जयंती पर... भारतीय सिनेमा के जनक: दादा साहब फाल्के - वीणा भाटिया घुंडीराज गोविंद फाल्के को हम आम तौर पर दादा साहब फाल्के के नाम से जानते हैं...
जयंती पर...
भारतीय सिनेमा के जनक: दादा साहब फाल्के
- वीणा भाटिया
घुंडीराज गोविंद फाल्के को हम आम तौर पर दादा साहब फाल्के के नाम से जानते हैं। भारतीय सिनेमा की शुरुआत करने वाले इस शख्स की सिर्फ आज एक अवॉर्ड के नाम तक महदूद रह गई है। भारत सरकार की ओर से सिनेमा में उल्लेखनीय योगदान के लिए सिनेमा का सबसे बड़े अवार्ड दादा साहब फाल्के अवॉर्ड दिया जाता है। उनके बारे में इस वाक्य से ज्यादा जानने की जरूरत न ही सिनेप्रेमी महसूस करते हैं और न ही फिल्म जगत के लोग। सिर्फ सौ साल पुराने भारतीय सिनेमा का इतिहास पश्चिम के सिनेमा के इतिहास से बहुत बाद का नहीं है।
1895 में लुमियर बंधु ने दुनिया की पहली चलती-फिरती फिल्म बनाई जो कि सिर्फ 45 सेकेंड की थी। इसे पेरिस में दिखाया गया था। एक-दो साल के बाद ही 1896-97 में यह भारत में प्रदर्शित की गई। इसके करीब 15 साल बाद 1910 में तब के बंबई के अमरीका-इंडिया पिक्चर पैलेस में ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ दिखाई गई थी। वो क्रिसमस का दिन था। थियेटर में बैठ कर फिल्म देख रहे घुंडीराज गोविंद फाल्के ने निश्चय किया कि वो भी ईसा मसीह की तरह भारतीय धार्मिक और मिथकीय चरित्रों को रूपहले पर्दे पर जीवंत करेंगे। इसके बाद उन्होंने बंबई में मौजूद थियेटरों की सारी फिल्में देख डाली। दो महीने तक वो हर रोज शाम में चार से पांच घंटे सिनेमा देखा करते थे और बाकी समय में फिल्म बनाने के उधेड़बुन में लगे रहते थे। इससे उनकी सेहत पर असर पड़ा और वो करीब-करीब अंधे हो गए। तब की मशहूर पत्रिका नवयुग में लिखे अपने एक लेख ‘मेरी कहानी मेरी जुबानी’ में वो लिखते हैं कि इस दौरान शायद ही वो किसी दिन तीन घंटे से ज्यादा सो पाए थे।
उन्होंने पहली भारतीय फिल्म बनाने के लिए अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी। वह भारत सरकार के पुरातत्व विभाग में फोटोग्राफर थे। वह एक पेशेवर फोटोग्राफर बनने के लिए गुजरात के गोधरा शहर गए थे। वहां दो सालों तक वो रहे थे लेकिन अपनी पहली बीवी और एक बच्चे की मौत के बाद उन्होंने गोधरा छोड़ दिया था। वहां पर फाल्के साहब का स्टेशन रोड में एक स्टूडियो भी हुआ करता था। दंगों के लिए बदनाम हो गए इस शहर को अब शायद ही कोई फाल्के साहब की वजह से भी जानता हो। भारतीय सिनेमा का कारोबार आज करीब डेढ़ अरब का हो चला है और हजारों लोग इस उद्योग में लगे हुए हैं, लेकिन दादा साहब फाल्के ने महज 20-25 हजार की लागत से इसकी शुरुआत की थी। उस वक्त यह एक बड़ी रकम थी। इसे जुटाने के लिए फाल्के साहब को अपने एक दोस्त से कर्ज लेना पड़ा था और अपनी संपत्ति एक साहूकार के पास गिरवी रखनी पड़ी थी।
भारत की पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' बनाने की दादा साहब फाल्के की कोशिशें अपने-आप में एक पूरी गाथा है। 3 मई, 1913 को यह फिल्म मुंबई में प्रदर्शित हुई थी। 1914 में यह फिल्म लंदन में दिखाई गई। उस वक्त फिल्मों में महिलाएं काम नहीं करती थीं। पुरुष ही नायिकाओं के किरदार निभाया करते थे। दादा साहब फाल्के हीरोइन की तलाश में रेड लाइट एरिया की खाक भी छान चुके थे। लेकिन वहां भी कोई कम पैसे में फिल्मों में काम करने के लिए तैयार नहीं हुई। हालांकि, भारतीय फिल्मों में काम करने वाली पहली दो महिलाएं फाल्के की ही फिल्म मोहिनी भष्मासुर से भारतीय सिनेमा में आई थीं। ये दोनों अभिनेत्रियां थीं दुर्गा गोखले और कमला गोखले। भारत में फिल्म निर्माण को स्थापित करने में फाल्के साहब का पूरा परिवार लगा हुआ था। गहने बेचकर कई बार उनकी पत्नी ने उनकी मदद की थी। विश्वयुद्ध के दौरान दादा साहब फाल्के के सामने एक वक्त ऐसा आया जब वो पाई-पाई को मोहताज हो गए थे। उस वक्त वो ‘श्रियाल चरित्र’ का निर्माण कर रहे थे। उनके पास कलाकारों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं थे। ‘मेरी कहानी मेरी जुबानी’ में फाल्के साहब लिखते हैं कि उस वक्त उनकी पत्नी सरस्वती बाई ने आगे बढ़ कर उनसे कहा, ‘इतने से परेशान क्यों होते हो? क्या चांगुणा का काम मैं नहीं कर पाऊंगी? आप निर्जीव तीलियां परदे पर नचाते हैं, फिर मैं तो मानव हूं, आप मुझे सिखाइए। मैं चांगुणा का काम करती हूं लेकिन श्रियाल आप बनिए, मेरे नाम का विज्ञापन मत कीजिए।' इस फिल्म में बालक चिलया की भूमिका दादा साहब फाल्के के बड़े बेटे निभा रहे थे।
19 सालों के अपने करियर में दादा साहब फाल्के ने कुल 95 फिल्में और 26 लघु फिल्में बनाई थीं। 'गंगावतरण' उनकी आखिरी फिल्म थी। यह फिल्म 1937 में आई थी। यह उनकी पहली और आखिरी बोलती फिल्म भी थी। हालांकि, यह फिल्म असफल रही थी।1938 में फिल्म इंडस्ट्री सरदार चंदुलाल शाह की अगुवाई में अपनी सिल्वर जुबली मना रहा था। फाल्के साहब को भी बुलाया गया था लेकिन उस सम्मान के साथ नहीं जिसके वो हकदार थे। वो आम श्रोता-दर्शकों के भीड़ में बैठे हुए थे। वी शांताराम ने उन्हें पहचाना और सम्मान के साथ स्टेज पर ले आए। सिल्वर जुबली समारोह के आखिरी दिन वी शांताराम ने निर्देशकों, निर्माताओं और कलाकारों से अपील की वे सब मिलकर चंदा दे ताकि दादा साहब फाल्के के लिए एक घर बनाया जा सके। हालांकि बहुत कम पैसे इकट्ठा हो सके लेकिन वी शांताराम ने अपने प्रभात फिल्मस कंपनी की ओर से उसमें अच्छी-खासी रकम मिलाकर फाल्के साहब को घर बनाने को दिया। इस तरह नासिक के गोले कॉलोनी में उन्हें एक छोटा-सा बंगला आखिरी वक्त में नसीब हो सका। इस बंगले में वह ज्यादा दिन नहीं रह सके।
1944 में उनकी एक गुमनाम शख्स की तरह मौत हो गई, जबकि तब तक उनका शुरू किया हुआ कारवां काफी आगे निकल चुका था और फिल्मी दुनिया की बदौलत कुछ शख्सियतों ने अपना बड़ा नाम और पैसा कमा लिया था।1970 उनका जन्म शताब्दी वर्ष था। इसी साल भारत सरकार ने उनके नाम पर सिनेमा का सबसे बड़ा पुरस्कार देने की घोषणा की।
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