(अजीत कौर) कूड़ा-कबाड़ा नहीं है औरत - मनोज कुमार झा पंजाबी की प्रसिद्ध लेखिका अजीत कौर की आत्मकथा ‘कूड़ा-कबाड़ा’ वैसे तो ‘ख़ानाबदोश’ के बाद ...
(अजीत कौर)
कूड़ा-कबाड़ा नहीं है औरत
- मनोज कुमार झा
पंजाबी की प्रसिद्ध लेखिका अजीत कौर की आत्मकथा ‘कूड़ा-कबाड़ा’ वैसे तो ‘ख़ानाबदोश’ के बाद लिखी गई है, पर इसमें ‘ख़ानाबदोश’ के पहले का जीवन-वृतांत है। उल्लेखनीय है कि आत्मकथा ‘ख़ानाबदोश’ के लिए उन्हें 1986 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिला। ‘ख़ानाबदोश’ की शुरुआत उनकी छोटी बेटी कैंडी की फ्रांस में मृत्यु की घटना से शुरू होती है, वहीं ‘कूड़ा-कबाड़ा’ का भी अंत इसी त्रासद घटना से होता है। इसके बाद घोर दुख और संत्रास में महीनों तक डूबी रहने वाली अजीत कौर का नया जन्म होता है। उनके ही शब्दों में कहें तो ‘जब प्रलय आई, तमाम दुनिया, तमाम कायनात फ़नाह हो गई, तमाम सूरज और चाँद और सितारे बुझ गए, तो मैं ही थी हज़रत नूह, और मैं ही थी हज़रत नूह की किश्ती, जिसमें मैं कैंडी की पीड़ा की पोटली कलेजे से चिपकाए और अर्पणा को आँचल में छिपाए कायनात के अँधेरे छोर से रौशनी के दूसरे छोर तक चली आई। चली आई इस दूसरे जन्म में। अर्पणा और मैं! और हम दोनों में शामिल कैंडी। पुरानी अजीत कौर की राख से पैदा हुई ये बिलकुल मुक़्तलिफ़ अजीत कौर।’ बता दें कि ‘कूड़ा-कबाड़ा’ में 1974 के अंत तक की लेखिका की जीवन-कथा सामने आई है।
‘कूड़ा-कबाड़ा’ की शुरुआत होती है लाहौर के घर में उनके भाई के जन्म लेने की घटना से, जिसका नाम प्यार से घुग्घी (जसबीर) रखा जाता है। इसके साथ ही जो खुशी और उत्सव का माहौल बनता है, उसमें कहीं न कहीं वह अकेली और उपेक्षित-सी होती चली जाती हैं, जबकि घर की दाइयाँ उन्हें भाग्यशाली बताती हैं, क्योंकि उनके बाद भाई का जन्म हुआ। एक दाई उस नवजात को जो एक ‘गुलाबी-सी गठरी’ जैसा था, उनके सामने लाकर टिका देती है और कहती है, “तू बड़ी भाग्यशालिनी है री! यह तेरा वीर है। ख़ूब प्यार करना इसे। इसके साथ खेलना। इसे राखी बाँधना। बड़ा होकर यही तो तेरी रक्षा करेगा, डोली में बिठा कर विदा करेगा।” बस, इसी बात में समाज और परिवार में पितृसत्ता के उस ढाँचे का संकेत मिल जाता है, जिसमें एक स्त्री की ज़िंदगी हमेशा दोयम दर्जे की मानी जाती है और घर हो या बाहर, कहीं भी वह ख़ुद कोई निर्णय नहीं ले सकती। हमेशा उसे घर के पुरुषों की बात को एक आदेश के रूप में स्वीकार करना पड़ता है, भले ही वह पुरुष उम्र में बहुत कम, छोटा भाई ही क्यों न हो। अजीत कौर ने अपने बचपन में ही इस सच्चाई को, पितृसत्ता की इस सामंतवादी जकड़न को अच्छी तरह महसूस कर लिया था और तब तक महसूस करती रहीं, अथाह पीड़ा के साथ इसे झेलती रहीं, जब तक ख़ुद को ‘लिबरेट’ नहीं कर लिया। लेकिन लिबरेट हुईं कब? जब ज़िंदगी का संघर्ष चरम पर पहुँच गया, जब एक लंबी ज़िंदगी गुज़र गई दिन-रात लगातार खटते हुए, लानतें-मलामतें सहते हुए, अपमान-पीड़ा-संघर्ष, न पिता का घर अपना, न ही पति का घर, जब सब कुछ छोड़ कर सिर पर बिना किसी के साये के अपनी दोनों बच्चियों को पढ़ा-लिखा कर बड़ा कर दिया और हर तरह से योग्य बना दिया, तब भी दुर्भाग्य ने पीछा नहीं छोड़ा। स्कॉलरशिप पाकर उच्च अध्ययन करने फ्रांस गई उनकी छोटी बेटी कैंडी वहाँ जलने से मर गई। इसके बाद जब उन्हें हर घड़ी यही लगता कि अब नहीं बचूँगी, तभी एक दिन उन्होंने अर्पणा की चीख़ सुनी।
अजीत कौर लिखती हैं, “अर्पणा की चीख़ से मैं शताब्दियों की बेहोशी से चौंक कर जाग गई जैसे, और जीवित रहने की वजह, ज़िंदा रहने का आधार ढूँढ़ने लगी। मुझे ज़िंदा रहना था। अर्पणा के लिए। और उसे बचाना था उन सब संतापों से, जिन्हें मैंने और कैंडी ने झेला था।” दरअसल, पूरा जीवन खपा कर, जो कुछ भी उन्हें हासिल हुआ, अब वह अर्पणा थीं, कैंडी वापस नहीं आ सकती थी। किस तरह उनका जन्म हुआ था, उनके बाप से उन्हें कैसी उपेक्षा मिली थी, जिसने कभी उन्हें दुलराया तक नहीं था और जो उनकी माँ को धमकियाँ देता था कि उन्हें सिंगापुर के वेश्यालय में बेच देगा, जहाँ उसकी एक मौसी रहती थी। उससे बचा कर, उसके ख़ौफ़ के साये से दूर रख दिन-रात मेहनत-मशक्कत कर पढ़ाया-लिखाया था, उन्हें उनके पैरों पर खड़ा होने लायक बनाया था। यह सब खत्म हो जाता अगर वे फिर से जागती नहीं। अजीत कौर लिखती हैं, “जैसे कड़ाक की आवाज़ से कोई बहुत पुराना दरवाज़ा टूटता है, मेरे अंदर भी शताब्दियों से बंद पड़ा कोई दरवाज़ा टूटा। अपने सभी ज़ंग खाये कीलों-कब्ज़ों सहित।...शताब्दियों से बंद पड़ी हवा आह लेकर बाहर निकली और फ़िज़ा में घुल गई। अंदर लटकते जाले सूरज की नंगी रोशनी में कांपने लगे।...आँधी में जैसे तिनके उड़ जाते हैं, मेरे सारे डर-ख़ौफ़ उड़ गए। सबसे ज़रूरी थी ज़िंदगी, अर्पणा की ज़िंदगी, जिसकी मैंने हिफ़ाज़त करनी थी। सबसे ज़रूरी था अर्पणा को सिखाना कि ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जिए। सबसे अहम था अपने विवेक की आवाज़ सुनना। अब मैं सुन रही थी। कितना कुछ गँवाने के बाद सुन रही थी मैं वह आवाज़।...सोचती हूँ, यही वह मुक़ाम था जब मैं सही अर्थों में लिबरेट हो गई थी। सारी परंपराओं के ख़ौफ़ों से, डरों से आज़ाद। आज़ाद और मुक्त। यह आज़ादी कैंडी का उपहार है हम दोनों को-मुझे और अर्पणा को।...मैं न तो तब लिबरेटेड महसूस करती थी, जब अपनी रोटी ख़ुद कमाती थी। न तब जब सारी परंपराएँ तोड़कर, दारजी और पति के घर की सभी दीवारों का सहारा छोड़ कर बाहर निकली थी। न तब, जब मैं अकेली अपनी बच्चियों को पाल रही थी, पढ़ा रही थी। हर समय डर और ख़ौफ़ में घिरी रहती थी। लेकिन अब...अब...मैं किर्च-किर्च टूटी हुई, टुकड़ा-टुकड़ा बिखरी हुई भी साबुत थी, क्योंकि कैंडी शहीद होकर मेरे सभी डर और ख़ौफ़ अपने साथ ले गई थी। अब मैं किसी से नहीं डरती। न ही अर्पणा को किसी से डरने की इजाज़त देती हूँ। इस लिबरेशन की कितनी बड़ी क़ीमत अदा की है मैंने, सिर्फ़ मैं ही जानती हूँ।“
दरअसल, यह आत्मकथा अजीत कौर के उस संघर्ष की दास्तान है, जिसमें उनका कायाकल्प होता है यानी ट्रासंफार्मेशन। बचपन से लेकर शादी और दो बच्चियाँ होने, उनके पालन-पोषण के लिए पति द्वारा नौकरी करने पर मजबूर कर दिए जाने और नौकरी भी लड़कियों के स्कूल में, ताकि पुरुषों से संपर्क न हो सके और जो वेतन मिलता, वह भी पति ही ले लेता, स्कूल आने-जाने के लिए बस का किराया भी पति से ही मांगना पड़ता जो ख़ुद के कमाए पैसे थे। और इसके अलावा न जाने कितने ज़ुल्म। दो बेटियाँ पैदा की, यह भी मानो अपराध। ख़ुद पति का एक दूसरी औरत के साथ रहना और पत्नी को हर दो-चार महीने के बाद लड़-झगड़ कर पिता के घर जाने को मजबूर कर देना, फिर कुछ माह के बाद जा कर वापस ले आना भी। अजीत कौर लिखती हैं - ‘मैं नौकरी करूँ और अपने लिए तथा बच्चियों के लिए रोटी कमाऊँ।’ – यह आदेश भी मेरे पति का था। नौकरी भी लड़कियों के स्कूल में करनी है, सिर्फ़ लड़कियों को पढ़ाने की नौकरी, यह निर्णय भी उन्होंने ही लिया था। किताबें पढ़ने का समय नहीं था, और कहानियाँ लिखना जुर्म क़रार दे दिया गया था।
इसके पहले बचपन से लेकर विवाह और नौकरी करने के संघर्ष के बीच जो कड़वे अनुभव उन्हें हुए थे, उसमें जहाँ सामान्य औरतें उसे अपनी नियति मान कर बैठ जाती हैं या ज़हर खा लेती हैं, वहीं अजीत कौर का संघर्ष उनके जीवन को पूरी तरह से बदल देता है। वे लिखती हैं, “इतनी भयानक टूट-फूट में से, इतनी नाकारा, बेकार, बेवकूफ़ और डरी-सहमी औरत में से कैसे और कब एक निडर, बेखौफ़, अपने जीवन के सभी फ़ैसले ख़ुद लेने की हिम्मत और हौसला करने वाली औरत पैदा हो गई, इसी ट्रांसफ़ार्मेशन यानी कायाकल्प की दास्तान सुनाना चाहती हूँ आप सबको। औरत, जो खुद भी अपने आपको कूड़ा-कबाड़ा समझती रहती है उम्र-भर। क्योंकि यह समझकर ही तो जीवन से, जीवन की तमाम कड़वाहटों से समझौता किया जा सकता है। कि सहना, समझौता करना और अपना अस्तित्व मिटा देना, किसी भी तकलीफ़ की शिकायत ज़ुबान पर नहीं लाना, कि आँचल में दूध और आँखों में पानी समेटे रहना ही औरत का आदर्श मॉडल माना जाता है। हर औरत को इसी आदर्श की घुट्टी दी जाती है। समाज में औरत का स्वीकृत मॉडल यही है। कि वह निगाह नीची रखे, हर ज़ुल्म को चुपचाप सहे, ख़ामोश रहे, बच्चों को जन्म दे, उनका पालन-पोषण करे, बेटे पैदा कर ससुराल के ख़ानदान का नाम जीवित रखे और वंश-परंपरा को आगे चलाए। पति के हर आदेश का पालन करे। ...औरत, जिसे पहले माता-पिता के घर में ‘पराई अमानत’ समझ कर पाला-पोसा जाता है। औरत, जो विवाह के बाद पति के घर की और ससुराल की ‘धरोहर’ यानी जायदाद होती है। औरत, जिसे उसका पिता दानस्वरूप एक अजनबी पुरुष के हाथों में सौंप देता है कि ले जा, आज से यह गाय तेरी है। इसका दूध निकालो, बछड़े पैदा करवाओ, मारो-पीटो, चाहे चमड़ी उधेड़ दो इसकी। ...औरत, जिसके लिए पिता का घर हमेशा पराया रहता है, और विवाह के बाद पति का घर भी अपना नहीं होता।”
जाहिर है, अजीत कौर की इस आत्मकथा में उनके जीवन की जो गाथा सामने आई है, वह इस देश के तमाम मध्यवर्गीय परिवारों की औरतों के जीवन की सच्चाई है। फर्क़ सिर्फ़ इतना है कि जीवन के एक मोड़ पर जब ज़ुल्म सहने की सीमा से परे चले जाते हैं तो वह विद्रोह कर देती हैं और एक निर्णायक क्षण में अपने लिए एक अलग रास्ता चुन लेती हैं, अपनी बेटियों के साथ पति और पिता का घर छोड़ कर स्वतंत्र रहने का, जो बहुत आसान नहीं होता। पति कई बार उन्हें घर से निकाल देते और वे अपने पिता दारजी के पास बच्चियों को लिए चली जातीं और वहीं से नौकरी पर जातीं। फिर कुछ महीने के बाद वह उन्हें वापस अपने घर ले आते। पिता और पति के घर की इज्ज़त के लिए उन्हें यह अत्याचार सहना पड़ता। पर जब आठवीं बार उनके साथ ऐसा हुआ तो उन्होंने पति के घर वापस जाने से इनकार कर दिया। इसका उल्लेख ‘ख़ानाबदोश’ में किया जा चुका है। लेकिन जब उन्होंने यह फ़ैसला कर लिया कि अब पति के घर नहीं जाना है तो उनके पिता जिन्हें वह दारजी कहती थीं, बहुत नाराज़ हो गए। अजीत कौर लिखती हैं, “मेरा वापस न जाने का फ़ैसला एक ऐसा ज़ुर्म था जिसकी कोई माफ़ी नहीं थी।” इसके बाद घर में उनसे कोई बात तक नहीं कर रहा था, माँ की तो खैर शुरू से ही कोई हैसियत नहीं थी, पिता ने भी गुस्से में आकर बात बंद कर दी थी।
तब उन्होंने पिता का घर छोड़ने का भी फ़ैसला किया और अपनी दोनों बेटियों को लेकर किसी वर्किंग गर्ल्ज़ होस्टल में रहने का इंतज़ाम किया। इससे भी उनके घर में एक भूचाल-सा आया, पर अजीत कौर अपने फ़ैसले से टस से मस नहीं हुईं और फिर शुरू हुआ उनके जीवन-संघर्ष का एक नया दौर। वर्किंग गर्ल्ज़ होस्टल में कोई औरत अपने बच्चों को नहीं रख सकती थी। यह बड़ी समस्या थी, पर किसी तरह उन्हें इसके लिए इजाज़त मिल गई। लेकिन यहाँ बच्चियों की सुरक्षा भी एक समस्या थी। उनका पति अक्सर यह धमकी देता था कि वह बच्चियों को सिंगापुर के वेश्यालय में बेच देगा। यह कितनी शर्मनाक बात थी। इसलिए उन्होंने किसी तरह कुछ प्रबंध कर दोनों बेटियों का दाखिला शिमला के एक कॉन्वेंट स्कूल में करवाया और वहाँ यह बतला दिया कि इन बच्चियों के पिता चाहें तो स्कूल में आकर उनसे मिल सकते हैं, पर उन्हें बाहर लेकर नहीं जा सकते। लेकिन उनका पिता शिमला आने के बावजूद उनसे कभी नहीं मिला। सबसे तकलीफ़देह बात तो यह थी कि उनके पति ने खुद उन्हें नौकरी करने पर मजबूर किया था, लेकिन हर जगह यह बात फैलाई थी कि वह घर से बाहर रहने और अय्याशी करने के लिए नौकरी करती है। पूरे मुहल्ले में उसने यही बात फैला कर अपनी बीवी को बदनाम करने की कोशिश की थी। और जब वे वर्किंग गर्ल्ज़ होस्टल में रहने लगीं तो उसने जोर-शोर से यह बात फैलानी शुरू कर दी कि उनके दूसरे लोगों से ग़लत संबंध हैं और अय्याशी करने के लिए अब वह अलग रहती है। साथ ही, उनके पति ने मुहल्ले में यह बात भी फैला रखी थी कि वह तलाक नहीं चाहता, बस उनके बीच बच्चियों की कस्टडी को लेकर अदालत में मुकदमा चल रहा है। समझा जा सकता है कि ज़हर के इन कड़वे घूंटों को उन्होंने कैसे पिया होगा। पर इस सबके बावजूद भी उन्होंने हौसला नहीं छोड़ा और बच्चियों की पढ़ाई करवाने के साथ-साथ स्कूल की नौकरी करती हुई लेखन में भी सक्रिय रहीं। इस बीच, एक लेखिका के रूप में वे प्रसिद्ध हो गई थीं।
लेखन के प्रति रुचि उनमें बचपन से ही थी। देश के विभाजन के पहले जब उनका परिवार लाहौर में रहता था, तब लड़की होने की वजह से उनकी पढ़ाई-लिखाई किसी ढंग के स्कूल में नहीं करवाई गई। एक बार किसी स्कूल में नाम लिखवाया गया, पर किसी वजह से फिर उन्हें घर पर ही बिठा दिया गया और घर में ही उन्हें पंजाबी-उर्दू की शिक्षा दिलवाई जाने लगी। इस बीच, प्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम के पिता ज्ञानी करतारसिंह हितकारीजी उनके घर आए और उन्हें पढ़ाना शुरू कर दिया। उन्होंने उन्हें उस समय पंजाब में मिलने वाली डिग्री बुद्धिमानी दिलवाई। जैसे-तैसे टुकड़े-टुकड़े में वे कभी कुछ तो कभी कुछ पढ़ाई करती रहीं। अमृता प्रीतम के पिता के संपर्क में आने के बाद उनमें लिखने का चाव जगा और वे कहानियाँ लिखने लगीं जो कुछ पत्रिकाओं में छपीं भी, पर यह उनके पिता दारजी को पसंद नहीं था। इस वजह से वे छुप-छुप कर पढ़तीं और छुप-छुप कर लिखतीं। लिखना न पिता को पसंद था, न पति को। दोनों ने इस पर रोक लगाई, पर उन्हें तो इस क्षेत्र में आना था और चाहे जैसे भी हो, उन्होंने लिखना जारी रखा।
जब देश का विभाजन हुआ और दंगे शुरू हो गए तो उस समय पूरा परिवार शिमला घूमने आया हुआ था। फिर लाहौर वापसी संभव नहीं हुई और पहले कुछ समय जालंधर में रहने के बाद परिवार दिल्ली चला आया। दिल्ली आने के बाद उन्होंने अंग्रेज़ी में दो भाग में बीए की परीक्षा पास की और इसके बाद पंजाब विश्वविद्यालय द्वारा शरणार्थियों के लिए दिल्ली में खोले गए कैंप कॉलेज से एमए किया। एमए करना तो चाहती थीं इंग्लिश में, पर इंग्लिश का पीरियड रात साढ़े आठ बजे खत्म होता था, जिसके लिए दारजी तैयार नहीं हुए तो इकनॉमिक्स में दाखिला ले लिया और पास भी कर गईं, जबकि इस विषय में उन्हें जरा भी दिलचस्पी नहीं थी। बाद में पति द्वारा शिक्षिका की नौकरी करने के लिए दबाव दिए जाने पर उन्होंने बी.एड. की डिग्री भी हासिल की।
एमए की पढ़ाई के दौरान कॉलेज में उनकी मुलाक़ात बलदेव नाम के अंग्रेज़ी के शिक्षक से हुई और वह बलदेव को दीवानगी की हद तक प्यार करने लगीं। दोनों के बीच प्यार परवान चढ़ने लगा। बलदेव उन्हें पढ़ने को काफ़ी किताबें देते। इसके बाद उनका कहानियाँ लिखने का सिलसिला भी आगे बढ़ा। पर यह बात परिवार में पता चल गई और भूचाल आ गया। उनके प्यार पर पहरा बिठा दिया गया और मिलने-जुलने पर सख़्त पाबंदी लगा दी गई। बलदेव आईएएस की तैयारी कर रहे थे। आख़िर उनका परिवार बलदेव से उनकी शादी कर देने पर राजी हो गया, पर वे नौकरी लगने के बाद ही शादी करना चाहते थे। बाद में आईपीएस में उनका सिलेक्शन हुआ और वह ट्रेनिंग पर चले गए। इस बीच, दोबारा शादी की बात चली, पर कुछ कारणों से यह शादी नहीं हो सकी। बाद में करनाल के एक डॉक्टर से शादी हुई, जिसने उनके परिवार के सहयोग से दिल्ली में ही अपना ठिकाना बनाया। यह शादी क्या थी, एक ऐसा ज़लज़ला था जिसने उनके जीवन को तहस-नहस करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। बावजूद, अपनी प्रेमिका के घर जब उनके पति के मरने की ख़बर उन्हें मिली तो वे वहाँ गईं और उनकी आँखों से आँसू भी बहे। पर विडम्बना यह कि उस शख्स ने तमाम मुहल्ले वालों को यह कह रखा था कि आज कोर्ट में बच्चों की कस्टडी को लेकर फ़ैसला आने वाला है। अपनी प्रेमिका को उसने बहन घोषित कर रखा था। वहाँ उनके मृत पति के प्रति जहाँ सहानुभूति का दरिया उमड़ा था, उनके लिए लोगों की नज़रों में घृणा और उपेक्षा का भाव था। वहीं, उनके ससुर पटेल नगर स्थित उनके पति के घर से सारा सामान जल्दी-जल्दी हटवा रहे थे कि कहीं वह उन पर दावा न कर दें।
लेकिन उन्होंने अपने पति की किसी चीज़ पर कोई दावा नहीं किया और मकान से लेकर कार के क़ागज़ों पर, बीमा के क़ागज़ों पर, शेयर सर्टिफिकेटों पर, दसियों क़ागज़ों पर दस्तख़त कर दिए। अजीत कौर लिखती हैं, “...जिस आदमी ने, यानी पति और पिता नाम के जिस आदमी ने जीते-जी मुझे और मेरी बच्चियों को न रोटी दी, न कपड़ा, न स्कूल की फ़ीस, न किताबें, उसकी मृत्यु के बाद उसके पैसे या किसी चीज़ को देखना मेरे लिए गुनाह था।” इससे समझा जा सकता है कि अजीत कौर किस मिट्टी की बनी थीं और अब तक अकेले दम जो संघर्ष उन्होंने किया था, उससे वह सब कुछ हासिल कर लिया था, जिसकी बदौलत एक बेहतर ज़िंदगी वे जी सकती थीं। यहाँ एक प्रसंग का उल्लेख करना ज़रूरी लगता है। आज जब लोग ट्रांसजेंडर यानी हिजड़ों के मानवाधिकारों की बातें कर रहे हैं और उन्हें समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए क़ानून बनाए जा रहे हैं, अजीत कौर ने उसी समय एक हिजड़े को अपने घर पर सहयोगी के तौर पर रखा था। यह तब की बात है जब उन्होंने दिल्ली के ग्रेटर कैलाश में एक घर किराए पर लिया था। तब हिजड़ों की एक टोली नाचते-गाते बख्शीश मांगने उनके दरवाज़े पर आई थी। अजीत कौर ने उन्हें मेहनत-मशक्कत वाले दूसरे काम करने की सलाह दी और फिर उनमें से एक कन्हैया नाम के हिजड़े को घरेलू सहयोगी के रूप में रख लिया जो उनके साथ चार वर्षों तक रहा। इससे समझा जा सकता है कि अजीत कौर किस उच्च स्तर की मानवीय संवेदना से लबरेज थीं और अपने समय से कहीं बहुत आगे थीं।
कुल मिला कर अजीत कौर की यह आत्मकथा इस बात को साबित करती है कि स्त्रियों का जीवन कूड़ा-कबाड़ा नहीं है, बशर्ते वे हर कदम पर संघर्ष के लिए तैयार रहें।
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Email – manojkumarjhamk@gmail.com
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