छत्तीसगढ़ और उड़िया संस्कृति का अद्भूत समन्वय है चाम्पा प्रो . अश्विनी केशरवानी चाम्पा , छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत हावड़ा-मुम्ब...
छत्तीसगढ़ और उड़िया संस्कृति का अद्भूत समन्वय है चाम्पा
प्रो. अश्विनी केशरवानी
चाम्पा, छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत हावड़ा-मुम्बई रेल मार्ग पर 22.2 अंश उत्तर और 82.43 अंश पूर्वी देशांश पर स्थित है। समुद्र की सतह से 500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हसदो नदी के तट पर बसा यह नगर अपने प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। कोरबा रोड में मड़वारानी की पहाड़ियां, मदनपुरगढ़ की झांकियां, बिछुलवा नाला, केराझरिया, हनुमानधारा और पीथमपुर के छोटे छोटे नाले और मंदिर चाम्पा को आकर्षक बनाते हैं। यहां का रामबांधा तालाब देव और देवियों के मंदिरों से सुशोभित एवं विशाल वृक्षों से परिवेष्ठित है। यहां छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की संस्कृति का पूर्णतः समावेश है। यहां समलेश्वरी देवी और जगन्नाथ मठ-मंदिर जहां उड़िया संस्कृति की साक्षी है, वहां डोंगाघाट स्थित तपसी बाबा का आश्रम, मदनपुर की महामाया देवी, हनुमानधारा का हनुमान मंदिर, पीथमपुर का कालेश्वर महादेव मंदिर और कोरबा रोड में मड़वारानी मंदिर छत्तीसगढ़ी संस्कृति का जीता जागता उदाहरण है। यहां के सौंदर्य का वर्णन कवि श्री विद्याभूषण मिश्र के मुख से सुनिए :-
जहां राम बांधा पूरब में लहराता है
पश्चिम में केराझरिया झर झर गाता है
जहां मूर्तियों को हसदो है अर्ध्य चढ़ाती
भक्ति स्वयं तपसी आश्रम में है इठलाती
सदा कलेश्वरनाथ मुग्ध जिस पर रहते हैं
तपसी जी के आशीर्वचन जहां पलते हैं
वरद् हस्त समलाई देवी का जो पाते
ऐसी नगरी की महिमा क्या ''भूषण'' गाये।
चांपा, पूर्व में रामबांधा तालाब, पश्चिम में हसदो नदी, उत्तर में खोरखोरिया नाला और दक्षिण में घोघरा नाला से सुरक्षित एक जमींदारी थी। आज विश्व प्रस़िद्ध औद्योगिक नगर कोरबा को बस और रेल मार्ग से जोड़ने वाला और विश्व प्रसिद्ध कोसे की साड़ियों, कपड़ों, सोने चांदी के उत्तम कारीगरी से युक्त गहने और कांस-पीतल के बर्तन के लिए जाना जाता है। मध्य भारत पेपर मिल और प्रकाश स्पंज आयरन इंडस्ट्रीज आ जाने से यह औद्योगिक नगर की श्रेणी में आ गया है। कर्क रेखा के निकट होने के कारण ग्रीष्म ऋतु में यहां खूब गर्मी होती है। विश्व बैंक की सहायता से निर्मित हसदो-बांगो बहुउद्देशीय बांध और नहरों से यहां के खेत लहलहा उठा है
चांपा जमींदारी कैसे बनी
हिन्दी साहित्य परिशद चांपा द्वारा प्रकाशित 'चांपा निर्देशिका एवं व्यक्ति दर्शन' नामक पुस्तक में श्री विद्याविनोद गुप्त ने चांपा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के अंतर्गत 'चांपा जमींदारी कैसे बनी' इसका बड़ा सजीव चित्रण किया है। उनके अनुसार 16 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जब रतनपुर के राजा वृद्ध हो गये थे, तब उन्हें संबलपुर की सेना द्वारा रत्नपुर पर हमला करने की तैयारी की सूचना मिली तब चिंतित राजा ने पहरिया निवासी 20 वर्शीय नेमसिंह को संबलपुर की सेना को पराजित करने की जिम्मेदारी सौंपी। महामाया देवी का आशीर्वाद और पहरिया, पुरेना, तेंदूभाठा, नवागांव, हथनेवरा, जगदल्ला और सिवनी आदि गांवों के हजारों कंवर, गोंड़, ठाकुर नवयुवकों के सहयोग से संबलपुर की सेना को पराजित ही नहीं किया बल्कि उसके सेनानायक का सिर काटकर रतनपुर के राजा के सामने प्रस्तुत कर दिया। उनके इस कार्य से प्रसन्न होकर राजा उन्हें दिन भर में घोड़े पर सवार होकर जितने गांव की परिक्रमा करेगा, उन्हें पुरस्कार में दिये जाने की घोशणा की। शुभ लग्न में तोमरवंशी नेमसिंह अपने प्रियघोड़ी 'चप्पे' पर सवार होकर पहरिया से रवाना हुआ और पुरेना, करमदा, कुरदा,सिवनी, उदयबंद, जगदल्ला, बरपाली, हथनेवरा, सोंठी, पिपरदा, भंवरमाल, रोहदा, सुनईडीह, बरगड़ी, चारपारा, पुछेली, अफरीद, कमरीद, कोसमंदा, जमनीपाली, सरईपाली, गौध, बिरगहनी, जर्वे, जोबी, पेंड्री, कुलीपोटा, सरखों, नैला, दर्राभाठा, बोरसरा, हाथी टिकरा, धांगाडीपा, सोहागपुर, भैसमा, घटोली, डबरी, पीथमपुर, देवरहा, पिसौद, कोटाडबरी, जामपाली, बुढ़ियापाली, गाड़ापाली, बम्हनीडीह, उजभट्टी, बालपुर, कोथारी, सरगबुंदिया, बरपाली, भैंसामुड़ा, मड़वा, फरसवानी, खोखसा, लछनपुर, बसंतपुर, नवागांव, तेंदूभांठा, गोवाबंद, कुदरी, महुदा, अमोदा, और फिर मदनपुर में आकर उनकी घोड़ी घायल होकर गिर पड़ी और डलते सूरज को नमस्कार करके अंतिम सांस ली। तब हवा का एक झोंका आया और घोड़ी को चम्पा के फूलों से ढक दिया। प्रकृति ने मानों चम्पा की फूलों का कफन पहना दिया हो ? ठाकुर नेमसिंह ने उन्हें विदाई दी और दूसरे दिन सुबह होते ही उन्हें 65 गांव की जमींदारी प्रदान की गयी। रतनपुर के राजा ने उन्हें 'दीवान' की पदवी प्रदान की। नेमसिंह के पौत्र रामसिंह ने मदनपुर जमींदारी का मुख्यालय हसदो नदी के तट पर चाम्पा नगर बसाकर वहां ले आया। पोड़ी उपरोड़ा के जमींदार की पुत्री चम्पाकुंवरि से नेमसिंह का विवाह हुआ था। हो सकता है कि ठाकुर रामसिंह ने अपनी दादी के स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए 'चांपा' नाम रखा हो ? निराला साहित्य मंडल चांपा द्वारा प्रकाशित 'चाम्पा दर्शन' की भूमिका में छायावाद के प्रवर्तक कवि पद्मश्री मुकुटधर पांडेय ने लिखा है : 'भारत का राष्ट्रीय पुष्प यद्यपि 'कमल' को माना गया है तथापि संस्कृत में 'पुष्पेषु चम्पा' यह उक्ति प्रसिद्ध है। चांपा, चम्पा का ही अपभ्रश या तद्भव रूप है। उड़िया लोग आज भी इस नगर को चम्पा कहते हैं। संभव है यहां किसी समय चम्पा के पेड़ों की प्रचुरता रही हो ?'
नेमसिंह और उनके पुत्र, पौत्र 'दीवान' कहाते थे। लेकिन अंग्रेजों ने जब रतनपुर पर कब्जा किया और उड़ीसा की ओर बढ़े तब उनके इस अभियान में चांपा के दीवान श्री दरियाबसिंह ने सहायता दी थी जिससे उन्हें 'जमींदार' बना दिया गया था।
मदनपुर : एक सफर
चांपा जमींदारी के दीवान नेमसिंह ने अपनी जमींदारी का सदर मुकाम मदनपुर को बनाया। प्राप्त जानकारी के अनुसार पहरिया निवासी नेमसिंह के पूर्वज मदनपुर के शासक थे। उनसे मदनपुर छिन लिया गया था जिससे छुब्द होकर वे पहरिया में रहने लगे थे। पहरिया में आज भी किले का अवषेश है। 'निराला साहित्य मंडल चांपा' द्वारा प्रकाषित 'चांपा दर्शन' में श्री हरिहरप्रसाद तिवारी और श्री विद्याभूषण मिश्र ने एक घटना का वर्णन किया है। सन् 1780 में जब रतनपुर में नागपुर के राजा रघुजी भोंसला के पुत्र बिंबाजी भोंसला का शासन था, तब उन्होंने अपने एक स्वामी भक्त मुहम्मद खां तरान को जो उस समय दो सौ घुड़सवार और पांच सौ सिपाहियों का सरदार था, उसके कार्यो से खुश होकर अकलतरा, लवन, किकिरदा, खरौद और मदनपुर नामक पांचों परगना उन्हें पुरस्कार में दे दी। इस समय मदनपुर चौरासी रतनपुर का एक करद गढ़ था जिसके शासक छत्रसाल सिंह थे। बाद में रतनपुर के करद शासक और जमींदारों ने अपने को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया था। उनका रतनपुर से नाम मात्र का सम्बंध था। छत्रपाल सिंह मदनपुर चौरासी के शासक थे। उन्होंने भी अपने को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया था। यही कारण है कि जब इस चौरासी को मुहम्मद खां तरान को दिया गया तो वे पहले मदनपुर चौरासी में कब्जा करने जांजगीर आये। उस समय जांजगीर कलचुरि कालीन मूर्तिकला से सुसज्जित विष्णु मंदिर और मदनपुर चौरासी के कारण विख्यात् था। मदनपुर को खोकर छत्रसाल सिंह को बहुत दुख हुआ। उन्होंने छत्रसाल सिंह को गुजारा के लिये कुछ गांव दिया। इसके बाद उन्होंने पहरिया को अपना मुख्यालय बना लिया। मुहम्मद खां ने भी मदनपुर को ध्वस्त करा दिया। उनके परिवार के लोग आज भी नैला, पाली, बछौद और लुतरा आदि में रहते हैं। मुहम्मद खां तरान ने अकलतरा, किकिरदा, लवन और खरौद में कब्जा नहीं किया बल्कि उसे स्वतंत्र छोड़ दिया। रतनपुर राजा के आदेश पर केवल मदनपुर को ध्वस्त किया।
छत्तीसगढ़ का एक गढ़
दक्षिण कोसल के इस भूभाग में अनेक राजाओं ने शासन किया। 990 से 1015 ईसवीं के बीच कलचुरि नरेश कलिंगराज ने दक्षिण कोसल को जीतकर तुम्माण को अपनी राजधानी बनाया। 1045 ईसवीं में इस वंश के राजा रत्नदेव प्रथम ने रतनपुर को अपनी राजधानी बनाया। आगे चलकर सम्पूर्ण दक्षिण कोसल में कलचुरि राजाओं का अधिकार हो गया। उस समय प्रशासनिक सुविधा के लिए दक्षिण कोसल को 48 गढ़ में बांटा गया था। इनमें से 36 गढ़ों में रतनपुर के राजा के वंशज शासक थे, शेष गढ़ों में उनके करद शासक थे। सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. प्यारेलाल गुप्त ने अपनी पुस्तक 'प्राचीन छत्तीसगढ़' और 'बिलासपुर वैभव' में जमाबंदी नामक पुस्तक के हवाले से इन 36 गढ़ों के नामों का उल्लेख किया है। रत्नपुर राज- रतनपुर, मारो, विजयपुर, खरौदगढ़, कोटगढ़, नवागढ़, सोंठीगढ़, ओखरगढ़, पंडरभट्ठा, सेमरियागढ़, मदनपुरगढ़, लाफागढ़, कोसगई, केंदा, मतिन, उपरोड़ा, पंडरी और करकट्टी। रायपुर राज- रायपुर, पाटन, सिमगा, सिंगारपुर, लवन, आमोर, दुर्ग, सारदा, सिरसा, मोहदी, खल्लारी, सिरपुर, फिंगेश्वर, राजिम, सिंघनपुर, सुअरमाल, टेंगनगढ़ और अकलवारा।
एक उत्कीण लेख में कहा गया है कि त्रिपुरी के कलचुरि राजा कोकल्लदेव के 18 पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र राज सिंहासन पर पदारूढ़ हुआ और उसने अपने भाइयों को निकटवर्ती गढ़ों का अधिपति बना दिया। छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास में कोमो मंडल, मध्य मंडल और तल्हारि मंडल का उल्लेख मिलता है। मंडल का अधिपति मांडलिक अथवा मंडलेश्वर कहलाता था। मंडल के अंतर्गत ग्रामों की संख्या निश्चित रहता था। मांडलिक से बड़ा महामंडलेश्वर होता था। वे सामंत राजा होते थे। पृथ्वीदेव प्रथम के अमोदा से प्राप्त ताम्रलेख से विदित होता है कि उनकी स्थिति महामंडलेश्वर की थी। तात्पर्य यह है कि वह त्रिपुरी नरेश के सामंत के रूप में दक्षिण कोशल में राज्य करते थे। सम्पूण दक्षिण कोशल में गावों की संख्या कितनी थी, यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता है। किंतु बस्तर के नागवंशी नरेश सोमेश्वरदेव के एक शिलालेख से पता चलता है कि उसने दक्षिण कोशल में छः लाख छियान्बे हजार गांव जीते थे। इसमें अतिश्योक्ति हो सकती है। लेकिन यह सत्य है कि कलचुरियों का दक्षिण कोशल स्थित राज्य भारत के तत्कालीन प्रमुख राज्यों में गिना जाता था।
मदनपुर भी रतनपुर के कलचुरि राजाओं के द्वारा लगभग 14 वीं शताब्दी में बनाया एक गढ़ था। इसे 'मदनपुर चौरासी' कहा जाता था। मदनपुरगढ़ के नामकरण के बारे में अनेक तर्क दिये जाते हैं। चाम्पा दर्शन के अनुसार छत्रसाल सिंह ने अपने पुत्र मदनसिंह के नाम पर इस गढ़ का नाम मदनुपर रखा था। तब प्रश्न उठता है कि इसके पूर्व इस गढ़ का क्या नाम था ? रत्नपुर के इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि इस वंश में नाम को दुहराने की प्रथा थी। तो छत्रसालसिंह के पूर्वजों का नाम मदनसिंह या मदनसेन रहा हो ?
मध्यकालीन मूर्तिकला का केन्द
हसदो नदी के पश्चिमी तट पर चाम्पा से उत्तर दिशा में तीसरे मील पर एक टूटे फूटे मंदिर के अवशेष मिलते हैं। यह वास्तव में मध्यकालीन मूर्तिकला से सुसज्जित मंदिर था। जिस उच्चसम भूमि में यह खंडहर है उसके पश्चिम में एक गहरा नाला है जो मदनपुरगढ़ और उस मंदिर की प्रमुख गतिविधियों का मूक साक्षी है। उत्तर से दक्षिण की ओर बहकर उस मंदिर की परिक्रमा करता हुआ अंत में मंदिर के पूर्व में हसदो नदी की पावन धारा में अपने आप को शांत भाव से विलीन कर देती है।
छत्रसालसिंह के पुत्र मदनसिंह ने मदनपुर में मंदिरों का निर्माण कराया था। इनमें प्रमुख रूप से महिषासुर मर्दिनी एवं विष्णु का मंदिर प्रमुख है। जिसके भग्नावशेष आज अपने अतीत के धुंधले चित्र प्रस्तुत करता है। बलुआ पत्थर से निर्मित मनिका देवी की मूर्ति बिछुलवा नाले के तट एक पेड़ के नीचे रखी थी जिसे बाद में पुरातत्व संग्रहालय बिलासपुर ले जाया गया। वहां वह मूर्ति सुरक्षित है। मंदिर के द्वारसाख पर स्थित द्वारपाल जय विजय की मूर्ति भी वहां सुरक्षित है। इसी प्रकार एक अन्य मूर्ति काले ग्रेनाइट पत्थर की गढ़ी के आसपास मिली जिसे हरियाणा के व्यक्ति ने यहां भव्य मंदिर बनवाकर प्रतिष्ठित कराया और मनिका देवी नाम दिया। आज भी यहां नवरात्रि में ज्योति कलश प्रज्वलित की जाती है। मंदिर के सामने एक बलिकुंड है जहां बलि दी जाती है। यहां संत निवास भी है जहां मंदिर के पुजारी और साधु संत आदि रहते हैं।
थोड़ी दूर पर कुछ मूर्तियां बिखर मिली थी उसे श्रद्धालुजन मंदिर बनवाकर उसमें प्रतिष्ठित कराकर पूजा-अर्चना करते हैं। मदनपुरगढ़ एक निर्झर के तट पर अतीत के स्वप्न को संजोये प्रगाढ़ निद्रा में निमग्न है। वह मानो मूक भाषा में कह रहा है-अतीत ने अपने जिन हाथों से मेरा श्रृंगार किया, समय ने जिन सुनहरे हाथों से मुझे ऐश्वर्य प्रदान किया, प्रगति ने जिसके तारूण्य का यशगान किया, वर्तमान ने उसका सब कुछ लूट लिया और रह गये केवल टिले और पाषाण प्रस्तर खंड, टूटी फूटी मूर्तियां और बिखरे स्वप्नों की तरह उनकी अश्रु को प्रवाहित करती निर्झर धारा। हालांकि यहां तीन वर्षो में एक बार बलि देकर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। मगर इससे यहां का अतीत प्रकाश में आ नहीं सकता। आवश्यकता है इसे प्रचार प्रसार की। किसी कवि ने ठीक ही कहा है :-
मुझमें कितना इतिहास भरा,
कितना निर्माण-विनाश भरा।
मुझमें पतझड़, मुझमें वसंत,
है कितना रोदन-हास भरा।।
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प्रो. अश्विनी केशरवानी
'राघव' डागा कालोनी,
चांपा-495671 (छ.ग.)
bahut sudar aur rochak jankari
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