अरुण कुमार झा ‘विनोद’ की कहानी – “शिकार” जब देश में आजादी आई तो उसका एक परिणाम यह भी हुआ कि यहाँ के लोगों की जीवनशैली में तरह तरह के बदलाव ...
अरुण कुमार झा ‘विनोद’ की कहानी – “शिकार”
जब देश में आजादी आई तो उसका एक परिणाम यह भी हुआ कि यहाँ के लोगों की जीवनशैली में तरह तरह के बदलाव आए। बड़े बूढ़ों से इन बदलाओं के ढेरों किस्से सुन चुका हूँ । आज एक आपको सुनाता हूँ।
इसका संबंध शिकार से है। इस देश में शिकार की प्रथा कब और क्यों आरंभ हुई इसके बारे में जिन किस्सागो ने मुझे यह किस्सा सुनाया था, अपनी भूमिका में यही कहा कि इस चराचर संसार में शिकार से ही लोगों की आजीविका बनती-बिगड़ती है ... और ऐसा आज से नहीं, अनादिकाल से है। यह आदम जात की महक है क्यूँकि शिकार करना और शिकार होना उसके खून में है। जीवन में आदमी की जीत हार उसके इसी कौशल पर निर्भर होती है। फर्क सिर्फ इतना है कि कोई इस फन में माहिर होता है तो कोई अनाड़ी। हालां आज भी लोगों की एक जमात ऐसी है जो यह मानकर चलती है कि चूँकि यह दुनिया ऊपरवाले की बनाई हुई है लिहाजा यह फर्ज भी उसी का बनता है कि वह शिकार को मारे और उसे सबके मूँह में डाले। जीव-हत्या का पाप अपने सिर लेना आदमी के लिए उचित नहीं होगा। ऐसे लोग अगर किस्मत के धनी न हुए तो जिंदगी उन्हें बहा ले जाती है। दूसरा तबका उन लोगों का है जो यह मानकर चलते हैं कि जन्म और मौत भले ऊपरवाले के हाथ में हो पर इनके बीच का हर पल उनका अपना है। ऐसे लोग जुझारू किस्म के होते हैं और शिकार करने की कला में काफी प्रवीण होते हैं। किस्मत इनकी चेरी होती है और इतिहास की किताब में बाद में इनका ही नाम छपता है। एक तीसरा तबका भी है जो शिकार के फन में माहिर तो होता है पर इस कार्य के लिए परिस्थितियाँ कभी उसके अनुकूल नहीं होतीं, लिहाजा शिकारी होकर भी वह अक्सर शिकार बनने को अभिशप्त होता है। जमाना ऐसे लोगों को सद्बुद्धि प्रदान करने में अपनी क्षमता का पूर्ण इस्तेमाल करता है। किस्सागो ने मुझे यह भी बता दिया कि इस शिकार कथा के माध्यम से सद्बुद्धि बाँटने का उनका कोई इरादा नहीं है। चूँकि हर कहानी की कोई न कोई पृष्ठभूमि होती है या होनी चाहिए इसलिए निचोड़ सामने रख दिया। सच्ची बात तो यह है कि सवाल जब जीवन-मरण का हो तो बाकी सारी चीजें बेमानी हो जाती हैं।
रामाशा मेरा प्यारा दोस्त था। बात हमारे बचपन के दिनों की है। हमलोग अपने गाँव से थोड़ी दूर एक छोटे कस्बे में इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ते थे। जिस समय की यह घटना है, हम शायद आठवीं या नौवीं कक्षा में रहे होंगे। स्कूल आना जाना पैदल ही हुआ करता था। और कोई चारा नहीं था। हमारे कुछ दोस्त छात्र साइकिल से भी स्कूल आया-जाया करते थे। रामाशा इससे बड़े गुस्से में रहता। बात बात में उबल पड़ना उसकी आदत हो गई थी - एक आदमी पैदल और दूसरा साइकिल पर। समानता के सिद्धांत की बात क्या किताबों के लिए होती है? कोई उत्तर न मिलने पर खुद ही चिढ़कर कहता- “मैं चरणबाबू के टमटम से स्कूल की यात्रा करता हूँ”, और हमलोग हँस पड़ते।
स्कूल हमारे गाँव से डेढ़ कोस दूर था और वहाँ आने-जाने के लिए जो रास्ता उन दिनों उपलब्ध था उसे कहीं कच्ची, कहीं पक्की, तो कहीं एकपैरिया – माने खाली जमीन पर बनी एक फीते जैसी पट्टी जिस पर केवल एक ही आदमी एक बार चल सकता है; बाकी को आगे पीछे होना पड़ेगा - सड़क का नाम दे सकते हैं। हमारे रास्ते में अनेक बगीचे थे जिनमें आम, लताम, महुआ, जामुन, बड़हल, जलेबी, करोंदे, इमली, शीशम के ढेरों पेड़ होते। कई बार हम खुद अपना एकपैरिया बनाते क्योंकि स्कूल से दूरी घटाने के चक्कर में हमें इन बगीचों के बीच से होकर गुजरना पड़ता। देहात के बगीचे! कई तो इतने सघन व जंगली लताओं से भरे थे कि सयाने भी इनमें घुसने से घबराएं। हमें डर तो लगता लेकिन घूम कर जाने का मतलब था स्कूल से आधा कोस और अपनी दूरी बढ़ा लेना। हाँ, अगल-बगल कुछ खेत भी थे जिनमें नवम्बर-दिसम्बर में चने की फलियाँ मिलतीं और हम खुश होते। इस बीहड़ में हमें एक पानी का नाला भी पार करना पड़ता। गरमी के मौसम में इसे पार करने में कोई दिक्कत न होती पर बरसात में इसे पार करना मुश्किल काम होता। हालां नाले का पाट कोई खास चौड़ा नहीं था पर मूसलाधार बारिश हो जाने पर उसमें पानी की धारा साँप की तरह फुफकारती-दौड़ती। हमें उस नाले को फाँद कर आगे बढ़ना होता। थोड़ा आगे बढ़ने पर सड़क चौड़ी हो जाती और वहाँ एक तालाब था जिसमें गाय-भैंसें नहाया करती थीं। हम कोशिश करते कि हमारा स्कूल आना जाना दस-पंद्रह के समूह में ही हो।
गाँव में सबसे ज्यादा दूरी पर रहने वाला लड़का अपने घर से सबसे पहले निकलता और आगे वाले को वह अपने साथ ले लेता। फिर इसी प्रक्रिया को दुहराते हुए दो से तीन, तीन से चार ... और दस पंद्रह छात्र एक साथ एकपैरिया पर चलते हुए गाँव से निकलते। हर साल जनवरी में चार-पाँच नए छात्र इस भीड़ में जुड़ते और कमोवेश उतने ही वरिष्ठ छात्र दिसंबर में इस टोली से बाहर हो जाते। वरिष्ठ छात्रों का रास्ते में बड़ा आदर होता और नए छात्रों की खिंचाई होती। ‘खिंचाई’ कहने पर रामाशा चिढ़ जाता था और हमारा उपहास करता कि हम अंग्रेजी को व्यवहार में अपनाना नहीं जानते हैं। हमें इसे ‘रैगिंग’ कहना चाहिए। हम सब उसके अंग्रेजी शब्द-ज्ञान का लोहा मानने को विवश थे, क्योंकि उसके गुस्से को झेलना ज्यादा कठिन काम था। किस्सागो ने यहाँ यह भी जोड़ दिया कि उन दिनों अंग्रेजी जाननेवालों की समाज में बड़ी कद्र हुआ करती थी और इसीलिए हमारे वालिदैन ने हमारा एडमिशन इंग्लिश मीडियम स्कूल में कराया था। रामाशा में चाहे लाख अवगुण हों पर उसकी धाराप्रवाह अंग्रेजी के कायल हमारे स्कूल के प्रिंसिपल साहब भी थे। आजादी के तीन पीढ़ी बाद भी अंग्रेजी अगर समाज से नहीं जा पा रही है तो इसका कुछ श्रेय रामाशा जैसे लोगों को दिया जाना चाहिए। मेरे किस्सागो भावुक भी हुए और कहा कि आजादी मिलने के बाद भी जब अंग्रेजी भाषा को स्कूल-कॉलेज में अध्ययन-अध्यापन का माध्यम बनाकर रखना जरूरी ही था तो अंग्रेजों से ‘भारत छोड़ो’ कहने की जरूरत क्या थी? उन्होंने अपने एक-दो अंग्रेजी-पसंद मित्रों का नाम भी कथा के इस मोड़ पर लिया जिन्हें बचपन में गुल्लीडंडा और बुढ़िया कबड्डी के खेल में उन्होंने पदाया था।
मुझे ऐसे किस्सागो बिल्कुल पसंद नहीं जो अपनी किस्सा की डोरी में गाँठ लगाते चलते हैं - पहले तो लम्बी चौड़ी भूमिका और बीच-बीच में बेमतलब के क्षेपक ? आज भी जब मैं बड़े लेखकों की कहानियाँ पढ़ता हूँ तो ऐसे अवांतर प्रसंग मुझे बड़ी कोफ्त देते हैं। फिल्म भी मैं इसीलिए नहीं देख पाता। उसके बीच गाने ठूँस-ठूँसकर फिल्मवाले कहानी का मजा किरकिरा कर देते हैं। मेरी मुश्किल उन दिनों मगर यह थी कि कोई किस्सा सुने या पढ़े बिना मुझे नींद नहीं आती थी और किस्सागो महोदय मेरी इस कमजोरी को जानते थे। लिहाजा, उनके सामने मुझे यह जिद पकड़नी पड़ी कि वह शिकार वाला किस्सा ही आगे बढ़ाएंगे। वे मुस्कुराए और आगे बढ़े।
एक दिन की बात है। गर्मी के दिन थे । मॉर्निंग स्कूल था। मैं, रामाशा और सोहन तीन ही छात्र उस दिन अपने गाँव से स्कूल गए थे। ग्यारह बजे हम स्कूल से छूटे । धूप काफी तेज थी । आधा रास्ता पार करने के बाद सुस्ताने के लिए हम आम के एक बगीचा में रुके। हम तीनों की नजरें इधर-उधर गईं। चंद मिनट बाद सोहन ने पीछे से मेरे कंधे पर हाथ डाला और सामने इशारा किया । करीब सौ मीटर की दूरी पर तीन चार जंगली कुत्ते हमारी तरफ देख रहे थे। सोहन हम तीनों में सबसे छोटा था। वह सकते में आ गया। छुपाना क्यों? डर तो हम तीनों गए थे । उधर चार खूँखार कुत्ते और इधर तीन कृशकाय कच्ची उमर के विद्यार्थी! रामाशा ने बताया कि तीन दिन पहले ही हमारे गाँव में बकरी के एक नवजात छौने को इन कुत्तों ने काट खाया था। सोहन यह सुनकर मेरे शरीर से और चिपक गया । मैंने रामाशा से इन कुत्तों को भगाने के लिए कहा क्योंकि मैंने पहले कहीं सुन रखा था कि कोई जानवर भले कितना ही खूँखार क्यों न हो, आदमी से आँख मिलाने की हिम्मत नहीं कर सकता और अगर कोई उसके आँख में आँख डालकर उसे डराए तो वह डर कर भाग जाता है। रामाशा ने ऐसा करने की पूरी कोशिश की पर न तो वह आँखें मिला सका और न ही उसके कंठ से कोई आवाज निकली। मैं इन कुत्तों की आगे की गतिविधि को समझने की कोशिश में लगा रहा। मुझे आभास हो गया कि ये जानवर हमें निहायत पिद्दी समझ रहे हैं क्योंकि उनमें से एक कुत्ता जो गबरू जवान था, हमारी तरफ एक बार देखता और जमीन को सूँघते हुए सामने तीन बार चक्कर लगाता। शायद वह अपने परिजनों को आश्वस्त करना चाहता था कि आज सबको पेटभर भोजन मिलने वाला है। मैंने निर्णायक स्वर में अपने दोस्तों से कहा कि यहाँ से जितनी जल्दी हो, हमें चुपचाप खिसक लेना चाहिए।
रामाशा डर जरूर गया था पर मैदान छोड़ने को तैयार न हुआ। उधर, मैं जान गया था कि ये केवल डराने वाले जानवर न थे। इनका इरादा कुछ और था। हमारी तरफ ऐसे देख रहे थे मानो कह रहे हों- “आज बड़े मौके पर हाथ लगे हो, हमारा भोजन बनो और पुण्य कमाओ।” मैंने रामाशा को फिर सलाह दी कि आज निकल चलते हैं, तुम किसी और दिन उन्हें डराने-भगाने का शौक पूरा कर लेना। आज यहाँ टिके तो मारे जाएंगे। हम शांतिप्रिय लोग हैं। बेवजह किसी का अहित नहीं सोचते। रामाशा को मेरी यह बात बिल्कुल नहीं भायी। उसने उत्तर दिया – “सवाल यह नहीं कि हम क्या सोच रहे हैं? सामने देखो - यह इस जंगल का मालिक है।” वह गबरू कुत्ता हमारी तरफ इस अंदाज से बढ़ रहा था मानो हमें ककड़ी की तरह वह चबा जाएगा। हमसे करीब दो बाँस की दूरी पर वह खड़ा हो गया। उसकी आँखें जल रही थीं। उसने अपनी खूँखार नजर हम पर डाली और फिर अपनी जमात की तरफ देखा। उसके परिजन उसकी इस अदा पर फिदा होकर आहिस्ता आगे बढ़े। अब हमारे लिए सोचने-समझने का वक्त न था। रामाशा ने आहिस्ते मिट्टी का एक ढेला जमीन से उठाया और उसे कुत्ते पर तेजी से दे मारा। गबरू अचानक पलटा और तेजी से भागा। हमने उसी तेजी से उसका पीछा किया। थोड़ी दूर आगे जाकर वह अचानक रुका और पलट कर हमारी तरफ देखा। हम भी रुके। हमें लगा कि वह अब हमला करेगा । लेकिन उसने एक नजर अपने परिजनों की तरफ दौड़ाई और फिर सरपट भागा। इस बार मैंने एक ढेला उठाया और उसकी तरफ जोर से फेंका, मगर मैं देख नहीं पाया कि मेरा ढेला उसे लगा या नहीं; क्योंकि, वह झपटने के अंदाज में पूरी शक्ति से मेरी तरफ दौड़ गया था। अगले क्षण वह मुझ पर छलांग लगा ही देता कि तभी बिजली-सा सनसनाता एक डंडा अचानक उसकी कनपटी से फट् आवाज के साथ टकराया। उसके बाद कोई आव न ताव, बेचारा वहीं उलट गया। मैंने सोहन को देखा। वह अपने हाथ झाड़ता आराम से हमारे पास आ रहा था।
मैं समझ गया, डंडा सोहन ने चलाया है। हमारे लिए अब वहाँ रुकने का मतलब आफत मोल लेना था। क्या पता वह फिर उठ जाए और हमला कर दे। घायल जानवर बड़ा खतरनाक होता है। हम तीनों चुपचाप अपने अपने घर चले आए। अगले दिन हमें स्कूल जाना ही था । रास्ते में हमने देखा कि कल हुई मुठभेड़ वाली जगह पर लोगों की भीड़ लगी हुई है। नजदीक जाकर देखा तो वही कुत्ता वहाँ मरा पड़ा था। हमने कल की घटना के बारे में लोगों को जानकारी दी। गाँव के जिस व्यक्ति के बकरी के छौने की मौत हुई थी उसने सोहन को गले लगा लिया। वह एक गरीब किसान था। बाकी सब हमारी जयकार करने लगे।
इस तरह कहानी का अंत कर किस्सागो ने मेरी तरफ देखा और पूछा – ‘कैसी लगी यह कहानी? मैंने उत्तर दिया, - ‘मेरी नींद गायब हो गई है।’**
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लेखक: अरुण कुमार झा ‘विनोद’
पता: #018, डीएस मैक्स सॉलिटेयर
होर्मावु- अगाड़ा,
कृष्णराज पुरम
बेंगलूरु-560043
Email:arunjha03@gmail.com
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