पान-बताशे से प्रसन्न होने वाले विवाहों के देवता-हरदौल लाला आत्माराम यादव पीव लोक कथाओं में नियतिप्रधान, व्यक्तिप्रधान, समाजप्रधान एवं जातिप्...
पान-बताशे से प्रसन्न होने वाले विवाहों के देवता-हरदौल लाला
आत्माराम यादव पीव
लोक कथाओं में नियतिप्रधान, व्यक्तिप्रधान, समाजप्रधान एवं जातिप्रदान विशेषणों का आधिक्य देखने को मिलता है। कुछ रचनायें व्यक्तिविशेष के माध्यम से उत्पन्न होती है तो कुछेक रचनाओं को जनसमुदाय द्वारा यथावत प्रस्तुत करने का चलन रहा है। व्यक्तिप्रधान रचनाओं का जन्म किसी कवि,लेखक की कृतियों-रचनाओं को आधार माना गया है। लोककथायें किसी समाज-जाति विशेष के व्यक्तित्व के प्रेरणादायी जीवनवृतांत के सृजन का नेतृत्व भी करती दिखाई देती है। प्रायः ये लोककथायें पौराणिक, ऐतिहासिक, सीमान्त क्षैत्रीयता सहित वनप्रदेशों के रहवासियों के कथानक को अपने में आबद्ध किये हुये होती है। लोक देवी देवताओं के सम्बन्ध में कुछ विशेष जाति, प्रादेशिक क्षेत्र की प्रचलित बोलियों के मध्य अनेक क्विदंतियां , घटनाओं का समावेश लिये होती है पर उसकी सच्चाई या कल्पना कितनी प्रासंगिक है उसका साक्ष्य तो तत्कालीन समय के समाज को पता होता है जो उनके चमत्कार या रहस्यमय जीवनचरित्र को जानता हो। जिस लोक देवी-देवता का इतिहास संजोया नहीं गया है उनके जीवन चरित्र की सच्चाई किसी वृक्ष में फैली अमरवेल की तरह ही है जिसका कोई सिरा-कोना ढूंढे नहीं मिलता है। ऐसे ही अनेक स्थानों पर अधिकांश समाजों की तरह यादव समाज की ग्वाल परम्परा में हरदौललाला को लोक देवता मानकर कोई उन्हें हरदौल बाबा तो कोई हरदौल लाला के नाम से पूजा करता है।
सोलहवी शताब्दी में पैदा हुये हरदौललाला हमारे ही बीच के एक इंसान थे। जिनके विषय में कुछ कवियों और विद्धानों के बीच मतभेद भी देखने को मिला है और कोई हरदौल का असली नाम हरिसिंह देव तो कोई हरदेवसिंह के नाम से बुन्देलखण्ड का प्रसिद्ध देव होने के प्रमाण अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत करता है। होशंगाबाद के ग्वालटोली में 2 शताब्दियों से हरदौल का चबूतरा है जहां 40 वर्षों पूर्व उनका मंदिर बनाकर उन्हें सफ़ेद घोड़े पर सुसज्जित सवार के रूप में बनी प्रतिमा को प्राणप्रतिष्ठित कर पूजने का क्रम चला आ रहा है। 40 वर्षों से में तत्समय के शतायु के करीब कुछ प्रबुद्ध समाजजन से उनके विषय में जानना चाहता था किन्तु कोई भी मेरी शंका का समाधान नहीं कर सका। अलबत्ता यही बताया गया की ये हमारे पूर्वजों के पूज्य है इसलिए हम भी पूजते आ रहे है। मेरे मन में यह जिज्ञासा तभी से ही रहीं है कि हमारे बीच पैदा हुआ एक इंसान क्यों और कैसे हमारे लिये पूज्य होकर लोकदेवता के आसान पर विराजमान हो गया। इन लोक देवताओं के जीवन चरित्र का कौन सा रहस्य या चमत्कार है जो हमें उनसे जोड़े रखता है किन्तु उनके जीवनचरित्र का अनुकरण समाज में दूर तक नहीं दिखता है। ग्वाल समाज पीढ़ीदर पीढ़ी इन्हें निश्चित माह की तिथि को पूजने से नहीं चूकता है और नवरात्रि, जवारे आदि में जस के समय कुछेक पढ़िहार के शीष में हरदौल की छाया का आगमन होता है जो उपस्थित समाजजनों की समस्याओं व पारिवारिक दुखों को दूर करने के लिये आर्शीवाद देने व दाने देखकर भभूत देकर समस्याओं-दुखों के दूर करने को आश्वस्त करते हैं। जबकि देखा जाये तो मैं पाता हॅू कि समाज के उन उपस्थित भक्तों में या हरदौल बाबा या अन्य बाबा की सवारी के सामने भयातुर लोगों की लोभवश फरियादें ज्यादा होती है और देवता का आर्शीवाद पाकर भक्त के मन में भयमिश्रित फुरफुरी का आभास ओर संतुष्ट होना उन्हें अहंकार से भरा दिखता है। बचपन से ही मन में यह जिज्ञासा मुझे अन्वेषण के लिये बाध्य करती रही है कि आखिर क्या कारण है? और क्यों ? हम अपनी आत्माओं में इन लोक देवी-देवताओं को हावी होने देते हैं। यह अनसुलझे प्रश्न इसलिये भी उठते हैं कि जहाँ से हरदौललाला या अन्य वे सभी इंसान, जो देव बनकर पूजनीय हो गये, क्या कारण है कि महर्षि बाल्मिकि, तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई, रसखान, कबीर रहीम जैसे उच्च-विराट व्यक्तित्वशाली लोग देवता नहीं हो सके ? और समाज इन्हें पूजने से रहा। वहीं हरदौललाला जैसे अन्य व्यक्तित्व के लोग देवत्व के पायदान पर क्यों और कैसे विराजमान हुये इसे समझने एवं परखने की आवश्यकता है जिसके प्रमाणिक निष्कर्ष पर पहुचने से पूर्व ऐसे साक्ष्यों और ठोस आधारों पर वैचारिक चिंतन एवं जनुश्रुतियों व क्विदंतियों का विचारण, अन्वेषण व उसकी विशद सांगोपांग ऐतिहासिक उपलब्धियां के अनावरण की आवश्यकता है।
इतिहासकारों ने बुन्देलखण्ड के इतिहास में हरदौल को ओरछा नरेश जुझारसिंह का छोटाभाई बताया है। उनके जन्म को लेकर अलग-अलग जानकारी मिलती है जो विवादग्रस्त कहीं गयी है। रामराजा मंदिर के फूलबाग चौक ओरछा में लगे शिलालेख में हरदौल का जन्म संवत 1664 दर्ज है वहीं ओरछा के दस्तावेज में संवत 1664 माघवदी 2, शनिवार रात्रि 9 बजे माना है किन्तु केशवरचित “”वीरसिंहदेव चरित”” की रचनातिथि में संवत 1664 बसंत शुक्ल पक्ष की अष्टमी,दिन बुधवार मानी गयी है। ओरछा नरेश जुझारसिंह के छोटे भाई हरदौल एक न्यायप्रिय,सत्यवादी, पराक्रमी योद्धा, के रूप में अपनी पहचान बनाकर ओरछा राजा जो मुगल शासक के अधीन थे ,उस मुगलसेना के सेनापतिे थे। हरदौल की मौत का प्रमुख कारण यह माना जाता है कि मुगल शासक के प्रतिनिधि सरदार हिदायत खान के बेटे ने राजघराने की बेटी के साथ बलात्कार करने का प्रयास किया। हिदायत खान फूलबाग में हरदौल की बैठक के बगल में रहता था, हरदौल को जैसे ही इस बात का पता चला तो हरदौल ने हिदायत खान के बेटे का मार डाला और उसके पिता हिदायत खान को तत्काल फूलबाग खाली करने को कहा। हिदायत खान ने बेटे के मारे जाने के बाद नाराज होकर हरदौल से बदले की भावना से उनकी शिकायत बादशाह से कर दी ओर अनवर खान पठान के नेतृत्व में सेना की एक टुकड़ी लेकर ओरछा को घेर लिया तब हरदौल ने अपने पराक्रम से अनवर खान को लड़ाई में मारने के बाद पूरी सेना को परास्त कर दिया। इस पर मुगल शासक शाहजहाँ ने राजा जुझारसिंह को गददी से हटाने की धमकी दी तब राजा जुझारसिंह ने ओरछा आकर अपने छोटे भाई हरदौल को जो बतौर सेनापति पद पर रहते हुये ओरछा का राजकाज देख रहे थे को बेदखल करने की युक्ति पर विचार करने लगे तब हरदौल के विरोधियों ने हाथ आया अवसर को भुनाते हुये जुझारसिंह के कान भर दिये कि तुम्हारी पत्नी से उसे विष दिलवा दे, वे बेटे की तरह मानती है अगर रानी मना करे तो उनपर अवैध सम्बन्ध का आरोप लगाना, वे पतिव्रता है और इस आरोप को सहन नहीं कर सकेंगी और हरदौल को जहर दे देंगी। राजा ने ठीक इसी बात का पालन किया और रानी ने अपने धर्मपरायणता की रक्षा के लिये अपने देवर को जहर देकर मार दिया। कहा जाता है कि जिस समय उनका प्राणान्त हुआ उस समय उनकी उम्र 29 से 32 वर्ष के लगभग रही थी।
हरदौल की मौत को लेकर दूसरी जनश्रुति यहां प्रचलित है जिसके अनुसार हरदौल की लोकप्रियता चरम पर थी जो उनके दरवारियों और मुगलों को तकलीफ देने लगी जिससे सभी लोक हरदौल के प्रति गहरी ईर्ष्या रखने लगे और उनके भाई राजा जुझारसिंह के कान भर दिये कि तुम्हारी पत्नी रानी चम्पावती के साथ उनके अवैध सम्बन्ध है। राजा को अपने पुत्रसमान भाई पर शक हो गया और कच्चे कान के राजा जुझारसिंह ने अपनी पत्नी के पतिव्रत धर्म की परीक्षा लेने के लिये उसे अपने देवर को विष मिश्रित भोजन कराने की शर्त रखी। रानी ने राजा के कहने पर अपने देवर हरदौल को भोजन के लिये आमंत्रित किया तथा भोजन परोसने के बाद रानी की आँखों से अश्रुधार बहने लगी तब हरदौल के कारण पूछने पर रानी ने सच बता दिया कि तुम्हारे भाई के कहने पर यह भोजन देने को विवश हॅू। हरदौल ने भाभी माँ के सच्चे प्रेम पर खरा उतरने के लिये वह विषमिश्रित भोजन आदर के साथ ग्रहण किया और कुछ समय बाद उनका प्राणान्त होगया। इसके अतिरिक्त एक अन्य कारण यह भी बुन्देलखण्ड में चर्चित है कि ओरछा के राजा जुझारसिंह की अनुपस्थिति में हरदौल राजकाज देखा करते थे और उनके राजकाज से जनता सुखी थी तथा उनकी न्यायप्रियता एवं प्रभाव के कारण हरदौल लोगों के दिलों में राज करने लगे थे तथा राजा जुझारसिंह का वर्चस्व कम होने लगा था तब राजा को भय हुआ कि कहीं ऐसा न हो कि उनका छोटा भाई हरदौल उनकी गददी पर आसीन हो जाये इसी ईर्षा के कारण राजा ने हरदौल को विष देने का षड़यंत्र रचा और उसमें पूर्व के प्रसंग को भी यथावत रखकर सत्य से भ्रमित किया । चॅूंकि यह कारण ज्यादा प्रासंगिक नहीं माना गया है।
हरदौल की इस प्रकार मृत्यु से कुछ जनुश्रुतियां भी जुड़ी है जिसमें कहा गया है कि सेनापति हरदौल की विषाक्त भोजन से मृत्यु के बाद हरदौल लाला से जुड़े 7 सौ लोगों ने अपने प्राण त्याग कर हरदौल की मौत का विरोध कर राजा के प्रति मौन नाराजी व्यक्त की। हरदौल के समर्थन में सामूहिक 7 सौ लोगों के बलिदान ने तत्कालीन समाज को झकझोरकर रख दिया था और राजा जुझारसिंह के प्रति प्रजा का असंतोष सामने आया। दूसरी एक किवदंती यह भी मिलती है कि हरदौल की इस प्रकार की मृत्यु पर उनके पालतू कुत्ते एवं उनके कक्ष की साफ-सफाई में लगे मेहतर ने विषाक्त अवशिष्ट खाकर अपने प्राण त्याग दिये, जो आज भी हरदौल के चबूतरे के बाजू में उनके स्मृतिचिन्ह प्रमाणस्वरूप में देखे जा सकते हैं। इन घटनाओं के कारण ही हरदौल के प्रति लोगों की श्रद्धा जागृत हो गयी और उच्च एवं निम्न वर्ग के लोगों के लिये वे पूजनीय हो गये। एक सेनापति और राजा का भाई किसी देवत्व को प्राप्त करें तो इसके अंतरंग पहलु पर चिंतन भी आवश्यक है न कि उनके बाद उनके लिये त्याग-बलिदान करने वालों को उसका मापक माना जाये। हरदौल के जीवन की घटनाओं में जो भी तथ्य देखने को मिले उसमें सबसे महत्वपूर्ण देवर-भाभी का प्रेम और विष देने का प्रसंग है। देवर भाभी का यह प्रेम कोई दैहिक प्रेम नहीं बल्कि लौकिक प्रेम है जहाँ माँ और पुत्र के प्रेम की पावनता के दर्शन देवरभाभी के रूप में देखने को मिलता है। हरदौल ने सहज ही विषाक्त भोजन करना इसलिये स्वीकार किया था कि उनकी भाभी के पतिव्रत प्रेम और देवर के प्रति पुत्रवत वात्सल्य प्रेम की चर्मोत्कृष्टता धर्म के रूप में कायम रह सके इसलिये प्रेम की पवित्रता पर खरा उतरने के लिये हरदौल ने अपने जीवन का त्याग और बलिदान किया ताकि नाते-रिश्ते की मर्यादा तथा धर्म ओर संस्कृति अक्षुण्ण बनी रहे।
ओरछा राज्य सहित बुन्देलखण्ड के तत्कालीन घटनाक्रम में हरदौल लाला के देवत्व पद की ओर अग्रसर होने की शुरूआत तब शुरू हुई जब उनकी मृत्यु के बाद अनेक प्रसंगों में हरदौल की जीवित उपस्थिति देखी गयी जिससे लोगों को अचंभित किया कि आखिर वे भूत-प्रेत बनकर क्यों भटक रहे है? उनके मृत्युउपरांत सशरीर उपस्थितियों को समाज ने एक चमत्कार माना है। चमत्कारिक घटनाओं में प्रमाण मिलते हैं कि हरदौल ने प्रेत बनकर मुगलशासक के प्रतिनिधि हिदायत खान को इतना सताया कि आखिर वह ओरछा छोड़कर दिल्ली चला गया। एक आततायी मुगल प्रतिनिधि के प्रति हरदौल की बदले की भावना को बुन्देलखण्ड का समाज राष्ट्रहित से जोड़कर देखता है कि प्रेतरूप में हरदौल का यह कार्य देशप्रेम को दर्शित करता है तथा यह भी दर्शाता है कि मुगल बादशाह शाहजहाँ को हरदौल ने प्रेत बनकर कई बार पलंग से नीचे पटका तब वह भयभीत हो गया और हरदौल के विषय में जानकारी होने पर अपने राज्य के कई ग्रामों में हरदौल के चबूतरे बनवाये जिससे हरदौल का क्रोध शांत हुआ। जबकि कुछेक तर्क मिलते हैं प्रेत की शक्ति ओर प्रभाव के द्वारा बादशाह शाहजहाँ द्वारा हरदौल के चबूतरे बनवाने की बात मिथ्या है। वास्तविक रूप से हरदौल के चबूतरे बनवाने का श्रेय उन भक्तों को जाता है जो हरदौल में पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखते हुये उनके आदर्शों से प्रभावित होकर उन्हें देवता का स्थान देकर उन्हें पूजने लगे।
बुन्देलखण्ड में मामा का रिश्ता बड़ा पावन माना गया है जिसे हरदौल ने मृत्यु के पश्चात चमत्कृत रूप से बहिन के घर भात देकर और पावनता प्रदान की है। यह अलग बात है कि ब्रज के इतिहास में कंस माहिल और शकुनि मामाओं ने इसे कलंकित कर दिया, परन्तु आज भी भारत के अनेक प्रान्तों में मामा का स्थान माँ से बढ़कर है और उनके लिये भान्जे-भान्जियां संतान से बढ़कर है। शादी-विवाह में मामा के बिना वैवाहिक आयोजन अधूरा माना गया है इसलिये मामा महत्वपूर्ण हो गया है। राजा जुझारसिंह की बहिन कुंजकुंवरि अपनी बेटी के विवाह का निमंत्रण देने और भात मांगने ओरछा आई किन्तु उसने राजा जुझारसिंह को भाई हरदौल का हत्यारा मानकर निमंत्रण नहीं दिया। बहिन का हृदय अपने भाई लाला हरदौल के प्रति द्रवित हो उठा और उसने उस स्थान पर जहाँ हरदौल का दाहसंस्कार किया था वहाँ शादी का निमंत्रण देकर लौट आयी। दतिया में बहिन के घर शादी के दिन निश्चित समय पर सोने-चान्दी के आभूषणों एवं कीमती उपहारों व नवीन वस्त्रादि से लदी गाड़िया पहुंची जहां हरदौल अपनी बहिन की ससुराल पहुंचे और भांजी को यथोचित उपहार के साथ बहिन को भात व ससुराल को चीकट देकर तथा मेहमानों को भोजन परोसकर सबको अचंभित कर दिया। प्रेतावस्था में विवाह आयोजन में शामिल हुये हरदौल किसी को दिखाई नहीं दिये किन्तु उनकी आवाज सुनाई देती है और उनके द्वारा चीकट देते समय वस्त्र उठता-अर्पण करते दिखता है, भोजन परोसते समय परोसना दिखाई देता है किन्तु किसी मनुष्य के दर्शन नहीं होते हैं तब बहिन कुंजा द्वारा हरदौल से दर्शन देने की विनती पर हरदौल ने सभी को दर्शन देकर चमत्कृत किया।
एक सामान्य व्यक्ति के देवता बनने के पीछे देवर-भाभी के प्रेम की चर्मोत्कृष्टता है जहाँ इस प्रेम को अमरता प्रदान करने के लिये हरदौल अपना प्राणोत्सर्ग करते हैं तथा दूसरा वह चमत्कार है जहाँ हरदौल मृत्यु के बाद अपनी भान्जी की शादी में उपस्थित होते हैं, यही चमत्कार समाज के समक्ष देवता होने की आवश्यक शर्त को पूरी करते हैं। वैवाहिक आयोजन में इसी प्रेमपूर्ण निमंत्रण पर आने और चीकट देने तथा बहिन कुंजा द्वारा भाई हरदौल का हर विवाह आयोजन में ऐसे ही सहयोग देने का वचन देने व पूरा करने के कारण वैवाहिक आयोजनों में हरदौल की पूजा का प्रचलन शुरू हुआ और लोग अपने घरों में होने वाले वैवाहिक आयोजनों में विवाह का देवता के रूप में हरदौल लाला को पूर्ण श्रद्धा और भक्ति से निमंत्रित कर पूजने लगे तथा दूल्हा या दुल्हन माता पूजन के समय या बारात निकासी एवं आने के समय हर बार हरदौल को पान-बताशे की भेंट देने लगे और माना जाने लगा कि अगर लोकदेव हरदौल को पान का वीडा के साथ बतासे का भोग लगाये तो हरदोल लाला भोग लगाने वाले जोड़े का वैवाहिक आयोजन सफलता के साथ निर्विघ्न पूरा करते हैं। इस युग के मनुष्यों में हरदौल ऐसे देवता है जो पुराणों में नहीं है,शास्त्रों में नहीं, ऋषिमुनियों के वेदों में नहीं है, इनके द्वारा न कोई तपस्या की गई, न कोई यज्ञ किया गया, न कोई धर्म अपनाया ओर न ही अपना कोई धर्म चलाया गया है, न ही इन्होंने किसी दैत्य या राक्षस का वध किया है, न ही चेले चपाटी या सम्प्रदाय खड़ा किये हैं, बल्कि सही मायने में हरदौल देवत्व प्राप्त करने की ओर नहीं चले , वे न कुछ होना चाहते थे, एक राज्य के सेनापति रहते अपने कर्तव्यमार्ग पर अपनाया गया लोकाचरण उन्हें देवत्व प्राप्त होने की ओर ले गया वे तो देवत्व के पीछे चले थे परन्तु देवत्व उनके आगे चलकर प्रतिष्ठित हो गया। हरदौल का देवत्व पवित्र प्रेम से उत्पन्न हुआ है तभी गाँव-गाँव में इनके चबूतरे हैं। घर-घर में उनके गीत गूंजते हैं। आज हरदौल को गये चार सो साल से ज्यादा हो गये हैं विवाहों के गीतों में करूणा का प्रसंग लिये अनेक गीत एवं मांगलिक गीतों में हरदोल लाला की अनॅगूज इस लोक देवता को स्मरण रखती है और वैवाहिक आयोजनों की पूर्णता इस विवाह के देवता के बिना अधूरी ही है यही कारण है कि बुन्देलखण्ड के इस लोक देवता हरदौल लाला की गाथायें समाज के लिये अनुकरणीय और आदर्श चरित्र के रूप में प्रचलित है जिसे समाज द्वारा स्वीकार्य किया जाकर वैवाहिक आयोजनों में हरदौल को आमंत्रित करने और पान-बताशे की भेंट देकर अपने कार्यों की सिद्धि के रूप में फलीभूत देखा जाकर उन्हें विवाहों का देवता के रूप में प्रतिष्ठित किए हुये हैं।
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