कवि अशोक गोयल पिलखुवा सबसे ऊँची भाषा है मुस्कान की परिचित की हो बात कि हो अनजान की, सबसे ऊँची भाषा है मुस्कान की । ...
कवि अशोक गोयल पिलखुवा
सबसे ऊँची भाषा है मुस्कान की
परिचित की हो बात कि हो अनजान की,
सबसे ऊँची भाषा है मुस्कान की ।
बाँध सभी को लेती है मीठी बोली,
भर देती है खुशियों से सबकी झोली,
कटुता भी धुल जाती है इंसान की ।
सबसे ऊँची भाषा है मुस्कान की ।
मीठे -मीठे आम सभी को भाते हैं,
किंतु करेले जग में अपयश पाते हैं,
हमें बदलनी है बस दिशा रुझान की ।
सबसे ऊँची भाषा है मुस्कान की ।
सगी बहन इस मीठेपन की है नमता,
थोड़ा झुककर चलें जगे उर में ममता,
बात हटा दें अंतर से अभिमान की ।
सबसे ऊँची भाषा है मुस्कान की ।
हँसता चेहरा खिले फूल सम होता है,
सबके मन में भी प्रसन्नता बोता है,
सुधि बिसराता मानव दुःख के भान की ।
सबसे ऊँची भाषा है मुस्कान की ।
मुस्काती आँखों में ऐसा जादू है,
मन में भरती विमल स्नेह की खुश्बू है,
और एक लय होती दोनों प्राण की ।
सबसे ऊँची भाषा है मुस्कान की ।
ऐसे ही जुड़ जाय अगर सारी दुनिया,
हर गोरी हर घाट भरे मीठी पनिया,
बने कसौटी प्रेम हरेक पहचान की ।
सबसे ऊँची भाषा है मुस्कान की ।
यही विश्वबंधुत्व, हमारा ध्येय यही,
मानवता की मंजिल का पाथेय यही,
छिपी पूर्णता इसमें आत्मज्ञान की ।
सबसे ऊँची भाषा है मुस्कान की ।
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सामूहिक विवाह
आओ ?सामूहिक विवाह अभियान चलाएँ,
वैवाहिक विकृतियों का सरदर्द मिटाएँ,
बनें सुपरिचित अपने ऎसे हृदय मिलाएँ ।
बिन दहेज के अब विवाह कल्पना कठिन है,
कन्याओं की करुण कहानी बड़ी जटिल है,
कन्याओं के पिता जहर का घूंट पी रहे,
हम अभियान चला, शिव बन, वह विष पी जाय ।
आओ ?सामूहिक विवाह - अभियान चलाएँ,
वैवाहिक विकृतियों का सरदर्द मिटाएँ,
अपने ऐसे हृदय मिलाएँ ।
शुभ विवाह तो दो हृदयों का सहज मिलन था,
दो परिवारों का प्रेमास्पद सम्मेलन था,
अब, विवाह से मन फटते दो परिवारों के,
मन न फटें, ऐसे पावन संस्कार रचाएँ ।
आओ ? सामूहिक विवाह -अभियान चलाएँ,
वैवाहिक विकृतियों का सरदर्द मिटाएं,
अपने ऐसे हृदय मिलाएँ ।
सामूहिक विवाह -आयोजन में समता है,
सबकी ही सबके ही प्रति समान ममता है,
बेची और खरीदी जायँ नहीं बेटियाँ ---
नीलामी पर चढ़ने से बेटे बच जाएँ ।
आओ ? सामूहिक विवाह अभियान चलाएँ,
वैवाहिक विकृतियों का सरदर्द मिटाएँ,
अपने ऎसे हृदय मिलाएँ ।
'सामूहिक विवाह --आयोजन का अभिनन्दन,
विकृतियों से मुक्ति दिलाने वाले ?वंदन,
मिले छत्र -छाया समाज के हर दंपति को --
ऐसी सामूहिक विवाह- विधि हम अपनाएँ ।
आओ ?सामूहिक विवाह -अभियान चलाएँ,
वैवाहिक विकृतियों का सरदर्द मिटाएँ,
अपने ऐसे हृदय मिलाएँ ।
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युग -वेदना का उपचार
रोग -ग्रसित मानवता को है आज जरुरत प्यार की,
तन से ज्यादा आवश्यकता है मन के उपचार की ।
तन -मन दोनों स्वच्छ -स्वस्थ हों
तभी बात बन सकती है,
अंतर की प्रफुल्ल्ता ही तो
अधरों पर आ खिलती है,
मुख -मुद्रा कैसे प्रसन्न होगी, मन के बीमार की ।
रोग- ग्रसित मानवता को है आज जरूरत प्यार की ।
ज्ञान और विज्ञान साथ चल
समाधान दे सकते हैं,
तन -मन दोनों स्वस्थ रह सकें,
वह विधान दे सकते हैं,
आवश्यकता आज मनुज को दोनों को आधार की ।
रोग- ग्रसित मानवता को है आज जरूरत प्यार की ।
विकृत चिंतन के तनाव से
आज मनुजता पीड़ित है
अंदर से, बाहर से सारा
वातावरण प्रदूषित है,
लानी होगी क्रांति आचरण की, व्यवहार -विचार की ।
रोग- ग्रसित मानवता को है आज जरूरत प्यार की ।
आज आस्थाहीन मनुज को
रस संजीवन चाहिए,
ज्ञान और विज्ञान साधकों
का संवेदन चाहिए,
दोनों मिलकर करें साधना मानव के उद्धार की ।
रोग -ग्रसित मानवता को है आज जरूरत प्यार की ।
सदविचार -सत्क्रम विश्व में
स्वर्ग -सृष्टि कर सकते हैं,
सद्भावना के बादल जग में,
स्नेह -वृष्टि कर सकते हैं ,
बुद्धि-भावना मिलकर करते सृष्टि, सुखी संसार की ।
रोग -ग्रसित मानवता को है आज जरूरत प्यार की ।
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सहारा बन
किनारा ढूँढ़ता है तू, किसी का खुद किनारा बन,
सहारा ढूँढता है तू, किसी का खुद सहारा बन ।
निरखना क्या ?परखना क्या ?दुःखों को जो स्वयं झेले,
वही है आदमी जो, कष्ट से, संघर्ष से खेले,
सहे जो कष्ट ओरों ने, पिये गम से भरे प्याले,
उन्हें राहत दिला कुछ, और उनके जख्म सहला ले ।
भुला दे दर्द अपना दूसरों की पीर के सम्मुख,
सभी को बाँट कर ममता, जगत का प्राण प्यारा बन ।
गया पथ भूल, तो क्या बात ?थक कर बैठना कैसा,
थके यदि पांव तो क्या बात ?पथ से रूठना कैसा,
वहां भी ढूंढ ऐसे पग, फटी जिनकी विवाई हो,
वहाँ भी ढूंढ ऐसे पग दिशा जिनने गवाई हो,
जहाँ हो और जैसे भी रहें, कर बात ओरों की,
किसी को राह देखलाए, गगन का वह सितारा बन ।
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निष्ठा लगन परिश्रम से जो करता अपना काम है
निष्ठा लगन परिश्रम से जो, करता अपना काम है ।
वाणी में भगवती विराजे , अन्तर में श्री राम हैं ।।
आत्ममनोबल जिसका साथी, अंगद सा दृढ पाँव है।
भक्ति,शक्ति का अलख जगाता,गली -गली हर ठाँव है ।।
करता जो उपकार सभी का, आजीवन निष्काम है ।।
उसका ही जीवन इस जग में,धन्य- धन्य अभिराम है ।।
वाणी में भगवती ****।।
नहीं. रूढ़ियों का पोषक जो, शोषक नहीं गरीब का ।
अपना दर्द समझता है जो, दुनियाँ के हर जीव का ।।
मंजिल पर चलते जाना ही, जिसका लक्ष्य महान है ।
मानवता का मान बढ़ाने, हो जाता बलिदान है ।।
वाणी में भागवती ****
हँस -हँस कर जो लोहा लेता, आँधी से तूफान से ।
जान हथेली पर रखकर जो भिड़ जाता शैतान से ।।
जन सेवा ही व्रत है जिसका, सारी वसुधा धाम है ।
उसका ही जीवन इस जग में, धन्य- धन्य अभिराम है ।।
वाणी में भगवती *****।।
जीवन तप संचित थाती से, जो लेता अनुदान है ।।
काँटे और फूल दोनों ही, जिसको एक समान है ।।
धर्म -कर्म का मर्म समझता करता जग कल्याण है ।
खोल -खोल कर गाँठे मन की, जो हरता अज्ञान है ।
वाणी में भगवती *****।।
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श्रेष्ठ जीवन
उतने ही हम जीएँ कि जितने कर पाएँ शुभ कार्य,
क्योंकि श्रेष्ठ जीवन वाले ही कहलाते हैं आर्य ।
सौ क्या, सौ से अधिक जीए यदि बन कोल्हू का बैल,
पेट और प्रजनन के पशुवत रहे खेलते खेल,
और जब मरे, साथ ले चले दुष्कर्मों का बोझ,
हो निस्तेज मलीन हो गया इस जीवन का ओज,
ऐसा जीवन, हैय बताते हैं मनीषि आचार्य ।
क्योंकि श्रेष्ठ जीवन वाले ही कहलाते हैं आर्य ।
थोड़ा जीवन भी जो करते सद्कृत्यों की साध,
पशुवत जीवन को जो माना करते हैं अपराध,
उनके वर्ष हुआ करते युग, गढ़ते वे इतिहास,
दे जाते हैं निज जीवन से देवों का आभास,
हो उठता है मूर्त उन्हीं में देवतुल्य औदार्य ।
क्योंकि श्रेष्ठ जीवन वाले ही कहलाते हैं आर्य ।
ध्रुव, प्रह्लाद और अभिमन्यु, कहाँ जीए सौ वर्ष,
पर जीवन को धन्य कर गए, उनके कुछ ही वर्ष,
आदि शंकराचार्य, विवेकानन्द, भगत,आजाद,
ऐसा जीवन जीए कि उनको करते हैं सब याद,
गरिमामय जीवन जीने, कब अधिक वर्ष अनिवार्य ।
उतने ही हम जीएँ कि जितने कर पाएँ शुभ कार्य ।
हम जितना भी जीएँ, जीएँ हम मानव के अनुकूल,
मानवता हो उठे कलंकित, करें न ऐसी भूल,
देवतुल्य जीवन की हो यदि साध हमारे साथ,
तो नर से नारायण वाली सिद्धि हमारे हाथ,
इसी धरा पर स्वर्ग -अवतरण, फिर तो अपरिहार्य ।
क्योंकि श्रेष्ठ जीवन वाले ही कहलाते हैं आर्य ।
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मानव से है प्यार मुझे
कैसे निज पथ से विचलित कर सकता है संसार मुझे ?
मानव से है प्यार मुझे ।
जब पीड़ित माताएँ निज आँखों से नीर बहाती हों,
कन्याएँ दहेज के कारण निज सम्मान लुटाती हों,
जबकि भूख से होनहार बच्चों की जाने जाती हों,
जब लाखों परिवारों की आवाजें मुझे बुलाती हों,
तब कैसे बंदी रख सकता है कोई परिवार मुझे ?
कैसे निज पथ से विचलित कर सकता है संसार मुझे ?
मानव से है प्यार मुझे ।
मैंने सुखी कहाने वालों को भी कर मलते देखा,
पथ के दावेदारों को भी नई राह चलते देखा,
अक्सर पथ की दृढ चट्टानों को पल में गलते देखा
मैंने कोमल कलियों को अंगारों पर जलते देखा,
कैसे आकर्षित कर लेगा फिर क्षण भंगुर प्यार मुझे ?
कैसेनिज पथ से विचलित कर सकता है संसार मुझे ?
मानव से है प्यार मुझे ।
जिसमें जलकर खंडहरों पर महलों का निर्माण हुआ,
जीवनहीन जगत में फिर से संचारित नव प्राण हुआ,
जिसमें जलकर दानवता से मानवता का त्राण हुआ,
जिसमें जलकर सृष्टि हुई, संघर्ष हुआ, कल्याण हुआ,
उस चिंगारी से बचकर चलने का क्या अधिकार मुझे ?
कैसे निज पथ से विचलित कर सकता है संसार मुझे ?
मानव से है प्यार मुझे
दुनिया मुझको ठुकरा देगी तो एकाकी रह लूँगा,
अपने उर की व्यथा गगन से, दीवारों से कह लूँगा,
सबअन्यायों,अपमानों को हॅसते -हॅसते सह लूँगा,
मृत्यु अचानक आ जाएगी तो तनिक न दहलूँगा,
बाधाएँ सब -कुछ सहने को कर लेंगी तैयार मुझे ?
कैसे निज पथ से विचलित कर सकता है संसार मुझे ?
मानव से है प्यार मुझे ।
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गीत मुझे भी दो माता
जीवन -वीणा पर मेँ गाऊँ, वें गीत मुझे भी दो माता,
तुझ मेँ ही लय होता जाऊं, जिन गीतों को गाता -गाता ।
मेरा जीवन यह सरस बने,
यह रोम- रोम रिमझिमा ऊठे,
मेरी वाणी का तार -तार,
तेरी महिमा गुनगुना ऊठे,
इस गंगा से जग नहलाऊँ, तेरे दर तक आता -आता ।
वे गीत मुझे भी दो माता ।
तुझ मेँ ही लय होता जाऊं, जिन गीतों को गाता -गाता ।
पूजन -उपचार नहीं कुछ भी,
आँसू ही अर्ध्य बने मेरा,
आकुलता से ऊबा- ऊबा,
स्वर ही नैवेध बने मेरा,
आरती तुम्हारी बन जाऊं, लहराऊँ जब गाता -गाता ।
वे गीत मुझे भी दो माता,
तुझ मेँ ही लय होता जाऊं, जिन गीतों को गाता -गाता ।
करूणा की किरण हँसे उर मेँ,
ऐसा प्रकाश पाऊँ तुम से,
तुम पिघलो अपनी ममता से,
मेँ मधुर हास पाऊँ तुम से,
याचना, अपरिचित हो जाय, इठलाऊँ वर पाता -पाता ।
वे गीत मुझे भी दो माता,
तुझ मेँ ही लय होता जाऊं, जिन गीतों को गाता -गाता ।
मेरे अभाव को भाव भरें,
मेरे भीतर यह प्यास जगें,
प्राणों को वह सामीप्य मिले,
हर श्वास -श्वास विश्वास जगे,
कण -कण को प्यार लुटा पाऊँ, इस धरती से जाता जाता ।
वे गीत मुझे भी दो माता,
तुझ मेँ ही लय होता जाऊं, जिन गीतों को गाता -गाता ।
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ईश्वरानुभूति
आओ मित्रो ? पता लगाएँ,
ईश्वर कौन, कहाँ है
कैसी उसने सृष्टि बनाई,
सारा चकित जहाँ है ।
इसमें क्या कठिनाई आई,
उत्तर अभी बता दूँ,
या चाहो तो साथ चलो
मै तुमको अभी दिखादूँ
दोनों चले खोजने प्रभु को,
दुखियारे गाँवों में,
मरहम मिलता संत मिला,
तब कोढ़ी के पाँवों में ।
आगे बढ़े काँपती करूणा,
सिकुड़ा दैत्य खड़ा था,
सिसक सिसकती दया आ गई,
सेवा भाव बड़ा था ।
मित्र कहाँ तक और चलोगे,
अब तो भेद बताओ,
इच्छा मेरी प्रबल हो उठी,
प्रश्न अभी निपटाओ ।
मैं तो समझा, समझ गए तुम,
अब क्या प्रश्न बचा है ?
सेवा की अनुभूति करो तो,
ईश्वर स्वयँ खड़ा है ।
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रंग बसन्ती प्रभा केशरी
रंग बसन्ती प्रभा केशरी, पर्व होली का आ गया ।
तन, मन मेँ उल्लास जगाने, रंग बसन्ती छा गया ।।
रंग अबीर गुलाल लगाकर, प्रेम भाव मन मेँ भर दे ।
बिछुड़ों को भी गले लगाकर, समता भाव प्रकट कर दे ।।
फूल झरायें तिलक लगायें, यह हम सबको भा गया ।।
होली का त्यौहार सुहावन, छटा बिखेरे कण-कण मेँ ।
सरस बनायें जीवन अपना ,प्यार भरें हम नस --नस मेँ ।।
खुशीयां देने, सखा बनाने, मस्ती यह बरसा गया ।।
बैरी नहीं सभी भाई हैं, भाव भरें सबके मन मेँ ।
ऊँच -नीच का भेद नहीं है, प्रेम भरे हर जीवन मेँ ।।
हर फूलों मेँ, हर कलियों मेँ, खुशीयां यह बिखरा गया ।।
माताजी का प्यार भरा है, गरुवर का आशीष यहाँ ।
प्यार बाँटते परिजन देखों, बरस रहा है रंग यहाँ ।।
काम करें हम, नाम जपें हम, होली पर्व समझा गया ।।
रंग बसन्ती प्रभा केशरी, पर्व होली का आ गया ।।
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नारी शक्ति का जागरण
जाग गई पूरे भारत की नारी है,
हुई संगठित दुर्गा -शक्ति हमारी है ।
वन में पति के दुःख में साथ निभाती है,
मीरा बनकर वह विष भी पी जाती है,
वहनारी ही तप -बल सेपति का जीवन,
यम के हाथों से भी लौटा लाती है,
परित्यक्ता होकर भी वह व्रतधारी है ।
हमने उच्चादर्श सदा अपनाया है,
युद्ध--धर्म में पति का साथ निभाया है,
बनीं अहिल्या, दुर्गा , लक्ष्मीबाई पर,
अनाचार के आगे सिर न झुकाया है,
चमक उठी रण में तलवार दुधारी है ।
अनपढ़ नहीं रहेगी हममें से कोई,
नहीं रहेगी आत्महीन, रोई --रोई,
इस समाज से हम फिर से वापस लेंगी,
युग -युग से जो अपनी गरिमा है खोई,
अब तो हर नारी जलती चिंगारी है ।
हर कुरीति को ज्वाला में जलना होगा,
मूढ़ मान्यताओं को अब गलना होगा,
नई सदी उज्जवल भविष्य के साँचे में,
जीवन -शैली को फिर से ढलना होगा,
परिवर्तन की हम पर जिम्मेदारी है ।
अब न अंधविश्वास हमें छल पायेगा,
नए रूप में विश्व हमें कल पायेगा,
जो कि लड़खड़ाकर चलता धीरे --धीरे,
हमसे नई उमंग , नया बल पायेगा,
क्योंकि हमारी दृष्टि लोकहितकारी है ।
हम बच्चों को अच्छे गीत सुनाएंगे,
भड़कीले कपडे न उन्हें पहनाएंगे,
ह्रदयहीन पश्चिमी सभ्यता सूखी है,
करूणा -धारा से उसको सरसाएँगे,
हमें मनुजता प्राणों से भी प्यारी है ।
जाग गई पूरे भारत की नारी है ।।
हुई संगठित दुर्गा --शक्ति हमारी है ।।
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किया न अंतर बरखा की बौछार ने
किया न अंतर बरखा की बौछार ने,
भेद किया क्यों मानव के व्यवहार ने
जब -जब नभ मेँ छाँह भरी बदली छाई,
जब शीतल -शीतल फुआर भू पर आई,
महल - झोंपड़ी मेँ तब भेद नहो पाया,
किरण सुनहली जब सूरज ने बिखराई,
आँगन बाँटे नहीं सूर्य के प्यार ने,
बाँट दिए मानव --मन की दीवार ने ।
किया न अंतर बरखा की बौछार ने
भेद किया क्यों मानव के व्यवहार ने ?
गंगा जब आ गईं खुले मैदानों मेँ,
किया न उसने भेद खेत -खलियानों मेँ,
अनुदानों के लिए न अंतर किया कभी,
जाति -धर्म, निर्धन अथवा धनवानों मेँ,
धर्म न बाँटे कभी किसी जलधार ने,
घाट -घाट बाँटे सिमित अधिकार ने ।
किया न अंतर बरखा की बौछार ने,
भेद किया क्यों मानव के व्यवहार ने?
पवन झकोरे पुरवैया के जब आए,
सभी एक से घर चौबारे दुलराए,
वन -उपवन के वृक्ष -वृक्ष की डालों पर,
भेद -भाव के बिना मधुर स्वर लहराए,
द्वार नहीं बाँटे सावनी ,बयार ने ,
खेत न बाँटे बासंती गलहार ने ।
किया न अंतर बरखा की बौछार ने,
भेद किया क्यों मानव के व्यवहार ने ?
कण- कण मेँ फैले अपनेपन के धागे,
क्यों न ह्रदय मेँ समता-सम स्वरता जागे,
भेद -भाव तो अहंकार से आता है,
अहंकार के सूत्र न क्यों हमने त्यागे,
हमें निहारा है पीड़ित संसार ने,
माँगा सहज दुलार विश्व -परिवार ने ।
किया न अंतर बरखा की बौछार ने,
भेद किया क्यों मानव के व्यवहार ने ?
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कवि अशोक गोयल पिलखुवा
C/o,उमराव सिंह मार्किट
पिलखुवा जिला (हापुड़)
पिन 245304 U.P
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