व्यंग्य घपला नन्द महात्म्य वीरेन्द्र सरल गौरवर्ण उन्नत ललाट, दीप्त मुखमंडल, मुखमंडल पर घनी श्वेत दाढ़ी और दाढ़ी पर तिनके। अभी वे मंच पर वैसे ह...
व्यंग्य
घपला नन्द महात्म्य
वीरेन्द्र सरल
गौरवर्ण उन्नत ललाट, दीप्त मुखमंडल, मुखमंडल पर घनी श्वेत दाढ़ी और दाढ़ी पर तिनके। अभी वे मंच पर वैसे ही सुशोभित थे जैसे सरकारी कार्यालयों में बाबुओं के बीच अधिकारी। गाय से दूध दुहने के अंदाज में वे अपने हाथों से अपनी दाढ़ी को बार बार सहला रहे थे । फिर ज्ञान उगलते हुए उन्होंने कहा-भक्तों! कुछ मूर्ख मानवता को श्रेष्ठ धर्म बताने पर तुले हुए हैं। मुझे उनकी मूर्खता पर दया आती है। मानवता भी कोई धर्म है? जो नफरत करने की सीख तक न दे सके उसे हम धर्म नहीं मानते। माना रोटी का कोई धर्म नहीं होता, खून का कोई धर्म नहीं होता पर रोटी खाने और खून बहाने वालों का धर्म होता है कि नहीं? जब तक दंगा फसाद, मार काट न हो तब तक धर्मध्वज फहराया नहीं जा सकता। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हों तभी धर्म की सार्थकता है। जो धर्म हम जैसों को रोजगार तक न दे सके, उसे मैं धर्म नहीं मानता और आपको भी नहीं मानना चाहिए। मैं धर्म की रक्षा के लिए अपनी जान की बाजी लगाते हुए मुश्किल से बचा हूँ। फिर वहां एक गीत बजने लगा। आओ प्यारे वीरों आओ, अपने धर्म पर बलि बलि जाओ।
ज्ञान के रूप में वहां जहर की वर्षा हो रही थी। अपने धर्म की श्रेष्ठता और दूसरे धर्म की निम्नता पर वे मानवताखोर की तरह दहाड़ रहे थे। अपनी जुबानी कलाबाजी से अंधभक्तों के न केवल दिमाग में बल्कि नस नस में नफरत का जहर लगातार भर रहे थे। भक्त झूम रहे थे, उन पर नशा चढ़ रहा था। लगभग घण्टे भर तक वह धर्म का अफीम बांटता रहा।
अब वे मंच से प्रवचन झाड़ कर उतर चुके थे और भक्तों को आशीर्वाद देने पर उतर आए थे।
मैं कंगाल तुरन्त पंडाल से निकल भागने की जुगत में था पर उस चंडाल की नजर मुझ पर पड़ गई थी। मेरे वहां से निकल भागने के पहले ही उनके दो गुर्गे मतलब शिष्य मुझे जकड़ चुके थे और धमकाने के अंदाज में मुस्कुराते हुए मेरे कानों में फुसफुसा रहे थे, क्यों बे श्रीमान! बिना प्रवचन फीस चुकाए ही भागना चाहता है। पैसा खर्च किये बिना गुरुजी का ज्ञान हजम कर जाना चाहता है मूर्ख। ये तो अच्छा हुआ जो समय रहते हमारी गिद्ध दृष्टि मतलब दिव्य दृष्टि तुझ पर पड़ गई। अब चुपचाप गुरुजी के दरबार में हाजरी लगा और फीस जमा कर वरना अंजाम बहुत बुरा होगा, समझे?
मैं मिमयाया, मगर मैं तो बाहर की चिलचिलाती धूप से कुछ समय तक बचने के लिए पंडाल में घुसा था, मैंने तो गुरुजी की ज्ञान की बातें सुनी ही नहीं है तो फिर फीस किस बात की?
उनमें से एक ने मुझे देख दांत किटकिटाते हुए और अन्य भक्तों को देख मुस्कराते हुए कहा, अच्छा तो ये बात है। तब तो डबल फीस लगेगी। प्रवचन फीस के साथ ही पंडाल का किराया अलग से वसूला जाएगा। तेरे जैसे मूर्खों के कारण ही भक्त मंडली बदनाम होती है। मेरे पास कुछ कहने को बचा ही नहीं था। पर मैं मन ही मन सोच रहा था, यहां आकर तो मैं बुरी तरह फंस गया। अब तो गुरुजी के दरबार में हाजरी दिलावाये बिना ये लोग मुझे छोड़ने वाले नहीं है। मुझे वैसे ही घबराहट हो रही थी जैसे किसी गरीब को अदालत में पेशी के पूर्व होती है।
पंडाल खाली होने के पश्चात गुरुजी के दोनों पालतू शिष्य मुझे उनके विश्राम स्थल पर ले आये। नजदीक जाकर मैंने पाया कि यह गुरुजी तो अपना ढोलक चंद है। बचपन में हम साथ ही गांव के प्रायमरी स्कूल में पढ़ते थे। ढोलक चंद घुमन्तु परिवार का सदस्य था। दूसरी कक्षा तक पढ़ने के बाद ढोलक चंद का परिवार गांव छोड़कर कहीं चला गया था।
मैंने उन्हें पहचानते हुए कहा, आप कहीं ढोलक चंद तो नही?
उन्होंने मुझसे नजर और अपनी पहचान बचाते हुए कहा, नहीं, नहीं। हम स्वामी तबलानन्द के शिष्य स्वामी बलानन्द हैं।
शिष्यों ने उन्हें टोकते हुए कहा-" स्वामी जी! बलानन्द नहीं। कला नन्द। स्वामी कलानन्द।
गुरुजी ने ज्ञान ज्ञान बघारते हुए कहा -" नाम में क्या रखा है बच्चा! बलानन्द कहो, कला नन्द कहो या घपलानन्द सबका मतलब तो एक ही है। सन्यास और ब्रह्मचर्य धारण करने के बाद दो चीजें ही सबसे प्रिय होती है एक तो 'काम' और दूसरा विश्राम। नारी कल्याण का काम हाथ लग जाये तो हम इस कुशलता से कल्याण करते हैं कि कल्याणार्थी चूँ तक न कह सके। इस कल्याण के काम में शिष्यों से लेकर परिवार वालों तक की बराबर सहभागिता और सक्रियता होती है।
स्वामी कलानन्द जी के ज्ञान से मेरा सिर फटा जा रहा था। मैंने कहा-मुझ अज्ञानी पर दया करके मुझे क्षमा कीजिये गुरुदेव । मुझे छोड़ दीजिए, मेरे पास आपकी फीस तक के लिए पैसे नहीं है।
उन्होंने आश्चर्य से कहा- बचपन से लेकर आज तक कलम ही घिस रहे हो क्या? जो कंगाली अब तक तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ रही है। कोई ढंग से काम धंधा शुरू करो, जैसे मैंने किया। कोई ठेकेदारी का काम हाथ में लो और रातों रात धन कुबेर बन जाओ।
मैंने कहा- पर कौन मुझे घर, सड़क, पुल, बांध बनाने की ठेकेदारी देगा। लाखों रुपये चाहिए इनकी ठेकेदारी शुरू करने के लिए, कहाँ से लाऊंगा?
उन्होंने ने कहा-" किसने कहा तुमसे ये फालतू की ठेकेदारी करने के लिए। हमारे धंधे में लग जा। जीरो निवेश बिजनेस। धर्म रक्षा की ठेकेदारी, न किसी डिग्री की जरूरत और न ही पैसे की। हींग न फिटकिरी और रंग चोखा, समझा कुछ?
बात कुछ कुछ समझ आते ही मैं उन्हें फ़टी फ़टी नजरों से देखता रह गया। एकदम निःशब्द।
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वीरेन्द्र सरल
बोडरा मगरलोड
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