कहां खो गया मेरा गांव नारायण शबरी के प्रो. अश्विनी केशरवानी पिछले दिनों मुझे नवा-पानी खाने मेरे गांव शिवरीनारायण जाना हुआ। यू ंतो मुझे जाने ...
कहां खो गया मेरा गांव
नारायण शबरी के
प्रो. अश्विनी केशरवानी
पिछले दिनों मुझे नवा-पानी खाने मेरे गांव शिवरीनारायण जाना हुआ। यू ंतो मुझे जाने का मौका मिलते ही रहता है लेकिन इस बार मुझे अपने गांव को घूमने-देखने का मौका मिला। कुछ बचपन के साथी भी मिले और बीते दिनों की याद आ गयी। आज मुझे लोगों से अपनापन नहीं बल्कि एक औपचारिकता मिली। आज उन दिनों के लोग बहुत कम मिले लेकिन उनके बच्चे उनके व्यापार को सम्हाल जयर लिये हैं जो मुझे नहीं जानते। मेरा गांव आज नगर पंचायत हो गया है। सत्ता पक्ष के लोग अध्यक्ष और पार्शद हैं इसलिए राशि की कमी नहीं है। मुख्य बाजार सुना हो गया, साप्ताहिक बाजार बंद हो गया, महानदी में शबरी पुल बन गया है। किसी जमाने में मठ का फुलवारी जहां फल खाने के लिए चौकीदार का डर लग था, आज उसके चारों ओर दुकानें बन गयी है और वहां बाम्बे मार्केट बन गया है। ये मार्केट आज प्रमुख बाजार बन गया है। लोगों के पास अब सायकिल नहीं बल्कि मोटर सायकिल और चार पहिया जीप-कार है। जिस आम के बीचे में आम के बौर की खुशबू होती थी और जहां छत्तीसगढ़ का नंबर एक साप्ताहिक मवेशी बाजार लगता था, जिससे ग्राम पंचायत को आमदनी होती थी, आज बंद हो गया है और वहां एक फोकटपारा बस गयी है, गार्डन बन गया है। नगर पंचायत अब नदी के किनारे घाट बनवाकर मनोरम गार्डन, सुलभ शौचालय आदि बनवाकर साफ सुथरा रखने का प्रयास कर रही है। मेला ग्राउंड में हेलीपेड और गार्डन बन गया है। अपने प्रदेश के मंत्री, अधिकारी लोग आते ही रहते हैं। पहले कोई मंत्री आता था तो पूरे गांव में तोरन सजाये जाते थे, नन्ही नन्ही बालिकाएं अपने सिर पर सुंदर सुंदर कलश लेकर उनका स्वागत करती थीं। तब बहुत अपनापन लगता था, आज कब कोई आकर चला जाये पता ही नहीं चलता। अब मंत्री-अधिकारी गांव में नहीं बल्कि कोई रिश्तेदार के घर बैठने आता है। पहले गांव में मनोरंजन के साधन नहीं थे, नवरात्रि में नाटक, रामलीला होता था। आज मुझे मेरे गांव में दुर्गा सबसे पहले बैठाने वाले और मनोरंजन के लिए नाटक आयोजित करने वाले पं. भुवनलाल शर्मा (लाल महराज) की याद आ गयी। उस नाटके के बहुत से पात्र याद आये, उनका अपनापन याद आया। मठ का ‘‘गादी चौरा पूजा‘‘ और विजियादशमी के अवसर पर महंत जी का जुलूस बाजे गाजे के साथ तलवारबाजी करते समी पूजन करने जाते हुए गांव के लोगों की भीड़ याद आया। आज सब कुछ बदल गया है। महंत जी अब गादी पूजा नहीं बल्कि गद्दी महोत्सव करते हैं। उनका जुलूस आज भी निकलता है लेकिन उसमें गांव के कुछ चाटुकार लोग ही होते हैं। रथयात्रा में जो श्रद्धा गांव के लोगों में होती थी, आज समाप्त हो गया है। इस दिन बेटियों को ससुराल से लाने और विदा करने का रिवाज था, इष्ट मित्रों और रिश्तेदारों के घर फल-मिठाई भिजवाने का रिवाज था। लेकिन आज ये सब कुछ पुरानी यादें हो गयी है। आज लोग केवल अपने परिवार और टी. वी. मोबाईल तक सीमित होकर रह गये हैं। आइये मेरे गांव की कहानी उन्हीं की जुबानी सुनें ....।
शबरीनारायण, जी हां ! लोग मुझे इसी नाम से जानते हैं। लोग मेरे नाम का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि जहां शबरी जैसी मीठे बेर चुनने वाली भीलनी और साक्षात् भगवान नारायण का वास हो, उस पतित पावन स्थान को ही शबरीनारायण कहते हैं। मेरी पवित्रता में चार चांद लगाती हुई चित्रोत्पलागंगा (महानदी) बहती है। वह गंगा के समान पवित्रता को समेटे हुए है। इसी महानता के कारण उसे महानदी कहते हैं। इससे मेरा मान बढ़ा है। कवि श्री धनसाय विदेह के मुख से यहां की महत्ता सुनिये -
धन्य धन्य शबरीनारायण महानदी के तीर।
जहां कभी पद कमल धरे थे रामलखन दो वीर।।
धन्य यहां की वसुन्धरा, धन्य यहां की धूल।
धन्य यहां की शबरीनारायण का दर्शन सुखमूल।।
महानदी की पवित्रता से इंकार कैसा ? लेकिन उसकी धार के साथ आ रहे रेत से नदी उथली होती जा रही है, दोनों तट पर मिट्टी के कटाव बढ़ने से नदी का पार चौड़ा होता जा रहा है और थोड़ी बरसात हुई नहीं कि पानी बस्ती के भीतर आ जाती है। एक बार, दो बार नहीं बल्कि कई बार महानदी में आई बाढ़ से प्रलय जैसा दृश्य उपस्थित होता रहा है और जन धन की हानि होती रही है। सन् 1885 में महानदी में आयी बाढ़ को देखकर ठाकुर जगमोहनसिंह जैसे कवि की लेखनी चलने लगी थी। उन्होंने एक खंडकाव्य ‘‘प्रलय‘‘ लिखा है। उसमें वे लिखते हैं :-
शबरीनारायण सुमिर भाखौ चरित रसाल।
महानदी बूड़ो बड़ो जेठ भयो विकराल।।
अस न भयो आगे कबहुं भाखै बूढ़े लोग।
जैसी वारिद वारि भरि ग्राम दियो करि सोग।।
शिव के जटा बिहारिनी बड़ी सिहावा आय।
गिरि कंदर मंदर सबै टोरि फोरि जल जाय।।
सन 1861 में जब बिलासपुर जिला बना तब बिलासपुर के अलावा दो अन्य तहसील क्रमशः शबरीनारायण और मुंगेली बनाया गया। इसके पूर्व न्यायालयीन कार्य क्रमशः खरौद और नवागढ़ (सम्प्रति बेमेतरा जिला) में होता था। अंग्रेजों ने तब यहां पुलिस थाना, मीडिल स्कूल आदि खुलवायी थी। तब मैं भोगहापारा और महंतपारा में बंटा था। तहसील कार्यालय पंडित यदुनाथ भोगहा के भवन में लगती थी। पंडित यदुनाथ भोगहा जी और माखन साव यहां आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट थे। विजयराघवगढ़ के राजकुमार ठाकुर जगमोहनसिंह यहां के तहसीलदार थे। वे सुप्रसिद्ध साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सहपाठी थे। ठाकुर साहब ने न केवल इस क्षेत्र के नदी-नालों, अमराई, वन पर्वतादिक को घूमा बल्कि उन्हें अपनी रचनाओं में समेटा भी है। इसके अलावा वे यहां के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर उन्हें लेखन की दिशा प्रदान की और इसे सांस्कृतिक के साथ ही साहित्यिक तीर्थ भी बनाया। उस समय पंडित अनंतराम पाण्डेय (रायगढ़), पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद पाण्डेय (बालपुर), पंडित मेदिनी प्रसाद पाण्डेय (परसापाली), वेदनाथ शर्मा (बलौदा), ज्वालाप्रसाद तिवारी (बिलाईगढ़), काव्योपाध्याय हीरालाल (धमतरी) आदि यहां काव्य साधना के लिए आया करते थे। यहां भी पंडित मालिकराम भोगहा, पंडित हीराराम त्रिपाठी, गोविन्द साव और पंडित शुकलाल पाण्डेय जैसे उच्च कोटि के साहित्यकार हुए। कुथुर के श्री बटुकसिंह चौहान और तुलसी के जन्मांध कवि नरसिंहदास वैष्णव ने इसे अपनी साधना स्थली बनायी। प्राचीन साहित्य में यह उल्लेख मिलता है कि ठाकुर जगमोहन सिंह ने यहां काशी के ‘‘भारतेन्दु मंडल’’ की तर्ज में ’’जगमोहन मंडल‘‘ की स्थापना की थी । वे यहां सन् 1882 से 1887 तक रहे और लगभग एक दर्जन पुस्तकें लिखकर प्रकाशित कराये। कुछ पुस्तकें अधूरी थी जिसे वे कूचविहार स्टेट में रहकर पूरा किया था। पंडित मुकुटधर पाण्डेय ने भी एक जगह लिखा है कि ’’मेरे पूज्याग्रज श्री पुरूषोत्तम पाण्डेय नाव की सवारी से शबरीनारायण जाया करते थे। वहां के पंडित मालिकराम भोगहा से उनकी अच्छी मित्रता थी। भोगहा जी भी अक्सर बालपुर जाया करते थे। आगे चलकर लोचनप्रसाद जी ने भोगहा जी को गुरूतुल्य मानकर उनकी लेखन शैली को अपनाया था।’’
अंग्रेज जमाने के खंडहर पुलिस थाने के बगल में नया भवन बन गया है। उस समय इस थाने का कार्य क्षेत्र बहुत विशाल था, आज उसमें कटौती कर दी गयी है..जगह जगह पुलिस थाना और चौकी बना दिया गया है। मीडिल स्कूल अब हाई स्कूल अवश्य हो गया है, संस्कृत पाठ शालाएं बंद हो गई हैं और कन्या हाई स्कूल, सरस्वती विद्यालय और कान्वेंट स्कूल आदि खुल गये हैं। स्कूलों की गिरती दीवारें, टूटते छप्पर, वहां का हाल सुनाने के लिए पर्याप्त है। स्कूलों में शिक्षक की कमी तो लगभग सभी स्कूलों में है, तो यहां कैसे नहीं होगी ? एक बार मुझे यहां के गौरवशाली स्कूल में जाने का सौभाग्य मिला और वहां की स्थिति देखकर वह बात याद आ गयी जिसमें कहा गया है कि ’’... स्वयं अभावों में रहकर बच्चों के अच्छी पढ़ाई की कल्पना कैसे की जा सकती है ?’’ यहां तो शिक्षक ही घंटी बजाता है, झाड़ू लगाता है और टूटी-फूटी कुर्सी में बैठता है। साहित्य समाज का दर्पण होता है, हमारे समाज का साहित्य आज ऐसी स्थिति में पहुंच गया है कि अगर हम समय रहते उचित कदम नहीं उठाते हैं तो हमारे समाज की विकृति हमारी नौनिहालों के भविष्य को नष्ट कर देगी ? अपनी गौरवशाली परंपरा को बनाये रखने में यहां का मठ सतत् प्रयत्न करता रहा है। जिस तरह से छत्तीसगढ़ के विभिन्न नगरों में स्कूल और कालेज खोलकर मठ सहायता करता रहा है, उसी तरह यहां भी महंत लालदास जी की स्मृति में एक हायर सेकंडरी स्कूल और कला एवं विज्ञान महाविद्यालय खोलकर शिक्षा के विस्तार में सराहनीय योगदान दिया है। इसके लिये वे बधाई के पात्र हैं।
महानदी अपनी विनाश लीला दिखाने में कभी पीछे नहीं रही। महानदी में एक गंगरेल बांध और दूसरा हीराकुंड बहुद्देशीय बांध बनाया गया है जिससे बाढ़ में कमी अवश्य आयी है। लेकिन सन् 1885 और 1889 में जो विनाशकारी बाढ़ आयी थी जिससे यहां के तहसील के कागजात बह गये और अंग्रेज अधिकारी शबरीनारायण को बाढ़ क्षेत्र घोषित करके पूरे गांव को खाली करने का आदेश दे दिये थे। मगर भगवान नारायण के भक्त इस गांव को खाली नहीं किये... बल्कि उनकी आस्था भगवान शबरीनारायण के उपर बढ़ गयी। तहसील मुख्यालय तो चाम्पा के जमींदार की सहमती से जांजगीर में स्थापित कर दिया गया। आज जांजगीर जिला मुख्यालय बन गया है लेकिन शबरीनारायण के हिस्से में ले देकर उप तहसील मुख्यालय ही आ सका है।
कितनी विडंबना है कि लोग मेरे नाम की पवित्रता और धार्मिक महत्ता का बखान करते अघाते नहीं है, लेकिन मेरे नाम का कोई पटवारी हल्का नहीं है। मेरा अस्तित्व महंतपारा और भोगहापारा के रूप में है। प्राचीन काल में यह क्षेत्र दंडकारण्य फिर दक्षिण कोसल और आज छत्तीसगढ़ का एक छोटा सा भाग है। जब दंडकारण्य के इस भाग को खरदूषण से मुक्ति मिल गयी तब यहां मतंग ऋषि का गुरूकुल आश्रम था जहां शबरी परिचारिका थी।... और शबरी को दर्शन देकर कृतार्थ करने भगवान श्रीराम और लक्ष्मण यहां आये थे। द्वापरयुग में यह एक घनघोर वन था। तब इस क्षेत्र को सिंदूरगिरि कहा जाता था। इसी क्षेत्र में एक कुंड के किनारे बांस पेड़ों के बीच भगवान श्रीकृष्ण के मृत शरीर को जरा नाम का शबर लाकर उसकी पूजा-अर्चना करने लगा। बाद में पुरी (उड़ीसा) में भव्य मंदिर का निर्माण कार्य पूरा हुआ तब आकाशवाणी हुई कि ’’दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में शिव गंगा के संगम के निकट बांस के घने वनों के बीच रखी मूर्ति को लाकर स्भापित करो..’’ आगे चलकर उस मूर्ति को पुरी में भगवान जगन्नाथ के रूप में स्थापित किया गया। उनके यहां ये चले जाने के बाद उनका नारायणी रूप यहां गुप्त रूप से विद्यमान है। तब से इसे ’’गुप्त धाम’’ होने का सौभाग्य मिला। उस पवित्र कुंड को ‘‘रोहिणी कुंड’’ कहा गया। इस कुंड को श्री बटुक सिंह चौहान ने एक धाम माना है जबकि सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा ने ‘‘शबरीनारायण माहात्म्य‘‘ में उसे मुक्ति धाम बताया हैं :-
रोहिणि कुंडहि स्पर्श करि चित्रोत्पल जल न्हाय।
योग भ्रश्ट योगी मुकति पावत पाप बहाय ।।
भगवान नारायण की पूजा-अर्चना में यहां का भोगहा परिवार करते आ रहे हैं। उनको ’’भोगहा’’ उपनाम भगवान को भोग लगाने के कारण ही मिला है। आगे चलकर भोगहापारा उनकी मालगुजारी हुई। पंडित बालाराम भोगहा जी ने माखन साव के परिवार को हसुवा से यहां बसाया। इस क्षेत्र के सभी राजा-महाराजा, जमींदार और मालगुजारों से भोगहा जी की मित्रता थी। उन्हीं के कहने पर सोनाखान के जमींदार रामाराय ने अपने बारापाली गांव को भगवान शबरीनारायण मंदिर में चढ़ा दिया था। यहां के सभी मंदिरों में भोग रागादि की व्यवस्था मठ से होती है। श्रद्धालुओं द्वारा जितने भी गांव मंदिर में चढ़ाए गये उनकी देखरेख भी मठ के द्वारा होती है। प्राचीन काल में शबरीनारायण नाथ सम्प्र्रदाय के तांत्रिकों गढ़ था। नारायण मंदिर के दक्षिणी द्वार पर दो छोटे मंदिर है, उसी में ’’कनफड़ा बाबा’’ की मूर्ति है जो नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों के गुरू थे। स्वामी दयाराम दास तीर्थाटन करते रत्नपुर आये। उनसे प्रभावित होकर रत्नपुर के राजा उन्हें शबरीनारायण क्षेत्र में निवास करने की प्रार्थना की और कुछ माफी गांव दिए। यहां आकर उन्होंने तांत्रिकों से शास्त्रार्थ किया और इस क्षेत्र को छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। उन्होंने ही यहां वैष्णव पीठ की स्थापना की। इस मठ के वे पहले महंत हुए। तब से आज तक 14 महंत एक से बढ़कर एक थे। वर्तमान में श्री रामसुन्दरदास यहां के महंत हैं। महंतों ने इस क्षेत्र में धर्म के प्रति जागृति पैदा की, अंचल की परम्पराओं को संरक्षित किया। उनकी महंतपारा मालगुजारी में माघ पूर्णिमा को मेला का आयोजन होता है, उसकी व्यवस्था करने में मठ का अविस्मरणीय योगदान रहा है। मेला लगाने की शुरूवात महंत गौतमदास जी ने की और महंत लालदास जी ने उसे व्यवस्थित कराया। भोगहा जी भी भोगहापारा में मेला लगाने की कोशिश की मगर उनको सफलता नहीं मिली। बहरहाल, यहां का मेला सुव्यवस्थित होता है। पहले यहां का मेला एक माह तक लगता था लेकिन अब 15 दिन तक लगता है। मान्यता है कि माघ पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ यहां विराजमान होते हैं। इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। कदाचित् इसी कारण यहां श्रद्धालुओं की अपार भीड़ होती है। यहां के मेला में ‘‘कुंभ‘‘ कहा जाता है।
हां तो मैं कह रहा था... पहले ले देकर महंतपारा और भोगहापारा को मिलाकर ग्राम पंचायत बनाया गया और सरपंच बने श्री तिजाऊप्रसाद केशरवानी। 11 वर्ष तक तन मन से उन्होंने नगर की सेवा की, कई शासकीय दफ्तर खुलवाये, स्कूल भवन, पंचायत भवन, भारतीय स्टैट बैंक भवन, बिजली आफिस भवन आदि का निर्माण करवाया। नदी के बढ़ते कटाव को रोकने के लिए तटबंध बनवाया, सब्जी बाजार लगवाया। मवेशी बाजार की वसूली का अधिकार जनपद पंचायत जांजगीर से प्राप्त कर पंचायत की आय में बृद्धि की। नदी में तरबूज और खरबूज की खेती करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया। मैं बचपन से ही यहां के बिजली खम्भों में ट्यूब लाइट और मरकरी देखते आ रहा हूं। ग्राम न्यायालय गांवों में आज लागू हुआ है जबकि शिवरीनारायण में बहुत पहले से ही लागू है।...न जाने कितने परिवारों को बिखरने और टूटने से बचाया है श्री तिजाऊप्रसाद ने, लेकिन आज अपने ही परिवार को बिखरने ने नहीं बचा पाये। इसके बाद श्री सुरेन्द्र तिवारी सरपंच बने। नया खून, नया जोश..लोगों को उनसे बहुत आशाएं थी। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हां, उसके बाद यह नगरपालिका बना और प्रथम नगरपालिका अघ्यक्ष बनने का सौभाग्य हासिल किया श्री विजयकुमार तिवारी ने। जन्म भर कांग्रेस की सेवा करने का पुरस्कार था यह। सन् 1980 में यहां भयानक बाढ़ आयी और खूब तबाही मचायी..कई स्वयं सेवी संस्थाएं आसूं पोंछने आये, कई नेता आये और अनेक घोषणाएं भी की मगर मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री अर्जुन सिंह ने महानदी में पुल निर्माण की जो घोषणा की थी वह अवश्य पूरी हो गयी है जिससे यहां विकास का मार्ग खुल गया है। यहां की जनता उनके प्रति आभारी है। तत्कालीन केंद्रीय मंत्री श्री विद्याचरण शुक्ल ने तब महानदी के कटाव को रोकने के लिए दोनों ओर तटबंध निर्माण कराने की घोषणा की थी, सर्वे भी कराया गया मगर आज तक यह पूरा नहीं हो सका। लेकिन नगर पंचायत के अध्यक्ष श्री संजय अग्रवाल की जागरूकता से छŸासगढ़ शासन से आर्थिक सहयोग प्राप्त कर महानदी के तट पर घाटों का निर्माण कराया है। गांव को नगर और उसे व्यवस्थित बनाने में लगे हुए हैं। नगर बनने से मेरे गांव का सादगीपन समाप्त हो गया और उसकी जगह भारी वाहनों का दबाब अवश्य बन गया है। सड़को में हमशा वाहनों की कतारें लगने से जाम की स्थिति निर्मित होती है।
....लेकिन व्यस्त सड़कें, गंदगी से भरी नालियां, बीमार अस्पताल, बनारस की याद दिलाते यहां के गंदगियों से भरे घाट और गलियां और आपस में लड़ते-मरते लोग आज की उपलब्धि है। श्री बल्दाऊ प्रसाद केशरवानी ने अपने दादा श्री प्रयागप्रसाद केशरवानी की स्मृति में उनके जीते जी एक चिकित्सालय का निर्माण कराया, उसमें श्री देवालाल केशरवानी ने अपने दादा स्व. श्री पचकौड़ साव की स्मृति में विद्युतिकरण कराया तो लोगों को अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग होने का अहसास हुआ। डॉ. एम. एम. गौर को लोग अब भूल गये हैं लेकिन उन्हीं की प्रेरणा और सहयोग से ऐसा संभव हुआ था। उनके बाद डॉ. बी. बी. पाठक, फिर डॉ. शुक्ला, डॉ. आहूजा, डॉ. बी. पी. चंद्रा, डॉ. वर्मा, डॉ. जितपुरे और डॉ शकुन्तला जितपुरे, डॉ. बोडे आये उसके बाद डॉ. उपाध्याय दम्पिति आये और चले गये उसके बाद यहां कोई डॉक्टर नहीं आया और आज यह नगर एक अद्द डॉक्टर के लिए तरस रहा है। अस्पताल तो बन गये हैं लेकिन डॉक्टर नहीं है। दानदाता की बात निकली है तो कहना अनुचित नहीं होगा कि लोगों ने दान के नाम पर नगर को बहुत छला है। श्री जगन्नाथ प्रसाद केशरवानी शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय और 20 बिस्तर वाला जुगरीबाई प्रसूती गृह का शिलान्यास क्रमशः श्री विद्याचरण शुक्ला और कु. बिमला वर्मा ने किया था। इस अस्पताल में ऑपरेशन थियेटर के निर्माण की घोषणा श्री गणेशप्रसाद नारनोलिया ने की थी। श्री परसराम केशरवानी और श्री तिजराम केशरवानी ने अपने बच्चों की स्मृति में एक एक कमरा पेइंग वार्ड के लिये बनवाने की घोषणा की थी। मगर घोषणाएं तो वाहवाही के लिए होती हैं, उसे पूरा करना जरूरी नहीं होता ? दानदाताओं के द्वारा दान में दिया गया भवन शासन लेती जरूर है मगर उसकी देखभाल नहीं करती और भवन जर्जर होकर गिर जाता है..। यही हाल यहां के अस्पताल का है, बगल में एक नया अस्पताल जरूर बन गया है लेकिन अभाव तो बना हुआ ही है। शासन आज ऐसे पब्लिक सेक्टर के शासकीय कार्यालयों को जनभागीदरी से संचालित करती जा रही है तो दान में दी गयी भवनों की सुरक्षा, उसकी देखभाल आदि की जिम्मेदारी शासन क्यों नहीं लेती। इससे लोगों में दान के प्रति झुकाव कम हुआ है। यही हाल स्कूल भवनों की है। एक तो 80 प्रतिशत स्कूलों के अपने भवन नहीं हैं और जहां है उसकी देखरेख नहीं हो पा रहा है। शासन की यह नीति कहां तक उचित है ? अस्पताल में न डॉक्टर है, न स्कूलों में शिक्षक...न जाने कैसा होगा मेरे गांव का भविष्य ?
भगवान नारायण के अनेक रूप जैसे केशवनारायण, लक्ष्मीनारायण, राधाकृष्ण, जगन्नाथ के मंदिर यहां हैं। इसी प्रकार औघड़ दानी शिव के अनेक रूप जैसे महेश्वरनाथ, चंद्रचूड़ महादेव, श्रीराम लक्ष्मण जानकी मंदिर, मां अन्नपूर्णा मंदिर, मां काली मंदिर आदि अन्यान्य मंदिर दर्शनीय है। महानदी का मुहाना बड़ा मनोरम है। छत्तीसगढ़ शासन शिवरीनारायण को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का निर्णय लिया है जिसके लिए वह बधाई के पात्र हैं। यहां की जनता उनके प्रति आभारी है। मेला के अवसर पर सारे जगत को जगन्नाथ धाम का दर्शन कराने और मोक्ष देने वाला मेरा यह नगर है। यहां संत और सज्जन लोग रहते हैं और सदा हरि का गुणगान करते हैं। तभी तो कवि हीराराम त्रिपाठी गाते हैं :-
होत सदा हरिनाम उच्चारण रामायण नित गान करै।
अति निर्मल गंग तरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरै।।
शबरी बरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरै।
जहां जीव चारू बखान बसै सहज भवसिंधु अपार तरै।।
लेकिन क्या ऐसा यहां वास्तव में होता है ? व्यापारिक स्थल होने के कारण लोग अपने व्यापार में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें केवल अपना स्वार्थ ही नजर आता है। इस नगर को व्यापारिक स्थल के रूप में विकसित करने का श्रेय मठ और महंतों को जाता है। उन्होंने यहां के प्रमुख बाजार और मेला लगाने की दिशा में विशेष प्रयास किया। व्यापारियों को यहां बसाया, बसने के लिये उन्हें जमीनें दी और व्यावसायियों के लिये दुकानें बनवायी। नगरवासियों के मनोरंजन के लिये मठ-मंदिरों में पर्व और त्योहारों में विशेष पूजा-अर्चना, संत समागम, प्रवचन और यज्ञादि कराये, नाटकों, रामलीला, रासलीला आदि का मंचन की व्यवस्था करायी। उन्हीं के प्रयास से आज यह नगर ‘‘टेम्पल सिटी‘‘ के रूप में पर्यटन नक्शे में आने जा रहा है। पर्यटन नगर की अपनी विशेषताएं होती हैं। पर्यटन स्थलों में भ्रमण के लिये देश विदेश के लोग आते हैं, यहां भी आयेंगे। यहां उनके रूकने और मनोरंजन के साधन उपलब्ध होने चाहिये। इसके लिये हम सबको मिलकर प्रयास करना चाहिये। मठ और महंत के सहयोग को झूठलाया नहीं जा सकता। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता..तो क्या हमें तन, मन और धन से सहयोग नहीं करना चाहिये ? कुछ लोग क्षुद्र स्वार्थ के वशीभूत होकर यह कहने में नहीं चूकते कि आखिर मठ की सम्पत्ति में हमारे पूर्वजों योगदान है तो उसका उपभोग हम क्यों न करें..? लेकिन दान के भाग में लोभ कैसा ? गांव के लोगों को ऐसा सोचना ही नहीं चाहिये बल्कि सामूहिक हित में अपने स्वार्थ का त्याग कर देना चाहिये ताकि नगर का समुचित विकास हो और हम पंडित हीराराम त्रिपाठी के अनुरूप बनकर मोक्ष के भागी बने, इसी में हमारी भलाई भी है।
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राघव, डागा कालोनी,
चांपा-495671 (छ.ग.) प्रो. अश्विनी केशरवानी
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