संत गुरु घासीदास एवं उनका दर्शन शोधार्थी - मनीष कुमार कुर्रे शोध निर्देशक - डॉ 0 चन्द्रकुमार जैन हिन्दी विभाग , शास 0 दिग्विजय स्वशासी म...
संत गुरु घासीदास एवं उनका दर्शन
शोधार्थी - मनीष कुमार कुर्रे
शोध निर्देशक - डॉ0 चन्द्रकुमार जैन
हिन्दी विभाग, शास0 दिग्विजय स्वशासी महा0 राजनांदगाँव (छत्तीसगढ़)
ईमेल - manishkumarkurreymkk@gmail.com
शोधसार :- गुरु घासीदास का जन्म 18 दिसंबर सन् 1756 को बालौदाबाजार जिले के गिरोदपुरी नामक स्थान पर हुआ था। इस समय समाज में छुआछूत, जाति-पाँति, अंधविश्वास, टोनही, सती प्रथा, बलि प्रथा जैसी कुरीतियों का प्रचलन था, जिसका अनुभव बाबा गुरु घासीदास ने स्वयं किया और उनके दर्शन पर भी इसका प्रभाव पड़ा। बाबा गुरु घासीदास हर घटना को तर्कशील होकर चिंतन करते और लोगों में सामाजिक अलख जगाने का प्रयास करते। बाबा गुरु घासीदास सभी मनुष्यों को समान समझते थे। जातिभेद को अपराध मानते थे। उनके दर्शन काल्पनिक न होकर वास्तविक एवं व्यवहारिक है। बाबा घासीदास के आध्यात्मिक, सामाजिक एवं नैतिक दर्शन सदैव ही मानवतावादी दृष्टिकोणों का संवाहक रहा है। बाबा घासीदास ने सत्य को ही ईश्वर माना है। गुरु घासीदास के दर्शन को सतनाम दर्शन के नाम से आज जाना जाता है जो मूलतः गुरु घासीदास के विचारधाराओं एवं सप्त सिद्धाँतों पर आधारित हैं। सत्य, अहिंसा, सदाचार, भाईचारा, समता, सहयोग, ईश्वर या सतनाम का स्वरूप गुरु घासीदास के दर्शन की सामाजिक एवं नैतिक क्षेत्र का विशेष पहलू रहा है। सामाजिक एवं नैतिक दर्शन में ही समस्त सिद्धाँतों एवं गुरु उपदेशों को समाहित किया जा सकता है
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शोधपत्र का उद्देश्य : -
1. गुरु घासीदास के विभिन्न दर्शन क्षेत्र का ज्ञान प्राप्त करना।
2. दर्शन क्या है..? जानने में सक्षम होंगे।
3. गुरु घासीदास के प्रमुख सिद्धाँतों से परिचित होंगे।
4. दर्शन के क्षेत्र में गुरु घासीदास के दर्शन का विस्तार पूर्वक अध्ययन करेंगे।
मुख्य शब्द :- सतनाम, सत्य, संत, दर्शन, फिलॉसफी, समानता, सदाचार, अहिंसा ।
विषय प्रवेश :- भारतीय संस्कृति में धर्म, आध्यात्मिक एवं दर्शन का सदैव ही विशेष महत्व रहा है। प्राचीन समय से ही भारत में धर्म को सबसे ऊँचा आदर्श माना गया है। भारत में स्वतंत्र बौद्धिक चिंतन की परम्परा रही है और इस चिंतन में अनेक धर्मों, संप्रदायों और दार्शनिक परम्पराओं को जन्म दिया है। हमारे देश में धार्मिक क्षेत्र के अंतर्गत समय-समय पर जिन मतों और सिद्धाँतों का प्रतिपादन हुआ उनमें कतिपय आधारभूत विचारों की प्रतिष्ठा हुई। उदाहरण स्वरुप - एकेश्वरवाद, आत्मा की अमरता, कर्म, पुनर्जन्म, मोक्ष प्राप्ति आदि। आज यह सिद्धाँत भारत के धार्मिक जीवन और दर्शन के प्रमुख सिद्धाँत बन गए हैं। मध्यकालीन भारत में जब मुसलमान आक्रमणकारियों ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों पर विजय प्राप्त कर इस्लाम धर्म का प्रचार-प्रसार किया तब भारतीयों का हृदय कुंठा, निराशा और अंधकार से भर उठा। सामाजिक जीवन में अनेक कुरीतियों ने घर कर लिया था। हिन्दू धर्म में अनेक मत-मतान्तरों के झगड़े, जाति-पाँति पर आधारित ऊँच-नीच के भेदभाव, धार्मिक कर्मकाण्ड जैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा था, तभी कुछ दार्शनिक चिन्तकों और ईश्वर भक्तों ने एक शांतिपूर्ण मार्ग को अपनाया। वह मार्ग था - भक्ति मार्ग या भक्ति आंदोलन। यद्यपि भक्ति मार्ग भी इस समय दो वर्गों में बट गया था पहला सगुण भक्ति एवं दूसरा निर्गुण भक्ति।
प्रायः सभी संत निर्गुण हुए हैं। संत कबीरदास, रैदास, दादूदयाल, गुरु नानक देव, संत ज्ञानेश्वर और छत्तीसगढ़ में संत गुरु घासीदास आदि ने निर्गुण भक्ति को अपनाया और एकमात्र संदेश देते हुए मनुष्य को सत् मार्ग की ओर अग्रसर किया। यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि निर्गुण संत-साधकों की परम्परा में गुरु घासीदास छत्तीसगढ़ के सर्वाधिक पूज्य एवं महान संत थे। बाबा गुरु घासीदास ने अपने सात्विक किन्तु प्रभावपूर्ण एवं मार्मिक दार्शनिक संदेशों से ऐसे लाखों लोगों में जो पीड़ित थे, शोषित थे, अपमानित थे एक नया आत्मविश्वास जगाया। सच्चे अर्थों में गुरु घासीदास ज्योति पुरुष थे, प्रकाश पुंज थे। 1
गुरु घासीदास के चिन्तन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वह मौलिक था। उनके ज्ञान और दर्शन पुस्तकों पर आधारित नहीं थी। संतों ने परम्परावादी ''पोथीवादी'' को कोई महत्व नहीं दिया। वे जो देखते और स्वानुभूत करते उन्हें ही अपने दर्शन में महत्व देते थे। संत कबीर ने कहा भी है -
तू कहता कागद की लेखी।
मैं कहता आँखिन की देखी।। 2
अब हमें गुरु घासीदास के दर्शन से पूर्व यह समझना आवश्यक है कि दर्शन आखिर क्या है..? जो इस प्रकार है -
दर्शन : अर्थ एवं परिभाषा
दर्शन जो कि अपने आप में एक यथार्थ है। दर्शन शब्द ''दृश'' धातु से बना है। ''दृश'' संस्कृत की धातु है जिसका अर्थ है - देखना। दृश धातु में ''ल्युट्'' प्रत्यय लगाने से दर्शन शब्द बनता है। इस शब्द को व्याख्यात्मक दृष्टि से देखा जाए तो कह सकते हैं - दृश्यते अनेन इति दर्शनम्। अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाए या ज्ञान प्राप्त किया जाए। सभी संतों ने आँखों देखी ज्ञान पर विश्वास किया है। यहाँ कल्पना को कोई स्थान नहीं दिया गया है। 3
पाश्चात्य विचारधारा के दार्शनिक यूनानी विद्वान प्लेटो के अनुसार दर्शन को अंग्रेजी में फिलॉसफी कहा जाता है। फिलॉसफी शब्द यूनानी भाषा का शब्द है। यूनानी में दो अलग-अलग शब्द है - फिलॉस और सोफिया । फिलॉस का अर्थ है - प्रेम (लव) या अनुराग और सोफिया का अर्थ है - विद्या या ज्ञान। इन्हीं दोनों शब्दों से मिलकर फिलॉसफी बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है - विद्यानुराग या ज्ञान प्रेम। किन्तु दर्शन केवल देखना ही नहीं हो सकता। जब मानव अपने मन तथा हृदय के भीतर बाह्य और अंतरचक्षु को मिश्रित कर देखता है, वही दर्शन कहलाता है। अर्थात् जो सत्य-असत्य, भाव-विचार, के साथ मन को सम्मिलित कर अपना सिद्धाँत प्रकट करता है, दर्शन है। भारतीय विचारकों के अनुसार दर्शन की उत्पत्ति के मूल में दुःख है। किन्तु पाश्चात्य विचारक दर्शन को आश्चर्य से निकला मानते हैं। 4
परिभाषा :-
भारतीय विद्वानों के अनुसार दर्शन की परिभाषा इस प्रकार है -
(1) कौटिल्य के अनुसार : - "आन्वीक्षिकी विद्या ही दर्शन है।"
(2) डॉ0 बलदेव उपाध्याय के अनुसार :- ''दर्शन एक ठोस सिद्धाँत है न कि अनुमान या कल्पना। इसे व्यवहार में लाकर व्यक्ति निर्धारित लक्ष्य, मार्ग प्रशस्त कर लेता है।''
(3) डॉ0 उमेश मिश्र के अनुसार - ''मार्गदर्शन के द्वारा प्रत्यक्षीकरण होता है। अर्थात् चाहे जितना ही सूक्ष्म क्यों न हो उसे दर्शन से अनुकूल किया जा सकता है।''
पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार दर्शन की परिभाषा इस प्रकार है -
(1) ''ज्ञान का ही विज्ञान दर्शन है'' - फिक्टे ।
(2) ''पदाथरें के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान ही दर्शन है'' - प्लेटो।
(3) ''दर्शन विज्ञानों का विज्ञान है'' - कामटे । 5
दर्शन के क्षेत्र में गुरु घासीदास
गुरु घासीदास के दर्शन या जिसे हम सतनाम दर्शन के नाम से भी जानते हैं, गुरु घासीदास के ही विचारों और सिद्धांतों पर आधारित है। गुरु घासीदास ने जिस समय छत्तीसगढ़ में जन्म लिया उस समय समाज खण्ड-खण्ड हो चुका था। यहाँ की धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियाँ अनेक ऐतिहासिक कारणों से दूषित हो गई थी। जाति-पाँति, ऊँच-नीच, छुआछूत आदि भेदभावों के कारण सामाजिक वातावरण इतना दूषित हो गया था कि मनुष्यत्व के सात्विक सम्मान पर आघात पहुँचने लगा था। ऐसी विषम स्थिति में आवश्यकता थी एक ऐसे संत कि, ऐसे दार्शनिक महापुरुष की जो भटके लोगों को धर्म और संस्कृति का मार्ग दिखा सके। गुरु घासीदास ने सत्यनाम जो दार्शनिक सिद्धाँत प्रतिपादित किए हैं वह उनकी गहनतम दिव्यानुभूति पर आधारित है। उन्होंने जो कुछ आँखों से देखा था उसी का वर्णन किया है। यह दर्शन सिद्धाँत उनकी तपस्या का ही फल है। ऐसा ज्ञान जो अक्षरीय ज्ञान से परे है।
निम्न दार्शनिक पक्ष इस प्रकार हैं -
सामाजिक एवं नैतिक दर्शन :-
सामाजिक दर्शन - गुरु घासीदास के सामाजिक दर्शन में पूर्ण सामाजिक समानता का भाव निहित है। गुरु घासीदास का मानना है की सामाजिक दृष्टि से कोई भी बड़ा-छोटा नहीं है। सबकी मुक्ति के बिना एक की मुक्ति संभव नहीं है। यह एक सच्ची आध्यात्मिकता है, मानव जाति के प्रति एक सच्ची सेवा है। गुरु घासीदास के सामाजिक दर्शन में सभी को कल्याण की भावना से देखने का लक्ष्य है। पीड़ित के प्रति वे करुणा से द्रवित थे। इससे उनकी सामाजिक न्याय की अनुभूति होती है। गुरु घासीदास का सभी के लिए केवल एक ही मंत्र था वह है - ''सतनाम''। अर्थात् ऐसे नियमों का पालन करना जो सामाजिक सत्य की स्थापना में साधक हो और समाज का कल्याण हो सके। सत्य के व्यवहारिक बनाने के लिए घासीदास ने कतिपय सामाजिक आडम्बरों को दूर करने के लिए कहा था, जिनमें जातिवाद, अस्पृश्यता, चरित्रहीनता, मदिरापान, माँसाहार, उन्मुक्त मैथुन, नरबलि, स्त्री वध आदि आते हैं। घासीदास पूर्ण सामाजिक समानता के पक्षधर थे क्योंकि सतनाम समानता के मार्ग पर विश्वास करता है। इसलिए गुरु घासीदास सतनाम का अनुसरण करने का उपदेश देते हैं।
नैतिक दर्शन - गुरु घासीदास के नैतिक दर्शन का स्त्रोत उनकी उपदेश एवं सिद्धाँत है। उनका सतनाम दर्शन काल्पनिक नहीं अपितु व्यवहारिक सत्य पर आधारित है। जनमानस को अलौकिक जगत से खींचकर लौकिक जगत में लाने का प्रयास किया। उनके विचारों में कहीं आध्यात्मिकता व धार्मिकता का समावेश नजर नहीं आता। काल्पनिक जगत से परे वह धरती को ही स्वर्ग बनाना चाहते थे। उनके विचार शुद्ध बौद्धिक थे। वह साधु पुरुष थे। सादा जीवन उच्च विचार ही उनकी जीवन सार है । वह साधारण इंसान बने रहना चाहते थे। जैसे -
मोर संत मन मोला काकरो ले बड़े झन कइहा।
नई तो मोला हुदेसना मा हुदसे कस लागही।। 6
गुरु घासीदास के समय राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, नैतिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियाँ अत्यधिक अस्त-व्यस्त थी। दूसरे शब्दों में पूरे देश में बौद्धिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक अंधकार छा गया था। सती, टोनही का वध, नरबलि, अंधविश्वास तथा अनैतिक आचार-विचार पूरे समाज में छाए हुए थे। गुरु घासीदास ने ऐसी कुरीतियों के विरुद्ध आवाज उठाई। 7
सामाजिक एवं नैतिक दर्शन के अंदर समस्त दर्शन को समाहित किया जाता है। जिसमें निम्न बिन्दु इस प्रकार है -
ईश्वर या सतनाम का स्वरूप - गुरु घासीदास की परमतत्व का अवबोध उनके एकात्मक तत्व के अनुभव पर आधारित है न कि किसी धर्मग्रंथ या सैद्धाँतिक उपदेश पर। वे निरक्षर थे। इसलिए कबीरदास की समान उन्होंने ''मसि कागद'' को छुआ तक नहीं था। गुरु घासीदास ने ईश्वर को एक माना जिसे सतनाम की संज्ञा दी गई है। सभी मनुष्यों का ईश्वर एक है और वह सभी पर समान रूप से कृपा करता है। वह निर्गुण, निराकार और निर्विकार है। उनका आदि नाम सतनाम है -
आदि नाम सतनाम है, सत्यहिं है जगसार ।
सत्यनाम के जपन ते, सब जन उतरे पार ।। 8
ईश्वर को प्राप्त करने के लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है। जो उन्हें शुद्ध, सात्विक और सरल भाव से खोजता है वह उन्हें स्वयं के भीतर ही मिल जाता है। क्योंकि वह घट-घट में निवास करता है।
अहिंसा - सभी धर्मों में अहिंसा को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। अहिंसा केवल शब्द नहीं है यह अपने आप में संपूर्ण जीवन है, परम धर्म है। जो अहिंसा को अपने जीवन में साकार कर लेता है वह धर्म के सार को साकार कर लेता है। इसलिए कहा गया है ''अहिंसा परमो धर्मः''। अहिंसा मानवता का प्रतीक है। अहिंसा सीमा के भीतर किसी जीव की हत्या नहीं करने से लेकर किसी भी जीव के हृदय को चोट नहीं पहुँचाने तक की समस्त क्रियाएँ, चेष्टाएँ आ जाती है। किसी भी जीव पर आघात करना परमात्मा पर आघात करना है। जीना और जीने देना मनुष्य का कर्तव्य है। गुरु घासीदास ने यह संदेश दिया कि माँस-भक्षण नहीं करना चाहिए। सात्विक आहार ग्रहण करना चाहिए साथ ही मादक पदाथरें का पूर्ण निषेध करना चाहिए। गुरु घासीदास के सिद्धाँत-दर्शन वैज्ञानिकता पर आधारित है। गुरु घासीदास ने तर्कशील होकर बताया कि मादक पदार्थ केवल मन को नष्ट नहीं करता बल्कि शरीर को भी नष्ट कर देता है।
सदाचार - सात्विक विचार, सात्विक कर्म और सात्विक मन से ही सदाचार का निर्माण होता है। सादगी सरलता और निष्कपटता सदाचार के आवश्यक अंग है। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि पर नियंत्रण रखते हुए कथनी और करनी पर एकता बनाए रखनी चाहिए। किसी के प्रति दुराचार, अत्याचार, दुर्व्यवहार, अनाचार नहीं करना चाहिए। ईर्ष्या, द्वेष, मिथ्या-भाषण से सदैव बचना चाहिए। अहंकार का त्याग चरित्र विकास के लिए आवश्यक है क्योंकि जहाँ अहंकार है वहाँ श्रेष्ठ चरित्र नहीं हो सकता चाहे वह अंहकार धन का हो या पद का हो अथवा बल का। अहंकार ही अज्ञानता का दूसरा नाम है। सदाचार में गुरु घासीदास ने महिलाओं का सम्मान तथा समाज में ऊँचा स्थान पर रखना सदाचार का श्रेष्ठ लक्षण माना है। कबीरदास जी का दोहा सदाचार के लिए चरितार्थ होता है जो इस प्रकार है -
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जीवन मूल है तोष ।
त्याग सुखों का सार है, स्वर्ग जगत संतोष ।।
सदाचार का सतनाम दर्शन में महत्वपूर्ण स्थान है। सदाचार ही सच्चे अथरें में मनुष्य को मनुष्य बनाता है।
समानता - गुरु घासीदास सभी जीवों को समान समझते थे। उनका संदेश था सभी मनुष्य समान है। ऊँच-नीच, छुआछूत आदि का भेदभाव करना न केवल मनुष्यों के प्रति बल्कि परमात्मा के प्रति भी घोर अपराध है। जाति-पाँति, छुआछूत का कोई आधार नहीं है। यह मनुष्य के प्रति अपमान का द्योतक मात्र है। यह भेदभाव अवैज्ञानिक, निराधार और स्वार्थ की उपज है। प्रत्येक मनुष्य के स्वाभिमान और आत्म सम्मान की पूर्ण रक्षा की जानी चाहिए। बाबा घासीदास माता-पिता और गुरु के प्रति पूर्ण भक्ति रखने की बात करते थे। कबीर दास ने तो गुरु को ईश्वर से भी बड़ा माना है उनका यह दोहा समानता पर चरितार्थ होता है -
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपनै, जिन गोविंद दियो बताय।। 9
दूसरों को सम्मान देना ही अपने को सम्मानित करना है।
सत्य पर बल - गुरु घासीदास ने सत्य पर बल दिया और सत्य को ही ईश्वर बतलाया है। बाबा घासीदास ने असत्य मार्ग छोड़कर सत्य मार्ग पर चलने की सीख दिए हैं, जहाँ समरसता, समता, प्रेम और करुणा बसता है। वह सत्य को सर्वोपरि मानते हैं यथा -
सत्य से धरती खड़े, सत्य से आकाश।
सत्य से सृष्टि उपजे, कह गए घासीदास।। 10
गुरु घासीदास कहते हैं कि सत्य का वास वहीं हो सकता है जिसका मन शुद्ध एवं मानवीय गुणों से परिपूर्ण हो। सत्य आचरण ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है, सत्य आचरण ही कर्म और श्रेष्ठ मर्म है। जो सत्याचरण करता है वही सत्य अर्थात् सतनाम तक पहुँच सकता है। संत कबीर ने कहा है -
साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
जाके मन में साँच है, ताके मन में आप ।। 11
गुरु घासीदास के दर्शन के संदर्भ में हम देखें तो कह सकते हैं कि सप्त सिद्धाँतों का सार ही उनका दर्शन है जो इस प्रकार है -
1. सतनाम पर विश्वास करो।
2. बाह्य आडम्बर, मूर्ति पूजा मत करो ।
3. माँसाहार मत करो ।
4. नशा सेवन मत करो।
5. जाति भेद के प्रपंच में मत पड़ो।
6. पर स्त्री को माता जानो ,स्त्री सम्मान करो।
7. गाय को हल में मत जोतो, अपराह्न में हल मत चलाओ। 12
निष्कर्ष - अतः हम कह सकते हैं कि गुरु घासीदास के सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक-दर्शन वर्तमान सामाजिक धरातल पर समाज सुधार हेतु उपयोगी एवं प्रासंगिक है। उनके सिद्धाँत एवं उद्देश्य दर्शन का मूल आधार है, जो समस्त मानव कल्याण के लिए सार्थक है। उनके उपदेशों में एक ओर आध्यात्मिक आदर्श है तो दूसरी ओर सामाजिक चिंतन-दर्शन भी है। गुरु घासीदास ने अपने तपोबल, मनोबल, आत्म बल एवं अपनी आध्यात्मिक दर्शन के आधार पर सतनाम की जागृति फैलाई, जिसमें वह सफल भी हुए। आज देश-दुनिया की परिस्थिति गुरु घासीदास के काल से बहुत भिन्न नहीं है। राष्ट्र को निर्धनता, अज्ञानता, नशाखोरी, व्याभिचारी तथा मक्कारी जैसी समस्याओं से बचने के लिए आवश्यक है की हम आज गुरु घासीदास के दर्शन को जाने, समझे और अपने जीवन में उतारने का संकल्प लें। तभी समाज और देश विकास कर सकेगा। आवश्यकता है कि हम मानवीय मूल्यों को पुनः संचारित करें, उन्हें दृढ़ बनाए। इसके लिए हमें गुरु घासीदास के उपदेशों को अपने जीवन में उतारना होगा।
संदर्भ :-
(1) माटी बोलती है, मेघनाथ कन्नौजे, अंकुर प्रकाशन, 1984, पृष्ठ - 31।
(2) सत्य ध्वज पत्रिका, 18 दिसंबर विशेषांक, 1995, अंक 20, पृष्ठ - 8,10।
(3) भारतीय दर्शन, उमेश मिश्र, उत्तर प्रदेश, लखनऊ, पृष्ठ - 5।
(4) शिक्षा दर्शन, डॉ0 रामशकल पाण्डये, पृष्ठ - 3।
(5) शिक्षा के दार्शनिक एवं समाजशास्त्रीय आधार, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, देहरादून हल्द्वानी, एम0 एड0 पाठ्यक्रम, पृष्ठ - 6।
(6) गुरु घसीदास संघर्ष, समन्वय और सिद्धाँत, डॉ0 हीरालाल शुक्ल, सिद्धार्थ बुक्स दिल्ली,पृष्ठ - 200,195।
(7) सतनाम दर्शन, डॉ0 टी0 आर0 खूंटे, सतनाम कल्याण एवं गुरु घासीदास चेतना संस्थान, रायपुर छत्तीसगढ़ पृष्ठ - 328।
(8) माटी बोलती है, मेघनाथ कन्नौजे, अंकुर प्रकाशन, 1984, पृष्ठ - 36 ।
(9) वही पृष्ठ - 37, 38।
(10) वही पृष्ठ - 39, 40।
(11) सतनाम संदेश मासिक पत्रिका, छत्तीसगढ़ प्रगतिशील सतनामी समाज, रायपुर छत्तीसगढ़, मार्च 2018, पृष्ठ - 18।
(12) तपश्चर्या एवं आत्म चिंतन गुरु घासीदास, बलदेव प्रसाद/जयप्रकाश मानस/रामशरण टण्डन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015, पृष्ठ - 161।
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