(व्यंग्य) तुम नहीं समझोगे --------------------- मैं अपने कमरे में बैठा, अपने कुंद दिमाग को धार लगा रहा था । कोरोना के कहर के विषय कुछ लिखने ...
(व्यंग्य)
तुम नहीं समझोगे
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मैं अपने कमरे में बैठा, अपने कुंद दिमाग को धार लगा रहा था । कोरोना के कहर के विषय कुछ लिखने की सोच रहा था । तभी 'ट्रिन ट्रिन ट्रिन ट्रिन' दरवाजे की डोर बेल घनघना उठी । मैं जब तक गेट पर पहुंचा, तब तक चार-पांच बार घंटी घनघनाकर बज गई । मैंने गेट खोला। सामने लतीचंद खड़े थे।
" नमस्कार ! कैसे हैं ?" मैंने पूछा ।
वह बोले -'' मत पूछो !''
''मगर हुआ क्या ?'' मैंने उन्हें सैनिटाइज किया।
''आम इंसान का जीना दूभर हो गया है।" वह कुर्सी सरका कर बैठ गए।
''पर बात क्या है ? बताओ तो सही ।'' मैंने उन्हें कुरेदा।
''क्यों देश में इतना तूफान मचा हुआ है ? तुमको कुछ पता ही नहीं है !''
''इसमें परेशान होने वाली क्या बात है ? यह तो पूरी दुनिया पर मुसीबत आई है । जो अपने घर के अंदर रहेगा वो मुसीबत से बचेगा। कोरोना वायरस बहुत घमंडी है । वह घर के भीतर आकर हमला नहीं करता , इसलिए घर के अंदर डरने की जरूरत ही नहीं।'' मैंने उन्हें समझाने की भरसक कोशिश की, पर वे कहां मानने वाले थे ?
बोले- ''क्या तुम जानते नहीं , सबसे ज्यादा परेशानी आम आदमी को होती तो ?''
''हां, यह तो है।'' मैंने हामी भरी ।
''क्या तुम आम आदमी नहीं हो ?'' लतीचंद ने गोली की तरह सवाल दागा ।
मैं अचकचा गया -''हूं भाई । मैं भी आम इंसान हूं ।''
''आम इंसान को आम चीज ही नहीं मिल रही है । है कि नहीं ।'' उन्होंने जबर्दस्ती हामी भरवाने की कोशिश की।
''मगर जरूरी सामग्री तो उपलब्ध हो रही है ।'' मेरे मुंह से निकला ।
'' कुछ नहीं मिल रहा है । सब दर-दर भटक रहे हैं। नेतागण अपने बेटे-बेटियों की शादी कर रहे हैं और हम सामान लेने भी नहीं निकल सकते।'' वे उत्तेजित हो गए। ''सिर्फ चूतिया बनाया जा रहा है सबको।''
"समरथ को नहि दोष गोसाईं। जिसकी लाठी उसकी भैंस। यही सच्चाई है।"
"पर क्यों ? आम इंसान क्यों मोहताज है?"
''मगर खाने-पीने की तो सामग्री उपलब्ध हो रही है।"
" क्या बात करते हो ? खाने और पीने को ही तरस रहे हैं सब ।" उन्होंने अपनी टोपी सुधारते हुए कहा -"यह सरकार की चाल है।"
"कैसी चाल ?" खुलकर बताइए।
"सरकार कह रही है,जरूरी सामान उपलब्ध है, किंतु मिलता कुछ नहीं ।"
"लेकिन सरकार तो बांट रही है । रोज समाचार में दिखाया जाता है।" मैंने अपनी बात पुख्ता करने के लिए समाचार का सहारा लिया।
"वही तो मैं कह रहा हूं, केवल समाचार में दिखाया जाता है। सरकार के सारे दावे झूठे हैं। आम आदमी भूखा मर रहा है। राजनीति को चमकाने के लिए सारा खेल हो रहा है। घर से निकलने वालों को सड़क पर पुलिस द्वारा डंडा मारा जाता है । अंदर रहने पर वह भूखा मरता है । हर तरह से मरन तो आम इंसान की ही है।"
"खैर ये तो है, पर किया भी क्या जा सकता है ? जाहि विधि, राखे राम, ताहि विधि रहिए । सीताराम, सीताराम, सीताराम कहिए।" मैंने बात टालने की गरज से कहा।
"तुम कुछ करते क्यों नहीं ? लेखक क्या नाम के हो ?"
"तो मैं क्या करूं?" मैंने उनसे पूछा।
"कुछ ऐसा लिखो, कि सरकार मजबूर हो जाए।" उन्होंने हंसते हुए दांत निपोरे।
" किसके लिए ।" मैंने आश्चर्यचकित होकर पूछा।
"बेहद जरूरी सामग्री देने के लिए।" नौकर चाय मेज पर रख कर चला गया । हम दोनों पीने लगे।
"कौन सी जरूरी सामग्री।" मैंने जिज्ञासा प्रकट की।
"वही जिसके लिए सब बेचैन हैं।"
"सब तो आजादी के लिए बेचैन हैं, क्योंकि घर में बैठे-बैठे सबका दम घुट रहा है।" मैंने कहा-"घर जेल बन गया है।"
"तुम आम इंसान की जरूरी चीज नहीं जानते, जिसका सेवन नब्बे प्रतिशत लोग दवा की तरह करते हैं।"
"ऐसी कौन सी सामग्री है ?" मैं मुस्कुराया।
"जिसके बिना सांसे रुक जाती हैं ।" उन्होंने हाथ दबा कर कहा।
"अच्छा समझ गया । हवा, हवा के बिना सांस रुक सकती है। किंतु आजकल तो वायु भी शुद्ध हो गई है। प्रदूषण कम फैल रहा है । गाड़ियों का आवागमन बंद है । पर्यावरण शुद्ध हो गया है ।" मैंने अपने ज्ञान का बखान किया ।
"किंतु संजीवनी नहीं मिल रही है।" उन्होंने बीच में ही मुझे टोका-"इसके बिना आदमी व्याकुलता के साथ अाकुला रहा है और सबसे ज्यादा सरकार को टैक्स भी इसी से मिलता है।" उन्होंने मेज पर हाथ रखते हुए कहा।
"संजीवनी बूटी ।"
" हां" उन्होंने जेब से तंबाकू की पुड़िया निकाली।
"मैं समझा नहीं।"
"अरे बेवकूफचंद अभी भी नहीं समझे।" वे पुड़िया से तंबाकू निकालकर जोर-जोर रगड़ने लगे । "पान-मसाला, सिगरेट । और क्या ?"
"सिगरेट दारू कुछ दिनों के लिए छोड़ दीजिए । वैसे भी यह बुरी चीज है ।" मैंने उन्हें समझाया।
वे बोले -"अजीब इंसान हो यार । भला कोई अपनी आदत छोड़ सकता है ।"
"पर बुरी चीज को छोड़ने में बुराई क्या है ?" मैंने सलाह दी।
"कोई सांस लेना छोड़ सकता है ।" उन्होंने तंबाकू मुंह में दबा लिया।
"नहीं ।"
"क्या बिच्छू डंक मारना छोड़ सकता है।"
"नहीं।"
"क्या तुम लिखना छोड़ सकते हो।"
"नहीं।"
"फिर आदमी अपना नशा कैसे छोड़ सकता है? वह उसकी लत है।" उन्होंने मुस्कुरा कर कहा।
"पान-मसाले से नुकसान आप ही का है ।"
"तुम्हारे जैसे बेवकूफ लोग ही ऐसा मानते हैं। यह सरकार अपनी मनमानी कर रही है।" उन्होंने जोर देते हुए कहा।
"छोड़ो सरकार की बातें । और बाकी सब तो ठीक है।" मैंने पूछा।
"क्या कहूं बड़ी हालत खराब है ? नुक्कड़ तक जाने में डर लगता है। पुलिस के सायरन से ही थरथरी कांप जाती है ।" वह बोले-" परसों की ही बात है । मेरा बेटा कुत्ते को नुक्कड़ तक टहलाने गया था, कि अचानक पुलिस का सायरन बज उठा । वह जान बचाकर भागा । पर किस्मत खराब थी, धर लिया गया । कुत्ता तो भाग गया पर कमबख्तों ने लाठियों से उसकी हजामत बना दी । " वे रुआंसे हो गए।
"यह तो बहुत गलत हुआ । "मैंने उन्हें ढांढस बंधाया।
"अब तुम ही कुछ करो । सरकार की आंखें खोलो।"
मैंने जान बचाने के लिए कहा-"जी जरूर।"
"बड़े-बड़े लेखक कवि जब सरकार को सलाह देते हैं तो उस पर अमल होता है ।" उन्होंने कहा-"परसों मुरारी संजीवनी बूटी की तरह गुटखा ढूंढने निकला था। उसने किसी तरह पुड़िया खरीदी । तभी वहां एक पुलिस का आदमी आ गया और उसने दुकानदार से हजार रुपए जुर्माना वसूला । मुरारी को हड़का कर भगा दिया। उसकी पुड़िया छीन ली। क्या यह उचित है ?"
"नहीं, बिल्कुल नहीं।"
"इसलिए कहता हूं सरकार को सुझाव दो।"
"पर सरकार मेरा कहना क्यों मानेगी ?" मैंने कहा-"अब वह जमाना नहीं रहा।"
"जब धारदार कलम से धमाकेदार लिखोगे, तब सरकार घुटने टेकेगी । मीडिया की ताकत बहुत बड़ी ताकत होती है ।" उन्होंने मुझे जोश दिलाने का पूरा प्रयास किया।
मैंने मुंह बनाकर कहा- "ठीक है कोशिश करता हूं।"
"रहने दो, रहने दो । मैं समझ गया । तुम डरते हो।"
"नहीं-नहीं आपकी समस्या बहुत ही विकराल है । मैं पूरी तरह से आपकी समस्या को उजागर करने का प्रयास करूंगा। भले ही मुझे जेल हो जाए । बेहद जरूरी सामग्री गुटखा तंबाकू आदि .....।" मैंने उन्हें भरोसा दिलाया।
वे खड़े हो गए, "अच्छा यह बताओ, कभी तुमने पुलिस की लाठी खाई है।"
"नहीं।" मैंने कहा ।
"अच्छा,कभी तंबाकू,पान- मसाला, दारू या किसी भी प्रकार का नशा किया है।"
"जी नहीं ।"
"सकल पदारथ है जग माही ।
करमहीन नर पावत नाही ।।" वे बहुत तेज ठहाका मारकर हंसे, "तुलसीदास ने ठीक ही लिखा है।"
"क्या हुआ क्यों हंस पड़े ?"
"तुम नहीं समझोगे । बिना नशे के इंसान कुछ नहीं कर सकता ।" वे मुस्कुराए और चले गए। मैं आवाक उनके ठहाके का कारण ही सोचता रह गया । जब कुछ समझ न आया तो लतीचंद की बातों को कागज पर उतार दिया । अब आप ही सोच कर बताइए कि लतीचंद ने जाते समय ठहाका क्यों लगाया ?
***
जीवन-वृत्त
.नाम : राम नरेश 'उज्ज्वल'
पिता का नाम : श्री राम नरायन
विधा : कहानी, कविता, व्यंग्य, लेख, समीक्षा आदि
अनुभव : विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग पाँच सौ
रचनाओं का प्रकाशन
प्रकाशित पुस्तकें : 1-'चोट्टा'(राज्य संसाधन केन्द्र,उ0प्र0
द्वारा पुरस्कृत)
2-'अपाहिज़'(भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार से पुरस्कृत)
3-'घुँघरू बोला'(राज्य संसाधन केन्द्र,उ0प्र0 द्वारा पुरस्कृत)
4-'लम्बरदार'
5-'ठिगनू की मूँछ'
6- 'बिरजू की मुस्कान'
7-'बिश्वास के बंधन'
8- 'जनसंख्या एवं पर्यावरण'
सम्प्रति : 'पैदावार' मासिक में उप सम्पादक के पद पर कार्यरत
सम्पर्क : उज्ज्वल सदन, मुंशी खेड़ा, पो0- अमौसी हवाई अड्डा, लखनऊ-226009
ई-मेल : ujjwal226009@gmail.com
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