उद्भ्रांत की ' स्वयंप्रभा ' : रामायण के अल्प-ज्ञात चरित्र की पुनर्रचना दिनेश कुमार माली , तालचेर उद्भ्रांत जी द्वारा रचित प्रबंध-क...
उद्भ्रांत की 'स्वयंप्रभा' : रामायण के अल्प-ज्ञात चरित्र की पुनर्रचना
दिनेश कुमार माली, तालचेर
उद्भ्रांत जी द्वारा रचित प्रबंध-काव्य ‘स्वयंप्रभा’ का रचनाकाल अप्रैल 1990 से अक्टूबर 1990 है। यह काव्य भावना, प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। जब मैं सन् 2015 में उद्भ्रांत जी के नोएडा स्थित आवास-स्थल पर मिलने गया था, तब उन्होंने मुझे उसकी प्रति अवलोकनार्थ भेंट की थी। सही कहूँ तो उस समय तक मुझे ‘स्वयंप्रभा’ के बारे में बिलकुल भी जानकारी नहीं थी कि वह रामायण की ऐसी विशिष्ट महिला पात्र है, जो पल भर के लिए आती है, मगर उनके योगदान के बिना रामायण अधूरी ही रह जाती। इसके अतिरिक्त, मेरे लिए आश्चर्य की बात यह थी, कि उद्भ्रांत जी ने रामायणकालीन महिला पात्रों को उनके प्रसिद्ध महाकाव्य ‘त्रेता’ में स्वयंप्रभा का कोई उल्लेख नहीं किया है। मेरे हिसाब से इसका कारण यह हो सकता है कि ‘स्वयंप्रभा’ पर पहले से ही उन्होंने एक स्वतंत्र प्रबंध-काव्य की भी रचना कर डाली थी। थके-हारे, निश्चित समय में सीता माता को न खोज पाने के भय से व्याकुल, वानर समूह को उचित मार्गदर्शन देने और लंका का पता बताने वाली सिद्ध तपस्विनी ‘स्वयंप्रभा’ को वाल्मीकि रामायण के बाद कोई विशेष महत्व नहीं मिल पाया। रामायण के महिला-पात्रों में स्वयंप्रभा का नाम बहुत कम लोग जानते हैं, हालाँकि रामायण की आध्यात्मिक भाव भूमिका के उन्नयन में इस बात का बहुत बड़ा महत्त्व है।
किसी साधारण पाठक से यह पूछा जाए कि रामायण के किस प्रसंग में इस पात्र का प्रवेश होता है, तो वह शायद ही इसका ठीक-ठीक जवाब दे सके। इसका कारण यह है कि वाल्मीकि रामायण के बाद के राम-काव्यों में इस प्रसंग को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया गया है। दूसरा कारण यह है कि वाल्मीकि ने राम के साथ इस पात्र का संबंध नही जोड़ा है। एकांत तपोवन की स्वांतस्सुख-साधिका, आराधिका के रूप में आदि कवि ने स्वयंप्रभा का चित्रण किया है ।मुझे ‘स्वयंप्रभा’ में उद्भ्रांत जी द्वारा रामायण के इस अवहेलित पात्र का पुनर्जीवन प्रदान करने जैसा प्रतीत हुआ। उन्होंने स्वयंप्रभा में जान फूंकी हैं। जिसके बारे में डॉ॰ विद्यानिवास मिश्र ‘इस काव्य की भूमिका में लिखते हैं,
“ उद्भ्रांत जी का आविष्कार,हिंदी की ही नहीं, पूरे रामकथा-संसार की उपलब्धि है। इनकी भाषा, इनका आख्यान-कौशल और इनकी पूरी प्रस्तुति बड़ी नाटकीय है। एक तरह से इसके कुछ वर्णनात्मक अंश सूत्रधार के वचन बना दिया जाएं तो यह काव्य रूपक हो जाएगा।”
डॉ॰ विद्यानिवास मिश्र का यह कथन पूर्णतया सही है। उद्भ्रांत जी ने ‘स्वयंप्रभा’ की नौ सर्गों में रचना की है, सभी सर्गों के शीर्षक ‘म’ से शुरू होते हैं अर्थात् नौ मकार वाले नाम जैसे मरू,माया,मुमुक्षु,मार्ग,माही,मारुति,मां,महोदधि एवं महाकाश। सभी सर्ग एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, जो काव्य-नाटक की प्रस्तुति के समानार्थक हैं।
परवर्ती रामकथाओं में उपर्युक्त वृत्तान्त में गौण परिवर्तन किये गये हैं। स्वयंप्रभा के
स्थान पर महाभारत में प्रभावती, नृसिंहपुराण में प्रभा, अग्निपुराण में सुप्रभा, कृत्तिवास में संभवा, बलरामदास में गिरिजा, गुजराती रामायणसार में बदरी तथा रामकियेन में
पुष्पमाली नाम मिलता है।
राम की प्रतीक्षा में अपने जीवन की अंतिम घडि़यों को गिनते हुए बैठी अनन्य आराधिका शबरी से स्वयंप्रभा बहुत कुछ मिलती-जुलती है। दोनों एकांत और प्रशांत वातावरण में संयत जीवन व्यतीत करनेवाली आश्रम-वासिनियाँ हैं और दोनों आध्यात्मिक साधना और सिद्धि से संपन्न हैं। शबरी का मातंगवन और स्वयंप्रभा की सुनहली गुहा, दोनों सामान्य प्राणियों के लिए पहुँच से बाहर है। मातंगवन फिर भी बाहर से दिखायी देता है, पर स्वयंप्रभा का तपोवन बाहर से कुछ भी नहीं दिखायी देता। बाहर से केवल काजल की कोठरी जैसी रहस्यमयी गुहा है। भीतर जाने पर ही उसका प्रकाश और प्रभाव साधकों को चौंका देता है। इसी अंतर को दृष्टि में रखकर वाल्मीकि ने शबरी के आश्रम को 'तद्वन' कहा और स्वयंप्रभा की गुहा को 'महद्वन' कहा। शबरी से भी अधिक पहुँची हुई, सुलझी हुई और सधी हुई तपस्विनी है - स्वयंप्रभा।
यह भी सोचने का विषय है कि ‘स्वयंप्रभा’ किस मानसिक अवस्था में कवि द्वारा लिखी गई? घरेलू-परिस्थितियों के चलते कवि उन दिनों में गहन अवसाद से गुजर रहे थे और योग- साधक होने के कारण अपने भीतर कुंडलिनी-जागरण का भी अनुभव कर रहे थे। शायद भारतीय कवियों का यह कुंडलिनी जागरण की विचार-धारा पाश्चात्य कवियों के लिए ‘सेकेंडरी इमेजिनेशन’ के समतुल्य ही होना चाहिए। पाश्चत्य आलोचक एस॰टी॰ कॉलरिज कहते है कि बिना ‘सेकेंडरी इमेजिनेशन’ के कोई वरेण्य कवि नहीं बन सकता। भारतीय विद्वान इसे अपनी आंतरिक साधना का अनहद नाद मानते हैं।
मेरे मन में दूसरा सवाल यह भी उठता है कि कवि ने अपनी रचना के लिए ‘स्वयंप्रभा’ को ही क्यों चुना? उन्होंने इस काव्य के पुरोकथा में लिखा है- “श्रीरामचरितमानस बाल्यकाल से ही मेरा प्रिय ग्रंथ रहा है। अधिकांश भारतीय- विशेषकर ब्राह्मण परिवारों की तरह मेरे घर में भी श्री मानस की- गीता प्रेस से प्रकाशित प्रति के अतिरिक्त दूसरे प्रकाशनों की मूल पाठ्य युक्त कई टीकाएँ उपलब्ध थी, जो वंश-परंपरा से हमारे यहां चली आ रही थी। इस कारण बचपन से ही इस ग्रंथ का मेरे मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा था।”
हिंदी के शीर्षस्थ सिद्ध गीत कवि बच्चन जी का भी मानना है हिंदी के प्रत्येक साहित्यकार की आधारशिला रामचरितमानस होनी चाहिए। शायद यही कारण रहा होगा कि कवि ने रामायण के अवहेलित पात्रों को खोज कर उन्हें उचित स्थान दिलाने हेतु इस ग्रंथ की रचना की होगी। रामायण के कई पात्र जैसे शबरी,उर्मिला,शांता, श्रुतिकिर्ति, मांडवी आदि आज भी ‘स्वयंप्रभा’ की तरह अवहेलित है। इस काव्य पर प्रकाश डालने से पूर्व रामायणकालीन संस्कृति को जानना अति आवश्यक है। श्री शांति कुमार नानूराम व्यास अपने ग्रंथ ‘रामायण कालीन संस्कृति’ के ‘शिक्षा’ अध्याय में लिखते हैं-
“ कन्याओं के लिए विवाह अनिवार्य होने के कारण उनमें वयस्क होते ही ब्याह दी जाती थीं, शेष अल्पसंख्यक लड़कियां कौमार्य का पालन करती हुई अपना अध्ययन जारी रखती थीं। धर्मशास्त्रों में पहली श्रेणी की कन्याओं के लिए ‘सद्योवधू’ तथा दूसरी के लिए ‘ब्रह्मवादिनी’ की संज्ञा आई हैं। ब्रह्मवादिनी कन्याएँ आजन्म अविवाहित रहती, तथा स्वाध्याय,यज्ञ और तपस्या में संलग्न रहतीं।”
ब्रह्मवादिनी महिलाओं में स्वयंप्रभा,वेदवती,गार्गी आदि के नाम मुख्य हैं। उस समय में सुशिक्षित तपस्विनियाँ आश्रमों में रहकर धर्म-चर्चा और कर्मकांड में निरत रहती थी। वाल्मीकि रामायण में स्वयंप्रभा से संबंधित चंद श्लोक ही मिलते हैं और तुलसीदास के महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ में दो दोहे और चार चौपाई- उनमें भी ‘स्वयंप्रभा’ का नाम रहित वर्णन है। श्रीरामचरितमानस में तपस्विनी का किष्किन्धाकाण्ड के इस प्रसंग में हनुमानजी को सीताजी की खोज में सहायता की। तपस्विनी कौन थी? वह यहाँ क्यों रहती थी? उसका क्या नाम था? आदि प्रसंग जिज्ञासुओं के लिये उनकी ज्ञान पिपासा तृप्त नहीं कर सके। अस्तु अन्य श्रीरामकथाओं से इन प्रश्नों का समाधान किया जा रहा है। कवि उद्भ्रांत के लिए यह अनन्वेषित क्षेत्र था, इसलिए उनके सामने समस्या थी कि इस रचना को कहां से प्रारंभ किया जाए और कैसे? इसलिए कवि ने इसके सर्जन में यत्किंचित कल्पना का भी सहारा लिया है। इस काव्य में स्वयंप्रभा द्वारा विष्णु की तपस्या, कंडु ऋषि की अंतर्कथा, आधुनिक युग की ज्वलंत समस्याओं जैसे वनों का कटाव, पर्यावरण प्रदूषण, ओजोन परत में छेद, औद्योगीकरण, भूमंडलीकरण, विश्व बाजार की दमघोंटू प्रतिस्पर्धा, परमाणु आयुधों की अंधी दौड़ आदि को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर कवि ने अपनी कल्पना से जोड़ा है।
यही नहीं, इस प्रबंध-काव्य में ‘अंधेरी गुफा’,’जटायु’,’संपाति’,’हनुमान’ और ‘स्वयंप्रभा’ आदि का सांकेतिक प्रयोग भी हुआ है। ‘स्वयंप्रभा’ सुरम्य आश्रम के स्वच्छ जीवन प्रदायी वातावरण, फल-फूल, पेड़-पौधे, निर्मल सरोवर- एक आदर्श जीवन समाज की आधार भूमि का प्रतीक है, वहां ‘अंधेरी गुफा’ के ढँकी होने का अर्थ मनुष्य द्वारा निर्मित बाह्य नकारात्मक प्रवृत्तियों और उसके भीतर के आंतरिक प्रदूषण को आने की इजाजत नहीं है। ‘जटायु’ नारी स्वातंत्र्य के लिए प्राणों की आहुति देने वाला और ‘संपाति’ वैसा नहीं कर पाने के परिताप का प्रतीक हैं। प्रस्तुत काव्य में ‘हनुमान’ साहसी, दूरदर्शी, प्रत्युत्पन्नमति, विनीत, विद्वान, धीरोदात्त नायक की तरह चित्रित किया गया है, जो विषम से विषम परिस्थितियों में भी धीरज नहीं खोता, क्योंकि उसे पता है कि समस्त वानरों की आशा-आकांक्षा का एकमात्र केंद्र वह स्वयं है। इस प्रकार यह खंडकाव्य अपने भीतर कई सारगर्भित संदेशों को समेटे हुए हैं।
‘पुरोकथा’ में कवि ने अपनी मनोकामना व्यक्त की है कि अगर इस कृति को विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में उपयुक्त पाया जाता है तो विद्यार्थी को एक नई तरह की कृति से साक्षात्कार का अनुभव हो सकेगा। मेरा भी मानना है कि इस प्रकार की कृति से विद्यार्थी भारतीय साहित्य के उपेक्षित, अवहेलित और नकारात्मक व्यक्तित्वों को उभारकर उन्हें नई दृष्टि दे सकेंगे और उनके अंतर्द्वंद का सफल आकलन कर सकेंगे, जैसे कि संबलपुरी कवि हलधर नाग ने अपनी भाषा में ‘शबरी’, ‘महालक्ष्मी उर्मिला’ जैसे खंड-काव्यों की रचना की, तो डॉ॰ सीताकांत महापात्रा ने ‘दुर्योधन’ और ‘जारा शबर का संगीत, श्री मैथिलीशरण गुप्त ने ‘साकेत’, रमाकांत रथ ने ‘श्री राधा’ आदि अद्वितीय कविताओं की रचना की हैं।
उद्भ्रांत की ‘स्वयंप्रभा’ पर एक नजर :-
- प्रथम सर्ग: मरु
इस सर्ग को कवि ने तुलसीदास की चौपाई ‘चले सकल बन खोजत सरिता सर गिरि खोह। रामकाज लवलीन मन बिसरा तन कर छोह॥” से प्रारम्भ किया है, जिसका अर्थ है सब वानर वन,नदी,तालाब,पर्वत और पर्वत की कन्दराओं में खोजते हुए जा रहे है। सभी का मन राम के कार्यों में लवलीन है, उन्हें अपने शरीर तक का भान नहीं हैं।
यह एक प्रकार का नवीन प्रयोग है, जो पाठक के भीतर संगीत का आलाप (पूर्व राग) प्रस्तुत करती है और पढ़ते समय ऐसा लगाने लगता है मानो इन्हीं पंक्तियों को आधार बनाकर कवि उद्भ्रांत जी नए उन्मेष से व्याख्या कर रहे हो। जैसा कि उन्होंने खुद स्वीकार किया है कि ‘स्वयंप्रभा’ की शुरुआत करने के लिए उन्हें कल्पना की उड़ान भरनी पड़ी थी और एक ऐसे रेगिस्तान में उतरना पड़ा था, जहां पर न तो कोई पेड़ था और न ही पानी, सिवाय प्रखर सूर्य आग बरसता हुआ और एक अंतहीन सन्नाटा। ऐसे मरुस्थल में वानर समूह सीता की खोज में पहुंचता है। कवि उद्भ्रांत के शब्दों में,
पार करते
जंगलों को
पहुंचे सबके सब
अचानक गए ऐसे क्षेत्र में, जो
वृक्ष-पत्तों-डालियों-फल-फूलों से था हीन
जिसमें वृक्ष जो थे –
पत्र उनके
शुष्क थे
2.दूसरा सर्ग: माया
इस सर्ग की शुरुआत में कवि उद्भ्रांत ने तुलसीदास के निम्न चौपाइयों का प्रयोग किया है:-
जहां जप जग्य जोग मुनि करहीं, अति मारीच सुबाहुहिं डरही ॥
देखत जग्य निसाचर धावहिं, करहि उपद्रव मुनि दुख पावहिं ॥
इस सर्ग में भी कवि उद्भ्रांत अपनी कल्पना-शक्ति का सहारा लेते हैं कि वह क्षेत्र किस वजह से मरुस्थल में परिवर्तित हुआ होगा? कभी वह क्षेत्र अवश्य हरा-भरा रहा होगा, फिर मरुभूमि बनने के पीछे कोई न कोई लौकिक-अलौकिक कारण अवश्य रहे होंगे। इसका कारण प्रतिपादन करने के लिए वे ऋषि कंडु की अंतर्कथा कथा का अपने काव्य में उल्लेख करते हैं कि असुरों के वहां आगमन से स्वेच्छाचार, वामाचार, मदिरापान तो बढ़ा ही बढ़ा होगा, साथ ही साथ, पेड़-पौधों को अनावश्यक रूप से उखाड़ फेंकने के कारण उस क्षेत्र में जल, वायु और ध्वनि प्रदूषण भी होने लगा होगा और प्रकृति के अपना संतुलन खो देने की वजह से तरह-तरह की बीमारियां फैली होगी, जैसे कि वर्तमान समय में कोरोना जैसी विश्व-महामारी- ऐसा ही कुछ हुआ होगा उस समय में भी। ऐसे आसुरी और अस्वास्थ्यकर वातावरण में उनके बेटे की मौत हुई होगी। इन्हीं कल्पनाओं को साकार रूप दिया है कवि उद्भ्रांत ने,
“ कंडु-सुत वह अकेला था-
आसुरी वातावरण में इस तरह –
ज्यों घिर गया अभिमन्यु
चक्राकार,रण के व्यूह में
बिलकुल अकेला,
और निहत्था –
असुर महारथियों से;
लैस थे जो-
तामसी प्रवृतियों के
तीखे औ’
जहरीले शस्त्रों से ।
इस वजह से ऋषि कंडु उस स्थान को अभिशाप दे देते हैं कि वहाँ की संपूर्ण हारीतिमा नष्ट हो जाए, वृक्ष सूख जाएं, धरती बांझ हो जाए और जलचर-वनचर सभी लुप्त हो जाए ।
“ नष्ट जो जाए
समूचे क्षेत्र की
हरीतिमा,
वृक्ष जाएँ सूख
धरती बांझ होवे
लुप्त हो जाएँ
निमिष में
यहाँ जलचर
और वनचर ।
एक बारगी अगर यह मान भी ले, भले ही, ऋषि के अभिशाप से वह जगह नष्ट नहीं हुई होगी, मगर स्वेच्छाचार और पर्यावरण-प्रदूषण इतना बढ़ गया होगा कि स्वत: ही वह स्थान त्याज्य हो गया होगा। इस प्रकार कवि पौराणिक पात्रों का प्रयोग करते हुए भी आधुनिक विश्व की समस्याओं को सामने रखना नहीं भूलते हैं। सत्य भी है, कवि की अस्थियों में वाल्मीकि और तुलसीदास की अस्थि-मज्जा है- जो उन्हें पौराणिकता खोजने के लिए विवश करती है,मगर महात्मा गांधी, रविंद्र नाथ टैगोर, हरिवंश राय बच्चन, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आदि के भी रक्त-कण है, जो उनके लिए आधुनिकता का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इस तरह कवि का जीवन पौराणिकता और आधुनिकता के मध्य में दोलन करता है। पौराणिकता को आधार बनाकर आधुनिक विद्रूपताओं को सामने लाना भी किसी भी आधुनिक महाकवि का न केवल लक्ष्य होता है, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के संरक्षण के लिए वह उत्तरदायित्व भी है।उद्भ्रांत जी ने भी बखूबी अपना उत्तरदायित्त्व निभाया है।
3.तृतीय सर्ग: मुमुक्षु
रामचरितमानस में अनाम तपस्विनी( जिसे उद्भ्रांत दूसरी रामायणों के आधार पर ‘स्वयंप्रभा’ नाम से परिचित करवाते हैं) की कहानी इस सर्ग में शुरू होती है।
लागि तृषा अतिसय अकुलाने। मिलइ न जल घन गहन भुलाने॥
मन हनुमान् कीन्ह अनुमाना। मरन चहत सब बिनु जल पाना॥
( भावार्थ:-इतने में ही सबको अत्यंत प्यास लगी, जिससे सब अत्यंत ही व्याकुल हो गए, किंतु जल कहीं नहीं मिला। घने जंगल में सब भुला गए। हनुमानजी ने मन में अनुमान किया कि जल पिए बिना सब लोग मरना ही चाहते हैं। )
भूखा-प्यासा वानरों का दल जल और भोजन की तलाश में भटकता हुआ कंडु ऋषि द्वारा अभिशप्त जंगल से गुजर रहा था कि दक्षिण दिशा से एक काला,भयावह,पर्वताकार राक्षस अंधड़ के रूप में प्रकट होता है और वानरों को अपना भोजन बनाने की धमकी देता है।
कभी उद्भ्रांत के शब्दों में:-
“ देखकर
वानर-समूहों को
असुर ने
किया भीषण अट्टहास
औ’ बढ़ाए
दीर्घ अपने हाथ
फिर चिंघाड़ कर बोला-
“सुनो, वानर-समूहों!
मैं तुम्हारा
काल बनकर आया हूँ;
याद कर लो इष्ट अपना
और हो जाओ
सभी तैयार
बनने भोज्य मेरा।”
यह राक्षस कौन था? कवि ने उसकी कल्पना क्यों की? क्या यह कंडु ऋषि का पुत्र, जिसकी असामयिक मृत्यु हुई थी, का प्रेत या ब्रह्मराक्षस था ? न केवल एक ही पल में हनुमान जी उसका खात्मा कर देते हैं,बल्कि दूसरे पल में अपनी साधना के माध्यम से उस जगह का दर्शन करते हैं, जहां भूखे-प्यासे वानर समुदाय के प्राणों की रक्षा की जा सके।
कवि उद्भ्रांत के शब्दों में :-
दूसरे ही पल
उन्होंने आँख कर लीं बंद
अपनी साधना की ज्योति को
प्रज्वलित कर
देखा हृदय के मध्य
बैठी एक तापस नारी;
सुंदर विटप-
जिनमें लग रहे थे
मनोरम सुस्वादु फल
औ’ पास
निर्मल-नीर-निर्झर
बह रहा ।
उपरोक्त पंक्तियां कवि की कल्पना-शक्ति और मौलिकता दर्शाती है।
4.चतुर्थ सर्ग: मार्ग
इस सर्ग की शुरुआत कवि उद्भ्रांत तुलसीदास की निम्न चौपाइयों से करते हैं :-
चढ़ि गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा। भूमि बिबर एक कौतुक पेखा॥
चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं। बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं॥
(भावार्थ:-उन्होंने पहाड़ की चोटी पर चढ़कर चारों ओर देखा तो पृथ्वी के अंदर एक गुफा में उन्हें एक कौतुक (आश्चर्य) दिखाई दिया। उसके ऊपर चकवे, बगुले और हंस उड़ रहे हैं और बहुत से पक्षी उसमें प्रवेश कर रहे हैं॥)
स्वयंप्रभा का प्रसंग किष्किंधा कांड के लगभग अंतिम प्रकरण में आता है, जब हनुमान, अंगद, जांबवान आदि महावानर अपने सहयोगियों के साथ सीता की खोज में चल पड़ते हैं और खोजते-खोजते एक विचित्र गुफा में घुस जाते हैं। सीता माता की खोज में ऊँचे-ऊँचे पहाड़, घने-घने जंगल और चित्र-विचित्र गुफाओं में विचरण करने पर वानर-समूह को प्यास लगती है। आसपास कहीं पानी का आभास तक नहीं मिलता। इतने में एक गुफा से हंस,क्रोंच,सारस और भीगे पंखों की चिडि़याँ बाहर निकलती हुई दिखायी देती है। इन पक्षियों को देखकर बुद्धिमान हनुमान यह अनुमान लगाते हैं कि जहाँ से ये चिडि़याँ आ रही हैं, उस गुफा में ज़रूर पानी रहा होगा। उद्भ्रांत जी ने इस सर्ग में गुफा के दरवाजे को पत्थर से ढका हुआ दिखाया है, जिसे हनुमान हटाते है। कवि उदभ्रांत जी के शब्दों में
“शीघ्र ही
हनुमान
ले आए गुफा के द्वार पर
सब वानरों को-
द्वार-
जिसको रोककर
रखे हुए थी
राक्षसी आकार की
भारी शिला!
उनके इशारे पर और उन्हीं के भरोसे सभी वानर बाहर से बिलकुल अंधकार से भरी दिखायी देनेवाली भयानक गुफा में पहुँच जाते हैं। रास्ते में सभी बंदर एक दूसरे का सहारा लेते हुए सघन अंधकार को चीरकर अंदर पहुँच जाते हैं। बहुत दूर जाने पर अचानक प्रकाश दिखायी देता है। उनको लगता है किसी दैवी प्रेरणा ने उनको इस रमणीय स्थल तक पहुँचाया है, जहाँ सुनहले रंग के पेड़, मीठा पानी और अच्छे-अच्छे फल दिखायी देते हैं। वे सोचने लगते हैं कि इतना सुंदर वन यहाँ कैसे छिपा पड़ा है और यह किसने लगाया होगा?
5.पंचम सर्ग: मही
गिरि ते उतरि पवनसुत आवा। सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा॥
आगें कै हनुमंतहि लीन्हा। पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा॥
( भावार्थ:-पवन कुमार हनुमानजी पर्वत से उतर आए और सबको ले जाकर उन्होंने वह गुफा दिखलाई। सबने हनुमानजी को आगे कर लिया और वे गुफा में घुस गए, देर नहीं की॥4॥)
इस वर्ग में वानर सेना भयानक अंधेरी गुफा के अंदर प्रवेश करते हैं एक दूसरे का हाथ पकड़ कर। शीघ्र ही वानरों का दल खुले आकाश में पहुंच जाता है और वहां कंदमूल,फल-फूल,झरने-जलाशय देखकर वह चकित हो जाते हैं। यहां मेरी समझ में नहीं आता है कि उन्होंने गुफा के भीतर की नगरी को खुले आकाश के नीचे कैसे बता दिया ? या तो शायद गुफा लंबी रही होगी, सुरंग की तरह, उसके दूसरे किनारे पर यह अद्भुत नगरी बसी होगी। कई विद्वानों का मानना है कि गुफा के भीतर ही यह नगरी बनी हुई थी। सोचने की बात यह है कि कवि ने यहाँ वैज्ञानिक दृष्टिकोण का आधार लिया है, जीव-जन्तु,झरने-जलाशय, पेड़-पौधों के जीवन के लिए ताजी हवा,सूरज का प्रकाश, ताजे जल की आवश्यकता होती है। इसलिए गुफा के अंदर यह नगरी न होकर सुरंग की दूसरी तरफ ही बनी हुई होगी- यह तथ्य यथार्थ लगता है। इस तरह कवि उद्भ्रांत किसी चमत्कार का सहारा न लेकर अपनी कृति में सहज बुद्धि, तार्किक क्षमता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को भी पूरी तरह महत्व देते हैं। कवि उद्भ्रांत जी लिखते हैं :-
“शीघ्र ही
वह वानरों का दल
खुले आकाश में पहुंचा
कि, फिर वह
चकित सहसा रह गया
यह देखकर-
हैं सामने ही
वृक्ष,बेलें,
कंद-मूल
फूल-फल
झरने,जलाशय।
6.षष्ठ सर्ग: मारुति
गुफा में वानर सेना को एक तेजस्विनी लता की तरह एक तपस्विनी दिखायी देती है। उस तपस्विनी के चारों तरफ प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देता है। रास्ते में जितना घना अंधेरा था, यहाँ पर उतना ही उजाला दिखायी पड़ता है। सबसे बढ़कर प्रेरणा और विस्मय का आधार स्वयंप्रभा की प्रभा-भास्वर मनोहर मूर्ति है, जो वल्कल, जटा आदि धारण करते हुए भी आध्यात्मिक आभा से आप्लावित और तपस्या की दीप्ति से आपूर्ण थी। कवि उद्भ्रांत जी कहते हैं :-
“और जिस पर
सुशोभित थी-
दीप्त-मुख
औ’ श्वेतकेशी
प्रभा अपनी ही बिखरे-
दूर तक
आँखें निमीलित
ध्यानरत
औ’तपश्चर्या-लीन
तापस नारी-
आश्रम में वहाँ ।
स्वयंप्रभा के पास जाकर अपने कुतूहल का समाधान करने की क्षमता, योग्यता और अर्हता केवल हनुमान में थी। इसलिए वह आगे बढ़कर तपस्विनी से सविनय प्रश्न करते हैं। हनुमान पहले अपनी और अपने साथियों की स्थिति का निवेदन करते हुए सारी राम-कहानी सुनाते हैं और बताते हैं कि इसी राम-काज के सिलसिले में अपनी प्यास बुझाने के लिए वे इस गुफा में पहुँच गये और अब उनकी प्यास केवल भौतिक नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक बन गयी है। इस रहस्यमयी गुहा के बारे में जानने की उनके मन में सहज जिज्ञासा है। स्वयंप्रभा संसारभर की करूणा से परिपूर्ण मंजुल स्वर में उनका स्वागत करती है और पहले उनको अपनी भौतिक पिपासा (प्यास) को शांत करने के लिए वहाँ उपलब्ध प्रचुर खाद्य सामग्री का यथेष्ट उपयोग करने के लिए कहती है। उसके बाद वह अपने आश्रम की सारी गाथा सुनाती है। इस सर्ग में कवि ने पूर्व उल्लेखित ‘हनुमान’ के प्रतीकार्थ को सिद्ध करने की कोशिश की है। हनुमान जी की तार्किक बुद्धि, समझदारी, व्यवहार-कुशलता, शालीनता और विनीत भाव को उजागर करने में कवि ने कोई कमी नहीं छोड़ी है। चूंकि इस सर्ग को कवि ने मारुति को ही समर्पित किया है तो उनके व्यक्तिगत गुणों के साथ-साथ आध्यात्मिक पराकाष्ठा को भी मुखरित किया है । ऐसा ही एक उदाहरण कवि उद्भ्रांत जी के शब्दों में
“ देवी!
लें स्वीकार
अभिवादन हमारा
आ गए हैं
बिना आज्ञा आश्रम में आपके
हम सभी वानर
किन्तु
माँ है आप
इसके लिए
हमको दें क्षमा,औ’
करें अब कृतकृत्य
कर स्वीकार
अभिवादन हमारा।
तपस्विनी के चरित्र के साथ भी पूरी तरह कवि ने पूरी तरह से न्याय किया है।दिव्य-दृष्टि और योग-साधना के कारण पहले से ही उन्हें इस घटनावली की पूरी तरह जानकारी थी तभी तो हनुमान उन्हें कहते हैं:-
“ लगता है-
आप दिव्यदृष्टा है
समझ गई है सबकुछ
इसलिए हमको यह
आपने आदेश दिया-
क्षुधापूर्ति कर लें हम
पहले ही।
7.सप्तम सर्ग: मां
‘स्वयंप्रभा’ के इस सर्ग को कवि उद्भ्रांत ने तुलसीदास जी की निम्न चौपाई से प्रारम्भ किया है:-
दीख जाइ उपबन बर सर बिगसित बहु कंज।
मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज॥
( भावार्थ:-अंदर जाकर उन्होंने एक उत्तम उपवन (बगीचा) और तालाब देखा, जिसमें बहुत से कमल खिले हुए हैं। वहीं एक सुंदर मंदिर है, जिसमें एक तपोमूर्ति स्त्री बैठी है॥)
यह सुंदर उपवन असल में स्वयंप्रभा की सहेली हेमा का था। देवताओं के कुशल और मायावी अभियंता मय ने अपनी प्रेयसी हेमा के लिए यह उपवन बनाया था। बरसों तक विश्वकर्मा मय ने इस वन में मनचाहे सुखों का आनंद पाकर अंत में हेमा के प्रति प्रेम-लालसा प्रकट की। हेमा देवकन्या थी। इसलिए इंद्र ने मय पर बिगड़कर उसे वन से निष्कासित कर दिया। उसके बाद ब्रह्मा ने उस वन की देखभाल का दायित्व हेमा को सौंपा, जो सभी ललित कलाओं में निष्णात थी। हेमा के बाद यह भार स्वयंप्रभा ने अपने ऊपर ले लिया और अपनी तपस्या, साधना और निष्ठा के बल पर उपवन को परम रमणीय रूप प्रदान किया।
इसी सुंदर वन को वाल्मीकि महद्वन, उत्तम वन, कांचन वन, दुर्गम वन आदि विशेषणों से अभिवर्णित करते हैं। बाहर की गुहा को 'श्रीमद्बिल' कहा गया है। इस बिल की सश्री को समझने के लिए 'श्रीमत' शब्द को अभिधा, लक्षणा और व्यंजना तीनों रूपों में आत्मसात करना आवश्यक होता है। यह सारा वर्णन हनुमान जैसा मेघावी ही पूर्ण रूप से हृदयंगम कर सकता है। स्वयंप्रभा में जितनी आत्मनिर्भरता है, उससे अधिक आत्मसंयम है। वह अपने तपोवन का सारा इतिहास जिज्ञासु हनुमान को बताती है और अतिथियों का यथेष्ट आदर-सत्कार करती है और उसके बाद ही उनके आगमन का कारण पूछती है। उस समय भी वह केवल इतना ही कहती है कि अगर वह कहने लायक हो और कहने में उनको कोई आपत्ति न हो तभी कहें। यदि - 'चैतन्मया श्राव्यं श्रोतुमिच्छामि तां कथाम्'। इस पर हनुमान सारी राम-कथा संक्षेप में सुनाते हैं। यहां वह अपने दिव्य-दृष्टा होने का प्रमाण देती है, जब हनुमान उन्हें अपने आने की योजना के बारे में विस्तार से बताते हैं। वह कहती है ( कवि के शब्दों में )
“ हे पवनसुत!
आप ज्ञानी है परम
जिस भांति
सम्मोहित किया है आपने
मुझको सुनाकर
कथा रघुवीर राम की-
वह विलक्षण है
कथा तो मैं
जानती प्रारम्भ से थी
किस जगह तक
आ चुकी है कथा वह-
यह भी पता था मुझे ।
और बातों- बातों में अपना परिचय भी बताती है
“ मैं –
एक ऋषिकन्या
मेरुसावर्णी की जाया
मरुत!
है नाम मेरा-प्रभा
बचपन से मुझे
अनुरक्ति थी श्री विष्णु में
और उनकी
भक्ति के प्रकाश से
मैं जगमगाती थी सदा।
वह कहती है कि किस तरह अपनी सखी हेमा से मय द्वारा रचित यह स्वर्ण नगरी, उपवन और आश्रम उसे प्राप्त होते हैं। इतना ही नहीं, अपनी दिव्य दृष्टि से माता सीता की अवस्था के बारे में भी बता देती है।
“ आप
हे हनुमान!
सक्षम है
शीघ्र ही जान जाएंगे
कहाँ है मातु सीता
किन्तु इतना
बता दूँ मैं
बंदिनी वे दशानन की
दे रहा वह मूढ़ उनको कष्ट भारी
और पटरानी
बनाना चाहता है उन्हें अपनी।
यह तभी संभव है, जब वह महाभारत के संजय की तरह अपनी दृष्टि से उन्हें देखने में सक्षम हो। रामायण की इतनी बड़ी महिला पात्र अगर अवहेलित रह जाए तो बहुत कुछ छूटा हुआ प्रतीत होने लगता है। अगर स्वयंप्रभा हनुमान की मदद नहीं करती तो क्या हनुमान सीता जी को खोजने में सफल हो पाते ? शायद नहीं। तपस्विनी स्वयंप्रभा की यह मदद ही रामचरितमानस के सुंदर-कांड, लंका-कांड और उत्तरकांड का आधार बनी। स्वयंप्रभा की यह सहायता रामचरितमानस की चरमावस्था का प्रमुख आधार है। हनुमान बलवान होते हुए भी इतनी छोटी-सी बात के लिए एक अबला की मदद माँगने में संकोच तो कर रहे थे। लेकिन कोई दूसरा उपाय नहीं था। वह यह भी जान गये कि स्वयंप्रभा कोई साधारण अबला या महिला नहीं है। वह तो साध्वी है और उसका सहारा लिये बिना उनका बाहर निकलना संभव नहीं है। इसके अलावा उस साध्वी की उदारता का भी उनको काफी परिचय मिला था। स्वयंप्रभा भी जानती थी कि जो एक बार बिल के अंदर पहुँच जाता है, वह किसी हालत में सजीव बाहर नहीं निकल सकता। लेकिन राम-कार्य से ये लोग अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करने में लगे हुए हैं। इसलिए उनकी सहायता करना वह अपना कर्तव्य समझती है और कहती है 'तुम अपनी अँगुलियों से अपनी आँखें बंद कर लो।'सभी लोग, हनुमान समेत, अपनी पतली लंबी अँगुलियों से अपनी आँखें बंद कर लेते हैं।
“ तो मैं करूंगी मदद
अपने योगबल से
एक ही क्षण में
समूचे वानरी-दल को
निकालूंगी यहाँ से
उस जगह पर-
जहां से तुमको लगेगा
पता बिलकुल ठीक
माता जानकी है कहाँ ?
उसके बाद
अपने योगबल से
पहुँचकर किष्किंधनगरी
ऋश्यमूक पर्वत पर
करूंगी राम के दर्शन
कि जिसके वास्ते मैं
युगों से
हूँ साधना करती रही।
पलभर में सब लोग अपने को बिल से बाहर पाते हैं और सामने खड़ी है- स्वयंप्रभा, सबको विदा करने के लिए। विषम संकट से बचे हुए बंदरों को सामने का समुद्र दिखाकर, स्वयंप्रभा अपने योगबल से किष्किंधनगरी पहुँचकर ऋश्यमूक पर्वत पर राम के दर्शन करने जाती है। इस प्रकार स्वयंप्रभा वानरसेना को और विशेषकर हनुमान को एक विशिष्ट अनुभूति प्रदान करती है, जो सीताजी की खोज में उनको मदद देती है।
8.अष्टम सर्ग: महोदधि
मूदहु नयन बिबर तजि जाहू। पैहहु सीतहि जनि पछिताहू॥
नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा। ठाढ़े सकल सिंधु कें तीरा॥
( भावार्थ:-तुम लोग आँखें मूँद लो और गुफा को छोड़कर बाहर जाओ। तुम सीताजी को पा जाओगे, पछताओ नहीं (निराश न होओ)। आँखें मूँदकर फिर जब आँखें खोलीं तो सब वीर क्या देखते हैं कि सब समुद्र के तीर पर खड़े हैं॥)
वानरों के आँख मूँदते ही स्वयंप्रभा ने निमिषमात्र में उन्हें गुफा से बाहर निकाल कर कहा, "अब तुम अपनी आँखें खोल लो। यह देखो तुम्हारे समक्ष महासागर लहरा रहा है। तुम्हारा कल्याण हो।"
इतना कह कर तपस्विनी स्वयंप्रभा अपने स्थान में वापस चली गईं। तपस्विनी स्वयंप्रभा के साधना की शक्ति से वानर सेना महोदधि के तट पर पहुंच जाती है मगर महोदधि का न कोई ओर, न कोई छोर। ऐसी अवस्था में वानर सेना प्राण त्यागने का प्रण लेती है। अंगद कह उठता है:-
“ यह निश्चय किया मैंने
कि वापस
मैं न लौटूँगा
रहूँगा इसी तट पर
त्याग दूंगा प्राण मैं
उपवास करके ।
चाहते है अंत जो
सुग्रीव के हाथों
अभी वे लौट जाएँ
मैं न रोकूँगा उन्हें।
हनुमान और जामवंत मिलकर इसका उपाय खोजने लगते हैं।
9.नवम सर्ग: महकाश
यह अंतिम सर्ग तुलसी दास की निम्न चौपाई से शुरू होता है :-
बदरीबन कहुँ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस।
उर धरि राम चरन जुग जे बंदत अज ईस॥25॥
( भावार्थ:-प्रभु की आज्ञा सिर पर धारण कर और श्री रामजी के युगल चरणों को, जिनकी ब्रह्मा और महेश भी वंदना करते हैं, हृदय में धारण कर वह (स्वयंप्रभा) बदरिकाश्रम को चली गई॥)
अचानक वानर-समूह को ग्रास बनाने के लिए बूढ़ा विशाल भयानक गिद्ध प्रकट होता है और उसके सम्मुख वानर समूह अपनी व्यथा सुना देते हैं, “हम अवसादग्रस्त हैं, माता जानकी की खोज नहीं कर पाए तो हमारा कार्य अधूरा रह जाएगा। इससे अच्छा यही रहेगा, हम अपने प्राण उत्सर्ग कर दें, जैसे जटायु ने माता सीता को बचाने के लिए किए।” जटायु का नाम सुनते ही गिद्ध दुख हो जाता है और अपना नाम बता कर कहता है कि वह जटायु का बड़ा भाई था। बहुत ऊंचाई तक उड़ने की आदत के कारण सूर्य के ताप से उसके पंख जल गए है, इसलिए ज्यादा दूर उड़ नहीं पाता है। रावण द्वारा सीता के हरण का आंखों देखा हाल भी सुना देता हैं, अपनी तीक्षण दृष्टि से दक्षिण दिशा की ओर देखकर सीता की अवस्था के बारे में बताता है। कवि उद्भ्रांत के शब्दों में,
“ देखता हूँ
शत योजनों के पार
बीचोंबीच सागर के बसी जो-
स्वर्ण निर्मित लंक नगरी
राजधानी है दशानन की
उसी के
घने छायादार
फल और फूल युक्त
अशोक वन के
एक छोटे भाग में
विराट वृक्ष के तले
है सीय बैठी,
तभी अचानक आकाश में स्वयंप्रभा की छवि उभरने लगती है और आशीष देते हुए अंतर्ध्यान हो जाती है।
“ मुझे है संतोष अब
मैं जगज्जनी
जानकी की खोज में
कुछ कर सकी हूँ योगदान
और अब मैं जा रही हूँ
परम धाम
स्वयंप्रभा आज्ञाचक्र की सर्वज्ञ साधिका है। योगशास्त्र के अनुसार आज्ञाचक्र मूलाधार से लेकर छठा चक्र है, जो दोनों आँखों के बीच और नासादंड के ऊपर दोनों भृकुटियों के संधि-स्थल पर प्रतिष्ठित होता है। कमर से लेकर कंठ तक की सारी काया को शिर और ग्रीवा के साथ समान रखकर, दोनों आँखों की दृष्टि को नाक के कोने पर स्थिर बनाने से इस आज्ञाचक्र का दर्शन हो जाता है, जहाँ पर शरीर की रूद्रग्रंथि भी होती है। सबसे पहली ग्रंथि ब्रह्मग्रंथि है, जो मूलाधार में होती है। दूसरी ग्रंथि मणिपुर या नाभि के पास होती है और इसी को विष्णुग्रंथि कहा जाता है। इन दोनों को पार करने के बाद सहस्त्रार चक्र में परमात्मा का साक्षात्कार होता है। स्वयंप्रभा इसी रूद्रग्रंथि और आज्ञाचक्र की प्रतीक है, जिसको पार करने पर द्रष्टव्य का दर्शन होता है। इसके पहले मंथरा, और कैकेयी का गठबंधन मूलाधार और ब्रह्मग्रंथि के रूप में मौजूद था और अनुसूया का प्रीतिदान मणिपुर चक्र और विष्णुग्रंथि के प्रतीक के रूप में प्रकट हुआ था। अब स्वयंप्रभा का प्रकाशदान अंतिम ग्रंथि (रूद्रग्रंथि) और आज्ञाचक्र का प्रतिनिधित्व करता है।
10. अन्य रामायणों में ‘स्वयंप्रभा’ :-
फादर कामिल बुल्के की ‘रामकथा’ में अलग-अलग रामायण में अलग-अलग ‘स्वयंप्रभा’ का उल्लेख मिलता है।
1. श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण में स्वयंप्रभा कथा-प्रसंग –
महर्षि वाल्मीकि रचित 'रामायण ' के किष्किन्धाकाण्ड के पचासवें सर्ग में वर्णन है कि रावण द्वारा बलपूर्वक अपहृत सीता की खोज में भूखे-प्यासे वानर--- अंगद, हनुमान आदि विन्ध्यगिरि की एक गुफा के समीप पहुँचे।यह गुफा उक्त पर्वत के नैर्ऋत्यकोण वाले शिखर पर अवस्थित थी, उसका द्वार बन्द नहीं था, परंतु उसमें प्रवेश करना कठिन था।गुफा ऋक्षबिल नाम से विख्यात थी तथा एक दानव उसकी रक्षा करता था ।भूख-प्यास से त्रस्त वानर गुफा की ओर उत्सुकता एवं कौतूहल से देखने लगे ।गुफा वृक्षों, लताओं से आच्छादित थी।वानरों ने गुफा के भीतर से क्रौंच, हंस, सारस आदि पक्षियों को निकलते देखा।पक्षियों के पंख कमल के पराग से लाल हुए दिखाई दे रहे थे ।उन्हें संदेह हुआ कि गुफा में जीवन होना चाहिए ।निश्चित ही वहाँ पानी, वृक्ष, पुष्प आदि होने चाहिए ।अतः वे गुफा की ओर चल पड़े ।गुफा इतनी भयानक थी कि उसकी ओर देखना तो कठिन लगता ही था, उसमें प्रवेश करना भी कदाचित् कष्टसाध्य एवं अनिष्टकारी-सा लगता था।फिर भी वीर हनुमानजी ने उसमें प्रवेश करने का साहस किया ।अपने साथी वानरों को साथ लेकर वे उस दुर्गम मार्ग पर चल दिये।महर्षि वाल्मीकि ने लिखा है ---- ते प्रविष्टास्तु वेगेन तद् बिलं कपिकुञ्जराः। प्रकाशं चाभिरामं च ददृशुर्देशमुत्तमम्।। वे श्रेष्ठ वानर उस बिल में वेगपूर्वक प्रविष्ट हो गये । भीतर जाकर उन्होंने देखा कि वह स्थान बहुत ही उत्तम, प्रकाशमान और मनोहर था ।वहाँ के सभी वृक्ष सुवर्णमय थे और उनसे अग्नि के समान प्रभा निकल रही थी।साल, ताल, तमाल, नागकेसर, अशोक, धव, चम्पा, नागवृक्ष और कनेर आदि सभी वृक्ष पुष्पों और फलों से लदे हुए थे ।वानरों ने वहाँ सब ओर सोने-चाँदी के बने श्रेष्ठ भवन देखे।
गुफा में जल होने के सन्देह में सभी वानर उस भयंकर गुफा में वे एक योजन तक एक दूसरे का हाथ पकड़कर पहुँच गये। वहाँ उन्होंने क्या देखा -
तत्र तत्र विचिन्वन्तो बिले तत्र महाप्रभाः।
ददृशुर्वानराः शूराः स्त्रियं कांचिददूरतः।।
तां च ते ददृशुस्तत्र चीरकृष्णाजिनाम्बराम्।।
तापसीं नियताहारां ज्वलन्तीमिव तेजसा।
विस्मिता हरयस्तत्र व्यवतिष्ठन्त सर्वशः।।
प्रपच्छ हनुमांस्तंत्र कासि त्वं कस्य वा बिलम्।।
श्रीमद्. वा.रा. किष्किन्धा. सर्ग -50-40
वहाँ उन्होंने थोड़ी ही दूरी पर किसी एक स्त्री को देखा जो कि वल्कल और काला मृगचर्म पहनकर नियमपूर्वक आहार करती हुई तपस्या में लीन थीं और अपने ही तेज से प्रकाशित तेजस्विनी दिखाई दे रही थी। सभी वानरों ने उसे ध्यानपूर्वक देखा एवं आश्चर्यचकित होकर खड़े रहे। उस समय हनुमानजी ने उस तपस्यारत स्त्री से पूछा – देवी ! तुम कौन हो और यह किसकी गुफ़ा है ? हे देवी ! हम सब भूख, प्यास और थकावट से दुःखी थे। अतः सहसा इस गुफा में घुस आये। इस गुफा में अद्भुत विविध पदार्थों को देखकर हमें ऐसा लगा कि कहीं यह असुरों की माया तो नहीं है। हमारी विवेकशक्ति लुप्त सी हो गई
यह सुनकर उस तपस्विनी ने कहा -
मयो नाम महातेजा मायावी वानरर्षभ।।
तेनेदं निर्मितं सर्वं मायया कांचनं वनम्।।
श्रीमद्. वा.रा. सर्ग 51-10-1/2
हनुमानजी ने तापसी से जिज्ञासा एवं विनयपूर्वक प्रश्न किया ---- देवि, तुम कौन हो? यह गुफा, यह भवन, ये रत्न किसके हैं? तां च ते ददृशुस्तत्र चीरकृष्णाजिनाम्बराम्।। तापसीं नियताहारां ज्वलन्तीमिव तेजसा। विस्मिता हरयस्तत्र व्यवतिष्ठन्त सर्वशः। पप्रच्छ हनुमांस्तत्र कासि त्वं कस्य वा बिलम्।। उक्त प्रश्नों के उत्तर में तापसी ने कहा --- मयो नाम महातेजा मायावी वानरर्षभ।। तेनेदं निर्मितं सर्वं मायया काञ्चनं वनम्। हे वानरश्रेष्ठ! महातेजस्वी मायाविशारद मय ने अपनी माया के प्रभाव से इस समूचे स्वर्णमय वन का निर्माण किया था ।मयासुर ने ही इस दिव्य स्वर्णमय उत्तम भवन को बनाया है ।उसने एक सहस्त्र वर्षों तक घोर तपस्या करके ब्रह्मा जी से वरदान के रूप में शुक्राचार्य का सारा शिल्पवैभव प्राप्त किया था ।बाद में मयासुर का हेमा नाम की अप्सरा से सम्पर्क हो गया ।फलस्वरूप मयासुर और देवराज इन्द्र में संघर्ष हुआ ।तत्पश्चात् ब्रह्मा जी ने यह उत्तम वन, यहाँ का अक्षय कामभोग तथा सोने का भवन अप्सरा हेमा को प्रदान कर दिया ।तापसी स्वयंप्रभा ने अपना वृतान्त सुनाते हुये वानरश्रेष्ठ महावीर हनुमान जी से कहा ----- दुहिता मेरुसावर्णेरहं तस्याः स्वयंप्रभा।। इदं रक्षामि भवनं हेमाया वानरोत्तम। हे वानरश्रेष्ठ ! मैं मेरुसावर्णि की कन्या हूँ ।मेरा नाम स्वयंप्रभा है ।मैं उस हेमा के इस भवन की रक्षा करती हूँ ।नृत्य और गीत की कला में प्रवीण हेमा मेरी सखी है, उसने मुझसे अपने भवन की रक्षा की प्रार्थना की थी।इसलिए मैं इस विशाल भवन का संरक्षण करती हूँ ।
हनुमानजी ने श्रीराम - लक्ष्मण एवं सीताजी के वन में आने का वृत्तान्त,सीताजी के रावण द्वारा हरण की कथा सुनायी। हनुमानजी ने सुग्रीव - श्रीराम की मित्रता बताकर, सीतान्वेषण के कार्य से वन में आने का कारण बताया। उन्होंने हमें कहा कि प्यास, क्षुधा एवं थकान ने व्यथित-दुःखित कर दिया तभी मैंने इस गुफा से जल में भीगे हंस, कुरर और सारस आदि पक्षी निकलते देखकर इस गुफा में प्रवेश किया। हनुमानजी की पूरी बात सुनने के पश्चात् तापसी ने उन्हें कहा कि जो एक बार इस गुफा में आ जाता है वह यहाँ से जीते जी लौट नहीं सकता। तथापि मेरी तपस्या के उत्तम प्रभाव से मैं तुम सब को गुफा से बाहर निकाल दूँगी। स्वयंप्रभा ने उनके गुफा से बाहर निकालने के कहने पर सबको अपनी आँखें मूँद लेने का कहा स्वयंप्रभा ने पलक झपकते ही उन सब को गुफा से समुद्र के तट पर छोड़ दिया, तथा कहा-
स्वति वोऽस्तु गमिष्यामि भवनं वानरर्षभाः।
इत्युक्त्वा तद् बिलं श्रीमत् प्रविवेश स्वयंप्रभा।।
श्रीमद्.वा.रा.सर्ग 52-32
तुम्हारा कल्याण हो। अब मैं अपने स्थान पर जाती हूँ। ऐसा कहकर स्वयंप्रभा उस सुन्दर गुफा में चली गयी।
3.अध्यात्मरामायण में स्वयंप्रभा कथा प्रसंग –
श्रीराम भक्ति के महासागर अध्यात्मरामायण के किष्किन्धाकाण्ड के सर्ग 6 में इस वृत्तांत को एक विशेष नये स्वरूप में दिया गया है। सुग्रीव के भेजे गये अंगद,जाम्बवान्,हनुमान आदि ने सीताजी की खोज में घूमते-घूमते विन्ध्याचल के विशाल वन में एक पर्वताकार राक्षस देखा जो कि वन में मृगों और हाथियों को पकड़-पकड़कर खा रहा था। कुछ वानरों ने यह देखकर उसे रावण समझकर कुछ ही क्षण में घूँसा मारकर, मार डाला। इतनी आसानी से उसकी मृत्यु देखकर उन्हें यह लगा कि यह रावण नहीं है।
इस कृत्य के उपरान्त वे सब घोर वन में गये वहाँ उन्हें प्यास लगी किन्तु कहीं भी जल नहीं दिखा। तभी उन्होंने वहाँ तृण,गुल्म और लता आदि से ढँकी हुई विशाल गुहा देखी। उसमें से उन्होंने भीगे हुए पंखोवाले क्रौंच और हँसों को निकलते देखा। तब उन्होंने यह अनुमान लगाया कि, यहाँ से अवश्य जल प्राप्त होगा, इतना निश्चय कर हनुमानजी के पीछे एक दूसरे की बाँह बाँह डालकर अन्दर पहुँच गये। वहाँ उन्होंने देखा कि -
प्रभया दीप्यमानां तु ददृशुः स्त्रियमेककाम्।
ध्यायन्तीं चीरवसनां योगिनीं योगमास्थिताम्।।
अध्यात्मरामायण -किष्किन्धाकाण्ड - सर्ग 6-40
दिव्य भवन में वह सुन्दरी योगाभ्यास में तत्पर एक योगिनी थी, अपने तेज से वह उस स्थान को प्रकाशित कर रही थी तथा शरीर पर चीर-वस्त्र धारण किये उस समय ध्यान कर रही थी। युवती को देखकर उन सभी ने उन्हें प्रणाम किया। उस देवी ने उनसे पूछा तुम क्यों और कहाँ से आये हो? हनुमानजी ने आने का सारा वृत्तांत बता दिया। तब उस दिव्यदर्शना योगिनी ने हनुमानजी को इस प्रकार बताया -
हेमा नाम पुरा दिव्यरूपिणी विश्वकर्मणः।
पुत्री महेशः नृत्येन तोषयमास भामिनी।।
अध्यात्मरामायण, किष्किन्धाकाण्ड - सर्ग 6-51
पूर्वकाल में विश्वकर्मा की हेमा नाम की एक दिव्यरूपिणी पुत्री थी। उस सुन्दरी ने अपने नृत्य से महादेवजी को प्रसन्न किया। प्रसन्न होने पर शंकरजी ने उसे यह विशाल और दिव्य नगर उसे निवास हेतु दिया। वह यहाँ हजारों वर्ष रही। मैं उसकी सखी दिव्य नामक गंधर्व की पुत्री स्वयंप्रभा हूँ। हेमा ने मुझे यह कहा कि तुम यहाँ पर तपस्या करती रहो, त्रेतायुग में जब राम के दूत आवेंगे तब उनका आतिथ्य-सत्कार करना। वानरों का उसी प्रकार सत्कार कर श्रीरामचन्द्रजी की वन्दना और स्तुति करके विष्णुजी के धाम को चली जायगी जो कि योगियों को ही प्राप्त होता है। अतः अब मैं तुरन्त ही भगवान श्रीराम का दर्शन करने के लिये जाना चाहती हूँ। तुम लोग भी अपनी-अपनी आँखें मूँद लो अभी गुहा बाहर पहुँच जाओगे। वह श्रीराम के पास गई स्तुति करने के पश्चात् वरदान माँग लिया और श्रीराम के आदेशानुसार बदरी-वन चली गई, वहाँ उसने अपना नश्वर शरीर त्याग कर परम पद प्राप्त किया। आनन्द रामायण तथा रामचरितमानस में भी यही कथा संक्षिप्त रूप में मिलती है।
4.तत्वार्थ रामायण (गुजराती भाषा)
यह कथा प्रसंग किष्किन्धाकाण्ड अध्याय 54 में स्वयंप्रभा से हनुमानजी की भेंट होने पर उसने अपनी कथा उन्हें सुनायी। स्वयंप्रभा ने कहा कि मैं भगवान शंकरजी की दासी हूँ। शंकरजी की आज्ञा से यहाँ तपश्चर्यारत हूँ। शंकरजी ने मुझे आज्ञा दी है कि श्रीरामजी के सेवक यहाँ आवेंगे। तुम उन सबका स्वागत करना। श्रीरामजी के दर्शन करना फिर तुम्हारा उद्धार हो जावेगा। इसलिये मैं यहाँ बैठकर तप कर रही हूँ। आप सब आ गये हैं। आप सब श्रीरामजी के दर्शन करना फिर तुम्हारा उद्धार हो जावेगा। इसलिये मैं यहाँ बैठकर तप कर रही हूँ। आप सब आ गये हैं। आप सब श्रीरामजी के सेवक हो अतः मेरे लिये पूज्य हो! आप श्रीराम सेवकों की सेवा करने का परम् सौभाग्य प्राप्त हुआ। अब मैं यहाँ से श्रीरामजी जहाँ विराजमान हैं, वहाँ जाऊँगी। तुम सब आँख बंद करो ताकि मैं इस गुफा से सबको समुद्र के तट पर पहुँचा कर श्रीराम की शरण में जाऊँ। शेष कथा अन्य श्रीरामकथाओं से ही मिलती-जुलती है। वह श्रीराम की शरण में गई तथा वहाँ से बदरिकाश्रम जाकर, परमधाम चली गई।
5॰ श्रीराम विजय (मराठी रामायण) रचयिता
इस रामायण के किष्किन्धाकाण्ड में अध्याय 18 में यह कथा प्रसंग वर्णित है। पूर्ववर्ती अन्य रामायणों की तरह इस कथा प्रसंग में कुछ हटकर वर्णन है। स्वयंप्रभा के नाम के स्थान पर उसका नाम सुप्रभा इस कथा प्रसंग में बताया है।कपिगण आकाश मार्ग से जा रहे थे, तब उन्होंने एक शापित -दग्ध वन को देखा और छलाँग अर्थात् उड़ान कुण्ठित होने से लोट-पोट होकर गिर पड़े। हनुमानजी भी तटस्थ (स्थिर) हो गये। इसका मूल कारण यह था कि वहाँ पूर्वकाल में दण्डक नामक एक महातपस्वी ऋषि रहते थे। उनके एक 18 वर्षीय पुत्र को, जब वह खेल रहा था,तब भयानक वनदेवी उनके पुत्र को खा गयी। यह जानकर दण्डक ऋषि ने क्रोधपूर्वक उस वन को शाप दिया कि जो भी प्राणी इस वन में प्रवेश करेगा, उसी क्षण उसकी मृत्यु हो जावेगी। ये कपि श्रीराम के स्मरण करते रहने के कारण मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए। दण्डक मुनि का वह पुत्र, ब्रह्मराक्षस बनकर बारह योजन तक प्राणियों का नित्य भक्षण करता था। उसी समय वह कपियों का भक्षण करने दौड़ा तब अंगद ने पाँव पकड़कर आकार में चक्राकार घूमाकर, उसे पटक-पटक कर मारडाला। दण्डक ऋषि के पुत्र ने तत्काल अपने शरीर को प्राप्त कर लिया तथा उन्होंने समस्त वानरों को अपना पूर्व वृत्तांत बता दिया। उसके पश्चात् समस्त वानरों को प्रणाम कर पिता के दर्शनार्थ चला गया।
उसी समय समस्त वानर भूख एवं प्यास से व्याकुल हो उठे, क्योंकि उस शापित वन में वृक्ष-फल और जल नहीं था। हनुमानजी अन्न-जल खोज रहे थे। तब उन्हें एक विवर में पक्षी फल ला कर खाते दिखाई दिये। कपिगण भी उनके पीछे-पीछे चल दिये। वहाँ उन्हें ‘सुप्रभा’ नामक एक योगिनी दिखाई दी। हनुमानजी ने योगिनी से पूछा कि इस स्वर्णमय नगर,फल और अमृततुल्य जल से परिपूर्ण स्थान का निर्माण किसने किया ? इस प्रश्न के उत्तर में सुप्रभा ने हनुमानजी को बताया कि इस स्थान पर किसी समय मय नामक दैत्य निवास करता था। उसने अपनी कठिन तपस्या कर ब्रह्माजी को प्रसन्न किया और तब विधाता ने यहाँ आकर इस दिव्य नगर का निर्माण कर उसे वरदान दिया कि तुम इस विवर में चिरंजीवी बने रहोगे और यदि विवर के बाहर आये तो तत्काल मृत्यु हो जावेगी। वह अनेक प्रकार के मंत्र हवन कर दैत्यों के कल्याण की अभिलाषा करता था। इस कारण इन्द्र ने विधाता से प्रार्थना कर हेमा नामक एक सुन्दर नारी उत्पन्न करवाई। वह नारी विवर में चली गई। उसे देखकर उसके सौन्दर्य पर मुग्ध होकर मय ने उससे कहा कि तुम मेरे साथ विवर से बाहर चलो। मय ब्रह्माजी के वरदान को भूल गया तथा जैसे ही विवर से बाहर निकला, इन्द्र ने वज्र से उसका वध कर दिया। विधाता ने यह नगर हेमा को दे दिया। हेमा बहुत काल व्यतीत कर सत्यलोक चली गई। उसने जाते समय अपनी सेविका (परिचारिका) के रूप में यह नगर उसे दे दिया। तब से आज तक मैं इसकी रक्षा कर रही हूँ तथा हेमा ने सत्यलोक जाते समय कहा था कि यहाँ वानर आएँगे और वे तुम्हारा उद्धार करेंगे।
हनुमानजी ने भी सीताजी की खोज का सारा वृत्तान्त सुप्रभा को बताया। सुप्रभा ने उन सबको जल-फल देकर तृप्त किया। हनुमानजी ने जब बाहर जाने के मार्ग का कहा तो उसने विवर में सबको अपनी-अपनी आँखें बन्द करने को कहा। आँखें खोलने पर सभी वानर समुद्र तट पर खड़े थे तथा सुप्रभा कहीं नहीं दिखायी दी। सुप्रभा उसी समय विवर त्याग किष्किन्धा जाकर श्रीरामजी से मिली और श्रीराम ने उसे बदरिकाश्रम भेज दिया। वहाँ उसने देह त्यागकर भगवान के स्वरूप में विलीन हो गई।
अतः राक्षसी प्रवृत्ति के बारे में रामायण में कहा गया है-
स्वधर्मो राक्षसां भीरूः सर्वदैव न संशयः।
गमनं वा परस्त्रीणां हरणं सम्प्रमथ्य वा।।
वा.रा.सु.कां.20-5
भीरू! परायी स्त्रियों से समागम अथवा उनका बलपूर्वक अपहरण करना-निःसंदेह सदा ही राक्षसों का धर्म रहा है।
6॰ अन्य रामायण :- रामायण ककविन के अनुसार स्वयंप्रभा वानरों को भुलाने के लिए उनको आँखें बन्द कर लेने के लिए कहती है, क्योंकि वह दानवी है और राक्षसों से मैत्री रखती है। भट्टिकाव्य के वृत्तान्त से भी वही ध्वनि निकलती है। तिब्बती रामायण में
भी श्री देवी की पुत्री वानरों को मोहित कर देती है जिससे उनको दिशाभ्रम हो जाता है।
इस रचना में वानर एक दूसरे की पूँछ पकड़कर गुफा में प्रवेश करते हैं। कम्ब रामायण
में भी हनुमान् की पूँछ पकड़कर वानर गुफा में आगे बढ़ते हैं। कंब रामायण में अंगद द्वारा तुमिर नामक असुर का वध स्वयंप्रभा के वृत्तांत के बाद रखा गया है। सेरीराम की राफ़्ल्स पाण्डुलिपि में यह राक्षस इंद्र द्वारा अभिशप्त कोई राजा है।
अभिनन्दकृत रामचरित के अनुसार अंगद ने गुफा के प्रवेश-द्वार पर दुर्दम नामक एक राक्षस का वध किया था तथा हनुमान् ने एक वानर-वार-सुन्दरी का
प्रेम प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया; तब सर्वांगसुन्दरी का रूप धारण कर वह हनुमान् को
मोहित करने में पुनः असफल हुई और स्वयंप्रभा के आगमन पर चली गई। रामकिएन (अध्याय 23) के अनुसार हनुमान ने गुफा से प्रस्थान करने से पूर्व पुष्पमाली (स्वयंप्रभा) से रमण किया था तथा उसके बाद उसे स्वर्ग भेज दिया। पुष्पमाली एक अप्सरा थी जो रंभा के हरण में मयन के राजा तवन की सहायता करने के कारण ईश्वर द्वारा अभिशप्त थी। सेरीराम की राफल्स पाण्डुलिपि में हनुमान स्वयंप्रभा के साथ विवाह करते है। स्वयंप्रभा ने गुफा में अपने निवास के कारण के विषय में कहा कि मय और हेमा बहुत समय तक
पति-पत्नी के रूप में यहाँ रह चुके थे; हेमा किसी दिन स्वर्ग में अपने पिता से मिलने गई
और इन्द्र ने उसे वहाँ रोक लिया। तब हेमा ने मय को सूचना देने के लिए स्वयंप्रभा को
भेज दिया; गुफा में पहुँचकर स्वयंप्रभा ने भय को विरह के कारण मरा हुआ पाया,
स्वयंप्रभा को लौटकर हेमा को इसका समाचार देने का साहस नहीं हुआ; कही ऐसा न हो
कि हेमा भी मर जाय। अतः स्वयंप्रभा ने मरण तक इस गुफा में तपस्या करने का निश्चय
किया था। कम्ब रामायण में कथा इस प्रकार है। ब्रह्मा ने मय को यह नगर
प्रदान किया था तथा स्वयंप्रभा हेमा को मय की पत्नी के रूप में वहाँ ले आई थी। थोड़े
ही दिनों के बाद इन्द्र ने आकर मय का वध करके स्वयंप्रभा को दण्ड दिया कि वह रामके दूतों के आगमन तक वहाँ निवास करे। तब इन्द्र हेमा को स्वर्ग ले गये। यह वृत्तान्त सुनाने के बाद स्वयंप्रभा ने वानरों से निवेदन किया कि वे उसे गुफा से निकलने में
सहायता दें। इस पर हनुमान् ने अपना शरीर बढ़ाकर गुफा को खोल दिया और स्वयंप्रभा ने स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया। रंगनाथ रामायण के अनुसार भी हेमा मय की पत्नी थी; इन्द्र मय का वध कर हेमा को स्वर्ग ले गये थे। स्वयंप्रभा हेमा की सखी है जो हेमा की आज्ञा से गुफा में तप करती है। भावार्थ रामायण के अनुसार
इन्द्र ने हेमा को भेजकर मय को गुफा के बाहर आने का प्रलोभन दिया था और इस
प्रकार वह मय को मारने में समर्थ हुए।
निष्कर्ष :-
उद्भ्रांत की 'स्वयंप्रभा' तथा अन्य रामायण में आए 'स्वयंप्रभा' के प्रसंगों की तुलना करने पर हम पाते हैं कि रामायण के अल्पज्ञात मगर अति महत्वपूर्ण पात्र को अगर किसी ने हिंदी साहित्य में विस्तार दिया है तो उसका सारा श्रेय उद्भ्रांत जी को ही जाता है। इतना ही नहीं, समयानुकूल उन्होंने कतिपय प्रसंगों में परिवर्तन भी किया है तो वह कथानक के सातत्यऔर आधुनिक युग की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए किया गया है। हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार निर्मल वर्मा का यह कथन - मेरा मानना है कि आधुनिकता का अतिशय आग्रह ठीक नहीं पूर्ण आधुनिक जैसी कोई चीज नहीं होती - उद्भ्रांत जी के प्रबंध-काव्य ‘स्वयंप्रभा’ पर पूरी तरह खरी उतरती है। उन्होंने इस काव्य की रचना कर रामायण के अल्पज्ञात प्रसंग के रिक्त स्थान की पूर्ति की है। इसी तरह, इस काव्य में मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते को भी सूक्ष्मता से दर्शाया गया है। नामवर जी इस काव्य की तुलना रामकथा पर आधारित नरेश मेहता के काव्य ‘संशय की एक रात’ से की है। इस काव्य में कवि का आत्म-संघर्ष स्वयंप्रभा के रूप में उभर कर आया है और उन्होंने स्वयंप्रभा के मिथक को आधुनिकता के परिपेक्ष में सही तरीके से देखा भी है। इस प्रकारउद्भ्रांत की रामायण के विलुप्त प्रायः चरित्र को उजागर कर साहित्य अनुरागी पाठकों, साहित्यकारों, आधुनिक कवियों और विश्वविद्यालयीन साहित्य के छात्रों का ध्यानाकर्षण किया है कि पारंपरिक साहित्य के उन काले बिंदुओं (डार्क स्पॉट)को परखना जरूरी है, जिन पर हमारी पूर्व पीढ़ी का किसी कारणवश ध्यान नहीं गया होगा। यही नहीं, केवल उन्हें पारंपरिक और मिथकीय मानकरअवहेलना के गर्त में धकेलना ठीक नहीं है। सच्चा साहित्यकार तो वही होता है, जिसकी अपनी पूर्व पीढ़ी के प्रति श्रद्धा, आस्था और विश्वास हो और उनके कार्यों को समकालीन प्रसंगों एवं समस्याओं के सापेक्ष में नया रूप प्रदान करने में सक्षम हो। इससे न केवल पूर्व पीढ़ी के प्रति सम्मान की अभिव्यक्ति होती है, वरन् वर्तमान और भविष्य की पीढ़ी के लिए भी एक वैचारिक भित्ति भूमि तैयार होती है। इस संदर्भ में, मैं उद्भ्रांत को सच्चा साहित्यकार ही नहीं, बल्कि उच्च कोटी का साहित्यिक साधक भी मानता हूं। और उनके सतत साहित्यिक यात्रा जारी रखने की ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वे स्वस्थ सुखी रहे और अपने साहित्यिक अवदानों से हिंदी जगत को सुशोभित करते रहें।
informative and useful for students and readers
जवाब देंहटाएं