एक इतवार कुछ यूँ कहता है"'---- –---------///---/////------/----- सुबह ने कहा-- कब तक सोती रहोगी, जरा दरवाजा तो खोलो देखो! तुम्ह...
एक इतवार कुछ यूँ कहता है"'----
–---------///---/////------/-----
सुबह ने कहा-- कब तक सोती रहोगी,
जरा दरवाजा तो खोलो
देखो! तुम्हारे घरोंदे में धूप निकल
आयी है।।
घर का बेतरतीब सा पड़ा सोफा बोला –
मुझे कब ठीक करोगी,
अलमारी भी धीरे से चिल्लाई
कब तक ऐसे बिखरी पड़ी रहूंगी
मुझे भी आज सँवार दो तभी
बीच में टोकती हुई ड्रैसिंग की अस्त व्यस्त पड़ी
कंघी ,जूड़ा पिन लिपिस्टक, क्रीम,काजल बोला -
हमें भी आज करीने से सजा दो
हम तो रोज तुम्हें संवारते हैं।
दूर गैलरी ने रखे सूखते हुये गमले के फूलों ने कहा-
हमें नहीं सहलाओगी
कितने दिन हो गये
पानी कब पिलाओगी।
गार्डन की मखमली घास ने भी शिकायत की
कब ये व्यर्थ उग आई
खरपतवार गन्दगी को साफ करोगी?
बातें करती हो स्वच्छता अभियान की
हमें कब स्वच्छ करोगी।
किचिन में रखे स्टोर के सामान ने
कहा -हमें भी देख लो नहीं तो
खराब हो जाने पर
बनिये की दुकान को कोसोगी।
, छत, टान, स्टोर रूम गंदे कपड़े
पेपर की रद्दी गैलरी के कांच ने भी गुहार लगायी
सबने अपना-अपना समय माँगा
सुनो! हमें कब तक ऐसे ही नजर-अंदाज करोगी
हमें क्या सिर्फ दीवाली पर ही याद करोगी।
तभी कूलर बोला -मुझे भी अब साफ कर डालो ,
क्या मेरा बिना तुम जी लोगी।।।
सबको देने का सोचा उनका अपना अपना हिस्सा कि-
तभी याद आया कि
पतिदेव से कल किया था वादा कि-
आज पूरा दिन सिर्फ उनका होगा ।
पर भूल गई दिल की पुकार कि
आज वो जी भर जीना चाहती थी सिर्फ अपने लिये,
जिसमें थी उसकी बहुत सी सहेलियों के साथ
मटरगश्ती ओर शापिंग
फिर पॉलर में भी तो टाइम लिया था।।
तभी टेबल पर पड़ी डायरी सकुचाई बोली-
क्या कुछ नया आज नहीं लिखोगी ,
महीनों से सेल्फ में पड़े
अमृता प्रीतम के उपन्यास ने भी
आस भरी दृष्टि से देखा।।
तभी फोन की घण्टी ने बुलाया
माँ की आवाज ने जगाया
कब तक सोती रहेगी,
तूने कहा था -आज घण्टी सिर्फ मेरी सुनेगी
आज की छुट्टी मेरे नाम करेगी।
बेटे ने भी प्यार से गले में हाथ डाला
बोला-माँ आज तो फुर्सत के कुछ लम्हें
मेरे साथ ही बिताओगी
कुछ अच्छा सा बनाकर खिलाओगी।
तभी दरवाजे की बेल ने चौंकाया,
सामने खड़े अतिथि महोदय बोले-
सोचा आज तो इतवार है
घर में ही मिल जाओगी।
वो सिर्फ मुस्कुराई और
एक इतवार को सुनने व समेटने लग गई।।
डॉ वंदना मिश्र" मोहिनी"
---
--यह पुस्तकें कुछ कहती हैं--
###########
सुनो! मेरी आवाज़ को,
छोड़ो भी अब यह उदासीनता
कि पढ़ ही डालो आज मुझे।
इस लोहे की अलमारी में दम सा घुटता है
अब कितना नज़र-अंदाज करोगे मुझे ।
कब तक बन्धन में रहूँगी ,
निकालो आज मुझे,
कितने स्वप्न तुम्हारे अभी पूरे करने हैं।।
कितने बार ही तुमने
मुझे एकांत में बैठ कर
अपने ह्रदय पर अनुभूत किया होगा।
कुछ सोचते थे शांत होकर।
कितनी बार तुमने रेखंकित किया होगा
उन पंक्तियों को जो तुम्हें बेहतर लगी होगी,
आज तो हाथों में उठा लो मुझे।
अब छोड़ो भी यह उदासीनता......
पढ़ ही डालो आज मुझे।
तुम्हारे कितने ही
अनगिनत सवालों का जवाब हूँ मैं।
तुम समझो मेरे इन जज़्बातों को
मिलेगी मुझसे ही नई राह तुम्हें ,..
कि -अब ये मान लो तुम।
संवारुँगी तुम्हारा कल
की पहले तुम भी संभालो आज मुझे।
चलो छोड़ो भी अब ये उदासीनता
अब पढ़ ही डालो मुझे।
तुम्हारा अतीत भी मैं थी
तुम्हारा वर्तमान भी मुझसे है
तुम्हारा भविष्य भी मुझसे ही होगा।
संवर जाएगा तुम्हारा हर पल
बस एक बार स्नेह से सराह दो मुझे।
तुम्हारा प्यार दो फिर से
कि आज हृदय में बसा लो मुझे।
चलो छोड़ो भी अब ये अनजानापन,
यह अनमना पन
छटपटा रहा है मेरा अंतरमन
कि पढ़ ही डालो आज मुझे।
थोड़ा बाहर निकलो इस गूगल से ....
मुझे स्पर्श कर मेरे पन्नों को पलटो,
तुम्हें मिलेगा एक अपनापन।
अब छोड़ो भी यह उदासीनता
पढ़ भी डालो मुझे....
----
ये अटपटी सी औरतें
कितनी अटपटी अनसुलझी
अनघड़ होती है कुछ औरतें।।
बनी बनायी परम्परा ,रूढ़ियों को
पालती यह औरतें।।
अपनी ही कौम को बदनाम करती
हुई सी औरतें।।
हरपल आपस में उलझी हुई औरतें।
यह आपस में कानाफूसी करती हुई औरतें।।
एक दूसरे की अस्मिता पर
प्रश्नचिन्ह लगाती हुई औरतें।
अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिये
झूठे सच्चे किस्से सुनाती हुई औरतें ।
हर दूसरी स्त्री की निन्दा करती हुई औरतें।।
कितनी अटपटी......
अवसर का लाभ उठाती हुई औरतें।।
अपनी ही प्रजाति पर उंगली उठाती हुई औरतें।।।
नफरत का विष घोलती हुई औरतें।।
एक दूसरे से जलती हुई यह औरतें।।
सदैव दूसरी औरत का
अपमान करती हुई यह औरतें।।
कई महत्वपूर्ण युद्धों की कारण ये औरतें।।
कितनी अटपटी...
चुटकियां लेकर किसी दूसरे पुरुष से
बतियाती, हिठलाती ये औरतें।।
बड़ी अजीब होती है यह चुगलियां करती औरतें ।।
अपने ही वजूद को खत्म करती हुई यह औरतें।।
अनपढ़, कुछ पढ़ी लिखी हुई ये औरतें।।
परिवार ,दफ्तर, और समाज के रिश्तों में
दरार डालती हुई औरतें।।
औरतें एक दूसरे की दुश्मन होती है
इसको चरीतार्थ करतीं हुई यह औरतें।।
पश्च्यात रंग में रंगी हुई यह औरतें।।
कितनी अटपटी.....
डॉ वंदना मिश्र "मोहिनी"
---
खामोशी कोलाहल सी---
-----------------//////// -----------
खामोशी से शिकायत हैं
बस इतनी कि कोहराम क्यों मचाती है।।
जीती नहीं खुद
न जीने देती है
अक्सर आसपास ही
मंडराती है।।
विचलित करती है हृदय को
,रातों की नींद छीन लेती है
कभी सन्नाटे को भेदती है।।
घर को शमशान बनाती है।
कहीं चीखती हैं,
पर सुनाई नहीं देती है।।
खामोशी तकाजा देती है
जिसमें हो चुकी बातें गूँजती है।
रहती हैं कानों में पर,दिखाई नहीं देती।।
अपनों की खामोशी दिल को बेचैन करती हैं।।
जागती हैं, कभी ऊंघती है।
लेकिन हो चुकी और होने वाली
बातों के बीच भी एक खामोशी पलती है।।
कभी सिफर सी लगती है और कभी सफर सी...
यह खामोशी अक्सर कोलाहल सी लगती हैं।
डॉ वंदना मिश्र
-----.
अरे जरा सुनो,
वह एक स्त्री हैं
सहज,सरल
दुनिया की नजर
में भोली सी
अपनों के पास
मगर खुद से दूर- सी
उसे समझती है
सब बाते पर नहीं भी
सुघड़ मगर,
अंदर से बिखरी सी
सघन वन सी
मगर सुनसान सी
दूसरों पर छांव सी
खुद दोपहर की धूप सी
मुझमें सिमटी
खुद में टूटी सी
जानती हूं उसे पूरी
पर वो खुद में अधूरी-सी
रातों में सिराहने
भटकती नींद -सी
खुद में मगरूर ,वह
स्त्री एक पूर्णविराम -सी।
सुनो! वह स्त्री है
एक पहेली -सी
उसे मानती हूँ ,नहीं भी
देह सुंदर,
मगर विवेक -सी
.............
स्त्री नहीं ,खुद में खोई
उधेड़बुन है।
जरा सुनो ,वह एक अनदेखी
अनजानी
पर कुछ पहचानी -सी
जीवन की एक सहेली है
स्त्री है
एक पहेली सी।
डॉ वंदना मिश्र 'मोहिनी'
------.
"हिंदी की ललक"
आज सपने में आयी
हिंदी हँसती हुई सी बोली-
कि आज फिर तुम्हें
ललक लगी होगी मुझे याद करने की
सुबह से आएंगे कितने अनगिनत
संदेश तुम्हें ,
और चारों तरफ ,आज सिर्फ मेरा ही नाम होगा।
पर क्या यह ललक,यह अपनापन
तुम मुझे प्रतिदिन नहीं दे सकती?
क्यों मैं इतनी अछूत हूँ ?
अपने ही घर में ,इतनी परायी सी।
हाँ, मैं हिंदी हूँ तुम मुझसे सोचने,
और बोलने की क्षमता क्यों नहीं जगा लेती?
क्यों नहीं जगाती अपने अंदर
निश्चल अपनापन
और
चिर स्थायी प्रेम
मेरे लिये ।
तुम तो इस
चारों तरफ फैले
अंग्रेजी के बाज़ार
में घूमती नजर आती हो।
पूछती हूँ तुमसे बार-बार
क्यों? मेरे अस्तित्व को नकारती हो।
तुम चाहती हो न-
कि तुम्हारी हिंदी चारों तरफ लहलहाये अपनी पताका
और
हर और छा जाए ,
तो क्यों नहीं देते मुझे वो सम्मान ,
बीज रोपो अपने पन के
कहीं गहरे ?
फिक्र से करो फिर मेरा पोषण
और देकर खाद - पानी
लगातार करो उसका सिंचन
संवार दो मुझे।
या बस पूछते हो बरस में एक बार मुझे।
देखो,सुनो
अब भी कर लो पक्का मन
कि हौसला नहीं होने दोगे कम
और हाथ थामो मेरा
अपनी हिंदी का मान
नहीं होने दोगे कम।
नहीं होने दोगे ,
किसी भी साज़िश का शिकार मुझे
मुझे जिंदा रखना चाहते हो तो
रहने दो ।
अपना इकतरफा आकर्षण
मैं उठी हड़बड़ा कर
अरे! आज तो हिंदी दिवस मनाना है।
मेरे सपने पर विचार करें अपनी हिंदी से प्रेम करें।
डॉ वंदना मिश्र
----.
करवटें उलझती रही,
तुम्हारा स्वप्न मामूली न था!!
नींद मेरे सिरहाने ,ऐसे ही टहलती रही।।
एक अनिश्चितता एवं भटकाव की
स्थिति में पूरी रात कटती रहीं।।
आंखों के सामने,भविष्य उतरता
और चढ़ता रहा।।
उद्वेलित मन,उन्मुक्त हँसी
यह सब आज विरोध कर रहे थे।।
स्तब्ध थी निशा, तारे थे मौन
घटनाएं अविस्मरणीय पल
की तरह हृदय में समा गयी थी।।
मानसिकता का जहाज तूफानी
सिंधु के किनारे लंगर डाल कर
खड़ा हो गया था।।
आशंकित मन के तार बज उठे थे।
उसकी निर्दयी हँसी,आज
मुझे डरा रही थी।।
मेरी आँखों में ज्वाला धधक रही थी।।
लगा आज सन्नाटा रेंग रहा है।।
लग रहा था पतवार नाव पर बोझ
बन गयी थी।
अब डूबना निश्चित था।।
भयातुर मन का अहम जितना निष्ठुर था,
उतना ही कायर भी।।
गहरी नींद से जागी तो लगा।
यह स्वप्न था या यथार्थ
यदि स्वप्न न होते तो जीवन भार
बन जाता ।।
बस यूं ही करवटें बदलती रहीं
क्योंकि तुम्हारा स्वप्न मामूली न था।।
डॉ वंदना मिश्र "मोहिनि"
----.
"तुम् जब साथ होते हो"
तुम जब साथ होते हो
तब मैं हो जाती हूँ थोड़ी बेपरवाह सी,
अल्हड़, स्वच्छंद सी बच्चों सी
तुम में बंधी, गुंथी हुई सी ।
ऐसे में यह करवा चौथ दें जातीं
है मुझे एक नया यौवन जिसमें
तुम आज बन जाओ चाँद गगन का ।।
मैं बन जाऊं तेरी चाँदनी
पहनकर
काँजीवरम का सिल्क
हाथ में मेंहदी ,कंगन चमकें
महावर वाले पाँव रच लूँगी।
मैं आज चांद को बांध लूँगी अपने आँचल से ।
उसकी चमक से रोशन होगा मेरा घरौंदा आज
सजा लूँगी उस बेला के गजरे को
जो महकता हैं मेरे आँगन में
तुम रहना मेरी आंखों में काजल बनकर,
मैं रखूंगी तुम्हें अपनी मांग
मेँ सिंदूर बनाकर
साथ होगा हम दोनों का
सात जन्मों का
कभी मंझधार में एक दूजे का न छोड़ेंगे ।
आज चलनी में
कनखियों से तुम्हें देखूँगी
ये व्रत नहीं मेरी तुम्हारे प्रति आस्था की पराकाष्ठा है।
पार्वती शिव,गणेश की सघन आराधना हैं
आज इनके
पुण्य के फल से
हम मृत्यु से भी नहीं हारेंगे ।
तुम मेरे चाँद बनना
आज मैं तुम्हें जी भर निहारूँगी।
ऐसे होगा यह व्रत पूर्ण
जिसके हर पल को मैं जी लूँगी।
डॉ वंदना मिश्र
COMMENTS