चले चलो। चले चलो, चले चलो कर्मपथ पर चले चलो भोर की किरण सदृश निशा को तुम हरे चलो। चले चलो, चले चलो।। कब सरल रहा ये जीवन ...
चले चलो।
चले चलो, चले चलो
कर्मपथ पर चले चलो
भोर की किरण सदृश
निशा को तुम हरे चलो।
चले चलो, चले चलो।।
कब सरल रहा ये जीवन
कांटो भरा भले हो उपवन
कर्मबल के तप से तुम
जीवन सहज करे चलो।
चले चलो, चले चलो।।
मनुष्य हो तो कैसा भ्रम
न फंसो मदांध वित्त चित्त में
मनुष्यता की राह में
वही मनुष्य जो मनुष्य के लिए मरे।
चले चलो, चले चलो।।
अतर्क राह हो भले
सतर्क मगर हों पथिक
समर्थ भाव से सभी
अभीष्ट तारते चलो।
चले चलो, चले चलो।।
अनंत देव हैं यहां
अखण्ड आत्मभाव है
सजीव उदार कीर्ति से
सभी को पूजते चलो।
चले चलो, चले चलो
कर्मपथ पर चले चलो।।
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ग़ज़ल।
वक्त रफ्तार से अपनी चलता रहा
राह दर राह मैं भी गुजरता रहा
वक्त की चोट से जो भी घाव मिले
उन घाव के दर्द से हम गुजरते रहे।।
प्रतिक्षण वक्त की कसौटी पे हम
जीवन की परीक्षा से गुज़रते रहे
नीति व नैतिकता की जब बात की
जाने क्यूँ लोगों को हम अखरते रहे।।
मानकर शूल मुझसे नजर फेर ली
पुष्प बन राह में उनकी बिखरते रहे
जिनके हर भाव पे सर झुकाया कभी
निष्करुण बन के वो ही कुचलते रहे।।
यूँ तो दुश्मन कभी भी नहीं था कोई
अपनों के भाव से हम तो डरते रहे
था सामने मेरे पड़ाव(मंज़िल) मगर
पांव रखने से भी हम तो डरते रहे।।
उनके वचनों व वादों का क्या वास्ता
जो कह कह के उनसे मुकरते रहे
रही शिकायत नहीं किसी से कहीं
अब तो खुद ही खुद से उलझते रहे।।
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अपनी सामान्य विधा से अलग हटकर श्रृंगार विषयवस्तु पर एक प्रयास किया है, जो सादर निवेदित है--
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प्यार का मौसम बार बार आता नहीं
प्यार का मौसम बार बार आता नहीं
आंखों में सपना बार बार छाता नहीं।
न ठुकराओ स्नेह निमंत्रण
ये आलिंगन ये आमंत्रण
ये महज आकर्षण नहीं
ये वो पुष्प है जो बार बार खिलता नहीं।
प्यार का मौसम बार बार मिलता नहीं।।
तुम लगती हो किरण प्रभात की
मासूम सी छुवन कपास की
तुम पावस का प्रेम राग हो
तुम स्नेह, अनुरक्ति, अनुराग हो।
अनुरक्ति का ये नभ बार बार छाता नहीं
प्यार का मौसम बार बार आता नहीं।।
ये पवित्र पुंज है, पुण्य धाम है
मोहन की मुरली, सीता का राम है
ये अमृत स्रोत है, प्राण वायु है।
असफल यत्नों से अधरों का स्मित भाव छुपता नहीं
प्यार का ये मौसम बार बार मिलता नहीं।।
पूर्ण सत्य ये, पूर्ण स्वप्न ये
ये ही जीवन की परिभाषा
क्षण मिलन का भाव हवन का
बार बार आता नहीं।
प्यार का ये मौसम बार बार आता नहीं।।
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एक निश्छल प्रेम निमंत्रण को अपनी रचना के माध्यम से व्यक्त करने का प्रयास किया है-
तुम्हें देख दिल का मचलना है क्या
पलकों का खुल खुल के झँपना है क्या।
गमसुम सी चुप तुम हो बैठी मगर
कँपकँपा के अधरों का खुलना है क्या।
मैं अब तक समझ ही न पाया इसे
भावों का पल पल बदलना है क्या।
सत्य हो तुम या हो फिर कोई कल्पना
या मंगल अवसर की हो अल्पना
न अब चुप रहो, कुछ तो आवाज़ दो
मिलने का मुझसे कोई वादा करो।
जो बिछड़े अभी फिर मिलेंगे कहां
तुम रहोगी कहीं, मैं रहूंगा कहां
जो इक प्राण हैं हम दोनों अगर
तो बिछड़ करके दोनों रहेंगे कहां।
न अब चुप रहो, कुछ तो एहसास दो
शीश कांधे पे रख घन का अहसास दो
तृप्त हो जाएगी ये प्यासी धरा
प्रेम भाव की ऐसी घनसार दो।
अगर जो कहीं तुम कोई स्वप्न हो
तो उस स्वप्न की एक किरण दो मुझे
मेरी सृष्टि भी है समर्पित तुम्हें
मेरी पलकों में सजने का वादा करो।।
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प्रातः वन्दन
उठो मनुज स्वागत करो
स्नेहिल, सुरभित प्रभात का
त्याग कर आलस्य का
मुस्कुरा कर प्रभात का स्वागत करो।
क्यूँ सो रहा है अभी तक तू
स्वयं से साक्षात्कार कर
हो रही है नवीन भोर
इस भोर का स्वागत करो।
व्यतीत निशा अब हो गयी
तम की चादर हट चुकी
छोड़ कर के प्रमाद सारे
स्फूर्ति का स्वागत करो।
बन चुनौती तुम खड़े रहो
प्रतिपल कराल काल के
बन के दीपक ज्ञान का
दिव्य ज्योति का प्रसार करो।
है पल ये शंखनाद का
धर्म राष्ट्र के प्रसार का
अपने शंखनाद से तुम
विदीर्ण व्योम को करो।
उठो हिमाद्रि गिरिश्रृंग से
है मां भारती पुकारती
त्याग कर अज्ञानता सारे
स्वदेश के लिए जियो
स्वदेश के लिए मरो।।
त्याग कर आलस्य सारे
नव प्रभात का स्वागत करो।।
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कैसे चला पाओगे
कितना बोझ लेते हो
कैसे चला पाओगे।
ज़िंदगी की राहों में
अगणित पड़ाव आते हैं
हर पड़ाव में कुछ सिमटा है
क्या सब समेट पाओगे
यदि समेट भी लिया
तो क्या संभाल पाओगे।
कितना बोझ लेते हो
कैसे चला पाओगे।।
ज़िन्दगी में बोझ उठाओ, बोझा नही
बोझ- जिम्मेदारियों का,उत्तरदायित्वों का
सांस्कारिक आत्मनिर्भरता का
लोगों का क्या
वो तो त्रुटियां ही निकालेंगे
लोगों की बातों में आये
तो कैसे जी पाओगे।
कितना बोझा लेते हो
कैसे चला पाओगे।।
कल किसी के धोखे से
घायल हो गए थे
किसी के अनदेखेपन से
आहत हो गए थे
ये तो उनका ही आचरण था
तुम क्यों अपना रक्त जलाते हो
क्यों इसका बोझा लेते हो
कैसे चला पाओगे।।
सफल तो वो होते हैं
जो दर्द से परे
पुनर्वास निकाल लाते हैं
मिलती चोटों के
आप ही मलहम बन जाते हैं
उपहास व रोना उनका काम है
जो औरों को नीचा दिखाते हैं
जो तुम सन्मार्गी ठहरे तो
व्यर्थ क्यों इन पर वक्त गंवाते हो।
मत लो इतना बोझा, वरना
कैसे चला पाओगे।।
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जिंदगी कभी तो मुस्कुराएगी
कल मैंने देखा उसको
गली के मोड़ पर कुछ चुनते
आंखों में एक आस लिए
शायद कुछ सपनों को बीनते
देर तक देखता रहा मैं उसे
अपनी ही उंगलियों पर कुछ गिनते।
जब नहीं रहा गया तो मैंने पूछा
इस ढेर में तुम क्या चुनती हो
रह रहकर अपनी उंगलियों पे
तुम क्या गिनती हो।
बड़े ही भोलेपन से उसने कहा-
साहब मैं अपने दर्द को गिनती हूँ
भूख से तड़पते अपने मन को गिनती हूँ।
मैंने कहा पुनर्वास की कितनी ही योजनाएं बनी
क्या तुमने अभी तक कोई योजना नहीं सुनी
सुनी तो बहुत मगर, साहब
हमारी कौन सुनता है
यहां जाने कितने ऐसे लोग हैं
जो हमसे भी पहले अपने सपनों को गिनते हैं
योजनाएं चाहे जो भी हों
वो पहले अपने हिस्से को ढूंढते हैं
नीचे से ऊपर तक रोज़
हज़ारों वादे मिलते हैं
उन्हीं वादों के पैबन्दों से
हम अपने सपनों को सिलते हैं।
उसकी आँखों में व्यंग्य था
और मेरी आँखों में शर्मिंदगी
सोचा कैसे कैसे रंग
दिखाती है ये जिंदगी
हम भी तो दो वक्त की रोटी
की जद्दोजहद में लगे रहते हैं
कभी खाना ज्यादा हो जाये तो
उसे हम फेंक देते हैं
हम बासी नहीं खाते कहकर
नाक-भौं सिकोड़ते हैं
कभी नहीं सोचा कि कुछ लोग
इन्हीं टुकड़ों में अपने सपनों को बीनते हैं।
वो कहते थे अध्यादेश लाएंगे
देश से भूख, कुपोषण और गरीबी हटाएंगे
समाजवाद लाकर आर्थिक असमानता को मिटायेंगे
जाने क्यों जब भी
उनके वादों की हकीकत को तोला
हर बीतते वादों में पाया अगणित घोटाला।
सालों साल हम घोटालों में जीते आये हैं
उनकी चाहे-अनचाहे सब वादों
की घुट्टी पीते आये हैं
एक उम्मीद से कभी तो सबकी जिंदगी जगमगाएगी
महलों की जगमग के साथ ही
दिए कि एक रोशनी टिमटिमाएगी
उन गगनचुंबी अट्टालिकाओं के साथ ही
झोंपड़ियों की झांकती दीवारों से ही सही
कभी तो जिंदगी मुस्कुराएगी।।
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सुबह कभी तो आएगी
जब रात का आँचल ढलकेगा
जब भोर की किरण चमकेगी
जब नव पल्लव उपवन महकएगी
वो सुबह कभी तो आएगी।।
जब मजलूमों पर जुल्म न होंगे
जब इंसान मजबूर न होंगे
सबको अपना अधिकार दिलाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी।।
जब ऊंच नीच का भेद मिट जाएगा
अमीर गरीब का दाग हट जाएगा
जग में सामाजिकता फैलाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी।।
जब लिंग भेद खत्म हो जाएगा
जब दहेज के दानव मिट जाएगा
जब बहुएं जिंदा न जलाई जाएंगी
वो सुबह कभी तो आएगी।।
जब आंखों में आंसू न होंगे
लोग भूख से व्याकुल न होंगे
सबके सपनों को आकार दिलाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी।।
जब जग से आतंकवाद मिट जाएगा
जाति धर्म का भेद हट जाएगा
चंहुओर सुख शांति फैलाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी।
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कोरोना के कारण कैद हुई ज़िंदगी को हौसला देती मेरी रचना, मैंने अपनी इस रचना में कोरोना का कहीं भी जिक्र न करते हुए उससे पार पाने हेतु हौसले की बात की है, वैसे ये रचना सभी मौकों पर लागू होती है, आप सबके समक्ष सादर निवेदित है--
हौसला रख ये जिंदगी
हौसला रख ये जिंदगी
फिर सुबह मुस्कुराएगी
आज जो कैद है तू
तो कल फिर बाहर आएगी।।
माना इक आपदा ने निःशब्द किया
पूरी मानवता को घात दिया
पर रख तू हौसला प्रतिपल
हौसलों से ही ज़िंदगी जीत पाएगी।
हौसला रख ये जिंदगी
सुबह फिर मुस्कुराएगी।।
जो आज कैद है तू कमरों में
तो दूर कर अपने मन के अंधेरों को
इरादे जो बुलंद रहेंगे तेरे
तो सपने सच होंगे सारे।
अंधेरी राहों में दीप जला
राहों को आसान बनाएगी
हौसला रख ये जिंदगी
सुबह फिर मुस्कुराएगी।।
क्या निशा प्रभात को कभी रोक पाएगी
इतना कमज़ोर तो नहीं तू कि
विपदाएं तेरे हौसलों को तोड़ पाएंगी
तुझमें जीतने की शक्ति है
उठ चल पड़ेगा जब तू
मंज़िल भी मिलेगी तुझको
मिलने का आनंद फिर आएगा।।
हौसला रख तू जिंदगी
हौसलों से तू हर जंग जीत जाएगा।।
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अपने अंतर्मन में झांकने व स्वयं को पहचानने का आवाहन करती मेरी रचना--
पहचान करो
कब तक औरों को बोलोगे
कभी खुद से भी बात करो
बहुत किया अन्वेषण सबका
अब खुद की पहचान करो।
किस बात का मान तुम्हें है
किस ताकत का अभिमान तुम्हें है
खुद को कभी तराजू पे तोलो
कभी खुद से भी बात करो।
माना कि तुम कीर्तिवान हो
धनवान हो, बलवान हो
शोहरत की चोटी पे हो बैठे
पर न इसका अभिमान करो।
सत्य तुम्ही हो, धर्म तुम्ही
इस संकीर्णता का त्याग करो
औरों के भावों को समझो
औरों का सम्मान करो।
अपनी कथनी और करनी का
अंतर नहीं कभी तुम करना
जो बातें हैं कहीं कभी भी
उस पर हरपल डट कर रहना।
मन को आज तराजू कर लो
वचनों को अपने तुम तोलो
शाश्वत सत्य की खातिर
अब खुद की पहचान करो।।
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कोरोना पर कविता
एक प्रण
कैसा पल आया जीवन में
हाहाकार मचा जन जन में
अदृश्य शत्रु के व्यवहारों से
व्याकुलता मची त्रिभुवन में।
आओ हम प्रतिकार करें
अनुदेशों को अंगीकार करें
अदृश्य भयावह इस शत्रु से
राष्ट्र रक्षण का प्रण स्वीकार करें।
मनुजता के रक्षण की खातिर
निःस्वार्थ समर्पित जो इस रक्षण में
जुनुस जश्न के भाव त्याग कर
ताली, थाली से व्यक्त अपने उद्गार करें।
वक्त नहीं ये उत्सव का
वक्त है आत्म नियंत्रण का
त्याग कर विषाद के क्षण
सबको आशावान बनाएं।
कहने को ये लॉकडाउन है
पर व्यवहारिक अवस्था है
अनुशासन का प्रारूप सही है
ये कैद नही व्यवस्था है।
ताली, थाली के आग्रह का
व्यर्थ न तुम उपहास करो
ये तो अभियान मात्र है
बस भावों का सम्मान करो।
इन रणवीरों का हम
सम्मान सुनिश्चित आज करें
दीप जलाएं त्याग रूप का
हम इनका सम्मान करें।
आओ सब सहयोग करें
जन…
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आओ रिश्ते जोड़ें
इस लॉकडाउन को सजा न मानो
इसको तुम एक अवसर जानो
अवसर फिर बचपन जीने का
अवसर फिर खुद से मिलने का।
चलो अपनों संग मिल बैठें सारे
सोशल डिस्टेंसिङ्ग, पर अपनाएं
खोलें फिर यादों के एलबम
मिले प्रथम बार जब तुम और हम।
आओ याद सुनहरी खोलें
एक दूजे के मन से बोलें
अपनी हर बीती को विचारें
एक दूजे की बाट निहारें।
ये अवसर है दिल के मिलने का
रिश्तों से रिश्ते जुड़ने का
इस पल में जो दूर बसे हैं
दे दिलासा, ढांढस बंधाएं।
ये सच है, तकलीफें भी बड़ी हैं
कल-कारखाने बंद पड़े हैं
कामगारों पर आफत है आयी
व्याकुल, विह्वल आंखें भर आईं।
कितने घर चूल्हा बंद हुआ है
हंसी-ठिठोली मंद हुआ है
बच्चों के चेहरे उदास हैं
सागर समीप, फिर भी प्यास है।
ये अवसर है उनसे मिलने का
उनके रिसते घावों को भरने का
जोड़ें मानवता के रिश्ते
प्यार, वेदना, सम्मान के रिश्ते।
जो पीड़ित हैं इस त्रासदी से
उनका स्वास्थ्य निरीक्षण करना
बेहतर सुविधा देकर उनको
उनके हर घावों को भरना।
ऐसे ही व्यवहारों से हम
सतयुग की शुरुआत करें
प्रेम, समर्पण, भावप्रवणता से
सुघड़ भविष्य निर्माण करें।।
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विश्व पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल पर मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र पर चिंतन करती मेरी रचना-
धरती का कर्ज।
आओ धरती का कर्ज चुकाएं
प्रदूषण मुक्त करें धरती को
सब मिल इसको स्वच्छ बनाएं
आओ धरती का कर्ज चुकाएं।
इस धरती से क्या कुछ पाते हैं
बदले में हम क्या देते हैं
स्वार्थ लोभ वश पैसे बो कर
सबने इसका अस्तित्व नकारा।
शस्य श्यामला धरती सोने सी
इसकी क्षमता दाने बोने की
पर दूषित व्यवहारों से
इसको हमने ध्वस्त किया
रत्न प्रसविनी धरती का
हम सबने है विध्वंस किया।
पशु, पक्षी, खग, मृग सारे
सब रहते धरती के सहारे
दम घुटता है सब जीवों का
हिमाद्रि, जल-थल, अवनी, अंबर का
यदि धरती को सम्मान न हम दे पाएंगे
तो फिर जीवन कहां से पाएंगे।
जो न समझे आज महत्व को
फिर तरसेंगे शुद्ध पवन को
शुद्ध व्यवहार, नैतिकता तरसेगी
बादल बदले नैना बरसेंगी
आओ सब मिलकर प्रण ये उठाएं
प्रदूषण मुक्त इस धरा को बनाएं।
नैतिक व्यवहारों से ही हम
जब चंहुदिश को जगा पाएंगे
तब ही मुक्त होगी धरती
सुघड़ जीवन हम जी पाएंगे।।
©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
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