बांगला लोक साहित्य में नारी की छवि - डॉ॰ रानू मुखर्जी

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बांगला लोक साहित्य में नारी की छवि - डॉ॰ रानू मुखर्जी किसी देश के बांगमय में लोक साहित्य का प्रधान स्थान होता है। लोक साहित्य की परंपरा उतनी...

बांगला लोक साहित्य में नारी की छवि

- डॉ॰ रानू मुखर्जी

किसी देश के बांगमय में लोक साहित्य का प्रधान स्थान होता है। लोक साहित्य की परंपरा उतनी ही प्राचीन मानी जा सकती है जितनी कि मनुष्य जाति की है। जन संस्कृति का जैसा सच्चा तथा सजीव चित्रण लोक साहित्य में उपलब्ध होता है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। लोक साहित्य सर्वसाधारण लोक समाज की वह मौखिक एवं स्वाभाविक अभिव्यक्ति होती है जिसमें किसी भी अभ्यास एवं अध्ययन की अपेक्षा नहीं है। यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी पारंपरिक रूप में चलती रहती है। लोक और साहित्य दोनों ही अपने में एक महान परंपरा को सँजोए हुए है। लोक साहित्य सर्वदेशीय, सर्वकालीन और सर्वसम्मत स्वीकार किया गया है। इसकी परम्पराएँ मिटती नहीं, बल्कि; गत्यात्मक रहती है और सदैव आगे ही बढ़ती रहती है। इसलिए लोक साहित्य को “गतिशील” और “ऐतिहासिक” विज्ञान स्वीकार किया गया है। (जी॰ एल॰ गोमें – “फोकलोर ईज़ ए हिस्टोरिकल साइन्स” – अवधि का लोक साहित्य – सरोजनी रोहतगी पृ॰ 4)

लोक साहित्य में एक बात स्पष्ट है कि unwritten literature होना आवश्यक है अलिखित साहित्य ही लोक साहित्य है। अंग्रेजी में इसे oral literature कहा जाता है। विस्तार से कहें तो संस्कृति की जो सभी सृष्टि मुख्यतः मौखिक धारा को अनुसरण करती हुई अग्रसर होती है वही लोक साहित्य है। इसे लिखकर नहीं रचा जा सकता है। प्रथमावस्था में यह मौखिक रूप से प्रचारित होती है। निरक्षर समाज स्मृतिशक्ति के आधार पर ही प्रचार-प्रसार करते थे। परंतु लिखित होने पर इसकी विशिष्टता लुप्त होने की आशंका रहती है। विद्वानों का कहना है कि लिपिकार शिक्षित गवेषक (trained investigator) होना चाहिए अन्यथा अनभिज्ञ और असतर्क लेखक के द्वारा लिखा होने पर इसके विकृत होने की आशंका रहती हैं क्योकि इसके वैशिष्ठ के बारे में जानकार व्यक्ति ही इसे निपूर्ण और रसमय रूप दे सकता है।

बांगला देश के लोक साहित्य के संग्रह और प्रकाशन के इतिहास से एक दृष्टांत यहाँ प्रस्तुत किया जा सकता है – प्रसिद्ध “मैमनसिंह गीतिका” के संग्राहक स्वर्गीय चंद्रकुमार दे, मैमन सिंह जिला के उसी अंचल के निवासी थे जिस अंचल में ये गीतिकाएँ गाई जाती थी। उन्होने जिस रूप में इन गीतिकाओं को सुना था उन्हें उसी रूप में ही संग्रहित किया। उनकी भाषा भाव भंगिमा सभी से वे सुपरिचित थे। अतः गायक से सुनकर गीतिकाओं को लिखना उनके लिए असंभव नहीं था। अतः मुद्रित होने से ही लोक श्रुति (folk lore) का मूल्य ह्रास हो जाता यह हर जगह सही नहीं बैठता है। परंतु लोकमुख से लगातार घूमते रहने के कारण यह लगातार परिवर्तित होते हुए अग्रसर होते रहता है। जबकि लिपिबद्ध होते ही इसका लिखित रूप आदर्श बन जाता है। जैसे कि समग्र बंगाल और आसाम का विख्यात “मनसा मंगल” काहिनी के दृष्टांत को लिया जा सकता है। दोनों अंचल की इस कथा में कोई व्यतिक्रम नहीं है। अगर कुछ व्यतिक्रम दिखता है तो वह उसके बाह्य रूप में दिखाई देती है जिसकी उपेक्षा की जा सकती है। मूल वैसा का वैसा ही है। इंग्लैंड में भी जब तक Robin Hood Balled मौखिक रूप में प्रचलित था तब तक एक-एक अंचल में एक-एक रूप में सुना जाता था परंतु इसके लिखित रूप में आने के पश्चात इसके क्रम परिवर्तन की धारा अवरुद्ध हो गई। इसमें एक बात विशेष रूप से ध्यान देने के योग्य है कि यदि कोई प्रतिभावान व्यक्ति के द्वारा यह गाया गया हो तो इसका स्तर उन्नत भी हो जाता है।

लोक साहित्य का मूल धर्म है कि यह सजीव है, इसकी निरंतर प्रगति ही इसे सजीव रखती है। Folk song evolves gradually as it passes through the mind of different man and different generation. इसमें उपस्थित प्राणशक्ति के कारण ही यह अतीत को अतिक्रम करके वर्तमान मे भी अपना स्थान बनाए रखता है। इसके केंद्रीय भाव को बरकरार रखकर इसके बहिर्गत तथ्य तथा भाव भाषा सर्वदा ही युगानुरूप कर लिया जाता है। श्रोतवर्ग इसके परिवेश को सर्वदा अपने परिवेश के अनुसार पुनर्गठित कर लेते हैं। इसी प्रकार भाषा को भी अपने अनुसार सहज बना लेते हैं। अतः यह साहित्य सदा अपने परंपरा के प्रवाह में जीवित रहता है।

लोक साहित्य के विस्तार को यदि हम देखेंगे तो पाएंगे यह क्षेत्र व देश की सीमाओं की तरह बंधित नहीं होता, यह हर सीमाओं से परे स्थापित होता रहता है, इसके विस्तार का माध्यम मानव की यात्राओं से जुड़ा हुआ है। जब एक स्थल का मानव यात्रा करते हुए अन्यत्र जीवन बसर करने लगता है तो उससे जुड़ा साहित्य भी उसके साथ वहाँ स्थापित हो जाता है।

लोक साहित्य के प्रमुख चार प्रकार है: प्रथम लोक गीत, द्वितीय लोक गाथा, तृतीय लोक कथा, चतुर्थ लोक नाट्य। इसमें से लोक कथा और लोक गाथा सामान्य दृष्टि से देखें तो एक ही नजर आते हैं लेकिन दोनों में भेद हैं। लोक गाथा रसबद्ध काव्यात्मक गेय लोक साहित्य है जबकि लोक कथा स्थल व घटना पर आधारित साहित्य है, लोक गाथा का समाज पर मानसिक मनोरंजन व भक्ति के आधार पर प्रभाव पड़ता है उसी तरह लोक कथा का समाज पर घटना स्थल से लेकर घटना के पूरे तथ्यों पर विचारशील प्रभाव पड़ता है। लोक नाट्य में लोक साहित्य जैसा कि नाट्य शब्द से ही आभास हो जाता है कि यह रंगमंच से जुड़ा विषय है। इसमें लोक गाथा और कथा का मिश्रण रखकर लोक नाट्य व रंग मंच पर मंचित किया जाता है। लोक गीत में लोक साहित्य को जन जन तक हर भाषा विशेष का रस पहुँचने का सामर्थ है।

छड़ा (लोक गीत का एक प्रकार) बांगला लोक साहित्य में लोक गीत के अंतर्गत छड़ा का एक विशिष्ट स्थान है। यह एक मौखिक आवृति है। यह व्यक्ति या समाज द्वारा सचेत होकर रची जानीवाली सृष्टि नहीं हैं। अपितु स्वप्नदर्शी मन की अनायास सृष्टि है। क्योंकि यह जिन लोगों का साहित्य है उनकी रचना प्रक्रिया में बुद्धि विवेक और विचार की अपेक्षा रस मनोरंजन का महत्व अधिक होता है। मस्तिष्क की अपेक्षा हृदय की प्रधानता अधिक होती है। अतः हृदय से हृदय की सृष्टि को ग्रहण करने में उनको कोई द्विधा नाही होती है।

छड़ा की आवृत्ति विशेष रूप से स्त्रियाँ ही करती हैं जो अपने बच्चों के लिए घर परिवार के लिए आपसी सखी सहेलियों के साथ मनोरंजन के लिए इन छड़ाओं को रचती हैं और सुनाती हैं। इस मौखिक आवृत्ति में ताल सूर सब हैं पर वैचित्रहीन हैं।

अधिकांश छड़ाएँ बच्चों के लिए माताएँ गाती हैं। इसमें कोई कथा या कहानी नहीं होती है अगर कुछ होता है तो एक गीतात्मक चित्र बनाया जाता है जिसे बालमन आसानी से ग्रहण करता है और तृप्त होता है। इन छड़ाओं को माँ समय और अवस्थानुसार बढ़ाती जाती हैं।

शीशु के साथ छड़ा या मौखिक आवृति के संपर्क की बात करें तो “छड़ा” ही लोक साहित्य का प्राचीनतम रूप हैं और शिशु साहित्य ही प्राचीनतम विषय है ऐसा अनुमान करने में कोई गलती नहीं है क्योंकि शिशु ही परिणत बुद्धिशाली मानव का अग्रज है। माँ के द्वारा सुनाए गए छड़ा के माध्यम से वह बाह्य जगत को समझता है, जानता और परिचित होता है।

बच्चों को सुलाने के लिए माँ को सबसे अधिक समय व्यय करना पड़ता है। इसलिए “घुम पाड़ानी छड़ा” का महत्व सबसे अधिक है। माँ बच्चे को गोद में सुलाकर धीरे-धीरे झूले की तरह गोद को झुलाती है और थपकी देती रहती है। साथ ही लयात्मक स्वर में छड़ा सुनाने लगती है।

घुम पाडानी माँसी पिसि घुम दिए जेओ।

बाटा भोरे पान देवो, गाल भोरे खेओ॥

घुम आएरे घुम आएरे, घुमेर लता पाता।

दू दूओरे घुम जाए, दूटी मोगल पाता।।

नीदिया रानी को मौसी बुआ का दर्जा देकर अपने घर पर निमंत्रण देती है और बबुआ को नींद देने के बदले डब्बा भर भर पान देने का लालच देती है। बंगाल की संस्कृति और मेहमानबाजी की झलक भी मिलती है।

माँ बच्चो को दूध पिलाते वक्त भी परेशान होती। ग्लास भर-भर दूध पिलाना भी एक समस्या है माँ के लिए। झिनुक से भी दूध पीना नहीं चाहता हैं। गिरा देता हैं। (झिनुक एक प्रकार का चम्मच है जिससे बंगाल की माताएँ बच्चों को दूध पिलाती है) अतः माँ को छड़ा सुनाकर दूध पिलाना पड़ता है।

धन गेछे गो बेडाते। पाएर नुपूर हाराते॥

जागगे नुपूर हारिए। आबार देबों गड़िए॥

आएरे गोपाल घरे आय । आउटानों दूध जुड़िये जाए॥

माँ अपने बच्चे को गोपाल कहकर पुचकारती है और पुकारती है कि दूध ठंडा हो रहा है तुम्हारे पैरों के नुपूर खो गए हो तो कोई बात नहीं दूसरे बन जाएंगे।

बांकूड़ा जिले के बेलतोड़ गाँव से 1302 में बच्चों के लिए घूम पाडानी इस छड़ा को लोक मुख से संग्रह किया गया।

“छेले घूमोलो पाड़ा जुड़ोलो बोर्गी एलो देशे।

बुलबुली ते धान खेएछे खाजना देवो किसे?”

बर्गियों के हमलावाला विषय बांकूड़ा जिले की एक ऐतिहासिक घटना है। जनश्रुति द्वारा यह विषय आज भी वहाँ प्रचलित है। इसी से रस संग्रह करके संभवतः इस अंचल में इस मौखिक आवृत्ति की उत्पत्ति हुई है जिसे आज भी लोग गातें हैं।

“बोर्गी” डाकूओं के दल को कहा जाता था जिसका डर बताकर बच्चों को सुलाया जाता था।

स्थान परिवर्तन का सुंदर उदाहरण मिलता है यहाँ। 1309 में चट्टग्राम जिले में के कुछ छड़ा उपलब्ध है –

“मणि घुमाईल पाड़ा जुड़ाईल बर्गी एलो देशे।

गुलगुलिए धान खाईयाछे खाजना देवो किसे॥“

पाबना जिले में – “मणी घुमलों पाड़ा जुड़ालों बार्गी आलो देशे।

टिपाय धान खाईलों खाजना देवो किसे?”

बाकूड़ा से चट्टग्राम पात्रना तक का सफर तय करते-करते जो बदलाव आया है वह मौखिक छड़ा का एक सुंदर उदाहरण है। सभी में “बर्गी” है और “खाजना” (Tax) वाली बात की प्रधानता है जिसे गाँव की स्त्रियाँ ही एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंचाती हैं। संस्कृति को बचाए रखने का काम लोक साहित्य बड़ी निष्ठा के साथ करता है। कुछ समय पूर्व पूर्वबंग के विभिन्न अंचलों में जो गीतिकाएँ सुनी जाती थी आज वह बड़ी मुश्किल से सुनने में आते है। कुछ एक गीतिकाएं जो सूर प्रधान है लोकगीति के माध्यम से ही बचे हुए है। जिसका श्रेय माँ, मौसी आदि को जाता है जिन्होने छड़ा के माध्यम से इसे जीवित रखा। कुछ छड़ाएँ गीत के रूप में भी उपलब्ध है जो गाई जाती है।

“आम कटहल का बाग दूँगी छांव छांव में जाओगे।

चार चार कहार दूँगी कंधों पर जाओगे।

दो बाँदी दूँगी पाँव दबाएगीं। तेल लगाएगी॥“

यह छड़ा एक ऐंद्रजालिक चित्र उपस्थित करता है। अपने बच्चों के लिए महत्वाकांक्षी, ममतामयी माँ एक आदर्श नारी भी है। विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इन छड़ाओं को अपनी रचनाओं में महत्वपूर्ण स्थान दिया है। “शिशु देर छड़ा” नाम से अनेक मौखिक छड़ाओं को नवीन रूप देकर इनको एक नया आयाम दिया है।

शिशु को सुलाने में नारी ही दक्ष है। वही नारी निद्रा की अधिष्ठात्री देवी भी है। विलासिनी है क्योंकि निद्रा विलास का एक अंग है। अतः नारी घर परिवार की सुख सुविधा की अधिष्ठात्री हैं। एक छत्र अधिकारीणी

“आएर पाखी हुमों, गोपाल के निए घूमों।

आयरे पाखी नेजड़ोला, खोका के लिए गाछे दोला॥“

अपने बच्चे को सुलाने के लिए वह प्रकृति से पक्षियों की सहायता मांगती है। हुमों पक्षी, नेज दोला पक्षी (बंगाल के गाँव में देखी जाती हैं ये पक्षियां) को झूला झूलाने को कहती है। नारी यहाँ देवी भी नहीं है, रानी भी नहीं है, वह घर की अति आत्मिय मौसी, बुआ, माँ हैं। वह निद्रा देवी के रूप में समरसता स्थापित करती है।

“खिदेय गोपाल काँदे। दे गो माँ तूई नवनी।

केंदोना केंदोना बाबा कोले एसो आपनी॥“

तूमी आमार धन। कोले कोरे निए जाबो श्रीवृंदावन॥

(माँ बच्चों को रोने से मना करती है और कहती है तू तो मेरा श्रेष्ठ धन है तुझे गोद में उठाकर श्रीवृंदावन ले जाऊँगी)।

बंगाल की नारियों के द्वारा मौखिक रूप से रची गई छड़ाओं में वृंदावन की कस्तूरी चन्दन का स्पर्श लगा है उस पर भी बंगला की मिट्टी की छौंट बरकरार है –

पुटूरानीर बीए देवो हप्तमालार देशे।

तारा गाई बल दे चसे तारा सोनाय दाँत घसे।

रूई माछ पटल कतो भारे भारे आ से।

(पुटुरानी का विवाह स्वप्नों के देश में होगा जहां धन का इतना प्राचुर्य होगा कि लोग सोने से दाँत साफ करते होंगे।)

सपनों का राज्य होने पर भी वहाँ धरती की मिट्टी का स्पर्श है। सोने से दाँत घिसना कह कर ऐश्वर्य को दर्शाया है। सुख समृद्धि से पूर्ण समाज व्यवस्था का चित्र दिखता है।

बरसात के दिनों में बच्चे बाहर नहीं जा सकते माँ उनको घर में बैठकर ही खेल – खिलाती है -

“इकड़ी मिकड़ी चाम चिकड़ी, चामें काटा मजूमदार

धेये एलो दामोदर – “सब बच्चे एक जूट होकर उँगलियों को जमीन पर बिछाकर खेलने में लग जातें हैं। मौसी-बूआ परिचरिकाएं सब सूर बेसूर में छड़ा गाने लग जाती हैं। बच्चों के लिए गाई गई इन मौखिक आवृत्ति से उस समय की नारियों की दक्षता का भी परिचय मिलता है।

शिशु जनित छड़ा के पश्चात नारी को आधार बनाकर गाए गए मौखिक आवृत्ति भी बँगाला के लोक साहित्य का एक विशिष्ट अंग है। इनका एक भिन्न जगत है, व्यावहारिक उद्देश्य है अतः रसनिष्पत्ति प्रमुख है। विशेष स्वतन्त्र मूल्य है इनका। व्यवहारिक (practical) और वास्तव (real)।

नारी जनित मौखिक छड़ा के अंतर्गत व्रत आदि की प्रधानता देखी जाती है। वास्तविक जीवन में कल्याण की भावना ही इनका एक मात्र लक्ष्य होने के कारण इन आवृत्तियों के माध्यम से नारी जीवन के व्यावहारिक सुख दु:ख को व्यक्त किया गया है। अतः ये भी लोक साहित्य के अन्तर्मूक्त है – केवल अन्तर्मूक्त ही नहीं, एक महत्वपूर्ण अंश के अधिकारी हैं।“सेंजूती ब्रत” के उपलक्ष्य में बंगाल की कुमारी लड़कियां गाती हैं –

“दोलाय आसी दोलाय जाई। सोनार दर्पणे मुख चाई॥

बापेर बाडीर दोलाखानी। ससुर बाड़ी जाय॥

आसते जेते दोलाखानी। घृत मधु खाय॥

कुमारी छड़ा –

“कोंडार माथाय ढाली मोऊ। आमी जेन होई राजार बोऊ।

कोंडार माथाय ढाली चिनि। आमी जेन होई राजार रानी॥“

उपरोक्त सभी छड़ा में परिवार कल्याण की कथा परोक्ष रूप से कही गई है। बंगाल के नारी समाज में कुमारियों के हृदय की वास्तविक कामना की छवि इनमें मूर्त हो उठी है। कुमारियाँ कोंडार का अभिषेक घी, मधु, चिनि आदि से कर रही है ताकि उन्हें राजा की पत्नी, रानी आदि बनने का सौभाग्य प्राप्त हो। परिवार उनके विवाह की चिंता से मुक्त हो। यह कामना भी होती है। स्वर और विषय, स्थान, पात्रादी के कारण बदल भी जाता है। इन श्रुति छड़ाओं में मानव हृदय की वास्तविक आशा – आकांक्षाएँ और आशा – निराशा की कहानियाँ ही छुपी हुई है।

कुमारी, सधवा, विधवा इन सभी नारियों की आशाएँ इच्छाएँ एक नहीं होती है। अतः उनकी छड़ाएँ भी भिन्न होती है। परिवार की नारियों के द्वारा किए गए व्रतादि में एक प्रधान विशेषता यह होती है कि व्रत के लुप्त होने पर भी छड़ाएँ या गीतिकाओं में कोई परिवर्तन नहीं आता है। क्योंकि नारी द्वारा गाए गए इन छड़ाओं में एक इंद्रजालिक शक्ति है (magical power) इनमें विकृति या परिवर्तन होने पर अनहोनी की आशंका रहती है। ऐसा उनका मानना है। इसलिए कोमल हृदया नारी इन छड़ाओं को आज भी इसी रूप में गाती आ रहीं हैं। भाषा परिवर्तन सायास नहीं है परन्तु विषय परिवर्तन एक सचेत मन की क्रिया है। अतः कोई भी सचेत मन का इसमें कोई हस्तक्षेप संभव नहीं है। अत: नवीनता का इन ब्रत कथाओं में कोई स्थान नहीं है। पुरातन मौखिक गीतिका ही आजीवन इनके साथ रहती है।

इन ब्रतकथाओं की छड़ाओं में नारी की अपनी छवि की प्रधानता भी दिखाई देती है। एक दृष्टांत देखिए – वर्तमान समाज में बहु, विवाह प्रथा लुप्त है, अत: सतीन की पीड़ा से स्त्रियाँ अनजान हैं। फिर भी आज तक “सेंजूती ब्रतेर छड़ा” में सतीन के विषय में यह उल्लेख मिलता है और खुले गले से नारियां इसे गाती हैं –

“अशथ तलाय बसत कोरी, सतीन केटे आलता पोरी।

सात सतिने सात कोऊटा, तार माझे आमार अभ्रेर कोऊटा

अभ्रेर कोउटा नाड़ी चाड़ी, सात सतिन के पूड़ीए मारी।“

उस समय के समाज में फारसी के जानकार को समाज में बड़ा मान और ओहदा दिया जाता था। अत: स्त्रियाँ अपने पति के फारसी के पंडित होने की कामना करती थी – सेंजूति ब्रत में बनाए गए अलपना (किसी शुभ अवसर पर चावल को पीसकर उससे रंगोली बनाने की प्रथा) में एक आईना का चित्र बनाकर उस पर फूल दूर्वा आदि रख कर लड़कियां गाती हैं –

“आर्शी आर्शी आर्शी! आमार स्वामी पडूक फारसी॥“

अर्थात हे आरसी कुछ ऐसा कर कि मेरे पति फारसी का विद्वान बन जाए। मैं ब्रत रख रही हूँ। आजकल इन ब्रतों का कोई महत्व नहीं हैं फिर भी बंगाल की स्त्रियाँ बड़ी श्रद्धा के साथ इन ब्रतों का पालन आज भी करती हैं। नारी के व्यावहारिक जीवन को आधार बनाकर ब्रतों के लिए छड़ा या गीतिकाएँ रची जाती हैं। कुमारी अवस्था में “जमपूकूक ब्रतानुष्ठान” के माध्यम से पिता की धन संपदा में वृद्धि की कामना करती हैं कुमारिकाएँ

“सुसनी कलमी ल ल करे। राजार बेटा पक्षी मारे॥

मारण पक्षी सुकोय बील। सोनार कौटाय रूपोर खिल॥

खिल खुलते लागलों छड़ा। आमार बाप भाई हो, लक्षेश्वर॥“

शस्य धान आदी से मेरे पिता का घर भरा रहे। राजा के जैसे सम्मान हो मेरे पिता का, सोना चांदी से तिजोरी भरी रहे। यही कामना है। “संध्यामणी ब्रत” के माध्यम से बहन सात भाइयों की कामना करती है -

“संध्यामणी कनक तारा। संध्यामणी जलेर झारा॥

संध्यामणी करे के। सात भायेर बोन जे॥

आलो धाने काल पूते। जन्म जाय जेनो ओते॥“

ब्रत करने की कोई भी कामना परलोक नहीं पहुंचाती। माता, पिता, भाई, बहन, धन, ऐश्वर्य, रूप यश आदि को आधार बनाकर ही इनकी सभी कामनाएँ प्रस्फुटित होती हैं। “हरिचरण ब्रत” के माध्यम से नारी हृदय की सकल कामनाएँ बोल उठती है –

“हरिचरण हरीर पाटी, हरी बलेन उगो जा”

आज केन माँ पाट शीतल, कोण रमणी पूजछे माँ बल॥

से युवती की चाय बर, चाय बुम्मी तार मनोमत बर॥

रामेर मोतन स्वामी पाबे, लक्षनेर मोतन देबार हवे।

कौशल्यार मोतन शाशुड़ी चाय, आर की चाय मा आर की चाय॥

दरबार जोड़ा बेटा चाय, सबार सेरा जामाई चाय।

ब्रत की इन मौखिक गीतिकाओं के माध्यम से सहज मानवीय भावनाओं की अभिव्यक्ति हुई है। इन मानवीय भावनाओं के कारण ही ये मौखिक गीतिकाएँ लोक साहित्य के अभिन्न अंग हैं। पुत्री पिता के गृह की मंगल कामना के साथ-साथ पूरे समाज के परिवेश की, देश की छवि को सुधारना चाहती है। जहां नारी है वहीं कामना है। केवल अपने लिए नहीं समष्टि के लिए ही ईश्वर से कामना करती हैं। आदि काल से ही नारी की यह छबि लोक-साहित्य के सभी विधाओं में मिलता है।

“गाजन” बंगाल का एक जातीय उत्सव है। बंगाल के विभिन्न क्षेत्रों में हिन्दू और बौद्ध धर्म के प्रभावानुसार शिव का गाजन, आद्मे का गाजन, नील का गाजन, धर्म का गाजन के रूप में मनाया जाता है। गाजन में विभिन्न देव-देवी की पूजा की जाती है। उनके गीत छड़ा आदि गाए जाते हैं। मूलत: यह कृषक समाज के द्वारा वर्षा के आगमन का उत्सव है। इसमें वर्षा विषयक बातें ही मुख्य होती है। मूलत: स्त्रियाँ नृत्यगीत के साथ इसे गाती हैं।

बंगाल एक कृषि प्रधान देश है। कृषि विषयक विभिन्न व्यावहारिक ज्ञान का परिचय हमें बंगाल के कुछ मौखिक गीतिकाओं में छड़ा के रूप में मिलते हैं। ये सभी “खनार बचन” नाम से परिचित हैं। लेखक के विचार से “खना” कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नही हैं। खना का अर्थ है वह व्यक्ति जो नाक के द्वारा बोलता है। बंगाल के कृषकों की शस्य गणना, बरसात का पूर्वभाष देना, हल चलाना, शस्यरोपण और काटने का समय निर्धारण, बाढ आदि के विषय में भविष्यवाणी करना या ज्ञान रखनेवाले को “खना” नाम दिया गया है। और यह खना कोई स्त्री है जो कि विदुषी है। खना द्वारा गाए-गए गीतों के माध्यम से बंगाल के लोगों का ज्योतिष विषयक ज्ञान और कृषि विषयक ज्ञान ही प्रतिफलित हुआ है। इसलिए पूर्व आलोचित अन्य छड़ाओं की तुलना में इनका व्यवहारिक पक्ष अधिक महत्वपूर्ण है -

“श्रावणेर पूरो, भाद्रेर बारो। एर मध्ये जतो पारो॥“

अर्थात श्रावण का पूरा महिना और भादों महीने के बारह तारीख तक धान रोपने का श्रेष्ठ समय है।

किस शष्य में कितने चास की आवश्यकता है उसके बारे में कहा गया है –

“सोलह चासे मूला। तार अर्धेक तूला॥

तार अर्धेक धान। विना चासे पान॥

लोक गीति

लोक साहित्य में लोक गीति का महत्वपूर्ण स्थान है। केवलमात्र एक ही भाव को आधार बनाकर गीत के उद्देश्य से मौखिक रूप से रचे गए इन गीतों को ग्रामीण स्त्रियाँ बड़े आनन्द के साथ गाती है। प्रत्येक देश के लोक साहित्य में गीत से अधिक लोकप्रिय विषय और कुछ भी नहीं है। केवल मात्र रसो उपलब्धि के लिए ही नही सामाजिक जीवन में भी इस विधा ने लोगों को अन्तर तक बांधे रखा है। पल्ली (गाँव) के लोग इन गीतों को स्मरण शक्ति के आधार पर ही गाते हैं। यहाँ तक कि आजकल के शिक्षित पल्ली के लोग भी इसे मौखिक रूप से ही गाकर स्मरण रखते हैं। इनका कोई लिखित परिचय मिलना संभव नहीं है। पल्लिवासी इसे गाकर रचते थे और गा-गाकर इसका प्रचार भी करते थे। यह रीति वंशानुक्रम रूप से चली आ रही है और आज भी इसी रूप में है। पल्लिगीति की सभा में प्रत्येक व्यक्ति गायक होता है। श्रोता भी गुनगुनाते हैं क्योंकि यह गीत किसी को सुनने के लिए नहीं गाने का आनंद उठाने के लिए गाया जाता है।

भारतीय लोक साहित्य के विद्वानों में डॉ॰ दिनेश चन्द्रसेन का बगाल में वही स्थान है जो गुजरात में झबेर चन्द्र मेघाणी का और उत्तर प्रदेश में पं॰ रामनरेश त्रिपाठी का है। डॉ॰ सेन ने सर आशुतोष की प्रेरणा, प्रोत्साहन तथा आर्थिक सहायता से बंगाल के मैमन सिंह जिला (अब बांगला देश) में लोक गीतों तथा लोक कथाओ के संग्रह का कार्य आरंभ किया। इस कार्य में उनके सहायक श्री चन्द्र कुमार दे थे। दे के अथक परिश्रम के फलस्वरूप मैमन सिंह जिले से सैंकड़ों लोक-गीत तथा लोक कथाओं का संकलन किया गया। संभवत: यह पहला ही अवसर था जब किसी लोक-साहित्य के विद्वान ने इस शताब्दी के द्वितीय दशक में इन गीतों का संग्रह आरंभ किया हो।

डॉ॰ दिनेश चन्द्र सेन की अमर कीर्ति का आधार स्तम्भ उनकी “मैमन सिंह गीतिका” है। जिसका प्रकाशन चार बृहत भागों में कलकत्ता विश्वविद्यालय से हुआ है। यह विशाल संग्रह “पूर्व बंग गीतिका” नाम से भी प्रसिद्ध है। डॉ॰ सेन ने अथक परिश्रम से इस गीतिका का अँग्रेजी अनुवाद भी प्रस्तुत किया है जो “ईस्टर्न बंगाल बैलेड्स” से चार भागों में कलकत्ता विश्वविद्यालय से ही प्रकाशित हुआ। इस प्रकार से मैमनसिंह गीतिका का चार भागों में संकलन तथा प्रकाशन भारतीय लोक साहित्य के इतिहास में एक युगांतकारी घटना है। उन्होने अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथो की रचना की। उनके इस महती सेवा के फलस्वरूप इन्हे कलकत्ता विश्वविद्यालय ने डि॰ लिट की मानद उपाधि से अलंकृत किया।

डॉ॰ आशुतोष भट्टाचार्य का स्थान बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लोक-साहित्य के विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ है। डॉ॰ भट्टाचार्य आलौकिक प्रतिभा के धनी विद्वान थे। लोक साहित्य तथा लोक संस्कृति के क्षेत्र में उनकी जितनी गहरी पैठ तथा सूक्ष्म दृष्टि थी उतनी संभवत: बहुत कम विद्वानों में होगी। डॉ॰ भट्टाचार्य ने लोक-साहित्य की विविध विधाओं में अनेक ग्रंथों की रचना की है। इनका सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ “बांगलार लोक-साहित्य” हैं जो आकार में ही वृहद नही है बल्कि विषय विवेचन की दृष्टि से भी अलौकिक है। ग्रंथ में लेखक ने लोक-साहित्य की समस्त विधाओं पर संक्षिप्त रूप से प्रकाश डालने का प्रयास किया है। इनका दूसरा ग्रंथ “मंगल काव्येर इतिहास” जिसमे बांग्ला साहित्य में प्रचलित मंगल काव्यों का इतिहास प्रस्तुत किया गया है।

कुछ विशिष्ट प्रकार के गीत छोटे-छोटे गोष्टि द्वारा विकसित होते हैं। जैसे कि स्त्रियॉं के द्वारा गाए गए गीत पुरूष नहीं गा सकते हैं। उनकी एक अलग गोष्टि होती है। कुछ गीत ऐसे होते हैं जिसे केवल कुमारी लड़कियां ही गाती हैं जो कि उनके द्वारा किए गए ब्रत का आधार होता है। जिसे पुरूष और विवाहित स्त्रियाँ नहीं गाती है। “पटुआ गीत” पटुआ लोगों के सिवाय और कोई नहीं गाता है। उसी प्रकार “बेदे गीत” सपेरों के सिवाय और कोई नहीं गा सकता हैं।

कथा की अपेक्षा सूर से ही समाज अधिक बंधा हुआ रहता है। बांगला देश के विशिष्ट लोक गीत जैसे कि झूमूर, गंभीरा, भाटियाली आदि का उद्भव कहाँ से हुआ यह कहना कठिन है पर जो कथाएँ उसमें पिरोई होती है गाते समय वही परिवेश का परिचय देता है।

बंगला की नारियों ने उन्हीं सूरों को आधार बनाकर अपनी कथाएँ उनमें पिरोकर गीतों को मनोरंजन और भाव भक्ति का माध्यम बनाया है। लोक गीति आकार में बहुत छोटे होते है। कृषि गीत, क्रीडा गीत (game song), नृत्य गीत (dance song) आदि के अन्तर्गत कथा और स्वर के साथ साथ दैहिक क्रिया का भी बहुत महत्व रहता है। इन सभी नृत्य गीत में नारी की प्रधानता होती है। इनमें वाद्य यंत्र गौण होता है। कहीं कहीं ढ़ोल आदि का प्रयोग देखा जाता है। इसे केवल मात्र मौखिक रूप से सतत प्रवाह के साथ गाया जाता है।

बंगाल के लोक गीतों को विश्लेषित करने पर पाया गया है कि यहाँ के लोक गीत एक विशेष अंचल में ही सीमाबद्ध होकर रह गए है। अपने निर्दिष्ट अंचल की सीमा को तोड़कर समग्र बंगाल में इनका प्रचार प्रसार नहींवत् है। जैसे कि पश्चिम बंगाल का पटूया, भादू, झूमूर, उत्तर बंग का गंभीर, जागे, भाऊआइआ, पूर्व बंग का जाती, घांटू आदि। आजकल अनेक संस्थाओं के द्वारा और लोक साहित्य के प्रति जागरूकता के कारण विशेषत: बंगाल की नारियों के उत्साह और सहयोग के कारण इनका संरक्षण हो रहा है। ये स्त्रियाँ जहां भी जाती है अपने साथ इन गीतों को लेकर जाती हैं और लौटते समय इतर प्रदेश के संगीत को लेकर आती है। जिससे एक अंचल के गीत दूसरे जगह में प्रसिद्ध हो रहे हैं।

जैसे कि पटुआ गीत का विषय वस्तु है – कृष्णलीला, रामायण, मनसा मंगल। भादूगान का विषय है प्रकृति की बन्दना करना। गंभीरा का विषय वस्तु है शिव की पूजा। भाऊयाइयार का विषय वस्तु है प्रेम। इन सभी प्रकार के गीतों में नारी ही प्रधान प्रचारक है और मुख्य भूमिका उसकी ही है। ये भरसक इन गीतों को सार्वजनिक बनाने का प्रयास करती रहती है। ये गीत आंचलिक होने पर भी समग्र बंगाल के अखण्ड लोक साहित्य का अविभाज्य अंग बन गए है। भक्ति रस का एक सुंदर उदाहरण -

कालीन्दीर कुले छिल केली कदम्बेर गाछ।

ताते छोड़े कृष्णचन्द्र दिए छिन झाँप।

कालीनाग आज आहार बोले सकलि घेरिलो।

नागवती दूईटी कन्या उपस्थित होईल॥

नागदमन की छवि का सुंदर वर्णन इस पटुआ गीत में किया गया है। जिसमे कलिन्दी नदी के कुल में कदंब के वृक्ष पर कृष्ण चढ़ गए। और नदी में कूद गए कालीनाग अपने आहार को देखकर प्रसन्न हो गया। परन्तु तभी नागवती की दो कन्याएँ वहाँ पर उपस्थित हुई। और समस्या का समाधान हो गया। एक दूसरा उदाहरण –

“हरि बिने बृन्दाबने आर की ब्रजेर शोभा आछे

जले कृष्ण चले कृष्ण कृष्ण महिमण्डले॥“ कृष्ण के बीना वृंदावन शोभाहीन है।

बंगाल का “भादूगान” कुमारी हृदय का मानस मुकुट है – सुनहरे भविष्य की जितनी आशाएँ रंगीन सपने कुमारियों के अवचेतन मन में रहती है भादूगान के माध्यम से वो सभी वाणी रूप में प्रकाशित होते हैं। अत: इनमें मानवीय भावनाओं की प्रधानता है –

“आज शुभ निशि लो, शुभ माला बदलेर।

मनेर आशा पूर्ण हबे, बासर घरे ढूकिले॥

आई बूडो बंधा थाका लो, अधर्म कलिकाले।

बृथा बयस केटे गेले, के डाकिबे माँ बोले॥

वैवाहिक जीवन की सार्थकता को दर्शाते हुए कुमारी कहती है अगर समय के रहते विवाह न हुआ तो फिर परिवार कैसे बनेगा कौन माँ कहकर पुकारेगा?

“भाउयाईया गीत” के माध्यम से नारी अपने मन की निराशात्मक भावों को प्रकट करती है। उसके धुन में ऐसा हृदयविदारक सूर होता है जो कि दोपहर की निर्जनता या रात के स्तब्ध वातावरण मे एक मर्मभेदी वेदनात्मक स्वर से पूरे वातावरण को घेर लेता है। जो कि श्रोता के मन को अभिभूत कर देता है। श्रोता भी अपना स्वर उसके स्वर में मिला देता है। नारी अपनी भावनाओं को शब्दों और धुन के माध्यम से परिस्थितिजनक भावों को व्यक्त करती है। एक का दु:ख सब के मन को छूकर सबका बन जाता है।

“ओ दीदी सोन एकै कथा कं,

तोके छड़ा आर काके सोई कांग।

तूई छाड़ा आर कबार जागा नाई।

बाप मायेर कपाल पोडा। मोर नारीर अल्प पड़ा।“

अपनी अल्प शिक्षित होने के दु:ख को अपने सखी से कहती है। इन गीतों में अधिकांशत: नारी की भावनाओं को ही प्रधानता दी जाती है। उनको यह अधिकार होता है कि वह अपनी भावनाओं को ब्रत पर्व के दौरान मुक्त कंठ से गीतों के माध्यम से व्यक्त करें -

“चल सखी जमूनाय, बानशी डाके आय आय ।

दिनमानी अस्त जाय॥“

बंगाल का यह अति लोकप्रिय छड़ा गीत है जिसे जल भरने के लिए जाते समय गाया जाता है। पर आजकल यह रिवाज नहीं है पर व्रत त्योहार में नदी पोखर से पूजा के लिए पानी भर लाने की प्रथा आज भी है।

विवाह आदि के समय स्त्रियों का गायन ही प्रमुख होता है। केवल बंगाल ही नहीं पूरे भारतवर्ष में विवाहोत्सव आदि में संगीत की प्रधानता है जिसमें नारी का प्रमुख स्थान है। इसमें राम-सीता को आधार बनाया जाता है। इन गीतों के राम अयोध्या के राजकुमार रामचन्द्र नही होते है और उनकी माता कौशल्या, कौशल राज्य से भी नहीं है। इन गीतों में राम की माँ राम को गमछे (शरीर पोंछने का कपड़ा) से बेटे राम के शरीर से पसीने को पोंछ देती है। आँचल में कौड़ी बांधकर (पैसों के बदले में कौड़ी का व्यवहार होता था) वर को सजाने का सामान खरीदने, वेश खरीदने बाजार जाती है। यह राम सीता ही बंगाल के विवाह संगीत के नायक-नायिका हैं।

“उपरे चाँदूआ टांगाय गो नीचे शीतल पाटी।

राम सीता बसीलेन गो हाते पाशार काठी॥“

विवाह संगीत के पश्चात विदाय संगीत में करूणता का पूट स्पष्ट होता है और सीता की बिदाइ पर पूरा अंचल रो उठता है।

लोक कथा

लोक में मौखिक परंपरा से चली आने वाली कहानियाँ लोक कथा कहलाती है। लोक साहित्य में लोक कथाओं का महत्वपूर्ण स्थान है। “ये लोक कथाएँ हमारी जीवन यात्रा का पाथेय है और इनकी संजीवनी से पूरा समाज पीढ़ी दर पीढ़ी संजीवनी प्राप्त करता है। इसलिए मानव जीवन में इनका असीमित महत्व है – ” (डॉ॰ राज किशोर : लोक कथा-लोक जीवन की अंतरंग पहचान – पृ॰ 344)” आमतौर पर लोक कथाओं में पेड़ पौधे और पशु-पक्षी तथा जड़ वस्तुएँ भी मनुष्य की भांति वार्तालाप करते प्रतीत होते है। वास्तव में इस प्रकार के चित्रण तत्कालीन जन-समाज की प्रकृति पर निर्भरता और उससे मानव की सहज तादात्म की ओर संकेत करते हैं।

लोक समाज में साधारण स्तर पर रस ग्रहण का जो साधारण स्तर (standard) है उसे ध्यान में रखकर ही प्रत्येक देश की लौकिक (popular) कथा साहित्य का निर्माण हुआ है जो कि प्रत्येक जाति के लोक साहित्य का एक विशिष्ट अंग है। गद्य और पद्य दोनों विधाओं में ही लौकिक कथाओं का वर्णन किया जाता है। पद्य विधाओं में जिसे प्रस्तुत किया जाता है उसे गीतिका या “ एपिक ” (Epic) कहते हैं। और गद्य के माध्यम से जो कथाएँ प्रस्तुत्न की जाती है उसे अँग्रेजी में Folktal कहा जाता है। ये कथाएँ केवल मात्र एक मौखिक या जनश्रुतिमूलक धारा को आधार बनाकर समाज में प्रचलित होती रहती है।

पश्चिम बंगाल में लोक कथाओं के संकलन का कार्य सौ से भी अधिक वर्ष पूर्व आरंभ हो गया था। जी॰एच॰ डेमेण्ट ने पाँच कहानियों का प्रकाशन “इण्डियन एंटेक्वेरी” में किया था (जी॰ एच॰ डेमेन्ट बंगाली फोकलोर भाग-1) ये सभी पश्चिम बंगाल के दिनाजपूर जिले से संकलित की गई थी जो केवल अँग्रेजी अनुवाद में ही उपलब्ध होती है। अपनी अन्य कथाओं में और तीन लेखों का संकलन किया। डॉ॰ आशुतोष भट्टाचार्या ने “बांगलार लोक साहित्य” नामक महत्वपूर्ण ग्रंथ में बंगाली लोक कथाओं का विषद वर्णन किया है। इसी प्रकार से श्री शंकर सेनगुप्त ने “बांगलार मुख आमि देखियाछी” नामक ग्रंथ में बंगाली जन-जीवन तथा लोक कथाओं पर सुंदर विश्लेषण किया है।

भारतीय लोक कथा के क्षेत्र में लाल विहारी दे का “फोक टेल्स ऑफ बेंगल” अति प्रसिद्ध कृति है। इसमें लाल विहारी दे ने बूढ़ी स्त्रियों-पुरुषों तथा नौकरों से कहानियों को सुनकर इनको संग्रह किया है। अत: इनकी प्रामाणिकता पर कोई संदेह नहीं है। इस पुस्तक के अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके है आज भी ये पुस्तक लोकप्रिय है।

लोक में मौखिक परंपरा से चली आ रही कहानियाँ ही लोककथा कहलाती हैं। इन कहानियों के एक विशेष प्रकार के गठन के संबंध में विचार करने पर कुछ विद्वानों ने लोककथा और लोक कहानी के दो अलग-अलग रूपों की चर्चा की है।

कुछ विद्वानों का कहना है कि नीति प्रचार के उद्देश्य से भी लोक कथाएँ एक अंचल से दूसरे अंचल में प्रसारित होती है। एक स्वस्थ्य समाज व्यवस्था के लिए समाज में नीति व्यवस्था का होना अति आवश्यक है। वास्तविकता और प्रत्यक्ष जीवन पर आधारित होने के कारण लोक कथाएँ प्रसिद्ध और लोक प्रिय हुई है।

लोक कथाओं की एक और विशेषता यह है कि इसके जैसे प्राणवन्त (vilality) और कोई विधा नही हॅ क्योंकि ये शत शत ही नहीं सहस्त्र वर्ष से समाज में बने हुए हैं। ऐसा भी देखा गया है कि कुछ एक लोक कथाएँ समग्र विश्व के विभिन्न देशों में भी प्रचलित हैं। लोक कथा एक सजीव शिल्प है अंग्रेजी में इसे living art कहा जाता है। इसे सुनाने में जो रस की सृष्टि होती है सुनने में भी वैसा ही आनंद आता है। “एक जंगल था” कहते ही शरीर की सभी इंद्रियाँ एकाग्र होकर उत्कंठित हो उठती है। कोई प्रश्न मन में नहीं उठता है – कहाँ का जंगल? कैसा जंगल? बड़ा या छोटा जंगल – सब प्रश्न धरे के धरे रह जाते हैं। प्रश्न पूछकर कथा के प्रवाह को अवरोध करने का प्रश्न ही नहीं उठता है। जंगल और वहाँ के पशुओं के बारे में जानने को मन उत्सुक हो उठता है।

पुनरावृत्ति मौखिक साहित्य की एक विशेषता है क्योंकि निरक्षर व्यक्ति के कंठस्थ करने के लिए यह बहुत सहायक होता है। इसलिए केवल मात्र लोक कथा में ही नहीं सम्पूर्ण लोक साहित्य में प्राय: सभी विषय में पुनरावृत्ति दिखाई देती है।

लोक कथाओं में अधिकांश कथाएँ नारी प्रधान होती है। समस्या का उत्पन्न और समाधान उन्हीं के द्वारा होता है। “राजपुत्र और मंत्री पुत्र एक साथ देश भ्रमण के लिए निकलते हैं। उपदेशों के साथ उनकी माताएँ उनको विदा करती हैं। परंतु विमाता (जो कि अब पटरानी है) उनको कष्ट देने के लिए प्रपंच रचती है। एक सरल रेखा की तरह पूरी कथा चलती हैं। स्वर का आरोह अवरोह बना रहता है। जब विमाता द्वारा किए गए प्रपंच वाला विषय आता है तब बार-बार उसे दोहराया जाता है और जब राजपुत्र के द्वारा विमाता द्वारा भेजे गए राक्षस का नाश होता है। तो सुननेवालों का मन हर्षोल्लास से भर उठता है।

राजकुमार की माँ जो विमाता के षड्यंत्र के कारण राज्य से निष्कासित होकर कष्ट झेल रही थी राजा के समक्ष उपस्थित होकर अपने निर्दोष होने का प्रमाण देती हैं। सुनने वाले हर्षनाद कर उठते हैं। रानी पटरानी को माफ कर देती है और सब सुख से रहने लगते हैं। दुष्ट मनोवृति का नाश और सद्वृति की जय-जयकार ही कथा को लोकप्रिय बनाती है। घर गृहस्थी, समाज में नारी की उन्नत छवि ही कथा का मूल है।

जैसा कि हम राजा-रानी-राजकुमार के बारे में जानते है लोक कथाओं के पात्र वैसे नहीं होते। आम लोक उनकी छवि के साथ स्वयं को एकाकीकरण कर लेते हैं और उनका संघर्ष सभी का संघर्ष बन जाता है। रानी मछली काटती और पकाती है, राजा को अपने हाथों से परोसती है। वह स्वयं अकेले ही तलाव में स्नान करने जाती है, दूसरे तट पर उसकी सखी, कोतवाल की पत्नी के साथ आशा-निराशा, सुख-दु:ख की बातें करती है। नारी प्रधान इन कथाओं में जन-साधारण अपने को कथा के साथ-साथ चलते हुए, रोते हँसते हुए पाते हैं। सभी का सुख-दु:ख एक जैसा हो जाता है। कथाकार सभी का साधारणीकरण कर देते हैं।

बड़े होने पर राजकुमार अपने पिता के राज्य को त्याग करके निरुद्देश्य यात्रा करने निकाल पड़ते हैं। दूसरे राज्य में पहुँचकर वहाँ की राज्य व्यवस्था को संभालकर वहाँ की राजकुमारी से विवाह करके वहीं बस जाते हैं – यहाँ पर एक आदिम समाज व्यवस्था को दर्शाया गया है। इस समाज व्यवस्था का नाम है – “माऋ तांत्रिक समाज व्यवस्था” बंगलार लोक साहित्य – आशुतोष भट्टाचार्या (पृ॰ 325)। बंगाल के उत्तर पूर्व की सीमाओं में दक्षिण के त्रिवाकूर मालबार आदि अंचल में आज भी यह समाज व्यवस्था है। इसमें पुत्र का पिता की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता है, कन्या ही संपत्ति की अधिकारिणी होती है। इसलिए जब राजकुमार यात्रा करने जाते हैं तब दूसरे राज्य की राजकुमारी के साथ विवाह करके वहीं बस जाते हैं। “माऋ तांत्रिक समाज में नारी का स्थान सर्वोपरि होता है। वही राज्य की शासन व्यवस्था की बागडोर भी संभालती है। कथाओं में नारी की स्वतंत्र छवि को दर्शाया गया है। (बंगलार लोक साहित्य – पृ॰ 327)

बंगाल के लोक साहित्य में श्री दक्षिणारंजन मित्र मजूमदार संकलित “ठाकुरदादार झूलि” के अंतर्गत अनेक रूपकथाएँ संकलित है इन्होने “ठाकुमार झूली” नामक संग्रह में मौखिक कथाओं को लिपिबद्ध किया है। लालबिहारी दे का “Folk Tales of Bangal, दिनेशचन्द्र सेन संकलित Folk literature of Bengal में विभिन्न प्रकार की रूप कथाएँ संकलित है। कथाओं में रूपकथा का क्षेत्र बहुत विस्तृत होता है।

अधिकांश लोक कथाओं में भाग्य या नियती के खेल की प्रधानता देखी जाती है। इसका उत्कृष्ट उदाहरण “मयमन सिंह गीतिका” में संकलित “काजलरेखा” नामक कथा है। भाग्य के निर्मम परिहास को पात्रों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है।

“रानी हईल दासी, आर दासी होईल रानी।

कर्म दोषे काजलेरखा जन्म अभागिनी॥“

सरल स्वभाव के कारण काजलरेखा को अपनों से ही मिले दु:ख दर्द को सहना पड़ता है। उसके भुगतने को प्रताड़ित होने को भाग्य का लेखन कहा गया है। पर अपने सरल स्वभाव के कारण वह सबका मन जीत लेती है और उसके प्रति सभी के विचार बदल जाते हैं। राजा को नई दिशा मिलती है। इन लोक कथाओं में से सामाजिक अपने जीवन के रूप का ही दर्शन करते हैं। इन कथाओं को सुनकर निरक्षर साधारण लोगों को भाग्य द्वारा प्रताड़ित होने वाली घटनाओं से उबरने की दिशा मिलती है।

“ठाकुरदादार झूली” में संकलित कंचनमाला कथा में इन्द्र ने कंचनमाला को एक हथपंखा (हाथ से चलाने वाला पंखा) देकर कहा था कि कभी इसे उल्टी दिशा में मत चलाना। कंचनमाला के जीवन में सब कुछ ठीकठाक चल रहा था पर वही भाग्य का फेर जो है, अत: पंखे को उल्टा चला देती है। एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा ऐसे अनेक संकट आते हैं और ‘अपनी भक्ति’ के बल पर वह उबर भी जाती है। (बंगलार लोक साहित्य – पृ॰ 329)

“मनसा ब्रत कथा” में माँ मनसा ने सौदागर के बेटे से कहा कि “जब तुम सौदागरी के लिए रवाना होते हो तब तुम दक्षिण दिशा की ओर मत देखना” सौदागर का बेटा अपने पुण्यबल के कारण स्वर्ग में पहुँच गया था और तभी उसे दक्षिण दिशा की ओर देखने के लिए मनाई का स्मरण हुआ और उसने दक्षिण की ओर यात्रा शुरू कर दी। देवी के निर्देश को अमान्य करने पर उसे स्वर्ग से निष्काषित होना पड़ा और नागलोक में नागों के साथ रहना पड़ा। इस प्रकार की अनेक लोक कथाएँ हैं जो उस समय के जन समाज में प्रचलित थी। विशेषत: सभी कथाएँ नारी केन्द्रित है।

रूपकथा और लोक कथा में बड़ा ही सूक्ष्म अंतर है। लोक कथा में वास्तविकता का पुट अधिक रहता है जबकि रूपकथा में काल्पनिकता अधिक होती है। रूपकथा के पशु-पक्षी पेड़-फूल आदि सब मनुष्य की तरह बातें करते हैं। अचानक गायब हो जाना, मनुष्यों का पक्षियों की तरह उड़ना फिरना, आदि-आदि अनेक रूपकथाओं की विशेषताएँ हैं। जैसे कि किसी अपुत्रक राजा को देवी की कृपा से पुत्र की प्राप्ति होती है, बड़ा होकर वह अपने भाग्य की खोज में निकल जाता है, अनेक बाधाओं के पश्चात एक सुंदर राजकुमारी से विवाह होता है और उसके पूरे राज्य का अधिकारी बन कर वहीं राज्य करने लगता है आदि आदि रूपकथा के विषय होते हैं। समाज व्यवस्थानुसार इसमें कुछ घटनाएँ पीरो दी जाती हैं।

रूपकथा के किसी भी चरित्र का कोई नाम नहीं होता है – केवल राजा, रानी राजकुमार मंत्री आदि ही उनका परिचय होता है। राजा के राज्य का भी कोई नाम नहीं होता है – एक राज्य का राजा, दो राजकुमार, राजकुमार किस राज्य में जाता है, कहाँ की राजकुमारी उन सभी का भी कोई नाम नहीं, केवल मात्र एक क्षेत्र का नाम सुनने में आता है और वह है – “तेपांतरेर माठ” और “तिरपिनिर घाट” यह कहाँ पर है इसे जानने की उत्सुकता किसी को नहीं है। केवल इतना ही जानने में आता है कि ये “सात समुंदर और तेरह नदी के पार” पर हैं । श्रुति परंपरा से उत्पत्ति होने के कारण किसी भी प्रश्न का कोई अवसर नहीं होता है। यह हर बार बदलते रहता है।

इन रूपकथाओं में अधिकांशत: रानी, राजकुमारी परिचारिकाओं की प्रधानता देखी जाती है। बड़ी रानी का छोटी रानी के प्रति ईर्ष्या, छोटी रानी की बेटी का अपने सात भाइयों के प्रति प्रेम और इसे देखकर बड़ी रानी उन सभी भाइयों को मार कर जमीन में गाड़ देती है। समय बीतता है और सभी सात भाई और एक बहन फूल बनकर राजा के बाग में खिलते हैं। बहन की सलाह और सभी के सद्व्यवहार से फिर से सभी लोग राजकुमार राजकुमारी बन जाते हैं। और भाई-बहन माँ को बड़ी रानी के चंगुल से मुक्त करते हैं और बड़ी रानी के कुकर्मों का पर्दाफ़ाश करते हैं। छोटी रानी और सभी बच्चे राजा से बड़ी रानी के लिए क्षमा प्रार्थना करते है और खुशी खुशी राजा सभी के साथ फिर से राजकाज संभालने लगते हैं। गद्य पद्यात्मक रूप से कहीं गई ये लोक कथा बंगला लोक साहित्य की अमूल्य निधि है। अक्सर परिवार की दादी-नानी की जुबान से –

“सात भाई चम्पा जागोरे जगोरे, केनो बोन पारूल डाकोरे डाकोरे

एकटी परूल बोन आमी तोमार, आमी सकाल सांझें

सत काजर माझे तोमाय डेके-डेके सारा

दाओ सारा दाओ सारा..... ।“

इस लयात्मक गीत को सुनकर बंगाल के बच्चे बड़े हुए है। इन गीतात्मक रूप कथाओं को सुनाने वाली भी नारी ही है और रचनेवाली भी नारी ही है। बंगला लोक साहित्य की एक और मनोरंजक कथा है “शुंक-शारीर कथा”। शुक और शारी दो काल्पनिक पक्षी है जो भविष्यदृष्टा हैं, जिन्हें भविष्य दिखाई देता है और सतवृत्तिवालों की सहायता करना, दुष्टों के चंगुल में फंसे लोगों को बचने का उपाय आदि बतानेवाले पक्षी है जो कि मनुष्य की बोली बोलते है।

“शुक बाले शारी गो सुन मोर बानी।

एक जे छील रानी, जगत जननी॥“

रूपकथाओं में नारी की छवि को कल्याणकारी माता के रूप में चित्रित किया गया है। गलत निर्णय पर सजा और बाद में माफी का विधान भी मिलता है। अधिकांश रूपकथाएँ नारी की सद्वृत्तियों को उभारने वाली होती है और नारी केन्द्रित होती है। राजा सदा ही आलौकिक शक्ति का अधिकारी माना जाता है। इन राजाओं की एकाधिक रानियाँ होती है। जिसे “एक राजार सात रानी” के रूप में व्यक्त किया जाता है और फिर “सात रानीर सात धन” अर्थात सात राजकुमार – इस प्रकार से कथा आगे बढ़ती है। (वही पुस्तक पृ॰ 338)

बांगला रूपकथा के क्षेत्र में सभी को स्वप्न जगत में ले जाने वाली अगर कोई है तो वह है “मधुमाला” “प्रथम जागीलेन मधुमाला॰॰“ इनकी माया सर्वत्र फैली हुई है। प्रत्येक बंगवासी की शैशव स्मृति में मधुमाला सपनों की रानी की तरह रची बसी है। किसी की स्मृति में वह स्पष्ट है किसी में अस्पष्ट है। किसी के चेतन मन में, किसी के अवचेतन मन में उनका निवास है, परंतु प्रत्येक की अनुभूति समान है – “स्वपने देखी आमी मधुमालार मुख रे - -"। रूपकथा के राज्य की एकमात्र अधिस्ठात्री मधुमाला है। (बांगलार लोक साहित्य - आशुतोष भट्टाचार्य पृ॰ 330)

एक राजा था। वह नि:संतान था। दु:खी था। सारा दिन अंत:पूर में ही बंद रहता था। माली भोर की बेला में ही बगीचे का काम करके चला जाता था। ऐसे में पता चलता है कि जिस दिन माली राजा का मुख दर्शन कर लेता उस दिन उसे अनाहार रहना पड़ता है। अत: वह राजा से दूर भागता था। इस खबर को सुनने के बाद राजा का दु:ख दुगुना हो जाता है। राज्य में त्राही-त्राही मच जाती है। ऐसे में एक दिन एक साधु दरबार में आते हैं। सब कुछ जानकर राजा को एक सोने का पक्षी देकर उसे भक्षण करने को कहते हैं और आश्वासन देते हैं कि एक सुंदर राजकुमार का जन्म होगा। पर करना यह होगा कि उसे बारह वर्ष तक चाँद सूरज का दर्शन न करने दिया जाय। नहीं तो वह उदासीन हो जाएगा।

जन्म लेने के बाद राजकुमार के लिए पाताल में एक पाषाणपुरी का निर्माण किया गया। जिसमे राजा के आदेश से रानी, राजकुमार को लेकर राजा की कड़ी निगरानी में रहने लगटी है। जब बारह वर्ष पूर्ण होने के लिए केवल मात्र तीन दिन रह गए थे तब एक दिन राजकुमार ने कहा "माँ मैं बारह वर्ष का हो गया हूँ पर आजतक मैंने चन्द्र सूरज का दर्शन नहीं किया। अगर आपने मुझे चन्द्र सूर्य का दर्शन करने नहीं दिया तो मैं अपने प्राण त्याग दूँगा।" राजा को संदेशा भेजा गया। राजा ने सलाहकारों को बुलाया उन्होने सलाह दी कि अगर राजकुमार प्राण त्यागना चाहते है तो उन्हें पाषाणपूरी में बंद करके रखने का क्या मतलब हॅ ? उन्हें बाहर निकलने दे। ताकि वे अपनी इच्छा पूरी कर सकें।

मदनकुमार को पाताल के पाषाणपूरी से बाहर निकाला गया। दिन बीतते गए। एक दिन राजकुमार ने राजा से कहा "मैं राजपुत्र हूँ मैं शिकार खेलने जाऊंगा। आप आज्ञा दें।" राजा मूर्छित हो गए। मूर्छा टूटने पर राजा और रानी ने बहुत समझाया कि आपको छोडकर हम जीवित नहीं रह सकेंगे पर राजकुमार अपनी बात पर डटे रहे। अंतत: लश्करों के साथ राजा ने उन्हें मृगया के लिए भेज दिया। बहुत भटकने पर भी जंगल में एक भी शिकार नहीं मिला अत: छावनी डालकर विश्राम करने लगे। रात को राजकुमार ने सपना देखा। सपने में उन्हें एक बहुत ही सुंदर राजकुमारी दिखाई दी जो कि सोने के पलंग पर गहरी नींद में सो रही थी। उस राजकन्या का नाम है “मधुमाला” और मधुमाला राजकुमार के मन में बस गई।

राजकुमार शिकार से राजपुरी में लौट आए पर उदासीन रहने लगे। खाते-सोते-उठते-बैठते हर समय मधुमाला का नाम ही जपने लगे। पर कौन मधुमाला, कहाँ की मधुमाला? उसे कोई नहीं जानता। राजकुमार भी नहीं जानते। राजरानी दु:खी रहने लगी। फिर राजा ने राजकुमार को लश्कर सहित चौदह नौका देकर मधुमाला को खोजने के लिए भेज दिया। रास्ते में तूफान के कारण सभी नौकाएँ डूब गई। पर राजकुमार मधुमाला का नाम रटते हुए तैरने लगे और अन्य राज्य की ओर बढ़ने लगे। किनारे पर आकार बैठते ही उन्हें पता चला कि यहाँ की राजकुमारी मधुमाला को जानती है। उससे मिलकर मधुमाला का पता लेकर राजकुमार पुन: अपनी यात्रा पर निकल पड़े। इस प्रकार से और और दो-तीन राज्यों को पार करके मधुमाला को ढूंढ निकाला। समुद्र के बीच में एक महल है जिसमें मधुमाला रहती है। रात को सोने के पलंग पर सोती है और उसके चारों ओर तीन कतारों में घी के दीए जलते राहतें हैं। वहीं पिंजरे के अंदर शुक एवं शारी (पक्षी) उसके पहरेदार रहतें हैं। मधुमाला को देखते ही राजकुमार ने पहचान लिया। जब से मधुमाला राजकुमार के सपने में आने लगी थी तब से वह भी राजकुमार पर मोहित हो गई थी। अत: दोनों का मिलन हो गया।

कथा को संक्षिप्त रूप से वर्णन करने के कारण इसको आत्मसात करने में या इसके रसास्वादन में निश्चय ही बिघ्न हुआ है। परंतु केवल मात्र मनोरंजन ही इसका एक मात्र उद्देश्य नहीं है। कथा में राजकुमार के माध्यम से अंजान को जानने की लालसा, अनदेखे को देखने का अदम्य कौतूहल को लेकर राजकुमार का जन्म हुआ। उसके चरित्र की यही विशेषता है। मधुमाला के लिए उनका उन्माद होकर उसे ढूँढना नारी के प्रति उनके सम्मान और प्रेम को दर्शाता है। मूलत: मधुमाला की कथा का मूल विषय है शाश्वत प्रेम।

“मैमन सींह गीतिका” के अंतर्गत “काजलरेखा” नामक रूपकथा का आधारभूत विषय भी प्रेम है परंतु इसमें नियती के खेल की प्रधानता है इस कथा मैं।

एक सौदागर था उसे एक सन्यासी ने एक शुक पक्षी दिया। उस शुक पक्षी के निर्देशानुसार सौदागर अपने सभी काम करते थे जिससे उनका व्यापार और परिवार दोनों फल फूल रहे थे। सौदागर की बेटी काजलरेखा जब बड़ी हुई तब सौदागर ने उसके विवाह के लिए शुक पक्षी को पूछा। शुक पक्षी ने उसे जवाब दिया कि “एक मृत पति के साथ इसका विवाह होगा। यही काजलरेखा की नियती है। इसे कोई नहीं टाल सकता है।“ दु:खी मन से सौदागर काजलरेखा को लेकर जंगल पहुंचे, पर उन्होने उसे कुछ भी नहीं कहा। एक टूटे मंदिर के प्रांगण में दोनों बैठ गए पिता के उद्देश्य से काजलरेखा सम्पूर्ण अनजान उसने पिता से पीने के लिए पानी मांगा। उसे बैठने के लिए कह कर पिता पानी लेने चल दिए। काजलरेखा ने देखा कि मंदिर का दरवाजा बंद है पर उसके स्पर्श करने से ही वह खुल जाता है। वह दरवाजे से मंदिर में प्रवेश कर जाती है और उसके प्रवेश करते ही दरवाजा बंद हो जाता है। और उसके लाख कोशिश करने पर भी दरवाजा नहीं खुलता है। तब वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती है। रोते रोते वह चारों ओर देखने लगती है और तभी उसे पलंग पर लेटा एक मृत राजकुमार दिखाई देता है जिसके पूरे शरीर में सुइयां चुभी हुई थी।

पानी लेकर लौटकर सौदागर को काजलरेखा कहीं नहीं दिखाई देती है। उसका नाम लेकर ज़ोर-ज़ोर से पुकारते हैं। पिता की आवाज सुनकर काजलरेखा जवाब देती है पर पिता के कोशिश करने पर भी दरवाजा नहीं खुलता है। काजलरेखा उस मृत राजकुमार के होने की बात करती है तब पिता कहते हैं, “तुम्हारे भाग्य के लेखन का मैं खंडन नहीं कर सका चन्द्रसूर्य को साक्षी रखकर मैं तुम्हें इस मृत राजकुमार को समर्पित करके जा रहा हूँ। इन्हें तुम अपना पति मान लो।“ कहकर रोते हुए पिता रवाना हो गए।

इतने में एक सन्यासी आते हैं और मंदिर का दरवाजा खोलकर अंदर प्रवेश करते हैं। काजलरेखा को देखकर कहते हैं, “माँ तुम डरो मत, अपने पति के शरीर में से एक एक करके सूइयों को निकालो केवल मात्र दोनों आँखों में की दोनों सूइयों को मत निकालना। तुम्हें कुछ पेड़ के पत्ते देकर जा रहा हूँ। सभी सूइयों को निकालने के पश्चात आँखों की दोनों सूइयों को निकालकर इन पत्तों को पीसकर इसके रस को डाल देना। तुम्हारा पति जीवित हो जाएगा। परंतु पति को अपना परिचय स्वयं मत देना, परिचय देते ही तुम फिर से विधवा हो जाओगी। धर्ममती शुक पक्षी ही तुम्हारे पति को तुम्हारा परिचय देगा।“ कहकर सन्यासी चले जाते हैं। सारा दिन सात रात तक काजलरेखा ने राजकुमार के शरीर में से एक-एक करके सूइयों को निकाला। आँखों की सूइयों को निकालने से पहले उसने स्नानादि करने का विचार किया और नदी की ओर बढ़ गई वहीं तभी एक गरीब औरत उसके पास आई और उनकी दासी बनकर उससे पत्तों को लेकर राजकुमार के पास जाकर इंतजार करने लगी। सरल स्वभाव की काजलता ने राजकुमार को जीवित करने की सभी विधियों को उस दासी को समझा दिया था।

कपटी दासी ने मंदिर पर जाकर पत्तों को पिसकर उसके रस को राजकुमार की आँखों में डाल दिया – आँख खोलते ही राजकुमार ने दासी को देखा। दासी ने कहा, “राजकुमार मैंने आप को जीवन दान दिया है। आप मुझसे विवाह करें।“ राजकुमार ने अग्नि को साक्षी रखकर दासी को ही पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। इतने में नहाकर काजलरेखा मंदिर में उपस्थित हुई। दासी जो अब राजकुमार की पत्नी थी काजलरेखा को अपनी दासी के रूप में परिचय कराया। काजलरेखा चुप रही। उसे सन्यासी की बातें स्मरण थी। वह चुपचाप अपने परिवार में ही अपनी दासी की सेवा एक दासी बनकर करने लगी। इस प्रकार से बारह वर्षो के बाद धर्ममती शुक पक्षी ने काजलरेखा की वास्तविकता से राजकुमार का परिचय कराया। राजकुमार ने काजलरेखा को ससम्मान पत्नी बनाया और दासी को दंड दिया।

इस कथा में सबसे उल्लेखनीय विषय है काजलरेखा का चरित्र। इससे सहिष्णुता और नारी की अपरिसीम शक्ति का परिचय मिलता है। एक धनी परिवार की पुत्री होने पर भी उसने एक के बाद एक मुसीबतों का सामना धेर्य से किया। परंतु कभी भी आत्मशक्ति पर से उसका भरोसा नहीं टूटा। यही शक्ति उसे संघर्ष करने की प्रेरणा में सहायक बनी। नारी प्रधान इन कथाओं में नारी को परिवार की, धर्म की, समाज की और सतभाव की धुरी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। “मयमन सिंह” कथा और पूर्व वंग की कथा में कोई भेद नहीं है। क्योंकि दोनों में एक ही प्रकार की इसकी धारा बह रही है। अत: कहा जा सकता है कि काजलरेखा, शंखमाला और मालूआ एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। श्रुती परंपरा के कारण यह रस धारा एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में बहती हुई जाती है। यह स्पष्ट है कि नारी की छवि का उज्जवल पक्ष हर क्षेत्र में समान रूप से मिलता है।

ब्रत कथा

ब्रत कथाएँ बंगला लोक साहित्य का एक विशिष्ट अंग है। बंगाल के लौकिक देव देवियों को आधार बनाकर इनकी रचना हुई है। ब्रत कथाओं का उत्स घरेलू सामाजिक तथा धार्मिक कार्यक्रम के माध्यम से होता है। ब्रत के आचार अनुष्ठान को देखकर ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह किस श्रेणी की है और किस समाज से इसकी उत्पत्ति हुई है। उस समय के लोग शिक्षा से अनभिज्ञ थे। उनके मन में जब प्रकृति और प्राकृतिक विपदा के कारण भय उत्पन्न होता है, गहन वन-जंगल मन में डर का संचार करते हैं तब अपनी आत्म शक्ति को बढ़ाने के लिए देवी देवताओं की पूजा आराधना, ब्रत आदि को आधार बनाते हैं।

ब्रत एक प्रकार का मांगलिक अनुष्ठान है। पूरे वर्ष में विभिन्न समय में विभिन्न प्रकार के ब्रतादि किए जाते हैं। गाँव में अरंधन, या चूल्हे की पूजा की प्रथा है। किसान लोग वर्षा ऋतु के पश्चात खेती का काम समाप्त करके सावन महीने में 15 ता॰ के पश्चात या 22 ता॰ के पश्चात जो शुक्रवार पड़ता है उस दिन विभिन्न प्रकार के मिष्ठानादि बनाकर खाते हैं और दूसरे दिन के लिए रख देते हैं। दूसरे दिन चूल्हा नहीं जलता है। तुलसी मंच के पास मनसा पेड़ की टहनी को गाड़ देते हैं और पूजा करते हैं। बचे हुए भोजन को ठंडा ही खाते हैं। इस उत्सव को घर, परिवार के सौभाग्य की कामना से मनाया जाता है। यह मूलत: किसानों की जीवन पद्धति से जुड़ी होती है। औरतें खेत खलिहानों से मुक्त होकर नृत्य गीत के माध्यम से आनंद मनाती हैं। आरंधन मूलत: स्त्रियों का त्यौहार है। ब्रतकथा के माध्यम से देवी महिमा का प्रचार, नारी की सहनशक्ति और सेवा पारायण की भावना दिखाई देती है। (मेयेली ब्रत ओ कथा – ले॰ परमेशप्रसन्न राय पृ॰ 69)

तारिणी शंकर चक्रवर्ती ने “बंगलार उत्सव” संकलन के अंतर्गत उत्सवों का वर्णन बड़े विस्तार से किया है। श्री गोपेन्द्र चन्द्र बसु ने लगभग 30 वर्षों तक बंगाल के लौकिक देवी देवताओं पर शोध कार्य किया है। अपने ग्रंथ “बंगलार लौकिक देवता” में गावों में प्रचलित देवी देवताओं की विषाद मीमांसा प्रस्तुत की है जिसे उन्होने गाँव-गाँव घूम घूम कर लोक मुख से संग्रह किया है। जे॰ एन॰ बेनर्जी ने “सम फोक गाड्स आफ एनशेण्ट इंडिया” में प्राचीन भारत में प्रचलित लोक देवी और देवताओं के विषय में प्रकाश डाला है। गुरू सदय दत्त ने “पटुआ संगीत” के नाम से पटुआ जाति के लोगों के व्रतादि पर आधारित गीतों का संग्रह प्रकाशित किया है जिसे उन्होने लोकमुख से संग्रह किया। ये पटुआ लोग न तो हिन्दू ही है और न मुसलमान। ये लोग हिन्दू देवी देवताओं से जुड़े गीतों का संग्रह करते है और मौखिक रूप से ये गीत समय और स्थलानुरूप बढ़तें जाते हैं। इसलिए “मेएली ब्रत” में स्थान परिवर्तन के साथ साथ कथा में परिवर्तन भी लक्षित होता है। ये कथाएँ प्राचीन काल से बंगाल के पल्ली गृह के हर द्वार पर प्रवाहमान हैं। इनमें ग्रामीण लोगों की सरल जीवन-यात्रा की छवि दिखाई देती है। शिक्षा और संग्रह के अभाव के कारण बंगाल की ये अनमोल संपत्ति विलुप्त होने के कगार पर है।

ब्रत, नियम तथा उपवास के क्षेत्र में बंगाल के रमणीगण बचपन से ही गुरु भक्ति, धर्म में विश्वास, गृह धर्म के प्रति आस्था आदि को अपने दैनिक जीवन में भली भांति घुला मिला लेती हैं। बंगाल की स्त्रियॉं द्वारा किए जाने वाले कुछ विशिष्ट व्रत –

हरीश मंगल चंडीर व्रत

बार व्रत के क्षेत्र में मंगल चंडी का व्रत सर्वोपरि है। परिवार की मंगल कामना करते हुए भगवती चंडीका देवी की महत्ता का वर्णन करना ही इस व्रत का मूल उद्देश्य है। बंगाल के विभिन्न क्षेत्र में इसे तीन प्रकार से मनाया जाता है – (1) हरीश मंगल, (2) जय मंगल, (3) संकट मंगल।

वैशाख के प्रति मंगलवार को हरीश मंगल चंडी का व्रत किया जाता है। कुमारी, सधवा और विधवा सभी को यह व्रत करने का अधिकार है। प्रत्येक परिवार से कम से कम एक स्त्री को इस व्रत का पालन करना होता है। व्रतकथा के समाप्त होने पर फलादि खाकर व्रत को तोड़ा जाता है। उस दिन अन्न ग्रहण नहीं कर सकते हैं। मंगल चंडी के व्रत में “अर्घ” का महत्वपूर्ण स्थान है। इसे दूर्वा, अक्षत चावल के दाने को केले के पत्ते और रेशम के कपड़े को त्रिकोणाकार में लपेट कर बनाया जाता है। जितने लोग व्रत करेंगे उतने ही अर्घ की आवश्यकता होगी। इस अर्घ के सम्मुख केले के पत्ते में सिंदूर लगाकर रखा जाता है। पूजा के पश्चात इस अर्घ को संभालकर रखा जाता है। आज भी शुभ कार्य या दूर दराज के क्षेत्र में जाना जैसे विदेश गमन के समय इस अर्घ को मंगलकामना के साथ मस्तक में स्पर्श करके रवाना कराने की प्रथा है। व्रत की कथाओं को सुनने के लिए सभी स्त्रियों को एक साथ एक जगह बैठाकर हाथ में अर्घ लेकर व्रत कथा को सुनने की प्रथा है। घर परिवार की ज्येष्ठ महिला व्रत कथा को सुनाती है और अगर किसी को उठकर जाना होता है तो आसान पर एक रेखा खींचकर आसान से उठाने की प्रथा है। सभी व्रत कथाओं का यही नियम है। हाथ में पुष्प लेकर कथा सुनने के लिए अपने आसान पर बैठना है खाली हाथ नहीं बैठना है।

हरिष मंगलचंडी की कथा

एक ब्राह्मणी और एक ग्वालन में बड़ी गहरी मित्रता थी। ब्राह्मणी को हरिष मंगल चंडी का व्रत करते देख ग्वालन की भी इच्छा हुई कि वह भी व्रत करें और उसने व्रत करना आरंभ कर दिया। दिन बितते गए और ग्वालन का संसार सुख-धन-संपत्ति से भर उठता हॅ। वह इतनी सुखी हो जाती हॅ कि सुख से उसका मन उचट जाता हॅ। वह रोना चाहती थी दु:खी होना चाहती थी पर मंगल चंडी के वरदान से वह और अधिक सम्पन्न होने लगी। उसने ब्राह्मणी से फरियाद की कि उसे रोना है थोड़ा दु:ख चाहिए। ब्राह्मणी ने एक के बाद एक दु:खी होने के अनेक उपाय बताए पर वह सफल नहीं हुई। अंतत: ब्राह्मणी ने उसे इस मंगलवार को व्रत न करने का सुझाव दिया। ग्वालन ने वैसा ही किया। ज्यों ही उसने व्रत करना छोड़ दिया उस पर दु:खों का पहाड़ टूट पड़ा। देवी रुष्ट हो गई। पूरा परिवार नष्ट हो गया। ग्वालन फूट फूटकर रोने लगी। ब्राह्मणी के पास दौड़ गई। ब्राह्मणी ने उसे फिर से मंगल चंडी के व्रत को करने का सुझाव दिया। ग्वालीन ने फिर से धूमधाम से व्रत किया और पूजा के फूल को मृतकों पर छिड़क दिया। सब पुन: जीवित हो उठे। माँ मंगल चंडी की कृपा से ग्वालन का संसार फिर से सुख और धन-धान्य से पूर्ण हुआ।

जय मंगलचंडी का व्रत

यह व्रत किसी भी मंगलवार को किया जा सकता है। इस कथा को एक अति वृद्ध स्त्री के मुख से सुनकर और इसमें के कुछ अंशो को इधर उधर के गाँव के लोगों से सुनकर इसका उद्धार किया गया है। इस कथा में गाँव की कुछ प्रौढ़ महिलाओं का भी विशेष योगदान है। मौखिक होने के कारण जिसे जितना याद रहा उन्होने उतना ही बताया।

उजान नागरी में विकरण केशरी नामक एक धनी व्यक्ति रहता था। उनकी दो बेटी थी। एक का नाम लहना और दूसरे का नाम खुल्लना था। विमाता ने खुल्लना को जंगल में बकरी चराने भेज दिया। जंगल में बकरियों के खो जाने पर विमाता के ड़र से खुल्लना बेहोश हो गई। बेहोशी टूटने पर उसे “ऊलू ध्वनि” (पूजा – खुशी, या त्यौहार के समय मुख से निकाली गई हर्ष ध्वनि) सुनाई दी। वह उठकर उसी ओर चल दी। जाकर देखा कि कुछ स्त्रियाँ एक जूट होकर धूप दीप जलाकर पूजा कर रही थी। पूछने पर उन्होने प्रति मंगलवार को मंगल चंडी के व्रत के विषय में बताया और उसे भी पूजा करने के लिए उत्साहित किया। खुल्लना ने उन लोगों के साथ भी पूजा की और घर लौटकर भी इस व्रत के विषय में लोगों को बताया। इस प्रकार से कथा आगे बढ़ती गई और घर परिवार सुख शांति से भर उठा। परिवार की सुख शांति के लिए और सामाजिक सौहार्द के लिए इस व्रत का पालन किया जाता है। कथा बहुत लंबी है। मैंने इसे संक्षिप्त में लिखा पर रस में व्याघात न हो इसका ध्यान रखा है – कथा के कुछ अंश –

“बाडिल संपद तार पूरिल कामना।

मंगल चंडीर जय जागते घोषणा॥

अपुत्रर पुत्र हय, निर्धनेर धन।

विवाह कामना करे, पुत्र कन्यावती।

मनोमत कन्या वर लभे शीघ्रगति॥

जे घरे पूजा पान चंडी भगवती।

चोर अग्नि भय नाई नाहिक दुर्गति॥

प्रणाम करिया द्विज जनार्दन पाय।

पांचाली उद्धार व्रती परमेश्वर राय।

जे अक्षर परिभ्रष्ट मात्रा हिन जाहा।

जनार्दन प्रसादत्त पूर्ण हॉक ताहा॥“

कथा के अंतर्गत माँ चंडी के गुणों को दर्शाया गया है। अपुत्र पुत्र प्राप्त करता है। कुमारियों को अच्छा वर मिलता है। चोर, अग्नि किसी का भी डर नही रहता है। सुख शांति से सब रहते हैं।

प्रणाम - सर्व मंगला मांगले शीबे सर्वार्थ साधिके।

शरण्ये त्रयंबके गौरी नारायणी नामोस्तुते॥

पूजा समापन होने पर प्रसाद ग्रहण कर सभी महिलाएं अपने-अपने घर की ओर प्रस्थान करती हैं।

संकट मंगल चंडीर व्रत

अगहन के महीने के किसी भी एक मंगलवार को यह व्रत करने की विधा है। अन्य व्रतों की तरह इसमें भी अर्ध का विधान है। इसे हाथ में लेकर पूजा में बैठना है। यह व्रत अन्य व्रतों से थोड़ा कठिन है। इसमें व्रत करने वाली स्त्रियाँ सभी एक साथ मिल बैठ कर भोजन बनाकर भोजन ग्रहण करने के पश्चात ही व्रत की कथा को सुनने के लिए बैठतीं हैं। परंतु इसे अकेले भी इसी प्रकार से संपन्न किया जा सकता है। सभी साथ मिलकर रंधन, भोजन, आचमन और ताम्बूल सेवन के पश्चात, एक महिला दूसरे से “संकट से पार हो?” दूसरी महिला जवाब देगी “पार हो जाओ?” इस प्रकार से तीन बार अनुमति लेने और अनुकूल जवाब मिलने पर “संकटावस्था” (दक्षिण जानू को घेरकर दक्षिण हाथ से पाक विधि को सम्पन्न करने की विधि को संकटावस्था कहते हैं) को परित्याग करके ही आसन से उठने का विधान हैं। इसी प्रकार से सभी महिलाओं के संकट मुक्त होंने की प्रथा है। इस व्रत में कथा सुनने की जो प्रथा है उसे सभी साथ मिलकर बैठकर सुनने पर ही इसमें आनंद और श्रद्धा की वृद्धि होती है।

संकट मंगल चंडी की कथा

एक राजा अपनी सात रानियों के साथ बहुत दु:खी था। वह संतानहीन था। एक दिन एक सन्यासी उसके राज्य में आया और कुछ जड़ी बूटी देकर इसे पीसकर सभी रानियों को खिला देने को कहा। शर्त ये रखी कि इन राजकुमारों में से एक को वह अपने साथ लेकर जाएगा।

राजा अपनी छोटी रानी को बहुत प्यार करता था। इसलिए सभी रानियाँ छोटी रानी से जलती थी। उन्होने आपस में मिलकर जड़ी-बूटी को पीसकर खा लिया और छोटी को कुछ भी नहीं दिया। जब छोटी को पता चला तो उसने उस पत्थर को धोकर पी लिया जिस पर जड़ी-बूटी को पीसा गया था। समय होने पर सभी के बच्चे हुऍ। पर सभी के बच्चे विकलांग होकर जन्में परंतु छोटी रानी ने एक श्वेत शंख को जन्म दिया।

छोटी शंख को नहला धुलाकर रखने लगी। एक दिन रात को उसने देखा कि एक छोटा सा बच्चा शंख में से निकालकर रेंगता हुआ उसकी ओर बढ़ रहा है। तब उसने उस शंख को फोड़ दिया ताकि वह बच्चा उस शंख में फिर से न जा सके। बच्चे ने माँ से कहा, “माँ तुमने क्यों शंख को तोड़ा? अब तो वो सन्यासी आकर मुझे अपने साथ ले जाएगा।“ पर रानी ने संकट मंगला चंडी को प्रणाम करके उस बच्चे को ले जाकर राजा को सौंप दिया। राजा सुंदर और स्वस्थ बच्चे को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उसका नाम शंख कुमार रखा और उसके शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था कर दी। शंख कुमार बड़ा होने लगा। कुछ दिन के पश्चात वह सन्यासी आया और शंख कुमार को अपने साथ लेकर चला गया। दोनों एक टूटे हुए मंदिर के पास पहुंचे। वहाँ एक तालाब को दिखाकर सन्यासी ने शंख कुमार को नहा कर आने के लिए कहा। तालाब तक जाते-जाते राजकुमार को एक बंद दरवाजे से रोने चिल्लाने की आवाज सुनाई दी।

सन्यासी की आँख बचाकर राजकुमार ने उस दरवाजे को खोलकर देखा तो एक तालाब दिखी जो खून से भरी थी और उसमें बहुत सारे कटे हुए सर तैर रहे थे। सभी सर उसे देखकर रोने लगे। “अब तो तुम्हें भी वो बदमाश मार डालेगा” सबने कहा। फिर? तब उन्होने बताया कि तुम्हें नहला धुलाकर वह देवी माँ को साष्टांग प्रणाम करने को कहेगा। तुम कहना मैं राजकुमार हूँ। प्रणाम करना मैं नहीं जानता। तुम मुझे बताओ प्रणाम कैसे किया जाता है।“ ज्यों ही वह साष्टांग प्रणाम करेगा तुम उसके सर को धड़ से अलग कर देना। और माँ के चरणों के पास पड़े पुष्पजल को लाकर हम पर छिड़क देना तो हम सब जीवित हो उठेगे।“ शंख कुमार ने वैसा ही किया और सभी को जंगल से निकाल लाया। सभी शंख कुमार की जय जयकार करते हुए घर लौट गए। शंख कुमार भी अपने घर लौट गया। छोटी रानी ने सभी रानियों को बुलाकर संकट मंगला चंडी का व्रत किया। षष्ठी माँ ने सभी को स्वस्थ कर दिया और राजा को सुखपूर्वक राज्य करने का आशीर्वाद दिया। छोटी रानी की भक्ति और आदरभाव के कारण सब सुखपूर्वक रहने लगे। इस प्रकार से माँ की महत्ता का प्रचार के साथ-साथ व्रत का प्रचार भी होने लगा।

अरण्य षष्ठी का व्रत

एक ब्राह्मण और एक ब्राह्मणी रहते थे। उनके बच्चों के जन्म लेने के कुछ दिन के पश्चात ही स्वर्ग सिधर जाते थे। ब्राह्मण और ब्राह्मणी दोनों बहुत दु:खी रहते थे। चार बच्चों की मृत्यु के पश्चात ब्राह्मण ने “अरण्य षष्ठी” के पास जाने का निश्चय किया। ब्राह्मण को रास्ते में अपनी-अपनी शिकायतों के साथ एक गाय मिली, एक बूढ़ी ऑरत मिली, एक नौकरानी मिली सभी ने विनती की कि वह उनकी तकलीफ़ों को माँ अरण्य षष्ठी तक जरूर पहुंचाएँ। सभी की सुनते हुए अनेक बाधाओं को पार करते हुए ब्राह्मण जंगल पहुंचा। षष्ठी माँ को पुकारते हुए दया की भीख मांगने लगा। ब्राह्मण को गिड़गिड़ाते देख माँ का मन पसीज गया। दर्शन देकर उन्होने ब्राह्मण को शांत होने के लिए कहा। उसके दु:ख के कारण को सुनते हुए माँ षष्ठी ने कहा कि मेरे भेजे गए बच्चों को ब्राह्मणी प्यार से नहीं रखती है। मारती पिटती है, मारना-पीटना मना है। इसे गांठ बांध लो। ब्राह्मण माँ के चरणों पर गिर पड़ा और क्षमा प्रार्थना करने लगा। माँ की हर बात को मनाने के लिए तैयार हो गया। बच्चों को चोट लगाने पर “बालाई शाठ” या “साठ-साठ” कहकर उनको बहलाना आदि बातों की उसने गांठ बांध ली। ब्राह्मण ने माँ षष्ठी से अनेक वरदान प्राप्त किए। फिर रास्ते में मिली सभी की शिकायतों के बारे में माँ से कहा। माँ ने कहा, “मुझे सब पता है। सब अपने अपने कर्मों का फल भोग रहे है। उनसे मिलने पर दूसरों को मदद करने की भावना को जीवन में प्राथमिकता देने को कहना। एक अकेला सुखी नहीं रह सकता। सब मिल-जुलकर प्रेम से रहने पर समस्याएँ हल हो जाएगी। और मेरे व्रत का पालन निष्ठा पूर्वक करने के लिए कहना।“

ब्राह्मण घर लौट आया। रास्ते में मिले सभी को माँ का संदेशा दिया। व्रत का पालन करने को कहा। सभी बातों को सुनकर ब्राह्मणी माँ से क्षमा प्रार्थना करने लगी। दुगुने उत्साह से माँ अरण्य षष्ठी के निर्देशों का पालन करने लगी। समय पर एक सुंदर सा पुत्र हुआ। दु:ख के दिन बीत गए। व्रत का प्रचार प्रसार होने लगा।

प्रणाम - जय देवी जगजनमात जगदानंद कारिणी।

प्रसीद में काल्यानी नमस्ते षष्ठी देवी के॥

इस व्रत के करने पर – होइए पुत्र मोरबे ना।

चोखेर जल पोड़बे ना।।

श्री श्री लक्ष्मी देवी व्रत कथा

बंगाल के घर घर में आज भी प्रत्येक बृहस्पतिवार को अर्थात गुरूवार को श्री श्री लक्ष्मी देवी की पूजा की प्रथा है। और व्रतकथा और पांचाली का पाठ किया जाता है। यह प्रथा वंशानुक्रमानुसार चलता है। माँ बेटी को, सास बहू को इस पूजा को दे जाती है। सुबह या शाम जब भी सुविधा हो नहा धोकर पूजा केवल गृहणी ही करती है। साथ में घर की महिलाएं भी जुड़ती है। प्रसाद रखा जाता है। फूल, बिल्लीपत्र द्वारा कलश की स्थापना की जाती है। फलादि प्रसाद के लिए रखा जाता है। फिर हाथ में फूल लेकर कथा का पाठ करते हैं –

दोल पूर्णिमा निशि निर्मल आकाश।

मृदु मंद बहितेछे मलय वातास।।

लक्ष्मी देवी लोएवामे वसी नारायण।

करिन नाना कथा सूखे आलापन।।

हेनकाले वीणा करे एलो मुनिवर।

उपनीत होईल आसी वैकुंठ नगर॥

उभयेर चरनेते करिया प्रणति।

बलिल नारद मूनी लक्ष्मी देवी प्रति।।

कि कारणे आगमन लक्ष्मी जिगासिल।

प्रणाम करिया ऋषी बोलीते लागील॥

मांवर प्रति तब केन अविचार। चंचला चपला होए फेरो द्वार-द्वार॥

क्षन काल तरे तब नाही कोथा स्थिति।

से कारणे नर नारी भूगीछे दुर्गति॥

लक्ष्मी देवी के पास नारद धारा की स्त्रियॉं की दुर्गति की कथा को लेकर पहुँचते हैं कि क्यों वह स्थिर होकर एक जगह नहीं बैठती है। चंचला की तरह यहाँ से वहाँ घूमती रहती हैं। जिससे पृथ्वीवासियों को कष्ट सहन करना पड़ता है। फिर लक्ष्मी देवी धरा में होने वाली कुछ अनिष्टकारी कारणों को नारद के समक्ष प्रस्तुत करती हैं। जो उसे पसंद नहीं है। जिसके कारण वह कहीं भी स्थिर नहीं रहती है। इनमें नारी का असम्मान, आस्वच्छ परिवेश आपसी भेदभाव आदि आते हैं। जिसका पृथ्वीवासी अगर पालन करें तो लक्ष्मी जी धरा पर स्थिर होकर रह सकती हैं।

व्रत का प्रचार अर्थात लक्ष्मी जी की वाणी का प्रचार। यही कथा का मूल है।

मनसा मंगल कथा

डॉ॰ आशुतोष भट्टाचार्या लोक साहित्य के साथ साथ लोक संस्कृति के भी प्रकाण्ड विद्वान थे। उन्होने “सन एंड स्नेक इन बंगाली फोक लोर” नामक एक ग्रंथ की रचना की है। जिसमें बंगाल में सर्प तथा सूर्यपूजा का विवेचन किया गया है। बंगाल में सर्पों की अधिष्ठात देवी “मनसा” मानी जाती है। जिसके संबंध में अनेक गीतों तथा काव्यों की रचना की गई है। इसी देवी का विवेचन इस ग्रंथ का मुख्य विषय है। (भारत में लोक साहित्य – डॉ॰ कृष्णदेव उपाध्याय – पृ॰ 208)

मनसा मंगल कथा चान्द सौदागर और सर्प की देवी मनसा की कथा है। चन्द्रधर भगवान शिव का पुजारी था वह और किसी भी देवी देवता की पूजा नहीं करता था। देवी मनसा चान्द सौदागर को ‘अपनी’ पूजा आराधना करते हुए देखना चाहती थी। चन्द सौदागर उन्हें पूजना नहीं चाहते थे। इस वैर भाव के कारण माँ मनसा ने सौदागर के धन से भरे सात नौकाओं को समुद्र में डूबो दिया, उसके सात बेटों को भी समाप्त कर दिया। सौदागर के सबसे छोटे बेटे लकसीनदर की नव विवाहिता पत्नी बेहुला ने अपनी भक्ति, आत्मबल, श्राद्धा, साहस के बल पर माँ मनसा को जीत लिया। बेहुला ने चान्द सौदागर के सात पुत्रों का जीवन दान दिलाया। सब जीवित हो गए। धन संपत्ति से भरे सात नौकाएँ लौट आई। माँ मनसा की पूजा आरंभ हो गई। निष्ठा से कथा सुनकर व्रत करने पर माँ का आशीष मिलता है। मौखिक होने के कारण इस कथा की घटनाओं में फेर बदल दिखता है। पर बंगाल के हर क्षेत्र में मनसा मंगल की पूजा का प्रचार है और उनके भक्त उनकी कथा को बड़े प्रेम से सुनते हैं।

इस प्रकार से बंगाल में अनेक व्रत कथाएँ प्रचलित हैं जैसे – नाग पंचमी (छोटों वोऊ), गाडाशी (अलक्षीर छलना), क्षेत्र (कृषि), बूड़ा ठाकुरानी (शंकर – शंखारी) इतु राल (दुई भगीनि), कुलाई (शुचिबाई), नाटाई (धनपति सौदागर उ धनपत कुमारी), पाटाई (बोऊमार शिक्षा) आदि है। इन कथाओं में कुछ कुछ घटनाओं को छोडकर अत्यधिक समानताएँ हैं। स्थान नियम आदि में परिवर्तन होने के साथ साथ कुछ घटनाएँ जुड़ भी जाती हैं।

लोकोक्तियाँ

बंगाल में प्रचलित लोकोक्तियों के विषय में भी शोध-कार्य विगत शताब्दि के मध्यकाल से ही चला आ रहा है और यह आज भी अबाध गति से गतिशील है।

संभवत: बांगला लोकोक्तियों की सबसे प्रथम पुस्तक मुरारी मोहन विश्वास द्वारा संकलित “वाक्य विन्यास” नामक पुस्तक है जो कोलकाता से सन 1848 में प्रकाशित हुई थी। इसी विषय को लेकर मधु माधव चटर्जी ने “प्रवाद पद्मिनी” नामक ग्रंथ लिखा। जो सन 1890 में चन्द्रनगर से प्रकाशित हुई। 1890 में के॰ घोषाल की “प्रवाद संग्रह” छ्पी जिसका अंग्रेजी अनुवाद 1843 में “ए बूक ऑफ प्रोवर्म्स” के नाम से प्रकाशित हुआ। राजेंद्र लाल बनर्जी का 1893 में “ए कलेक्शन ऑफ अग्रीकल्चरल इन लोअर बंगाल” सामने आई जिसमे कृषि से संबन्धित कहावतों का संकलन उपलब्ध होता है। द्वारिकानाथ बसु की “प्रवाद पुस्तक” का प्रकाशन 1893 है। श्री भोलानाथ दत्त की “डाकेर कथा” 1817 में प्रकाशित भी लोकोक्तियों से संबंध रखती हैं। नारायण (वी) ने “डाक पुरुषेर वचन” 1828 में तथा डॉ॰ एस॰ के॰ दे ने “बांगला प्रवाद” 1952 एक विद्वत्तापूर्ण संग्रह है। ज्योति प्रकाश बनर्जी ने अपनी पुस्तक “प्रवाद जन्म कहानी” में लोकोक्तियों के इतिहास पर प्रकाश डाला है। (भारत में लोक साहित्य – डॉ॰ बलदेव उपाध्याय पृ॰ 193)

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बंगाल के लोक साहित्य के क्षेत्र में रेवरेण्ड जेम्स लाँग का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस विद्वान ने बंगाल में लोक संस्कृति (फोक लोर) तथा समाज शास्त्र के अध्ययन को प्रारम्भ किया। इन्होने बंगला भाषा में प्रचलित लोकोक्तियों का संग्रह प्रचुर परिमाण में किया 1851 में इनकी “बेंगाली प्रोवर्भ्स” नामक पुस्तक प्रकाशित हुई जिसमे उन्होने बंगाली स्त्रियॉं के मुंह से सुनकर 5000 (पाँच हजार) लोकोक्तियों का संग्रह प्रस्तुत किया। 1868-69 में इनकी “प्रवाद माला” पुस्तक प्रकाशित हुई जिसमें 2000 (दो हजार) लोकोक्तियों का संकलन उपलब्ध होता है। दो भागों में प्रकाशित इस पुस्तक में बंगाल के ग्रामीण जीवन का चित्र उपलब्ध होता है। 1871 में इनके द्वारा एक अन्य ग्रंथ प्रकाशित किया गया जिसमें तामिल, तेलुगू, बंगाली, संस्कृत और कन्नड आदि भाषाओं में उपलब्ध समान भाव वाली लोकोक्तियाँ संग्रहित हैं। इनके द्वारा संग्रहित “ओरिएंटल प्रोवेर्स” का प्रकाशन 1875 में लंदन से हुआ जिसमें लोक संस्कृतिक तथा समाजशास्त्रीय लोकोक्तियों के संबंध में विवेचन किया गया है। इनका “ईस्टर्न प्रोवर्ब्स एंड एम्ब्लेन्स” 1881 में प्रकाशित हुआ। इन्हीं कारणों से बंगाल में लाँग को पादरी लाँग के नाम से पुकारते हैं। (भारत में लोक साहित्य – डॉ॰ बलदेव उपाध्याय पृ॰195)

उपरोक्त विद्वानो ने बंगाल की लुप्त होती विधा को जीवित रखने की, संग्रहित करने की भरसक कोशिश की। इन विद्वानों ने बूढ़ी-स्त्रियॉं-पुरुषों, नौकरानियों से इन लोकोक्तियों को सुनकर इनका संग्रह किया है। इनमें कुछेक लोकोक्तियाँ तो, लुप्त प्राय है जहां से संग्रह किया गया है वहाँ के लोग ही उसे अब नहीं जानते हैं। कुछ प्रचलित लोकोक्तियाँ –

(1) “गाछे कांठाल गोफे तेल” – मनमानी कल्पना करना।“

(2) “छूंच होए डुके फाल होए बेरोबो” – छोटा होने पर भी बड़ा काम करने की भावना

(3) “केंचो खूँडते सांप” – एक काम को करने गए पर निकला कुछ दूसरा ही।“

(4) “मेघ ना चाइतेई बृष्टि” – जो चाहा उससे अधिक मिलना।

(5) “नाचते न जानले उठोन बेंका” – नाच न जाने आँगन टेढ़ा।

लोक नृत्य तथा लोक नाट्य

प्राचीन काल से नृत्य के माध्यम से लोग अपना मनोरंजन करते थे। कालांतर में इसमें परिवर्तन आने लगा। पूजा, विवाह, किसी प्रकार का भी आनंदोत्सव में नृत्य गीत आदि की प्रधानता देखने को मिलने लगी। बंगाल के लोक नृत्य राज्य की समृद्ध संस्कृति को दर्शाते लोक नृत्य पाए जाते हैं। पश्चिम बंगाल के लोक नृत्य यहाँ के लोगों के उत्साह और सुंदरता के लिए जाना जाता है। नृत्य आदिवासी जीवन पद्धति का एक हिस्सा है। अपने जीवन के हर्षोल्लास को नृत्य गीत के माध्यम की हम यहाँ चर्चा करेंगे। गुरु सदय दत्त बंगाल के उन लोक साहित्य के विद्वानों में थे जो कि लोक साहित्य के की उन्न्ती के लिऍ आजीवन लगे रहे। गुरु सदय दत्त ने “फोक डांस ऑफ बंगाल” तथा “फोक आर्ट ऑफ बंगला” नामके ग्रन्थों का निर्माण किया। इन्होने अनेक लोक नृत्यों का आविष्कार स्वयं किया।

बृता नृत्य

बृता नृत्य बंगाल की महिलाएं ही करती हैं जिसे आव्हान नृत्य भी कहा जाता है। इसे वे महिलाएं करती हैं जो कि बच्चों को जन्म देने में असमर्थ होती है। और वही महिलाएं बच्चों को जन्म देने के पश्चात भगवान को नमन करने के लिए आभार मानने के लिए यह नृत्य करती हैं। संक्रामक रोग से उबरने के बाद भी यह नृत्य किया जाता है।

छऊ नृत्य

बंगाल का विशिष्ट नृत्य है। यह नृत्य सूर्य को पूजने का त्योहार है जो चैत्र माह में मनाया जाता है। विशेषत आदिवासी लोग इस नृत्य को करते हैं। पर मुख्यत: यह लोक नृत्य बंगाल के पुरूलिया जिले में की जाती हैं। इसलिए इसे बंगाल में पुरूलिया छऊ के नाम से जाना जाता है। यह नृत्य विभिन्न राज्य में प्रचलित अन्य छऊ नृत्यों से काफी भिन्न है। इस लोक नृत्य में एक मुखौटा पहना जाता है जो इस लोक नृत्य की विशेषता है। इसे स्त्रियाँ बहुत कम करती है। यह पुरुष प्रधान नृत्य है। जिसके पात्र पौराणिक कथाओं के होते हैं जैसे रामायण, महाभारत आदि ।

गंभीरा नृत्य

यह लोक नृत्य मुख्यत: कृषि नृत्यों पर आधारित होती है पर बाद में इसे भक्ति में भी किया जाने लगा है। यह लोक नृत्य मार्च-अप्रैल के महीने में विशेष रूप से चादक त्यौहार के दौरान किया जाता है और यह विशेषत: उत्तर बंगाल के मालदा जिले में बहुत लोकप्रिय है। इसे अकेले भी किया जाता है और मुखौटा पहन कर समूह में भी यह नृत्य करने की प्रथा है। पर दिन-ब-दिन यह नृत्य अपनी चमक खो रही है। बंगाल के प्रसिद्ध भक्ति नृत्य में से एक गंभिरा भी है।

टुसू नृत्य

ऐसे अनेक लोक नृत्य है जो किसी ऍक विशेष उत्सव के समय किया जाता है। उनमें से बीरभूम जिले का टुसू नृत्य एक है। जिसे पोष के महीने में किया जाता है। यह एक आदिवासी लोक नृत्य है जो पुरूष और महिला दोनों मिलकर करते हैं। यह पुरूलिया और मेदिनीपुर में अधिक लोकप्रिय है। फसल काटने के दौरान यह मनाया जाता है ताकि आने वाली फसल का भी उत्सव मनाया जा सके।

संथाल नृत्य

अधिकांश भारतीय जन जातियाँ संथाल है। इस जन जाति का एक बड़ा हिस्सा भारतीय राज्य झारखंड और पश्चिम बंगाल में पाया जाता है। लोग प्रकृति की महिमा का जश्न मनाने, प्रार्थना करने और संदेश देने के लिए नृत्य को माध्यम बनाते हैं। इस प्रकार से इस आदिवासी समाज के लोगों द्वारा किए गए नृत्य को संथाल नृत्य कहते हैं। ढ़ोल, मृदंग, और घुंघरू के साथ एक लय पूर्वक संगीत, मन और शरीर दोनों को झूमने के लिए बाध्य कर देता है। यह लोक नृत्य अपने प्रकार का ऍक अद्भूत नृत्य है।

लाठी नृत्य

यह नृत्य लोक नृत्य का एक विशेष रूप है। यह नृत्य पश्चाताप, उत्सव, क्रोध, दर्द या प्रेम जैसी विभिन्न स्थितियों को व्यक्त करने के लिए किया जाता है। लाठी नृत्य की नर्तकियों की चाल एक सुंदर तरीके से प्रत्येक अभिव्यक्ति को स्पष्ट रूप से परिभाषित करती है। यह एक छड़ी नृत्य है जिसे मोहर्रम में किया जाता है।

कीर्तन नृत्य

इस लोक नृत्य के बारे में कहा गया है कि ईश्वर को प्रार्थना या अपने सुख दु:ख बताने के लिए इस नृत्य को किया जाता है। एक प्रकार से इसे स्तुति नृत्य कह सकते हैं जिसे समूह में लय ताल के साथ झूम झूमकर किया जाता है। इस नृत्य को करने वाली नर्तकियाँ इसके धून और ताल से परिचित होने के कारण देखनेवाले स्वत: इसमें जुड़ जाते हैं।

कुषाण नृत्य

यह नृत्य भी कीर्तन लोक नृत्य की तरह धार्मिक विषयों पर आधारित नृत्य है। बांसुरी, हारमोनियम, ढ़ोल आदि का प्रयोग होता है। झुंड बनाकर इस नृत्य को करने के कारण विषय का प्रभाव भी गहराई से लोगों के मन पर पड़ता है।

यात्रा (जात्रा)

मंगलगान, लोक संगीत, पालागान आदि में यात्रा के अंकूर छुपे हुए है। देवताओं के सम्मुख नृत्य गीत आदि का प्रचालन वैदिक युग से चला आ रहा है जो लोक नृत्य का विशिष्ट अंग है। धार्मिक पुराण में नृत्यगीत आदि के अनुष्ठान का वर्णन मिलता है। मंगलचंडी की पूजा में नृत्यगीत का प्रचलन हॅ। चामर, मंजिरा, खोल तानपूरा के साथ मंगलचंडी का नृत्य गीत होता हैं। मनसा माँ का विसर्जन भी ढ़ोल मंजीरा के साथ गाँव-गाँव में घूम-घूमकर नृत्यगीत के साथ होता हैं। कीर्तन से साथ भी नृत्य होता हैं। और पांचाली का उद्भव कीर्तन गान से हुआ है। (बंगला साहित्यर इतिहास – डॉ॰ सुकुमार सेन पृ॰ 559} इसमें धार्मिक कथाओं को गीतात्मक शैली में प्रस्तुत किया जाता है। क्रमश: पांचाली की कथा लंबी होने लगी अत: एकाधिक लोग इसमें भाग लेने लगे इस प्रकार से जात्रा का उद्भव हुआ। श्री चैतन्य महाप्रभु के द्वारा वैष्णव धर्म के प्रचार-प्रसार में यात्रा का बहुत बड़ा योगदान रहा। कृष्ण जात्रा गान जन साधारण के मध्य बड़ी तीव्रता से प्रसारित हुई। वैष्णव ग्रंथ में लिखा गया है कि महाप्रभु स्वयं यात्रागान के अनुष्ठान में भाग लेते थे।

बंगाल का लोक साहित्य इस प्रकार की अनेक यात्राओं से समृद्ध है जिसमे नारी पुरूष दोनों अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं। शिशुराम का “कालीय दमन”, लोचन अधिकारी का “अक्रूर संवाद”, “निमाई सन्यास” आदि विख्यात यात्रा आज भी प्रसिद्ध है।

यात्रा में गीत का विशिष्ट स्थान हैं। रंगमंच नहींवत होता है केवल मात्र एक मंच पर ही यह खेला जाता है। गोविंद अधिकारी नामक संगीतकार ने अपने यात्रागीत से पूरे बंगाल में अपनी धाक जमा दी थी। नीलकंठ मुखोपाध्याय एक प्रसिद्ध यात्राकार थे। उन्होने “कंसवध”, “चंडालिनी उद्धार”, “ययातिर यज्ञ” आदि पालाओं की रचना की हैं। (बंगला नाटकेर इतिहास – डॉ॰ अजित कुमार घोष – पृ॰ 8), कृष्णकमल भट्टाचार्या और मधुसूदन कान का भी यात्रा के क्षेत्र में बड़ा योगदान है। “राई उन्मादिनी”, “स्वप्नविलास”, “विचित्र विलास” आदि पाला गान से पूरा बंगाल उन्मत्त हो उठा था। (यात्रा में पाला गान गाए जाते हैं।) यात्रा में जो पाला गान गाए जाते हैं उसके कारण भी यात्राएं प्रसिद्ध होती थी। विषयानुरूप इसकी रचना लोग यात्रा करते समय मौखिक रूप से करते थे और याद रखते थे ताकि दूसरी बार अन्यत्र भी गाया जा सकें। मधुसूदन कान की रचनाएँ तत्कालीन समाज में प्रसिद्ध थी। उन्होने “कलंकभंजन”, “माथूर प्रभास” आदि पालाओं की रचना की। “माथूर” पाला का एक पद –

कोण गुणे आर करो हे गुण गुन

हे निर्गुण अलि।

एगुने जे बाड़े आगुन,

आमरा द्विगुण जालाय जोली।

जार: गुनेते तुमी गुणी, हारायेछो सेई गुनी,

सदा मोरी से आगूनी,

आबार की गुनगुन सुनाली।।“

कृष्णयात्रा की ख्याति अधिक होने पर भी रामयात्रा चंडीयात्रा, मनसा विसर्जन यात्रा भी प्रसिद्ध हैं। अधिकांश यात्रा नारी केन्द्रित होती हैं और नारियों द्वारा पाला गान और यात्रा का एक हिस्सा होने के कारण यात्रा में उनका पूर्ण हस्तक्षेप था।बंगला की यात्रा (जात्रा) धार्मिक लोक नाट्य है।

लोक साहित्य में लोक नाट्य का अत्यंत महत्वपूर्ण एवं गौरवशाली स्थान होता है। इसमें गीत, नृत्य तथा संगीत की त्रिवेणी होती है। ये नाटक मानस की अनुकरनमूलक प्रवृत्तियों, कल्पनाओं और क्रियात्मक अभिव्यक्तियों के सहज प्रतिरूप होते हैं। भारत के स्तर पर राम और कृष्ण सर्व प्रिय लोकनायक हैं। भारतीय लोक नाटकों में उनकी लीलाओं का गान होता है और बंगाल का लोकनाट्य इससे अछूता नहीं हैं। बंगाल के लोकनाटकों के कथानक पौराणिक एवं ऐतिहासिक होते हैं। पात्रों को अभिनय की पूरी स्वतन्त्रता होती है। कहीं-कहीं पुरूष स्त्री पात्रों को निभाते हैं परंतु कालांतर में इस प्रथा में बदलाव आया है। (डॉ॰ योगेंद्र प्रताप सिंह – रामलीला – रासलीला और इंडिया का स्वरूप विश्लेषण – पृ॰ 19) लौकिक आचारों के साथ लोक भाषा के गीत, कथाएँ, मुहावरें, स्थानीय बोलियों के ध्वन्यात्मक प्रयोग मंच पर पात्रों द्वारा प्रस्तुत किए जाते हैं। बंगाल के कुछ क्षेत्रों में मुखौटा लगाकर नाटक करने का प्रचलन है। जन सामान्य को आल्हादित करना इनका उद्देश्य होता है। मौखिक रूप से प्रवाहमान ये संवाद स्थानानुसार बदलते रहते है।

लोक नाटकों के प्रदर्शन में अनुष्ठान की तरह सामूहिक परिश्रम तथा जीवंत गतिशीलता अनिवार्य रूप से मौजूद रहती हैं। मूलत: ये आयोजन खुले में किए जाते हैं। (लोक रंगमंच के विविध रंग – नरेंद्र कुमार पृ॰ 17) लोक नाट्य में दर्शकों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। इनकी सजीव प्रतिक्रिया नाटकों में रोचकता लाती है। शिक्षा का ऐसा जीवंत माध्यम बांगला ग्रामीण परिवेश में दूसरा नहीं हैं।

लोक नाट्य में लोक साहित्य जैसा कि नाट्य शब्द से ही आभास हो जाता है कि यह रंग मंच से जुड़ा विषय है। इसमें “लोक गाथा” (रसबद्ध काव्यात्मक गायन लोक साहित्य हैं।) और “लोक कथा” लोकनाट्य यात्रा (जात्रा) का ही परिवर्धित रूप है। खुले आकाश के नीचे फैला हुआ विस्तीर्ण मैदान, टिमटिमाती बत्ती की रोशनी में हजारों की संख्या में लोकनाट्य के दर्शक अधिर आग्रह से लोक नाट्य का आनंद उठाते हैं। इसमें अधिकांश अभिनेता अशिक्षित और निरक्षर भी होते हैं। उनके उच्चारण अशुद्ध होते हैं, स्वर कृत्रिम होता है, हास्यकर अंगभंगी, असंगत साज-सज्जा परंतु दर्शक मोहग्रस्त होकर नाटक का आनंद उठाते हैं। बंगला लोकनाट्य की प्रसिद्धि का कारण, धार्मिक भावों की प्रधानता वाले नाटकों का अधिकांशत: खेला जाना हैं। जिसे लोग ध्यान मग्न होकर देखते हैं। पात्रों का मंच पर आना और निकाल जाने के लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं होती। मंच खुला होने के कारण पात्र मंच के आस-पास ही अपने चरित्र को खेलने के लिए खड़े रहते हैं। अत: यात्रा और लोकनाट्य के विकास की परंपरा आज भी जारी हैं। लोकनाट्य में धार्मिक भाव की प्रधानता होने के कारण आज भी बंगाल के लोग लोकनाट्य में रूचि रखते हैं। “कृष्ण जन्मोत्सव” नाटक में हर्षोल्लास मनाते हैं तो “सीतार वनवास” में सीता के लिए आँसू बहातें हैं। “कालियदमन” में कृष्ण के पात्र को नमन करते हैं तो “रावणवध” में राम का पात्र उनको मोह लेता है। गीत और संगीत से वातावरण को अधिक संवेदनशील बनाया जाता है। लंका को जलाने के लिए जाते हुए हनुमान मंच पर से कूदकर दर्शक के समक्ष उपस्थित हो जाते हैं। तीव्र ध्वनि के साथ ढ़ोल के बज उठने से दर्शक मोहित हो जाते हैं।आज भी आधुनिक रंगमंच, मीडिया आदि आधुनिक मनोरंजन के साधन लोक नाट्य में से लोगों की रूचि को कम नहीं कर सकी।

बंगला लोक साहित्य की सभी विधाओं पर दृष्टिपात करने के पश्चात यह निश्चित हो गया कि लोक साहित्य मानव जीवन का ही लेखा जोखा है। इसमें मानव जीवन के सुख-दु:ख को कथा, गाथा, गीत, नृत्य, नाटक, उत्सव आदि के माध्यम से व्यक्त किया गया है। घर परिवार से लेकर खेत खलिहान पर्व त्यौहार उत्सव आदि सभी क्षेत्र में नारी विराजमान है। कहीं वो पूजा करती है तो कहीं पूजी जाती है। खेतों में कटाई, बुआई,सिंचाई,आदि में भी नारी के श्रम का योगदान महत्वपूर्ण है।पूजा आदि में नारी का स्थान और योगदान ही सबसे अधिक है।विषद रूप से सभी विषयों पर चर्चा हो चुकी है।अत: अधिक लिखने पर पुनरावृत्ति ही होगी। यह निश्चित है कि लोक साहित्य में नारी की उन्नत और जीवंत छवि सर्वत्र विद्यमान है।

संदर्भ ग्रंथ

(1) बांगलार लोक साहित्य – डॉ॰ आशुतोष भट्टाचार्या

(2) टीबेटन फोकलोर फ्राम केलिम्योंग भाग 4 - डॉ॰ मित्रा –

पांचाली प्रकाशन, 20, कोलकाता

(3) “कविता रत्नाकर” (लोकोक्तियाँ) - श्री नीलरतन हालदार

(4) “मयमनसिंह गीतिका” (लोकोक्तियाँ) - डॉ॰ दिनेशचन्द्र सेन

(5) “बंगलार मुख आमी देखियाछी” - श्री शंकर सेन गुप्त

(6) “सम फोक गोड्स ऑफ एन्सिएंट इंडिया” - जे॰ एम॰ बेनर्जी

(7) “बंगलार उत्सव” - तारीनी शंकर चेटर्जी –

(8) “बंगलार लौकिक देवता” - श्री गोपेंद्र चन्द्र बसु

(9) “पटुआ संगीत” - गुरू सदय दत्त

(10) “भारत में लोक साहित्य” – डॉ॰ कृष्ण देव उपाध्याय

(11) “बंगलार प्रबाद” - डॉ॰ एस॰ के॰ दे

(12) “फोक टेल्स आफ बंगाल” - लाल बिहारी दे

(13) “लोक जीवन की अंतरंग पहचान (पृ॰ 344)” - डॉ॰ राज किशोर (14) मेयेली ब्रत ओ कथा - परमेश प्रसन्न राय (पृ॰ 69)

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परिचय – पत्र

नाम - डॉ. रानू मुखर्जी

जन्म - कलकता

मातृभाषा - बंगला

शिक्षा - एम.ए. (हिंदी), पी.एच.डी.(महाराजा सयाजी राव युनिवर्सिटी,वडोदरा), बी.एड. (भारतीय

शिक्षा परिषद, यु.पी.)

लेखन - हिंदी, बंगला, गुजराती, ओडीया, अँग्रेजी भाषाओं के ज्ञान के कारण आनुवाद कार्य में

संलग्न। स्वरचित कहानी, आलोचना, कविता, लेख आदि हंस (दिल्ली), वागर्थ (कलकता), समकालीन भारतीय साहित्य (दिल्ली), कथाक्रम (दिल्ली), नव भारत (भोपाल), शैली (बिहार), संदर्भ माजरा (जयपुर), शिवानंद वाणी (बनारस), दैनिक जागरण (कानपुर), दक्षिण समाचार (हैदराबाद), नारी अस्मिता (बडौदा),नेपथ्य (भोपाल), भाषासेतु (अहमदाबाद) आदि प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में प्रकशित। “गुजरात में हिन्दी साहित्य का इतिहास” के लेखन में सहायक।

प्रकाशन - “मध्यकालीन हिंदी गुजराती साखी साहित्य” (शोध ग्रंथ-1998), “किसे पुकारुँ?”(कहानी

संग्रह – 2000), “मोड पर” (कहानी संग्रह – 2001), “नारी चेतना” (आलोचना – 2001), “अबके बिछ्डे ना मिलै” (कहानी संग्रह – 2004), “किसे पुकारुँ?” (गुजराती भाषा में आनुवाद -2008), “बाहर वाला चेहरा” (कहानी संग्रह-2013), “सुरभी” बांग्ला कहानियों का हिन्दी अनुवाद – प्रकाशित, “स्वप्न दुःस्वप्न” तथा “मेमरी लेन” (चिनु मोदी के गुजराती नाटकों का अनुवाद 2017), “बांग्ला नाटय साहित्य तथा रंगमंच का संक्षिप्त इति.” (शिघ्र प्रकाश्य)।

उपलब्धियाँ - हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2000 में शोध ग्रंथ “साखी साहित्य” प्रथम

पुरस्कृत, गुजरात साहित्य परिषद द्वारा 2000 में स्वरचित कहानी “मुखौटा” द्वितीय पुरस्कृत, हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2002 में स्वरचित कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को कहानी विधा के अंतर्गत प्रथम पुरस्कृत, केन्द्रिय हिंदी निदेशालय द्वारा कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को अहिंदी भाषी लेखकों को पुरस्कृत करने की योजना के अंतर्गत माननीय प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयीजी के हाथों प्रधान मंत्री निवास में प्र्शस्ति पत्र, शाल, मोमेंटो तथा पचास हजार रु. प्रदान कर 30-04-2003 को सम्मानित किया। वर्ष 2003 में साहित्य अकादमि गुजरात द्वारा पुस्तक “मोड पर” को कहानी विधा के अंतर्गत द्वितीय पुरस्कृत। 2019 में बिहार हिन्दी- साहित्य सम्मेलन द्वारा स्रजनात्मक साहित्य के लिए “ साहित्य सम्मेलन शताब्दी सम्मान “ से सम्मानित किया गया। 2019 में स्रजनलोक प्रकाशन द्वारा गुजराती से हिन्दी में अनुवादित पुस्तक “स्वप्न दुस्वप्न” को “ स्रजनलोक अनुवाद सम्मान” से सम्मनित किया गया।

अन्य उपलब्धियाँ - आकशवाणी (अहमदाबाद-वडोदरा) को वार्ताकार। टी.वी. पर साहित्यिक पुस्तकों का परिचय कराना।

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डॉ. रानू मुखर्जी

Sayajigaunj.BARODA-390020. GUJARAT. EMAIL-ranumukharji@yahoo.co.in

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: बांगला लोक साहित्य में नारी की छवि - डॉ॰ रानू मुखर्जी
बांगला लोक साहित्य में नारी की छवि - डॉ॰ रानू मुखर्जी
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