प्रो. नंदिनी साहू 1.अधूरे जगन्नाथ क्यों? हृदय के अंधेरे में दोहरी जुबान वाले मेरे अस्पष्ट शब्द, जब ज्यादा पक जाते हैं मैं सोचती हूं क...
प्रो. नंदिनी साहू
1.अधूरे जगन्नाथ क्यों?
हृदय के अंधेरे में
दोहरी जुबान वाले
मेरे अस्पष्ट शब्द, जब ज्यादा पक जाते हैं
मैं सोचती हूं
क्या जरूरत है
वेदना या चेतना की,
स्वतंत्रता या संप्रभुता की
सोने के भारी गहनों, बैंक खातों की
मेरे पड़ोसी सुंदरी के कृत्रिम बालों की
चांद, टेबल पर रखे कैलेंडरों की
मेरी ओमेगा-3 की गोलियों
प्यार, वासना या
काव्य-कविता की?
“माँ! उनके पूर्णांग क्यों नहीं है?
किसने उन्हें आधा-अधूरा छोड़ दिया?
क्यों वे इतने काले-कलूटे हैं?
उनकी निर्मिमेष आंखों में सूजन क्यों है?”
मैंने अपने निडर मस्तमौला हृदय में,
उन सारे प्रश्नों के उत्तर तलाशे,
नग्न कमरों की परवाह किए बगैर,
मैंने उन बच्चों के बारे में सोचा
जिन्हें दुनिया ने त्याग दिया
क्योंकि या तो वे लावारिस थे या अर्द्धांग,
या फिर ऐसे काले-कलूटे मानो समय थम गया हो
मैंने उनके तौर-तरीकों के बारे में सोचा
उनके पुराने अंग और चेहरे
जल-पादपों के इर्द-गिर्द पड़े दिखाई दिए।
“यह अभिसरण है मेरे बेटे!
यह उनका अपना तरीका है,
सहिष्णुता की यांत्रिकी को मानवीय बनाने का
ब्रह्मांड के अधिपति, भगवान जगन्नाथ
कुरूप चेहरा, बिना पांव, बिना हाथ
विस्फारित, निर्निमेष नेत्र और काली त्वचा
फिर भी आकर्षण!
सभी को अपने भीतर समाने की शक्ति
सभी से ज्यादा पवित्र
सबसे ज्यादा आकर्षक
सबसे ज्यादा लुभावनी
सबसे ज्यादा पूर्ण
तब मेरी समझ में आई,
इस सर्जनशील चिंतन की पहली किरण
अपारदर्शी मुंडेरों को तोड़ती प्रभात
बिना किसी ऊपरी आदेश के।
2.मौत
मौत के बारे में
सबसे भयावह बात है,
जब वह आती है,
तुम पूरी तरह से
अपने होते हो।
जिंदगी थोड़ी दूरी पर
खड़ी होती है
मानो कोई नजदीकी रिश्तेदार
अस्पताल की शय्या के
किनारे पर खड़ा होकर
बुदबुदा रहा हो, विलाप कर रहा हो
या आंखें पोंछ रहा हो
ऐसे मानो
तुम ही
पहले और अंतिम
मरने वाले व्यक्ति हो
इस धरा पर।
3.नदियां उल्टी नहीं बहती
मनुष्यों की कहानियां
नदियों की तरह होती हैं
वे कभी भी उल्टी नहीं बहती
जहां एक कहानी स्पर्श करती है
दूसरी को,
इससे पहले कि
दोनों कहानियां
महासागर को छुए
और उसमें विलीन हो जाए।
मानव कथाएं हैं
जायकेदार प्रसंगों का स्वादिष्ट भोजन,
सारे मसालों का उत्तम मिश्रण,
मानो तलछट्टी चट्टानों का अवसादीकरण
हम परत-दर-परत
हटाकर काई
तैरने लगते हैं इर्द-गिर्द
तब भी नदियां
उल्टी नहीं बहती।
4.ज्वार के विपरीत तैरना
मैं ज्वार के विपरीत तैरती हूँ
कुछ ज्यादा नहीं तो
कम से कम एक अच्छी तैराक तो हूँ।
मेरा अपनी जिंदगी पर पूरा नियंत्रण है
चाहे अच्छा हो या बुरा।
रूढ़िहीन, क्षमायाचना हीन
डटकर जीवन का सामना करती हूँ
मैं तैरती हूँ
मैंने महारत हासिल की है
इस खेल में।
मैं उन्हें ‘उपनिवेशक’ कहती हूँ
जो मुझे हमेशा पराधीन रखना चाहते हैं
और उन्हें दोस्त
जो मुझे ज्वार में उछाल देते हैं
आखिरकार
मित्रनुमा भाटा प्रतीक्षा करता है
अंत में।
5. जब शब्दों को उनकी गर्जना मिली
कैसे मैं अपने आपको
तुम्हारे अनुरूप बनाऊं?
जब मैं अपनी आदतें बदलती हूँ
तब तुम अपनी शर्तें बदल देते हो।
कैसे मैं तुम्हारे
भानुमति पिटारे के अरण्य में भटकती रहूँ?
जब मैं वह निषिद्ध पिटारा
खोलती हूँ, तुम अंतर्ध्यान हो जाते हो।
कैसे मैं तुम्हारी वर्जना मिटाऊं,
जिसमें मेरा नंगा आग्रह प्रकट होता है ?
जब-जब कोशिश करती हूँ,
तुम मिल जाते हो
शाम की उन जगहों पर
जहां आत्माएं निवास करती हैं।
कैसे मेरे लिपस्टिक पर
उन्मादित उल्लास चमकेगा?
जब-जब चमक आती है,
नीचे से कोई अंधेरा कर देता है।
6. इतना ज्यादा कितना ज्यादा है?
मैंने मुट्ठी भर
बालू मापी,
अब मेरी अंगुलियों में
सारा दिग्वलय नजर आने लगा।
लिंग-भेद से परे
उसे प्यार करना
मानो सभी को आहत करता था।
कुछ भी पूर्ण नहीं है।
कितना ब्रह्मांड इतना ज्यादा है?
तुम्हारी
हथेलियों पर हथेली रखकर
मैंने सोचा था
ब्रह्मांड ऊष्ण होना चाहिए
तुम्हारी
हथेलियों की तरह,
ब्रह्मांड की
आत्मा के वलय में।
तुम्हारी आंखों के
दुख के महासागर ने
मुझे सोचने पर
विवश किया कि
ब्रह्मांड कुछ ही सैकेंडों में
कलाबाज हो जाएगा
अंतरिक्ष और धरती के
मिथकों के विपरीत।
कोणार्क में
नारीत्व की भास्कर्य कला के
खिसकते पत्थर
कवि की समस्या का समाधान करेंगे
आखिर शब्दों को
विचारों का वजन
क्यों उठाना पड़ता है?
कितना ब्रह्मांड
इतना ज्यादा है?
7.बताना मुझे
अगर तुम्हारे अधर खुलते हो तो बताना मुझे
जो भाषण तुम्हारा अपना हो और
उसमें तुम्हारे शरीर की लंबाई-चौड़ाई अटती हो तो,
बताना मुझे।
बताना मुझे, सही-सही बताना मुझे,
अगर तुम्हारी आत्मा आज भी तुम्हारी हो
देखो, गाडलिया लुहार की धोंकनी में
कैसे अंगारे धधकते हैं, लोहा रक्त-तप्त होता है,
धोंकनी के जबड़े बंद होते हैं, खुलते हैं।
बताना मुझे, बताना मुझे,
अगर तुम मुक्त अनुभव करते हो तो
जब शृंखला अपना घेरा बढ़ाती है
जैसा हम समझते हैं।
बताना मुझे
जितना कम समय तुम्हारे पास है
पर्याप्त नहीं होगा
तुम्हारी जिह्वा के खत्म होने से पहले
सत्य बताना मुझे, जो सत्य आज भी मौजूद है।
मुझे बताओ,
वह सारी जरूरतें जिसके बारे में बताना है।
--
8. कंध महिला का गीत
याद आ रहा है मुझे
देखा था कभी मैंने तुम्हारे गवाक्ष से
घूँघट के पीछे छुपा एक बुझा चेहरा ।
मैं ही हूँ वह आदिवासी महिला
कंध जाति की
शायद सत्तर साल की,
मेरी कोई जन्मतिथि नहीं
तथ्य को स्वीकार करने में संकोच नहीं
कि मेरा कोई इतिहास नहीं
कोई लिपिबद्ध मेरी भाषा नहीं,
मेरा कोई घर नहीं,
मेरा कोई अता-पता नहीं,
मेरा कोई परिमार्जन नहीं,
मेरे पास कोई पेंसिल नहीं
कोई घड़ी नहीं,
कोई जेब नहीं,
कोई कंबल नहीं, कोई बिस्तर नहीं, कोई पेंचकश नहीं,
कोई जींस के कपड़े नहीं, कोई डिटर्जेंट नहीं,
कोई चाबी नहीं, कोई तंबाकू की थैली नहीं,
कोई गहने नहीं;
केवल है मेरे पास
मेरी सहायक प्रतिमाओं
के बारे में तुम्हारा अविश्वास।
अनेक सालों की राशि
इस खेल के प्रत्याशी
मेरे पूर्वजों की आशा
एक दिन पूर्ण होगी इच्छा ।
फिर भी मैं गाती हूँ गीत
खुश रहो सदैव मेरे मीत ;
कैसे गिनूँ मैं अपने दुख ?
मना करता है मेरा मुख
नहीं होता है मेरा मन
कैसे फेरूँ अपने नयन ?
जिससे बनूँ मैं न ज्वाला
न लावा, न ही लार्वा
एक परिवर्तित अस्तित्व का।
9. खंडहरों और बारिश के बीच बचपन
मैं बड़ी हुई उदयगिरि में, वह मेरा स्वप्न-नगर,
भारत के ओडिशा प्रांत का एक छोटा-सा शहर
चारों ओर भरे हुए निर्वासित खंडहर-ही-खंडहर ।
वहाँ के प्यार ने हमें दिया नया जीवन
किशोरावस्था में सिखाया मूल कानून
‘केवल प्रेम ही दे सकता है हमें सम्मान’ ।
उदयगिरी में होती सुप्रभात
" आकाश वाणी के न्यूज-रीडर गौरंगा चरण रथ द्वारा... आपका स्वागत....।"
हमारे कानों में गूँजती उसकी बात ।
एक मोटे व्यक्ति की मन में उभरती एक तस्वीर
गंजा, चेहरे पर चेचक के निशान, पढ़ते हुए खबर
बीच-बीच में खुजला रहा होगा अपनी कमर ।
भयानक बारिश, बिजली गुल सात-सात दिन
लगातार बारिश, तेज चक्रवात, आंधी-तूफान
कलकल करते पहाडी झरने, सायं-सायं करती पवन ।
मां केरोसिन स्टोव पर करती गरम
पकाती चावल-दाल, साथ में पापड़ नरम
कई दिनों तक मिट्टी-चूल्हा रहता नम ।
हमारे घर-आँगन की खुली नाली का उफान
जैसे कटक में महानदी का जल-प्लावन,
पानी में छप-छप करने से प्रसन्न होता मन ।
पर होती हमारी मददगार टिंटू-माँ परेशान
लगता उस पर अंतहीन लगान
बुहारती हर समय झाड़ू से आँगन ।
आज और कल के बीच बहता समय का सैलाब
हार और नुकसान ही हमारा पुश्तैनी आशीर्वाद
क्या आज होगा कल का जवाब ?
धीरे-धीरे जमा होता जाता जल
सिरीकी बांध, दुगुड़ी, ईसाई पहाड़
नूआ गली, पठान गली, बाजार चौक, महागुड़ा गली
और जिले का एकमात्र एमएमसी अस्पताल ।
जहां कभी-कभार आते ब्रिटेन के डॉक्टर
बन गरीबों की आशा और विश्वास का सागर
मेरे छोटे भाई-बहनों को मिला वहाँ जीवन का उपहार।
कालातीत अब समय और स्थान
जैसे दे रहा हो कोई निरर्थक भाषण
या, हिमालय की अनाम जड़ी-बूटियों का वन ।
जब बीत जाते बारिश के दिन
सूरज देने लगता दर्शन
तिलचट्टे और मक्खियों से भर जाता आँगन ।
एक शाम मच्छरदानी में बैठी पुस्तक पकड़कर ,
गौरंगा चरण रथ की, " आकाशवाणी ..." पर आई खबर
उदयगिरि में आई बाढ़ भयंकर ।
एक किनारे से दूसरे किनारा ‘मिली बयानी’
खंडहर दरकने लगे बारिश के पानी
ढहने लगी शहर की कमजोर किलेबंदी।
सब जगह भरा हुआ था जल जैसे सागर
उदयगिरि , दरिंगबाड़ी ,कुम्भकूप ,
कानबागेरी , बदनाजू , मलिकापोरी , कलिंग और भंजनगर
बिना सोये गुजारी वे रातें ,
तिलचट्टों के पैर गिनते
मच्छरदानी में सिर पर डायनासोर जैसे मँडराते।
केवल सोचती रही, निचले इलाकों में डूबे घर
बाढ़ में डूबे खेत और गाँव की डगर
जहां कुछ नहीं उगेगा, सिवाय खतपतवार ।
केवल आह ! कह रहा था दुखी मन
मेरी बहिन देख रही थी दु:स्वप्न
जल-निमग्न हो गए कई परिजन ।
पड़ोसी-बाबू , गूनी , बापूनी बह गए जल-धार
माताएँ करने लगी विलाप,बहाते हुए अश्रु-धार
माँ ने भी खोया अपना इकलौता आँखों का तारा ।
हुआ था उसे मस्तिष्क-आघात, तो मैं कैसे सो पाती उस रात ?
मेरी बहन फुसफुसाई, "क्या तुमने सुनी कुछ आहट '?"
मैंने कहा, " दीदी , सो जाइए- उदयगिरी है सुरक्षित और शांत।"
हम रात भर कल्पना करते रहे बारिश की ओट
कैसे सितारें, चंद्रमा गगन में होंगे प्रकट
पहनकर मनमोहक इंद्रधनुषी मुकुट ।
लिए आसमानी सुंदर छबि का विशेषाधिकार
महत्वाकांक्षी नील गगन से होती वर्षा प्रचुर
महत्वाकांक्षी? नहीं, उदयगिरी महत्वाकांक्षाओं से थी दूर ।
मगर अवश्य महत्वाकांक्षी था सुबह का सूर्य
बारिश के महीनों के बाद सर्दियों का आदित्य
कैसे करता प्रदर्शन उदयगिरी का वैभव-ऐहित्य ?
ओड़िशा के प्राचीन समुद्री इतिहास पर नजर
नम, काली शामें जैसे बोझ से झुका हो सिर
हमारे पापों की आंधी जैसे हुंआ-हुंआ करते सियार ।
ऐसे में मेरी आँखों में नींद कहाँ ?
सुनाई पड़ती दुख-दर्द भरी आवाजें, अहा!
मन भटकता रहता सारी रात जहां-तहां
मैंने यहाँ सीखी मौन और धैर्य की वर्णमाला
बगैर किए किसी से दुश्मनी, या क्रोध-दिखावा
सर्दियों में उदयगिरि है ओड़िशा की दार्जिलिंग-पर्वतशृंखला।
उदयगिरि में होती है केवल, बारिश और सर्दी दो ऋतु
हमेशा उदार बना रहता महत्वाकांक्षी सवितु
रहता सदैव कलिंग घाट के घने जंगलों में सुषुप्त ।
ग्रीष्म ऋतु का दूसरा नाम था बसंत '
चहचहाते ‘बेज’ पक्षी गुलमोहर के शिखांत
लाल फूलों से लदे, पर्ण रहित ।
मेरे विद्यालय के रास्ते जाती मैं कूदती-कूकती बन कोयल
उसकी कोकिल आवाज को भूल
बहुत मजा आता था मुझे खेलने में वह खेल ।
आज भी महानगर में जिंदा है मेरा वह खेल
आज भी अंकित है मेरे मानस-पटल
उदयगिरि के पक्षियों का किल्लोल ।
तभी तो मेरा नाम रखा गया नंदिनी,
आज भी महसूस करती हूं अपने भीतर वह वाणी
यकीन नहीं आ रहा, कैसे बनी मेरे अस्तित्व की रानी ।
इस तरह खंडहरों के बीच मैं पली-बढ़ी, धैर्यपूर्वक,
उछलने-कूदने की कला में हुई परिपक्व
छाया के संग सुबह से लगाकर शाम ढलने तक ।
हर रात मेरी छाया रेंग आती मेरे द्वार
साथ में, उदयगिरि से सौगात मिली क्षति और प्यार
अस्पृश्य, मगर महसूस होते मेरे भीतर ।
दीवारों से सांस की अनुभूति
सोचकर गोल्ला गली के हमारे घर की दीवार,
उस पर कालातीत प्लास्टर
जैसे हाथियों की भ्रामिक परछाई,
ज़ेब्रा या पागल औरत का फटा हुआ सिर
या कुत्ते के भौंकने या जम्हाई लेने के स्वर। सांस लेती परछाई।
अंधेरे में छूकर महसूस करती हूं खंडहर
मेहराब, दीमक खाए एल्बम,टूटे पिलर
उमस, चिपचिपाहट, कंघी और क्रीम-पाउडर
बिछुड़े माता-पिता और भाई-बहन।
मैं आसमान पर खींचती हूँ तस्वीर
जो दर्शाती है मेरी पीड़ा-पीर
स्वर्ग पंखों समेत उतरता धरा पर,
नहीं मिलता उसे कोई सुराग, मैं हो जाती हूँ उदास,हताश और निराश।
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कवयित्री का परिचय:-
प्रोफेसर नंदिनी साहू समकालीन भारतीय अंग्रेजी साहित्य की प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उन्होंने विश्व भारती, शांतिनिकेतन के अँग्रेजी प्रोफेसर स्वर्गीय प्रोफेसर निरंजन मोहंती के मार्गदर्शन में अंग्रेजी साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है। आप अंतरराष्ट्रीय ख्याति-लब्ध अँग्रेजी भाषा की कवयित्री होने के साथ-साथ प्रबुद्ध सर्जनशील लेखिका हैं। आपकी रचनाएँ भारत, यू.एस.ए., यू.के., अफ्रीका और पाकिस्तान में व्यापक रूप से पढ़ी जाती हैं। प्रो.साहू ने भारत और विदेशों में विभिन्न विषयों पर शोधपत्र प्रस्तुत किए हैं। आपको अंग्रेजी साहित्य में तीन स्वर्ण पदकों से नवाजा गया हैं। अखिल भारतीय कविता प्रतियोगिता की पुरस्कार विजेता होने के साथ-साथ शिक्षा रत्न पुरस्कार, पोयसिस पुरस्कार-2015, बौध्द क्रिएटिव राइटर्स अवार्ड और भारत में अंग्रेजी अध्ययन में अभूतपूर्व योगदान के लिए भारत के उपराष्ट्रपति के कर-कमलों द्वारा स्वर्ण पदक से भी पुरस्कृत किया गया हैं।
नई दिल्ली से प्रकाशित ‘द वॉयस’, ‘द साइलेंस (कविता-संग्रह)’,’ द पोस्ट कॉलोनियल स्पेस: द सेल्फ एंड द नेशन’, ‘सिल्वर पोएम्स ऑन माय लिप्स (कविता-संग्रह)’, ‘फॉकलोर एंड अल्टरनेटिव मॉडर्निटीज (भाग-1)’,‘फॉकलोर एंड अल्टरनेटिव मॉडर्निटीज (भाग-2)’, ‘सुकमा एंड अदर पोएम्स’, ‘सुवर्णरेखा’, ‘सीता (दीर्घ कविता)’, ‘डायनेमिक्स ऑफ चिल्ड्रेन लिटरेचर’ आदि शीर्षक वाली तेरह अँग्रेजी पुस्तकों की आप लेखिका और संपादक हैं।
संप्रति लेखिका इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय [इग्नू], नई दिल्ली में स्कूल ऑफ फॉरेन लैंग्वेजेस की निदेशक एवं अंग्रेजी की प्रोफेसर हैं।
डॉ॰ साहू ने इग्नू के लिए लोकगीत और सांस्कृतिक अध्ययन, बाल-साहित्य और अमेरिकी साहित्य पर अकादमिक कार्यक्रम/पाठ्यक्रम तैयार किए हैं। आपके शोध के विषयों में भारतीय साहित्य, नए साहित्य, लोककथा और संस्कृति अध्ययन, अमेरिकी साहित्य, बाल-साहित्य एवं महत्वपूर्ण सिद्धांत शामिल हैं। अँग्रेजी की द्विवार्षिक समीक्षा पत्रिका ‘इंटरडिस्सिप्लिनेरी जर्नल ऑफ लिटरेचर एंड लेंग्वेज’ और ‘पैनोरमा लिटेरेरिया’की मुख्य-संपादक/संस्थापक-संपादक हैं।
www.kavinandini.blogspot.in
पता:
प्रो.नंदिनी साहू
निदेशक, स्कूल ऑफ फॉरेन लैंग्वेजेस
प्रोफेसर(अंग्रेजी), एसओएच, इग्नू
नई दिल्ली -110068, भारत।
ई-मेल: kavinandini@gmail.com
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