परिचर्चाः- भ्रष्टाचार और नैतिकता शशांक मिश्र भारती भ्रष्टाचार आज एक विकराल समस्या के रूप में व्याप्त है। सामान्य जनम...
परिचर्चाः-
भ्रष्टाचार और नैतिकता
शशांक मिश्र भारती
भ्रष्टाचार आज एक विकराल समस्या के रूप में व्याप्त है। सामान्य जनमानस से लेकर समाज राष्ट्र अपितु सम्पूर्ण विश्व इससे ग्रसित है। आदर्श नैतिकता का ह्नास ही भ्रष्टाचार का कारण है। आदर्श नैतिकता की उपेक्षा कर अर्थ के लिए अनैतिक कृत्यों का अपनाना है। उनको अधिकाधिक प्रश्रय दे अहं को धारण करना है। ऐसे विशद् विषय भ्रष्टाचार और नैतिकता पर कतिपय बुद्धिजीवियों के विचार परिचर्चा के रूप में मैंने साल 1997 में आमंत्रित किए थे। जो इसबार लाकडाउन में पुस्तकालय व्यवस्थित करते समय हाथ लग गए यहां प्रस्तुत हैं :-
श्रीमती सीता शर्मा 43 राजेन्द्र नगर जालंधर पंजाब
नैतिकता का अभाव भ्रष्टाचार उत्पन्न करता है।भ्रष्टाचार को मूल से समाप्त करने के लिए मानव चरित्र को नैतिकता की स्वाद देनी होगी ताकि हष्ट पुष्ट सुदृढ़ एवं स्वस्थ बन सके। स्वस्थ चरित्र में भ्रष्टाचार का भाव धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। वह अपने अधिकार कर्तव्य इन्द्रिय संयम उत्तरदायित्व का ज्ञान प्राप्त कर आवश्यक हो जाता है। सदाचार की विपरीत शब्द ही भ्रष्टाचार है।
भ्रष्टाचार कमजोर चरित्र अविकसित मन के कारण पैदा होता है। इसका क्षेत्र धनलोभ नहीं, अन्ततः प्रभाव आलस्य तुच्छ स्वार्थ सिद्धि परिवार पोषण समय का सदुपयोग अन्याय शोषण वृत्ति आदि भी है।
इसके उन्मूलन का प्रयास अगली पीढ़ी से करना होगा। संस्कार संवेदनशीलता करूणा जागृति सत्साहित्य विचार वातावरण देना पड़ेगा। अति भौतिकता धनवृद्धि ऐश्वर्य विलास टी0वी0 श्रोताओं के हिंसक विलासीजीवन दोषपूर्ण प्रचलन से बचाकर रखना होगा। एक अत्यन्त कठिन कार्य वर्तमान पीढ़ी को करना होगा।
डा. अनुपम 121 बेसमेंट नैनीतील उत्तराखण्ड।
भ्रष्टाचार पर महास्तम्भ लिखा जा सकता है बशर्ते कि उस पर काई गौर करने वाला हो। भ्रष्ट का अर्थ होता है बिगड़ा हुआ या दूषित। जब भ्रष्टाचार की चर्चा चलती है तो लोगों का ध्यान आर्थिक भ्रष्टाचार पर केन्द्रित हो जाता है जबकि प्रशासनिक भ्रष्टाचार इससे भी अधिक गम्भीर होते हैं।भ्रष्टाचार के कारण निम्न हैं :-
01 मामलों के निस्तारण में अनावश्यक विलम्ब
02 भ्रष्टाचार के आरोपी अधिकारी द्वारा सरकारी पैसे से मुकदमों का लड़ा जाना और हारने पर कोई दण्ड न मिलना।
03 मन्त्रियों द्वारा पोस्ट आफिस की तरह काम करना।
04 आयोजित शिक्षा पद्धति और जीवन शैली
05 वेतन अनुमानता
06 विदेशी कंपनियों का अनावश्यक विस्तार
07 विलम्बित न्याय प्रणाली
08 भ्रष्टाचारियों के प्रति जनता की उदासीनता
09 अवैधता को बढ़ावा देने वाली जातिवादी नीति को समर्थन
10 विदेशी ऋणों का बोझ।
नैतिक का अर्थ होता है नीति युक्त। नीति ढुलमुल नहीं जनता के प्रति सम्मान सूचक होनी चाहिए। भ्रष्टाचार का निवारण निम्न उपायों से किया जा सकता हैः-
01 सशक्त एवं त्वरित न्याय प्रणाली की स्थापना
02 प्रशासनिक स्तर पर स्मार्ट होकर मामलों का निस्तारण।
03 जल विद्युत आवास और चिकित्सा जैसी जीवनोपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति न करने वाली शिकायतों का तीन माह में निस्तारण।
04 भ्रष्ट राजनीतिज्ञों को दस साल के लिए राजनैतिक गतिविधियों से निषेध और भ्रष्ट अफसरों की बर्खास्तगी।
05 पुलिस के निरकुंश होने पर प्रतिबंध और सी.बी. आई. तक जनता की पहुंच होने का प्रावधान।
07 वेतन और अधिकारी में समानता का प्रावधान।
07 हर स्तर पर सेकेंड लाइन आँफ विजिलेंस का प्रावधान।
08 दल बदलुओं को अयोग्य घोषित किया जाना।
09 मन्त्रियों को शिक्षित और विभागीय जानकारी से पोषित होना
10 आई.ए. एस. को नागरिक माना जाना।
11 ठेकेदारी प्रथा की समाप्ति।
यदि जन मानव दृढ़ प्रतिज्ञ हो तो भ्रष्टाचार समाप्त करना कोई मुश्किल काम नहीं है।
डा. रामसनेही शर्मा यायावर तिलक नगर बाईपास रोड फिरोजाबाद-5 उ.प्र.
मानव जैसे जैसे सभ्य होता गया है। उसने सदाचार के साथ-साथ भ्रष्टाचार को भी जन्म दिया है। आदिकवि वाल्मीकि के राम चित्रकूट में स्वंय को मनाने आये भरत की कुशलक्षेम पूछने के बहाने उन्हें उपदेश देते हैं। वे यह भी पूंछते हैं नर श्रेष्ठ जो चोरी में पकड़ा गया गया हासे जिसे किसी ने चोरी करते देखा हो। पूछताछ से भी जिसके चोर होने का प्रमाण मिल गया हो तथा जिसके निगाह और भी बहुत प्रभाव में ऐसे चोर को भी तुम्हारे राज्य में धन के लालच में छोड़ तो नहीं दिया जाता है। वे यह भी पूछते हैं कि जब धनी और गरीब में विवाद हो तो तुम्हारे राज्य में निर्धन को न्याय मिलता है या नहीं। क्या राम का यह कथन प्रमाणित नहीं करता कि कलियुग में मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी भ्रष्टाचार की आशंका से मुक्त नहीं थे। उन्हें या राज्य कर्मचारियों में उसकीआशंका पराधीन किये रहती थी। एक विशेष बात यह थी कि उसकी आशंका केवल राज्य कर्मचारियों में थी। राजा उससे मुक्त था। राजा केवल उन पर अंकुश ही नहीं रखता था, अपने आचरण से उनके सामने सदाचार का आदर्श भी प्रस्तुत करता था, जबकि आज की स्थिति यह है कि राज्य के उच्च पदों पर आसीन और जिनपर सदाचार का आदर्श प्रस्तुत करने का जिम्मा है वे ही भ्रष्टाचार के आदर्श प्रस्तुत करते हैं। फलस्वरूप् भ्रष्टाचार की वैतरणी ऊपर से नीचे तक सबको भिगोये रही है। इससे हुआ यह है कि पहले भ्रष्टाचार को सार्वजनिक मान्यता मिल गयी है। उसके बाद जनता नेताओं का उदाहरण देकर अपने भ्रष्टाचार को सही प्रमाणित करने में लगी है।
अब आवश्यकता यह है कि आदर्श चरित के कुछ लोग अपने आचरण से आदर्श प्रस्तुत करें। मूल्यों के पुर्नस्थापन का प्रयास हो। राजनीति के अंकुश को कम करके न्यायपालिका तथा प्रशासन को अधिक स्वायत्तता दी जाये। मीडिया अपने दायित्वों को पूरा करके सदाचार का पूरा-पूरा साथ दे और भ्रष्टाचार को कठोरता पूर्वक दण्डित किया जाए। नैतिकता विहीन समाज तो आदिम समाज होगा। इसलिए अगर मानवता को बचाना है तो भ्रष्टाचार का उन्मूलन कर नैतिकता को लाना ही होगा। नहीं तो हम विवश आंखों से एक और महाप्रलय को देखने को आश्वस्त होंगे।
डा. स्वर्णकिरण पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हि.वि. किसान कालेज सोहसराय नालन्दा बिहार।
भ्रष्टाचार आज जीवन एवं युग के लिए जैसे जरूरी बन गया है। हम चाहकर भी अपने को इससे मुक्त नहीं कर पाते। कारण इसके मूल में या तो गतानुगतिकता का भाव है या नैतिकता के बोध का अभाव। जहां तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः अर्थात् त्याग पूर्वक भोग करो दयाभाव है ईशावास्यमिदं सर्वम् अर्थात् सम्पूर्ण संसार ईश्वर का आवास्य फैलाव अथवा वास स्थान है का ज्ञान है। स्व की तुलना में स्वेतर पर ध्यान दें। वहां भ्रष्टाचार भ्रष्ट आचरण की कल्पना स्वाभाविक है। पर जहां भौतिक साधन पर ध्यान है। सर्वे गुणाः कांचनामाश्रयन्ति अर्थात् सभी गुण कंचन ऐश्वर्य धन का अनुसरण करते हैं पर दृष्टि केन्द्रित करते हैं यर्थाथ को अधिक महत्व दिया जाता है वहां नैतिकता की कल्पना नहीं की जा सकती। नैतिकता समष्टिपरक धर्म की दृष्टि क्या है अर्थात् स्थापित रूप में धर्म है व्यक्ति क्रम में वही नीति है। कहा गया है कि धर्मोंरक्षति रक्षितः। अर्थात् धर्म को जो बचाता है धर्म उसको बचाता है। आज धर्म पर ध्यान कम अधर्म पर अधिक है हिंसा बलात्कार लूटमार आदि में हम लीन हैं। पैसा और गुण्डागर्दी के सहारे चुनाव जीतते हैं। लोगों को हराते हैं। नेता बनकर भी नेता का धर्म नहीं निभाते। न्याय पैसे पर खरीदा खाया बेचा जाता है। ऐसे में व्यक्ति समाज एवं राष्ट्र का स्खलन अवश्यंभावी है जो बेचारे निर्धन हैं तबाह हैं जो धनवान हैं अपना उल्लू सीधा करवाने में लगे हैं। नैतिकता स्वंय डर कर भाग गयी है या उसको निर्मम काल ने भगा दिया है। अकबर इलाहाबादी की शब्दावली में कहा जाता है जिससे रुपया मिले वही काम करो अथवा नजीर बनारसी की शब्दावली में पैसा रंग रूप है पैसा ही माल है।
इस कारण भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलना स्वाभाविक है। हम यजुर्वेद का मन्त्र तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु अर्थात् मेरे हमारे मन के संकल्प शुभ एवं कल्याणकारी के प्रति अब उदासीन हैं और अनैतिक जीवन यापन को महत्व देते हैं। धर्म को ढकोसला समझते हैं। पूजन अर्चन आदि को ढोंग अतः भ्रष्टाचारी हैं। ऊर्ध्वगामी बनने के बजाय अधोगामी बन जाते हैं।
श्री विजय चितौरी घूरपुर इलाहाबाद 211003 उत्तर प्रदेश
भ्रष्टाचार और नैतिकता पर विचार व्यक्त करने से पूर्व मुझे बापू की एक पंक्ति याद आ रही है। बापू ने कहा था कि जब भी आपको अपने किसी काम के उचित अनुचित होने के सम्बन्ध में असमंजस पैदा हो। आप अपने सामने भारत के एक दीन हीन आदमी को लाइए और विचार कीजिए कि आप जो काम करने जा रहे हैं उससे उस आदमी का कुछ फायदा होगा ? बापू ने कहा था कि मात्र इतना करने से मन का सारा असमंजस तुरन्त दूर हो जायेगा।
भ्रष्टाचार और नैतिकता पर विचार करने के लिए भी बापू के उक्त विचार को मापदंड अपनाया जाना चाहिए। भ्रष्टाचार और नैतिकता दोनों ऐसे शब्द हैं जिनकी परिभाषा और जिनका पैमाना देशकाल के हिसाब से बदलता रहता है। अपने ही देश में विश्वेश्वरैया जैसे इंजीनियर हुए हैं जो पुल बनाते समय जब क्षेत्र में होते थे तब रात में काम करते समय दो तरह की मोमबत्ती का प्रयोग करते थे। एक सरकारी काम करने के लिए और दूसरी व्यक्तिगत चिट्ठी पत्री के लिए अपनी व्यक्तिगत माममबत्ती।आज कोई इंजीनियर सरकारी जीप से बीबी बच्चों को पिकनिक पर ले जाता है तो उसे न तो समाज और भ्रष्टाचार मानता है और न खुद वह इंजीनियर क्योंकि आज इतने बड़े बड़े अरबों-खरबों के घोटाले हो रहे हैं कि छोटे-छोटे भ्रष्टाचार शिष्टाचार में बदल गये हैं।
लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि पतन की शुरुआत बहुत छोटे से स्तर से ही होती है। अगर बड़ा इंजीनियर सरकारी जीप से बीबी बच्चों को पिकनिक कराना भ्रष्टाचार नहीं मानता तो मातहत छोटा इंजीनियर हजार रूपये जेब में रख लेना भ्रष्टाचार नहीं मानेगा। दरअसल आज समाज में फैला भ्रष्टाचार का व्यापक स्वरूप ऊपर से ही नीचे तक आया है, लेकिन सुधार की प्रक्रिया ऊपर से नहीं अपितु नीचे से शुरू होगी लेखक पत्रकार विचारक समाजसुधारकों से ही अब उम्मीद की जा सकती है कि देश में ऐसी स्थिति फैलाएं कि जनता स्वतः भ्रष्टाचारियों के खिलाफ उठ खड़ी हो।
शशांक मिश्र भारती
संपादक देवसुधा
हिन्दी सदन बड़ागांव शाहजहांपुर 242401
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