शादी कब हुई? कहानी संग्रह - रतन लाल जाट

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कहानी- पत्नी रतन लाल जाट तुम जल्दी से खाना बना दो। आज कपड़े क्यों नहीं धोये? तुम इतना-सा काम भी नहीं कर सकती हो। इस तरह के सवाल लगभग सभी पति...

कहानी- पत्नी

रतन लाल जाट

तुम जल्दी से खाना बना दो।

आज कपड़े क्यों नहीं धोये?

तुम इतना-सा काम भी नहीं कर सकती हो।

इस तरह के सवाल लगभग सभी पति अपनी-अपनी पत्नियों से किये बिना नहीं रह सकते हैं और वे इन सबका पालन करती हैं। न चाहकर भी इनको ऐसे कई काम करने ही पड़ते हैं। इन सब कामों के प्रति इनका मन हो या न हो और किसी कारण से अक्षम हो। फिर भी ऐसा कोई नहीं, जो इनके कार्य में अपना हाथ बँटाये।

वह पास आकर कहती है, आपके लिए भोजन तैयार है। आज मेरा सिर बहुत दर्द कर रहा है। इसलिए आप स्वयं खाना खा लीजिए। तो पति का सिर चक्कर खाने लगता है, तुम्हारा सिर दर्द करने लगा है। यूं क्यों न कह देती है कि मैं अपना हाथ नहीं लगाना चाहती हूँ।

उसका सिर कब का दर्द के मारे फट्टा जा रहा था?परन्तु यह उसका दूसरी स्त्रियों की तरह प्रण है कि कुछ भी हो। चाहे सिर फट जाये या तेज बुखार आये। लेकिन खाना तो बनाना ही है। कौन है जो उसकी बात पर यकीन कर कहे कि तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं थी, तो रहने दो?

इसके विपरीत केवल यही सुनने को मिलता है कि यह रोज-रोज की बकवास है। जो कामचोर होते हैं, तो यही सबसे बड़ा बहाना ढूंढ लेते हैं।

वह पूरे दिन इस इन्तजार में थी कि वो जल्दी आ जाये, तो अच्छा होगा। जल्दी से अस्पताल जायेंगे। लेकिन उन्होंने तो आते ही झगड़ा करना शुरू कर दिया था। फिर यह कौन पूछे कि चलो कुछ दवा ले लो, कुछ आराम होगा। फिर हम खाना खाकर अस्पताल चलेंगे।

पति को गुस्से में देखकर वह सहम जाती है। बिना कुछ कहे चुपचाप अपने कमरे में चली जाती है। ऐसा लगता है कि अब एक कदम भी चला नहीं जा सकता है और ना ही खड़ा रहना संभव है।

गुस्से का भी अपना कुछ निश्चित समय होता है। इसके बाद खुद को ही इसका पश्चाताप भी होने लगता है। तो थोड़ी देर बाद पति का भी गुस्सा खत्म हो गया और दूसरे कमरे की तरफ देखा, तो वह बुखार से बेहाल होकर नीचे फर्श पर लेटी हुई थी। अब उसे यह महसूस होने लगा कि मुझे इसकी बात भी थोड़ी सुन लेनी चाहिए थी। वह कुछ भी कह नहीं पाया था, बस, अबोध बच्चे की तरह मूक बन खड़ा था। उसने मुँह दूसरी ओर होने पर भी महसूस कर लिया था कि वह अब पश्चाताप की अग्नि में जल रहे हैं। अब बहुत देर भी हो गयी है, अस्पताल भी बन्द हो गया होगा। यदि ये खुशी से मुझे ले जाना चाहेंगे, तो कल सुबह चले जायेंगे। रात वैसे भी कितनी बड़ी होती है?

उसने भी शायद यह सोच लिया था। जब तक पत्नी कुछ बात करेगी नहीं, तब तक मैं जगह से हिलूँगा नहीं। और उधर थी अर्द्धांग्नी। बिना कहे-सुने भी सब कुछ समझ गयी और बोली- अब सिर थोड़ा कम दर्द कर रहा है। अगर कोई और काम नहीं हो, तो कल सुबह चलेंगे। पर सच कह रही हूँ। पूरे दिन सिर फटा जा रहा था। और आप आते ही,

कहते-कहते वह रो पड़ी थी। पति का मन किया कि इसे सीने से लगा लूँ और कह दूँ कि अभी चलो अस्पताल। ज्यादा कुछ देर नहीं हुई है। पर अब इतना कह पाने की भी हिम्मत ना बची थी।

कुछ देर दोनों मौन रहे थे। फिर उसका इशारा पाकर वह अपने बिस्तर पर चला गया। थोड़ी देर बाद उसे लगा था कि उसे नींद आ गयी थी। पर उसे खुद को नींद नहीं आ रही थी। बहुत देर हो गयी थी बिस्तर पर लेटे हुए। उसे याद आने लगा था कि पत्नी पति या बच्चे के थोड़ा कुछ अस्वस्थ होने पर भी खुद अपने आप को भूलकर दौड़-धूप करने लगती है और जब कभी इसे कुछ हो जाता है, तो किसी को इसकी बात सुनने तक की फुर्सत नहीं होती है। यह सब पर जान लुटाती है और सब इसकी जान तक की भी परवाह नहीं करते हैं।

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कहानी- शादी कब हुई?

रतन लाल जाट

इस बार अपनी कक्षा में प्रथम स्थान लेकर आयी है मुन्ना। विद्यालय के प्रतिभावान छात्र-छात्राओं में अपना नाम लिखवा दिया है। उसके प्रिय गुरू का सपना है कि- एकदिन वह आई ए एस बनेगी। यदि भगवान ने चाहा तो।

अपनी सहेलियों के साथ-साथ लड़कों के प्रति भी उसका व्यवहार उत्तम है। वह सबके साथ आदर्श सहपाठी बनकर रहती है। उसे सभी ने हमेशा हँसते हुए देखा है। चाहे कितना भी गम आये। मगर उसकी अमिट मुस्कान हमेशा दूसरों को भी हँसने की याद दिलाती है।

उसके पिताजी के कोई लड़का नहीं हुआ। बस, चारों ही लड़कियाँ थी। इन लड़कियों में सबसे छोटी लड़की है मुन्ना। परिवार के सब लोगों को लड़के की बेसब्री से चाहत थी। लेकिन भगवान ने मुन्ना को भेजा था। जो दिखने में आज भी लड़के जैसी है। कारण बचपन से ही उसका लड़का ही मानकर पालन-पोषण किया है।

लम्बी-पतली, गेहूँआ रंग तथा सशक्त आवाज के साथ मधुर हँसी और खुले हुए बिखरे छोटे बाल। जो अब धीरे-धीरे लड़कियों के बालों की तरह बनने की कोशिश में हैं।

मुन्ना का भी सपना है कि- वह पढ़-लिखकर अपने माँ-बाप का नाम करे। कभी अपने पिताजी को बेटा न होने का दुःख न हो। इसीलिए वह लड़के की तरह रहकर अपने माँ-बाप की सेवा करना चाहती है।

एकदिन उसने अपने अध्यापकजी से पूछा- “सर, दसवीं बाद आगे मैं कौनसा विषय लूँगी?”

“जिस विषय में तुम्हारी ज्यादा रूचि और पकड़ हो, वही विषय। क्यों?”

“मुझे तो आपकी विषय हिन्दी ही पसन्द है। इसीलिए मैं आगे हिन्दी ही पढ़ूँगी।"

“कोई बात नहीं। विषय कोई भी हो। हम किसी भी विषय को लेकर अपनी मंजिल पा सकते हैं। चाहे वह विषय सरल हो या बहुत कठिन। बस, उस विषय में हमारी रूचि और लगाव होना जरूरी है।"

थोड़ा रूकने के बाद अध्यापकजी ने मुन्ना को ज्यादा चिन्तित न होने के लिए कहा- “मुन्ना! तुम अभी से यह चिन्ता मत करो। जब तुम दसवीं टॉप श्रेणी से उत्तीर्ण होगी। उसके बाद ही हम आगे की सोचेंगे। अभी तो तुम्हारे लिए सभी विषय महत्त्वपूर्ण हैं।"

मुन्ना अपने अध्यापकजी की प्रत्येक बात की पूरे मन से स्वीकार करके जीवन भर गाँठ बाँध लेती है। कभी भी उसने अपने गुरू की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया है। इसीलिए वह अपने गुरू की प्रिय शिष्या है। अनुशासन, आज्ञापालन के साथ सत्य-अहिंसा, सहयोग और दया-दान आदि गुण उसमें देखने को मिलते हैं।

जब एकदिन बातों ही बातों में अध्यापकजी ने बाल-विवाह विषय पर चर्चा की। तब किसी के कहने पर पता चला कि- मुन्ना की शादी हो गयी है। मुन्ना से पूछने पर जवाब मिला- “सर, मुझे तो पता नहीं है कि- मेरी शादी कब हुई? लेकिन कहते है कि- मैं तीन-चार साल की थी। तब ही मेरी शादी कर दी गयी। मेरी बड़ी बहिनों के साथ ही। कारण अलग से दुबारा विवाह का खर्च कौन वहन करे?”

“सच ही, मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा है।" यह कहते हुए अध्यापकजी ने दाँतों तले अंगुली दबा दी।

धीरे-धीरे मुन्ना को सब कुछ पता चल गया कि- शादी कहाँ हुई और किसके साथ? वह अपने सास-ससुर आदि को पहचानने लग गयी थी। अब उसे अपने ससुराल के नाम से ही चिढ़ होने लगती है। यदि कोई बात छेड़ता है। तो वह यही कहकर बात काटने की कोशिश करने लगती है- “मेरी शादी नहीं हुई है। अभी तो कई साल बाकी है। जब शादी होगी। तो तुम्हें बताऊँगी जरूर।" यह बात दूसरों को मजाक लगती। मगर थी सच।

कई दिनों के बाद उसकी सहपाठी छात्राओं से ज्ञात हुआ कि- मुन्ना का होने वाला पति मात्र छठी उत्तीर्ण है। क्योंकि सातवीं में अनुत्तीर्ण होने के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी। जो अब बाहर कहीं दूसरों के यहाँ काम-धन्धा करने के लिए गया हुआ है।

इस बात की खबर जब मुन्ना के कानों में पहुँची। तो उसने थोड़ा नाराज-मुद्रा में आकर कहा-

“रेखा! तू जानती है मेरे पति को। यदि तुझे कहीं मिले। तो मुझे भी बताना। कैसा है वह ? मैं भी देखूँगी।"

रेखा ने बात को तूल देते हुए कह दिया-

“मैं भी नहीं जानती हूँ। लेकिन मेरी बुआ ने यह सबकुछ बताया था।"

तब मुन्ना ने उसे चिढ़ाते हुए कहा- “मुझे भी तो पता है कि- तुम्हारी शादी भी कब की हो गयी है?”

“अरे! तुमने यह अपवाह कहाँ से सुनी है? बताओ, तुम्हें किसने कहा है?”

“मुझे भी मेरी बुआ ने कहा था और कौन कहेगा?” यह कहकर उसने बात को आखिर तक पहुँचाया।

इस तरह कभी-कभी उसका सहेलियों के साथ मधुर झगड़ा हो जाता है। बात फीकी पड़ने के बाद फिर साथ खेलना-कूदना, पढ़ना-लिखना आदि कार्य शुरू हो जाते थे।

अचानक तन्द्रा टूट गयी थी अध्यापकजी की। जो अपनी नौकरी के शुरूआती समय के इस विद्यालय की बीती स्मृतियों में खो गये थे। उन्होंने तुरन्त कर्सी से उठकर मन ही मन कहा- “इस तरह यह बाल-विवाह रूपी दानव भी कितने जनों के सपनों को खा जाता है? जब तक इसको जड़-मूल से न उखाड़ा जायेगा। तब तक समाज के विकास की बात करना कोरी कल्पना ही होगी।

थोड़ी देर वापस वो पुस्तक हाथ में लेकर पढ़ने का मानस बनाने लगे। तभी न जाने किस क्षण वो अर्द्धचेतन अवस्था में जा पहुँचे।

जब मुन्ना दसवीं में पढ़ रही थी। तब ही उसके ससुर ने उसके पिताजी पर यह कहकर दबाव बनाना शुरू किया कि- आप लड़की को ना पढ़ायें? हमारे यहाँ कोई काम करने वाला नहीं है। खूब पढ़ ली है। ज्यादा पढ़ा-लिखाकर इन्दिरा गाँधी बनाओगे क्या? आजकल पढ़ाई में कुछ सार नहीं है। न नौकरी मिलने की आशा है और उल्टा असर यह होता है कि- ज्यादा पढ़-लिख जाने के बाद न समाज को मानते हैं और न हमको। फिर आपका और मेरा सिर ही नीचा होगा। मेरी बात की गाँठ बाँध लो। सोलह आने सच है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ।

उसके पिताजी ने उनको येन-केन प्रकारेण समझाने की कोशिश की। मगर उन पर कोई असर नहीं हुआ और एकदिन यहाँ तक कह दिया कि- हमें नौकरी करने वाली बहू नहीं चाहिये। यदि आप इसकी पढ़ाई नहीं छुड़ाते हो। तो हमारी रिश्ता आज ही तार-तार हुआ मान लीजिये।

मुन्ना के पिताजी ने पुराने समय में पाँचवीं तक की पढ़ाई की थी। लेकिन उससे भी ज्यादा उनका अनुभव है। इसीलिए आज वो शिक्षा का महत्त्व अच्छी तरह जानते हैं। लेकिन इस समय वो खुद दुविधा में फँस गये थे कि- क्या करें? एक इस रिश्ते में ही नहीं। इसके साथ कई रिश्तों में दरार आ जायेगी।

इसके बाद वो विद्यालय में आये और सभी अध्यापकों को अपनी पीड़ा बतायी थी। तो सब ने यही कहा कि- आप पहले अपनी बेटी से भी पूछ लीजिये। उसे क्या स्वीकार है?

जब मुन्ना को बुलाया गया। तो वह अपने प्रिय गुरूजी के पास आकर रो पड़ी और इतना ही कह पायी थी-

“सर! आप जो भी कहोगे। वह मानने के लिए मैं तैयार हूँ।"

वह पहला वक्त था। जब उन अध्यापकजी ने मुन्ना की आँखों में आँसू देखे थे। उनका रोम-रोम काँप उठा था। फिर उनकी शिष्या को हृदय से लगाकर पूरा विश्वास दिलाया था- “अगर मुन्ना तुम्हें यह सबकुछ स्वीकार नहीं है। तो अपने पिताजी के सामने हाँ भर दो और कह दो कि- मेरा कुछ और ही सपना है।"

लेकिन मुन्ना देर तक रोने के सिवाय और कुछ न कह सकी। यह सब कुछ देखने के पश्चात उसके पिताजी सभी अध्यापकों के सामने निडर होकर कहने लगे-

“गुरूजी, सच ही मैंने बहुत भारी गलती की है। उन बेटियों के साथ मुन्ना का विवाह करके। लेकिन अब इस गलती का परिणाम झेलने को भी मैं तैयार हूँ। चाहे सारे रिश्ते टूटे या बने। लेकिन मैं अपनी बेटी का भविष्य कभी नहीं बिगड़ने दूँगा। उसके सपनों को साकार करने के लिए जी-जान लगा दूँगा।" कहते-कहते हुए वह गंभीर हो उठे थे। उस वक्त सभी गुरूजनों ने उन्हें हिम्मत प्रदान करके कभी हार न मानने की सलाह दी थी।

फिर उसके पिताजी ने इतना ही कहा था- “आप अपनी इस बेटी को सही राह दिखाकर जिन्दगी जीने का तरीका सीखाना। मैं आपका लाख-लाख आभारी रहूँगा। जब आप इस लड़की को मेरी वारिश संभालते हुए घर चलाने की शक्ति दोगे।"

इतने में ही अध्यापकजी को किसी ने आवाज दी और वह अपनी यथार्थ की दुनिया में आ पहुँचे। फिर उनको मन में इस बात की खुशी हुई कि- मुन्ना की जिन्दगी तबाह होने से बच गयी थी।

वही मुन्ना आज कॉलेज में लेक्चरर के पद पर अपनी सेवाएं दे रही है। जब मुन्ना के इस पद पर चयनित होने की खुशखबरी उन अध्यापकजी को मिली थी। तब उनकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा था और मिठाई का डिब्बा लेकर खुद मुन्ना के घर जा पहुँच गये थे बधाई देने।

घर पहुँचने पर उन्होंने अपनी चेहती शिष्या को देखते ही अपने गले से लगाकर पीठ थपथपाते हुए कहा- “मुन्ना तुमने तो सचमुच ही मेरा सपना साकार कर दिया है। "

“सर! यदि आप मेरे पिताजी को नहीं समझाते और मुझे वो सपना दिखाकर मंजिल तक पहुँचने में निस्वार्थ-भाव से सहयोग नहीं करते। तो मैं आज इस जगह होने के बजाय………"

उस समय मुन्ना अपने आपको न रोक पायी और अपने आदर्श गुरूजी की बाँहों में सिर रखकर रोने लगी थी।

वही दृश्य आज उनकी आँखों के सामने साकार हो उठा था और खुशी से आज पुनः उनकी आँखें नम हो गयी थी। तब उनके मुँह से अनायास ही यह निकल गया कि- मुन्ना! सचमुच तुमने प्रेरणास्पद काम करके बड़ा ही नाम किया है।

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कहानी- घर से बाहर

रतन लाल जाट

शंकर अभी तक सोया हुआ था। सुबह के आठ बज चुके थे। कमरे के अन्दर सूर्य की किरणें प्रवेश कर चुकी थी और छत के ऊपर पक्षी चहचहा रहे थे। बाहर गली में लोगों का आना-जाना शुरू हो चुका था। बस-स्टैंड की तरफ से गाड़ियों के हॉर्न की आवाजें साफ सुनायी दे रही थी।

बी.ए., बी.एड. के साथ हिन्दी एम.ए. करने के बाद सरकारी नौकरी की तलाश में आकर शहर में पढ़ाई कर रहा है। साथ ही प्रतिदिन दो-तीन घण्टे कोचिंग भी जाता है।

शंकर के साथ उस मकान में अलग-अलग कमरे में चार-पाँच अन्य लड़के भी रह रहे थे। उन लड़कों में सबसे छोटा लड़का दसवीं कक्षा में, तो सबसे बड़ा लड़का कॉलेज तथा अन्य दो-तीन लड़के बिना किसी विशेष उद्देश्य के कोई न कोई नौकरी हासिल करना चाहते हैं। इसलिए यहाँ आकर पढ़ाई कर रहे हैं।

“शंकर! तू अभी तक नहीं उठा है। चल उठ, हम चाय बनाकर पीते हैं।”

“नहीं, थोड़ी नींद और निकालने दे। अभी दिन उग गया है क्या?” करवट बदलते हुए शंकर ने कहा था।

नारायण शंकर के ही गाँव का रहने वाला है। जो अभी कॉलेज में हैं। दोनों एक ही कमरे में न रहकर अलग-अलग कमरे किराये रखकर पढ़ाई कर रहे हैं।

सभी के लिए रसोई एक ही जगह है। जहाँ सब अपनी-अपनी बारी के अनुसार चाय-खाना-सब्जी आदि बनाते हैं। कभी कोई एक चाय समय पर नहीं बनाता है। तो पूरे दिन रोटी-सब्जी आदि पर भी रोक लग जाती है या फिर कहीं कोई भोजन-निमंत्रण का इन्तजार होता है।

“तुमने अभी तक चाय नहीं बनायी है। ”

“तू तो सोया हुआ था। मैं चाय बनाकर क्या करता? थोड़ा पढ़कर वापस सोने की कोशिश की। लेकिन नींद नहीं आयी थी। इसलिए तुझे उठाया है।”

“सुबह-सुबह तो नींद बहुत अच्छी आती है और तुझे नींद नहीं आयी, क्या बात हुई है?” शंकर ने थोड़ा चिन्तित होते हुए कहा। तो नारायण ने बताया था कि- आज उसका ट्युशन जाना बंद हो जायेगा। कारण- दो महीनों की फीस बाकी है। अब उसे क्लास में नहीं बैठने दिया जायेगा। घरवाले आर्थिक तंगी में है। फिर भी अपने सपनों को साकार करना चाहते हैं। इसीलिए अपने इकलौते बेटे को शहर में पढ़ा रहे हैं।

दूसरी तरफ शंकर के पापा सर्विस में है। रूपये-पैसे का कभी कोई अभाव महसूस नहीं हुआ था। महीना होते ही शंकर कम से कम पाँच-सात हजार रूपये लड़-झगड़कर पढ़ाई के नाम पर पापा से छिन लेता है। इतना कुछ करके भी वह कोचिंग क्लास सप्ताह में एकाध बार ही जाता है और फीस पूरी देता है।

हाँ, एक बात और है कि शंकर को किताबें पढ़ने के बजाय खरीदने का शौक ज्यादा है। इसके अलावा और भी ढ़ेरों शौक है। जैसे- फिल्म देखना, सिगरेट पीना, बस-स्टैंड पर चक्कर काटना, नास्ता-वास्ता होटल इत्यादि।

नारायण के माँ-बाप की तरह शंकर के माँ-बाप का भी कुछ सपना है। लेकिन नारायण की तरह शंकर का कोई खास सपना नहीं है। शंकर कभी-कभी अपने साथियों को कहा करता है- “पढ-पढ़कर मैं थक गया हूँ। किस्मत होगी, तो नौकरी मिल जायेगी। नहीं, तो कितना भी पढ़ो, कुछ नहीं हो सकता।”

शंकर बिस्तर को समेटे बिना ही कमरे से बाहर निकला। हाथ-मुँह धोने के बाद चाय पीने के लिए स्टूल लगाकर बैठ गया। नारायण चाय लेकर आया, तब जाकर वह स्टूल से उठकर बाहर बाजार गया। वहाँ से कुछ सामान खरीदकर लाया। उसके पहले देखा, तो नारायण रात की बची हुई रोटी खा चुका था। लेकिन शंकर ठंडी रोटी खाने के बजाय भूखा रहना ज्यादा पसंद करता था।

“बहुत पढ़ लिया है। तू सब कुछ आज ही पढ़ेगा क्या? खाना कौन बनायेगा?”

नारायण पढ़ता हुआ किताब बन्द करके खाना बनाने के काम में जुट गया था।

रोटी सेकते हुए थोड़ा गंभीर होकर वह बोला- “तुम्हारे पास पैसे हो, तो थोड़े मुझे उधार दे दो। अगले महीने घर से मँगवाकर तुम्हें वापस कर दूँगा॥ आज मुझे ट्युशन फीस देनी ही है। वरना आज ट्युशन भी नहीं जा सकूँगा।”

“मेरे पास भी इतने रूपये नहीं है। मैं तेरे घर फोन कर देता हूँ। जो व्यवस्था करके रखेंगे। तो मैं दिन में गाँव जा रहा हूँ। उसके साथ ही लेता आऊँगा।”

“तो फिर आज मुझे कमरे पर ही रहना पड़ेगा।”

“हाँ, इसमें क्या बात है? एकदिन ट्युशन नहीं जाने से क्या नुकसान हो जायेगा?”

यह उपदेश देने के बाद शंकर अपने मोबाइल को हाथ में लेकर सहलाने लग गया। नेट चलाना, डॉउनलोड करना और ऐसे-वैसे फोटो-वीडियो देखना ही उसका शौक है।

इस मोबाइल ने शंकर की तरह कई लड़कों को आगे बढ़ने के बजाय पीछे धकेलने में अपना अहम योगदान दिया है। इसने रहन-सहन और आचार-विचार के साथ अश्लीलता, असभ्यता तथा अनगिनत गलत आदतों को जन्म दिया है।

उस वक्त शंकर के भविष्य पर प्रश्न-चिन्ह लग चुका था। जब वह कम्पीटिशन देते-देते पैंतीस पार निकल गया था और एक भी सफलता हाथ न लगी थी।

अब वह मैं कुछ भी कर सकता हूँ, जैसे कार्यों को अन्जाम देने की तलाश में रहने लगा था। इस बीच दोस्तों से झगड़ा, चोरी-डकैती और आवारागर्दी करने से बाज नहीं आया। अन्त में इन सबके जुर्म में सलाखों के पीछे जा पहुँचा था। इतना कुछ हो जाने के बावजूद माँ-बाप को भनक तक न थी।

एकदिन जब माँ ने यह सुना था कि- शंकर घर के बाहर रहते-रहते क्या से क्या हो गया? तो माँ के पैरों तले की जमीन खिसक गयी थी या यूँ कहे कि- उसके सारे सपने टूट गये थे। इन सपनों के साथ-साथ वह खुद अपने को टूटने से नहीं बचा सकी थी।

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कहानी- दो बच्चे

रतन लाल जाट

‘आह ! मैं जल गया। चमड़ी तो जली ही, दिल भी दहक गया। क्या गर्मी है और क्या लू? अभी जेठ या जून की शुरूआत हुई है। धरती जल रही है सूरज की आग के मारे।’

यह शब्द हरकिसी के मुँह से अनायास ही निकल जाते थे। ऐसे समय बस्ती से दूर एक सुनसान लम्बा-चौड़ा मैदान हो, जैसे विस्तृत जगह फैली हुई है। वहाँ पर ठाकुर भीमसिंह के नया राजनिवास बनाया जा रहा है। कोई दो-तीन बरस गुजर गये थे। मगर बहुत सारे कारीगर-मजदूर आये और चले गये तथा उनकी जगह और दूसरे आते गये। यह सिलसिला चलता ही रहा।

किसी ने दीवारें ने बनायी, तो किसी ने दरवाजे और किसी ने छत इत्यादि। इस तरह काम चल रहा था और होली के बाद अब एक चौथाई काम ही शेष बचा है। जो अब तक जारी है।

आज मुख्य कारीगर ने भीमसिंह की खाट के पास आकर कहा, “ठाकुर साहब! अब आप हमारा हिसाब कर दीजिये।”“इतनी क्या जल्दी है? रूपये चाहे, जो ले जा। लेकिन काम बन्द नहीं होना चाहिए।”भीमसिंह की धीरे, लेकिन कर्कश आवाज सुनकर वह थोड़ा भयभीत हुआ। फिर भी उसने कलेजा मजबूत करके कहा,“मालिक! ऐसे गर्म मौसम में मुझे मजदूर नहीं मिल रहे हैं।”

“नहीं, ऐसा तुम नहीं कर सकते हो? अभी कहाँ है गर्मी और तुम तो मुख्य कारीगर हो। कारीगर क्या गर्मी से डरता है?”

“नहीं, मालिक! बात यह नहीं है। बाकी के मजदूरों की पगार मिल जाये, तो मेरी कोई चिन्ता ना करे। मुझे चाहे तो बाद में देना या………”

इस तरह भीमसिंह की सारी ही तरकीबें असफल हो गयी थी। फिर अंततः कार्य ठप्प होकर ही रहा और उधर नयी-नयी आयी ठकुराइन भीमसिंह को जल्दी कार्य पूरा करवाकर नया दरबार सजाने आदेशों की बौछार करती रहती थी। उसका कहना था कि- पहली बरसात से पहले हर हाल में यहाँ नया चुल्हा जलाकर उद्घाटन करना ही है।

“मकान की नींव सही नहीं रखी। इसीलिए पूरे देशभर के मजदूर आ गये। फिर भी रति-भर काम तक नहीं हो सका। हाय राम! अब कैसे होगा यह सब? देवशयनी एकादशी से पहले निवास बनाना है।”

अपनी रानी की बात कानों में पड़ते ही ठाकुर ने सिर पर हाथ रखकर कुछ सोच-विचार करने का नाटक करते हुए बोले, “यह तो मैं भी सोच रहा हूँ।”

“मालूम है, तो फिर आप……”

“तुम्हें नहीं मालूम कि मैंने न जाने कहाँ-कहाँ तक छानबीन कर ली। नया ठेकेदार बुलवाने के लिए। लेकिन कोई मिला तक नहीं।”

“लेकिन क्या ? तुम कल मेरे भाई साहब को मायके सूचना भिजवा दो। फिर देखना, काम चंद समय में कैसे होता है?”

यह शब्द सुनकर थोड़े ताव में आकर वह बोले,“तुम्हारे मायके से मुझे क्या जरूरत है? मेरा कार्य वो लोग करेंगे। अब बकवास करने के बजाय दस-पन्द्रह दिन बाद देखना कि- इतना जल्दी कैसे काम पूरा करवा दिया ठाकुर ने।”

भीमसिंह की यह गंभीर बात सुनकर वह थोड़ी मुस्कुरायी और कहने लगी, “ठीक कहते हो, तो मैं मान जाती हूँ। लेकिन मुझे ताज के जैसा सुन्दर निवास-स्थल ही चाहिए।”

यह कहकर वह पिछली स्मृतियाँ याद करके अपनी ख्वाहिश जताने लगी,“जब मैं कुँआरी थी। तब मेरी सबसे प्यारी सहेली थी। जिसका नाम था राधा और मैं तारा……”

थोड़ा रूकी और अपनी साड़ी को ठीक करते हुए फिर कहने लगी, “हम दोनों ने भगवान से प्रार्थना की थी कि- हमारी शादी बड़े घर-परिवार में हो और हमारा राजा सचमुच राजा हो।”

वह सुनाती रही। लेकिन कब ठाकुर साहब खिसक गये? पता ही न चला? तो उसने अपनी बात को यही विराम दे दिया और मन ही मन सोचने लगी। ऐसे शहंशाह बहुत कम होते हैं। क्या भरोसा कि- वह सपनों के महल भी ढ़हने से न रोक सके। यह सोचकर वह थोड़ी दुःखी महसूस करने लगी। उस समय उसकी साड़ी का रंग बेनूर जान पड़ रहा था और हाथों में चम-चम करती चुड़ियाँ भी।

वस्त्राभूषण से सज्जित तारा सचमुच रानी ही लगती थी। उसकी आँखें लम्बी-तिरछी और काले रंग की। जो उसके गौर-वर्ण मुख पर सरोवर में खिले कमल की याद दिलाती थी। वहीं दूसरी तरफ जब कभी उसके घने काले-केश साड़ी से बाहर निकलते। तो उमड़ते हुए आषाढ़ के बादलों के समान लगते। तारा लम्बे कद की और सुड़ौल तन-बदन। इतना ही कहा जा सकता है कि- तारा धरती की तारा न होकर आसमान का चमकता हुआ कोई तारा हो।

अपने दिये वचन को निभाने के लिए राजा ने जैसे-तैसे करके वापस मजदूर-कारीगर बुलवाकर कार्य शुरू करवा दिया। कल देर रात तक बस्ती को छान मारा। जो कहीं और मजूरी कर रहा था। वो अब ठाकुर के यहाँ आ धमका।

जब ठाकुर की आवाज सुनायी दी कि- “अरे! सुखिया। तू सुनता नहीं है। मैं ठाकुर, थोड़ा इधर आ।”

अपनी पुरानी कोठरी से भयभीत होते हुए वह बाहर खुशी जाहिर करता हुआ आकर हाथ जोड़कर ठाकुर के चरणों में नतमस्तक हो गया। जो फटी-मैली धोती और ऊपर पुरानी-संकड़ी बनियान पहने था।

तुरन्त उसे आदेश मिला, “कल से तुझे काम पर आना है। तेरे साथ घरवाली भी आनी चाहिए। मुझे तुम दोनों के अलावा और दो मजदूरों की जरूरत है। जो तेरे ही जिम्मे हैं।”

अब सुखिया के लिए इनकार करना नामुमकिन था। वह कुछ बोले। उसके पहले ही जाते-जाते ठाकुर ने कहा, “तुम सबकी मजदूरी सीधे तेरे कर्ज से घटती रहेगी। बस, काम करते रहना है तुझे।”

यह कहकर ठाकुर साहब तो चले गये। लेकिन अब सुखिया को हजारों मुश्किलों ने डसना शुरू कर दिया। वह अकेला ही बड़बड़ाने लगा- “कल तो मुझे दूसरी जगह पर जाना होगा। नहीं तो कार्य बाकी रह जायेगा और फिर मुझे मजूरी भी नहीं मिलेगी। अधूरा काम करके मजूरी प्राप्त करना टेढ़ी-खीर है। अगर मैं यह काम छोड़ ठाकुर के यहाँ चला जाऊँ। तो भी घरवाली तो नहीं आ सकती। वह कई दिनों से बीमार चल रही है और ठाकुर………”

यह चिन्ता उसके लिए आगे कुआँ पीछे खाई बन गयी। क्या करे? क्या न करे? फिर मन मसोसकर वापस नीची गर्दन कर अपनी कोठरी में घुस गया। पत्नी के पूछने पर उसने वेदना सुनायी, “मेरा तो कुछ नहीं। काम करने से मैं नहीं मरने वाला हूँ। लेकिन तू और ये दोनों बच्चे?”

तभी सुखिया की पत्नी ने इसी बात को विस्तार से कह डाला, “घर पर न और कोई है। जो इन्हें संभाल सके और अभी मुझे मजदूरी पर जाने में डर लग रहा है कि- कहीं मैं वापस…….”

“हाँ, मुझे मालूम है। मैं ऐसा नहीं करने देता। मगर………”

“मेरी चिन्ता छोड़ो। रामू को कौन रोकेगा इधर-उधर दौड़ने से और कालू दिनभर दूध के लिए रोता रहेगा। यह ठाकुर को नहीं दिखता?”

“बड़े लोगों को अपनी आँखों से इतनी छोटी चीजें नजर नहीं आती है। इनको क्या मालुम कि- उनके कुँवर के तरह ही हमारे भी बच्चे हैं। उनके तो घर से बाहर नहीं निकल सकते और ये बच्चे?”

सुबह जल्दी ही सुखिया जग गया था या कहे कि- रातभर चैन से नींद तक नहीं आयी थी उसे। थोड़ी ही देर में उसने एक पड़ौसी किशोर लड़के श्यामा के कान भर उसे पत्नी सहित काम पर आने के लिए तैयार कर लिया।

फिर चारों जनों ने दस्तक दी ठाकुर की देहलीज पर। सूर्य निकलता हुआ हँस रहा था अपने लाल-लाल मुँह से। उधर पहली बार इतना लम्बा-चौड़ा मैदान देखकर दोनों बच्चे खुशी से नाचने-कूदने लगे।

आते ही सुखिया और श्यामा ईंटे ऊठाने लगे। तो उन दोनों की पत्नियाँ रेत में सीमेन्ट पानी मिलाकर फावड़े से एक करने लगी। जैसे आटे में नमक मिलाकर पानी डालकर गूँथते हैं।

इधर कारीगर अपना रौब जमाते हुए कहने लगे- जल्दी करो। अभी तक ईंटें ऊपर नहीं चढ़ा सके। दो जने और कहाँ है?

“नहीं, वे नीचे माल-मसाला बना रही हैं” श्यामा ने यह कहकर उन लोगों के क्रोध को ठंडा करने का प्रयास किया।

“ तो जल्दी करो? नहीं तो अभी थोड़ी देर में नानी याद आ जायेगी।”

कुछ समय के बाद कारीगर चाय-पानी पीकर पुनः काम में लग गये और मजदूर भी बारी-बारी से आवश्यक सामान पहुँचाने लगे। सुखिया ईंटे ऊपर चढ़ाता। तो श्याम रेत की टोकरी और स्त्रियाँ पानी की बाल्टियाँ।

“ईंटे भीगो ना।”

“सींमेन्ट थोड़ी ज्यादा मिलाना।”

“पानी थोड़ा कम डालो।”

कारीगरों के इन प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार करते हुए मुक बनकर मशीन की तरह काम में जुट गये। पता ही नहीं चला कि- कब दिन के बारह बज गये। सुखिया की पत्नी मन ही मन सोचने लगी- अभी तक रोटी का नाम नहीं है। हम तो सह लेंगे। क्या बच्चे भी भूख सह लेंगे? बार-बार वह अपने से ही प्रश्न कर रही थी।

थोड़ी देर और इन्तार किया कि- रोटी बनती ही होगी। जब उसे कुछ संभावना नहीं लगी। तो वह दौड़ी-दौड़ी रसोई के बाहर आँगन में जाकर आँखों ही आँखों से खाना के लिए माँग करने लगी। तो ठकुराईन तपाक से बोली, “क्या बात हुई? कुछ कहना हो। तो ठाकुर साहब से ही कहो। मेरे हाथ में क्या है?”

डरती हुई उस मजदूरिन ने कहा, “कुछ नहीं कहना। मैं तो केवल रोटी माँगने आयी हूँ।”

“अरे! अभी इतनी जल्दी भूख लग गयी है। घर से खाकर ही आना चाहिए। अभी तो सब्जी तक नहीं बनी है। यहाँ हमेशा की तरह ही काम होगा। आज तेरे आते ही हमें जल्दी खाना बनाना पड़ेगा? कुछ भी हो, एक बजे से पहले तो खाने का सवाल ही नहीं उठता।”

“रात का बचा हुआ खाना हो तो। मेरे बच्चे भूख के मारे चिल्ला रहे हैं। न सुबह से दूध पीया और न ही कुछ…………” फिर आगे वह कुछ कहने की हिम्मत न कर सकी और दबे पाँव वापस लौटकर जल्दी-जल्दी से अपना काम करने लगी।

उसके जाते ही तारा तेज स्वर में उसे ही सुनाते हुए कहने लगी, “मुझे क्या मालुम था? पूरा घर ही आ गया है। काम पर बच्चों को थोड़े बुलाया है?”

सुखिया के बच्चे फटे-पुराने कपड़े में अपने तन को तो ढ़के हुए थे। लेकिन पैरों में कुछ न था और गर्म धूल पर दौड़ रहे थे नंगे पाँव। मानो जलते अंगारों पर कोई करतब दिखा रहे हो।

मजदूर माँ-बाप के बच्चे कंकड़ और धूल-मिट्टी से अपने सपनों की नवीन कलाकृतियाँ बनाने में इतने लीन थे कि- भूख भी भूल गये थे। बड़े होकर क्या ये बच्चे भी सुखिया की ही तरह मजदूर बनेंगे?

थोड़ी देर बाद यह सब कुछ देखने के बाद तारा के मन पर जमी हुई बर्फ पिघल गयी और वह रात की बची रोटियाँ के दो-चार टुकड़े लेकर आते ही सुखिया की पत्नी को इशारा करके सौंप दिये। बिना कुछ कहे-सुने। तुरन्त उसने रोटी के टुकड़े लपककर रामू और कालू की तरफ दौड़ी और धीरे-से उन्हें पुकारने लगी, “कालू! ए रामू! नहीं सुनते। देखो, यह खाना लायी हूँ। तुम दोनों जल्दी से खा लो। यहाँ आओ। नीम की छाया में बैठकर खालो। बाहर धूप में क्या कर रहे हो?

तब अपनी माँ के हाथ में रोटी देखने के बाद उन दोनों बच्चों की सोयी हुई भूख जाग उठी और तुरन्त दौड़कर धूल भरे हाथों ही खाने बैठ गये।

“ले कालू”

“हाँ, इतनी ही है।”

“पहले इतनी खा, फिर और दूँगी।”

इस तरह समझाते हुए वह अपने बच्चों को खाना खिलाने के बाद अपने काम में लग गयी। पता ही न चला और फिर एक बजे ठकुराईन ने रोटी खाने के लिए आवाज दी। तो सब काम को जहाँ का तहाँ विराम देकर बैठ गये खाने के लिए। पहले कारीगरों को, उसके बाद मजदूरों को खाना परोसा गया। हाथ में रोटी और कटोरी में छाछ। चटनी रोटी के ऊपर ही धर दी।

सब खाना खा रहे थे। तब उनके पास खेलते हुए बच्चे, जिनके कपड़े तेज हवा के मारे हिल रहे थे और वो तेज धूप में जोर-जोर से साँसे भर रहे थे। उस समय सबकी नजरें उन्हीं के ऊपरी टिकी हुई थी।

“ए सुखिये! तेरे ये बच्चे मारे धूप के मर जायेंगे। इतनी धूप में वहाँ दूर क्या कर रहे हैं?” ठाकुर भीमसिंह ने थोड़ा रूकने के बाद आगे कहना शुरू किया, “ए छोकरो! इधर आओ। क्या नाम है तुम्हारा? यहाँ छाया में बैठो।” इस तरह करूणा के पात्र बच्चों पर अनायास ही करूणा आ ही गयी।

ठाकुर को देख पहले तो दोनों बच्चे डरे-से लगे। फिर सुखिया के हँसकर बुलाने पर कालू भी जोर से हँसा और रामू का हाथ पकड़कर उनके पास आ गये।

उन बच्चों को गौर से देखने पर ठाकुर को मालूम हुआ कि- ये नंगे पाँव है। तो दयालुता से कहा, “ये बच्चे नंगे पाँव हैं? क्या इनके पाँव जलते नहीं और काँटे भी नहीं चुभते ?" और आगे कुछ कहने के लिए उनके पास और शब्द नहीं थे। तब एकदम स्तब्ध होकर कहीं खो गये-से लगे।

यह जानकर सुखिया ने ठाकुर की स्तब्धता भंग करने के लिए अपनी जबान चलायी, “आप इन बच्चों की चिन्ता न करे। ये कभी बीमार तक नहीं हुए। कालू पाँच का हो गया और रामू सात का। भगवान को पता है कि- यदि ये बीमार हो गये। तो इनके इलाज हेतु एक कौड़ी लगाने वाला भी कोई नहीं है। इसीलिए धूप और गर्मी इनके लिए आनन्ददायक है।”

थोड़ा रूककर वह फिर अपना प्रवचन देने लगा, “बड़े लोगों के बच्चों को न जाने क्या-क्या बीमारियाँ होती रहती है? फिर भी डॉक्टरों को धन्यवाद है, जो इन हजारों बीमारियों का उपचार चुटकियों में कर देते हैं।”

सुखिया का चेहरा देखते ही रह गये ठाकुर और दूर आँगन में खड़ी ठकुराईन दोनों ही।

बातों ही बातों में आधा घंटा बीत गया। फिर सब अपने काम में लग गये। अपने माँ-बाप के जाते ही बच्चों ने ठाकुर से नजरे चुराकर भाग जाने की कोशिश की। तभी कड़ककर ठाकुर ने स्नेह की बौछार करते हुए कहा, “यहीं बैठकर खेलो। भूख-प्यास लगे। तो मुझे कह देना।”

बच्चों को भी बहाना चाहिए था। थोड़ी ही देर बाद कालू ने खाने की याद दिलायी रामू को और रामू ने चुपके-से जाकर सोये हुए ठाकुर साहब को नींद से जगाते हुए कहा, “भूक लाग री। लोटी दो।”

रामू की आवाज ने उनकी गहरी नींद को चुटकी में उड़ा दिया और तुरन्त वो उठे और अन्दर रसोई की तरफ चल दिये।

“ओ रानी! तुम्हें थोड़ी भी रहम आती है कि नहीं। देख! बाहर सुखिया के बच्चे रोटी माँग रहे हैं। उनको रोटी ले जाकर दे।”

यह कहकर ठाकुर कहीं गुम हो गये। थोड़ी देर बाद जब वह अपने दोनों हाथों में नये-पुराने छोटे-छोटे कुर्ते, हा-पेन्ट, जब्बा-पायचामा इत्यादि लेकर आते दिखाई दिये। तो ठकुराईन अपने को रोक न सकी और कहने लगी, “आप इन कपड़ों को कहाँ ले जा रहे हो?”

“यह कपड़े हमारे कुँवर के हैं। वह अब नहीं पहनता। इसीलिए मैं ये कपड़े सुखिया के इन बच्चों को देने के लिए लाया हूँ।”

यह सुनकर तारा बिना कुछ बोले चल दी। मानो नाराज हो। उसकी नाराजगी भाँपते हुए ठाकुर ने बड़बड़ाना शुरू किया, “तुझे अपने बच्चे ही प्यारे लगते। ये भी उनके जैसे ही बच्चे हैं………”

कपड़े देखकर बच्चे फूले नहीं समा रहे थे और झूम-झूमकर गाते हुए शायद भगवान से यही दुआ कर रहे थे कि- ठाकुर साहब के कुँवर को भी हमारे जैसे ही नीरोगी और दुर्घायु प्रदान करे।

समय रोके कब रूकता है? इस तरह आज का उदय हुआ सूरज पश्चिम में जा पहुँचा था अस्त होने को। तब कारीगरों और मजदूरों को छुट्टी हो गयी। जब कालू को घर ले जाने के लिए उसकी माँ ने गोद में उठाया और रामू का हाथ पकड़ चलने लगी। तब पीछे से ठकुराईन ने आवाज देकर उसे रूकने को कहा। जब उसने मुड़कर देखा। तो तारा हाथ में लिए दो जोड़ी जूते लिये थी।

सुखिया की पत्नी ने लेने से इनकार किया। तो उसने मीठी धमकी देते हुए कहा, “ये जूते मैं कहीं बाजार से थोड़े ही खरीदकर लायी हूँ। अपना कुँवर अब इन्हें नहीं पहनता है। इसीलिए तुम अपने बच्चों को पहनाओ। वरना कल काम पर मत आना।”

चुपचाप उसने लेकर अपने बच्चों को पहनाते हुए कहा, “लो, जल्दी से दोनों जूते पहन लो। वरना रानी जी मारेगी।”

तब रास्ते में बनी हुई पानी की टंकी के नीचे दोनों बच्चों को नहलाकर सुखिया की पत्नी ने उन कपड़ों में से नये कपड़े चुनकर पहना दिये। नये कपड़े पहनकर दोनों बच्चे बहुत खुश होकर उछलते-कूदते हुए अपने घर की तरफ दौड़ पड़े।

उस समय सूर्य ढ़ल रहा था। उसकी लालिमा में दोनों बच्चों के कपड़े और सुन्दर लग रहे थे। उधर दूर खड़े भीमसिंह उन बच्चों को मन ही मन निहारते हुए मन ही मन विचार कर रहे थे कि- मैं सुखिया की मजदूरी ही उसके कर्ज में काटूँगा। श्यामा और उसकी पत्नी के साथ सुखिया की पत्नी को तो पगार देनी ही पड़ेगी। वरना ये अपना घर-बार कैसे चला पायेंगे?”

फिर चारों ओर अंधेरा फैल गया था दूर-दूर तक। कोई दिखाई तक न दे रहा था। बस, आसमान में उड़ते पक्षियों की कलरव ध्वनि के सिवाय कुछ भी सुनायी नहीं दे रहा था।

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कहानी- कपूत

रतन लाल जाट

मास्टरजी अपने विद्यालय में कोहिनूर का हीरा थे। उनके बिना प्रधानाध्यापकजी भी अपने आपको अकेला, बेचैन तथा असहाय महसूस करते थे। तो दूसरी तरफ नन्हें-मुन्ने बच्चों के लिए सचमुच ही भाग्य-विधाता थे मास्टरजी। तभी तो वे झुण्ड बनकर उन्हीं की राह निहारते थे और उनके गाड़ी से नीचे उतरने से पहले ही वे फूल पर मधुमक्खियों की भाँति मँडराने लगते थे।

मास्टरजी सचमुच में फूल थे या मानवीयता के अधिपति देवतुल्य महान् आत्मा। उन्हें देवता तो नहीं कह सकते, लेकिन मनुष्य रूपी देवता थे।

उनकी पोशाक शुरू से ही एक समान दिखाई देती थी। न मौसम प्रभावित करता था, न तीज-त्योहार और न कोई विशेष पर्व या अवसर। वह एकरूप थे अन्दर और बाहर दोनों तरफ से। वह धोती और कमीज ही पहना करते थे। यह न उनका विशेष बड़पन था और न ही दिखावा। बस, वह उनकी सादगी थी। एकबार उन्होंने बातों ही बातों में कहा था न जाने कब? यह तो मालूम नहीं है।

“जब मैं छोटा था। उस समय हाफ-पेन्ट और छोटा कुर्ता पहने हाथ में पत्थर की स्लेट के साथ खड़िया लेकर स्कूल में भेज दिया जाता था। फिर भी ज्ञान की देवी माँ शारदे सदैव उन लघु साधनों पर अति-प्रसन्न रहती थी। तभी तो एकबार जो भी स्लेट पर लिख दिया, वह मुख जुबानी याद हो जाता था। आज एक ही बात को सौ-सौ जगह कॉपियों में लिखने के बावजूद भी याद नहीं कर पाते हैं। केवल मात्र लिखते ही हैं। तो फिर इम्तिहान के वक्त रटने के लिए दिन-रात एक करते हुए अपनी होशियारी दिखाते हैं। लेकिन मैं तो इसे बहादुरी नहीं मानता हूँ।”

इस तरह उन्होंने अपनी पढ़ाई के दिनों की खूब चर्चा की थी। उनके अनुसार पहले लोग काफी मुसीबतों में थे। हमने यह बात उनके मुँह से सुनी थी। उन्होंने इसे न केवल देखा था, अपितु उसे पूरे आनंद के साथ अनुभव करते हुए झेला भी था। वो यादें उनके हृदय में आज भी सजीव है। वरना ऐसी छोटी-छोटी बातों से कौन अपने को दबाये रखना चाहेगा?

उन्होंने यह भी बताया था, “स्कूल से छुट्टी होते ही मैं पाँच किलोमीटर कुछ ही पलों में दौड़कर घर पहुँच जाता था और फिर समस्त खेती-बाड़ी के कामकाज में लग जाता था। रात को चिमनी या दीपक की रोशनी में पढ़ता था। सचमुच उसी तरह, जिस तरह दीपक एकनिष्ठ-भाव से जलता है। मैं भी पूरी तरह से मन लगाकर विद्या-भक्ति करता था। कहाँ कॉपी थी और कहाँ पेन? स्लेट पर लिख भी कितना सकते थे? इसीलिए मैं घर के बाहर दीवार या दरवाजे के पास लगे पत्थरों पर भी लिख डालता था। ऐसा पढ़ने-लिखने का शौक था।”

एक दिन मास्टरजी ने आजकल के अध्यापकों की विचित्र वेशभूषा और सुन्दर दिखने की बात पर कहा था, “जब मैं परीक्षा पास करके इन्टरव्यु देने के लिए गया। उस समय पहली बार मैंने अपने साथी का लम्बा-पूरा पेन्ट और संकड़ा-सा शर्ट पहना। साथ ही शर्टिंग भी की थी। मुझे काफी अजीब महसूस हुआ और शर्म-सी हुई। खैर, उनको सबकुछ अच्छा लगा था और मुझे सफलता हासिल हो गयी। किन्तु उस दिन के बाद मैंने फिर कभी पेन्ट-शर्ट न पहनने की ठान ली थी। क्योंकि उस दिन मुझे ऐसा लगा कि- जैसे मैं तन-मन दोनों से ही बन्दी हो गया हूँ। न हवा का प्रवेश और न ही कोई सहूलियत। बस, पसीने से लथपथ थे चिकने वस्त्र। क्या कहूँ? उस वक्त मैं अपने पिताजी के सामने भी न जा सका था।”

मास्टरजी को यहाँ पढ़ाते हुए पूरा एक दशक बीत गया था। सबकुछ बदल गया था। हर कोई क्या से क्या बन चुका था? लेकिन मास्टरजी के लिए सबकुछ वैसा ही था। चमड़े के जूते, सफेद चमकती धोती और कुर्ता। साथ ही वही हँसमुख चेहरा, मूँछे तथा चाँदी के घने तारों के समान बाल थे। उनकी स्थिरता बालों में भी दिखाई देती थी। एकबार कंघी करने के बाद पूरे दिनभर बिखरते नहीं थे।

न मालूम क्या हुआ कि- मास्टरजी ने इस बार विद्यालय शुरू होने के बाद से एक भी दिन कोई अवकाश न लिया था और न ही बेकार बैठे-बैठे समय निकालने में बहादुरी दिखाई। बस, वह आठों पीरियड पढ़ाते थे। इतने अन्तर्मन से कि- छूट्टी हो जाने का भी उन्हें पता नहीं चलता था।

वह केवल पढ़ाते ही नहीं थे। बच्चों को जीवन की हकीकत से रूबरू भी कराते थे। ताकि वह अपने आने वाली जीवन को समझकर पूरी तरह से परिचित हो जाये।

“सादा जीवन जीओ, व्यर्थ के आडम्बर मत पालो, सत्य पर अडिग रहो और चोरी-हिंसा-पाप आदि से घृणा करो। मधुर वचन बोलते हुए हमेशा खुश रहते हुए दूसरों को भी खुश रखें। चाहे कितना भी कष्ट हो या मौत भी सामने आ खड़ी हो। फिर भी स्वछंद हँसी ना भूलो।”

यह सब आदर्श हैं। लेकिन यह उनके लिए यथार्थ थे, जीवनाभूषण थे।

उन्होंने स्वयं इस जीवन-पथ पर चलते हुए दूसरों को भी चलना सीखाया था। तभी तो उनके कई शिष्य आज अच्छे नागरिक बनकर जीवन-यापन कर रहे हैं। वे आज भी मास्टरजी का गुणगान करते बाज नहीं आते हैं। यदि उन्हें उनके स्वप्न दर्शन भी हो जायें, तो वह उनके चरणा-स्पर्श करना न भूलेंगे।

लेकिन रक्षाबन्धन की छुट्टियाँ निकलने के तीन दिन बाद भी वो नहीं आये थे। तब जाकर मालूम हुआ कि- मास्टरजी बीमार हो गये हैं।

“अरे, ऐसा तो कभी हुआ ही नहीं है। इतने बरसों से मैं उनके साथ नौकरी कर रहा हूँ। लेकिन उनका बीमार होना तो दूर की बात है। उनका कभी भी सिर-दर्द तक न हुआ था।” यह शब्द प्रधानाध्यापकजी ने दृढ़ विश्वास के साथ कहे थे।

उन्होंने यह समाचार जैसे-तैसे मन को समझा-बुझाकर स्वीकार करते हुए कहा, “शरीर है, वह बीमार हो सकते हैं। लेकिन अवकाश पर रहें और हमें सूचना तक नहीं दें। यह मैं सपने में भी नहीं मान सकता हूँ।”

उस दिन विद्यालय-परिवार में सभी विद्यार्थियों के साथ शिक्षक-गण भी सकते में आ गये थे। तभी चिन्ता, उदासी और दुःख आदि भाव उनके चेहरे पर साफ-साफ झलक रहे थे। कारण अपने प्रियजन के प्रति तरह-तरह की आशंकाएँ।

अगले दिन सभी कक्षाएँ अपने-अपने कमरों में बैठ रही थी और अध्यापक-गण अपने कामकाज में लीन थे। तभी मास्टरजी के गाँव से सन्देश आया था किसी आदमी के साथ।

बाहर प्रवेश-द्वार पर यहीं के किसी युवक ने बताया था, “वो दिखाई दे रहा है। यही है स्कूल और कोई काम है, तो अन्दर जाकर मिल आइए।”

तभी प्रधानाध्यापकजी ने बरामदे में खड़े-खड़े ही ईशारा कर उस व्यक्ति को बुलाया।

“हाँ, आइए। आज कैसे आना हुआ। कहीं तुम रास्ता तो नहीं भूल गये हो।”

वह कुछ जवाब दे। उसके पहले ही उन्होंने आगे बात छेड़ दी।

“आज आपके मित्र-भाई तो आये नहीं हैं। कोई खास खबर हो, तो मुझे भी कह दीजिए। मैं कह दूँगा।”

यह सुनकर वह ठिठक गया। अपनी बात कहे। उससे पहले ही आँखें छलक गयी थी। तब प्रधानाध्यापकजी ने धीरज बँधाते हुए कहा, “कहिए, ऐसी क्या बात है। कोई लड़ाई-झगड़ा तो नहीं हो गया है?”

फिर उसने अपने-आप को संभालते हुए दिल मजबूत करके दो-चार शब्द बोलने का प्रयास किया, “मैं मास्टरजी के यहीं से आया हूँ और,और अब मास्टरजी नहीं रहे"………….कहते-कहते वह फूट-फूटकर रोने लगा था।

उधर प्रधानाध्यापकजी के पैरों-तले की जमीन खिसक गई थी। बस, भर्राती हुई आवाज में इतना ही कह पाये कि- “आप क्या कह रहे हैं? यह कभी नहीं हो सकता हैं। कहीं तुम पागल तो नहीं हो गये हो।”

कुछ ही पल में सभी अध्यापक आकर एकत्रित हो गये।

“क्या बात हुई? यह क्यों रो रहे हैं और आपका भी चेहरा उतर गया है।” यह प्रश्न उन सभी अध्यापकों का था।

उस आदमी ने दूसरे अध्यापकों के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए एकबार पुनः अपना दिल मजबूत करते हुए बताया था कि- अब मास्टरजी इस दुनिया में नहीं रहे हैं। ताकि किसी न किसी को इस बात पर यकीन हो जाये।

यह खबर सुनते ही सब जनों के मुँह से एक ही शब्द निकला था, “क्या? क्या कहा है आपने? मास्टरजी इस दुनिया में नहीं रहे। ऐसा कभी नहीं हो सकता……………”

इतनी-सी खबर सुनकर सारी कक्षाएँ चन्द-पलों में बाहर निकल आयी। प्रधानाध्यापकजी ने उन्हें समझा-बुझाकर अन्दर बैठाना चाहा। लेकिन बच्चे सबकुछ जान गये थे और नन्हें-मुन्ने आ-आकर अति-करूणामय ढंग-से पूछने लगे, “सर, क्या हुआ है? मास्टरजी के क्या हो गया है?”

इन शब्दों में किसी एक बाल-मन की वेदना न होकर सभी बच्चों का सामूहिक भाव था।

मास्टरजी का आकस्मिक देहान्त हो गया था। अभी तक उनका सेवाकाल तीन-वर्ष शेष बचा था। सरकारी नियमानुसार मृतक कर्मचारी के परिजनों में से किसी एक को योग्यतानुसार नौकरी लगाना था।

मास्टरजी के दो बेटे थे और पत्नी। इनके सिवाय और थी उनकी बुढ़ी माँ। उन्होंने अपने बेटों को पढ़ाने-लिखाने के लिए भरसक प्रयास किया । लेकिन ज्यादा कुछ न हो सका था।

तब वो कहा करते थे कि- एक वृक्ष की छाया में कितने ही पौधे बड़े होते हैं? चाहे वह दूसरी प्रजाति के ही क्यों न हो? और यदि उसके खुद के बीज पल्लवित न होंवे। तो कितनी दुखद बात होगी?

बड़े बेटे को तो उन्होंने मीठी-डरावनी धमकियाँ दे-देकर भी आठवीं तक पढ़ा दिया था। उसके बाद वह अगली कक्षा में पढ़ नहीं सका था। साथ ही पत्नी अलगाव रखने लगी थी और छोटा बेटा उसको ज्यादा प्यारा था, इसी कारण अति-लाड-दुलार से बड़ा हुआ था। तभी तो वह आठवीं तक भी नहीं पढ़ पाया था।

मास्टरजी अपने बच्चों की अयोग्यता पर बहुत व्यथित होते हुए कहा करते थे, “मेरे बेटों के बारे में लोग क्या सोचते होंगे? आम से बबूल कैसे पैदा हो गये हैं? कपूत कहते होंगे? लेकिन अब क्या हो सकता है? आम की छत्रछाया में पल-पोसकर अन्य पौधे भी परिवर्तित हो जाते हैं। बाहर से नहीं, लेकिन अन्दर से जरूर ही। इसके विपरीत जब आम के बीज को ऊसर-भूमि में ले जाकर बो दिया जाये। तब फिर उससे आम प्राप्त करने का स्वप्न देखना कोरा सपना ही होगा।”

“तुम्हारे लाडले तुम्हारे ही हैं। मुझे इनकी कोई जरूरत भी नहीं है। तेरे सपूत तुझे चारों धाम की यात्रा करायें, तो भी मुझे कोई दुख नहीं है। मुझे भी अपनी माँ के साथ रहकर उसके दुख-दर्द को बाँटना है। मैं हूँ जब तक मेरी माँ को तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है। उसके बाद……… भगवान ऐसा न करे, तो ठीक है। मेरी माँ को मेरे से पहले बुला ले।”

यह बात उन्होंने कई दिनों पहले ही जता दी थी। वह अपनी माँ की आँखों का तारा थे और माँ का स्नेह उनके जीवन में झरना बनकर हमेशा प्रवाहित होता रहता था। वह आजकल के बेटों की तरह अपनी पत्नी-बच्चों को लेकर अलग नहीं हुए थे। उनके भाई जरूर अलग रहते थे। इसके विपरीत उनसे उनके बच्चे और पत्नी अलग रहने लग गये थे।

तब मास्टरजी ने अपनी पत्नी से साफ कह दिया था, “तू अपने बच्चों को लेकर अलग रह सकती हो। लेकिन मैं अपनी माँ के साथ रहूँगा।”

हुआ भी यही। कई वर्ष बीत गये थे, लेकिन वह अपनी पत्नी से अलग ही रहे। कभी-कभी बेटों को कुछ बात समझाया करते थे कि- मैंने अपना कर्तव्य पूरी ईमानदारी से निभाया है, चाहे माँ हो या नौकरी।

उन्होंने पैसे का महत्त्व समझा था। इसीलिए कभी भी बेफिजूलखर्चा नहीं किया था। अपने घर-परिवार को चलाते हुए बहुत कुछ पूँजी इकट्टी कर डाली थी।

कई जनों ने कहा था, “ आप अच्छा मकान बनवा लो, जीप खरीद लो। बस, मौज करो।”

लेकिन उनकी सलाह मास्टरजी के लक्ष्यों से बहुत ही अलग थी। कभी-कभी वह अपनी योजना प्रकट करते हुए कहते थे, “नौकरी पूरी होने के बाद समाज-सेवा के लिए कोई अच्छा काम करूँगा। ताकि दूसरों का भला हो सके।”

साथ ही जमीन खरीदकर उसमें बाग लगाना और तरह-तरह की फसलें उगाना भी उनकी एक इच्छा थी।

एकदिन उन्होंने अपनी पत्नी को चेतावनी देकर कहा था, “ तू मेरी माँ को खाना तक नहीं देती है, सेवा करना तो दूर। तो याद रखना, मेरी सम्पति भी किसी और के नाम होगी।”

लेकिन भगवान को कुछ और ही मंजूर था। उनके सारे सपने अधूरे ही रहे गये थे।

मास्टरजी की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी तो उनकी आधी तनख्वाह और बैंक में जमा पूँजी ब्याज सहित उठाकर हवा से बातें करने लगी थी।

“मैं और मेरे बेटे के लिए यह बहुत है। हम जीयेंगे, तब तक यह पैसे खूब है। तो फिर मेरे बेटे नौकरी करके और क्या करें। उनको नौकरी की जरूरत नहीं है। साथ ही मैं जीवित हूँ, तब तक आयेगी आधी तनख्वाह पूरे साढ़े नौ हजार।”

उसको एक लाख रूपये एक अरब जितने लग रहे थे। किन्तु यह मालूम नहीं था कि- आज के इस जमाने में यह पैसे इने-गिने दिनों के लिए ही है और इन पैसों के पीछे मास्टरजी का त्याग, सेवा और संघर्ष आदि शामिल था।

उसको क्या मालूम है? उसको तो जाने कोई लोटरी मिल गयी हो या अंधे के हाथ बटेर। तभी तो उसने उनके मरते ही किसी चालाक साहुकार के चंगुल में आकर आँख बन्दकर रूपये उड़ाने शुरू कर दिये थे।

यह वही साहुकार था, जिसने मास्टरजी के जिन्दे-जी उनके घर की तरफ ताका तक न था और अब वह हमेशा आता है और चुपड़ी-चुपड़ी बातों में फँसाने की कोशिश करता है, “भाभीजी, आपके दो बेटे है। एक बेटे के यह मकान ठीक-ठाक है और छोटे के लिए मेरा गाँव के बीच वाली जमीन ले लीजिए। वो बहुत ही कीमती है, लेकिन मेरा हाथ तंग में है। इसीलिए मैं देना चाहता हूँ। वह भी केवल आपको। दूसरे तो लाखों देकर लेने की फिराक में आँखें गडाये बैठे है।”

“सच कहूँ, तो साहुजी! मैं भी इसी तलाश में हूँ। मैं तो हरकहीं जमीन लेने को तैयार हूँ। यदि आप मुझे गाँव में जमीन देते हैं, तो आपको मुँह-माँगी रकम दूँगी।”

साहू ने भी उसकी बात में बात मिलाकर कहा, “हाँ, बाईजी! मैंने भी यही सोचा था कि- पहले आपसे मिल लूँ।”

“ नहीं-नहीं, यह आपने बहुत ही अच्छा किया है। वरना मुझे ऐसा मौका और कहाँ मिलता?”

हँसते हुए साहू ने कहा, “मैं तो आपका ही हूँ। अपने तो अपनों के लिए ही काम आते हैं। परायों का क्या?”

“ठीक है, मैं कल ही आपको पैसे दे दूँगी। आप जो भी माँगोगे।”

“ अरे, भाभीजी! आपसे क्या ज्यादा लूँगा? दूसरे दस पेटी देने को बैठे है। लेकिन आपको आधे में भी देने को तैयार हूँ। मैं तो आफत में दे रहा हूँ। वरना ऐसा मकान बनाता कि- लोग देखते रह जाते। अब आप जरूर बनाना।”

यह सुनकर उसने घर बैठे गंगा आयी समझकर बिना सोचे-समझे हाँ भर ली थी।

दो-तीन महिने ही निकले कि- मास्टरजी की आधी से ज्यादा कमाई उठ गयी थी। उसने महानगरीय जमीन की कीमत यहाँ गाँव में दे डाली थी और मकान बना लिया। कुछ ही दिनों में। बात भी सच है कि- पैसे हो, तो पागल भी सबकुछ कर सकता है। इसके विपरीत कोई चाहे कितना ही होशियार हो, लेकिन कुछ नहीं कर सकता। इस तरह ऐश्वर्य के दिन आ गये थे। सोने-चाँदी के आभूषण, मकान और गाड़ी सबकुछ आ गया था। अब उसी नये मकान में वह अपने बच्चों के साथ रहने लगी थी और उनकी बूढ़ी माँ दूर उस पुराने मकान की कोठरी में। उसको अपनी बेटे की मौत का गहरा सदमा पहुँचा था। इससे वह बीमार पड़ गयी थी। लेकिन कौन उसकी देखभाल करे। कहाँ डॉक्टर? पानी पिलाने वाला भी नहीं है।

मास्टरजी के आज वहीं शब्द साकार हो गूँजते हुए सुनाई पड़ रहे थे- भगवान करे, मेरी माँ मेरे बाद न रहे, तो अच्छा है।

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कहानी- उर्वरा शक्ति

रतन लाल जाट

वह अपने घर आ गया था, पर उसके मन में एक ही बात अब तक अटकी हुई थी कि वह आज अचानक कहाँ चल दी, जो हररोज तो अपने घर यहाँ से आती-जाती है और पता नहीं, आज किधर से गयी है और क्यों? मुझे कुछ कहा भी नहीं। वरना हर छोटी-छोटी बात भी कहे बिना नहीं रह सकती है।

इस तरह सोच-विचार करता हुआ ही वह अपने घर लौटकर आ पहुँचा था, परन्तु उसके मन में यही एक बात अधूरी रह गयी थी कि वह आज कहाँ गयी और क्यों गयी? मुझे मिली क्यों नहीं?

फिर अचानक उसके मन में याद का एक झोंका आया और उसे बड़ी तसल्ली हुई। जब एकदिन उसने उसको कहा था कि तुमने मुझे अपने घर बुलाया ही नहीं था। क्यों बोलो? उस दिन तुम मुझे पहचान ही नहीं पायी थी मोबाइल पर। इसके जवाब में वह हँसकर कहने लगी थी, तुमने तो कहा था कि मैं दोपहर को आ जाऊँगा, परन्तु आये ही नहीं। पता है मैंने कितना इन्तजार किया था?

अचानक इन यादों के बीच उसे एक और याद आ गयी कि मैं उसे कॉल करके पूछ लूँ। वह कैसी है और कहाँ है? उसने जल्दी से जेब में हाथ डाला और मोबाइल निकाला। मोबाइल पर साफ-साफ सुनायी दिया कि आप जिस नम्बर पर कॉल करना चाहते हैं, वह अभी स्वीच ऑफ है या कवर क्षेत्र से बाहर है। यह सुनकर उसकी बेचैनी और अधिक बढ़ गयी थी। उसका मन करने लगा था कि अभी मैं वापस जाकर उसका पता लगाऊँ कि वह कहाँ है? अब तो मिलना ही होगा। फिर अपने आप से कहा, अगर वश में होता, तो कुछ ही पल में पहुँच जाता। पर यह बहुत मुश्किल है या फिर आज तो नामुमकिन ही है, क्योंकि मैं चाहकर भी उससे नहीं मिल पाऊँगा। अब तो कल ही मैं उससे मिल पाऊँगा।

फिर उसने दिल ही दिल में कहा, कोई बात नहीं, कल हम दोनों मिल ही जायेंगे| तब सारी बातें एक-दूसरे से कह देंगे। सबसे पहले मैं तो यही कहूँगा कि तुमने मुझे क्यों नहीं बताया कि आज मैं नहीं आऊँगी। कम से कम घंटों तक हजार बार राह तो नहीं देखता। मेरी तो जान ही निकल गयी थी। मैं तो हर छोटी से छोटी बात भी तुम्हें कहे बिना नहीं रह पाता हूँ। जब तक मैं तुम्हें पूरी बात कह ना दूँ। तब तक वो बातें अन्दर ही अन्दर मेरा दम घुटाती रहती है। जब आज तू हमेशा की तरह मुझे दिखायी नहीं दी थी, तो फिर मैं अपने आप को स्थिर कैसे रख सकता था? इसके अलावा भी मैं यह कहूँगा कि तुम बहुत ही निर्दयी हो। मैं तो हर पल चौबीसों घंटें तुम्हें याद करता रहता हूँ, पर तुम कभी भी एक पल मुझे याद नहीं करती हो।

तभी उसकी आँखों में उसकी तस्वीर उभर आयी और वह हँसकर कहने लगी कि सच ही मुझे तुम्हारी याद नहीं आती है। यह बात वह इतनी आसानी से कह देती है कि वह उसकी तरफ देखता ही रह जाता है। उसे खामोश देखकर वह थोड़ी सी मुस्कराती और फिर कोई दूसरी बात छेड़ देती है|

ऐसे हाल में वह अपने दिल ही दिल में कहता था,उसको भी मेरी ही तरह बहुत याद आती है, चाहे वो कितना ही छूपाये। जागते हुए और सोते हुए हर वक्त उसे निश्चित ही मेरी याद आती होगी। कई लोगों के बीच अचानक उसकी आँखों के सामने मेरी तस्वीर उभर आती होगी। फिर वह छिपकर आँखों से छलके आँसू पोंछकर हँस देती होगी और किसी को भी इसका कुछ पता भी नहीं चल पाता होगा। यह सब उसका अनुमान था, पर उसके लिए यकीन से भी बढ़कर था।

यह सोचते हुए उसे पता ही नहीं चला था कि बहुत समय हो गया है। ये यादें भी बड़ी हसीन हैं| कोसों की दूरियाँ मिटाकर अपने प्रिय को आँखों के सामने या दिल के भीतर तक खींचकर ले आती है। इनका भी अपना एक अलग ही मजा है| जो दूर हो, उससे आँखें बन्दकर मिल लो। दुनिया की कोई भी दीवार कभी भी रोक नहीं पायेगी।

तभी उसकी नजर मोबाइल की स्क्रीन पर जा अटकी| एक सन्देश था कि उसका मोबाइल अब कवर क्षेत्र में आ गया है। यानी अब वह कॉल करने के लिए उपलब्ध है। उसने एकबार पुनः मोबाइल उठाया और कॉल डायल किया| अरे! घंटी जा रही है, पर इतनी घंटियाँ जाने के बाद भी कॉल उठा क्यों नहीं रही है? ऐसा लगा कि अब आखिरी घंटी है। इसके बाद कॉल समय खत्म हो जायेगा। तभी उसकी आवाज सुनायी दी, हेलो! बस, इतना सा सुनकर उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। इस हेलो को सुनकर वह समझ गया कि यह उसकी वही चिर-परिचित आवाज़ थी। लेकिन इसके बाद उसने एक-दो बातें कही भी। लेकिन वह चुपचाप सुनती रही थी, कोई जवाब नहीं दिया| बस, वह उसकी हर बात तसल्ली से सुन रही थी। उसके बाद कॉल समाप्त हो गया।

कोई विशेष बातचीत नहीं होने पर भी आज उसे बड़ा सुकून महसूस हो रहा था। मानो उससे कोई घंटे भर बात हो गयी हो। दुनियाभर की कई बातें कर ली हो अर्थात सबसे मिलन हो गया हो। अन्त में उसने मोबाइल को धीरे से अपने होंठों से छुआ और उसे बहुत ही प्यार और सहजता से जेब में रखा। जैसे कोई माँ अपने बच्चे को बिछौने पर सुला रही हो।

पता ही नहीं चला। संध्या हो गयी थी और वह अपने रोज के कार्यों में मशगूल हो गया। पूरे जुनून और हँसी-ख़ुशी के साथ। मानों अभी-अभी सूर्योदय हुआ हो और वह मंदिर में भगवान के दर्शन कर अपने कर्मस्थल के लिए निकला हो। अन्य दिनों की तरह न कोई थकान है, न कोई उदासी। बस, चारों ओर खुशी ही खुशी। अब उसे अपने आसपास की सारी दुनिया हसीन और पूरी प्रकृति रंगीन नजर आने लगी थी। उसने सोचा कि कई दिनों से मैं कोई कविता नहीं लिख पाया हूँ। जबकि उसका बीज कब से दिल में छुपा हुआ था, पर अब तक बाहर अंकुरित नहीं हो पाया था। शायद आज उसे वो उर्वरा शक्ति मिल गयी थी, तो अब बीज अंकुरित हुए बिना कैसे रह सकता है?

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कहानी- देखना खिड़की के आरपार

रतन लाल जाट

एक लड़की हमेशा उसके घर के बाहर से गुजरती है। उम्र होगी लगभग तेरह-चौदह साल बाल ज्यादा लम्बे तो नहीं हैं पर सारे बालों को जूड़ा न करके आधे-आधे दो हिस्से में करके चोटी बना रखी थी। जो पतली होने के कारण ज्यादा लम्बी मालूम होती थी और हर समय उसके पीछे कानों के पास होकर गले में झूलती रहती थी। इससे उसके चेहरे का रंग श्याम दिखाई देने लगता था, जबकि उसका रंग साफ ही था।

अभी वो स्कूल जा रही है। उस खंभे के पास जाकर वो पीछे की तरफ देखेगी और वापस एक ऐसा बहाना करके चल देगी, जैसे उसने कुछ विशेष कारण से नहीं देखकर अनायास ही देख लिया हो। ऐसा शायद वह इसलिए करती थी कि कहीं रास्ते में आने-जाने वाले को कोई विशेष आकर्षण का कारण दिखाई न दे। पर उसे यह लगता था कि वह सिर्फ पीछे न देखती है और इसका कोई खास कारण भी है। वो उसके घर की खिड़की के अन्दर देखती है और खिड़की के अन्दर देखने का प्रयास करती है। सबसे बड़ी बात यह है कि अधिकतर या हररोज वह दिखाई भी देता है। उसे नहीं लगता कि ऐसा कोई दिन हो, जब वो उसे नहीं देखती और वह नहीं दिखा हो। उसे यह सोचकर बहुत दुख होता है कि कल मैं कहीं बाहर चला गया था। उस दिन भी शायद वो गली से होकर गुजरी होगी और मैं दिखाई ना दिया होऊँगा। तब उसे बहुत दुख हुआ होगा। काश! वो भी आज कहीं ओर चली गई होगी। यह सोचकर थोड़ी तसल्ली होती है।

लेकिन वह दूसरे दिन आकर अपनी छोटी बहिन या पास-पड़ोस के किसी बच्चे से यह पूछे बिना नहीं रहता, कल तुमने सुरैया को देखा था क्या? उसने मुझे कहा था कि कल मैं तुम्हारे घर आयी थी। तुम कहाँ थे?

जब उसे पता चलता कि बहन उसकी बात को पूरी तरह से सत्य समझ कर कहती है, वह नहीं आयी थी। भैया उसने तुमको झूठ क्यों बोला था? यह सुनकर उसे बहुत खुशी होती थी। मानो सच ही सुरैया उससे मिली हो और खूब बातें की हो। पूरी तरह खोजबीन करने पर उसे पता चलता था कि ज्यादातर जब वह घर पर नहीं होता, तो वह भी शायद कहीं बाहर रिश्तेदारी में चली जाती थी और यदि घर पर ही होती, तो भी इधर से शायद नहीं गुजरती थी। आखिर क्यों? वह कभी उससे कुछ कहता नहीं और ना ही वो कभी कुछ पूछती थी। तो फिर कैसे उसे मालूम हो जाता है कि आज वह घर पर नहीं है।

फिर वह सोचता है कि कुछ इसी तरह की स्थिति मेरी भी है कि जब सुरैया यहाँ से गुजरती है। तो कुछ समय पहले ही मैं उसका इन्तजार करने लग जाता हूँ, जबकि वो भी तो मुझे कुछ नहीं कहती है?

उसे हमेशा सबसे बड़ा दुख इस बात का होता है कि आखिर वो मुझसे कुछ भी बोलती नहीं है और क्यों मैं भी उसे कुछ नहीं कह पाता हूँ।

हर बार सोचता है कि उसको आते ही कहूँगा, सु-सु। जब वो देखेगी मेरी तरफ। तो मैं दूसरी तरफ देखने लग जाऊँगा और वो मुड़कर मुझसे कहेगी, तुमने मुझे बुलाया है। बोलो, क्या काम है? कहो।

फिर वह सोचता है कि मैं उसे कहूँगा कि तुम हमेशा मेरी तरफ क्यों देखती हो? तब वह कहेगी कि मैं तुम्हें नहीं देखती हूँ। तुम ही तो रोज मुझे यहाँ पर क्यों दिखाई देते हो और कोई काम नहीं है क्या? बोलो क्यों नारायण? अपने भाई से हाँ कराती।

सपने कभी खत्म नहीं होते हैं और शायद ही कभी पूरे होते हैं। बस, वह हर वक्त कोई न कोई बात सोचता ही रहता था कि सुरैया कल तीन बजे गयी थी। उसके साथ एक लड़की और थी। वह कौन थी? उसके बुआ की लड़की होगी या कोई और है।

आज सुरैया ने सफेद और पीले रंग के कपड़े पहन रखे थे बिल्कुल नये। कौन लाया है शायद उसके पिताजी लाये होंगे। क्या उनके साथ सुरैया भी गयी थी या नहीं और यदि गयी होगी, तो और क्या-क्या लायी है?

उसे इन सब प्रश्नों का जवाब चाहिए। वह बहुत बेताब है। लेकिन कौन दे इनके जवाब? हमेशा इसके दिल में ही रह जाते हैं। जैसे कोई फूल खिला और अगले ही पल मुरझा गया। ना जाने उसमें कैसी सुगंध थी और कैसी सुन्दरता?

जब वह हमेशा की तरह खिड़की की तरफ मुँह किये खड़े-खड़े बाहर की ओर देख रहा था। ताकि उसे वो जाती हुई दिखाई दे और पीछे मुड़कर देखे। तभी उसे पता चला की बहुत तेजी से चलकर या दौड़कर कोई आया है और उसके बिलकुल पीठ पीछे से चिल्लाकर किसी ने कहा, अरे! रोहन।

अचानक उसे लगा कि लड़की की आवाज़ है पर बहिन की नहीं है और ना ही उसे किसी परिचित लड़की की आवाज़ मालूम हुई। तब उसने पीछे मुड़कर देखा, तो सामने खड़ी थी सुरैया। हाथ में कुछ वस्तु छिपाये थी कमर के पीछे। वह उसे देखता है। तुरंत उसकी तरफ हाथ बढ़ाया ही था और वह वापस हँसती हुई भाग गयी।

रोहन की अचानक आँखें खुल गयी थी और उसे सपनों की रानी के खो जाने का बहुत ही दुख हो रहा था। उस वक्त उसके दिल का हाल क्या था? इस बारे में बता पाना बहुत मुश्किल है।

उसे लगा, मानो उसकी प्रिय दुनिया खो गयी है और तभी उसे दिखाई दी सुरैया। ठीक दरवाजे के सामने से गुजरी और वह दौड़ पड़ा। जैसे आज तो सुरैया को रास्ते में बाँह फैलाकर रोक लेगा और कहेगा कि सुरैया, रूको मुझे तुमसे बहुत-सी बातें करनी है। पर केवल इतना ही हुआ कि वह अपने दरवाजे पर जा पहुंचा, जब तक सुरैया खंभे के पास पहुँचकर मुड़ी। तो आशा के विपरीत उसने देखा कि दरवाजे के बीच हाँपता हुआ रोहित असहाय खड़ा है। वह कुछ देर तक आश्चर्य से उसे देखती रही और फिर आँखों ही आँखों से हँसी और गुस्सा दोनों दिखाकर चल दी।

रोहन देखता है टकटकी लगाये हुए। वह किराणे की दुकान पर जाकर रूकती है। वह अपनी जेब में हाथ डालता है। कुछ रूपये हो, तो वह भी जा पहुँचे उसी दुकान पर कुछ भी लेने के बहाने। पर जेब खाली थी। वापस अन्दर पहुँचकर खिड़की के पास जा पहुंचा और दीवार पर टंगी घड़ी में देखा, तो पता चला कि सुबह की सात बजे है। वह इन्तजार करने लगा कि वह वापस यहाँ से नौ बजे गुजरेगी जब स्कूल जायेगी और इसके बाद सांय सात बजे अपनी किसी बहन, सहेली या दादी के साथ जब मंदिर जायेगी।

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कहानी- पैसा-पैसा

रतन लाल जाट

आज हर कोई पैसे के पीछे भाग रहा है। अपनों से दूर खींचा जा रहा है। सत्य को छोड़ पाप-झूठ का सहारा ले रहा है। इतना कुछ होने के बावजूद भी इन्सान को सुख-चैन नहीं है। धन-दौलत है फिर भी दुख का अंत नहीं। सब कुछ है फिर भी कुछ है नहीं। यही आज के इस युग का सत्य है।

इस उक्ति को सटीकता से निभाता एक जीता-जागता उदाहरण है किशन भैया। जिनके पाँच-सात प्लॉट स्टेट हाइवे पर है। शहर के बीच बाजार में दस-ग्यारह हॉलसेल की दुकानें हैं। घर-बार भी साधारण नहीं, उनको किसी राजा-महाराजा के महल से कम नहीं आँके जा सकते हैं और गाड़ी-घोड़ो की गिनती ही नहीं। उनके घर-परिवार में किशन भैया, उनकी पत्नी, बूढ़े माँ-बाप और एक बच्चा है। इनके सिवा दूर-दूर तक और कोई अपना सगा-सम्बन्धी नहीं है।

किशन भैया कोई भी काम दूसरों से करवाने के बजाय खुद अपने हाथ से करने में विश्वास करते हैं। इसीलिए वो सुबह चार बजे उठकर रात ग्यारह बजे तक काम ही काम करने में उलझे रहते हैं। बाजार जाकर एक-एक दुकान खुलवाना, नौकरों के काम में हाथ बँटाना तथा घर के कई छोटे-मोटे काम।

इस तरह पूरा दिन दौड़-धूप में निकल जाने के बाद किशन भैया घर लौटते है। तब तक दस बजे के करीब हो जाती है। फिर उसके बाद सारे कारोबार का हिसाब-किताब मिलाते और शेष बचे मुनाफे को अलग अलमारी में लॉक कर सोते हैं। कभी-कभी तो इस उधेड़बुन में खाना-पीना तक भूल जाना आम बात है। पता ही नहीं रहता कि- खाना आज सुबह खाया था या कल शाम को। इन्सान को रोटी से ज्यादा पैसे की भूख है।

उनके रात को घर लौटने तक पत्नी के अलावा घर के सारे सदस्य सो जाते हैं और सुबह उनके उठने से पहले ही बाजार। यही कारण है कि- बुढ़े माँ-बाप को अपने बेटे के बात किये हुए दस-दस दिन हो जाते हैं। बेटा अपने पापा की शक्ल सप्ताह में एकाध बार ही देख पाता है। किशन भैया अपने घर में रहकर भी इन लोगों के लिए दूर विदेश में रहने की तरह हैं।

जब माँ-बाप को कोई बात अपने बेटे को कहती होती है। तो इन दोनों के दुख-दर्द को माँ अपनी पुत्रवधु के पास जाकर इस तरह बयान करती है- “मेरा बेटा रात को आता है और सुबह जल्दी चला जाता है। इसीलिए तुम उसे कहना कि- मुझे कुछ दवाइयाँ लानी है। पहले वाली दवाएँ खत्म हुए पाँच-सात दिन हो गये है।”

तो कभी माँ कहती है- “किशन के पिताजी कह रहे हैं कि- कल हमारे रिश्तेदारी में जाना है। वहाँ कुछ कपड़े-लते भी लेने होंगे।”

इनका सन्देश तो किशन भैया की पत्नी किसी न किसी तरह पहुँचा देती है। लेकिन वह अपना खुद का दुख नहीं सुना पाती है। जबकि वह अपने पति के साथ सोती और जगती है। फिर भी यह नहीं कह पाती है कि- दीपक का स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन कमजोर होता जा रहा है।

कारण उसे मालुम है कि- उसके कहने या न कहने का मतलब एक ही है। इसीलिए वह व्यर्थ में कुछ नहीं कहना चाहती है।

पारस नाम है किशनभैया की पत्नी का। सचमुच पारस किसी पारसमणि से कम नहीं है। अपने माँ-बाप की इकलौती संतान थी। उसके भी अपने सपने थे कि- वह अच्छी पढ़-लिखकर बड़े पद तक पहुँचे और अपने माँ-बाप का नाम रोशन करती हुई बेटा बनकर उनकी सेवा-शुश्रूषा करे। लेकिन आठवीं पास करने के बाद शादी होते ही सारे सपने टूट गये और ससुराल में आते ही घर में किसी मशीन की तरह घरेलु काम निपटाने में फँस गयी। पारस बहुत ही सुन्दर औरत होने के साथ-साथ बड़ी सुशील और पतिव्रता नारी है।

जैसे-जैसे किशन भैया का व्यापार पनपता गया। वैसे-वैसे पारस की इच्छाएँ और सपने मरते गये। अपने पति की पत्नी होकर भी वह दिल की बात नहीं सुना पाती है या पति को सुनने की फुर्सत नहीं है। किशन व्यापार के मुनाफे को देखकर बड़ा खुश है। वही पत्नी अपनी जिन्दगी चारदीवारी में घुटती देखकर दुखी है।

पूरे गाँव में किशन भैया का ही नाम है। सबकी नजर बस उन पर टिकी रहती है। लोग उनकी गिनती टाटा-बिरला में करते हैं। जैसे कि गाँवों में बात को नमक-मिर्च लगाकर कहने का रिवाज है। कई लोग किशन भैया पर कुर्बान है। लेकिन सब उसकी वास्तविक जिन्दगी से अनजान है। किशन भैया एक मशीन की तरह है। हाँ, एक चलती-फिरती मशीन, जो बोलती भी है और देखती भी है। जब तक मशीन चालू है। कौन उसके पूर्जों की तरफ ध्यान देगा?

यह कहानी एक-दो माह नहीं, पूरे दस साल तक चलती रही। इस बीच कुछ मोड़ पर कई घटनाएँ हुई। लेकिन वो सब बेकार है। सिर्फ इतना ही कहना है कि- किशन भैया के पिताजी सनकी-पागल से हो गये और अब मरणासन्न अवस्था में है। कारण घर का दीपक किशन भैया का बेटा दीपक चल बसा था। समय पर उपचार नहीं हो सका। बाद में लाखों इलाज भी निस्सार साबित हुए।

जिस इन्सान ने अपनी सारी जिन्दगी पैसों के लिए गुजार दी। आज उसके लिए वो ही पैसा कब्र की तरफ ले जा रहा है। हम पैसे के लिए सब कुछ भूल बैठे। लेकिन पैसे में खुद को कभी याद नहीं रखा। पैसा तो आता-जाता है। इन्सान का जीवन गुजर जाने के बाद फिर कभी वापस लौटकर नहीं आता है।

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कहानी- लुटो-लुटाओ

रतन लाल जाट

हरचन्द बीस सालों से राजनीति में घुसे हुए हैं। उस चींटी की तरह जो एकबार गुड़ का स्वाद चख लेती है। तो चिपककर मर जाने के बाद ही इसे छोड़ती है। शुरूआत सरपंच पद के उम्मीदवार के रूप में अपनी किस्मत अजमायी थी। अब एम.एल.ए. की कुर्सी पर है।

इस बीच क्या से क्या हुआ था? यह देख हर कोई दाँतों तले उंगली दबा लेगा। पहले हरचन्द के पास पाँच-सात बीघा जमीन से ज्यादा न थी और रहने को एक पैतृक घर।

जब पहली बार राजनीति में कदम रखा था। उस समय खेत भी रहन रखना पड़ा था। लेकिन एक जीत ने उनको कई सारे खेत दिलवा दिये थे। सोये नसीब जाग गये या गधे के सींग निकल आये।

“राजनीति हर कोई नहीं कर सकता है। यह बहुत ही टेढ़ी खीर है।” हरचन्द बात-बात पर यह जबाव दिया करते थे। क्योंकि राजनीति में साम-दाम-दण्ड-भेद सदियों से चला आ रहा है।

प्राचीन काल से हम इतिहास को उठाकर देखेंगे, तो ज्ञात हो जायेगा कि- शहंशाह वही बना था, जो अपने कुल का घाती था। जिन्होंने धर्म-कर्म के सारे बन्धन तोड़ डाले थे। हरचन्द अब हरचन्द नहीं रहे हैं। ये अब माननीय व्यक्तियों में गिने जाने लगे हैं। पहले परिवार में ही चलती थी और अब जिले से बाहर भी डंका चलता है।

कई शहरों में बहुत सारे फ्लैट बन चुके हैं और कई हेक्टेयर जमीन के मालिक हैं। इतना ही नहीं, कई बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों में भी हिस्से हैं। रूपये-पैसों की बात करे, तो लाखों-करोड़ों से कम नहीं। हरचन्द ही नहीं, उनके साथ-साथ सारे सगे-सम्बन्धी भी अमीरों की लिस्ट में आ चुके हैं।

वक्त बदला। एक नया सवेरा हुआ। लेकिन हरचन्द के जीवन में अँधेरी रात आ गयी। कारण हरचन्द की पत्नी कैंसर के चलते चल बसी थी। पैसा पानी की तरह बहाया। फिर भी वो बच ना सकी थी। देने वाला भी कितना बलवान है? जो देता है, उससे भी ज्यादा छिन लेता है। बुरी बात यह है कि- किसी की सजा किसी और को क्यों मिलती है?

हरचन्द की पत्नी एक अच्छी गुणवान, नेक और लज्जावान औरत थी। इतनी पतिव्रता थी कि- हरचन्द के सौ-सौ दाँव भी उसे नहीं डिगा सके थे। परन्तु वह पति को भगवान मानती थी।

“मेरी सातों पीढ़ी कभी भूखों नहीं मरेगी। अब मुझे और क्या करना?” यह बात हरचन्द की नहीं, उनके इकलौते लाडले बेटे की थी। जो पढ़ाई के दिनों में ही गुण्डागर्दी करना सीख गया था और कुछ काम-धन्धा शुरू करने के बजाय काम-धंधा ठप्प करने लगा था।

हरचन्द से भी ज्यादा नाम करण दादा का चलता है। एम.एल.ए.पुत्र होने के नाते वो बहुत ही उल्टी गंगा बहाता है। फिर भी कोई सजा नहीं।

लेकिन बाप कभी अपने बेटे को रोते-तड़पते और मरते नहीं देख पाता है, कभी नहीं। हरचन्द अपने क्षेत्र का विकास करने के बजाय अपने बेटे के नाश को ही रोकने में उलझे रहते हैं।

बकरे की माँ कब तक खैर मनाती? एक दिन हरचन्द ने जब टीवी पर न्यूज सुनी। तो पैरों तले जमीन खिसक गयी। कारण करण दादा को बाहर राज्य की पुलिस ने बलात्कार के मुख्य आरोपी के रूप में गिरफ्तार कर लिया था।

तब अचानक हरचन्द के मुँह से निकल गया था, “मैंने बहुत पाप करके लाख कमाये और बेटे ने एक ही पूण्य में करोड़ की बाजी लगा दी।” अखबार से खबर चारों तरफ फैलते देर न लगी और हरचन्द पर प्रश्न चिन्ह लग गया। आजकल लोगों को रास्ता बताने वाले की जरूरत है। कोई एक अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाला हो। तो किसी न किसी रूप में जनता उसके साथ हो जायेगी।

जन-दबाव के चलते हरचन्द को पद से इस्तीफा देना पड़ा। यह कोई विशेष बात न थी। राजनीति में ऐसा होता रहता है। जनता से ज्यादा गुनाहगार जनता के प्रतिनिधि होते हैं।

हरचन्द के लिए जीवन-मरण का प्रश्न था। अपने बेटे करण को जेल से निकलवाना। नहीं तो इतना सब कुछ किसके लिए किया था? रातोंरात छल-बल किये और करण को निर्दोष साबित करने लिए गवाह खरीदे गये।

चोर-चोर मौसेरे भाई होते हैं- इसी कहावत को चरितार्थ करते हुए कई राजनेता हरचन्द के साथ हो गये। जबकि जनता के सामने हरचन्द दोषी बेटे का बाप था। फिर भी पता नहीं उसकी जगह किसी गरीब के घर का दीप सलाखों में चला गया। इस बात की खबर किसी को न थी। अखबार में भी इस बारे में कुछ नहीं छपा था।

लेकिन अंत तक हरचन्द की आत्मा से यही आवाज आती रही कि- ईश्वर को सब पता है? उसके घर देर है, पर अंधेर नहीं।

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कहानी- देश के प्रति

रतन लाल जाट

स्वाधीनता संघर्ष के वीर-दिवानों में अहम् स्वर्णाक्षर रणजीतसिंह, जिन्होंने देश की रक्षा एवं आजादी के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था। रणजीतसिंह अपने देश की आजादी के लिए स्वदेश छोड़कर दूर-देशों में भी रहे थे और वहीं क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन करने में अग्रेणी योगदान दिया था।

रणजीतसिंह अपने साथियों के साथ समस्त दुःखद क्षणों को हँसते हुए झेलने को तैयार रहते थे। उनका वंश क्षत्रिय था और लहू में क्रान्ति का बीज। किसी न किसी दिन उसका विस्फोट होना ही था। वह अपना घर-बार, धन-वैभव और स्वजन सबको त्यागकर मातृभूमि की रक्षा एवं देशप्रेम की बलिवेदी पर काँटों की राह पर चल पड़े थे।

उन्होंने अंग्रेजों के हाथों लाठियाँ खायी थी। जेल-यात्राएँ की और अज्ञातवास में भी रहे। लेकिन उनको चैन कहाँ था? पूरी-पूरी रातें योजनाएँ बनाने में बीत जाती थी। फिर उनके मन्सूबों पर अपने ही देशद्रोही पानी फेर देते थे। लेकिन उनका जीवन, संघर्ष, त्याग और बलिदान से ओतप्रोत था।

अपने विगत विचारों की श्रृंखला तोड़कर लक्ष्मी कँवर ने यथार्थ में आँखें खोली। अपना अकेला घर और वह। कोई उसका नहीं है, लेकिन वो सबकी है। पहले एक वीरांगना थी और अब एक वीर माता।

जब धोखे से पुलिस रणजीतसिंह को गिरफ्तार करके हवालात में ले जा रही थी। अपने वतन से दूर। उस वक्त अपने महिला-दल के साथ वह भी थी। उस वक्त उसको अपने स्वामी का सन्देश मिला था।

“तुम स्वयं वीरांगना और तुम्हारा वीरपति है रणजीतसिंह। हम दोनों अपने देश की आजादी के लिए अंतिम श्वाँस तक लड़ाई लड़ते रहेंगे। अपनी औलाद को भी यही पाठ सीखाना। मैं तुम्हारा संग छोड़कर सबकी जननी भारत-माँ के साथ अपना वादा निभाते हुए जान देने को तैयार हूँ। लक्ष्मी! तुम देशप्रेम के प्रति अटूट रहना और मैं स्वाधीनता के खातिर भारत-भूमि के प्रति। यदि ईश्वर अपनी मातृभूमि के लिए आत्मोत्सर्ग करने वाले लाल को जन्म देवें। तो तुम वीर माँ बनकर उसको शिवाजी, महाराणा प्रताप या वीर दुर्गादास से कम शौर्य-शक्तिवान मत होने देना।”

रणजीतसिंह क्रान्तिकारी-दल के अहम् व्यक्ति हैं, का खुलासा होने के बाद उनके आजीवन कारावास को फाँसी की सजा में तब्दील कर दिया गया और निश्चित तिथि से पूर्व ही उन को अमर-शहीदों की कतार में शामिल करते हुए फाँसी दे दी गई। न उनकी लाश स्वदेश आयी और न ही इस बात की सूचना।

लेकिन रणजीतसिंह की गिरफ्तारी के वक्त रानी लक्ष्मी गर्भवती थी। कई दिनों तक स्वाधीनता कार्यों में लीन रही थी। फिर कुछ ही दिनों के बाद उसकी कोख से सचमुच शौर्य-अंगार-सा पुत्र पैदा हुआ। उसका नाम विक्रम रखा गया था।

समय निकला, भारत माँ गुलामी की बेड़ियों से स्वतंत्र हुई। उसके बाद देशवासी रणजीतसिंह जैसे अमर शहीदों के नाम ही याद बेमुश्किल से रह पाये थे। लेकिन उनके परिजनों का कोई खयाल तक नहीं आया। मानो उन्होंने अपने वतन से नाता तोड़ दिया हो। इसी कारण इन परिवारों की हालत शरणार्थियों से भी बदतर थी।

रानी लक्ष्मी ने वीरांगना का आँचल फटने पर वीर माँ की ओढनी ओढ़ ली। वह कभी भी देश की राज-सरकार के पास नहीं गई। किसी भी चीज के लिए।

अपने पति को दिये वचन का पालन किया। दिन-रात कठिन मेहनत के साथ संघर्ष करती हुई अपने लाल को वीरता-पाठ पढ़ाकर बड़ा किया। जैसे कीचड़ के बीच कंठीले पत्तों और ठहनियों के ऊपर कमल खिला हो।

विक्रम तरूणावस्था में प्रवेश कर गया था और हाई-स्कूल तक की पढ़ाई अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करने के बाद वह आगे नहीं पढ़कर भारतीय सेना में चयनित हो गया। इस बात पर रानी लक्ष्मी बेहद प्रसन्न हुई थी।

“वतन को जब जरूरत थी उनको (रणजीतसिंह) पुकारा और अब वापस यह पुकार इसे (विक्रम) बुला रही है। तो विक्रम जरूर जायेगा मातृ-भूमि की रक्षा के लिए। विक्रम मेरा ही लाल नहीं, वह भारत-माँ का भी लाल है और मैं खुद भी, भारत माँ की लाडली।” तब माँ ने यही कहा था।

विक्रम का लम्बा-चौड़ा कद करीब छह फिट से ऊपर, रक्तिम वर्ण मानो केसर और बड़ी-बड़ी आँखें रणजीतसिंह के जैसी ही थी और आज वह अपने नाम के आगे ‘कैप्टन’ शब्द जुड़ा चुका है।

तभी अचानक द्वार पर किसी के पैरों की ध्वनि सुनाई दी और अपना मुख उस तरफ करके रानी लक्ष्मी ने देखा।

“यह कौन लड़की है? केसरिये रंग की कुर्ती और नीचे हरे रंग की सलवार। बीच गले में लहराता श्वेत सूती दुपट्टा। क्या संगम है तिरंगा। वाह, यह बाला कौन है?”

उस बाला के हाथ में कुछ कागज थे।

“अम्मा, यूँ अकेले ही कैसे बैठी हो? मुझे बता देती, तो मैं पहले ही आ जाती थी। यहीं पर रहती तुम्हारे साथ।”

उस लड़की की पतली, लेकिन तेज आवाज सुनकर रानी लक्ष्मी आश्चर्य से उसका मुँह देखने लगी और कुछ कहने से पहले मन में विचार करें। लेकिन अपने पतले और हाथों से एक लिफाफा उस लड़की ने रानी लक्ष्मी को थमा दिया।

रानी लक्ष्मी उसको कोमल हाथों की शक्ति का आभास छू जाने मात्र से ही पहचान गई थी। तब उसने अपनी ममतामयी आँखें उसके नयनों से मिलाकर उसके चेहरे पर अमिट मुस्कान देखने के बाद अपनी विगत मुस्कान आज पुनः इनके चेहरे पर लौट आयी।

“यह क्या है बेटी? ” और वह लिफाफे को ध्यान से देखने लगी।

“यह अपने विक्रम का पत्र हैं। वह अब कैप्टन बन गये हैं और आप कैप्टन की माँ।”

“विक्रम की ही मैं माँ नहीं हूँ। तुम्हारी भी तो मैं माँ हूँ। बताओ, क्या तुम मेरी बेटी नहीं हो?”

रानी लक्ष्मी की बात सुनकर वह एकबार खुशी से हँसी थी। फिर अपने पुष्प से मुख-मण्डल के चारों ओर ग्रह-उपग्रह से चक्कर लगाते हुए श्यामल केश-जाल को समेटते हुए कहने लगी, “माँ, एकबार पुनः भारत माँ की छाती पर दुश्मनों ने आक्रमण कर दिया है और अभी युद्ध जारी है। अब तक अपने देश के जवानों ने उनको खट्टाई में डाल रखा है और अखबार के मुख्य पृष्ठ पर छपा यह दृश्य। देखो, अपने विक्रम की ब्रिगेड। उधर हिमालयी क्षेत्र, जहाँ घने वृक्ष, पर्वत और बर्फ है।”

रानी लक्ष्मी के चेहरे का रंग उसकी बात सुनते-सुनते ही चमक उठा था और वह बोल उठी थी, “और क्या हो रहा है अब?”

“भारतीय सैनिक पूरी बहादुरी से वीरता का प्रदर्शन कर रहे हैं और दुश्मन ताकतें घुटने टेकने को मजबूर हो जायेगी।”

तब रानी ने हँसते हुए कहा, “हाँ, तुम सच कह रही हो, बेटी। दुनिया का चाहे कोई भी ताकतवर देश हो, लेकिन वह कभी भी अपने गुरू से बड़ा नहीं हो सकता और फिर उससे झगड़ा करना स्वयं के विनाश करने जैसी बात है। भारत देश के कई दुश्मन होंगे। लेकिन भारत कभी किसी का दुश्मन नहीं रहा है। आक्रमण करने को बेचैन सब हैं और उन्हें रोकने को उद्धत है शांति का पुजारी अपना देश।”

फिर रानी लक्ष्मी ने आँखें बन्द की और कुछ सन्तोष का अनुभव करती हुई उस लड़की को अपने आँचल के पास खींच लिया था और कहा, “बेटी, तुम विक्रम को इतना पहचानती हो, जितना मेरे बाद शायद ही कोई पहचानता होगा उस शौर्य अंगार को।”

तभी वह लड़की बीच में ही अधीर होकर बोली, “लेकिन माँ अब सारे देश में उस शौर्य अंगार की ज्वाला का जादू चल रहा है। कमजोर आग बहुत जल्दी चारों तरफ फैल जाती है। लेकिन उस गर्म आग के गोले की थोड़े समय बाद ही पहचान की जाती है। उसके बाद लम्बे समय तक लोग उसकी ज्वाला का अनुभव करते हैं।”

“बेटी! अपना नाम नहीं बताओगी।” रानी लक्ष्मी ने उत्साह के साथ प्रश्न पूछा था।

“मैं सुरभि, विक्रम के साथ ही हाई-स्कूल में पढ़ी थी। लेकिन किस्मत में कुछ अलग और ही था। जो विक्रम ने कैप्टन बनकर अपना वादा पूरा कर दिखाया और मैं। माँ का बीमारी के चलते देहांत हो गया था। उसके लिए पिताजी ने काफी पैसे पानी की तरह बहाये थे। उस समय मेरी पढ़ाई अधर में जा फँसी थी। घर की सारी जिम्मेदारी निभानी थी। इसीलिए न मैरिट में आ सकी और न ही फेल हो पायी। बीच में ही मात्र प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण साठ प्रतिशत। अब क्या करूँ? विक्रम के साथ वादा पूरा नहीं हो सकेगा?” और यह कहते-कहते सुरभि के नयनों से सजल अश्रु प्रवाहित होने लग गये थे। चाहते हुए भी वह अपने को नहीं रोक पायी थी रोने से तथा वह स्वर फूट पड़ा था। तब वह अपनी हथेलियाँ मुँह पर रखकर रानी माँ के आँचल में सिसकती रही।

नारीत्व को पिघलते देखकर नारी स्वयं को कभी नहीं रोक पायी है। अब रानी माँ को सचमुच सुरभि की माँ बनना था।

तब उसने अपने आँचल का पल्ला उठाया और धीरे-से चंचलतावश अपनी आँखें पोंछ ली और फिर सुरभि को धैर्य बँधाती हुई कहने लगी, “ए पगली! रो मत। मैं तुम्हारी वही माँ हूँ। सच कहती हूँ और विक्रम………”

कहते-कहते रानी माँ ने उसी पल्ले से उसके नयनों पर छलकते अश्रु-कणों को पोंछ लिया था और अपने को सहज करते हुए कहने लगी, “विक्रम ने जो वादा पूरा किया है, वह वचन उसके पिताजी ने दिया था। उसको तो अब अपना वादा निभाना है।”

उस समय सुरभि को अपनत्व ही नहीं, मातृत्व भी मिल गया था और वह अपने अन्तस् की कहानी सुनाने लगी, “माँ! विक्रम के साथ पढ़ते हुए मैंने भी वादा किया था कि- मैं एक महिला-रेजीडेन्ट की अफसर बनकर दिखाऊँगी। लेकिन…………”

“लेकिन क्या? अब आगे पढ़ाई करो।” रानी लक्ष्मी ने पूरे विश्वास के साथ कहा था।

उसके बाद सुरभि के हाथों में वह पत्र थमाकर पढ़ने का ईशारा करके समाचार सुनने के लिए आँखें टिका दी थी।

“माँ! विक्रम ने दो पत्र एक साथ भेजे हैं। एक यह आपके नाम और दूसरा मेरे नाम। लेकिन डाक सीधी मुझे मिल गयी थी। मेरे पत्र में बस यही लिखा था कि- मेरी अम्मा घर पर अकेली है और तुम उससे जाकर मिलना। तो तुम्हें अपनी माँ का स्नेह मिल जायेगा और उसे अपने वात्सल्य का प्रेम-सुख।”

यह कहकर सुरभि ने उस पत्र को लिफाफे से निकालकर पढ़ना शुरू किया था-

“मेरी माँ! अब आजादी के बाद एकबार पुनःयुद्ध का शुभारंभ हो चुका है। मैं अपनी भारत माँ के लिए तत्पर हूँ और अपने देश के प्रति तन-मन समर्पित करते हुए उसी में तुमको और सुरभि जैसी मासूम लगने वाली बहादुर लड़की को देख रहा हूँ। फिर एकदिन मैं विजय-पताका लेकर आऊँगा। तब तुमसे किया वादा पूरा होगा। जय हिन्द, मेरे वतन। तुम्हारा स्नेहाशीष, विक्रम।”

यह कहते-कहते रानी लक्ष्मी ने आँखें बन्दकर दी और सुरभि पत्र पर चिपके पासपोर्ट साईज के फोटो को निहारने लगी थी। साथ ही अपने मन ही मन में यह प्रण कर रही थी-

“यदि पिताजी ने यह बात मान ली, तो रानी माँ के पास ही रहकर मैं पढ़ूँगी और एकदिन अपना वादा पूरा करके दिखाऊँगी। जब मैं आर्मी-वुमन ऑफिसर सुरभि बनूँगी। तब अपना सर्वस्व तुम्हारे प्रति बसे प्यार को अपने प्यारे देश के प्रति समर्पित कर दूँगी।”

मन में यह विचार आया था, तब उसके अधर भी हिलते हुए यही मौन कसम खा रहे थे।

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कहानी- किये का फल

रतन लाल जाट

“क्यों? सहेली! आज क्या बात है? उदास-उदास कैसे लग रही हो?”सुशीला की बात सुनकर भी वह निराशा में खोयी रही थी।

“क्यों? कुछ भी बोलती नहीं हो। क्या मैं तुम्हारी सखी नहीं हूँ?यदि आज तुम मुझे अपनी बात नहीं बताओगी। तो तुझे मेरी कसम है।”

तब उसने मुँह पर लगाये अपने हाथ को हटाती हुई अति-मंद आवाज में कुछ बात कहना शुरू किया।

“देखो! सुशीला क्या कहूँ? मैं इस परिवार में जन्म-पाकर खुद को बदनसीब समझती हूँ। खुदा करे कि- वो मुझे मुक्ति दे दे।”

“ऐसा मत कहो। घर-परिवार में ऐसे ही होता है। सबके यहाँ कोई न कोई झगड़ा जरूर चलता रहता है। तुम क्यों व्यर्थ में इतना परेशान होती हो? इसमें अब तुम्हारा क्या दोष है? हम तो अच्छी तरह सोच-समझकर ही कदम बढ़ाती हैं और देख, मुझे उस पर पूरा भरोसा है कि- हमारी जिन्दगी में खुशियाँ ही खुशियाँ होगी। तो फिर बताओ ना। वो ऐसी क्या बात है?”

उसकी बात सुनकर वह एक मधुर सपना सँजोकर थोड़ी-सी मुस्कायी थी। उस वक्त उसके उलझे हुए बाल लहराते-से मालूम हुए। जो उसके चेहरे पर बिखर आये तथा उसकी काली-काली आँखों से बहती हुई अश्रु-धारा सूखने के साथ ही नयी चमक आ गयी थी।

वह सफेद चमकीली पोशाक पहने थी, जो बड़ी अच्छी लग रही थी। लेकिन उनके अन्दर छिपी थी एक दुविधा में फँसी हुई आत्मा। जहाँ हमेशा उठती हुई लपटें उसका नाश करना चाहती है।

तब उसने सुशीला की कोमल बाँह पकड़कर अपने पास बैठा दिया और एक लम्बी कहानी सुनाने लगी-

“देख! तुम भी यह जानती हो कि- कैसे मेरा जीवन गुजर रहा है और कैसे मेरे परिवार का, माँ-बाप का। मेरा भाई सारे गाँव में ‘शैतान’ कहकर पुकारा जाता है। आज वो शैतान जेल की सलाखों में बन्द कर दिया गया है।”

“क्यों? उसने ऐसा क्या कर दिया था?” आश्चर्य और बेचैनी पूर्ण उसने कहा था।

“कारण? पुलिस के सामने तो एक ही कारण था। जबकि……………” कहते-कहते वह रूक-सी गयी। तो सहेली की आँखें उत्सुकता से आगे कुछ और कहने की गुहार लगाने लगी थी।

“तुम्हें भी मालूम होगा। मेरा भाई कैसा है? सचमुच ही एक शैतान है। वो बचपन से बदमाश था। फिर आवारा हो गया और अब चोर-डकैत, नशाखोर तथा तस्करी के साथ अन्य कई गलत काम करने के साथ न जाने क्या छोड़ा?”

इतना-सा ही कह पायी थी वह। तभी उसे मालूम हुआ कि- उसने क्या बात कह दी है? यह जानकर उन शब्दों को पुनः वह अपने मन में दबाने का असफल प्रयास करती रही। लेकिन आज मालूम ही न चला और वह सबकुछ इसके सामने प्रकट कर दिया था। यह केवल उसके मन का भ्रम था। अपितु गाँव का बच्चा-बच्चा यह सारी कहानी जानता था।

“मैंने क्या कह दिया है तुझे? बता तो……………”

तब सुशीला ने उसको घोर-से देखते हुए उदास होकर कहा, “दीपिका! तुम इतनी बेचैन क्यों हो? आखिरकार तुम्हारे भाई को रिहा कर देगी पुलिस। वो भी तो उसके जैसे ही भ्रष्ट है।”

यह जादूई बात सुनकर अचानक दीपिका जोर-से हँसती हुई कहने लगी, “वाह,वाह, तुम भी तो खूब शैतान लगती हो।”

“नहीं, ए पगली! ऐसी कोई बात नहीं है। लेकिन यह तो सच है कि- यदि तुम्हारा भाई नेकवान, ईमानदार और भला-परोपकारी बन जाता। तो निश्चित ही उसे आजीवन कारावास या फिर सजा-ए-मौत मिलती।”

“तो क्या उसे कुछ भी सजा नहीं होगी?” दीपिका आश्चर्य से बोल उठी थी।

पुलिस ने उसे क्यों पकड़ा है? पहले यह तो बताओ।”

तभी झुककर उसने बाहर की तरफ देखा कि- कहीं कोई यह बात सुन तो नहीं रहा है।

“इसबार तो उसको शहर में गली बीच नशे में चूर होकर गुंडागर्दी करते हुए सरेआम गिरफ्तार किया था और……….”

“और क्या? उसके साथ कौन था?”

“संगी-साथी? वे तो हमेशा उसके साथ ही रहते हैं। लेकिन पूरा झूण्ड जैसे-तैसे करके भाग निकला और वह मुख्य सरगना स्मैक और कुछ अन्य मादक पदार्थ लेकर भागने की फिराक में पकड़ा गया।”

“ओह, मौत के मुँह में थी जान। फिर भी वह स्मैक लेकर भागना चाहता था।”

“हाँ, और क्या? ऐसे ही होते हैं नशीले लोग।” दीपिका बातों ही बातों में क्रोध के मारे काँपने लगी थी।

“दीपिका, तुम्हारा भाई शैतान तो है ही। लेकिन तुम खुद भी उसको शैतान कहती हो?”

“हाँ, यह सच है कि- इतने दिन हमने उसको भगवान ही समझा था। क्योंकि वह हमें दो नम्बर का काम-धन्धा करके धनवान बनाना चाहता था। लेकिन उसके ऐसे धन को प्राप्त करके क्या हम जीवन में सुख पा सकते हैं?”

कुछ देर के लिए दोनों मौन हो गयी। फिर दीपिका ने प्रश्न का जवाब सुने बगैर ही एकबार पुनः बात को नयी गति देते हुए कहा, “ऐसे भाई की बहिन अपने आपको क्या महसूस करती होगी? क्या ऐसी धन-सम्पति के बल पर लोग हमारी बुराई करना छोड़ देंगे? कभी नहीं।”

कुछ क्षण वह रूकी और एक लम्बी साँस लेते हुए कहने लगी, “तुम मेरे मन की हो। इसी वजह से आज मैं यह सबकुछ तुम्हें बताती हूँ कि- वह चलती लड़की को छेड़ता या फिर आवारा गुंडों के साथ शराब की दावतें मनाता था। फिर भी यह सबकुछ हम सहन कर रहे थे। लेकिन एकदिन तो उसने मम्मी-पापा से झगड़ा करके उन्हें घर से निकाल दिया और मुझे मारने को झपट पड़ा था। क्या यह सारी बात तुम्हें मालूम थी।”

आश्चर्य और पूरी तरह से ध्यान-मग्न सुशीला ने कुछ देर बाद अपना सिर हिलाकर दीपिका को जवाब देते हुए समझाया था कि- दीपिका! तुम भाई की चिन्ता छोड़कर अपने माँ-बाप की आँखों का सपना पूरा करने के लिए कमर कसकर तैयार हो जाओ।”

“तुम ठीक कहती हो। मैं एक लड़की होकर भी अपने घर-परिवार की जिम्मेदारी का निर्वाह करूँगी। लेकिन यह संसार मुझे तब भी उसकी बहिन ही कहकर पुकारेगा।”

“यह बात तुम छोड़ दो। क्योंकि आदमी खुद अपनी वजह से पहचाना जाता है। न किसी दूसरे के नाम से।”

“जब वह जेल में चक्की पीस-पीसकर अपने किये का फल भोग लेगा। तब वह छुटकर आ जायेगा। तब तक दुनिया उसके कार्यों को भूल जायेगी।”

मकान के बाहर दरवाजे पर आवाज आयी थी किसी के आने की। तो वे दोनों सखियाँ बोलती हुई रूक-सी गई और सुशीला अपने घर जाने को उठ खड़ी हो गई।

“थोड़ी और बैठो ना। बाहर कोई नहीं है, मेरी बहिन होगी। तुम यहाँ हो, तो मेरा भी मन लग रहा है।”

बहुत कहने के बाद भी वह नहीं रूकी और चली गयी। इधर दीपिका भी अपनी बहिन के साथ घर के काम में जूट गयी थी।

शैतान तो जा फँसा था जेल में। उसको किसी की तनिक भी फिक्र न थी। उसे न अपने संगियों से दूर होने का गम था और न ही संगियों को उसके जेल में जाने का। बस, वे तो एक-दूसरे के साथ किसी न किसी स्वार्थ वश थे। इधर उसके घर-परिवार में दुःख ही दुःख बसा था।

उसकी माँ अधिकतर सोच-विचार करती रहती थी कि- "मैंने तो खूब समझाया था उसे। लेकिन मेरी एक न मानी। वही अकेला था इस परिवार के लिए आँखों का तारा। छोटी लड़की अब बड़ी हो गई है और अगले बरस तक इसका कहीं न कहीं ब्याह करना होगा। जबकि काफी वक्त निकल गया है बड़ी बेटी का तलाक हुए। क्या वह भी जिन्दगीभर यहीं बैठी रहेगी?"उसको यह सारी जिम्मेदारियाँ निभानी थी।

“पहले तो सब लोग अपने थे। लेकिन अब एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो हमसे बात करना चाहे। हमारे दुःख-दर्द को समझे।” उसने मन ही मन बड़बड़ाते हुए कहा था।

वह अब स्वयं अपने को कोसती रहती है। उसके बेटे ने जो कुछ भी किया है। वह यथार्थ होकर भी उसके लिए कोई झूठा सपना था। वह ऐसा कभी सपने में भी ना सोच सकती थी।

हमेशा एक माँ अपने बेटे को सबसे प्यारा बेटा ही समझती है। चाहे वो चोर-डाकू या लुटेरा ही क्यों न हो? अगर वह चोर है, तो औरों के वास्ते। यदि वह अपनी माँ के सामने कुछ चुराले, तो वह यहीं कहकर मीठी डाठ देगी कि- तू अभी भी बच्चा है? यह बचपन की आदत अब छोड़ दे।

इस मुश्किल समय में भी उसके माँ-बाप ने हिम्मत नहीं हारी और अपने तरीके से पुनः एक नई जिन्दगी के सपने सजाकर काम-धन्धा शुरू किया। दिन-रात एक करके अपना पेट पालने लगे थे। इस उम्र में उन्हें देखकर लोग दाँतों तले उंगुली दबा देते थे।

उसने तो जीवन में हजारों रुपये एक चुटकी में उड़ाये होंगे। लेकिन कभी भी उसने अपने माँ-बाप के लिए एक कौड़ी भी खर्च नहीं किया था पुत्र होने के नाते।

दोनों पति-पत्नी सुबह दिन उगते ही कुएँ पर चले जाते थे। पूरे दिन काम करते थे और आज भी कर रहे हैं उसी तरह। उनके साथ बड़ी बेटी भी हाथ बंटाया करती थी। दूसरी बेटी दीपिका पढ़ती है। जो बहुत होशियार है और यह अच्छी बात है कि- कोई बेटी पढ़-लिखकर अपना नाम करे। यही उम्मीद करते हैं हर माँ-बाप।

“पिताजी, मुझे नई ड्रेस सिलवानी है। पुस्तकें खरीदनी तथा स्कूल फीस भरनी बाकी है।”

दीपिका इतनी सारी माँगें एक साथ अपने पिता के सामने रखती थी। उधर वो अपनी छोटी बेटी के प्रति भी उतना ही अपार स्नेह रखते थे। कभी किसी से रूपये उधार लाते या कभी अनाज बेचकर काम निकालते थे।

एक-एक दिन गिनकर पूरे तीन साल गुजर गये थे। लेकिन अभी तक उसके छुटने की कोई संभावना दिखाई न दी रही थी। लोग-बाग तो उसे मरे हुए के समान समझने लगे थे।

उधर वह जेल में बैठे-बैठे उनके जले पर नमक छिड़कता हुआ फोन करता था कि- मेरे लिए किसी के साथ कपड़े, जूते, रूपये-पैसे तथा खाने-पीने की चीजें भेजना भूल न जाना। यदि ऐसा न किया, तो मकान में खाली कर देना।”

ऐसी धमकी मिलती थी, तो वे जैसे-तैसे करके उसकी हर माँग पूरी करते थे।

देखो, जेल में भी कितना मौज मिलता है? इन गुंडे लोगों को। उसमें मानवता तो कभी की खत्म हो गयी थी।

जब वह नशाखोरी, आवारागर्दी और रंगरेलियाँ मनाने में ही मस्त रहा था। जब वह गाँव में घुमता था। तो लोग उसे देखकर ही स्तब्ध हो जाते थे। कुछ काम होता, फिर भी वो कुछ कहने से पहले यह सोचते कि- वह नशे में तो नहीं है। कहीं गालियाँ ना देने लग जाये।

ऐसी ही धारणा बन चुकी थी सब लोगों के बीच में। जब कोई आदत इतनी महत्वपूर्ण बन जाती है, तो उसकी पहचान वही हो जाती है। चाहे बाद में वह आदत छुट भी क्यों न जाये?

इतना ही नहीं, जब कभी किसी ने उसको अपने सामने पाया था। चाहे वह बच्चे हो या कोई युवती या बड़े-बुजुर्ग हो।

सभी ने उसको नशे का आवरण मात्र ही मान लिया था। इसीलिए जब वह कभी उनको मिलता, तो उनकी निगाहें घृणा से झूक जाती थी। यहाँ तक कि- लोग उसी पर व्यंग्य करते हुए किसी दूसरे पर ताना मारते थे।

“नशा करना, ऐसे-वैसे घुमना तथा दूसरों के सामने तस्कर का रोल निभाना। यह सबकुछ उस शैतान से ही पूछ लेना।”

उसकी ऐसी हरकतें सहकर, देखकर या सुनकर हर किसी के दिल से दया, प्रेम तथा विश्वास मर गये थे।

जब से वह गिरफ्तार हुआ है। सारे गली-मोहल्ले की तस्वीर ही बदल गयी थी। सब अपना काम से काम करने लगे हैं। पुनः सत्य, अहिंसा, दया, विश्वास, सहयोग, प्रेम आदि सजीव हो उठे थे।

सचमुच कोई बुराई कब तक छिपी रह सकती है? पाप-कर्म देर-सवेर कभी भी प्रकट हो ही जाता है। उस युवक के प्रति हरकिसी को ना गम था और ना ही कोई कमी महसूस होती थी।

उस शैतान के संगी साथी भी उसको धीरे-धीरे भूल गये या कहें कि- सुबह के भटके शाम को अपने घर लौट आये हैं। थोड़े दिन इधर-उधर हाथ मारते फिरे थे। अब उनका सारा खूमार निकल गया था। सभी अपने घर-परिवार का दायित्व निभाने लगे थे।

एकदिन वो आ ही गया था जमानत पर। पुलिस या जज क्या करे? आखिर उन्हें भी नौकरी करनी है। ऐसे कितने ही हैं, जो उससे भी बदतर हैं। दस साल की सजा पाँच मान ली और एक लाख का जुर्माना भरने पर छोड़ने की बात कही थी।

तब उसके पिताजी ने रूपये-पैसे उधार लाने के लिए कई लोगों की चौखट पर जा-जाकर हाथ फैलाया था। उसके भले पिताजी ने मन्नत भी कर दी थी। तो अपने बेटे को छुड़ाने के बाद देव-मंदिरों में घुमाकर अपना जी हल्का किया था। लेकिन वह तो उस सर्प के समान था, जिस पर चन्दन का कोई असर नहीं पड़ता है।

दो-चार दिन वह अपने तक सिमटा रहा और फिर धीरे-धीरे पुनः एक झुण्ड बनने लगा था। रोज रात को वही कामकाज शुरू हो गया था। स्मैक, अफीम और शराब के साथ-साथ चोरी व गुंडागर्दी।

तब लोग पुनः भयभीत होकर किसी भी हाल में उनसे बचने की कोशिश करने लगे थे। जैसे साँप के बिल में घुस जाने से कोई चूहा।

उसी बीच वह कहीं से एक लड़की उठाकर ले आया था। इसकी खबर उसके घरवालों को कई दिनों के बाद हुई थी। उसके परिजनों ने उसके खिलाफ अपहरण करने के मामले में एफआईआर दर्ज करा दी थी।

इधर वह अपने माँ-बाप को घर से बाहर निकालकर उस लड़की के साथ रहने लग गया। बाहर खड़े उसके माँ-बाप सोच रहे थे- यह दरवाजा कभी हमारे लिए खुलेगा या नहीं।

तभी अचानक दूर आती हुई पुलिस-गाड़ी दिखाई दी और माँ-बाप वहाँ से आगे बढ़ गये थे।

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कहानी- बिना विचारे

रतन लाल जाट

“बेटा पिंकी! किधर है तुम्हारी माँ। वह तुझे जल्दी से तैयार करे। तेरे ससुरजी पधारे हैं।”

प्यारेलाल ने अपनी पौत्री को ऐसा कहकर कमरे में भेज दिया और बाहर बरामदे में खाट पर बैठ गये। थोड़ी देर बाद फिर कहा- “आइये, बैठिये जीतमलजी। थोड़ी देर रूको, तब तक पिंकी तैयार हो जायेगी। इसकी माँ बाहर से अभी-अभी आयी है।”

ऐसा कहते हुए दोनों सगे-संबंधी एक ही खाट पर बैठकर हुक्का-बीड़ी पीते हुए बातचीत करने लगे-

“और कहो जी। आपके यहाँ सब मजे में है?" प्यारेलाल ने हँसते हुए कहा। जवाब में जीतमलजी ने हाथ ऊपर आसमान की तरफ करते हुए बताया- “भगवान की दया से सब ठीक-ठाक है।”

“बहुत अच्छा यही तो मैं आपके मुँह से सुनता चाहता था। आज आप यहीं रुको। वैसे भी कई दिन हो गये, यहाँ पर रूके हुए। आज मैं आपको नहीं जाने दूँगा। कल सवेरे जल्दी ही चले जाना।”

“नहीं, मैं रात नहीं ठहर सकता। घर पर कई सारे कामकाज करने है। मेरे बगैर उन लोगों से कोई काम नहीं होगा।” थोड़ा रूकने के बाद प्यारेलाल को कुछ जवाब नहीं देते देखकर वापस बोल पड़े थे- “मिलना तो पलभर का भी बहुत होता है। अपना प्रेम तो हमेशा ही है और नहीं रूकने से कोई कम नहीं हो जायेगा।”

तभी पिंकी का छोटा भाई कमल हाथ में ट्रे लेकर चाय ले आया। चाय रखते ही तुरन्त जाकर पानी लेकर आने के बाद दादाजी को अपने हाथ में थामने के लिए आवाज दी- “दादाजी! पानी लीजिए। मम्मी खाना बना रही है। इसीलिए खाना खाने के बाद ही इनको जाने देना।”

“पिंकी तैयार हो रही है या……….”

“पिंकी! वह तो साड़ी-चप्पल खरीदने गयी है। थोड़ी ही देर में आ जायेगी।” यह कहकर कमल वापस चल दिया और इधर प्यारेलाल ने चाय का कप ब्याईजी की तरफ बढ़ाते हुए कहा, “आप आराम से चाय लीजिए। कमल भी आपको यहाँ रहने नहीं देगा। इसीलिए जल्दी खाना तैयार होने की कह रहा है।” यह कहकर थोड़े हँसे।

थोड़ी ही देर में पिंकी की माँ ने सारे कपड़े-लते एक बैग में भरकर अपनी तरफ से सारी तैयारियाँ कर दी थी। फिर खाना-पीना होने के बाद जब जीतमलजी ने विदा लेने के लिए हाथ जोड़कर कहा, “अब हम चलते हैं। और पिंकी! तुम अपने दादाजी से कहो कि- मुझे लेने वापस जल्दी आना।”

पिंकी ने भी अपने दादाजी के चरण-स्पर्श करते हुए अपना फर्ज पूरा करने के बाद धीरे-धीरे सिसकने लगी। तो उसकी माँ ने अपने आँचल में छिपाकर उसे कहा, “रो मत। तू पगली है क्या? लड़की के दो घर होते हैं। पहला घर बचपन में माँ की गोद और दूसरा घर शादी के बाद ल ससुराल होता है।”

और इस तरह माँ ने ससुरजी के साथ पिंकी को विदा किया। फिर रसोई की तरफ मुड़कर अपने आँचल से मुँह ढ़ककर रोते हुए अपने आँसू रोकने का प्रयास करती हुई विगत स्मृतियों में डूबने लगी।

हमारे दामाद तो अभी तक छोटे ही है। पिंकी की शादी हुई थी। उस समय तो दोनों छोटे ही थे। भले ही पिंकी दो-तीन साल बड़ी होगी। लेकिन अब पिंकी बड़ी लगने लग गयी है। उसका रंग और भी गौरा हो आया तथा ज्यादा सुन्दरता निरखने लगी है। अब वह युवती होकर एक कली से फूल बन गयी। मानो अब उस फूल में मकरन्द भर आया हो और लड़का तो अभी तक लड़का ही है। रंग-रूप, कद तथा गुण सब कुछ लड़कपन के ही लगते हैं। जब पिंकी को पहली बार दो-चार दिन वहाँ भेजा था। तब भी आस-पड़ौस की सारी लड़कियाँ और महिलाएँ पिंकी पर ताने मारने लगी थी।

‘देखो! देव तो अभी दस-बारह साल का ही हुआ है।’

‘यह तो सतरह-अठारह की हो गयी।’

‘कैसे जमेगी यह जोड़ी? मुझे तो कुछ शंका होती है कहीं……….’

पिंकी पर उनका जादू तो नहीं चल सका। लेकिन पिंकी की एक सहेली है। जो रिश्ते से ननद लगती है। वह लड़की हमेशा ही इसके कान भरती रहती है। यहाँ तक की दो-चार लड़कों तक से बात कर चुकी है पिंकी के बारे में। क्या होगा भगवान बचाये इस विपति से?

तभी घबराहट के कारण उसकी अचेतन स्थिति भंग हो गयी।

पिंकी को अपने ससुराल में तीन दिन ही निकले थे कि- वह बदचलन जासूस लड़की पुष्पा उसे अपने जाल में फँसाने लगी। उसे देखते ही धीरे-से कान में कहा था पुष्पा ने- “पिंकी! तू वापस क्यों आयी यहाँ? लड़का इस बार कुछ अलग थोड़े ही हो गया है। वह तो जस का तस है। मेरी बात मान ले। फिर याद आऊँगी कि- ठीक कहती थी।”

“मैं क्या करूँ? दादाजी और माँ की बात नहीं मानती?”

“अरे! तू पगली हो गयी है। मेरी बात सोच दादाजी और माँ को क्या? जीवन तो तुम्हारे बर्बाद हो रहा है। उनके लिए यह घर हो या दूसरा। एक ही बात है। वो तो तुझे खुश चाहते हैं। तो तू चाहे जहाँ भी रहे।”

“मैं माँ-बाप को कुछ कहे बिना किसी दूसरे के साथ कैसे जा सकती हूँ?”

“देख! मैं तेरे भले के लिए सब कुछ कर सकती हूँ। अब तुझे मेरा मोबाइल दूँगी। साथ ही कई अच्छे-अच्छे लड़कों को नम्बर भी। एक बार तुम उनसे बात कर लेना। फिर कहना कि- कौनसा लड़का अच्छा है? जो तुझे पसंद होगा। उसी से तेरी बात बना दूँगी।”

थोड़ी देर कुछ कहने के बाद भी जब पिंकी कुछ हाँ भरती नजर नहीं आयी। तो और भी बहकाने लगी, “पिंकी! अगर तू उनसे सीधे ही मिलना चाहो। तो भी मैं तुझे मिला दूँगी। और जब तुम देखोगी उनको। तो दाँतों तले अंगुली दबा लोगी। जीन्स-टी-शर्ट और रंगीन चश्मा। साथ ही सुपर मोटरसाईकिल और क्या चाहिए? ऐसे लड़कों पर हजारों लड़कियाँ मरती है। एक बार ही मेरी उस लड़के से बात हुई। तो उसने मुझे अपने मन की सारी बातें कह दी और कहा की- तुम जो भी लड़की पसंद करोगी। उसे मैं आँखें बन्दकर ले जाने के लिए तैयार हूँ। तब मैंने उसे तेरे बारे में बताया था और कहा कि- मैं लड़की का फोटो भिजवा दूँगा और बात करेगी। तो बात भी करवा दूँगी और यह फोन भी उसी ने दिया है।”

“यह ऐसा कौनसा लड़का है? पहले तो आपने कभी बात नहीं की।”

पुष्पा थोड़ा उदास होकर कुछ कहे। उसके पहले ही मोबाइल की घंटी बज गयी।

“अरे! नाम लेते ही फोन आ ही गया है। देख! तेरा किस्मत कितनी अच्छी है? ले बात कर ले अपने पिया से।”

डर के मारे पिंकी थोड़ा झिझक उठी थी और उसने इनकार करते हुए अपना सिर हिला दिया। तो फिर पुष्पा ने ही बात शुरू की- “हैल्लो! रंगराज। हाँ, अभी यह मेरे पास ही है और वह तुमसे बात भी करना चाहती है।”

फिर उसकी बात सुन लेने के बाद कहा- “अभी वह शरमा रही है।” वापस पिंकी की तरफ इशारा करके बोली- “ले। बात कर ले। डर मत। यार बड़ा दिलदार है। एक बार बात करोगी, तो फिर रूकने का नाम ही ना लोगी।”

तब तक फोन कट गया था और सबकुछ धरा का धरा ही रह गया। फिर वह थोड़ी झूंझलायी और दबे स्वर में पिंकी को समझाते हुए कहने लगी, “पिंकी! मेरी बात मान। मैं झूठी नहीं हूँ। सच कह रही है। यहाँ तुझे कब प्यार मिलेगा और कब तुम्हारी जिन्दगी सँवरेगी? एक बार सोच। बात कर ले। फिर जो तुझे मन में भाये, वही करना।”

इतना कुछ करने पर भी जब काम बनता दिखाई न दिया। तो झूठी प्रशंसा करके दिल जीत लेने के लिए अंतिम हथियार चलाया, “इसकी शादी के लिए लड़कियों की कमी नहीं है। लड़कियों को सबसे ज्यादा इसकी जरूरत है। इसीलिए सोचती हूँ कि- कहीं मौका हाथ से ना निकल जाये। मेरी बात मान लोगी। तो रानी बनकर जीओगी। नौकर खाना बनायेंगे और कपड़े धोबी धोयेगा। तुम्हारा काम घुमना-फिरना, बाजार जाकर कीमती कपड़े, गहने तथा शृंगार-सामग्री खरीदना। लेकिन उस वक्त मुझे ना भूल जाना।”

यह कहकर वह जोर-से हँसी थी। अपने इस बड़े झूठ को छुपा ना सकी।

लेकिन बार-बार प्रयास करने परइंसान कितना ही कठोर क्यों नहीं हो, एकदिन मोम की तरह पिघल ही जाता है तथा पत्थर भी बार-बार रस्सी के आने-जाने से घिस ही जाता है। उसी तरह धीरे-धीरे पिंकी पर भी इन बातों का असर होने लगा। और इसमें उसकी कोई ज्यादा गलती भी नहीं थी। क्योंकि अभी उसकी उम्र ही कुछ ऐसी थी। जो वह सोच-विचार कर सही निर्णय कर सके। ऐसे में यदि उसे कोई संभालने के सिवाय भटकाने वाला मिल जाये। तो फिर उसके दुर्दिन कोई नहीं रोक सकता।

तब उसने इस स्वप्न को यकीन मानकर थोड़ी प्रसन्नचित मुद्रा बनाकर मुस्कुराकर अपनी खुशी जाहिर की और उधर अंधे को लाठी के सिवाय और क्या चाहिए?

“ले। फोन कट गया था। तू ही वापस लगाकर बात कर ले या मैं ही लगा देती हूँ। यह कहते हुए उसने नम्बर डायल करके पिंकी के हाथों में थमा दिया। पहले तो उसके हाथ कंपकंपाये थे। फिर उसने मोबाइल को कसकर पकड़ लिया। तब तक फोन उठ चुका था और कुछ आवाज सुनायी दी- हैल्लो, हैल्लो!

इस अनजान आवाज को सुनकर उसे पैरों तले की जमीन खिसकती मालूम हुई। लेकिन पुष्पा के डरावने इशारे का आशय समझते हुए उसने हड़बड़ाकर लब खोले, “हैल्लो! मैं…मैं पिंकी।” आगे कुछ न कह सकी।

“लो इनसे बात कीजिए।” यह कहकर पिंकी ने फोन देना चाहा पुष्पा को। लेकिन उसने इनकार करते हुए कहा, “मैं बाद में कर लूँगी बात। अभी तू जी-भरकर बात कर ले।”

वह कान लगाकर सिर्फ सुनती जा रही थी और वह हवाई किले बनाकर उसे फँसाने की कोशिश कर रहा था। इस उड़ान के काल्पनिक आनन्द में पिंकी भी होश भुल-सी गयी और उसने अपना सारा गुब्बार निकाल दिया। यहाँ तक की नाम-पता, घर-परिवार सब कुछ बता दिया।

फिर पिंकी ने फोन पुष्पा की तरफ बढ़ाते हुए कहा, “पुष्पाजी से बात कीजिए।”

इतने में उसने लपकते ही कहा, “हैल्लो! मैं पुष्पा। हाँ, सबकुछ पक्का है। अब अपनी तरफ से तैयारी जल्दी होनी चाहिये। ओके बाय-बाय……”

फिर वे दोनों अपने-अपने घर चली गयी। इस तरह चुपके-से कि- मानो वो दोनों आपस में एक-दूसरे को जानती ही न हो।

रंगराज पुष्पा के रिश्तेदारी में कुछ लगता था। वह तीस पार हो गया था। तब जाकर तो वह किसी लड़की के माँ-बाप को पैसे देकर सिर्फ सात फेरे खाने की रस्म पूरी कर पाया था। लेकिन वो शादी नहीं होकर केवल रस्म मात्र ही थी।

तब उसने पुष्पा के कान भरे और कहीं न कहीं कोई जुगाड़ बिठाने में हाथ-पैर मारने लगा। पैसे-वैसे का लोभ देकर कोई लड़की उठाकर भाग जाना ही उसका मकसद था। इस मकसद को पूरा करने के लिए ही उसने पुष्पा को दस हजार रूपये कमीशन के रूप में दे रखे थे।

अब हर रोज पुष्पा पिंकी के साथ मिलने को घात लगाये बैठी रहती और मौका मिलते ही उस पर डोरे डालना शुरू कर देती थी।

पुष्पा शाम होते ही पिंकी की सास से मिलने-बातें करने का बहाना करके आ जाती और सास को पिंकी के बारे में ऐसी-वैसी बात कहकर पिंकी को घर से बाहर निकलवाना चाहती थी। ताकि पिंकी को ससुराल वाले खुद त्याग दे और उसकी बाजी फतह हो जाये।

एकदिन शाम के वक्त, मौका पाकर पुष्पा ने पिंकी को अपने घर बुलाया और शौच के लिए जाने के बहाने गाँव से दूर कुएँ पर ले गयी। आगे क्या होने वाला था यह पिंकी को मालुम न था। रास्ते में पुष्पा ने उसके भरे घावों को पुनः हरे करने की कोशिश करते हुए उससे कहा- “क्या है पिंकी यहाँ पर? इस घर में रहकर तुम्हें कोई ऐश-आराम मिल सकता है। मुझे तो यह सपने में भी सच होता दिखाई नहीं होता। खैर, कोई बात नहीं है। मैं तुम्हारी किस्मत ऐसे नहीं फूटने दूँगी।”

थोड़ी रूककर पुनः कहने लगी, “वहाँ सास भी सास जैसी मिलेगी और तेरे जाने घर में लक्ष्मी का वास हो जाएगा। कोई कमी नहीं है। अब सब कुछ भूला दे और आगे की सोच। तेरी किस्मत चमक जायेगी।”

इस तरह जब स्त्री की दुख-पीड़ा को कोई बाँटने के बजाय और बढ़ाना शुरू कर दे। तो वह अपना भला-बुरा सोचने के लिए कोई नया रास्ता अपनाना की सोचती है। उस समय उसको झूठ भी सच नजर आने लगता है।

एकाध घण्टे बाद वे दोनों अपने-अपने घर लौट गयी थी।

कल प्रातःकाल जब पिंकी गुलाबी रंग की ओढ़नी और उस पर फबता हुआ लाल-पीले रंग का लहँगा पहनकर कुँए से पानी का मटका भर लाने निकली। तो उसके पीछे-पीछे पुष्पा भी हो गयी। दोनों गेहूँ के खेतों की मेड़ पर चली जा रही थी एक-दूसरे से बातें करती हुई। पिंकी के जीवन में मधुमास का पहला रंग दमक रहा था और उसके नशे को भड़काने में पुष्पा ताने-बाने बुन रही थी।

धीरे-धीरे पिंकी पर तरूणावस्था का नशा असर करने लगा और वह कोरे सपने देखने लगी और खुशियों के दिन को अपने नजदीक देखने लगी। वह अनदेखे प्रिय के साथ जीवन जीने लगी।

पिंकी को अब सारी रात पुष्पा की बातें ही सुनायी देती थी या कभी सपने में उस अनजाने की तस्वीर। एक क्षण वह कल्पना में, तो अगले क्षण सपने में। इसी तरह एक रात वह स्वप्न लोक में जा पहुँची थी। उसने देखा था- वह बहुत बड़े टोले के साथ नाचती-गाती हुई गाँव से बाहर निकलकर एक सुन्दर बाग में वटवृक्ष की पूजा करने जा रही है। अन्य महिलाओं से वह आगे चल रही है। धीरे-धीरे उसके पीछे की सारी महिलाएँ वापस लौट जाती है और वह अकेली रह जाती है। तब वह मुड़कर क्या देखती? कोई नहीं है दूर-दूर तक। उसे चारों तरफ अन्धेरा ही अन्धेरा नजर आता है और मारे डर के वह रोने लगती है। तभी उसे किसी की आवाज सुनायी देती है। तो वह दौड़कर वहाँ जा पहुँचती है। परन्तु उसे वहाँ कोई नहीं मिलता है जंगल-काँटे और सूखे पत्तों के अलावा। ऐसे में उसके हाथ से पूजा-थाल गिर पड़ता और नींद खुल जाती है।

फिर अगले दिन सारी तैयारियाँ कर चुकने के बाद पुष्पा पिंकी के सास-ससुर से आँखें बचाकर घर में आ जाती है और पिंकी के सारे गहने-आभूषण इकट्टे कर ले जाती है। जाते हुए पिंकी को सचेत कर जाती है कि- तैयार रहो।

अब पिंकी को किसी बात पर सोच-विचार करने की फुर्सत कहाँ थी? उसने किसी बहाने अपने कपड़े-लते पुष्पा के घर पहुँचवा दिये। तब पिंकी के हाव-भाव देखकर सास ने पूछा- बेटी! क्या बात है? क्या पीहर जाने की बात है?”

“हाँ! मेरे दादाजी बीमार हैं पुष्पा के फोन आया था।”

“हमें भी तो कहती। तुझे ही क्यों कहा था? क्या हम तुझे नहीं जाने देते थे?”

तभी पिंकी ने थोड़ा सिसकना शुरू किया। ताकि उसकी चाल पकड़ में न आये और रोते हुए कहा- “ससुरजी को मालुम है और उन्होंने कहा है।”

यह सुनकर सास ने ज्यादा नहीं कहा-सुना और अपने काम में लीन हो गयी।

दोपहर को पूरी तैयारी करके पिंकी उस कुँए पर चली गयी। जहाँ पुष्पा पहले से ही थी। निर्धारित समय पाँच बजे का था। लेकिन उनके लिए अब तीन-चार घण्टे निकालना बेहद मुश्किल था। इस कठिन समय को पुष्पा ने फोन पर बात करने में बिताया और पिंकी ने बात सुनने तथा कल्पनिक आनन्द में डूब वक्त काटा था।

निश्चित समय होते ही एकाएक कुँए के पीछे निकल रहे कच्चे रास्ते से काले रंग की कार आ पहुँची। कार दिखते ही पुष्पा फूली न समायी और पिंकी के मन में अनिष्ट की कुछ आशंका घर कर गयी।

कार रूकते ही उसमें से एक साथ तीन जने उतरे। उन्हें देखकर हर कोई अनुमान लगा सकता है कि- उनमें दिखावे के साथ छल-बल और धोखा है। पास आते ही पुष्पा ने धीरे से कहा- “आइये! रंगराज जी। बड़ी देर लगायी है। हम कब से आपकी राह ताक रही थी।

सूर्यास्त का समय होने को था। सूरज की लाल-लाल किरणें दूर तक फैल गयी थी। तभी रंगराज का एक साथी सन्दूक खोलकर गहने और कपड़े दिखाकर वापस बन्द कर देता है। यह कहते हुए कि- रात होने को है और रात को अनजान रास्तों में डर रहता है। इसीलिए बाद में पहन लेना।

इधर रंगराज सरसरी नजर से पिंकी को देखने लगा। कोमल बदन, काली आँखें, दमकता चेहरा, लाल होंठ इत्यादि। शिकारी को शिकार की जरूरत होती है। उसी तरह पिंकी को जरूरत थी रंगीन जीवन की और रंगराज को वासना मिटाने की।

तभी रंगराज ने पिंकी का हाथ पकड़ लिया और पुष्पा से विदा होने की बात कही। पिंकी हाथ पकड़ते ही काँप उठी थी। तभी कार स्टार्ट हो गयी और पिंकी कार के अन्दर सीट पर। फिर वो……

यह सब कुछ ऐसा लग रहा था मानो कलियुग का रावण परस्त्री का हरण कर ले जा रहा हो। लेकिन यहाँ न रोना था, न चीखना। न कोई सहायता माँगने वाला है और न कोई देने वाला।

फिर दो दिन बाद इसकी भनक लगी थी। जब जीतमलजी अपने ब्याई प्यारेलाल से मिलने कुशल-क्षेम पूछने गये थे। यह बात कान में पड़ते ही वे दोनों संबंधी हक्के-बक्के रह गये थे। यहाँ तक कि प्यारेलाल चक्कर खा धरती पर गिर पड़े और पिंकी की माँ का रो-रोकर बुरा हाल। सबसे बढ़कर यह कि- उनके खानदाण पर कालिख लग गयी। किसी को मुँह दिखाना मुश्किल हो गया था।

सारे रिश्तेदारों ने पिंकी को खोज निकालने के लिए रात-दिन एक कर दिये। फिर यह जानकर लहू का घूँट पीकर रह गये थे कि- रंगराज के घर कुछ नहीं था। सिवा सौतेली माँ-बाप तथा तीन भाईयों के। और रंगराज पिंकी को लेकर राज्य से बाहर कहीं मजदूरी करके घर बसाने चला गया था।

साल भर बाद रंगराज ने वहाँ किसी व्यक्ति के हाथ पिंकी को सौंपना कबूल लिया था। क्योंकि वह उधार के रूपये तय समय पर नहीं चुका पाया था।

******

लेखक-परिचय

रतन लाल जाट S/O रामेश्वर लाल जाट

जन्म दिनांक- 10-07-1989

गाँव- लाखों का खेड़ा, पोस्ट- भट्टों का बामनिया

तहसील- कपासन, जिला- चित्तौड़गढ़ (राज.)

पदनाम- व्याख्याता (हिंदी)

कार्यालय- रा. उ. मा. वि. डिण्डोली

प्रकाशन- मंडाण, शिविरा और रचनाकार आदि में

शिक्षा- बी. ए., बी. एड. और एम. ए. (हिंदी) के साथ नेट-स्लेट (हिंदी)

ईमेल- ratanlaljathindi3@gmail.in

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रचनाकार: शादी कब हुई? कहानी संग्रह - रतन लाल जाट
शादी कब हुई? कहानी संग्रह - रतन लाल जाट
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