गीत/ नवगीत ——————- सीधी गैल १ ——— अपनी गैल तो सीधी सच्ची सी। पहन पाँव में पगडंडी को सदा चले दिन रात लक्ष्य एक ही साधे मन में जुड...
गीत/ नवगीत
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सीधी गैल १
———
अपनी गैल
तो सीधी सच्ची सी।
पहन पाँव में
पगडंडी को
सदा चले दिन रात
लक्ष्य एक ही
साधे मन में
जुड़े रहे जज़्बात
पर मंज़िल
तक माथा पच्ची सी।
खींच डोर पर
साहस चलते
नहीं डिगा जीवन
धैर्य परीक्षा
कसे कसौटी
हार दिया तनमन
रूठी हुई
ख़ुशी ज्यों बच्ची सी।
दिन कनकौवे
उड़ा उड़ा कर
समझौते काटे
हाथ बची इक
डोर अकेली
शेष रहे घाटे
जुड़ी नहीं
क़िस्मत भी कच्ची सी।
———
जयप्रकाश श्रीवास्तव
नया सूरज-२
——
सुबह हुई है
नये सूर्य का
प्रथम आगमन
सबका भला करे।
किरन बाँचती
पाठ पहाड़ा
नये साल का
ओस उछलकर
चुंबन लेती
दूब गाल का
रात गई है
अँधियारे का
हुआ समापन
दिन उज्जवला करे।
चिड़िया चहकी
गंध उठाये
फूल फिरे वन
नदिया हँसती
धार टटोले
मछली का मन
नाव नई है
तट ख़ुशियों के
दे अपनापन
जीवन चला करे।
——
जयप्रकाश श्रीवास्तव
अब नहीं-३
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अब नहीं
गाती है कोयल
गाँव की अमराइयों में।
नहीं घूँघट
सरकते हैं
नहीं नथनी
चमकती है
नहीं हँसते
घाट पनघट
नहीं बेंदी
दमकती है
अब नहीं
बजती है पायल
नेह की अँगनाईयों में ।
वट सयाना
काँखता है
धूल आँगन
फाँकता है
गली मोंड़ों
पर लफंगा
शहर आकर
झाँकता है
अब नहीं
बसता है काजल
आँख की गहराइयों में।
मेड़ खोदें
खेत चलकर
फसल काटें
भूख चरकर
जोत गिरवी
महाजन से
ब्याज भरते
क़र्ज़ लेकर
अब नहीं
गिरता है बादल
उम्मीदों की क्यारियों में।
—-
जयप्रकाश श्रीवास्तव
रात में लोरियाँ-४
—-
मर गये पनघट
मरी सब शोख़ियाँ
नहीं देती हैं सुनाई
रात में अब लोरियाँ।
छिप गई है
बादलों में हर किरन
रोशनी की
छाँव में तम के चलन
बैठकर अभिशप्त से
बस ढो रहे ख़ामोशियाँ।
हर तरफ़ है
धुँध में लिपटा शहर
हो गई है
हवा भी मीठा ज़हर
शोरगुल के बीच में
व्याप्त हैं सरगोशियाँ।
ढूँढती है
दृष्टि गुज़रे वक़्त को
क्या हुआ है
आजकल के रक्त को
हो गई इतिहास में
सब दफ़्न मुखरित बोलियाँ।
———
जयप्रकाश श्रीवास्तव
साथ चलें-५
——————
चलो प्रेम की उँगली थामे,
कुछ दूरी तक साथ चलें।
कटुता बिछी हुई राहों पर,
जहाँ तहाँ बैठे हुड़दंग।
चिथड़े पहने खड़ी विरासत,
संस्कार हो गए उद्दंड।
आओ स्नेह भरे बोलों से,
मन के सब कल्मष धो लें।
ढीठ समय हँसता है हम पर,
देख हमारी मजबूरी।
जाने अनजाने रिश्तों में,
बना रखी हमने दूरी।
माटी सोंधी अपनेपन की,
बोयें ख़ुशियों की फ़सलें ।
विश्वासों पर चढ़े बमीठे,
तम घर में डेरा डाले।
बंधक सारे हुए उजाले,
ख़ुशियों के मुँह पर ताले।
घुट घुटकर जीने से अच्छा,
पल दो पल गा लें हँस लें ।
———
जयप्रकाश श्रीवास्तव
हम ठहरे बंजारे-६
——
साधो!हम ठहरे बंजारे,
कहाँ बिताई रात न जाने,
कहाँ उगे भिनसारे।
पग पग धरती नापी
छाले सहलाये,
देख रहे है अब भी
चेहरे कुम्हलाये,
अलख जगाते घर घर बनकर,
सूरज के हरकारे।
सुख बाँटा लोगों में
दुख का दान लिया,
जीवन चलते रहना
बस ये मान लिया,
खेतों के दर्पन मटमैले,
देखे रूप उघारे।
झूठ महाजन जिसकी
बंधक सच्चाई,
कर्म अभागा देखा
भटकी तरुणाई,
पगडंडी सोई सड़कों पर
लंबे पाँव पसारे।
——
जयप्रकाश श्रीवास्तव
गर्मी-७
—————
भीषण गर्मी
खोज रही है
छाँव ठिकाना।
आँगन में
झाड़ू देकर
दूर नीम पर
टाँगे सूरज,
घर भीतर
दालानें रँगता
पोंछ पसीना
मन का धीरज
भरी अलगनी
आलस ओढ़े
नींद बहाना।
खोल दुफरिया
बाज़ारों में
सजा दुकानें
बेचे आगी,
लू लपटों की
करे दलाली
हवा झुलसती
फिरती भागी
उभर गया है
नदिया का फिर
घाव पुराना।
खेत उघारे
मरुथल प्यासे
आँधी उगले
धूल बवंडर,
धरती तापे
घाम अँगारा
कुआँ बावड़ी
प्यास समंदर
बूँद बूँद की
क़ीमत क्या है
जग पहचाना।
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जयप्रकाश श्रीवास्तव
तुम आओ तो...८
——-
कुछ सपनों ने
जन्म लिया है
तुम आओ तो आँखें खोलें।
नींद सुलाकर
गई अभी है
चंदा ने गाई है लोरी
रात झुलाती
रही पालना
दूध भात की लिये कटोरी
फूलों ने है
गंध बिखेरी
तुम हँस दो तो दर्पन बोलें।
भोर सुहानी
लेकर आयी
किरन डोर से बँधे उजाले
सोंप दिये हैं
ग़ज़रे सारे
रूप चाँदनी तारों वाले।
धूप उगाई है
सूरज ने
आओ मिल अँधियारा धोलें।
बजी घंटियाँ
मंदिर जागा
पंछी के कलरव हैं जागे
ओस कणों ने
दूब सिरों पर
मुकुट मोतियों वाले टाँगे
हवा सुवासित
भजन आरती
तुम गाओ तो अमृत घोलें।
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जयप्रकाश श्रीवास्तव
क्यों ?-९
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क्यों है चिड़िया गुमसुम बैठी
क्यों आँगन ख़ामोश हुआ है
क्यों किसने है क्या कर डाला
क्यों सबके मुँह पर है ताला
क्यों चमगादड़ रात हुई है
दिन दुबका ख़रगोश हुआ है।
कितना तो मजबूर आदमी
क्यों पाले दस्तूर आदमी
क्यों जीवन बन गया त्रासदी
क्यों ठंडा सब जोश हुआ है।
क्यों दुख हर घर की पहचान
क्यों सुख मरा बिना विषपान
क्यों तम बिकता दूकानों में
क्यों सूरज मदहोश हुआ है।
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जयप्रकाश श्रीवास्तव
भोर-१०
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आँगनों की धूप
छत की मुँडेरों पर
बैठ दिन को भज रही है।
सुबह की ठिठुरन
रज़ाई में दुबकी
रात भरती उसाँसें
लेती है झपकी
सिहरते से रूप
काजल कोर बहती
आँख सपने तज रही है।
अलस अँगड़ाई
उठा घूँघट खड़ी है
झटकती सी सिर
हँसी होंठों जड़ी है
फटकती है सूप
झाड़ू से बुहारे
भोर उजली सज रही है
लगा है पढ़ने
सुआ भी चित्रकोटी
चढ़ा बटलोई
मिलाकर दूध रोटी
जग गये हैं कूप
पनघट टेरता है
छनक पायल बज रही है।
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जयप्रकाश श्रीवास्तव
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