कब तक कब तक उबलता रक्त रह सकेगा नसों में, कब तक लहरें सीमाओं को तोड़ने में सकुचाएंगी, कब तक दर्द दुबका रहेगा सीने में और रूका रहेगा पलकों की...
कब तक
कब तक उबलता रक्त
रह सकेगा नसों में,
कब तक लहरें सीमाओं को
तोड़ने में सकुचाएंगी,
कब तक दर्द दुबका रहेगा
सीने में और रूका रहेगा
पलकों की हठ पर,
कब तक पीड़ा रहेगी बंदी
काँपते होंठों की सिहरन में,
कब तक आखिर
जुगनू उजाला चुराएगा
और अँधेरी रातों के
कुतरेगा पर,
कब तक वीरान गलियों में
पसरा रहेगा अंजान सा डर,
कब तक मासूम सी आँखों में
किसी खूँखार का साया डबडबाएगा।
कब तक रहेगा बादलों में सूरज
कब तक रोशनी ना फैलाएगा,
आशा में हैं आँखें कई,
आएगा, निश्चित ही वो दिन आएगा।
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तुम रोना मत
तुम हँसो
क्योंकि तुम्हारी मुस्कुराहट के साथ
संचित होगा इतिहास,
जो बनेगा गवाह,
तुम्हारी शुभ कोटरों में निरन्तर होती उन्नति का ।
तुम्हारी स्मित में गूंथेगा
देश का यह मधुरिम प्रतीत होता काल
इसीलिए तुम कभी न रोना,
क्योंकि काली खोहों में गिरने वाले तुम्हारे आँसू
बींधते जाएंगे इतिहास के पन्नो को
रक्तिम अश्रुओं से तुम्हारे,
जो कहेंगे कथा
नरसंहार की,
मानव सभ्यता के पतन की,
परस्पर पनपती ईर्ष्या की भावना
के प्रज्ज्वलित होते लावे की।
दिन को भी घोर निशा में बदलती
काली स्याह सुबह की।
जहाँ मनुष्य ही मनुष्य के
अंत का बनेगा कारण।
कुछ ऐसा करो जतन कि
तुम समाहित कर लो अपनी
गहरी खाइयों में, नफरत की
इस उबलती ज्वाला को।
युगों युगों से परत दर परत जमी
अपनी ऊँची हिम चोटियों के नीचे
कुचल डालो हर किस्म की हिंसा।
और बहा डालो अपने
अनन्त महासागरों के प्रवाह में
रक्तिम लहू की अशेष बहती नदियाँ,
धो डालो इनके
सभी निशान।
ताकि मानव जाति बची रहे
अगली पीढ़ी के जनने, बढ़ने तक,
कलंकित न हो कल
इसीलिए हे धरती माता,
हे वीरांगना! दर्द सहकर भी
तुम मुस्कुराओ,
क्योंकि माँ दर्द सहकर भी
धरे रहती है चट्टान सा धैर्य,
और पुष्प की मुस्कुराहट को
धारण करती है,
अपनी ममतामयी अधरों पर ।
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तुम्हारे आ जाने से
तुम्हारे आ जाने से
कुछ भी नहीं बदला,
दिन वैसे ही निकलता है
सूरज के आने के साथ,
वैसे ही रात भी दिन
ढलने के बाद होती है,
दुपहरी वैसे ही अब भी
कानों में मेरे सांय- सांय करती है।
गली के नुक्कड़ पर चार लोग बैठकर
बातें करते हैं
सभ्यता, असभ्यता की
देश और समाज की,
मिल जाते हैं आते जाते
कम वक्त में भी
धर्म जाति का महिमा मंडन करते हुए लोग,
आँकड़े बनते बिगड़ते हैं
गरीबी, भुखमरी से बढ़ती मृत्यदर के,
निर्धन की लाचारी, अमीर की बेपरवाही,
सब वैसा ही है,
तुम्हारे आने से
कुछ बदला तो नहीं
कोयल अब भी कम गाती है
गौरैया अब भी कम आती है
आँगन में,
बस शामें कुछ
अधिक सुरमयी हो गयीं हैं
जहाँ छत पर बीतती शाम के साथ- साथ मैं
तुम्हारे गली से गुजरने का इंतज़ार करती हूँ।
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बुढ़िया बच्ची
वो जब उम्र का एक पड़ाव पार करती है
कभी बुढ़िया, कभी बच्ची सी लगती है,
लकीरों की लयात्मकता एक आलेखन सा बनाती है,
चेहरे पे सिलवटें जब घनी- घनी सी पड़ती हैं।
उम्र जब बढ़ती है, तजुर्बा बढ़ता है साथ-साथ,
सिकुड़ती चमड़ी के पीछे
एक उन्मुक्त नदी बहती है।
छुपाती फिरती है जो आँखों में
चमकते मोतियों को,
पलकों की सीपियों में,
सहेजकर रखती है
धुँधली पड़ती याद्दाश्त में,
हर अनमोल स्मृति, हर पल को
बिखरने नहीं देती श्रृंखला स्मृतियों की।
वो अब पहले से ज्यादा
शांत, धीर, गंभीर नजर आती है
बहता हुआ झरना आखिर
एक विशाल नदी बन जाती है।
वो ठीक वैसे ही संभालती है
अब उंगलियाँ पोते पोतियों की
जैसे कभी गुड़िया, गुड्डा संभालती थी।
दौड़ती है, हाँफती है, खाँसते हुए
नन्हे कदमों का पीछा
ठीक वैसे ही करती है,
जैसे के पकड़ती थी तितलियाँ
रंग- बिरंगी तो कहीं रुई के फूल।
बेटे से हुई झड़प और
बहु की कहासुनी पर वो रो देती है,
जैसे फूट पड़ती थी
टूट जाने पर कोई अजीज़ खिलौना।
बालों में बिखरती चाँदनी में भी
वो बच्चों को परी सी लगती है,
उम्र के इस पड़ाव पर भी वो नई सी लगती है।
किताब के आखिरी पन्ने को भी
वो सुनहला सा कर जाती है,
बच्चों की यादों में
बरबस बिखर सी जाती है ।
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याद है आज भी
आज भी याद है वो
आलू का पराठा,
जो बनाया था तुमने अपने हाँथो से
और भरा था टिफिन को तब तक
जब तक कि जरा भी जगह खाली न रह जाए।
कुछ उसी तरह भर दिया है तुमने
अपने अहसासों से मेरे मन को
कि इसमें कोई कोना खाली नहीं मिलता,
मन भरा- भरा सा रहता है,
और आँखें भारी
जो उमड़ना चाहती हैं,
बरसना चाहती हैं।
यद्यपि अनुपस्थिति तुम्हारी
बरबस तुम्हारी उपस्थिति का भान कराती है,
परंतु अप्रत्यक्ष रूप से मुझमें रहकर भी
तुम्हें सामने न पा सकने की टीस
इतनी असह्य क्यूँ है
तुम्हारी अनुपस्थिति
इतनी दूभर क्यूँ है।
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सियासत देखी है
सियासत देखी है संसद में,
घरों में, मैदानों में,
तिजारत देखी है
अपनों में, रिश्तों में, अफसानों में।
भाई चारा, दोस्ती देखी नहीं कहीं अब
ऊँची छतों और दालानों में।
सुलगती साँसें,
समूल बर्फ से जमते कलेजे देखे हैं
लोगों में, धर्म के ठेकेदारों में।
फुर्सत की घड़ी देखी नहीं
सिवाय माँ की गोद, बहन की लोरी के,
टूटता शीशा देखा है
देखा नहीं दरपन कहीं
जो दिखा सके अक्स
कि क्या है सही
और क्या नहीं,
फूल कहीं देखा नहीं
नफरत के कब्रिस्तानों में।
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हँस रहा झूठ
हँस रहा झूठ
फल फूल रहा
हो रहा नतमस्तक
अनभिज्ञ, भोला समाज
झूम रहा अन्याय का दानव
प्यासा है जो सच्चाई के रक्त का
भ्रष्टाचार, धन लोलुपता का बिछा जाल
धू- धू कर जलती आत्माएँ
विछिन्न, छिन्न- भिन्न लाशें
काली रातें और काले दिन
सत्य तुम अदृश्य कहाँ हो
मानवता के बचने का
बस तुम ही तुम एक साधन हो
दृढ़ता, धैर्य और अनुशासन को
किये हुए धारण
हटा अपने ऊपर के सभी बाधायें
और आवरण तुम आ जाओ
और डट जाओ मैदानों में
दो तुम खदेड़ असत्य को अब
तुम नष्ट करो अब हिंसा को।
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