_पहचान ___ मन में कुछ कर गुजरने का जज्बा , दिल में कुछ अरमान हमें भी बनानी हैं दुनिया में अपनी पहचान गिरना,गिर कर सम्भलना ठोकर लगे तो च...
_पहचान ___
मन में कुछ कर गुजरने का जज्बा ,
दिल में कुछ अरमान
हमें भी बनानी हैं दुनिया में अपनी पहचान
गिरना,गिर कर सम्भलना
ठोकर लगे तो चलना चल कर सँवरना ,
दूसरों के पद चिन्हों पर चलकर
कुछ मिट गये ,कुछ डूब गये
अपने पैरों में ताकत लाकर, अपनी भी बनानी है निशान
हमें भी बनानी है दुनिया में अपनी पहचान
रास्ते में आयेंगी कई अड़चनें, मन हर बहकाव में बहकेगा
पर मुश्किल से पीछे नहीं हटना,
क्योंकि मुश्किलों से जूझ कर ही तो मिलता है मान
हमें भी बनानी है दुनिया में अपनी पहचान |
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यादें
आती हैं जब कभी स्मृति पटल पर,
वो धुँधली काली यादें
मन हो जाता आहत, नीरस
व्योम पर जैसे छा जाते बादल
क्यों अपने हमसे होते दूर
क्यों हमें बेसहारा कर जाते
ये सोच मन उन्हें कोसता है
फिर मन ही समझा जाता
क्यों कोस रहें जो चले गये
जो निःस्वार्थ प्रेम करते थे
तुम अपने स्वार्थ के लिए क्यों उन पर ताने कसते हो |
ये जीवन की रीत निराली है, सुख दुःख है इनके साथी
वो यादें ऐसे चुभते हैं, जैसे उजड़ गये हो खग के नीड़
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_आज फिर मैं अपनों से हारी थी __
पनाह तो मेरे अपने घर में भी है इस समाज की रुढ़ियों का
सह दिया है मेरे अपने लोगों ने कुछ ढकोसलों को बेटियों के प्रति
"ये भूल कर कि उनकी भी बेटी है, उसके भी सपने है"
बेटियों के प्रति पल रहे इसी हीन भावना को,
इन सब के मन से मिटानी थी
आज फिर मैं अपनों से हारी थी |
पर शायद गलत थी मैं !
पल चुकी थी इनके मन में की बेटियाँ गुरुर नहीं बन सकती
पर क्या! दिया है कभी किसी ने बेटियों को खुला आसमान बंदिशों के अलावा?
अरे! धिक्कारता है मन उसे, जिसने सबसे पहले ये आग सुलगाई थी
आज फिर मैं अपनों से हारी थी |
अगर तोड़ समाज की रुढ़ियों परम्पराओं को
उभारना चाहा अपने बेटियों को इस समाज की कैद से
बैठाना चाहा उसे उसके सपनों के शिखर पर
तो उनकी बेटियाँ समाज पर भारी थी
आज फिर मैं अपनों से हारी थी |
ये पुरुष प्रधान समाज, इनके नियम
कुछ चन्द व्यक्तियों के चोंचले
"अरे बेटी है कितना पढ़ाओगे,आखिर चली जाएगी एक दिन दूसरे के घर "
ऐसे ही ना जाने कितने आवाज मेरे हुनर पर भारी थी
आज फिर मैं अपनों से हारी थी |
माँ -पापा शायद इन्हें भी, अपने बेटी के सपनों से पहले समाज को देखना है
और सोच...
हाँ बेटी ही तो है, कौन सा हमें इसे सरताज बनाना है ,
इन्हीं सब बातों से छलनी दिल को ये स्याह रात कितनी घुटनकारी थी
आज फिर मैं अपनों से हारी थी |
घर से निकलो तो माँ का सलाह -
"देखना बेटा संभल के जाना, कोई कुछ कहे तो जबाव ना देना, बेटी हो तुम इज्जत तुम्हारे हाथ में है |"
अरे! समाज, समाज और बस समाज
माता -पिता की उनकी बेटियों के प्रति भी तो कुछ जिम्मेदारी थी
आज फिर मैं अपनों से हारी थी |
हमेशा दबाया जाता है बेटियों को
आज भी कुछ समाज के ठेकेदार है जिन्हें
बेटियों की शिक्षा, उनकी नौकरी उनका सेल्फ डिपेन्डेट होना
उनकी परेशानी थी
आज फिर मैं अपनों से हारी थी |
शायद यही डर उन समाज के ठेकेदारों को सताती है ,
अगर निकलें बेटियाँ घर से तो वो भी आगे बढ़ जायेंगी ,
कर सकती है वो भी पुरुषों की बराबरी
शायद खत्म हो जाए पुरुषों की सत्ता हर वक्त औरतों की उनकी औकात दिखाने की
आज फिर मैं अपनों से हारी थी |
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_ मैं लिख सकती हुँ _
अक्सर मैं सोचती थी!क्या लिखूँ ?
किसे अपनी लेखनी का माध्यम बनाऊँ?
जब प्रकृति को देखा मन में ख्याल आया -
मैं लिख सकती हूँ -
उदय होते सूर्य पर
ढलते शाम पर
चाँद की ज्योत्सना पर
शीतल बयार पर |
मैं लिख सकती हूँ -
झरनों की कल -कल पर पक्षियों की कलरव पर
भ्रमर की गुंजार पर|
मैं लिख सकती हूँ -
माँ की ममता पर
पिता की दूलार पर
बहन के स्नेह पर
नारी के समर्पण पर |
मैं लिख सकती हूँ -
मंदिर की शंखनाद पर
प्रज्वलित दीपशिखा पर
शिव के शक्ति पर
भक्तों की भक्ति पर |
मैं लिख सकती हूँ -
किसी के संघर्ष पर
किसी के विजय पर
किसी की भावनाओं पर
किसी के इश्क़ पर |
मैं लिख सकती हूँ -
रेगिस्तान की तपती रेत पर
फागुन के पतझड़ पर
चैत के बसंत पर
सावन की फुहार पर |
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_नवल प्रभात _
खग के कलरव के साथ
लिए स्फूर्ति और उल्लास
कर क्षीण तम को दे मात
जागा नभ में नवल प्रभात |
पुष्प की कलियाँ तरूणाई
कुहूक मन लुभाते बसन्त दूत
शर्वरी पर विजयी निशान्त, लिए कुसुम सुगंध शीतल वात
जागा नभ में नवल प्रभात |
दुःख की रजनी को भूल
खग उड़ चले अपनी मंजिल
तज आलस और संताप
जागा नभ में नवल प्रभात |
नये शौर्य -शक्ति के साथ
मन में भरने नया उमंग
करने जग का उत्थान
जागा नभ में नवल प्रभात |
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_प्रेम के वादे _
सुनो...
याद हैं क्या तुम्हें
किये थे तुमने जो वादें
वो छत पर चाँदनी रात में
आलिंगन कर प्रेम से माथा चूम कर
हर जन्म साथ बिताने की..
वो मेरे इतने करीब आ
चितवनों की छांह दे कर
ख्वाबों का नया आशियां बनाने की ...
वो मेरे उलझे केशों को संवारते हुए
मेरे हर गम को अपनाकर
सुख दुःख में साथ निभाने की...
अगर रुठ जाऊँ जो कभी तुमसे
तुम्हारा प्यार से प्रयत्न मुझे मनाने की..
वो बांहों के आगोश में भरकर
किया था तुमने जो वादा
मुझे ना छोड़ कर जाने की
याद भी क्यों होगा भला तुम्हें
मुकरना जो था तुम्हें अपने वादों से
छोड़ गये इन स्याह गलियों में अकेले
मैं इंतजार करुँगी अब भी तुम्हारा
झूठा ही सही एक और वादा करोगे क्या ?
बात कह दो बस एक बार..
दुबारा लौट आने की.....
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_किताबों से दोस्ती _
अकेली नहीं मैं...
किताबों से है मेरी दोस्ती
बातें करती है ये मुझसे
जब भी मैं चाहूँ
किरदारों के माध्यम ये कुछ कहती
उन किरदारों के भावनाओं में बह
मैं बहुत कुछ इनसे सीखती
मौन ही ये तमाम वार्तालाप करती
गहराइयाँ होती हैं
अथाह सागर सी इनमें
इन गहराईयों में
लहरों संग मैं बहती
सारी खूबियाँ है इनमें एक अच्छे दोस्त की
दिन हो या रात, धूप हो या बरसात
साथ देती ये हर वक्त
रहूं जो कभी उदास अकेले
इनके फड़फड़ाते पन्ने
मेरे अकेलेपन को भरती
अकेली नहीं मैं
किताबों से है मेरी दोस्ती |
__ संजना पटेल
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