वतन के लिए हम अथक श्रम करेंगे, वतन के लिए, हम जियेंगे -मरेंगे, वतन के लिए l है मुसीबत बड़ी देश के सामने, आपदा की घड़ी देश...
वतन के लिए
हम अथक श्रम करेंगे, वतन के लिए,
हम जियेंगे -मरेंगे, वतन के लिए l
है मुसीबत बड़ी देश के सामने,
आपदा की घड़ी देश के सामने
जोर है इन दिनों क्रूर आतंक का,
और जीना कठिन राव का रंक का I
आज खतरा खड़ा है, अमन के लिए l
हम जियेंगे -मरेंगे, वतन के लिए l
खोखला कर रहीं दुष्प्रथाएँ इसे,
अंधविश्वास की मान्यताएँ इसे,
हो रहे हैं सभी, दुर्व्यसन से ग्रसित,
घोर अज्ञान से हो रहे हैं भर्मित,
रास्ते खुल रहे हैं, पतन के लिए l
हम जियेंगे- मरेंगे , वतन के लिए l
हर चुनौती, हमें आज स्वीकार है,
प्राण से भी अधिक देश से प्यार हैं ,
कोई षड्यंत्र भी, अब न चल पायेगा,
साजिशों का दिवाला निकल जायेगा,
मौत से भी लड़ेंगे, वतन के लिए l
हम जियेंगे -मरेंगे, वतन के लिए l
ली' शपथ ' है बनाना है जन्नत इसे,
हर दिशा मेँ बनाना है उन्नत इसे,
इस तरह से वतन को सँवारेंगे हम,
और जन्नत जमीं पर उतारेंगे हम,
खा रखी है कसम, युग सृजन के लिए l
हम अथक श्रम करेंगे, वतन के लिए l
कवि अशोक गोयल पिलखुवा
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इतना कर्ज लदा है मुझ पर
इतना कर्ज लदा है मुझ पर,सोच रहा किस तरह चुकाऊँ,
किस- किस का मै कर्जदार हूँ, किस -किस का मै नाम गिनाऊँ।
पहले कर्ज चढ़ा ,पीछे मै मातृ-गर्भ से बाहर आया ,
माँ ने बिन देखे ही मुझ को,जीवन का रस-रक्त पिलाया,
माँ का कितना कर्जदार हूँ, खुद न पता किस तरह बताऊँ।
इतना कर्ज लदा है मुझ पर ,सोच रहा किस तरह चुकाऊँ।
झेला तब धरती माता ने ,गर्भ छोड़ जब बाहर आए ,
खेल खिलाए सदा गोद में, जीवन भर अनुदान लुटाए ,
जननी जन्मभूमि के ऋण से ,नत सिर कितनी बार झुकाऊँ ।
इतना कर्ज लदा है मुझ पर ,सोच रहा किस तरह चुकाऊँ ।
पिता -बहन,भाई-संबंधी,जिनने गोद खिलाया मुझको ,
गुरु जिनने मानव माटी से,संस्कृत मनुज बनाया मुझको ,
इनका कैसे कर्ज उतारूँ,कैसे कर्ज -मुक्त कहलाऊँ ।
इतना कर्ज लदा है मुझ पर ,सोच रहा किस तरह चुकाऊँ ।
इस समाज में भी ना जाने ,कितनों के अहसान लदे हैं,
औरों का सहयोग प्राप्त कर ,जाने कितने कार्य सधे हैं,
सबने मिलकर मुझे जिलाया ,किस- किस के उपकार बताऊँ
इतना कर्ज लदा है मुझ पर ,सोच रहा किस तरह चुकाऊँ ।
प्रभु !मेरे चिंतन -चरित्र में ऋण के प्रति वह कसक जगा दो,
जिसको लिए हुए जुट जाऊँ जनहित में ,वह राह दिखा दो,
जीवन भर मैं कर्ज चुकाऊँ ,भार न सिर पर लेकर जाऊँ।
इतना कर्ज लदा है मुझ पर ,सोच रहा किस तरह चुकाऊँ ।
कवि अशोक गोयल
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ह्रदय -ह्रदय में भरी वेदना,
शोक,त्रास,यह कैसा युग है,
सुख के भ्रम मे दु:ख-पीड़ा का
हुआ वास, यह कैसा युग है?
कैसा युग है, जिसमें कोई
भले -बुरे का भेद नहीं है,
कैसा युग है,नर को अपने
महापतन पर खेद नही है
कैसा युग है,दानव पहने
हुए आज मानव के कपड़े,
कैसा युग है,वैभव अपने
हाथों में ईश्वर को पकड़े,
घोर तिमिर है, यही कहाता
है प्रकाश , यह कैसा युग है,
बन आया निर्माण यहाँ पर
सर्वनाश, यह कैसा युग है?
सुख के भ्रम में दु:ख पीड़ा का
हुआ वास,यह कैसा युगहै?
अशोक गोयल पिलखुवा
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आओ मिलकर भारत को
आओ मिलकर भारत को, हम सुन्दर देश बनाएँ l
गाँधी, सुभाष, लाल बहादुर, जैसे फूल खिलाएँ ll
कौन है हिन्दू कौन है मुस्लिम, कौन है सिक्ख ईसाई l
सब हैं भारत माँ के बेटे, सब हैं भाई-- भाई ll
आओ मिलकर नील गगन मेँ, गीत खुशी के गाएँ ll
सपने हों साकार सभी के,भारत माँ हो राजी l
चैन शान्ति मिले सभी को, पंडित हो या काजी ll
खुशहाली लहराये धरा पर, ऐसा बाग सजाएँ ll
अपने वतन के खातिर हम तो अपना खून बहाएँ l
अमर सदा के लिए वीर ओ, दुनियाँ मेँ हो जाएँ ll
आज वतन के खातिर हम भी, अपना खून बहाएँ ll
कवि अशोक गोयल पिलखुवा
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पुण्यदेश भारत
जिसे जगद्गुरु कहते थे सब ,यही पुण्य वह देश है ,
पर क्यों नहीं उच्च गौरव का बचा न अब लवलेश है ?
भूल गए हम ऋषियों की वह गहन ईश -आराधना ,
दिखती कहीं न आम मनुज में नित अर्चना-उपासना ,
माता को ब्रह्मांड कहे ,वह दिखता नहीं गणेश है।
जिसे जगद्गुरु कहते थे सब ,यही पुण्य वह देश है ।
अर्जित किया ज्ञान हमने औ मुक्त हस्त से दान किया ,
चाहे कुटियों में उपजी हो ,प्रतिभा का सम्मान किया ,
लक्ष्यपूर्ति तक यहाँ नहीं चाणक्य बांधता केश है ।
जिसे जगद्गुरु कहते थे सब ,यही पुण्य वह देश है ।
हेतु पतन का यह कि कमाया किंतु बाँटना भूल गए,
खर-पतवार उगे ज्यादा ,पर उन्हें काटना भूल गए ,
रावण ही बढ़ रहे धरा पर अब न कहीं अवधेश है।
जिसे जगद्गुरु कहते थे सब ,यही पुण्य वह देश है ।
अशोक गोयल पिलखुवा
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जो सजग होकर प्रगति के गीत गाते हैं
दृढ़व्रती ,संकल्प जो मन से निभाते हैं,
वे निरंतर संकटो पर जीत पाते हैं,
काल-नभ पर नाम उनके झिल मिलाते हैं l
राह उनकी रोकने आता नहीं कोई ,
शूल पथ उनको चुभा पाता नहीं कोई ,
भ्रम नहीं उनकी अडिगता को डिगाता है,
धैर्य का दीपक उन्हें तम से बचाता है,
आग पर चलकर सदा जो मुस्कराते हैं,
प्रगति के गीत गाते हैं,
दृढ़व्रती ,संकल्प जो मन से निभाते हैं,
वहीं तो जीत पाते हैं,
गगनमें झिलमिलाते हैं l
आग पर चलना बड़ी भारी तपस्या है,
मुँह चुराकर बैठ जाना ही समस्या है ,
विघ्न हैं बैरी नहीं, साथी तुम्हारे हैं,
दीप हैं बैरी नहीं , साथी तुम्हारे हैं,
दीप हैं पथ के ,विधाता के उजारे हैं,
जो ह्रदय में स्नेह से इनको बिठाते हैं,
प्रगति के गीत गाते हैं,
दृढ़व्रती ,संकल्प जो मन से निभाते हैं,
वही तो जीत पाते हैं,
गगन में झिलमिलाते हैं ।
इसलिए रुक कर न बैठो, पंथ चलना है,
रूप तुमको इस जटिल युग का बदलना है,
साधना को स्फूर्ति दो,विश्वास को बल दो,
ध्येय को साकार करने के लिए चल दो,
जो पथिक का धर्म आजीवन निभाते हैं,
प्रगति के गीत गाते हैं,
दृढ़व्रती, संकल्प जो मन से निभाते हैं,
वही तो जीत पाते हैं,
गगन में झिलमिलाते हैं।
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क्या कर सकता है अकेला
यह मत कहो कि जग में कर सकता क्या अकेला,
लाखों में वार करता है सूरमा अकेला l
आकाश में करोड़ो तारे जो टिमटिमाते,
अँधियारा जग का हरता है चंद्रमा अकेला l
लाखों ही जंतुओं पर बिठलाए धाक अपनी,
आजाद शेर वन में है घूमता अकेला l
लंकापुरी जलाकर रावण का मद मिटाकर,
हनुमान राम दल को वापस चला अकेला l
लाखों करोड़ो मन को दिन -रात देखते हो,
ले जाता खीच करके इंजन ही तो अकेला l
निज दूर करके तम को देता प्रकाश हमको,
वह सूर्य देव देखों चलता सदा अकेला l
अशोक गोयल पिलखुवा
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अगर चाहते हो
अगर चाहते हो, बने स्वर्ग धरती,
तो सोए मनुज को जगाना पड़ेगा,
मिटाकर तिमिर हर मनुज के मनों मेँ,
हमें ज्ञान -दीपक जलाना पड़ेगा l
मनुज का ह्रदय बन गया आज पत्थर,
विचारों मेँ कटुता समाने लगी है,
सुभावों की भाषा न कहता है कोई,
स्वभावों मेँ दुर्गन्ध आने लगी है l
अगर चाहते हो बहे ज्ञान -गंगा,
हमें स्नेह -निर्झर बहाना पड़ेगा l
हमें ज्ञान -दीपक जलाना पड़ेगा l
बदलनी हमें हैं विकृत मान्यताएँ,
बदलनी हमें रुढ़ियाँ दुष्प्रथाएँ,
बदलकर ही गढ़ पाएंगे नव जगत फिर,
तो साकार होगी सुखद कल्पनाएँ,
अगर चाहते हो, असुरता मिटाना,
तो देवत्व सब मेँ जगाना पड़ेगा l
हमें ज्ञान - दीपक जलाना पड़ेगा l
मनुजता को हमने पतित होते देखा,
प्रयासों से केवल स्व -हित होते देखा,
सृजेता ने नव विश्व गढ़ने की ठानी,
तभी ध्वंस ने सर्वदा हार मानी,
अगर चाहते विश्वबंधुत्व लाना,
परायों को अपना बनाना पड़ेगा,
हमें ज्ञान -दीपक जलाना पड़ेगा l
अशोक गोयल पिलखुवा
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पाप हारिणी दुःख निवारणी
पाप हारिणी दुःख निवारणी, माँ गंगे तेरी जय जय जय l
जटा शंकरी नाम तिहारो, माँ गंगे तेरी जय जय जय ll
पर्वत और गुफाओं मेँ से, बहती पावन धारा है l
लहरें कल -कल कर गाती हैं, ये संगीत प्यारा है ll
इन्द्र और पवन भी गाते, माँ गंगे तेरी जय जय जय ll
विष्णु के चरणों का धोवन, जल मेँ तेरे समाया है l
जटा मुकुट मेँ शंकर ने माँ गंगे तुझे सजाया है ll
सभी देव और मानव गाते, माँ गंगे तेरी जय जय जय ll
भोर की किरणों से भानु जब, तेरे जल को धोता है l
बज उठते हैं शंख मंदिर मेँ, और कीर्तन होता हैll
टन टन करके घंटे कहते, माँ गंगे तेरी जय जय जय ll
सूरज जब छिपता है मैया, पावन संध्या आती है l
चन्द्र छटा धरती मेँ आ, अपना रूप दिखाती है ll
तेरी गोद मेँ बैठ हम गाते,माँ गंगे तेरी जय जय जय ll
हरिद्वार और ऋषिकेश को, तूने स्वर्ग बनाया है l
जिसने भाव से लिया चरणामृत,उसका कष्ट मिटाया है ll
सब भक्तों को तू खुश करती,माँ गंगे तेरी जयजय जय ll
कवि अशोक गोयल पिलखुवा
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कण- कण मेँ छा रही
कण कण मेँ छा रही है, महिमा ओ माँ तुम्हारी l
कर ध्यान मातु सुन ले, यह वंदना हमारी ll
दीप चंदन थाली से सदा आरती उतारूंगा I
सुमन श्रद्धा नहलाकर, तुम्हें निशदिन चढ़ाऊंगा ll
एक बार आओ मैया, कर हंस की सवारी ll
जिसे अपना बनाया माँ, उसी ने हमको ठुकराया l
बहे कितने मेरे आँसू, तरस तुझको नहीं आया ll
मेरे लिए तू मैया, काहे को करे तू देरी ll
भूल हो जाय अगर कोई, क्षमा माँ हमको तुम करना l
लेकर त्रिशूल जगदम्बे, दर्द दुखियों के तुम हरना ll
नयनों मेँ छा रही है, माँ की छबि निराली ll
कवि अशोक गोयल पिलखुवा
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मुस्कान की सुगंध
एक खुशबू -सी उड़ेगी हर तरफ,
आइए, हम मुस्कराकर देख ले l
कांति मुख की मृदु मधुर मुस्कान है,
यह सफलता, सदगुणों की खान है,
स्रोत है संवेदना की, स्नेह की,
यह सरल व्यक्तित्व की पहचान है,
पाएँगे अपनत्व हम सब का सहज,
होंठ पर मुस्कान लाकर देख लें l
आइए, हम मुस्कराकर देख लें l
मुस्कराहट है खिला सुन्दर सुमन,
मुस्कराहट वायु की हल्की छुअन,
धमनियों मेँ जो बहाती चेतना,
मुस्कराहट सूर्य की पहली किरन,
हम उसी मुस्कान का चुंबक लिए,
विश्व को अपना बनाकर देख लें l
आइए, हम मुस्कराकर देख लें l
क्यों पराजय को ज़हर जैसा पीएँ,
हम खिलाड़ी की तरह जीवन जिएँ,
दूसरों पर दोष मढ़ने की जगह,
क्यों न हम अपनी फटी चादर सीएँ,
हम उदासी का मुखौटा फेंककर,
दूरियाँ मन की घटाकर देख लें l
आइए, हम मुस्कराकर देख लें l
हम करें सत्कर्म हर पल के लिए,
हों न हम उद्धिग्न असफल के लिए,
यत्न हम करते रहें उत्कर्ष का,
आत्मबल के श्रेष्ठ संबल के लिए,
मुस्कराकर कष्ट को काटें सदा,
इस तरह साहस जुटाकर देख लें l
आइए, हम मुस्कराकर देख लें l
कवि अशोक गोयल पिलखुवा
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मानव ही क्या पशु -पक्षी भी
मानव ही क्या पशु -पक्षी भी, स्तर ऊंचा कर सकते हैं l
वानर और गिद्ध, गिलहरी भी, इतिहास अमर कर सकते हैं ll
हम देव नहीं बन पाये तो, मानव होकर, पशु तो न बनें l
मानवता अरे कलंकित हो, ऐसा कुमार्ग तो नहीं चुनें ll
मनु का वंशज पशु बनता है, तो मनु की आँख छलकती है l
मानव बन बैठा नर पिशाच, मानवता अरे सिसकती है ll
अशोक गोयल पिलखुवा
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जननी की पीड़ा
बरसे विष जिसकी धारा मेँ,
उस गंगा का दुःख कौन हरे,
पाषाण बने जिसके बेटे
वह जननी कैसे धीर धरे ?
धरती ने जिसके लिए सहीं,
अनगिनत प्रसव की पीड़ाएं,
आलोक -पुंज वह उतरा, पर
निद्रा पर कैसे जय पाएँ ?
जिसको जागृति से प्यार नहीं,
वह रूप कहाँ कैसे निखरे ?
बरसे विष जिसकी धारा मेँ,
उस गंगा का दुःख कौन हरे,
पाषाण बने जिसके बेटे,
वह जननी कैसे धीर धरे ?
तप की बूंदो से माटी मेँ,
जिसने देवत्व जगाया हो,
निज के खाते का सारा सुख,
जिसने आजन्म लुटाया हो,
समझो उस शिल्पी की पीड़ा,
जिसका सिरजन टूटे -बिखरे l
बरसे विष जिसकी धारा मेँ,
उस गंगा का दुःख कौन हरे,
पाषाण बने जिसके बेटे,
वह जननी कैसे धीर धरे ?
भरे स्वप्न सुनहले अंचल मेँ,
जिसने पीयूष पिलाया है,
उसका ऋण चुकता करने का,
अब महापर्व यह आया है,
मुख मोड़े अपने नौनिहाल,
तब किससे आशा कौन करें ?
बरसे विष जिसकी धारा मेँ,
उस गंगा का दुःख कौन हरे,
पाषाण बने जिसके बेटे,
वह जननी कैसे धीर धरे ?
अशोक गोयल पिलखुवा
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मानव ही क्या पशु -पक्षी भी
मानव ही क्या पशु -पक्षी भी, स्तर ऊंचा कर सकते हैं l
वानर और गिद्ध, गिलहरी भी, इतिहास अमर कर सकते हैं ll
हम देव नहीं बन पाये तो, मानव होकर, पशु तो न बनें l
मानवता अरे कलंकित हो, ऐसा कुमार्ग तो नहीं चुनें ll
मनु का वंशज पशु बनता है, तो मनु की आँख छलकती है l
मानव बन बैठा नर पिशाच, मानवता अरे सिसकती है ll
अशोक गोयल पिलखुवा
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जिनमें है दूर दृष्टि पावन
जिनमें है दूर दृष्टि पावन वे ही विवेक से मण्डित हैं l
जो हैं विवेक से हीन मनुज, वे सत्य धर्म से वंचित हैं ll
है श्रेष्ठ धर्म इस जीवन का, हम सदविवेक को अपनायें l
निष्पक्ष न्याय में रत रहकर, हम सहज देवता बन जायें ll
अशोक गोयल पिलखुवा
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करूणा की धार
यह करूणा की धार, सूखने मत देना,
जन -जन के प्रति प्यार सूखने मत देनाl
बहुत तेज तूफान घुमड़कर आया है,
धरा - गगन में अंधकार गहराया है,
नाव बीच मँझधार, डूबने मत देना l
जन-जन के प्रति प्यार,सूखने मत देना l
एक प्रभू की सभी सगी संताने हैं,
सभी एक अनुपम माला के दाने हैं,
यह अमूल्य गलहार ,टूटने मत देना l
जन- जन के प्रति प्यार,सूखने मत देना
l
हम सबके व्यवहार कठोर -कँटीले हैं,
ह्रदय मधुरता बिना रेत के टीले हैं,
सरल -विमल व्यवहार,छूटने मत देना l
जन-जन के प्रति प्यार, सूखने मत देना l
जागी संवेदना, जगत लहराएगा,
स्वर्गिक वातावरण धरा पर छाएगा ,
सतयुग सा संसार, लूटने मत देना l
जन-जन के प्रति प्यार,सूखने मत देना l
अशोक गोयल पिलखुवा
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नए गीत गाओ
उठो चेतना के नए गीत गाओ,
न हम हार जाएँ, न तुम हार जाओ l
अभी तम निगलते हुए दीप जागे,
अभी आँख, मलते हुए गीत जागे,
अभी फूल खिलते हुए मीत जागे,
अभी भोर की गुनगुनी धूप लाओ l
उठो चेतना के नए गीत गाओ,
न हम हार जाएँ, न तुम हार जाओ l
अभी रात वाली उदासी भरी है,
अभी प्यार की आँख, प्यासी भरी है,
मनुजता दबी है, रुँआसी, डरी है,
उठो प्राण फूँको, प्रभाती सुनाओ l
उठो चेतना के नए गीत गाओ,
न हम हार जाएँ, न तुम हार जाओ l
अभी आत्मघाती, पतन से लड़े हैं,
समर आसुरी आचरण से लड़े है ,
अभी देव --परिवार, उजड़े पड़े हैं,
अभी दिव्यता को बसाओ, हँसाओ l
उठो चेतना के नए गीत गाओ,
न हम हार जाए, न तुम हार जाओ l
अभी आदमी का परिष्कार होगा,
अभी प्यार का दिव्य अवतार होगा,
अभी विश्व ही , एक परिवार होगा,
जलाकर दिए, आरती को सजाओ l
उठो चेतना के नए गीत गाओ,
न हम हार जाएँ, न तुम हार जाओ l
अशोक गोयल पिलखुवा
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नौनिहालों से
वतन के नौनिहालो ?तुम न समझो मात्र बालक हो,
अरे ?तुम वीर लव -कुश हो, खिलाते सिंह -शावक हो l
छुपे प्रहलाद -ध्रूव तुम में, अटल विश्वास था जिनका,
धरा- नभ में हुआ अंकित, अमर इतिहास था उनका,
अरे?तुम भाग्य के अपने स्व्यं ही तो विधायक हो l
वतन के नौनिहालो ?तुम न समझो मात्र बालक हो,
अरे ?तुम वीर लव -कुश हो, खिलाते सिंह शावक हो l
तुम्हीं में पल रहे गौतम, तुम्हीं में पल रहे गांधी,
तुम्हीं राणा, शिवा हो, जो उठेंगे बन प्रबल आंधी,
तुम्हीं हो शांति के संदेश तुम ही क्रांति -कारक हो l
वतन के नौनिहालो ?तुम न समझो मात्र बालक हो,
अरे ?तुम वीर लव -कुश हो खिलाते सिंह -शावक हो l
तुम्हीं पर आज भारत माँ निगाहों को टिकाए है,
उसे ऊँचा उठाओगे, यही सपने सजाए है,
तुम्हीं उज्जवल -भविष्यत और कल के राष्ट्र -नायक हो l
वतन के नौनिहालो ?तुम न समझो मात्र बालक हो,
अरे !तुम वीर लव -कुश हो, खिलाते सिंह -शावक हो l
कवि अशोक गोयल पिलखुवा
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जिंदगी
जिंदगी शिकवा कभी करती नहीं,
आँख मेँ आँसू कभी भरती नहीं,
यह पला करती सदा संघर्ष मेँ,
जिंदगी पीछे कदम धरती नहीं l
जिंदगी काँटों मेँ मुस्काती सदा,
धूल से है रत्न चमकाती सदा,
दीप लेकर प्रलय मेँ विश्वास का,
मोड़ पर इतिहास ले जाती सदाl
मौत का हरदम यही रोना रहा,
जिंदगी है मौत से डरती नहीं,
मौत जी जाती स्वयं छूकर उसे,
जिंदगी है मौत से मरती नहीं l
जिंदगी अपमान सह सकती नहीं,
जुल्म की ज्वाला मेँ दह सकती नहीं,
लाख बंधन बांधना चाहे इसे,
जिंदगी बंधन मेँ रह सकती नहींl
जिंदगी सुख -शांति का आभास है,
यह सनातन है अमर विश्वास है,
युग मिटे पर जिंदगी मिटती नहीं,
जिंदगी जीता हुआ इतिहास है l
जिंदगी है खेत मेँ खलियान मेँ,
जिंदगी है मेहनतकशों के गान मेँ,
शांति, साहस, क्रांति मेँ, संघर्ष मेँ,
जिंदगी है त्याग मेँ, बलिदान मेँ l
जिंदगी संहार मेँ निर्माण है,
यह करुण -क्रंदन नहीं वरदान है
जिंदगी है मुक्ति का साधन सदा,
जिंदगी इनसान मेँ भगवान है l
अशोक गोयल पिलखुवा
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वतन के लिए
हम अथक श्रम करेंगे, वतन के लिए,
हम जियेंगे -मरेंगे, वतन के लिए l
है मुसीबत बड़ी देश के सामने,
आपदा की घड़ी देश के सामने
जोर है इन दिनों क्रूर आतंक का,
और जीना कठिन राव का रंक का I
आज खतरा खड़ा है, अमन के लिए l
हम जियेंगे -मरेंगे, वतन के लिए l
खोखला कर रहीं दुष्प्रथाएँ इसे,
अंधविश्वास की मान्यताएँ इसे,
हो रहे हैं सभी, दुर्व्यसन से ग्रसित,
घोर अज्ञान से हो रहे हैं भर्मित,
रास्ते खुल रहे हैं, पतन के लिए l
हम जियेंगे- मरेंगे , वतन के लिए l
हर चुनौती, हमें आज स्वीकार है,
प्राण से भी अधिक देश से प्यार हैं ,
कोई षड्यंत्र भी, अब न चल पायेगा,
साजिशों का दिवाला निकल जायेगा,
मौत से भी लड़ेंगे, वतन के लिए l
हम जियेंगे -मरेंगे, वतन के लिए l
ली' शपथ ' है बनाना है जन्नत इसे,
हर दिशा मेँ बनाना है उन्नत इसे,
इस तरह से वतन को सँवारेंगे हम,
और जन्नत जमीं पर उतारेंगे हम,
खा रखी है कसम, युग सृजन के लिए l
हम अथक श्रम करेंगे, वतन के लिए l
कवि अशोक गोयल पिलखुवा
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रज --वंदन
बनी जिस पावन -रज से देह,
राष्ट्र की रज को, वंदन करें,
मातृ-भू, कण कण जिसका तीर्थ,
उसी पद - रज को वंदन करें l
राष्ट्र की ही माटी मेँ पले,
भले हों राव, रंक हों भले,
मिला सब ऋषि -मुनियों को प्यार,
उन्हीं वंशज को वंदन करें l
मातृ-भू, कण कण जिसका तीर्थ,
उसी पद -रज को वंदन करें l
यही है शस्य -श्यामला मही,
अन्नपूर्णा कहलाती रही,
विश्व मेँ स्वर्ण - चिरइया यही,
इसी अचरज को वंदन करें l
मातृ-भू, कण कण जिसका तीर्थ,
उसी पद -रज को वंदन करें l
जिएं और मरें इसी के लिए,
मान को, प्राण निछावर किये,
जिन्होने किया अमर इतिहास,
उन्हीं अग्रज को वंदन करें l
मातृ-भू, कण कण जिसका तीर्थ,
उसी पद -रज को वंदन करें l
राष्ट्र मेँ यधपि प्रान्त अनेक,
किंतु सब की ही माटी एक,
एकता का प्रतीक यह राष्ट्र,
राष्ट्र के ध्वज को वंदन करें l
मातृ -भू, कण- कण जिसका तीर्थ,
उसी पद -रज को वंदन करें l
अशोक गोयल पिलखुवा
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झन- झनादे चेतना के
झन -झना दे चेतना के, जड़ विनिद्रित तार को l
माँ !जगा दे आज तो, सोये ह्रदय के प्यार को ll
राग रंजीत प्राण हो अब, रंग कुछ ऐसा चढ़ा l
नेत्र अंतर के खुले अब, पाठ कुछ ऐसा पढ़ा ll
देख पाये रूप तेरा, पा सके तव द्वार को ll
ज्ञान आभा बुधित में भर,ह्रदय में शुची भावना l
कर्म पथ पर पग बढ़े, कर्तव्य की हो साधना ll
हम समझले आज से, प्रतिबिम्ब तव संसार को ll
झन -झना दे चेतना के, जड़ विनिद्रित तार को l
माँ !जगा दे आज तो, सोये ह्रदय के प्यार को ll
पीड़ितों को बाँटकर ममता, ह्रदय की हम खिले l
प्यार का सागर भरे उर में, सभी से हिल मिले ll
खोल दे माँ आत्मा की, रूद्ध सी इस धार को ll
है नहीं कुछ पास पूजा, थाल हम जिससे भरें l
झर चुके सद्गुण सुमन, अर्पित तुझे अब क्या करें ll
आज तो स्वीकार ले, आँसू भरी मनुहार को ll
माँ ! जगा दे आज तो सोये ह्रदय के प्यार को ll
अशोक गोयल पिलखुवा
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हम धनी न चाहे हों
हम धनी न चाहे हों धन के, पर ह्रदय धनी होवें l
हम हँसे न चाहे सुख पाकर, पर दुःख मेँ रोवें ll
हम कृषक बने तो ह्रदय खेत मेँ प्रेम बीज बोवें l
हम सदा जागते रहें देश हित कभी नहीं सोवें ll
हम धनी -निर्धनी सुखी -दुःखी जैसे हो वैसे हों l
पर काम आ सकें कुछ स्वदेश के प्रभु हम ऐसे हों II
हम योगी हों तो सब बिछड़ो का योग मिला देवें l
हम वक्ता हों तो वाणी से अमृत बरसा देवें ll
हम हों ऐसे गुणवान रेत मेँ पुष्प खिला देवें l
हम बलि बहादुर हों ऐसे ब्रम्हाण हिला देवें ll
अशोक गोयल पिलखुवा
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अनुकूल बनाता चल
सबको अनुकूल बनाता चल जीवन- पथ मेँ,
पर्वत को धूल बनाता चल, जीवन -पथ मेँ l
सर्दी आई थी, लेकिन उपवन गला नहीं,
गर्मी भी आई, लेकिन उपवन जला नहीं,
वर्षा भी आई, लेकिन उपवन बहा नहीं,
साहस देखों, कि किसी से भी गम कहा नहीं,
काँटों को फूल बनाता चल, जीवन -पथ मेँ l
पर्वत को धूल बनाता चल, जीवन-- पथ मेँ l
जीवन धारा है, इसमें सबको बहना है,
अनवरत, निरंतर, आगे बढ़ते रहना है,
झंझावातों को अपने बल पर सहना है,
साहस ही पौरूष का सर्वोत्तम गहना है,
भँवरों को कूल बनाता चल, जीवन -पथ मेँ,
पर्वत को धूल बनाता चल, जीवन --पथ मेँ l
सुख-बिंदु बरसते जीवन मेँ, बन कर फुआर
लेकिन हर दुःख आता है बनकर अश्रु -धार,
यह ही है शाश्वत सत्य, अतः हिम्मत न हार,
हर कठिनाई को कर हिम्मत से सहज -पार,
दुःख को सुख -मूल बनाता चल, जीवन- पथ मेँ l
पर्वत को धूल बनाता चल, जीवन -पथ मेँ l
अशोक गोयल पिलखुवा
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