कवयित्री का परिचय:- प्रोफेसर नंदिनी साहू समकालीन भारतीय अंग्रेजी साहित्य की प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उन्होंने विश्व भारती, शांतिनिकेतन के अँग...
कवयित्री का परिचय:-
प्रोफेसर नंदिनी साहू समकालीन भारतीय अंग्रेजी साहित्य की प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उन्होंने विश्व भारती, शांतिनिकेतन के अँग्रेजी प्रोफेसर स्वर्गीय प्रोफेसर निरंजन मोहंती के मार्गदर्शन में अंग्रेजी साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है। आप अंतरराष्ट्रीय ख्याति-लब्ध अँग्रेजी भाषा की कवयित्री होने के साथ-साथ प्रबुद्ध सर्जनशील लेखिका हैं। आपकी रचनाएँ भारत, यू.एस.ए., यू.के., अफ्रीका और पाकिस्तान में व्यापक रूप से पढ़ी जाती हैं। प्रो.साहू ने भारत और विदेशों में विभिन्न विषयों पर शोधपत्र प्रस्तुत किए हैं। आपको अंग्रेजी साहित्य में तीन स्वर्ण पदकों से नवाजा गया हैं। अखिल भारतीय कविता प्रतियोगिता की पुरस्कार विजेता होने के साथ-साथ शिक्षा रत्न पुरस्कार, पोयसिस पुरस्कार-2015, बौध्द क्रिएटिव राइटर्स अवार्ड और भारत में अंग्रेजी अध्ययन में अभूतपूर्व योगदान के लिए भारत के उपराष्ट्रपति के कर-कमलों द्वारा स्वर्ण पदक से भी पुरस्कृत किया गया हैं।
नई दिल्ली से प्रकाशित ‘द वॉयस’, ‘द साइलेंस (कविता-संग्रह)’,’ द पोस्ट कॉलोनियल स्पेस: द सेल्फ एंड द नेशन’, ‘सिल्वर पोएम्स ऑन माय लिप्स (कविता-संग्रह)’, ‘फॉकलोर एंड अल्टरनेटिव मॉडर्निटीज (भाग-1)’,‘फॉकलोर एंड अल्टरनेटिव मॉडर्निटीज (भाग-2)’, ‘सुकमा एंड अदर पोएम्स’, ‘सुवर्णरेखा’, ‘सीता (दीर्घ कविता)’, ‘डायनेमिक्स ऑफ चिल्ड्रेन लिटरेचर’ आदि शीर्षक वाली तेरह अँग्रेजी पुस्तकों की आप लेखिका और संपादक हैं।
संप्रति लेखिका इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय [इग्नू], नई दिल्ली में स्कूल ऑफ फॉरेन लैंग्वेजेस की निदेशक एवं अंग्रेजी की प्रोफेसर हैं।
डॉ॰ साहू ने इग्नू के लिए लोकगीत और सांस्कृतिक अध्ययन, बाल-साहित्य और अमेरिकी साहित्य पर अकादमिक कार्यक्रम/पाठ्यक्रम तैयार किए हैं। आपके शोध के विषयों में भारतीय साहित्य, नए साहित्य, लोककथा और संस्कृति अध्ययन, अमेरिकी साहित्य, बाल-साहित्य एवं महत्वपूर्ण सिद्धांत शामिल हैं। अँग्रेजी की द्विवार्षिक समीक्षा पत्रिका ‘इंटरडिस्सिप्लिनेरी जर्नल ऑफ लिटरेचर एंड लेंग्वेज’ और ‘पैनोरमा लिटेरेरिया’की मुख्य-संपादक/संस्थापक-संपादक हैं।
www.kavinandini.blogspot.in
पता:
प्रो.नंदिनी साहू
निदेशक, स्कूल ऑफ फॉरेन लैंग्वेजेस
प्रोफेसर(अंग्रेजी), एसओएच, इग्नू
नई दिल्ली -110068, भारत।
ई-मेल: kavinandini@gmail.com
प्रो. नंदिनी साहू की कविताएँ
अनुवाद : दिनेश कुमार माली
1.कविता का साम्राज्य
कविता होती है विजयी !
जब विस्तृत हो चारों ओर रेगिस्तान
स्वप्न-दग्ध हो सारे मरु-उद्यान
ज्वालामुखी-चट्टानों के पर्वत-वन-
गहन में करती हूँ मैं, क्रंदन ।
कविता होती है विजयी !
जब जिंदगी के एट-टू-ब्रूटस पलों का हो रहा हो अतिक्रमण
मेरे अहंकार का घर्षण
मैं खो जाती हूँ स्व-निर्मित अकेलेपन के गगन
तब कविता के पंख करते हैं शयन।
कविता होती है विजयी !
मेरे कोई नहीं पूर्वतन
कवियों के प्रसिद्ध खान-दान
याद आता है मुझे मेरे पिता का कथन
“ कविता से क्या मिलता है तूझे ?”
और मेरा कथोपकथन
“कविता बनाती है मुझे विश्व-विधायक अनजान !”
कविता होती है विजयी !
जब कवि– पीत, जीर्ण-शीर्ण, उदासीन
पतले विरल केशानुशासन
करते हैं शब्दों का अनुसरण
करते हैं उन्हें बैचेन और परेशान
चतुर लय और ताल के अनुसंधान !
कवि का संप्रभुत्व शासन !
कविता होती है विजयी !
शब्दों के प्लावन
उनकी अपारदर्शी सूक्ष्मताओं का निष्कर्षण
छिन्न-भिन्न, विदीर्ण, आत्म-घूर्णन
अखिल वैश्विक हरित-भवन
कविता करती है अस्थि-अवशोषण ।
यह है कविता का साम्राज्य !
11.अमृत का शिशिर-कण
अमृत का एक शिशिर-कण
निश्चिंत और निखून ।
क्या जीवन का हो जाएगा समापन
जब बुझ जाएगा प्रदीप-प्रज्ज्वलन ?
सुनहरे सपनों के उड़न-खटोले से परिदर्शन
करते हुए विश्व-भ्रमण
बिना किसी हिंसा या रण
सर्दी,वर्षा और ग्रीष्म
मानती मेरा हुक्म
दिखाने को एक स्वप्न
अमृत का एक शिशिर-कण।
सपनों से कब तक करोगे पलायन ?
एक अंतहीन वेदना का दामन
एक नग्न जीवन-संघर्ष
खुलेआम कर रहा उद्घोष
सपनों के खिलाफ जंग का ऐलान,
आखिर कब तक करोगे पलायन ?
क्या हो सकते है स्वतन्त्र
सुरभित सुमन
सुवासित तन-मन ?
विचारों का संघनन
केवल एक अंतहीन स्वप्न
विस्मृति के क्षण
आवश्यक है एक अमृत-कण ,
निश्चिंत और निखून ।
2. सुको मा
वह गुजर गई- सुको -माँ
सुको की माँ, सुको – सकुंता -
शकुंतला की माँ।
वह थी धरती मां ,
हम छह बहनों की धाय माँ।
हमसे वह जितना प्यार करती थी,
अपनी बेटियों
सुको , शैला और कोइली से भी ज्यादा ।
एक दिन, हमारा आशियाना
उजड़ गया हमेशा के लिए
आज सुको मा (उसका दूसरा भी कोई नाम था?)
हमें छोडकर चली गई दूसरे धाम ।
जब कोई गरीब भिखारी खटखटाता है, मेरे कार की खिड़की
कनॉट प्लेस के लाल-बत्ती चौराहे पर
मैं पाती हूँ थोड़ी-सी राहत
यह सोचकर कि कम से कम उस तरफ नहीं मेरा स्थान।
कहीं समय की धारा ने तो
मुझे नहीं बना दिया ऐसा निष्ठुर ?
फिर क्यों आती है याद मुझे बार-बार
सुको मा की , हमारे बचपन में घर की मददगार ,
हमारी धाय माँ,
एक ग्रामीण गरीब आदिवासी
कंध बूढ़ी औरत
अनपढ़, वंचित, दलित
करोड़ों में से एक मातहत
जो गढ़ते है वास्तविक भारत ?
सुको मा , असली गृहिणी
हमारे कस्बाई घर में,
हमारे लिए लड़ती वह
हमारी अनुशासन-प्रिय स्कूल-शिक्षिका-माता से
हमारे साथ सख्ती बरतने पर ।
वह बुरा नहीं मानती
मेरी छोटी बहनें
उसकी गोद में अगर कर देती पेशाब ।
उसके सुंदर चेहरे पर
गोदी हुई आड़ी-तिरछी लकीर
(जो उसकी माँ ने उसे कम सुंदर
बनाने के लिए खिंचवाई थी !);
वह सुनाती थी सौगंध खाकर
अपनी जवानी की कहानियां
जब बहुत से दीवाने
तरसते थे पाने को उसकी एक झलक !
हम मान जाते थे अपनी हार
उसका सुंदर चित्रण सुनकर
उसके कुरूप गोदे हुए सुंदर चेहरा ।
हम महसूसते थे ज्यादा शुद्ध
जब उंडेल देते थे हमारी गंदगी उस पर ।
हमें लगता था बहुत अच्छा
जब हम फहराते थे सीधे उसकी बदसूरती की पताका ।
उसे शोभित करती थी उसकी सहजता
हमें दिलासा देता था उसकी साधारणता ।
हमारे स्वास्थ्य में चमकती थी उसकी निर्बलता
हमारा तर्क बनती थी उसकी अप्रांजलता
क्योंकि हमारे पास थी बुद्धिमता ।
हमें भरोसा दिलाती थी उसकी अस्फुटता
क्योंकि हम थे प्रेरक-शक्ति के ज्ञाता।
उसकी गरीबी ने बनाया हमें मुक्त-हस्त
निखारा हमने अपना व्यक्तित्व ।
उसकी कोमलता ने बढ़ाई हमारी सुंदरता ।
और यथा-शक्ति हमने बनाया अपना काल्पनिक जगत ।
आज
हम परिष्कृत, मुखर हैं।
हम जीवन का सामना सहजता से करते हैं
जैसे हम सालों से करते आ रहे हैं
जानते हुए भी कि वह
बदसूरत, मैली-कुचेली,भूतनी-सी
जो हमारे लिए प्रार्थना करती थी
रात-दिन।
आज हम करते हैं प्रदर्शन
बुद्धि से बनाकर सुंदर योजना ।
पुनर्निर्धारित धोखों का
करते हैं हम सूक्ष्म-चित्रण ।
हमारा व्यवसाय हैं कठिन
जिसे कहा जाता है, जीवन
बचाकर उत्तरजीविता का अस्तित्व
उसके और हमारे बीच का
तोड़कर बंधन ।
गांवों से हुआ शहरीकरण
हमने आगे रखे अपने कदम
मासूमियत से औद्योगीकरण ।
उसकी कहानी एक मोज़ेक है अविश्वसनीय
एक पीढ़ी, हमारी महानगरी पीढ़ी,प्रवासी भारतीय -
जो सुकमा की गरीबी पर होते हैं लज्जित
हमारे अराजक शहरीकरण के कारण।
यह भूलकर कि
सुकमा एक सिम्फनी है
समय और स्थान की।
उचित भोजन मिलना उसके लिए प्रसाद था
जिसे वह अनुभव करती थी।
दो दुनियाओं के बीच का अंतर –
उसका गरीब घर और
हमारे शानदार अपार्टमेंट का विरोधाभास,
उसके समर्पण का कोई कोई मास्टर प्लान नहीं था
वह केवल सपनें देखती थी
हमें सितारें बनते देखने की
उस आकाशगंगा में, जिसे विशेषाधिकार प्राप्त है
झुग्गी-झोपड़ी के तिरस्कार करने का ।
सुकमा की खामोश मौत पूछती है:-
क्या कभी मनुष्यता चुपचाप जीतेगी ?
क्या हम कभी उबर पाएंगे
अपनी उदासी से और
बन सकेंगे उसके जैसा ?
क्या यह मेरे जैसे एक अनजान व्यक्ति के
अंतकरण की शुद्धता का प्रतीक नहीं है
उसकी अनकही कहानी सुनाना ?
जबकि टीवी चैनलों पर योग, सौंदर्य-देखभाल,
वजन घटाने और धन-लाभ के किस्से सुनाए जा रहे हो ?
यह मेरा नैतिक दायित्व है
उन्मादित भावी-पीढ़ी के लिए
सुकमा की झुग्गी-झोपड़ी वाली कहानी सुनाऊँ।
3. वह ऐसी महिला है
वह ऐसी महिला है
जो विश्वास करती थी कि पत्थर डूब सकते हैं
और हवा छिप सकती है
और सूरज आग का गोला नहीं है
बल्कि हिरण्य-गर्भ से निकली शांत वैजयंती है
जो प्रेम का बाम लगाती है
शोक संतप्त दिलों पर।
उसके पिता अक्सर कहते थे ,
"आपके नाम ‘नंदिनी’ का अर्थ है सबको आनंद देनी वाली,
आपको लानी चाहिए हर किसी के चेहरे पर मुस्कान
और बनाना चाहिए दुनिया को रहने का बेहतर स्थान ”
दिल पर लेकर यह कथन
करने लगी वह चिंतन-मनन ।
उसकी नीरवता ऐसी व्यक्त
उसके शब्द इतने शांत !
जीवन-जीना जैसे हो एक संस्कार
जिससे खिल उठा उसका चेहरा
मानो पूर्व से उदय हुआ हो नव-भास्कर ।
बन गई वह ग्रीस में अपोलो
अफ्रीका में लिज़ा,
भारत में सूर्य
और मिस्र में रा ।
बन गई वह
एक दाता, एक कवयित्री
पतझड़ के पेड़ की पीली पत्ती
जिस पर लदे हुए थे गीत
काव्य, छांदस गाथा और शोक-गीत।
उसके गले में पड़ा मंगलसूत्र एक दिन
करने लगा घर्षण
उसकी गुददी और गर्दन
अधरों पर मधु-मक्खियों का दंशन
लिए निद्रालु नयन
वह वापस आई अपने सदन
मनाकर तथाकथित हनीमून
ठगी हुई महसूस कर रही थी अपने मन
क्यों किया बूढ़े आदमी से पाणि-ग्रहण ?
इधर सिर में भारी माइग्रेन
उधर मातृत्व का प्रस्फुटन
भयभीत हुई उसकी आत्मा ।
उसके बाद
भय ऐसे घुसा मन
कोई भी उन्मुक्त स्वप्न
बनने लगा दु:स्वप्न ।
क्या वह रोक पाएगी अनुष्ठान ?
' सबको आनंद देने वाली ...।'
सीधे देखने वाली
आग और गर्मी की तरफ
कहते हैं जिसे भाग्य
अभी
वह बनाती है अपनी सफ़ेद जर्दी का भोजन
और खाती है वह एकांत उदास मन ।
अब नहीं है अंधकार
दीपक के उस पार
नहीं भी हो सकता उधर
चिता में अंगार !
अब धुंधला गए है उसके नयन
और ढीले पड़ गए है उसके स्तन
या, शायद, वह ऐसा सोचती है अपने अंतकरण !
उसके लिए
जन्म से युवावस्था और फिर मृत्यु का वरण
निस्संदेह, बाकी है लंबी छलांग उसके गगन ।
उसकी क्या उम्र है? बारह साल?
अपने बेटे जितनी
पुकारता है जो उसे माँ !
उसके हावभाव, छटा, संगीत
और उच्चारण
सब उसके जैसा ही;
वह है उसका सागर-मंथन ।
वह है
स्वर्गिक हृदय का नील गगन
विस्तृत सरसों के खेतों का पीत-परिधान
निर्मल और दीप्तिमान
रूठे पत्थर को करती नमन
आनन्दित होती
कभी-कभी सहलाती
गुलाब और कंटक
संतोष या असंतोषजनक ।
4. कठपुतली
धीरे-धीरे
मैंने ध्यान देना बंद कर दिया
समय-चक्र के बारे में ।
घर, बेटा, प्रेमी, दोस्त,
दिन, रात, नीला, हरा, मैजेंटा,
सभी दूर चले गए
लुढ़कते पहिये की तरह और
समय थम नहीं पाया ।
न कोई तुक या न कोई ताल
केवल प्रेम है एक राग
जीवन के इस खेल का।
एकालाप तो बहुत पीछे है।
हवा में न कोई गर्मी
न नीला आकाश
शब्द गूँजते हैं, अपने भावार्थ खोकर
विश्वास दबा पड़ा है
धूल की परतों के नीचे ।
मैं भीड़ में खो गई हूं
चींटियों की एक बस्ती में।
मैं खेतों में पुआल की कठपुतली हूं।
समय की छाया में
तिरछी बिछी हुई हूँ
इस भरी दुपहरी में ।
यह खेल रहस्यमय है जितना ,
जटिल भी उतना ।
कोई आपको कहेगा
'हार मत मानो', 'हार मत मानो'
फिर वह तुम्हें हराने का प्रयास करेगा
सुबह और शाम ।
कोई सम्मान कर सकता है
आपकी बहादुरी का
लेकिन इसे कुचल देगा
अपने पैरों के तले ।
शायद मेरी जीत
तुम्हें हरा दें , पर
मेरे कब्रिस्तान पर तुम विजेता बनोगे।
फिर भी
कहीं अगर तुम्हारी
'समय' से मुलाक़ात हो जाए
या श्रद्धा से उस पर ठोकर लगे
जाओ उसके नजदीक
और उसे आस्था के नाखूनों से साफ़ करें।
कौन जाने'? आपको मिल सकता है
एक और मौका, नवीनीकृत और
पुनर्निर्माण का, वर्षों पुरानी चीजों का ।
5. मेरे बेटे को समर्पित कुछ पंक्तियाँ
ओह मेरे सुंदर सलोने राजकुमार! तेरे कोमल हाथों का सहारा
दूर करना मेरे जीवन की गलियों का अंधेरा ;
संवारना तुम दुनिया से त्रस्त मेरे हृदय का बसेरा
बजाना तुम मेरे जीवन-घंटी का मधुर नारा ।
तुम हो मृदु राग, मेरा भविष्य
तुम हो मेरे हृदय का कोमल हास्य
मैं हूँ इन उपहारों को पाकर कृतज्ञ
देखकर इन रंग-बिरंगी सुबहों का दृश्य ।
मैंने तुम्हारे लिए संजोए हैं सपने समयातीत
गीत गाने वाले पक्षियों के, बोलने वाले पेड़ों के, अनंत
प्रकृति गाती धाराओं के कलकल गान
पुष्प-पत्तियों की महक महमह महीमान।
तुम मधुमक्खी बनना, उज्ज्वल मुस्कान का खजाना भरना
आज महज कल्पना नहीं रही, चाँद पर घर बनाना
तुम समय के समयहीन सपने संजोना
‘सत्यमेव-जयते’ का आदर्श लिए भविष्य का गौरव बनना ।
और अगर मेरे प्यारे बाल !
कभी तुम खुदा-न-खास्ता कहीं फंस जाओ भंवर-जाल,
कभी जीवन में देखना पड़े पीछे मुड़कर
अपने यादों के गली-चौराहे पर थामना मेरे कर
वहाँ मैं तुम्हें मिलूँगी शाश्वत जीवित, देने को अभय-वर ।
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