस्ते करना ही भूल गया.
"हम लोगों को देखकर चक्कर खा गए?"राबर्ट ने मनीष के चेहरे पर आश्चर्य के भाव देखकर हँसते हुए कहा.
"हां!चाचाजी, इतनी जल्दी मिलने की आशा नहीं थी. "शमीम के पास खाली कुरसी पर बैठते हुए मनीष ने कहा.
"रात जब हम लोग आए, तब तुम सो गए थे. "शमीम ने प्यार से मनीष के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.
"तभी सुबह सुबह दर्शन हो गए. "मनीष ने सिर हिलाया.
"लो, लाल लंगूर. "राबर्ट ने पकौड़ों की प्लेट मनीष की ओर बढ़ाते हुए कहा.
राबर्ट को लाल लंगूर कहकर मनीष को चिढ़ाने की आदत थी.
"मैं नहीं करता नाश्ता . "मनीष ने गुस्से से नथुने बुलाते हुए कहा.
"अरे, मनीष, तुम भी राबर्ट की बातोँ में आ जाते हो. इसकी शक्ल तो स्वयं ही बंदर से मिलती है. "शमीम ने मनीष को मनाते हुए कहा.
"एक शर्त पर नाश्ता करूंगा. "मनीष ने कुछ सोचते हुए कहा.
"किस शर्त पर ?"शमीम ने पूछा.
"मनीष की शर्त मैं बताऊं. ?राबर्ट ने मुस्कुराते हुए कहा.
"बताओ. "अजीत सिंह ने पूछा. उन्हें भी इस छेड़छाड़ में मजा आ रहा था.
"स्कूल में मनीष का नाम लाल लंगूर करवा दिया जाए. "राबर्ट ने मनीष को मुँह चिढ़ाते हुए कहा.
"अब देखिए, शमीम चाचाजी. "कहते हुए मनीष रूआंसा हो गया.
"तुम चुप रहो राबर्ट. वरना में मनीष को बता दूंगा कि तुम्हारा नाम राबर्ट चाचा नहीं जिराफ चाचा है. "शमीम ने राबर्ट की सामान्य से अधिक लम्बाई का मजाक बनाते हुए कहा.
"आहआह!जिराफ चाचा. "मनीष राबर्ट का नया नाम सुनकर ताली पीट कर हँस पड़ा.
"अब तो नाश्ता कर लो. "शमीम ने असली बात पर आते हुए कहा.
"लेकिन, मेरी शर्त!"
"अच्छा, शर्त भी बता दो. "
"खाली नाश्ता नहीं करेंगे. "
"फिर?"शमीम ने पूछा.
"जब आप शिकार की बातें सुनाएंगे तभी हम शुरू करेंगे. "मनीष ने प्लेट दूर हटाते हुए कहा.
"लो, तुम नाश्ता शुरू करो. मैं कहानी सुनाता हूँ. "
"कहानी नहीं सच्ची घटना. "
"हां, एकदम सच्ची घटना सुनाऊंगा. "शमीम ने टोस्ट काटते हुए कहा.
"सुनाइए. "मनीष संभलकर बैठ गया.
"हमारे पिताजी के समय हमारे यहां एक मुनीम थे. उनका नाम लखी लाल था. उनमें एक खास बात थी. "कहकर शमीम ने चाय का घूंट भरा.
"क्या खास बात थी. "मनीष ने उत्सुकता से पूछा.
"उनका शरीर जितना लम्बा-चौड़ा और भारी भरकम था दिल उतना ही छोटा था. जरा सी खटपट से उनका दिल उछलकर मुँह में आ जाता था. "
"बिल्कुल हमारी भाभीजी की तरह. "विजय ने रीता जी की ओर मुस्कुरा ते हुए देखकर कहा.
"आपको में डरपोक नजर आती हूँ. "रीता जी जो इतनी देर से चुपचाप बैठीं थीं, विजय की बात सुनकर एकदम बोल पड़ीं.
"अरे, साहब. कौन कहता है कि हमारी भाभीजी डरपोक हैं. वह शेर तक से नहीं डरतीं. चूहे की खटपट से उनकी चीख निकल जाती है. "राबर्ट ने चुटकी ली.
"फिर क्या हुआ?"बात बढ़ती देख मनीष बीच में बोल पड़ा.
"हां!तो पिताजी की उनपर विशेष कृपा रहती थी. लखीराम काम सबसे कम करते थे. सुविधा सबसे ज्यादा पाते थे. "
"ऐसा क्यों था. "रीता जी ने पूछा.
"बात यह थी कि लखीराम का दुनिया में कोई न था. पिताजी ने ही उन्हें पाला था. "शमीम ने स्पष्ट किया.
"मैंने आपसे शिकार की घटना सुनाने के लिए कहा था. "मनीष ने ऊबकर कहा.
"अरे, वही सुनाने जा रहा हूँ. "पकौड़ी उठाते हुए शमीम ने कहा.
"फिर सुनाइए. "मनीष संतुष्ट हो गया.
"हां, तो उन दिनों पास के इलाके में एक शेर आ गया. लोग बड़े परेशान थे. कभी किसी की बकरी उठा ले जाता. कभी किसी का बच्चा. "
"शेर को किसी ने मारा नहीं?"
"वही तो बताने जा रहा हूँ. "शमीम ने खाली प्याला मेज पर रखते हुए कहा.
"आपके पिताजी तो इतने अच्छे शिकारी थे. वह. शेर मारने नहीं गए. "विजय ने पूछा.
"ह़ा, वह इलाका हमारे पिताजी की जमींदारी में आता था. इसलिए सभी लोग पिताजी के पास पहुंचे. "शमीम ने विजय की बात का जवाब न देकर कहा.
"फिर, पिताजी शेर मारने गये?"मनीष ने पूछा.
"पिताजी तो शेर मारने जाते ही. लेकिन, सारे नौकर शायद ऐसे ही मौके की तलाश में थे. सभी पिताजी से कहने लगे कि लखीराम मुफ्त की तनख्वाह पाते हैं, उन्हें शेर मारने भेजा जाए. "
"लखीराम का तो दम ही निकल गया होगा. "राबर्ट ने हँसते हुए कहा.
"हां, लखीराम की बुरी हालत थी. पिताजी भी नौकरों को नाराज नहीं करना चाहते थे. उन्होंने लखीराम को शेर मारने के लिए नियुक्त कर दिया. "
"लखीराम शेर मारने गये?"रीताजी ने उत्सुकता से पूछा.
"जब आज्ञा मिली तो जाते ही. "शमीम ने कहा.
"सब नौकर खुश हो रहे होंगे. ?"मनीष ने पूछा.
"हां, वह तो होते ही. अगले दिन शिकार की पूरी तैयारी की गई. लगभग ग्यारह लोगों का दल शेर मारने चल दिया. शेर के इलाके में पहुंच कर, उस स्थान पर मचान बना लिए गये जहां शेर के आने की सम्भावना थी. "कहकर शमीम ने एक गहरी सांस ली. सभी को शमीम की बातों में आनंद आ रहा था.
"पूरी तैयारी के साथ पिताजी लखीराम के साथ बीच वाले मचा न पर बैठ गए. साथ ही सभी नौकरों से कह दिया कि लखीराम ही शेर मारेंगे. तुम लोग गोली मत चलाना. "
सभी दम साधे शमीम की बात सुन रहे थे.
"लखीराम मचान पर चढ़ तो गये. लेकिन, जनवरी की शाम को भी वह पसीने में लथपथ थे. पिताजी को लखीराम की स्थिति का पूरा अनुमान था. लेकिन, वह चुप थे. उन्होंने लखीराम को बंदूक संभालने की आज्ञा दे दी. बंदूक लखीराम के हाथ में कांप रही थी. लेकिन, पिताजी अपनी रायफल संभालें पूरी तरह सतर्क थे. कुछ ही देर बाद पास की झाड़ी में सरसराहट हुई. इसके साथ ही शेर गरजा. लखीराम के हाथ से बंदूक छूट गई, मुँह से चीख निकल गई. लेकिन, पिताजी ने लखीराम की चीख को अपनी रायफल की आवाज से दबा दिया. "
"शेर का क्या हुआ?"मनीष ने उत्सुकता से पूछा.
"पिताजी की रायफल की गोली से शेर मर गया. सब लोग मचान से उतर कर शेर के चारों ओर इकठ्ठे हो गए. सब को एकत्रित देखकर पिताजी बोले-"लो भाई, लखीराम ने शेर मार दिया. अब लखीराम को इनाम मिलेगा. "
"लेकिन, रीता जी ने कुछ कहना चाहा.
"लेकिन, एक नौकर रईसा बहुत चालक था. बोला-"गुस्ताखी माफ हो साब, लखीराम को एक धोती भी इनाम में दे दें. उनकी धोती मलमूत्र से खराब हो गई है. "कहकर शमीम चुप हो गए.
सभी के ठहाके गूंज उठे.
"चाचाजी, मजा आ गया. "मनीष उठते हुए बोला.
"सच!"कहते हुए शमीम ने मनीष का माथा चूम लिया.
सभी नाश्ते की मेज से उठ गये.
2
शिकार पर जाने की पूरी तैयारी हो चुकी थी. मनीष था कि मनाने में नहीं आ रहा था.
अजीत सिंह ने आखिरी बार प्रयत्न किया"देखो बेटे, इस बार मान जाओ. अगली बार हम तुम्हें अवश्य ले चलेंगे. "
"पिताजी आप हर बार ऐसे ही कह देते हैं. "मनीष ने रोते हुए कहा.
" ले चलो अजीत. "शमीम ने मनीष को जिद करते देखकर कहा.
"बच्चू, लखीराम की तरह पेंट गीली कर लेंगे. "राबर्ट ने सोचा मनीष नाराज होकर शिकार पर जाने का इरादा छोड़ देगा.
"कोई कुछ भी कहे मैं अवश्य जाऊंगा. "मनीष अपनी जिद पर अड़ा रहा.
"जब इतनी जिद कर रहा है तो ले जाइए न . "रीता जी ने कहा.
"अच्छा मनीष, तैयार हो जाओ. 'विजय ने अपनी रायफल की जांच करते हुए कहा.
मनीष ने एक बार अपने पिताजी की ओर देखा. फिर अपने कमरे की ओर भाग गया. जब वह वापस आया तो पूरी तरह तैयार था.
सभी आवश्यक सामान नेतराम ने जीप में रख लिए तो अजीत सिंह बोले"अच्छा, अब चला जाये. "
"हां, हां, क्यों नहीं . "विजय ने अपनी बेल्ट कसते हुए कहा.
"यात्रा शुभ हो. "सभी को जाते देख रीता जी ने मनीष का माथा चूम लिया.
जीप घर्र की आवाज के साथ आगे बढ़ गई.
इस समय सभी एकदम चुप थे. जीप अच्छी गति से भाग रही थी. मनीष को यह चुप्पी अच्छी नहीं लग रही थी. उसने चुप्पी तोड़ने के उद्देश्य से पूछा, " शमीम चाचाजी अभी कितनी दूर जाना है?"
"बस छक्के छूट गये. "राबर्ट ने मनीष को चिढ़ाते हुए कहा.
"चाचाजी शिकार करुं तब देखिएगा. "मनीष ने थोड़ा ऐठते हुए कहा.
"किसका शिकार करोगे ?"
"जिसका आप करेंगे. "
"हम तो शेर मारेंगे. "
"आप सोचते हैं कि मैं शेर को देखकर डर जाऊंगा. "
"मैं सोचता हूँ कहीं तुम्हारी लखीराम वाली हालत न हो जाये. "राबर्ट ने कहा तो जीप में बैठे सभी लोग हँस पड़े.
'"राबर्ट चाचाजी से मैं नहीं बोलता. "मनीष ने मुँह फुलाते हुए कहा.
'अरे भतीजे, तूम रुठ गए तो मैं अनाथ हो जाऊंगा. "राबर्ट ने रोनी सूरत बना कर कहा तो मनीष बिना हँसे न रह सका.
"सच चाचाजी, आपसे जीता नहीं जा सकता. "
"अब हुई न बात, "कहते हुए राबर्ट ने मनीष की नाक पकड़ कर जोर से दबा दी.
मनीष की चीख निकल गई.
"राबर्ट, बच्चे को क्यों तंग करते हो?'विजय जो काफी देर से चुप बैठा था बोल पड़ा.
"बच्चे के ताऊ, तुम्हारी नाक की भी मालिश कर दूँ. "राबर्ट ने विजय की ओर मुड़ते हुए कहा.
'जिराफ जी, अगर अपनी नाक की मालिश की होती तो चौखटा चिकना न होता. "शमीम ने कहा तो सभी हँस पड़े.
"अरे भाई, नाक तो इनकी लम्बी थी. मालिश करते -करते घिस गई. "अजीत सिंह भी राबर्ट की छोटी नाक की मजाक बनाने लगे.
'"अगर आप लोग जायदा पीछे पड़ेंगे तो मैं शेर नहीं मारूंगा. "राबर्ट ने झल्ला कर कहा.
"लेकिन शिकार तो जंगली सूअर का करना है. "विजय ने कहा.
"मैं सूअर को बता दूंगा यह सब तुम्हारे दुश्मन हैं. "राबर्ट ने धमकी दी.
"साथ ही यह भी बता देना कि तुम उसके संबंधी हो. "अजीत सिंह ने कहा तो जीप में हँसी के फब्बारे फूट गये.
यों ही हँसते -हँसाते वे अपनी मंजिल पर पहुंच गये. बातों में समय का कुछ पता ही न चला. अजीत सिंह ने जीप रोकी तो सभी लोग जीप से बाहर निकल आये. नेतराम जीप से सामान बाहर निकाल ने लगा. शमीम, विजय और राबर्ट जगह का निरीक्षण करने लगे. अजीत सिंह नेतराम और डंबरलाल को आवश्यक हिदायतें देने लगे.
मनीष सबको व्यस्त देख आसपास का निरीक्षण करने लगा. बड़े -बड़े वृक्षों के नीचे छोटी -छोटी झाड़ियां. जंगली मगर खूबसूरत फूल. मनीष प्राकृतिक सौन्दर्य में खो गया. फूलों पर मड़राती तितलियां उसके मन को छू गई. एक पेड़ पर लदे गुलाबी फूलों पर ढ़ेरों तितलियां थीं. वह उसी ओर बढ़ गया. एक अधखिले फूल पर काले रंग की पीली चित्तीदार सुदंर तितली मंडरा रही थी. उसका मन ललचा गया. वह अपने आप को रोक सका. उसके पांव धीरे धीरे तितली की ओर बढ़ने लगे.
जैसे ही वह तितली के पास पहुंचा उसने अपनी हथेली तितली के ऊपर रख दी. तितली सतर्क थी. उसने जोर से पंख फड़फडाये और उड़कर दूसरे फूल पर बैठ गई. मनीष ने देर नहीं की. वह भी दबे पांव वहां पहुंच गया. लेकिन तितली उसकी पकड़ में नहीं आ रही थी. कभी उड़कर इस पेड़ पर बैठ जाती कभी उस पेड़ पर. लेकिन मनीष भी हार मानने वाला नहीं था. वह अपने आप को झाड़ियों से बचाता हुआ तुरंत तितली के पास पहुंच जाता.
मनीष को तितली के पीछे भागते हुए बहुत देर हो गई थी. वह थक गया था. अंत में उसने हाथ बढ़ाकर एक तेज झपट मारी. मनीष का यह प्रयास भी व्यर्थ गया. तितली एक तेज उड़ान के साथ ऊंची उड़ गई. मनीष ने तितली को ढ़ूंढने के लिए चारों ओर दृष्टि डाली. तितली का कहीं दूर दूर तक पता नहीं था.
वह निराश होकर वापस चल दिया. काफी भट़कने पर भी उसे पिताजी और चाचाजी कहीं दिखाई नहीं दिए. वह घबरा गया. उसने रूक कर सही दिशा का अनुमान लगाने की कोशिश की. काफी प्रयत्न के बाद भी उसे सफलता नहीं मिली. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह तितली के पीछे किधर से आया था.
तितली का पीछा करते हुए वह होश खो बैठा था. उसे सही दिशा का एहसास ही न रहा. उस समय उसे तितली के सिवाय कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था. मनीष अपने आप को कोसने लगा.
वह मन ही मन सोच रहा था, आखिर क्या जरूरत थी तितली का पीछा करने की. इतनी सुनसान जगह उसे नहीं आना चाहिए था. जंगली जानवरों का खतरा वैसे ही है.
व्याकुल हो मनीष वहीं जमीन पर बैठ गया. उसका मन हो रहा था कि वह फूट फूट कर रोये. विवशता में उसकी आँखों में आँसू आ गए. उसने अपना सिर दोनों घुटनों के बीच छिपा लिया. काफी समय यूंही गुजर गया. आखिर उसे ध्यान आया-इस तरह रोते रहने से कोई लाभ नहीं. उसे पता था अंधेरा होते ही खूंखार जंगली जानवर घूमने लगेंगे. भय से वह कांप उठा और सही दिशा का अनुमान लगाकर आगे चल दिया.
चलते -चलते मनीष केपैर दुखने लगे. छोटी झाडियों और कांटों से उसके पैर जख्मी हो गए थे. काफी देर चलने के बाद भी मनीष अपने साथियों से न मिल सका. अंधेरा घिरने लगा था. काफी लम्बा रास्ता मनीष ने तय कर लिया था. अभी तक उसे पिताजी या और कोई दिखाई नहीं दिया था. अब उसकी आशा निराशा में बदलने लगी थी.
प्यास से मनीष का गला सूखने रहा था. भूख भी लगने लगी थी. चारों ओर अंधेरा घिरने लगा था. अब उसे अपने साथियों से मिलने की आशा समाप्त हो गई थी.
उसने एक गहरी सांस ली. अब वह ऐसा स्थान ढ़ूंढने लगा जहां रात गुजार सके. रातभर जंगली जानवरों से बचे रहना आवश्यक था.
एक लम्बी दूरी तय करने पर मनीष को रोशनी दिखाई दी. उसने राहत की सांस ली. रोशनी अवश्य ही किसी घर से आ रही होगी. वह एक रात रूकने की अनुमति मकान मालिक से मांग लेगा. यह सोचते हुए मनीष तेजी से रोशनी की दिशा में बढ़ने लगा. धीरे धीरे मनीष और रोशनी के बीच की दूरी कम होती गई.
अब दूर टिमटिमाती रोशनी और मनीष के बीच की दूरी न के बराबर रह गई थी. मनीष की आँखें खुशी से चमक उठीं. सामने झोपड़ी को देखकर उसने अपने सूखे होठों पर जीभ फेरी. एक बार उसने चारों ओर देखा और फिर झोपड़ी के दरवाजे पर पहुंच गया. फूस की झोपड़ी एकदम खुली थी. मनीष एकदम अंदर नहीं घुसा. उसने बाहर से हु अंदर झांककर देखा. झोपड़ी एकदम खाली थी. लेकिन एक पत्थर पर रखा दीया जल रहा था.
मनीष ने देर नहीं की वह झोपड़ी के अंदर घुस गया. लेकिन तुरंत ही उसे अपनी नाक पर रूमाल रख लेना पड़ा. झोपड़ी में तेज दुर्गंध भरी हुई थी. दुर्गंध किस चीज की है मनीष जान न सका. वैसे भी इस समय मनीष को पानी की खोज थी. उसने झोपड़ी मे चारों ओर नजर दौड़ाई. दीए के पास ही एक घड़ा रखा था. मनीष ने सोचा शायद इसमें पानी होगा. वह घड़े की ओर बढ़ गया. उसका विचार सही था. घड़ा पूरी तरह पानी से भरा था उसने पानी पीने के लिए कोई बर्तन ढूंढना चाहा, लेकिन उसे ऐसी कोई चीज नहीं दिखाई दी जिससे वह पानी पी लेता. प्यास के मारे उसका गला सूख रहा था.
उसने व्यर्थ के झंझट में पड़ना उचित न समझा. नाक से रूमाल हटाकर जेब में रख लिया. दोनों हाथों में पानी भरकर होठों से लगा लिया. पानी पी कर उसने राहत की सांस ली.
पानी पीकर मनीष की प्यास तो बुझ गई, लेकिन अब भूख जोर मारने लगी. वह झोपड़ी में खाने की कोई वस्तु खोजने लगा. खाने की कोई वस्तु मिलने की आशा मनीष को कम ही थी. फिर भी उसने प्रयत्न कर लेना उचित समझा. झोपड़ी के एक कोने में कोई अधखाया जानवर पड़ा था. पास ही हड्डियाँ पड़ीं थीं.
हालाँकि मनीष ने नाक को रूमाल से ढंक रखा था फिर भी इस ओर दुर्गंध इतनी तेज थी कि रूकना मुश्किल हो रहा था. जब दुर्गंध असहनीय हो गई तो वह वापस जाने के लिए मुड़ा.
(क्रमशः अगले भाग में जारी....)
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