ऑनलाइन पठन-पाठन : विवेचना और कुछ सुझाव बिनय कुमार शुक्ल कोरोना के आतंक के कारण वैश्विक स्तर पर ढेरों परिवर्तन ला दिया है जिनमें कई परंपरागत ...
ऑनलाइन पठन-पाठन : विवेचना और कुछ सुझाव
बिनय कुमार शुक्ल
कोरोना के आतंक के कारण वैश्विक स्तर पर ढेरों परिवर्तन ला दिया है जिनमें कई परंपरागत संस्थाओं के प्रारूप में परिवर्तन हुआ है तो कई नए और अनुभूत प्रयोग हो रहे हैं। अब चिकित्सा का ही क्षेत्र ले लिया जाए। कोरोना चूंकि बिल्कुल नई बीमारी है तथा यह भी अकाट्य तथ्य है कि संपर्क से ही इसका प्रसार अधिक होता है अतः इसके रोकथाम के लिए सामाजिक दूरी(सोशल डिस्टेन्सिंग) और लॉकडाउन जैसे उपाय अपनाने पर हर देश और सरकार जोर दे रही है तथा जनता को इसका अक्षरशः अनुपालन करने के लिए कहीं अनुरोध तो कहीं जोर-जबरदस्ती भी की जा रही है। यह युद्ध मानव प्रजाति की रक्षा के लिए ही तो लड़ा जा रहा है। इस लॉकडाउन से रोजगार, चिकित्सा, सामाजिक ताना-बाना, संपर्क पर प्रभाव डालने के साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व परिवर्तन लाने के लिए शिक्षकों तथा शिक्षाविदों को बाध्य कर दिया है। यहाँ मैं शिक्षा के क्षेत्र में लॉकडाउन के प्रभाव की चर्चा करने जा रहा हूँ।
लॉकडाउन के पूर्व की शिक्षा व्यवस्था :
माध्यमिक स्तर तक के छात्रों की शिक्षा व्यवस्था(कक्षा 10 तक के छात्रों के लिए) : कुछ विशेष मामलों को छोड़ कर लॉकडाउन के पूर्व तक यह आवश्यक था कि छात्रों का विद्यालयों में दाखिला हो तथा नियमित रूप से वो विद्यालय जाएँ। बच्चों को विद्यालय तक ले जाने के लिए भारत सरकार द्वारा भी नियम बनाए गए हैं। गरीब विद्यार्थियों को प्रेरित करने के लिए मध्याह्न भोजन(मिड डे मील) योजना, मुफ़्त पुस्तकें और पोशाक(यूनिफ़ॉर्म) दिए जाने का प्रावधान, विद्यार्थियों को किसी भी स्तर की कक्षा में अनुत्तीर्ण न करना तथा विद्यालयों में अधिकांश छात्रों का नामांकन एवम उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए विद्यालयों के शिक्षकों पर भी दबाव बनाने का नियम है। इन समस्त नियमों के प्रचार के लिए ‘स्कूल चले हम’ जैसे विभिन्न विज्ञापनों का प्रसारण भी किया जाता रहा है तथा समय-समय पर इसकी निगरानी तथा निरीक्षण करने के लिए अलग से समिति का भी प्रावधान है। इन समस्त प्रावधानों का उद्देश्य यह है कि एक बार छात्र यदि विद्यालय में आए तो कुछ-न-कुछ सीखेगा अवश्य और फिर जब उसे विद्यालय में ही भोजन, पोशाक मिलना प्रारंभ हो जाएगा तो उसे पढ़ाई करने में कोई बाधा नहीं दिखाई देगी।
भारत की स्वतंत्रता के बाद से बनी विभिन्न समितियों ने भी माध्यमिक स्तर के छात्रों के लिए स्कूली शिक्षा पर ही बल दिया तथा इसके विविध आयामों में बारे में अपने विचार प्रस्तुत किया है।
स्कूली शिक्षा का लाभ : विभिन्न अध्ययनों में यह पाया गया है कि शिक्षक-छात्रों का आमने-सामने या एक समूह में बैठकर शिक्षण से किसी भी पाठ से संबंधित विभिन्न प्रश्नों तथा जिज्ञासाओं का समाधान आसानी से मिल जाता है तथा जो छात्र पढ़ाई में कमजोर हैं उनमें सुधार का उपाय करने का अवसर भी मिल जाता है साथ ही छात्रों की शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति का आकलन का अवसर भी प्राप्त होने के साथ ही जिस क्षेत्र में वे कमजोर हैं उन क्षेत्रों में सुधार का सम्मिलित प्रयास करने का भी अवसर प्राप्त होता है।
उच्च माध्यमिक स्तर तक दूरस्थ/पत्राचार माध्यम से शिक्षा का प्रादुर्भाव : वर्ष 1989 में एम.बी.बुच समिति का गठन हुआ जो दूरस्थ शिक्षा माध्यम पर बनी पहली समिति थी। इसी वर्ष राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान(एन आई ओ एस) की स्थापना हुई जो दूरस्थ माध्यम से दसवीं से लेकर उच्च-माध्यमिक स्तर की शिक्षा देने का एक सशक्त माध्यम बना। मई 2016 तक इसमें 16 लाख छात्रों का नामांकन हुआ था तथा यह विश्व के सबसे बड़े मुक्त विद्यालय(ओपन स्कूल) का स्वरूप है। इसके साथ ही भारत में भी दूरस्थ माध्यम से उच्च माध्यमिक स्तर की शिक्षा देने की शुरुआत हुई जिसमें शिक्षण सामग्री छात्रों को उपलब्ध करवा दी जाती है, छात्र अपने घर से ही पढ़ाई करते हैं। असुविधा की स्थिति में नजदीकी केंद्र से संपर्क करने की छूट होती है। नियत समय पर परीक्षा तथा प्रमाणन। यह प्रमाणपत्र नौकरी और उच्च शिक्षा के लिए मान्य होता है।
यहाँ से दूरस्थ माध्यम से उच्च माध्यमिक स्तर तक के छात्रों के लिए शिक्षण की व्यवस्था हुई। शुरुआत में छात्रों को केवल पाठ्य पुस्तकें ही उपलब्ध कारवाई जाती थी तथा सहायता के लिए नजदीकी केंद्र में संपर्क के लिए प्रेरित किया जाता है जहाँ समय-समय पर संपर्क कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इन कार्यक्रमों में छात्र अपनी शंकाओं का समाधान करने का प्रयास कर सकते हैं।
दूरस्थ माध्यम से उच्च शिक्षा : सन 1985 में इन्दिरा गांधी मुक्त विश्व विद्यालय की स्थापना के साथ ही भारत में दूरस्थ माध्यम से उच्च शिक्षा के द्वार खुल गए। क्रमशः स्नातक से लेकर शोध तक की शिक्षा दूरस्थ माध्यम से दी जाने लगी। धीरे-धीरे अन्य विश्वविद्यालय भी इसमें सहभागिता करने लगे। शिक्षण का यह माध्यम उन लोगों के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ जो कहीं नौकरी करते हैं या कोई व्यवसाय तथा जो नियमित कक्षाओं में शामिल होकर अध्ययन नहीं कर पाते। इसके अतिरिक्त यह माध्यम उन लोगों के लिए भी कारगर सिद्ध हुआ जो किसी ऐसे स्थान पर रहते हों जहाँ कॉलेज या विश्वविद्यालय की सुविधा उपलब्ध न हो। इस शिक्षण माध्यम में भी छात्रों को सामग्री उपलब्ध करवा दी जाती है। छात्र अपने निवास स्थान से ही पढ़ाई करते हैं। समय-समय पर आयोजित होने वाले व्यक्तिगत संपर्क कार्यक्रम में भाग लेकर छात्र अपनी शंकाओं का समाधान करने का प्रयास करते हैं। आगे चलकर कुछ रेडियो प्रसारण और कुछ टेलीविजन प्रसारण के माध्यम से भी रिकार्ड किया हुआ पाठ्यक्रम उपलब्ध करवा दिया जाता है।
सोशल मीडिया उपकरणों के मध्यम से शिक्षा : सन 2004 में फेस-बुक और 2006 से यू-ट्यूब के विकास के साथ ही ये मध्यम मनोरंजन के साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में भी एक उपयोगी उपकरण बनकर उभरे हैं। इनके अतिरिक्त कई ऐसे उपकरण हैं जो निरंतर शिक्षण कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इनमें से अधिकांश रोजगार परक परीक्षाओं की तैयारी के लिए छात्रों के लिए काफी सहयोगी बनकर उभरे हैं। गया-विज्ञान से लेकर विभिन्न विषयों पर ढेरों सोशल मीडिया उपकरण हैं जो निरंतर सफल भी हो रहे हैं तथा इनका अनुसरण करने वाले लोग भी सफलता की ऊँचाइयाँ छू रहे हैं।
कोरोना संक्रमण काल में शिक्षा : कोरोना के कहर से अचानक समस्त विद्यालय एवं अन्य शिक्षण संस्थान बंद हो गए। लॉक डाउन की अवधि की शुरुआत ऐसे समय में हुई जब पाठ्यक्रम समापन की परीक्षा चल रही थी। कुछ छात्रों के कुछ विषयों की परीक्षा अब-तक नहीं हो पाई है। बाद में सरकार द्वारा यह निर्णय लिया गया कि कक्षा 9 तक तथा 11 वीं कक्षा के छात्रों को अगले कक्षा में स्वतः ही उत्तीर्ण कर दिया जाएगा। परीक्षा की आवश्यकता समाप्त कर दी गई। अब चूंकि लॉक डाउन की अवधि बढ़ने लगी और इसी बीच विभिन्न शिक्षण संस्थाओं ने ऑनलाइन मध्यम से शिक्षण देने का निश्चय किया। इसे एक सकारात्मक एवं सार्थक प्रयास माना जा सकता है।
ऑनलाइन कक्षा के उपकरण : निजी शिक्षण संस्थाओं को छोड़कर इस प्रकार के शिक्षण के बारे में अधिकांश सरकारी शिक्षण संस्थाओं ने कभी विचार नहीं किया था अतः ऐसे उपकरण की तलाश की जाने लगी जिसके माध्यम से शिक्षा दी जा सके। सोशल मीडिया के विभिन्न उपकरणों की परीक्षा की जाने लगी। इनमें से कुछ निम्नवत हैं :-
चैटिंग उपकरण : व्हाट्सएप्प, टेलीग्राम, वी चैट, हैंग आउट आदि जैसे कुछ उपकरण हैं जिनपर एक समूह बनाकर लिखित वार्ता(चैटिंग) के मध्यम से शिक्षण कार्य किया जा सकता है। पर इनमें एक साथ वीडियो के माध्यम से जुड़ना संभव नहीं होता अतः यह शिक्षण के लिए उतना सफल माध्यम नहीं माना जा सकता है।
वीडियो कॉल उपकरण : शिक्षण संस्थान ही नहीं अन्य संस्थान भी अपने कार्मिकों से जुड़े रहने तथा घर से कार्य(वर्क फ्रॉम होम) की सुविधा बनाए रखने के लिए समूह वार्ता के लिए विभिन्न प्रकार के वीडियो कॉलिंग उपकरण जैसे जूम, स्काइप, माइक्रोसॉफ्ट टीम्स आदि का प्रयोग कर रहे हैं जिसमें समूह चर्चा के साथ ही कुछ कागजात साझा करने और अन्य प्रकार की सुविधाएँ हैं।
विभिन्न उपकरणों की सीमाएँ : हालांकि जितने भी उपकरण उपलब्ध हैं सभी कंप्यूटर के साथ ही मोबाइल में भी चलाए जाने के उपयुक्त हैं। आज का मानव कंप्यूटर से अधिक सुलभ मोबाइल को पाता है अतः इसपर समस्त उपकरणों का प्रयोग उसे आसान लगता है पर जिस प्रकार समस्त उपकरण सुविधाजनक हैं उसी प्रकार से उनकी अपनी सीमाएँ भी हैं। चैटिंग उपकरण में केवल संदेश के माध्यम से ही जुड़ा जा सकता है। याद कदा उनमें बनाए गए वीडियो भेजकर संदेश दिया जा सकता है पर उनके मध्यम से शिक्षण एक दुरूह कार्य है। हालांकि कुछ संस्थाएँ इनका उपयोग कर ही रही हैं। अब जूम की ही देखें, बेहद आसान उपकरण होने के बावजूद इसमें हैकिंग का खतरा बना रहा है। भारत सरकार ने तो इसे न उपयोग करने संबंधित निर्देशिका भी जारी कर दिया है। स्काइप पर आप अधिकतम 25 लोगों को शामिल कर सकते हैं तो माइक्रोसॉफ्ट के उपकरण टीम्स के प्रयोग में जटिलताएँ अधिक हैं।
केन्द्रीय विद्यालय जैसी कुछ संस्थाएँ आजकल गूगल क्लास रूम के माध्यम से बच्चों को पढ़ा रही हैं पर इसमें भी वही बात है। शिक्षक अपनी आवाज या वीडियो रिकार्ड कर बच्चों को शेयर कर देते हैं। बच्चों को उन पाठों को ध्यान से सुनने के लिए कहा जाता है। तदुपरांत उन्हें सम्बद्ध पाठों के दिए गए प्रश्नों का जवाब देने के लिए कहा जाता है। इसमें पाठ की तस्वीरें साझा कर दी जाती हैं तथा छात्रों को अपना जवाब एप्प के मध्यम से अपलोड करने की सलाह दी जाती है। रिकार्ड दिए हुए पाठ या चित्रों के माध्यम से दिए गए पाठ बच्चे पढ़ और समझ तो लेते हैं हैं जहाँ तक उसका जवाब अपलोड करने की बात है, कक्षा 8 तक के विद्यार्थियों के लिए ऐसा कर पाना एक दुरूह कार्य प्रतीत होता है।
मानवीय सीमाएँ : जिस प्रकार विभिन्न उपकरणों की अपनी सीमाएँ हैं उसी प्रकार इनके अनुप्रयोग के संबंध में मानवीय सीमाएँ भी हैं। इनमें से कुछ निम्नवत हैं :-
(क) शिक्षकों, अभिभावकों और छात्रों में इन सूचना तकनीकी के समुचित ज्ञान का अभाव: हालांकि वर्तमान समय सूचना तकनीकी का समय है तथा आज अनपढ़ व्यक्ति के हाथों में भी एंड्रॉइड या आई-फोन मोबाइल मिल जाएगा। फेस बुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सप्प, टिकटॉक जैसे एप्प का अनुप्रयोग करने वाले भी सभी पारंगत मिल जाएंगे पर इससे अधिक शायद ही कोई कुछ कर पाता हो। यदि पढ़ी लिखी जनता की बात करें तो कंप्यूटर अनुप्रयोग करने वाले केवल 60% लोग मिलेंगे। इनमें से केवल 10% ऐसे लोग मिलेंगे जो पॉवर-पॉइंट, स्प्रेड-शीट का अनुप्रयोग जानते होंगे, केवल 5% ही ऐसे होंगे जो कंप्यूटर या मोबाइल के माध्यम से किसी समूह कॉल से जुडने या फिर उसमें जुड़कर कार्य करने की जानकारी रखते हों। अब चूंकि वर्तमान समय लॉक डाउन का है और इसमें यह संभव भी नहीं कि लोग एक स्थान पर इकठ्ठा होकर ऐसे किसी उपकरण का प्रयोग सीख सकें। ऑनलाइन शिक्षण में यह सबसे अधिक बाधक है। इस बाधा के कारण किसी भी विद्यालय के ऑनलाइन पाठ्यक्रम में छात्रों की अधिकतम उपस्थिति नहीं हो पा रही है। कुछ विश्वविद्यालय या महाविद्यालय के प्राध्यापक भी ऑनलाइन पाठ्यक्रम चला रहे हैं पर वहाँ भी यही ज्ञान बाधा बनकर खड़ी हो जा रही है जिसके करण बहुत कम प्राध्यापक कक्षा करवा पा रहे हैं।
(ख) एकरूपता का अभाव : विभिन्न ऑनलाइन पाठ्यक्रमों के लिए प्रयुक्त होने वाले उपकरणों के एकरूपता का भी प्रश्न बड़ा जटिल है। कुछ शिक्षक यदि स्काइप का प्रयोग कर रहे हैं तो कुछ अभी भी जूम या किसी एक्सरे अन्य साधन से जुड़ रहे हैं। इस अनेकरूपता के कारण एक ही शिक्षण संस्थान के छात्रों को अलग-अलग शिक्षक के पसंद के अनुसार अलग-अलग उपकरण का प्रयोग करना पड़ रहा है जो न केवल मोबाइल में अत्यधिक स्थान घेरता है बल्कि अन्य कई प्रकार की असुविधाएँ भी उत्पन्न करता है।
(ग) निम्न आय वर्ग के छात्रों के पास कंप्यूटर या मोबाइल उपकरण का अभाव : ऐसा नहीं है कि हर व्यक्ति के पास कंप्यूटर/मोबाइल हो ही। आज भी हजारों लोग ऐसे हैं जो बड़ी मुश्किल से दो जून की रोटी जुगाड़ कर पाते होंगे पर एक सुनहरे भविष्य की तलाश में सक्षम बनाने के लिए अपने बच्चों को विद्यालय अवश्य भेजते हैं। ऐसे अभिभावकों-छात्रों के लिए ऑनलाइन शिक्षण किसी काम का नहीँ क्योंकि उनके पास इसे चलाने का उपकरण ही जब उपलब्ध न होगा तो कैसे पढ़ेंगे। माँ लेते हैं कि किसी प्रकार से यदि उपकरण की व्यवस्था कर भी ली जाए तो पढ़ाई के लिए नित डेटा खर्च करने के लिए भी कुछ-न-कुछ शुल्क होता है, उसका प्रबंध करना कठिनतम होगा। ऐसे में ऐसे छात्रों तक शिक्षा ऑनलाइन माध्यम से पहुँचा पाना दुष्कर होगा।
ऊपर के वाक्यों में मैं बताया ही चुका हूँ कि दूरस्थ शिक्षण मध्यम में केवल अध्ययन सामग्री साझा कर दी जाती है चाहे वह ऑडिओ हो वीडियो हो या फिर पाठ्य पुस्तकें हों। तत्काल छात्रों की शंकाओं का समाधान करवा पाने की सुविधा उनमें नहीं है। और शायद स्कूल-कॉलेज की शिक्षा से दूरस्थ शिक्षा में यह एक सामान्य परंतु गूढ अंतर है। उच्चतर माध्यमिक और उससे उच्चतर शिक्षा में तो यह सब चल जाएगा पर जहाँ प्राथमिक से लेकर माध्यमिक के कक्षा 8 तक के बच्चों का सवाल है यदि उन्हें शिक्षक से सन्मुख रहकर शिक्षा नहीं दी जाएगी तो उनकी शिक्षा सही ढंग से पूरी नहीं हो पाएगी।
हालांकि अब समय बदल रहा है तथा लंबी अवधि के लॉक डाउन ने ऑनलाइन शिक्षा के क्षेत्र में कई आयाम लाकर खड़ा कर दिया है। संभव है कि आने वाले समय में विभिन्न सरकारी शिक्षण संस्थान इस विधि को पूर्ण रूपेन अंगीकृत करने की दिशा में पहल भी करें पर इस पहल में सबसे महत्वपूर्ण यह होगा कि :-
i) हर शिक्षण संस्थान अपने संस्थान के छात्रों की संख्या के अनुरूप कोई आसान ऑनलाइन शिक्षण उपकरण विकसित करे।
ii) उक्त उपकरण के परिचालन के संबंध में शिक्षकों, अभिभावकों तथा छात्रों के लिए अलग-अलग सत्र का आयोजन करे तथा इसके अनुप्रयोग की समस्त बारीकियाँ सभी को सिखाई जाए। यह सत्र केवल दिखावे के लिए न हो यह भी सुनिश्चित किया जाए। यदि एक सत्र में संभव न हो तो इसके कई सत्र आयोजित किए जाएँ।
iii) विद्यालयों में जो छात्र मोबाइल/कंप्यूटर खरीद पाने में सक्षम न हों उन्हें या तो उक्त उपकरण से युक्त मोबाइल/टैबलेट या कंप्यूटर उपलब्ध करवाने की कवायद की जाए चाहे मुफ़्त या फिर सुविधानुसार किश्तों में।
iv) लॉक डाउन जैसे आपात स्थिति में भी शिक्षण कार्य बाधित न हो यह सुनिश्चित करने के लिए पूर्व निर्धारित योजना बनाई जाए।
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बिनय कुमार शुक्ल/Binay Kumar Shukla
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