अप्प दीपो भव ------------------- चर्चित कथाकार प्रिय भाई महेंद्र भीष्म जी ने जब मुझे साकेत वासी महाकवि दिव्य जी के महाकाव्य 'श्री गौतम ब...
अप्प दीपो भव
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चर्चित कथाकार प्रिय भाई महेंद्र भीष्म जी ने जब मुझे साकेत वासी महाकवि दिव्य जी के महाकाव्य 'श्री गौतम बुद्ध चरित' की टीका करने के लिए कहा तो मुझे अपनी मातृ भाषा पर गौरव हुआ साथ ही अपने मातृ भाषा ज्ञान पर तरस भी आया। लेकिन जिस उदार हृदय ने मुझे इस लायक समझा वही इस महासागर से पार भी उतारेगा इसी विश्वास के साथ हामी भर ली।
वैसे यह महाकाव्य इतनी सरस और सहज प्रवाह वाली सरल भाषा में है कि पाठक को किसी टीका का मुँह ताकने की आवश्यकता ही नहीं है। इसे पढ़ते हुए अर्थ की परतें स्वत: खुलती जाती हैं यानी पाठक 'अप्प दीपो भव' की मनोदशा में पहुँच कर अर्थ ग्रहण ही नहीं करता अपितु रसनिष्पत्ति का लाभ भी प्राप्त करता है। इतना सब होते हुए भी टीका(करण)का आदेश है तो पालन करना ही है पर उसके पहले पाठकों की सुविधा के लिए महाकाव्य की कथावस्तु पर विहंगम दृष्टि भी आवश्यक है।
यह महाकवि दिव्य जी का अवधी भाषा में रचित चरित महाकाव्य है, जो अट्ठारह सर्गों में विभक्त है। ये सर्ग हैं आदि सर्ग, बाल स्वर्ग, बासना बिजय सर्ग, महाभिनिस्क्रमण सर्ग, तपोबन प्रबेस सर्ग, महातप सर्ग, मार बिजय सर्ग, संबोधि सर्ग, प्रबर्तन सर्ग, कस्यप सर्ग, ताड़ बन सर्ग, बेनुबन सर्ग, पुनर्मिलन सर्ग, महाबन सर्ग, श्रावस्ती सर्ग, बिबिध बिहार सर्ग, उद्वेग सर्ग और अन्तिम सर्ग है निर्बान सर्ग।
इस महाकाव्य के आदि सर्ग में भगवान बुद्ध के अपनी मां के गर्भ में आने से लेकर उनके जन्म और जन्म उपरांत कपिलवस्तु पहुंचने तथा महामुनि असद के कपिलवस्तु आगमन और राजकुमार के नामकरण, महामाया के देहावसान के साथ माता गौतमी के सुत स्नेह तक का चित्रण है। दूसरे सर्ग का नाम बाल सर्ग है। इसमें बालक सिद्धार्थ के रूप सौंदर्य का चित्रण है। सिद्धार्थ के विद्याध्ययन से लेकर उनके हल कर्षण उत्सव में जाने, जंबू वृक्ष के नीचे विश्रामऔर घायल हंस पर कृपा करने जैसे प्रसंग आए हैं। रचनाकार दिव्य ने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों में दलितों के साथ बैठने पर जो आभिजात्य विरोध था उसको भी इस सर्ग में दर्शाने का प्रयास किया है और इसमें अपने सतर्क व सहृदय विवेक से सफलता भी प्राप्त की है। भारत के दलितों के प्रति झुकाव और उनके प्रामाणिक तर्कों से रचनाकार दिव्य ने दलित जीवन को भारतीय संस्कृति की मुख्यधारा से जोड़ने के सिद्धार्थ के प्रयासों को बड़े सम्मान के साथ उद्धृत किया है। सिद्धार्थ के बैराग्य के प्रति आकर्षण, नश्वर जगत की चिंता, निर्धन दलितों की सेवा करती यशोधरा से गौतम का मिलन, गौतम के साथ यशोधरा का विवाह, राजा शुद्धोधन द्वारा रंग महलों का निर्माण कराने के उपरांत राजा शुद्धोदन का राजकुमार सिद्धार्थ के सांसारिक सुखों में बसने की वृत्ति का आस्वस्ति बोध आदि के प्रसंग कवि के संपूर्ण वाग्वैदग्ध्य के साथ वर्णित हैं। तीसरा सर्ग 'बिजय बासना सर्ग' है, जिसमें राजकुमार सिद्धार्थ अपने सारथी चन्ना के साथ जब भ्रमण पर जाते हैं उस समय उनका एक वृद्ध , रोगी और मृत व्यक्ति को देखकर विरक्ति से मन भर जाना, राजा शुद्धोधन के द्वारा इस समाचार का सुना जाना और उस पर चिंतित होना, राजकुमार को मोह्बीद्ध करने हेतु कालू दई को राजकुमार सिद्धार्थ के पास भेजना। इसके उपरांत सिद्धार्थ और उनके अनन्य मित्र उदायी का पद्म उद्यान में पहुंचना, उद्यान में उपस्थित सुंदरियों द्वारा सिद्धार्थ को लुभाने का प्रयास करना और सुंदरियों के द्वारा किए गए प्रयासों में सफलता न मिलना और इससे उदायी का आक्रोशित होना, सिद्धार्थ द्वारा कालू दई को समझाना और उसके पश्चात पद्म उद्यान से वापस लौट कर गिरि प्रासाद पर पहुंचना। इसके साथ ही ग्रीष्म ऋतु प्रासाद से पावस प्रासाद में सिद्धार्थ और यशोधरा का लौटना, सिद्धार्थ के पास जाकर शुद्धोदन का अपनी व्यथा सुनाना, दीन दु:खियों का दुख दूर करने के संबंध में गौतम और यशोधरा का विचार विमर्श जैसे गंभीर प्रसंग तीसरे सर्ग में आए हैं। महाकवि दिव्य ने इन तीन सर्गों में राजकुमार सिद्धार्थ के बुद्ध बनने की प्रक्रिया को सहज और सरल भाषा में चित्रित किया है।
वह महात्मा बुद्ध को आरंभ से ही महामानव नहीं बनाना चाहते और न ही उन्हें इस तरह की प्रतिष्ठा में कोई विश्वास है। इसीलिए दिव्य ने सिद्धार्थ को एक सामान्य बालक से किशोर होने तक की वय में सामान्य बालकों और किशोरों की तरह ही जिज्ञासा, कौतूहल और अन्य मनोवेगों से भरा हुआ दर्शाया है।
चौथा सर्ग महाभिनिस्क्रमन सर्ग है। इसमें रचनाकार द्वारा दु:खियों के दु:ख से द्रवित यशोधरा को गौतम द्वारा ढाढस देना दिखाया गया है। इसी सर्ग में आगे यशोधरा गौतम से अपने गर्भधारण की बात करती है। इससे स्वत: सिद्ध है कि सिद्धार्थ के वैराग्य के विकास क्रम में केवल विराग ही नहीं है पर्याप्त मात्रा में राग भी है। राहुल का जन्म और जन्म के बाद राजकुमार सिद्धार्थ का राजकीय कार्यों में रुचि लेना यह दर्शाता है कि रचनाकार सिद्धार्थ के वैराग्य के लिए किसी दैवीय निर्धारण को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस तरह कवि स्पष्ट रूप से दर्शाना चाहता है कि सिद्धार्थ के गौतम बुद्ध बनने के पीछे कोई दैवीय कारण नहीं है। अपितु वह मानवीय परिस्थितियों से निर्मित संयोग है।
रोहिणी जल विवाद पर शाक्य संघ की सभा होती है सिद्धार्थ को देश(राज)द्रोही मानकर संघ सभा द्वारा दंड की घोषणा की जाती है और उन्हें राज निष्कासन दिया जाता है। उस राज निष्कासन को वे ससम्मान स्वीकार कर विदा हेतु अपने पिता के पास जाते हैं। महाकवि दिव्य की यह मौलिक उद्भावना ही है कि उन्हें भी वनवास दिया जाता है और वह इसके लिए अपने पिता के पास भी जाते हैं। इस तरह वे बुद्ध के चरित्र को राम के चरित्र के सन्निकट ले आने में समर्थ होते हैं। राजकुमार सिद्धार्थ केवल अपने पिता से ही वन गमन की अनुमति नहीं लेते अपितु अपनी माता के पास भी पहुंचते हैं और माता से भी अनुमति लेना अपना धर्म समझते हैं। इसी बीच यशोधरा का सपना देखना और उन्हें गौतम को बताना यह सिद्ध करता है कि रचनाकार दिव्य वहीं अपनी मौलिक उद्भाना रखने के पक्षधर हैं जहाँ लोकमान्यता को कोई आघात न पहुँच रहा हो। इसी कारण वे बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण के संबंध में ऐसी कोई मौलिक उद्भावना नहीं देना चाहते जिससे कि विवाद उत्पन्न हो। इसलिए वह उन विषयों को भी रखने में संकोच नहीं करते हैं जो उनके बारे में प्रचलित हैं।
सिद्धार्थ भले ही रात में निकलते हैं लेकिन अपने निश्चय को पहले ही वह अपनी पत्नी यशोधरा को स्पष्ट बता देते हैं। यहां महाकवि दिव्य सिद्धार्थ की उस पीड़ा को भी स्वर देना चाहते हैं जो उन्हें यशोधरा के साथ रहते हुए भी और उस से विदा होते हुए भी बराबर विवश करती रही है। इसके पूर्व सिद्धार्थ चन्ना के पास जाते हैं और अपना निश्चय बताते हैं। उसके उपरांत आधी रात को यशोधरा और राहुल को सोता हुआ छोड़कर घर से निकलते हैं। सुबह होते -होते वे अनोमा नदी के किनारे पहुंचते हैं और वहां से वह चन्ना को वापस लौटने के लिए समझाते हैं । सिद्धार्थ अपने राजसी वस्त्र उतारकर चन्ना को वापस दे देते हैं। नदी के किनारे वह तापस वस्त्र धारण कर लेते हैं। चन्ना की वापसी पर न केवल यशोधरा विलाप करती है अपितु शुद्धोधन भी इस विचार विमर्श में लगते हैं कि इसका क्या समाधान निकाला जाए और इसके समाधान के लिए राजपुरोहित और मंत्री रथारूढ़ होकर कुमार की खोज में निकल पड़ते हैं।
पांचवें सर्ग का आरंभ गौतम के द्वारा वन में एक आश्रम में प्रवेश से होता है। वहां आश्रम वासियों के भिन्न उद्देश्य को देखकर उनका मन अप्रसन्न होता है और वह अन्यत्र के लिए प्रस्थान करते हैं। आश्रम के लोग गौतम को लौटाने का प्रयास करते हैं। लेकिन वे सफल नहीं होते हैं। आगे चलकर गौतम और इसके साथ करार आश्रम के लिए प्रस्थान करते हैं। वन में गौतम से राजपुरोहित और मंत्री का मिलन होता है। मंत्री और पुरोहित दोनों उन्हें लौटाने का प्रयास करते हैं लेकिन राजपुरोहित और गौतम के मध्य जो संवाद होता है उससे दोनों को लगता है कि गौतम अपने विचार के प्रति कृत संकल्प है। इससे वह निराश होकर वापस लौट आते हैं। सर्ग महत्व सर्ग है जिसमें गुरु अराड आश्रम जाते समय मार्ग में जो भी वन्यजीव मिलते हैं गौतम उनसे मैत्री भाव स्थापित करते हैं। आगे बढ़ते हुए हुए मुनि आराल आश्रम में बालकों के साथ पहुंचते हैं। मुनि आराल से अपने को शिष्य बनाने का अनुरोध करते हैं। इसके बाद वह मंडली के साथ गौतम वैशाली नगर जाते हैं। वहां से लौट कर आलार आश्रम में साधना आरंभ करते हैं। अपनी साधना से वहां पदार्थता की स्थिति को प्राप्त करके फिर आश्रम से अन्यत्र प्रस्थान करते हैं और फिर राजगिरी पहुँचते हैं। वहां जाकर राजा बिंबिसार से मिलते हैं। बिंबिसार गौतम से इतना प्रभावित होते हैं कि वह अपना आधा राज्य देकर गौतम को राजगृह ले जाना चाहते हैं। अपरिग्रही गौतम स्थान छोड़ते रहते हैं और एक स्थान से किसी अन्य स्थान के प्रस्थान करते रहते हैं। इसी क्रम में वह गुरुवर उद्रक के आश्रम में पहुंचते हैं। गुरु उद्रक गौतम को शिष्य के रूप में स्वीकार करते हैं फिर उसके बाद वह वहां साधना रत रहते हुए पायतन अवस्था को प्राप्त करते हैं। गौतम चाहते हैं कि उनके गुरु उद्रक पायतन से आगे की स्थिति से अवगत कराएं लेकिन जब वह यह देखते हैं कि उनके गुरु इससे आगे की स्थित तक ले जाने में उन्हें सक्षम नहीं हैं तो वह स्थान भी छोड़ देते हैं और नैरंजना तट पर जाकर विश्राम लेते हैं। वहां घोर तप करते हैं। वहीं कुंवारी सुजाता से उनकी भेंट होती है और वही वह बोधि वृक्ष के नीचे तपस्या रत रहते हैं। कुंवर सुजाता से उनकी भेंट को लेकर साधना रत मुनि के प्रति कौंडन आदि पांचों मित्रों का संदेह प्रकट होता है और वे साथ छोड़ देते हैं। लेकिन गौतम अपनी साधना से विरत नहीं होते हैं। तदुपरांत गौतम का स्वास्ति से मिलन होता है। स्वास्ति उन्हें कुशोपहार देती है। इस सर्ग का समापन गौतम स्वास्ति और सुजाता के साथ भोजन से होता है।
अगला सर्ग विजय सर्ग है जिसमें गौतम बुद्ध बोधि वृक्ष के नीचे बैठकर संपूर्ण अर्जित योग शक्ति को अपनी देह में केंद्रीभूत करने में सफल होते हैं। उन्हें पीपल पात में ब्रह्मांड का दर्शन होता है। उन्हें अपनी साधना में मुक्ति दर्शित होती है। उन्हें तीन स्वप्न दिखाई देते हैं। इसी बीच उनकी सफलता को देखकर मार को ईर्ष्या होती हैं। अपनी ईर्ष्या बस मार(कामदेव)उन पर आक्रमण करता है। लेकिन अपराजेय मुनि गौतम के संबंध में आकाशवाणी होती है जो सुनकर मार लज्जित हो जाता है और लौट जाता है। इस तरह से मुनि गौतम की कामदेव पर विजय प्राप्त हो जाती है।
आठवां सर्ग संबोधि सर्ग है जिसमें मार पर विजय के बाद मुनि साधना पथ पर आगे बढ़ते हैं। अपनी अनवरत साधना के पथ पर बढ़ते हुए जब वह देखते हैं कि जीव अपने कर्म फल भोग रहे हैं तो वह यह देखकर ज्ञान की प्राप्ति करते हैं। मुनि को बुद्धत्व प्राप्त करते देख प्रकृति उल्लसित होती है। उनके पास देव द्वय का आगमन होता है। प्रातः काल मुनिवर के पास स्वास्ति आती है भोजन लेकर सुजाता भी वही पहुंचती है। मुनि द्वारा बोधि वृक्ष के नीचे ही बाल सभा का आयोजन किया जाता है। बच्चे उनसे संबोधित होते हैं। बुध और बौद्ध वृक्ष की संज्ञा दी जाती है। यहीं पर सुजाता और नंद बाला के द्वारा गौतम बुद्ध को वस्त्र भेंट किए जाते हैं। महामुनि गौतम बुद्ध बाल वृन्द को मृग, मैना और कच्छप की कथा सुनाते हैं। इसी नैरंजना तट पर कमल सरोवर पर गौतम बुद्ध अपना ध्यान लगाते हैं। शाक्यमुनि गौतम शिक्षा शिक्षक और शिष्य के संबंध का निरूपण करते हैं तथा उर्वर जनमानस में मुक्ति मार्ग का बीजारोपण करते हैं। इन्हीं प्रश्नों के साथ इस सर्ग का समापन होता है।
अगले सर्ग का नाम प्रवर्तन सर्ग है। जहाँ गौतम बोधि वृक्ष के नीचे से प्रस्थान करते हैं जाकर संन्यासी उपाक से मिलते हैं । मुनि प्रयाण को सुनकर उरुबेला ग्राम के लोग विषाद ग्रस्त हो जाते हैं। वहां से भी वे प्रस्थान करते हैंऔर सारनाथ के मृगदाव में पहुँचते हैं। वहीं धम्मचक्र प्रवर्तन की घोषणा व भिक्षु संघ की स्थापना भी होती है। यहीं पर मुनिवर से श्रेष्ठि कुमार यश मिलते हैं और प्रवृज्या लेते हैं। यश के पिता के घर गौतम बुद्ध का शिष्यों सहित भोजन होता है और प्रवर्ज्या दी जाती है। इसके बाद गौतम मुनि मृगदाव से प्रस्थान करते हैं। इसी के साथ सर्ग का समापन होता है।
दसवें सर्ग का नाम कास्यप सर्ग है । इसमें मुनिवर से एक युवक समूह की भेंट होती है। यहीं पर मुनि गौतम बंशी वादन करते हैं और बोधि वृक्ष के नीचे पहुंचते हैं। मुनिवर काश्यप आश्रम भी जाते हैं। वहां अग्निशाला में शयन करते हैं। आश्रम की यज्ञशाला में आग लग जाने पर काश्यप अपने पांच सौ शिष्यों के साथ बुद्धध के शिष्य बन जाते हैं। यहीं पर कश्यप के दोनों भाई नदि और गय भी गौतम का शिष्य बनना स्वीकार करते हैं। इसके बाद मुनि गौतम तीनों कश्यप सहित अपनी पूरी शिष्य मंडली के साथ गया शीर्ष पहुंचते हैं।
ग्यारहवें सर्ग में मुनिवर नौ सौ भिक्खुओं के साथ राजगिरि के लिए प्रस्थान करते हैं। यह बुद्ध मंडली राजगृह के ताड़ बन में पहुंचती है। मुनिराज के दर्शन के लिए राजा बिंबिसार ताड़बन पहुंचते हैं। राजा बिन्बसार प्रवृज्जित होते हैं और बुद्ध को भोज का निमंत्रण देते हैं। अस्सजि सारि पुत्र से मिलते हैं। साधक मंडल के साथ सारि पुत्र और मुद्गल्ल्यायन का गौतम बुद्ध का शिष्यत्त्व प्राप्त करते हैं। भोज प्रबंध हेतु राजा बिंबिसार योजनापूर्वक तैयारी करते हैं। शिष्टमंडल के साथ मुनिवर गौतमबुद्ध बिंबसार के भोज में सम्मिलित होते हैं और इसके बाद सभागार में बुद्ध की देशना होती है। बुद्ध जी का बगुला और केकड़ा की कथा सुनाना यहां सब को प्रभावित करता है और गौतम बुद्ध जी को राजा बिंबिसार का बेनुवन दान यहीं पर संपन्न होता है।
बारहवां सर्ग बेनुबन सर्ग है, जिसमें भिक्खु अस्सजि और कौंडन का ताड़बन आगमन होता है। बिहार निर्माण करते हैं। गौतम मुनि के पूर्व सारथी चन्ना और कालुदयी बेनुबन पहुंचते हैं। यहीं सारि पुत्र और मुद्गल्यायन के गुरु संजय आकर बुद्ध की ज्ञान- परीक्षा लेते हैं। गौतम बुद्ध जी संजय जी को विधुर और बालक की कथा सुनाते हैं। इससे प्रभावित होकर दीर्घ नख संजय बुद्ध जी के शिष्य बनते हैं। पुत्र जीवक के साथ आम्रपाली भी बेनु बन आती है। वह गौतम बुद्ध जी को आम्रवन पधारने का निमंत्रण देती है। परम मायामयी सुंदरी होते हुए भी वह माया रहित बुद्ध से प्रभावित होकर खुशी मन से घर जाती है। सारि पुत्र के प्रश्न का बुद्ध समाधान करते हैं। इसी प्रसंग के साथ यह सर्ग पूरा होता है।
तेरहवें सर्ग का समारंभ चन्ना और कालुदयी के बेनु बन से साक्यपुर के लिए प्रस्थान से होता है। वे साक्यपुर पहुंचते हैं। गौतम बुद्ध जी का कुछ शिष्यों के साथ कपिलवस्तु के निग्रोधा उद्यान में निवास होता है। पिता के साथ गौतम के राज महल में प्रवेश के साथ राहुल का पिता से मिलन होता है। गृह उद्यान में परिवार के साथ गौतम बुद्ध बैठते हैं और परिजनों की आंखों से आँसुओं की बरसात से अभिभूत हो उठते हैं। राज महल में भोजन के समय भाई आनंद की उपस्थिति होती है। भोजनोपरांत राजा शुद्धोधन द्वारा राज भोज के लिए भी गौतम को निमंत्रित किया जाता है। गौतम राजमहल से निग्रोधा उद्यान के लिए प्रस्थान करते हैं। राजभोग संपन्न होने के बाद राजमहल में गौतम की देशना का प्रबंध होता है। यशोधरा के भोज पर गौतम का कालूदयी और नागसमल के साथ जाना निश्चित होता है। तत्पश्चात गौतम परिवार के साथ जम्बू वृक्ष के पास जाते हैं। राहुल के प्रबिज्जित हो जाने पर राजाशुद्धोधन को पुन: विषाद होता है। राजा शुद्धोधन का भोज और गौतम का राज परिवार को देशना देने जैसी महत्वपूर्ण घटनाएँ यहीं घटती हैं।
अगला 'महाबन सर्ग' है। इसमें शाक्यपुर से प्रस्थान कर बुद्ध कौशल राज्य की अनुप्रिया नगरी पहुंचते हैं। अनुप्रिया में आनंद सहित कई कई युवकों का प्रविज्जित होना औरअनुप्रिया से चलकर बुद्ध का वैशाली, महाबन फिर बेनुबन पहुंचना और मगधश्रेष्ठि सुत महाकश्यप का प्रविज्जित होना आदि ऐसे घटक हैं जो बुद्ध को अनायास बड़ा बना देते हैं। सेठ सुदत्त के कौशलपुर चलने के अनुरोध पर सारिपुत्त के साथ श्रावस्ती के लिए प्रस्थान और फिर बुद्ध जी का महावन में पहुंचना एक महत्वपूर्ण परिघटना है। इसी सर्ग के अंत में गौतम आम्रपाली का आम्र बन वास भी स्वीकार करते हैं।
'श्रावस्ती सर्ग' में सारिपुत्र के साथ सुदत्त श्रावस्ती पहुंचते हैं। उद्यान लेने के लिए कुमार जीत से सुदत्त की वार्ता होती है। जेतवन में सुदत्त का स्वर्ण मुद्रा बिछवाना यहां की महत्वपूर्ण परिघटना है। बुद्धध जी का श्रावस्ती के लिए यहीं से प्रस्थान होता है। भिक्षुदल के साथ गौतम बुद्ध श्रावस्ती पहुंचते हैं और वहां उनका भव्य स्वागत होता है। सेठ सुदत्त द्वारा जीत बन बिहार बुद्ध को समर्पित किया जाता है। रानी मल्लिका का राजा प्रसनजीत से बुद्धदेव का बखान किया जाना बुद्ध की सर्व स्वीकार्यता संबंधी महत्वपूर्ण घटना है। कौशल नरेश प्रसेनजित और महात्मा बुद्ध का मिलन यहां ऐतिहासिक महत्त्व का मिलन है। अस्पृश्य सुनीत को बुद्ध जी का संघ में मिलाना भी दलितों के उद्धार की दृष्टि से एक बहुत बड़ी परिघटना है जो भारतीय समाज और संस्कृति में एक बहुत बड़े बदलाव का संकेत देती है। सुनीत को संघ में मिलाने का बहुत बिरोध होता है लेकिन बुद्ध द्वारा विरोध को अनुचित सिद्ध किया जाता है और प्रसेनजित का भाव परिवर्तन होता है। इस तरह प्रसनजित अपने हृदय परिवर्तन के साथ बुद्ध के अनुयाई बन जाते हैं।
अगले सर्ग 'विविध बिहार सर्ग'में बुद्ध श्रावस्ती से वैशाली पहुंचते हैं और वैशाली के महावन में उन्हें पिता शुद्धोधन की गहन बीमारी का समाचार मिलता है और वह उस समाचार को पाकर कपिलवस्तु के लिए प्रस्थान करते हैं। जबतक वहां पहुंचते हैं महाराज का शरीर त्याग हो जाता है। गौतम बुद्ध की सहायता से महानाम का कपिलवस्तु का सिंहासन संभालना एक ऐतिहासिक घटना है, जिससे यह सिद्ध होता है कि गौतम बुद्ध का प्रभाव कितना व्यापक था। कपिलवस्तु से वैशाली के लिए बुद्ध प्रस्थान करते हैं। रानी महा प्रजापति का प्रवेश जया के लिए पचास स्त्रियों के साथ वैशाली पहुंचना यह सिद्ध करता है कि बुद्ध के समय में भी स्त्रियां बौद्ध भिक्षु के रूप में आने लगी थीं। रानी महाप्रजापति के साथ सभी स्त्रियां प्रबिज्या लेती हैं। कौशांबी में ही बुद्ध जी का वर्षावास होता है। मुनिराज रक्षित वन निवास के पश्चात श्रावस्ती पहुंचते हैं। श्रावस्ती में सूत्राचार्य और शीलाचार्य का मिलाप होता है और सप्ताधिकरण निर्धारित होता है। इसके उपरांत बुद्धध जेतबन से उरुवेला पहुंचते हैं और स्वास्ति से मिलते हैं। स्वास्ति को साथ लेकर मुनि मंडली के साथ बेनु वन पहुंचते हैं। स्वास्ति प्रव्रज्या लेती है। मुनिवर किसान भारद्वाज से भेंट करते हैं। मुनिवर का बैजनारा पहुंचना एक ऐतिहासिक घटना है जो संस्कृति की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। बैजनारा में घोर अकाल का सामना करती हुई जनता से मुनिराज का मिलन होता है। भिक्षुओं के अनुरोध पर भी दुखी जनता को नहीं छोड़ते। बाद में वहाँ से चलिका पर्वत पर पहुंचते हैं। चलिका पर्वत से श्रावस्ती पहुंचकर राहुल को भिक्षुकी प्रबिज्ज्या देते हैं। रोहिणी जल विवाद निपटाने श्रावस्ती से शाक्यपुर जाते हैं। महिषी विशाखा द्वारा उद्यान पूर्वाराम का दान और अंगुलिमाल का हृदय परिवर्तन भी इसी सर्ग की महत्वपूर्ण परिघटनाएँ हैं। नारी पात्रचाराका प्रसंग भी यहां आता है। चांडाल कन्या प्रकृति का आनंद पर मोहित होना भी इसी सर्ग में है। मुनिवर नालंदा के बाद महावन पहुंचते हैं। वहां से वह जेतवन जाकर मुद्गल्यायन को मातृ- पितृ ऋण से मुक्ति का उपाय बताते हैं। बाद में श्रावस्ती में सर्वधर्म सम्मेलन करते हैं। मुनिराज का वैशाली जाकर फिर चंपा होते हुए समुद्र दर्शन तदुपरांत सिंधु तीर से पाटलिपुत्र फिर वैशाली फिर साक्यपुर(श्रावस्ती)में वर्षावास के प्रसंग इसी सर्ग में चित्रित हैं। यहीं भिक्षु अनिरुद्ध द्वारा मुनिराज को तथागत की संज्ञा दी जाती है। मुनिराज और भिक्षुमंडली के साथ स्वास्ति के उरु वेला ग्राम और बोधि वृक्ष दर्शन जैसे ऐतिहासिक, सांस्कृतिकऔर धार्मिक महत्व के प्रसंग व शिष्य मंडली के साथ बुद्ध जी के गृद्धकूट पर्वत गमन के साथ इस सर्ग का समापन होता है।
इस महाकाव्य का सत्रहवां सर्ग 'उद्वेग सर्ग'है। इसी सर्ग में गृद्ध कूट शिखर पर विराजमान महात्मा बुद्ध जी के दर्शन के लिए जीवक आता है और इसी सर्ग में देव दत्त भरी सभा में गौतम जी का विरोध करता है। पिता बिम्बसार की हत्या के लिए कटिबद्ध उद्धत अजातशत्रु कटार लेकर आधी रात में जाता है। राजा की हत्या करने में विफल अजातशत्रु अपने पिता और मंत्री को बंदीगृह में डाल देता है। राजा बिंबसार की मृत्यु कारागार में ही हो जाती है। इसी सर्ग में देवदत्त और अजात शत्रु के द्वारा महात्मा बुद्ध की हत्या के कुप्रयासों का भी वर्णन किया गया है, जिसमें पहला है बुद्ध की हत्या हेतु गृद्ध कूट पर कृपाण के साथ एक व्यक्ति का पहुंचना और उसका बुद्ध के समक्ष समर्पण। दूसरा है शिला सरका कर किया गया प्रयास। दोनों षड्यंत्र विफल हो जाने पर गज नालागिरि द्वारा मुनि पर आक्रमण करवाया जाता है। मानव क्या नालागिरि गज तक का उनके चरणों में पड़ जाना बुद्ध का अपने चरम विरोध के समय में ही भगवत्ता तक पहुंचना सिद्ध करता है। बुद्ध का जेतवन पहुँचना, श्रेष्ठि सदत्त का शरीर त्यागना, बनारस के पास दी गई दहेज भूमिका प्रसेनजित के द्वारा अजातशत्रु से वापस ले लेना, भूमि को लेकर प्रसेनजित और अजातशत्रु के बीच युद्ध होना, प्रसेनजित द्वारा महात्मा बुद्ध के परामर्श से अपनी पुत्री का विवाह अजात से करके सम्मान के साथ मगध वापस भेजना, राजा प्रसेनजित की रानी मल्लिका का देहावसान, राजा प्रसेनजीत का शान्ति व सांत्वना प्राप्ति के लिए बुद्ध के पास जाने पर भगवान बुद्ध द्वारा दी गई शिक्षाएं इस सर्ग के बहुत महत्वपूर्ण प्रकरण हैं। धार्मिक महत्त्व के साथ-साथ इन घटनाओं का ऐतिहासिक और सांस्क्रिटिकृतिक महत्त्व भी है। वह इसलिए कि महात्मा बुद्ध की हत्या के लिए किए गए पूर्व प्रयासों के विफल होने पर भी प्रयास करने वाले हताश नहीं हुए और वे इनकी हत्या के प्रयास आगे भी निरंतर करते रहे । इन्हीं प्रयासों में एक प्रयास है चिंचा के माध्यम से बुद्ध की हत्या का प्रयास। इसके बाद सुंदरी नाम की रूपवती स्त्री को भी माध्यम बनाना और उसके द्वारा षड्यंत्र रचना। लेकिन बुद्ध का फिर भी बच जाना और श्रावस्ती से मगध व नालंदा होते हुए गृद्धकूट पर निवास करना जहाँ महात्मा बुद्ध से जीवक द्वारा अजात शत्रु की भेंट कराना और अजात का शिष्यत्त्व ग्रहण कर शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ होना तथा जीवक का प्रविज्जित होना विश्व में अहिंसा की जीत और उसकी प्रतिष्ठापना है। अजातशत्रु का शिष्यत्त्व ग्रहण करना इस बात का भी द्योतक है कि उस समय तक राजसत्ताओं के ऊपर बुद्ध का कितना गहरा प्रभाव जम चुका था। जीवक इसी सर्ग में प्रवृज्जित होता है और विमल कौंडल्य का नाम धारण करता है। आम्रवन से भगवान बुद्ध जेतवन पहुंचते हैं जहाँ प्रसेनजित का आना और अपने देशाटन के विषय में उन्हें बताया जाना तदुपरांत मेदालुप्पा निवास वहां भी प्रसेनजित का मुनी के लिये जाना यह सिद्ध करता है कि राजाओं के द्वारा महात्मा बुद्ध कितना पूजित, वंदित और अभिनंदित थे। अपने सेनापति के विश्वासघात से राजमुकुट से हीन होने पर सहायता के लिए प्रसेनजित का सहायतार्थ मगध जाना और वहां उनका देहावसान व मुनिराज का मेदालुप्पा से गृद्ध कूट जाना और वहां प्रसेनजीत और मुद्गल्ल्यायन की मृत्यु का समाचार पाना बुद्ध के लिएओई पीड़ादायी होता है। बेनुवन जाकर मरणासन्न देवदत्त से मिलना और आम्रपाली का प्रविज्जित होना इस सर्ग की ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं हैं जो ऐतिहासिक संदर्भ से भरी हुई हैं।
कविवर दिव्य ने अपने संचित इतिहास ज्ञान कोष में से पूरी तरह से पूरी तरह से प्रामाणिक सत्य को ही व्यक्त नहीं किया है अपितु उसके इर्द-गिर्द के वातावरण को ऐसे विकसित किया है कि कथा के विकास से सत्य कहीं खंडित न होने पाए। महाकवि ने इस बात का भी पूरा ध्यान रखा है कि काव्य की गरिमा और उसकी ऊंचाई भी बनी रहे और इतिहास की सच्चाई भी। इन्होंने काव्य और इतिहास दोनों की मर्यादा बनाए रखी है। इस महाकाव्य का अंतिम सर्ग'निर्बान सर्ग' है। महाकवि ने इसे सोद्देश्य भाव से यह संज्ञा दी है। सर्ग का आरंभ मुनिवर के चपला मंदिर में निवास से होता है। वहीं उन्हें सारिपुत्र के शरीर-त्याग का संदेश दिया जाता है। महावन के कूटागार में उनकी अंतिम देशना होती है। वैशाली को अंतिम बार देखते हुए मुनि प्रस्थान करते हैं और ग्राम पावा पहुंचकर चुंड नामक लोहार के यहां भोजन करते हैं। इसी सर्ग में कुकुथ नदी पर पहुंचकर महामुनि स्नान करते हैं फिर हिरनावती नदी के तट पर सालवन में आसन लेते हैं और अपने अंतिम शिष्य सुभद्र को प्रविज्या देते हैं। भगवान गौतम बुद्ध जी का इसी सर्ग में परिनिर्वाण होता है। बुद्ध जी का अंतिम संस्कार संपन्न किया जाता है। उनके अवशेषों के लिए विवाद होता है। सात राजाओं और मल्लों के बीच युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। राज सेनाओं और मल्लों के बीच ब्राह्मण द्रोण द्वारा शांति का प्रयास किया जाता है। ब्राह्मण द्रोण के प्रयास से युद्ध टल भी जाता है और दोनों पक्षों में मैत्री भाव संपन्न हो जाता है। ब्राह्मणों द्वारा अवशेषों का बंटवारा कराया जाता है और सभी राजाओं का प्रसन्नता पूर्वक अपना-अपना भाग स्वीकार किया जाता है। सन्धि की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि स्तूप निर्माण है। उसके लिए ब्राह्मण को स्वर्ण कलश और पिप्पल लोगों को राख का मिलना, मैत्रीपूर्ण वातावरण में सभी राजाओं का अपने-अपने राज्य लौटना हिमगिरि के समान सभी देशों का निर्माण। मान्य महा कश्यप द्वारा भिक्षु महासभा का आयोजन सभा में मान्य आनंद द्वारा बुद्ध जी के उपदेशों का सम्यक कथन और त्रिपिटक की रचना और इस तरह से इस अवधी महाकाव्य का संपन्न होना एक ऐतिहासिक परिघटना है।
एक समय के बाद यह महाकाव्य अपनी करुणा, दीनोपकार, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टियों के कारण एक उत्कृष्ट कोटि का महाकाव्य सिद्ध किया जाना निश्चित है।
इस करुणा के महासागर (महाकाव्य )की इसी अर्थवत्ता को समझते हुए ही इसकी टीका के लिए मैं उद्यत हुआ और इस कृत्य का अधिकार देकर उदार हृदय महाकवि दिव्य जी ने उपकृत किया है। इसकी टीका उस समाज को विशेष लाभ पहुंचाएगी जो अवधी से भिज्ञ नहीं हैं। लेकिन उनको भी लाभ पहुंचाएगी जो खुद अवध अंचल के हैं पर नगरवासी हैं।
इसलिए इसकी टीका उस समूचे जन समाज को अर्पित है जो करुणावतार बुद्ध की शिक्षाओं के साथ 'अप्प दीपो भव' होकर पूरी एशिया में अपनी रोशनी फैला रहा है और जिसके आभामंडल से समस्त विश्व प्रदीप्त है।
-@डॉ गंगाप्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'
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