भारतीय समाज की संरचना पर विचार करने पर इसकी कई परतें खुलने लगती हैं.स्पष्टतः जो,जैसा,जितना हम अपने दैनिक जीवन में स्वाभाविक और अनौपचारिक तौर...
भारतीय समाज की संरचना पर विचार करने पर इसकी कई परतें खुलने लगती हैं.स्पष्टतः जो,जैसा,जितना हम अपने दैनिक जीवन में स्वाभाविक और अनौपचारिक तौर पर घर-परिवार के दायरे में देखते-पाते हैं,उसमें प्रथमतः पिता या पुरुष की सत्ता सर्वोपरि प्रमुख रूप से निर्विवाद और सर्वस्वीकृत होती है. परिवार की प्रथम पाठशाला में यहीं से हमारे व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया में बालवय से ही यह संस्कार-शिक्षा हमें पितृ-पुरुष सत्तात्मकता की ओर अग्रसर कर देती है. यूँ कहें कि एक बच्चे का विकास भारतीय परम्परागत परिवारों में लिंगाधारित हो जाता है.लड़के या लड़की के रूप में उसकी पहचान औऱ अव्वल या दोयम दर्जे का निर्धारण होते ही परिवार की इकाई व्यक्ति के रूप में नगण्य रह जाता है. इस पहले स्तर पर संतान की स्थिति पितृसत्ता से तय होते ही अबोध,अपरिपक्व बालमन में दूसरी परत उसकी जाति की होती है,जो ब्राह्मणवाद की शिकार है;जिसका सम्बन्ध कमोबेश समूचे भारतीय परिवार संस्था के अंतर्गत उसी पुरुषप्रधान पितृसत्ता से नालबद्ध है,जो बच्चे की जाति का निर्धारण करती है.इसी के समांतर पिता के ही धर्म,पंथ,सम्प्रदाय भी स्वयमेव बेटे या बेटी से जुड़ते जाते हैं.
पिछली सदी के आखिरी दशक तक बच्चे के जन्म लेते ही उसका समूचा परिचय पिता से जुड़ जाने का शासकीय अभिलेख बनाया जाने लगा है,जिसमें अब माता का नाम भी जोड़ने का काम हमारे समाज और राज्य ने किया है.इससे पहले पाँच-छः साल की वय होने पर ही औपचारिक शिक्षा संस्थान में प्रवेश करते समय यह सब होता था.यहां भी माता की पूरी पहचान पर वही पितृसत्ता कायम है.लिंग,जाति, वर्ग,धर्म आदि के आधार पर एक बच्चे की पूरी शख्सियत को पुख्ता करने का काम हमारे शैक्षिक संस्थानों के जरिये शैक्षणिक सुविधायें देने के नाम पर स्वतंत्रता पूर्व से ही राज्य कर रहा है.बच्चे के व्यक्तित्व के बहुआयामी सर्वांगीण विकास की अपार सम्भावनाओं की खुलती राहों के बीच उसके अपने लिंग और पिता से जुड़े जाति,धर्म,वर्ग आदि के दायरों का बोध प्रारम्भिक शिक्षाकाल में ही प्रमुखता से हो जाता है.क्या इस प्रकार की तमाम सरकारी सुविधायें स्कूल के बाहर नहीं दी जानी चाहिये ताकि स्कूली परिवेश में शिक्षक,बच्चे पढ़ने,खेलने के अलावा इन जाति, वर्ग के गैरजरूरी विषयों में न पड़ते.आजादी के बाद हमारी शिक्षा पद्धति,पाठ्यक्रम,प्रविधि,परिवेशादि के साथ -साथ पिछड़े,कमजोर जाति-वर्ग को सरकारी सुविधायें मुहैया कराने का तरीका बदला जाना आवश्यक था.हुआ यह कि घर-परिवार में रहकर ही लिंग,जाति,धर्म,कौम के भेद-विचार का जो बीजारोपण परम्परागत रूप से बाल मन-मस्तिष्क की भावभूमि पर हुआ था,वह स्कूलों के माध्यम से दी जा रही मदद के चलते और पुष्पित-पल्लवित हुआ. यही कारण है कि आज पूरा भारतीय समाज खण्ड-खण्ड होने की दुःस्थिति से घिर-भर चुका है.
वर्ण,जाति आधारित भारतीय पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में ब्राह्णण का पद सर्वोपरि होने के कारण किसी भी वर्ग जाति समुदाय के लोगों के लिये यह एक विशिष्ट साध्य हो गया.हर कोई ब्राह्मण होने को जीवन की सफलता और सार्थकता मानने को बाध्य होता गया.
कृषि जीवी समाज में जाति और उसके कर्म-कौशल को सदियों तक जजमानी प्रथा ढोती रही और प्रकारांतर से कमोबेश अब भी ढो रही है. कुछेक अपवादों को छोड़कर अभी भी पूजा-पाठ,कर्मकांड,विवाहादि में पुरोहित ब्राह्मण जाति का ही होता है.गुरु,शिक्षक,प्रशिक्षक पद भले ही हस्तांतरित होकर ऊपर से एकदम निचले पायदान पर पहुंच गए हैं,पर यह पुजारी-पुरोहित का पद रूढ़िग्रस्त है.इसी तरह स्वच्छता के काम करने और शवादि उठाने वाली जाति के कार्यों का हस्तांतरण भी नहीं हो पा रहा.इसी क्रम में नाई,धोबी,कुम्हार के जजमानी सेवा कार्यों को अभी भी इतर जातियों के लोग नहीं कर रहे.इस तरह ब्राह्मण जो श्रेष्ठताबोधक जाति है, वह इधर एक मनोवृत्ति के रूप में ब्राह्मण जाति की पकड़ जकड़ से निकल हर व्यक्ति ,लिंग,जाति,समाज,पद आदि में व्याप्त हो चुकी है.
यह सवर्णताबोध या श्रेष्ठताबोध ही ब्राह्मणवाद है, जिसका शिकार पूरा भारतीय समाज ही नहीं; उसकी
भारतीय समाज की संरचना पर विचार करने पर इसकी कई परतें खुलने लगती हैं. स्पष्टतः जो, जैसा, जितना हम अपने दैनिक जीवन में स्वाभाविक और अनौपचारिक तौर पर घर-परिवार के दायरे में देखते-पाते हैं, उसमें प्रथमतः पिता या पुरुष की सत्ता सर्वोपरि प्रमुख रूप से निर्विवाद और सर्वस्वीकृत होती है. परिवार की प्रथम पाठशाला में यहीं से हमारे व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया में बालवय से ही यह संस्कार-शिक्षा हमें पितृ-पुरुष सत्तात्मकता की ओर अग्रसर कर देती है. यूँ कहें कि एक बच्चे का विकास भारतीय परम्परागत परिवारों में लिंगाधारित हो जाता है. लड़के या लड़की के रूप में उसकी पहचान औऱ अव्वल या दोयम दर्जे का निर्धारण होते ही परिवार की इकाई व्यक्ति के रूप में नगण्य रह जाता है. इस पहले स्तर पर संतान की स्थिति पितृसत्ता से तय होते ही अबोध, अपरिपक्व बालमन में दूसरी परत उसकी जाति की होती है, जो ब्राह्मणवाद की शिकार है;जिसका सम्बन्ध कमोबेश समूचे भारतीय परिवार संस्था के अंतर्गत उसी पुरुषप्रधान पितृसत्ता से नालबद्ध है, जो बच्चे की जाति का निर्धारण करती है. इसी के समांतर पिता के ही धर्म, पंथ, सम्प्रदाय भी स्वयमेव बेटे या बेटी से जुड़ते जाते हैं.
पिछली सदी के आखिरी दशक तक बच्चे के जन्म लेते ही उसका समूचा परिचय पिता से जुड़ जाने का शासकीय अभिलेख बनाया जाने लगा है, जिसमें अब माता का नाम भी जोड़ने का काम हमारे समाज और राज्य ने किया है. इससे पहले पाँच-छः साल की वय होने पर ही औपचारिक शिक्षा संस्थान में प्रवेश करते समय यह सब होता था. यहां भी माता की पूरी पहचान पर वही पितृसत्ता कायम है. लिंग, जाति, वर्ग, धर्म आदि के आधार पर एक बच्चे की पूरी शख्सियत को पुख्ता करने का काम हमारे शैक्षिक संस्थानों के जरिये शैक्षणिक सुविधायें देने के नाम पर स्वतंत्रता पूर्व से ही राज्य कर रहा है. बच्चे के व्यक्तित्व के बहुआयामी सर्वांगीण विकास की अपार सम्भावनाओं की खुलती राहों के बीच उसके अपने लिंग और पिता से जुड़े जाति, धर्म, वर्ग आदि के दायरों का बोध प्रारम्भिक शिक्षाकाल में ही प्रमुखता से हो जाता है. क्या इस प्रकार की तमाम सरकारी सुविधायें स्कूल के बाहर नहीं दी जानी चाहिये ताकि स्कूली परिवेश में शिक्षक, बच्चे पढ़ने, खेलने के अलावा इन जाति, वर्ग के गैरजरूरी विषयों में न पड़ते. आजादी के बाद हमारी शिक्षा पद्धति, पाठ्यक्रम, प्रविधि, परिवेशादि के साथ -साथ पिछड़े, कमजोर जाति-वर्ग को सरकारी सुविधायें मुहैया कराने का तरीका बदला जाना आवश्यक था. हुआ यह कि घर-परिवार में रहकर ही लिंग, जाति, धर्म, कौम के भेद-विचार का जो बीजारोपण परम्परागत रूप से बाल मन-मस्तिष्क की भावभूमि पर हुआ था, वह स्कूलों के माध्यम से दी जा रही मदद के चलते और पुष्पित-पल्लवित हुआ. यही कारण है कि आज पूरा भारतीय समाज खण्ड-खण्ड होने की दुःस्थिति से घिर-भर चुका है.
वर्ण, जाति आधारित भारतीय पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में ब्राह्णण का पद सर्वोपरि होने के कारण किसी भी वर्ग जाति समुदाय के लोगों के लिये यह एक विशिष्ट साध्य हो गया. हर कोई ब्राह्मण होने को जीवन की सफलता और सार्थकता मानने को बाध्य होता गया.
कृषि जीवी समाज में जाति और उसके कर्म-कौशल को सदियों तक जजमानी प्रथा ढोती रही और प्रकारांतर से कमोबेश अब भी ढो रही है. कुछेक अपवादों को छोड़कर अभी भी पूजा-पाठ, कर्मकांड, विवाहादि में पुरोहित ब्राह्मण जाति का ही होता है. गुरु, शिक्षक, प्रशिक्षक पद भले ही हस्तांतरित होकर ऊपर से एकदम निचले पायदान पर पहुंच गए हैं, पर यह पुजारी-पुरोहित का पद रूढ़िग्रस्त है. इसी तरह स्वच्छता के काम करने और शवादि उठाने वाली जाति के कार्यों का हस्तांतरण भी नहीं हो पा रहा. इसी क्रम में नाई, धोबी, कुम्हार के जजमानी सेवा कार्यों को अभी भी इतर जातियों के लोग नहीं कर रहे. इस तरह ब्राह्मण जो श्रेष्ठताबोधक जाति है, वह इधर एक मनोवृत्ति के रूप में ब्राह्मण जाति की पकड़ जकड़ से निकल हर व्यक्ति , लिंग, जाति, समाज, पद आदि में व्याप्त हो चुकी है.
यह सवर्णताबोध या श्रेष्ठताबोध ही ब्राह्मणवाद है, जिसका शिकार पूरा भारतीय समाज ही नहीं; उसकी राजनीति, प्रशासन, पत्रकारिता, खेल, फ़िल्म, संगीत, साहित्य, कला, व्यापार, उद्योग, धर्म, मजहब, सम्प्रदाय सभी में इस 'ब्राह्मणवाद' की अंदर तक घुसपैठ हो चुकी है.
ब्राह्णण होने में कोई बुराई नहीं;बुराई है, ब्राह्मणवादी यानी श्रेष्ठताबोध से ग्रस्त होने में है. दूसरों की बनिस्बत स्वयं को श्रेष्ठ मानना और उसे अहंकार से प्रदर्शित कर दूसरों को निम्न, हेय मानते हुए अपनी श्रेष्ठता को बलात मनवाना एक दुर्वृत्ति है. जब यह मन मस्तिष्क में जड़ें जमा लेती है, तो वही दुष्प्रवृत्ति समाज, देश के लिए अहितकर हो जाती है. यह ब्राह्मणवाद अपनी हजारों वर्ष की लंबी यात्रा में कई कितने रूपों में भारतीय समाज को तोड़ता रहा है.
अपनी जाति के दायरे में ही कई ब्राह्मण अन्य ब्राह्मणों को अपने से निम्न, हेय मानकर उनका अपमान तिरस्कार करते रहे हैं. इसका प्रभाव पूरी जातिवादी सामाजिक संरचना पर पड़ा. श्रेष्ठताबोध की यह संकीर्ण सोच हर जाति में व्याप्त है. ऋषि गोत्र परम्परा, भौगोलिकता, संस्कारादि के आधार पर यह हजारों सालों से फल फूल रही है.
सर्यूपारी, गंगापारी, कान्यकुब्ज, जुझौतिया, भार्गव, नार्मदीय, सनाढ्य, सारस्वत, मैथिल, द्रविड़ आदि कई उत्तर और दक्षिण भारत के ब्राह्मणों के उपभेद हैं. मिश्र, दुबे, चौबे, तिवारी, पांडेय दर्ज़नों हैं, जिनमें कई प्रकार के हैं, इसी तरह क्षत्रिय, वैश्य और पिछड़ों में उपजाति भेद हैं इस्लाम को मानने वालों में भी यह श्रेष्ठताबोध आ गया है. शिया, सुन्नी, मुगल, पठान, देवबन्दी, बरेलवी, बहावी आदि होते हैं अब सामाजिक जाति से अलग देखें;क्रिकेट का ब्राह्मणवाद दूसरे खेलों पर, कला फिल्मों का व्यावसायिक फिल्मों पर, गैर मंचीय कवियों का मंचीय कवियों पर, छंदमुक्त कविता और कवियों का ब्राह्मणवाद आज छंद की कविता और कवियों को बिरादरी बाहर कर हाशिये मैं डाल चुका है. लोकप्रिय लेखिका कथाकार शिवानी, ओमप्रकाश शर्मा आदि को दोयम ही माना जाता रहा. कुमार विश्वास को भी मुख्यधारा के कवि प्रमुखता नहीं देते. आज कांग्रेस ब्राह्मण से पदावनत है, भाजपा ब्राह्मणवाद से ग्रस्त है. केंद्रीय कर्मचारी राज्य सरकारों के कर्मचारियों को कमतर मानते हैं. निजी और केंद्रीय स्कूलों के बच्चे सरकारी स्कूलों के बच्चों को पिछड़ा मानते हैं. अंग्रेजी बोलने से हमारे भीतर की ब्राह्मणवादी आकांक्षा तुष्ट होती है. हिदी बोलनेवाला भारत में कमतर और हीनताबोध से ग्रस्त है. , मर्द अपने आप को अव्वल और स्त्री को दोयम मानता है. इस तरह एक दुष्प्रवृत्ति के रूप में हर कहीं व्याप्त है. लड़के लड़कियों को कमजोर मानते हैं. आज अमेरिका, रूस, चीन, जापान के ब्राह्मणवादी वर्चस्व को उत्तरी कोरिया चुनौती दे रहा है. दक्षिण एशिया में वर्चस्व की इस ब्राह्मणवादी होड़ में भारत आगे रहता है. लव्वोलुआब ये कि आज हर क्षेत्र में जो श्रेष्ठताबोध की होड़-दौड़ जारी है, वह ब्राह्मणवादी दुष्प्रवृत्ति का ही दुष्फल है.
धर्म-मजहब, कौम-सम्प्रदाय, पंथ-पद्धति, जाति-उपजाति, गोत्र, सवर्णताबोध, वर्ग के भेदों से भरे भारतीय समाज की गंगा-जमुनी संस्कृति की दुहाई अब कतई कारगर या पुरअसर नहीं रह गई है.
कोरोना की विकराल संक्रामक व्याधि के दुर्निवार दुष्काल में हुयी तालाबंदी का एक खास क़ाबिले-गौर पहलू यह भी है कि फुर्सत से बैठे लोगों के दिल-दिमागों के वे बन्द तलघरे भी अब खुल गये हैं, जिसमें घुसने का अवसर इस स्वस्वीकृत तालाबंदी ने दिया है. जिसे रोज़ी-रोटी की व्यस्त दिनचर्या ने खोलने की जरूरत कभी पैदा ही नहीं होने दी थी. जाति, लिंग, पद, राजनीतिक-राजनीतिक, सम्पन्नता-विपन्नता, पहचान, प्रतिष्ठा, पहुंच, रौब-दाब, मजहब, धर्म, दलित-गैरदलित, आरक्षित-अनारक्षित, नौकरीपेशा-बेरोज़गार, उद्योगपति-व्यापारी, उच्चतर, उच्च मध्यवर्गीय, मध्यवर्गीय, निम्न मध्यवर्गीय, निम्न और निम्नतर वर्ग, खेतिहर, खेतिहर मजदूर और निर्धन लोगों में अपनी स्थिति का आकलन करने का भरपूर समय मिला है. अपनी दूसरे से तुलना करने पर हर किसी के मन-ज़ेहन में विक्षोभ, आक्रोश, विद्वेष फूट पड़ा है. सोशल मीडिया पर प्रायः नज़रंदाज़ कर दी जाती प्रतिक्रियाओं, वीडियोज और प्रकाशित अन्य सामग्री में यह साफ झलकता है. एक आईने की तरह आज के भारतीय समाज के सच को सामने ला रही ये पोस्ट्स, बयान लोगों के समयसँगत सोच-विचारों के अनेकानेक पहलुओं को खोलती और भावी दुश्चिंताओं से भर रही हैं. कौम और मजहब को लेकर इन दिनों स्पष्टतः विभाजन और द्वेष उभार पर है. कल तक जो सामाजिक सद्भाव था, वह टूटने लगा है. स्कूली बच्चों के बीच घर-परिवार, पड़ोस के लोगों की होती कानाफूसियों का दुष्प्रभाव उनकी आपसी चर्चों में मिलता है. सोशल मीडिया इस दौरे-वक़्त की सोच-समझ का आईना साबित हो रहा है . किसी भी ऐसी पोस्ट पर जो धर्म, कौम, मजहब से सम्बंधित होती है, होती प्रतिकक्रियाओं मैं जिस तरह से अपशब्दों का प्रयोग किया जाता है, वह चिंतनीय है. ज़्यादातर पोस्ट हिंगलिश में ही होती हैं. कितने ही कवियों की रचनाओं में एक साम्प्रदायिक पक्षधरता उभरकर उसी लीक को पीटती लग रही है, जिसे समाचार मीडिया चैनलों ने अरसे खींच रखा है. यहां एक क़ाबिले गौर और सच भी है कि कोरोना वायरस के संक्रमण के चलते जिस तरह हमारे परंपरागत विश्वास, आस्थायें हमारे लिये अनुपयोगी साबित हुयीं और तमाम प्रतीक, परम्परायें, पूजा-इबादत, व्रत-उपवास, पुजारी, मौलवी, बाबा-पीर, मजार-मठ, योगी-ज्ञानी कोई भी हमारे काम का नहीं रहा;सिवाय डॉक्टर, परहेज़, दवाएं, और विज्ञान ही हमारे लिये कारगर हितकर सिद्ध हुआ तब भी हम अपनीवैचारिकजड़ता, पाखण्ड, धर्मान्धता, मिथकों, अवतारों, चमत्कारों आदि से मुक्त नहीं हो सके.
अभी भी यह माना जा रहा है कि विज्ञान, दवायें, डॉक्टर ये सब उसी ऊपरवाले की कृपा से ही यह शक्ति, साहस और शोध-आविष्कारादि की सफलता प्राप्त कर पाते हैं. यह ऊपरवाले के वर्चस्व का हौआ राजनीति क, आर्थिक, राजनैतिक क्षेत्रों पर इस कदर हावी है कि हम उसे परे रख कोई विचार, निर्णय लेने में अक्षम हैं. तालाबंदी में रहकर भी हमारी अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति, विवेक, आत्मचेतना और सम्वेदन पर ऊपरवालों का आतंक या दबाव ही सारी समस्याओं
का कारण है. सत्ता और सियासत में ब्राह्मणवादी सवर्णताबोध की दुष्प्रवृत्ति का अत्यधिक दुष्प्रभाव हमारे, आर्थिक, प्रशासनिक, व्यापारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे को भी प्रदूषित करता है. .
हमारे घर-परिवार, जाति-बिरादरी, पड़ोस, सामाजिक, सौहार्द, सहिष्णुता, सामंजस्य, साहित्य, कला, व्यापार, उद्योग, कृषि, आर्थिक, राजनीतिक परिस्थितियों की भावी दशा और दिशा का कुछ पूर्वाभास होने लगा है. भले ही राजनीतिककों को इसका तात्कालिक लाभ निकट समय में मिलने की सम्भावनायें बनती लग रही हों और इससे जनमत का ध्रुवीकरण हो जाये किन्तु सामाजिक लोकतंत्र के लिये यह बेहतर स्थिति नहीं हो सकती. सामाजिक सौहार्द्र को विघटित करती इस तरह की ब्राह्मणवादी दुष्प्रवृत्तियों के परिष्कार के लिये अच्छी शिक्षा की आवश्यकता है और जिसका आज अभाव है. आज परीक्षा में अच्छे नम्बर और श्रेणी से सफलता ही शिक्षा का ध्येय हो गया है. सफलता औऱ सार्थकता के बीच के अंतर को विस्मृत कर चुके हैं हम. अच्छी कमाऊ नौकरी और सुख संसाधनों का विलासी जीवन ही मानो शिक्षा की सार्थकता मान लिया गया है.
इस सोच और समझ की व्यापक सामाजिक स्वीकृति के कारण शिक्षित नहीं साक्षर नागरिक ही बनाती हमारी शिक्षा अधूरी और अपर्याप्त है. यही कारण है कि आज का युवा जन मन मानस भारतीय समाज के बहुस्तरीय ढांचे को लेकर उस स्तर तक सोच ही नहीं पता, जिसमें एक बहुस्तरीय समाज को बनाये रखने और अलग संस्कृति, खान-पान, बोली आदि के लोगों से कैसे सौहार्द्र पूर्ण सम्बन्ध प्रगाढ़ और स्थायी बनाकर एक राष्ट्र की संकल्पना को साकार किया जा सकता है.
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साईं पुरम कॉलोनी, कटनी, म. प्र.
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