कोरोना विशेष कविताएँ - माह की कविताएँ

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  देवेंद्र कुमार पाठक 'महरूम' सामयिक गीत-               किसके नाम कोरोना है                              दूर-दूर तक कोई नहीं है...

 

देवेंद्र कुमार पाठक 'महरूम'


सामयिक गीत-
              किसके नाम कोरोना है

                            

दूर-दूर तक कोई नहीं है,किसके नाम 'को रोना'  है.
  अपने भले-बुरे की गठरी हमको ही तो ढोना है.

मरने से पहले ही मर जाने का डर अधमरा करे;
प्रभुओं की प्रभुताई को अपना हमसफर न होना है.

धरी पालकी स्वजन-सखाओं ने कंधों पर हिलक-बिलख;
और सजा दी सेज अगिन की ,जिस पर नङ्गे सोना है.

जिस घर-आंगन में जन्मे, हम खाये-खेले,पले-बढ़े;
अब उस घर में मरने को भी अपना कोई न कोना है.

किसने छला-दुखाया, किसने हृदय जुड़ाया-अपनाया? ;
करें आकलन क्यों अब नाहक;नोना कौन अलोना है?
 
क्या होगा हासिल सम्बन्धों की पड़ताल-परख करके;
दें उलाहना किसको, क्यों अब ;क्या पाना,क्या खोना है?

सदा काँस,कुश,काँटे उगते हों, जिस सोच की धरती पर;
नेह-मोह के बीज न उस पर भूले से भी बोना है.

कच्ची रोज़ी और किराये की कोठरि भी छूट गयी,;
सर पर चादर आसमान की,,धरती बनी बिछौना है.
  
नफा काटते धनपशुओं,पूँजीबाज़ारों का लालच ;
   'निर्धन' धर्म,सियासत,सत्ताओं का 'मूक खिलौना' है.

आत्ममुग्ध प्रभुताई के गौरव-ग़ुरूर से हुलसाया;
  नाच रहा हर भक्त समझ से औना, पौना,बौना है.

आंधर पिछलगुओं के सहमति-सुर पर कायम अगुआई;
   करती है लफ़्फ़ाज़ी टोटके, बाँधे कंठ डिठौना है.

सोच-समझ के जड़-अधभ्यासर,दूरंदेशी से 'महरूम' ;
  निश्चय इनके हाथों जन-धन की हर दुर्गति होना है!
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भाग्यवाद,वैचारिक जड़ता हटा न पाये यदि कविता;
भले सफलता हो यह कवि की पर क्या उसकी सार्थकता?
चिंतन,सर्जन,शोध समय-
सापेक्ष और हों जनहितकर,
प्रगतिशील हो सोच-समझ,
पूर्वाग्रहमुक्त मानसिकता.

मिले प्रकृति के पंचभूत से मानव को विशेष उपहार; मन,मस्तिष्क,हृदय,वाणी,
जिज्ञासायें अमित,अपार;

देह-धर्म से लेकर आपद
-धर्म आदि मानव धारे;
कई बिगाड़े, बदले,कुछ को छोड़ा कुछ को स्वीकारे;

तोड़े नियम प्रकृति के उसको कर डाला जब क्षत-विक्षत;
अब रो-रिरियाकर,दुख अपने गाकर,माँगे जग सुखकर;

स्वयं प्रकृति के हैं सर्वोत्तम रूप-अंश जब हम मानव;
उसकी पीर नहीं हमने ही
कभी एक पल की अनुभव.

चेतो रे,अब सोचो,समझो
  क्या हो मानव श्रेष्ठ धरम;
जीव,जगत और जीवन शाश्वत सत्य और है धर्म परम!
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पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'


त्रिभंगी छंद

घर से मत निकलो, सब जन प्रण लो, तालाबंदी सफल बने ।
थोड़ा गम खाओ, मत घबराओ, छँट जाएँगे मेह घने ।
अपने कर धोना, दूर करोना,  निकट न आवे राय सही ।
बाहर मत जाना, कसम उठाना, ध्यान रहे जो बात कही ।।

फैली बीमारी, दुनिया सारी, रात-दिवस अब जूझ रही ।
जो नहीं दवाई, गहरी खाई, युक्ति न कोई सूझ रही ।
सामाजिक दूरी, है मजबूरी, जिसका पालन सभी करें ।
सुन बहना-भाई, साफ-सफाई, हमको रखना ध्यान धरें ।।

हे मानव ! ज्ञानी, मच्छरदानी, खाट लगाकर सो जाओ ।
या लूडो खेलो, रोटी बेलो, आज्ञाकारी हो जाओ ।
कुछ नया बनाओ, घर भर खाओ, तलो पकौड़े मूड बने ।
बाहर मत जाना, कहे सयाना, कहर करोना जाल तने ।।

अब मिर्च-समोसे, साँभर-डोसे, चाउमीन भी गायब हैं ।
जो लुप्त कचौड़ी, चाट-पकौड़ी, परेशान घर साहब हैं ।
वो पिज्जा-बर्गर, खाते मन भर, चित्र देख अब ललचाएँ ।
जाओ कोरोना, भर-भर दोना, पूर्ण करें खा इच्छाएँ  ।।

है वैरी ओझल, जग में हलचल, कैसे इस पर जीत मिले ।
खामोशी टूटे, अंकुर फूटे, कोई ऐसा गीत खिले ।
कितनी बर्बादी, आशावादी, होगा इक दिन ठीक सभी ।
हिम्मत मत हारो, ईश पुकारो, सुन लेंगे वो टेर कभी ।।

1.नाम- पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'
2.पिता-कीर्तिशेष रमेशचंद्र द्विवेदी
3.माता-श्रीमती लल्ली देवी
4.शिक्षा-स्नातकोत्तर (हिंदी साहित्य, स्वर्ण पदक विजेता), नेट (पाँच बार), पीएच.डी.(शोधरत)
5.निवास-ग्राम-टीसी, पोस्ट-हसवा, जिला-फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)
6.रचना विधा- गद्य एवं पद्य
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उमेश जबलपुरी



    कारोना
अजीब शख़्स है
नफ़रत भी करता है
ख़बर भी रखता है
न मरने देता है
न जीने देता है
अपने को कारोना कहता है
             २
         कारोना
अजीब व्यक्तित्व है
न पास आने देता है
न दूर जाने देता है
घर में रहने बोलता है
दूरी बनायें रखने कहता है
अपने को कारोना बोलता है
               ३
           कारोना
उसने ज़िन्दगी ग़ज़ब कर दीं हैं
न काम ना धाम का छोडा है
आशिक की तरह बेकार कर दिया है
घर में नज़रबंद कर दिया है
चेहरे को नक़ाब कर दिया है
हाथ मिलाने से मना कर दिया है
अपने को कारोना कहता है

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चाय और अख़बार

अख़बार का सुबह  माशूक़ा की तरह
इन्तज़ार करते  पापा याद है

अख़बार हाथ में आते ही मॉ को
चाय बनाने अवाज देते पापा याद है

अख़बार आते ही चश्मा पुकारते
पूरे घर में  शोर करते पापा याद है

अख़बार पढ़ते समय लेने पर
बच्चे की तरह रूठते पापा याद है

अख़बार की एक एक खबर पढ़तें
पूरे परिवार को पापा याद है

अख़बार पढ़ने के बाद समेटेते
कपडे की तरह रखते पापा याद है

अख़बार पढ़ने की सलाह पढ़ाई के साथ
बच्चों के  देते      पापा याद है

अख़बार न्यूज़ की तरह समझाते
सब दोस्तों को पापा याद है

अख़बार ज़रूर पढने की देते सलाह
पूरे मोहल्ले को पापा याद है

अख़बार तन्मयता से पढ़ते समय
सू सू  चाय पीते पापा याद है


--
जो माँगे वो देता
ऐसा होता पिता
मन्दिर जाने
जी नही करता
घर मे मिल जाता
खुदा

घिसी चप्पल
छिदी बनियान
दो तीन कपड़ों मै
ज़िन्दगी गुज़ारता
पिता

ख़ुद साईकिल
बच्चे    से
स्कूटीचलावाता
पिता

उसके
माथे की एक एक रेखा
संघर्ष झलकाती
फिर भी हँसता
नजर आता पिता

बच्चा बड़ा होकर
सब समझता
फिर भी नही बन पाता
ऐसा पिता
               
--
का रहो ना

का रो ना ने एक बात बता दी
अपने पराये की पहचान करा दी

अदृश्य वायरस ने ताक़त दिखा दी
परमाणु से बड़ी बला बता दी

पर्यावरण की क़ीमत बता दी
शाकाहार की ताक़त दिखा दी

डाक्टर नर्स को देवदूत बना दी
ज्ञान विज्ञान का महत्व समझा दी

राजा रंक की पहचान करा दी
बिसात में बन्द कर औक़ात दिखा दी

नमस्ते की महिमा बता दी
हाथ मिलाने का ख़तरा दिखा दी

सबको ध्यान से चलना सिखा दी
हाथ साफ़ करने का महत्व बता दी

ख़तरे में लाकँडाउन की महता बता दी
सोशल डिस्टेनसीग समझा दी
                      
                           उमेश जबलपुरी
                 ई ४ सिविल लाईन
                   बालाघाट म  प्रदेश
                              ११/४/२०२०

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राकेश एस  भदौरिया


कविता      !     भूख    !
आज भूख एक आम बात हो गई है
यह लाचारी सरे आवाम हो गई है।
आज भूखा इंसान ना जाने क्या-क्या खा रहा है
रोटी नहीं ईमान खा रहा है।
भाई ने भाई को भी ना समझा
बहन ने भी भाई से बीस - तीस  झटका।
कोई भी जिस में आकर अटका
वहीं उसने उसको पटका।
खैर कोई                   बात नहीं
रिश्वत भी सरेआम हो गई है।
ऊपरी इनकम इन्सानों कि
भगवान                    हो गई है।
छायावाद हो यह रहस्यवाद
कविता भी दोगली हो चुकी है।
कहती कुछ करवाती कुछ और ही है
कोमलता भावुकता इससे पलायन कर चुकी कोहै।
मुझे इस बात का अफसोस नहीं
मैं कवि  नहीं                      कलाकार हूं।
ब्रेश छोड़ी और कलम पकड़ी
पापी पेट आखिर मैं भी तो इंसान हूं।
सोचा बहुत और लिख भी डाला
लेकिन कविता भी बेईमान हो गई है।
दबो को दबाना उठो को उठाना
बड़ों की भगवान छोटओं की हैवान हो गई है।
ऐसे में कवि की कविता भी क्या करें
जहां उठते हैं लाशों से  बदबू के बादल।
विधवाओं की आंखों से तड़पता है सावन
मां की पीड़ा से तड़पे यह पावस।
क्या कवि दोषी है जो लिखता है
आतंकवाद से गूंजता दिन व रात।
बुजुर्गों की पीड़ा बच्चों की गुहार
या लुटती हुई बहनों की अस्मत।
कवि भी भूखा है वह भी इंसान हैं
खा जाता है रस की आन अलंकारों की खान।
आज कविता नहीं लाचारी बिकती है जब
कवि मंच में कविता गाते हुए।
अपने फटे हुए कुर्ते को छुपाता है
अपने गौरिम इतिहास की झांकी दिखलाता है।
यही मजबूरी है आज कविता अपने में अधूरी है
बहुत कुछ कवि लिखता है लेकिन रह जाती है।
रोने की आवाज बमों का धमाका
गिरता हुआ इंसान लूटती  हुए अस्मत वह जाती है।
भ्रष्टाचार बलात्कार कत्लेआम
जातिवाद धर्म जात अल्लाह राम रह जाता है।
ऐसे में कविता क्या करें
कवि है                               भूखा है।
इसीलिए बहुत कुछ खा जाता है
बहुत कुछ                           छिपा जाता है।
      
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दीपक कुमार त्यागी,


  "किसान की पीड़ा"

मैं हूँ वो किसान
जो शाम को या रात को
जब घर लौटता हूँ
अपनी आँखों में
खेतों में खड़ी फसलों के
सुनहरे सपने संजोए
बच्चों के ख्बाब
इस बार की फसल से
पूरे करने कि आशा में
हर पल मेहनत करता हूँ
खुद का पेट भरता हूँ
देशवासियों का पेट भरता हूँ
पर सपने कभी पूरे नहीं कर पाता हूँ।।


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"अन्नदाता किसान"

हम है देश के अन्नदाता किसान
सबका पेट भरना है हमारा काम
आंधी हो या तूफान हमको जाना है
रोजाना देखने अपने खेतों पर काम
अपनी समस्या या कोई आपदा हो
देशवासियों के हित में जिम्मेदारी
निभाना है हम किसानों का काम
जब ही हमको दुनिया कहती है
आप हो हमारे अन्नदाता भगवान।।


दीपक कुमार त्यागी,
स्वतंत्र पत्रकार, स्तंभकार व रचनाकार
की कलम से
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कुमार रवि


माँ

माँ !! मैं क्या लिखूं तेरे लिए
मैं तो तेरा ही लिखावट हूँ।
मैं कभी भी नही लौटा सकता
वैसे  ही कर्ज का लायक हूँ ।।

मेरे हर नादानियों को तुम
हमेशा सहन कर लेती हो।
खूब गुस्सा करके मुझपे
खुद में रो लेती हो।।

मेरे हर पीड़ा को तुम
अपनी पीड़ा समझ जाती है।
बिना कुछ बताए तुम्हें
हर कुछ समझ जाती हैं ।।

जब भी फिजाएं आई दुखो की
सबने मुझसे मुँह मोड़ लिया।
तब मिर्गतृष्णा सी आँखों को
तन्हा न होने दिया ।।

तू मेरे लिए मेरी माँ
कितना झूठ बोल जाती हो ।
अपना निवाला मुझे खिला के
भूखे पेट सो जाती हो ।।

मैंने इस कायनात में
खूबसूरती को कहां परेखा है।
जबभी देखता हूँ तुमको
जन्नत ही तो देखा है ।।

सच किसी ने कहा है
तुम उस बैंक जैसा हो जाती हो ।
जहा मेरे हर दुःख दर्द को
जमा कर जाती हो ।।

माँ !! क्या लिखूं तेरे लिए
कलम भी निःशब्द हो जाएगा ।
में मर के भी मेरी माँ
तेरा उपकार कभी नही चुका पाऊंगा ।।

माँ के लिए समर्पित
कुमार रवि

गिरिडीह, झारखंड
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स्मृति ए कुमार

( मेरे विचार मेरे अनुभव)

अपने स्वार्थ के लिए जो पल-पल बदलता है
    वह गिरगिट से भी बेहतर रंग बदलता है
कभी हाव-भाव, तो कभी  ढंग बदलता है
  वह गिरगिट से भी बेहतर रंग बदलता है।
कई बार टकराता है वह अपने स्वाभिमान से
   खुदगर्ज बन बैठा है वो  अपने अभिमान मे
अपने  मतलब से  जो मतलब रखता है
वह गिरगिट से भी बेहतर रंग बदलता है।
वह दर्पण से भी अपना चेहरा छुपाता है
वह अपने प्रतिकार में कितना गिर जाता है
  मन मैला करके मन में मचलता है
वह गिरगिट से भी बेहतर रंग बदलता है।
--
।।सूर्य की शीतलता।।

डूबते सूर्य की शीतलता ,
       एक उपदेश सुनाती है।
सोच के अगर देखो तो,
      जीवन की सीख सिखाती है।
तपता वह कर्तव्य पथ पर,
       अडिग पाव  जमाता है,
कभी धूप की गर्मी देकर,
       कभी शीतल छाया पहुंचाता है।
थकता है तो रुकता है,
        पर हारा कभी नहीं है वो,
प्रातः नव किरण को   लेकर,
         उदय मान हो जाता है।
उदय अस्त ,यही सूरज की कहानी है,
        सफल है अपने पथ पर ,
क्योंकि उसने मन में ठानी हैं।
        हे प्राणी तनिक विचार करो,
विजय की भांति जीवन में,
         पराजय को भी स्वीकार करो।
कर्तव्य में पूरी निष्ठा हो तो,
     हर  लगन सफल हो जाता है।
मेहनत को अपना जरिया बनाकर,
           मनचाही मंजिल पाता है।
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नीरज श्रीवास्तव  ' आलोक '


कविता - ।।घर वापस आ जाओ मां।।

एक नन्ही कली नाजों से पली
थी मां बाप की दुलारी वो लाडली बड़ी
हंसते खेलते जब वक़्त के साथ वो बड़ी हो चली
दुख़ दर्द से वो हिल मिल सी गई ।।

अपने अरमानों में ख्वाबों ख्यालों में
रिमझिम फुहारों सी खोने लगी वो
मासूम थी, दिल से सोचती थी वो
हर घड़ी हर पल ख़ुद से खेलती थी वो ।।

मां को लगने लगा डर, बेटी तो बावली है
जमाने से ना कोई उसकी पहचान है
फितरतों से वो इनकी अनजान है ।।

जानती थी मां उसे पहचानती भी थी
भावनाओं को उसके समझती भी थी
" जिगर का टुकड़ा है हमारी, उम्र का तकाजा है
गलत नहीं कर सकती कुछ, पूर्ण भरोसा है"
फिर भी मां रूठकर उससे दूर हो चली थी
तोड़कर नाता दिल पर पत्थर रख चुकी थी ।।

नहीं.... कसूर नहीं था उसका कोई
वो तो जीवन के उसके सवांरना चाहती थी
बिटिया को भटकने से बचाना चाहती थी ।।

बेटी उसकी भोली थी बड़ी
मां से इतनी दूर ना हुई थी कभी
हर रिश्ता निभाना चाहती थी वो पर -
समझौता उसे खुद से करना ही था
भाग्य के लिखे को कोन टाल सकता था ।।

आज वो जमाने से दूर हो चली है
मां की ममता से मरहुम हो चली है
वो लोरीयां, वो रुनझुन नहीं गूंजते अब
मां का आंचल फिर से ढूंढ वो रही है
पकड़ पल्लू का कोना जिसकी
दौड़ा करती थी भर आंगन
मम्मी गोदी, मम्मी गोदी, कहती फिरती थी निशि बासर
उसकी गोदी को तरसे, बिलख रही हैं उसके नैना
कहां खो गई हो मम्मी, अब तो गले लगा लो ना
तेरी लाडली टूट चुकी है, घर को वापस आ जाओ मां
घर को वापस आ जाओ मां ।।

                             कृतिकार
                         नीरज श्रीवास्तव  ' आलोक '
00000000000000
   

  रजनी पटेल


####"भूलते सपने" ####


देर रात तक गहरी सोच में डूबी थी मैं,
डूबी थी या खुद के करतूतों से रुठी मैं।

मन में हजार सवाल गट्ठर बांधे आ रही थी,
मैं खुद सवालों के उलझनों को सुलझा रही थीं।

क्या? इतने ही मेहनत से सपने पूरे होगे,
इसको पूरे करने में कई रातें नहीं सोने होंगे।

मैं इतनी लापरवाह, आलसी कब हो गयी?
दुनिया की चकाचौंध में कैसे खो गयी?

देर रात तक गहरी सोच में डूबी थीं मैं,
डूबी थीं या खुद की करतूतों से रूठी थी मैं।

याद हैं सपने पूरे ना होने के डर से,
कभी मैं बिलख बिलख कर रोई थीं।

और आज जब वक्त ने मुझे मौका दिया हैं,
तो ना जाने किस बेतुकी बातों खोई हूं मैं।

वक्त रहते ही सम्भल जाना होगा हमें,
सभी बेबुनियाद बातों से निकलना हैं हमें।

मुझे समझना होगा कि समय कभी झुकता नहीं,
जिनके कोई सपने होते हैं वो कभी भी रुकता नहीं।
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### चाँद की चाँदनी ###


कभी आँख मिचौली  करता
कभी झुरमुट में छुप जाता है।
चाँद  बिना  पलके  झपकाये
हमको   देखा   करता   है।

दूर  गगन  में  हैं  तो  क्या?
अपनी शितलता से हमको छूता है।
चाँद  कभी  झुरमुट  से
हमको  देखा  करता  है।

रुप  उसके  अनेक  तो  क्या?
वह हर रुप में जाना जाता है।
चाँद  अपनी  कनखियों  से
हमको   देखा   करता    है।

आसमान  में  चलने  चलते
तूफानों से  सामना करता है।
चाँद   कभी   झुरमुट    से
हमको   देखा   करता   है।

संघर्ष पथ पर  आगे बढ़ना
वह हमको सीख सीखता है।
चाँद  अभी  भी  झुरमुट  से
हमको  देखा  करता  है।


                       रजनी पटेल
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शिवम कुमार गुप्ता

प्रकृति रूप चण्ड,
मानव कर रहा जो खंड,
करके नाश सर्वनाश,
इस भूमि की आस,
जिसे किया निहार ,
देव मुनि ने संवार,
सुगंध की बहार,
अब हो गई लाचार,
भूल के स्व-कर्तव्य,
धरती की मर्मत्व,
युग युग के तत्व,
जिससॆ मिले है जीवत्व,
नहीं किया ख्याल,
ले आ गया है काल,
रूप लेकर विकराल,
मुख करके यह लाल,
मिटा दी तूने प्रकृति,
देकर मौत की स्वीकृति,
अब टेक चाहे घुटने,
झुका दे तू सर,
कुछ बचेगा ही नहीं,
देख खुद की करनी का असर |
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संतोष कुमार मिश्र


<<<<< बसंत कहीं खोगया.   >>>

फिजााओं को घेरा अँधेरा, बहारों को ग्रहण लग गया
किसको पता कब मौसम बदला और बसंत कहीं खो गया  ।
कुदरत की करिश्मा के सामने इनसान घुटना टेक दिया
प्रकृति से रिश्ता टूटते ही इंसानी ताकत बौना हो गया ।
जब जब प्रकृति पर अत्याचार हदसे आगे गुजर गया
कुदरत ने शायद अपनी नाराजगी यूँ जाहिर किया  ।
इनसान को छूने से मरेगा इनसान, श्राप ऐसा क्यों दे दिया 
लगता है यह अदृश्य राक्षस भस्मासुर नींद से जाग गया  ।
कोरोना जैसी मौत को सामने देख कर इंसान आज घबराया
किसको पता कब मौसम बदला और बसंत कहीं खो गया ।

तरक्की पसंद देश भी चारदीवारी में कैद हो गया 
महाशक्तिओं के मारणास्त्र किसी काम नहीं आ पाया ।
अदृश्य दुश्मन ने सारा दुनिया में ऐसा कोहराम मचाया 
इस अज्ञात शत्रु के आगे विज्ञान भी स्तब्ध रह गया ।
विश्व शांति के मूल मंत्र अब दुनिया को याद आया  
कहता रहा भारत जो शादिओं से, आज ये जग मान लिया ।
वसुधैव कुटुम्बकम्, सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया
सम्पूर्ण धरती ही परिवार है, यह उपनिषदों में है लिखा हुआ ।
धरती माता ने अपना सर्वस्व निस्वार्थ हम पर लुटाया
मानव अब तू भी सोच जरा बदले में तुमने क्या दिया ।
ऐसा ही होता आया है, जब जब मनुष्य प्रकृति से बैर किया 
किसको पता कब मौसम बदला और बसंत कहीं खो गया  ।

आदि माता है यह धरती, सब कुछ इसी धरा से पैदा हुआ
सृष्टि की श्रेष्ठ जीव मनुष्य क्यों आज इस कदर घबराया हुआ ।
जो भी इस धरा का हैं, इसी धरा पर, धरा का धरा रह गया 
वसुंधरा की यह विचित्र रहस्य, वेद पुराणों में है लिखा हुआ ।
सुर वीरों ने भोगा धरती पर कोई ना साथ कुछ लेकर गया
सिकंदर का कफन से बाहर खाली हाथ था लटका हुआ ।
धरती को दिये गये घावों की भरपाई करने का वक़्त आया
आओ मिलकर कुछ करें ऐसा जो आज तक ना हो पाया ।

अन्यथा
विलुप्त हो जाएगी मानव प्रजाति, रह जाएगी मानव शून्य यह दुनिया
खो जाएगी यह भव्य संस्कृति अगर अब भी इस पर विचार ना किया ।
धरा का धरा रह जायेगा इसी धरा पर जो भी मनुष्य ने बनाया
कोई न बचेगा कहने के लिए रे मानव तुमने यह क्या किया ।
यह आत्मघाती वायरस प्रकृति से नहीं मनुष्य का किया धराया
किसको पता कब मौसम बदला और बसंत कहीं खो गया ।

        संतोष कुमार मिश्र
          कुवैत
00000000000

-कैलाश बाजपेयी,


मौलिक हाइकु

नील गगन
मन को भरमाये
हाथ न आये ।

चांद-सितारे
अंतरिक्ष में घूमें
धरती दूर ।

चांद-सितारे
आसमान बिछौना
चमके कोना ।

सूत कातती
चांद पर बुढ़िया
दादी बतातीं ।

उड़ी पतंग
आसमान छूने की
करती जंग ।

अमलतास
दहकता है वन
व्याकुल मन ।

प्रेम की डोर
प्रेमीजन उड़ते
कोई न छोर ।

पहरे पर
बूढ़ा बरगद है
मुस्तैद खड़ा ।

शब्दों के बाण
बेध देते हृदय
न उपचार ।

आज की नारी
नदी सी इठलाती
बढ़ती जाती ।

बेटी बचाओ
समाज की धारा को
आगे बढ़ाओ ।

-कैलाश बाजपेयी,128/862 वाई ब्लाक, किदवई नगर, कानपुर
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   मनीष मिश्रा


    स्वर्ग की सीढ़ी

जाएगा जब तू जहां से तेरी एक पहचान होगी।
फूलो की मालाओं से तेरा ही सम्मान होगा।
लोग पूछेंगे धरा पर तुमने क्या काम किया।
तू कहेगा प्यार से बस कुछ नहीं आराम किया।
और तब तू कहेगा उन सभी इंसानों से।
स्वर्ग की सीढ़ी बनी है शहीदों के  नामों से।
स्वर्ग पाकर जब मिलूंगा आपने उन भगवानों से।
चरण छू कर ही उठूंगा कोयलो के गानों से।
उन चरणों को पाकर में कितना खुद किस्मत
हूंगा।
जिन चरणों के आगे जहां की सारी दौलत फीकी है।
इसीलिए मैं दुनिया का सबसे अमीर  इंसान हूं अब।
जिनके कर्मों से ही भारत की पहचान बनी।
विश्व गुरु कर दिया जिन्होंने भारत को अपने बल से।
उन चरणों की रज के कण को नमन करूं अभिमान से।
स्वर्ग की सीढ़ी बनी है शहीदों के नामो से।
नाम                        मनीष मिश्रा
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प्रमोद प्यासा


एक गीत
*****
जला कर घर पड़ोसी का किए किसने उजाले हैं।
तृषित हृदय के पंथी को पिलाऐ विष के प्याले हैं।।

प्रलय के पग उठा तुमने कलंकित काम कर डाले।
कहीं सिसकन कहीं आंसू जिगर के नाम कर डाले।
कपट की कूटनीति से सृजन बदनाम कर डाले।
       जली कुरान औ गीता
       जली सलमा जली सीता
       बुझा दीपक कहीं रीता
‌     लुटे श्रम के निवाले हैं।।

संस्कृति देश की सर को झुकाए आज बैठी है।
मनुजता द्वैष दंभों का सजाए ताज बैठी है ।
अभी शकुनि के पासों पर दबी आवाज बैठी है।
        लिखी आंहै लिखे क्रंदन
        लिखे आंसू लिखी धड़कन
        कलम ने पीर के रुदन
       स्वरों में गूंथ डाले हैं।।

पिता का सर झुकाया और मां की हाय बन बैठे।
बहन की राखियां रोईं कलुष अध्याय बन बैठे।
सुहागन की उजड़ती मांग का पर्याय बन बैठे ।
        लहू बोया जमीनों में
        लगाई आग सीनों में
        हमीं ने  आस्तीनों में
        छुपाकर नाग पाले हैं।।

उठो अध्याय फिर लिखना है नव कर्तव्य गीता का।
अहंकारी बने रावण को फिर से राम सीता का।
बहे निर्मल धरा पर जाह्रवी पावन पुनीता का।
         खिले गुल रातरानी के
         तिरंगे की कहानी के
         मिरे हिंदुस्तानी के
        अभी अंतस में छाले हैं ।।

जला कर घर पड़ोसी का,,,,

प्रमोद प्यासा
अलीगढ़
0000000000000000

सीमा आचार्य


  नवगीत

कोरोना मानव को
निगल रहा

माँ की हुई फिर
गोद सूनी
अर्थी भी अब
हाथ  न छूनी
पाषाण हृदय भी
आज पिघल रहा
कोरोना मानव को
निगल रहा।।


बदल रही प्रकृति
प्रतिक्षण
कोरोना कर रहा
मानव भक्षण
बेबस है इंसान
लहू उबल रहा
कोरोना मानव को
निगल रहा।।

इंसानी भूख
इंसान को खा रही
पृथ्वी रसातल में
समा रही
बन दानव कोरोना
इंसान को
मसल रहा।।
कोरोना मानव को
निगल रहा।।

--
## द्रौपदी ##

कृष्ण सखा केवल तुम समझे
द्रौपदी की पीड़ा को.........
द्रुपद  यज्ञ से प्रकटी मैं
यज्ञसेनी कहलाई थी......
हुआ पाणिग्रहण अर्जुन संग
भार्या बन वन को आई थी
समझ प्रसाद मुझे बांट दिया
पाँच पांडव को माँ कुन्ती ने
मौन खड़ी सी खड़ी रह गई
कह न सकी थी पीड़ा को
कृष्ण सखा केवल तुम समझे
द्रौपदी की पीड़ा को..........

एक बार फिर सखा कृष्ण
मैंने तुम्हें पुकारा था..........
दुःशासन के सामने जब
मुझ सिंहनी का बल हारा था
ले गया  दुःशासन  द्रुत सभा में
बल लगा पुरजोर से..........
झोंटा पकड़ दे पटक जमी
फिर खीचता था जोर से
द्वापर युग की महानायिका
आज खड़ी निःसहाय थी
धधक रही थी ज्वाला आँख में
केश छुपाती पीड़ा को......
कृष्ण सखा केवल तुम समझे
द्रौपदी की पीड़ा को............


सीमा आचार्य (म.प्र.)
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  -  प्रीती पिल्लई


ए कोरोना तूने इंसान को बहुत कुछ सिखा दिया,
बड़ा, छोटा, अमीर, गरीब सब को ज़िन्दगी का मतलब सिखा दिया.
इंसान सोचता था वो सबसे श्रेष्ठ है,
पशु, पानी, निसर्ग से वो ज्येष्ठ है.
भूल गया वो संसार क नियम,
बस याद रहा उसको अपना अहम्.
मानव को लगा मैं चाँद, मंगल, सब जगह जा सकता हूँ,
दुनिया में ऐसी कोई चीज़ नही जो मैं न कर सकता हूँ
भूल गया वो श्रेष्ठ बनने क चक्कर में की उसकी ज़िन्दगी भगवन की दी हुई दान हैं,
वो देवता नहीं सिर्फ उसका बनाया हुआ इंसान हैं.
आज कोरोना ने लोगो को एहसास दिला दिया की जी सकता हैं वो बी सरल जीवन,
ना चाहिए अब उसे पिज़्ज़ा बर्गर, ना जाना ह उसे मॉल में,
ना जाना है उसे क्लब पार्टीज में, ना जाना सिनेमा हॉल में. 
  ए कोरोना तूने बहुत कुछ सिखा दिया, लोगो को परिवार का महत्व दिखा दिया.
सिखा दिया लोगो को कि फ़ास्ट फ़ूड, हार्ड ड्रिंक्स के बिना भी वो जी सकते हैं,
हर छोटी बात पे हॉस्पिटल जाये बिना भी वो रह सकते हैं.
तेरे कहर से ओ कोरोना कितनो के घर है उजड़े, कितने अनाथ हुए और कितने बेबस ठहरे.
ए इंसान तू सीख ले कि ईश्वर के आगे तू कुछ नहीं, सबसे सर्वश्रेष्ठ है तो है सिर्फ वही.
शुक्रिया करो ईश्वर को हर उन खुशियों क लिए जो तुम्हे मिली है,
एहसान मनो प्रभु का जिसके वजह से तेरी ज़िन्दगी खिली है.
एक वायरस ने इंसान के अहंकार को तोड़ दिया,
और पशु प्राणियों को भूमि देवी से जोड़ दिया.
समज जाओ अब तुम लोग, कि संपूर्ण मानव जाती को नष्ट कर सकता ह सिर्फ एक रोग.
तेरे आने पे एहसास हुआ पुरे विश्व को कि मोह, माया, पैसा और झूटी शान,
नहीं बचा सकती इंसान की जान.
भाई है हम और भाई ही रहेंगे,
चलो कसम खाते है कोरोना ने सिखाया हुआ पाठ कभी  नहीं भूलेंगे.
ए कोरोना तूने बहुत कुछ दिखा दिया,
मानव जाती को तूने मानवता सीखा दिया....
                                                                                                                                   -  प्रीती पिल्लई

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शीला झाला'अविशा'


कोरोनावायरस का करो ना तुम फैलाव
       नफ़रत का ना जलाओ तुम अलाव

माना कि गहन अधंकार है हर फलक पर
      आज भारत मां रो रही है बिलख कर

नवचेतना का संचार कर जला आशा का पुंज
     हठधर्मिता छोड़ कर हरित कर दे यह कुंज

अमर्ष को तज कर  मानवता पर ना कर तू प्रहार
रह घर में ना जा बाहर कर ना तू मानव सभ्यता का संहार

घूम कर यूं गलियों में ना भेंट चढ़ा जिंदगी की
रख धैर्य तू हौसला अफजाई कर कर्मवीर की
                     शीला झाला'अविशा'
         ---           
नन्ही कली की पीड़ा
                मां !मैं तेरी नन्ही गुड़िया
     हां मैं ही तो हूं वो जादू की पुड़िया

तेरा आंचल व आंगन ही तो मेरी दुनियां थी
जब मैं हंसती तो तू लेती मेरी बलाइयां थी

            धीरे-धीरे मैं  स्वप्नों संग बड़ी हुई
            तेरी छाया तेरे संस्कारों में गढ़ी हुई

मां तू तो कहती थी यह दुनिया बड़ी सुंदर है
      यहां हर मानव देवता प्रेम का समन्दर है

मां !आज मैंने दानव देखा
हैवान के वेश में मानव देखा

मां! आज तेरी जादू की पुड़िया का जादू ना चला
      बहलाया फुसलाया मनमोहक बातों से छला

मां थी प्रेम में अन्धी उसके एक बार भी मैंने तेरा ना सोचा
प्रेम के नाम पर मेरे तन को उसने बार बार नोंचा

क्या यह अपराध था मेरा मां कि मैंने उसको प्रेम किया
कामाग्नि में जलकर मेरा सबकुछ मुझसे छीन लिया

तेरे संस्कारों का कवच जो था प्रेम ने उसके तोड़ दिया
     बिनब्याही मां बनाकर जग में मुझको छोड़ दिया

    मां अब यह दर्द ना मुझसे सहन होगा
जानती हूं यह अधंकार तेरे लिए गहन होगा

         मां तेरी बगिया की कली चली गई मुरझाकर
खुश था वो दानव मेरी मौत से दुनिया अपनी सजाकर
मां !मैं तेरी नन्ही गुड़िया, हां मैं ही तो थी तेरी दुनिया
                   शीला झाला'अविशा'
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कवि कालू दहिया

अग्नि का करती जो मंजन,
  स्वामी भक्ति में चढाती अपना नंदन ,
कर ती जो हर शाम नहीं लोरी का सर्जन,
  विचलित हो उठता दुख में उनका मन,
  कहां गई वह वीर क्षत्राणी नारियां,
  कहां गई वह वीर क्षत्राणी नारियाँ।

अपने हाथों से भेजती स्वामी को समर,
  वीरगति प्राप्त वीर की वीरांगना न भटकती घर-घर ,
खुद ले दोनों हाथों में तलवार ,
होती रण को सवार ,
कहां गई वह वीर क्षत्राणी नारियां ,
कहां गई वो वीर क्षत्राणी नारियाँ ।

कभी तिनका हाथ में शस्त्र समझ बैठी थी ,
दुष्टि दूर रे आएंगे मेरे स्वामी कहती थी,
  जब होता स्वामी का मिलन,
  तो चली जाती वन,
कहां गई वह वीर क्षत्राणी नारियां,
  कहां गई वह वीर क्षत्राणी नारियां ।

मिली जंगल में तुम माथा लाल कर आते थे,
  मरने से चार दिन पहले उस सिंदूर को रक्षित पाते थे,
  फिर भी नेक रखा उसने अपना बदन ,
पास भी नहीं गई मिले कोटि-कोटि चंदन,
  पूछता तुमसे यह कवि आज ,
कहां गई वह वीर क्षत्राणी नारियां ,
कहां गई वह........।।
--
देश की भूमि
यह भूमि नहीं चंदन है,
  यहीं पर ममताओं ने वारे चंदन है ।

इस भूमि पर हल्दीघाटी सा रण है,
  इस माटी का जिंदा कण -कण हैं।
  यहां खिलता है समन, मिलता अमन है,
  सुख और उन्माद से हंसता जन-जन है।

पौरुष के धनिया ने इसकी दास्तान लिखी है ,
अभिमन्यु ने रण कौशल ममता की गोद से सीखी है ।

आओ इस भूमि का वंदन करते हैं ,
आओ इस भूमि का वंदन करते हैं ,
बीते तमाम सदियों का अभिनंदन करते हैं।।
--
जिम्मेदारी बचपन के सहारे को भुला देते हैं ,
जिन्होंने शूल पर चलकर हमें चलना सिखाया ,
उनको शूलों पर सुला देते हैं ।

जिनके हाथों में अमरा तत्व है ,
वे मां बाप ही नहीं हमारे जीवन का अस्तित्व है।

हमारी खुशी के लिए उनके निकलता नयन से कतरा,
बताओ कितना उठाया इन्होंने अपने बच्चों के ख़ातिर खतरा।

आज हम जवान हो गए,
तो उनके तमाम संघर्ष क्या खता है,
यह जिम्मेदारी उठालो,
पैर डगमगाते उनके सम्भालो तुम्हारे पास जिन्दगानी की सत्ता है।

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हरिओम चन्दीर


करोना से त्रस्त विश्व कल्याण के लिए रचित गीत।

त्राहीमान जो मचा जग में,
आ जाओ कान्हा आ जाओ ।
कोई लेकर  नया अवतार ,
अब करोना को मिटा जाओ।
करोना कहर मचिया है ,
सब द्वार तुम्हारे आया है ।
अकासूर मारा बकासूर मारा,
कंश भी मुंह की खाया है ।
ये तो सूक्ष्म जीव है ,
औषधि  तोड़ बता जाओ।
कोई लेकर नया अवतार ,
अब करोना को मिटा जाओ।
मैं चन्दीर तेरा भक्त प्रभु,
त्रस्त जो देखता हूँ जग को ।
अर्जी विनती करता हूँ,
भय मुक्त कर दे तू सबको ।
तेरे लिए  यह अदना काम है ,
चमत्कार दिखला जाओ ।
कोई लेकर नया अवतार ,
अब करोना को मिटा जाओ।


हरिओम चन्दीर   एम ए़ ए़़  शोधार्थी ।
एल एन एम यू दरभंगा हिन्दी  विभाग (बिहार)
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शिव कुमार दीपक


नारी विमर्श पर दोहे-
   
प्राणप्रिया की ताड़ना , ऐसा  करे  विकास ।
हुए अज्ञ से विज्ञ फिर,कविवर तुलसी दास ।।-1
                                                             
मैं कमला, मैं कालिका, मैं वामा घर द्वार ।
मानव रखना ध्यान मैं, दो धारी  तलवार ।।-2

युग निर्माता मानवी, आँगन की मुस्कान ।
छीना आज दहेज ने, नारी  का सम्मान ।।-3
                                                                            
दुल्हन बनकर एक दिन,रही पिया के साथ ।
सुबह सिपाही बन गए , मेंहदी  वाले  हाथ ।।-4
                                                            
बुलबुल विधवा हो गई, गोदी बच्चे चार ।
मेहनत,साहस,धैर्य से,पाल रही परिवार ।।-5

बिन गृहणी घर जेल सा , बुरे रहें  हालात ।
जहाँ मात रे शक्ति है, वहाँ स्वर्ग दिन-रात ।।-6

छेड़-छाड़ का रेप का,यह भी कारण मान ।
खुला निमंत्रण  बाँटते,  नारी  के  परिधान ।।-7

पछुआ से ढीले पड़े, लाज - शर्म के पेच ।
विज्ञापन में मानवी, अदब  रही  है  बेच ।।-8
                                                  
      शिव कुमार दीपक
           बहरदोई,सादाबाद
            हाथरस,(उ०प्र०)
000000000000000

सुनीता द्विवेदी


कोरोना काल में सभी अपने घर में लाक डाउन हैं
हमें इस समय का सदुपयोग करना चाहिए इसी पर मेरा यह गीत है नाम है

कोरोना का फायदा उठा लीजिए

मिला है मौका फायदा उठा लीजिए
दुनिया में भागे बहुत
स्वयं के साथ समय बिता लीजिए ...

विपदा बड़ी है भूख मुंह बाये खड़ी है
हर किसी के सामने कोई मजबूरी बड़ी है
भूखे को रोटी प्यासे को पानी पिला दीजिए
पुण्य भी थोड़ा कमा लीजिए...

लाख दो लाख कितना
मजबूरियों से कमा  पाओगे ?
जो निकलेगी दिलों से बद् दुआओं का
बोझ क्या उठा पाओगे?
पैसा बहुत कमाया
अब जरा ईमान कमा लीजिए...

जिनके लिए खटते थे दिन रात
अब जो मिल रहा उनका साथ
जरा लुफ्त उठा लीजिए...

कोरोना जहर है पर कुछ सिखा रहा है
कौन जरूरी क्या गैरजरूरी बता रहा है
क्या सत्य क्या मिथ्या नजर उठा लीजिए...
सुनीता द्विवेदी कानपुर
--

मारीच वध

छलने आया जो मारीच,
धर स्वर्ण मृग रूप,
उस पर भी करूणा ?
दोनों ही करूणा स्वरूप
वैदेही उसे चाहें,
अयोध्या बसाना
जो था छल का रूप
कह रहीं आर्य
जीवित यह मृग ले आना
यहां पोषेगें इसे और
संग ले चलेंगें अपने
जब अयोध्या होगा जाना
मरना त़ो है जाने मारिच
राम या रावण
चुनें वो दोनों के बीच
राम  को चुन अपना
मृत्यु दाता
वो सोचता था आता
राम पीछे मेरे आएंगे
लक्ष्मी पति मेरी स्वर्ण
छवि पर मोह जाएंगे
मैं मुड़ मुड़ कर देखूंगा
अपना जीवन न सही
मरण धन्य करूंगा
देख इच्छा ,मरणहार की राम
निशाचर को  अपना रूप दिखाते
लिए धनुष ,पर ,न बाण चलाते
छल मृग के ,पीछे खूब भागते
अयोध्या में बैठ जो
रघु ,लंका के परकोटे ढहाएं
उनके वंशज रघुनाथ,
आज अपनी दया दिखाएं
ऐसे करूणानिधान राम पर
ओ सुनी क्यों न रीझ जाएं
कैसे न रसना यह
ऐसे करूणानिधान सीता राम
के गुण गाए ।।

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# महावीर वैष्णव#

मजदूर की बेटी

घर से निकलते ही
जब देखा मैंने एक बच्ची को,
हाथ फैलाए मांग रही थी,
एक आना, दो आना,
कोई दे दो उस बच्ची को।

दुनिया कोरोना कोरोना चिल्लाती है,
वह भूख से बिलखाती है,
  वो वायरस बीमारी क्या जाने?
जब उसको भूख सताती है।

दिल मेरा एकदम सिहर उठा
जब देखा मैंने उस बच्ची को,
हाय! कैसी इसकी मां होगी
जो भेज दिया इस बच्ची को,

उस मां से जब मैंने पूछा
काहे भेज देती हो रोज इसको,
मां बोली सकूचाती सी, आंखों में नमी लाती सी,
दिल मेरा भी घबराता है,
सागर सा हिलोरे खाता है,
जब भूख सताती है- ना साहब!
तो भेज देती हूं इस बच्ची को।

मजदूरी तो रही नहीं,
जो मेहनत करके खाएंगे,
एक हाथ फैलाना ही रह गया,
  बस अब इस से ही पेट की आग बुझाएंगे।

        # महावीर वैष्णव#

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जन्मेजय कुमार पाण्डेय


  माँ भारती वंदना
______
नमो नमो माँ भारती, नमो नमो!
केसरिया ध्वज धारिणी,
नमो सिंह विहारिणी नमो नमो!
अमर्त्य वीर प्रसुता,
नमो नमो हे देव सुता नमो नमो!
जय हे त्रिलोक अधिकारिणी,
ॠषि मुनि जन तारिणी नमो नमो!
नमो नमो माँ भारती नमो नमो!
वन बाग शैल तड़ाग सुन्दर,
खोह खाड़ी गिरी शिखर गह्वर ।
विचित्र चित्र धारिणी नमो नमो!
नमो नमो माँ भारती नमो नमो!
नमो विशालया, महालया ।
नमो शुभ आश्रय प्रदायिनी नमो नमो!
नमो दुर्गा रुप धारिणी,
नमो अरिदल संहारिणी नमो नमो!
नमो सुहाशिणी,
नमो सुभाष भाषिणी नमो नमो!
नमो नमो माँ भारती नमो नमो!
------------------
        
आशा की किरण
--------------
हम जीत जाएंगे,
  फिर से नया सबेरा होगा ।
नव प्रभात के,
किरणों का  घेरा  होगा ।।
रौनक़ लौटेगी शहरों में,
हँसिया आएंगी अधरों पर
उर में खुशहाली का,
फिर से डेरा  होगा ।
हम जीत जाएंगे,
फिर से नया सबेरा होगा ।।
-----------------
बच्चे विद्यालय जाएंगे,
फिर गीत खुशी के गाएंगे ।
खुशियाँ लौटेगी गांवों में,
विहग वृंद फिर राग भरेंगे ।
कोयल कूकेगी बागों में,
डाली डाली फूल खिलेंगे ।
अपनों से हम फिर मिलेंगे ।
वीर प्रसुता धरा हमारी,
छँट जाएगी अंधियारी ।
अपने आंगन में,
फिर से नया सबेरा होगा ।
हम जीत जाएंगे,
फिर से नया सबेरा होगा ।
नव प्रभात के,
किरणों का घेरा होगा ।।
सुनापन गलियों से,
फिर मिटेगा,
सड़कों पर टूटेगा सन्नाटा ।
मंदिर मंदिर होगी पूजा,
सभी करेंगे सैर सपाटा ।
गाँव गाँव में,
फिर से खुशियों का बसेरा होगा ।
हम जीत जाएंगे,
फिर से नया सबेरा होगा ।
नव प्रभात के,
किरणों का घेरा होगा ।।
----------------

सरस्वती वंदना
-------------
वीणा पुस्तक धारिणी,
ज्ञान बुद्धि प्रदायिनी ।
गीत पुनीत सुछन्दन को, स्वर-ताल के बीच संवारिये ।।
अज्ञान तम दूर कर,
उर में आनंद भर।
नाश कर कुबुद्धि का,
आज हमें तारिये ।।
पाहन पाषाण सम,
ज्ञान हीन जड़ हम ।
ज्ञान के गवाक्ष खोल,
चित्त को निखारिये।।
ज्ञान हीन मान हीन,
मंत्र तंत्र से विहीन ।
बालक अबोध जान,
कृपा दृष्टि फेरिये ।।

उत्तम विचार रहे,
दिव्य व्यवहार रहे ।
सुत हम तुम्हारे माता,
हमें ना विसारिये ।।
विनती का ध्यान कर,
उर को सुदिप्त कर।
सुबुद्धि प्रदान कर,
भव सागर से तारिये ।।

श्वेत वस्त्र धारिणी माँ,
जड़ मति तारिणी माँ ।
जड़ता मिटाकर मेरी,
सत बुद्धि भरिये ।।
चरणों के दास हम,
रहें ना उदास कभी ।
भाव भक्ति को प्रदान कर,
मातु जीवन संवारिये ।।
मेरी दुःख दूर कर,
दंभ चूर चूर कर।
विश्व रुपा विमला माँ,
उर में विराजिये ।।
चंदन है दास तेरा,
कर रहा है निहोरा ।
साजिये संवारिये माँ,
श्रद्धा भक्ति दीजिये ।।
----------
          

शम्भु स्तुति
-----------
जय शिव त्रिपुरारी,
जय भाल चंद्र धारी,
जय भुजंग पति हारी,
प्रभु हमें ना विसारिये ।
शरण तोहार आए,
बोलो अब कहाँ जाएं,
हम दीन दुखियारी,
कष्ट होत बड़ी भारी,
कष्टन को काट,
प्रभु हमको उबारिये ।।

जय शूलपाणी,
जय जय जटाधारी,
जय मृग चर्म धारी,
प्रभु हृदय विराजिये ।
हम जड़ मति हीन,
काम क्रोध मद लीन,
जप तप से विहीन,
छल बल में प्रवीण,
मेरी खलुता मिटाय,
प्रभु सद् गति दीजिये ।।

जय चिता भस्म रागी,
जय जय  वैरागी,
जय हरि अनुरागी,
हर!सब काज साजिए,
जय कैलाशी,
जय जय अविनाशी,
जय काशी पुरी वासी ,
जय जय सुखराशि,
चरणों में राखी प्रभु,
मोह पाश काटिये ।।

जय त्रिलोचन,
जय मृत्यु मोचन,
दुःख शोक हरण,
कष्ट मिटाय,
मोहे सुख धाम दीजिये ।
शोहे जटा चंद्र भाल,
जय जय महाकाल,
जय काल ते कराल,
रौद्र रूप विकराल
मेरी कुबुद्धि को टारि,
प्रभु आज हमें तारिये ।।

जय अभयंकर, जय जय शिव शंकर,
जय गिरिजा पति दीन दयाल,
तिलक त्रिपुण्ड सुशोभित भाल,
गले रुद्र माल,
प्रभु रुद्र रुप धारी,
शोक कष्ट नाश,
मोहे कीजिए सुखारी ।
उर को सुदिप्त कर,
मोहि आपही में लिप्त कर,
जड़ मति दूर कर,
दंभ चूर चूर कर,
ज्ञान वान कर हमें,
भक्ति ज्ञान दीजिये ।।
------------
        
जन्मेजय कु0पाण्डेय (गुरु जी)
ग्राम शिव नगरी
थाना मुफस्सिल
जिला छपरा सारण
बिहार ।
0000000000000000000000

~ दिनेश चाँगल


  शिक्षित -बेरोजगारी की पीड़ा**
         
          लोग मानते हैं इन्हें किताबी कीड़ा
  समाज के लोग भी इन्हीं पर रहते हैं गिड़गिड़ा
  कोई भी व्यक्ति इनकी नहीं समझते पीड़ा........

पढ़ पढ़ कर यह लोग हो जाते हैं चिड़चिड़ा
सफल होने का विद्रोह इन पर रहता है हमेशा छिड़ा
  कोई भी व्यक्ति इनकी....................

जब इन्हें याद आ जाता समाज का ताना
  भूखे यह सो जाते क्योंकि इन्हें अच्छा नहीं लगता खाना
यह तो सिर्फ एक ही जानते हैं गाना
  कि किसी प्रकार से लक्ष्य को है पाना
  कोई भी व्यक्ति इनकी.............

पैसों की रहती है इनको हमेशा तंगी
  सजना दूर की बात यह समय पर बालों मैं नहीं मारते कंगी
इनसे बड़ा नहीं हो सकता कोई जंगी
  कोई भी व्यक्ति इनकी................

किराए के कमरे को मान लेता है अपनी जिंदगी का घर
थैले को पीछे लटका कर फिरता रहता है दर-दर
  और कहता रहता है हे!भगवान मुझे सफल कर
  कोई भी व्यक्ति इनकी........

बेईमान लोग कहते रहते हैं अभी तक सफल नहीं हुआ
  घरवालों के पैसों से खेल गया क्या जुआ?
बेतूल की बातें कर यह बेरोजगारों को देते हैं रूआ
  कोई भी व्यक्ति इनकी..............

 
  कर मेहनत देते हैं परीक्षा,
  असफलता के डर की वजह से मुश्किल से बिताता है पल
जब आता है परीक्षा फल
  रो-रो कर निकालता है उसका हल
  किस्मत को कोस कर कहता है अब उसी मार्ग पर फिर चल...
  कोई भी व्यक्ति इनकी नहीं समझते हैं पीड़ा....
  

--
   मेरी पुकार  *

  एक सौ पैंतीस कोटी भारतीयों से मेरी पुकार
            घर को मान लो स्वर्ग,
  घर से बाहर समझ लो नरक का द्वार।
           हाथ मिलाना छोड़ दो,
  दूर से ही करना सीख लो नमस्कार।।
      हाथ को बार-बार साफ करना,
  गंदगी से पूरी तरह आपको  है बचना।।
       संकट की इस घड़ी में,
सभी मतभेद भुलाकर साथ खड़ा रहना ।
     पशु पक्षियों को भी मत भूलना,
  हमें सभी को साथ लेकर है चलना ।।
  खाने-पीने कि कमी ना रहना,
  उचित बंदोबस्त उनका हम लोगों को है करना।।
  सब लोगों का एक ही बोल
सभी की जिंदगी है अनमोल।।
  हम सबको कोरोना फैलने से है रोकना
  कालाबाजारी करने वालों को भी टोकना।।
  सुखी खांसी जुकाम के साथ-साथ हो बुखार
  डॉक्टर की सलाह जरूर लेना यह है मेरी पुकार।।
  यह मेरी पुकार...........................
           ~  दिनेश चांगल
          
           $  कोरोना तू हार गया $

विश्व में तूने बहुत मचाई थी खलबली
   भारत में तेरी बिल्कुल भी नहीं चली
         कोरोना तू है बड़ा छली
  तूने सोचा मैं घूम लूंगा भारत की गली गली
हम लोगों की एकता  से तेरी दाल नहीं गली                
     कोरोना तेरे इरादे नहीं है नेक
  हम लोगों को तूने करा दिया घरों में पैक
  तेरी वजह से कई लोगों के नहीं कटे केक
  हम लोग है एक अब तू ही घुटने टेक
   तुमने मोदी तक लगा दिया था जैक
  मोदी ने कुछ बजा व जला कर हम लोगों को किया था चेक
  सभी देशवासियों को कर दिया तूने सचेत
  कोरोना अभी भी तू है अचेत का अचेत
  यहां का पर्यावरण व तापमान है गुण गार
              जिससे तेरी पड़ेगी नहीं पार
     यहां से भाग जा मान अपनी हार।।
                       ~ दिनेश चाँगल
00000000000000000000

उग्रसेन पटेल

कोरोनावायरस के प्रति जागरूकता


कोरोना वायरस से जंग जीतेगा हिन्दुस्तान।
कोरोना के विरुद्ध लड़ाई लड़ेगा हिन्दुस्तान।।
"कोरोना" शब्द का अर्थ हमें प्रधानमंत्री ने बताया है,
'कोई घर से न निकले'यही मंत्र हमें पढ़ाया है।
जनता ज़िम्मेदारी से संभलेगा हिन्दुस्तान,
कोरोना वायरस से जंग जीतेगा हिन्दुस्तान।। 
 
जीवन की रक्षा हो और हो परिवार सुरक्षा,
इक्कीस दिन का लाकडाउन सबके लिए है अच्छा।
  भारतीय संकट की घड़ी में दें सभी योगदान,
  कोरोना वायरस से जंग जीतेगा हिन्दूस्तान।।  

बचने का एकमात्र विकल्प है, सोशल डिस्टेंसिंग साझा,
नहीं तो चुकानी पड़ सकती है लापरवाही ख़ामियाजा।
घर से न निकलने का महाशय ने किया ऐलान,
कोरोना वायरस से जंग जीतेगा हिन्दूस्तान।।     

धैर्य और अनुशासन की ये है इम्तिहां घड़ी,
गर भी न मानोगे तो बरसेगी पुलिस छड़ी।
अनुशासन का पालन करेगा हिन्दूस्तान,
  कोरोना वायरस से जंग जीतेगा हिन्दूस्तान।।
लाकडाउन कड़ाई से नहीं बरतोगे ऐहतियात,
  इक्कीस साल पीछे होगा भारत का इतिहास।
  वैश्विक महामारी से काबू पायेगा हिन्दूस्तान,
  कोरोना वायरस से जंग जीतेगा हिन्दूस्तान।।

सिर्फ स्वास्थ्य सुरक्षा ही समय की है प्राथमिकता,
राज्य सरकार जागरूक हो करें हेल्थ केयर की व्यवस्था।
  स्वास्थ्य सिपाही की सेना से मिटेगा नामोनिशान,
  कोरोना वायरस से जंग जीतेगा हिन्दुस्तान।।          

घर में रहें सिर्फ घर में रहें एक ही काम करें,
लक्ष्मण रेखा नहीं लांघना है अपने घर में रहें।
  संवेदनशील हों भारतवासी मोदी का आह्वान,
  कोरोना वायरस से जंग जीतेगा हिन्दुस्तान।।
 
उग्रसेन पटेल,रायगढ़(छत्तीसगढ़)
Samaj Kalyan Vibhag Raigarh
00000000000000000

रोनी मुंतजिर


बेटियां

सिमटकर वो अपने दायरे में रह गई,
पढाई जिस बेटी की अधूरी रह गई।

इल्जाम देते हो बेटियों को साहिब,
कमी क्या बेटों की परवरिश में रह गई।

या डरते हो अब तुम बेटियों के जानिब,
सफें तुम्हारे बेटो की क्या पीछे रह गई।

अब और जुल्म ना ढाओ उन पर साहिब,
खैर मनाओ तुम, अब तलक छुप रह गई।

घर को महकाने वाली विदा हो चली है,
उसकी यादों की अब पोटली रह गई।।
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रोशन कुमार झा 


-:   भारी पड़ा कोरोना  विज्ञान पर  !

क्या बताऊं कैसी दशा है ,
मुसीबत में हम तो हम दुनिया भी फंसा है !
न आना,न कहीं जाना, नहीं अब कोई नशा है ,
घर बैठे आज मैं रोशन खूब जोर से हंसा है !

किस पर...? विज्ञान पर... ,
उसका मान-सम्मान पर !
ताला लटका हुआ है दुकान पर !
वहीं घर है पर रौनक़ है न उस मकान पर ,

सबका जिम्मेदारी कौन है ,
जो है आज वह मौन है !

कहां गया वह विज्ञान का सिध्दांत ,
कोरोना जैसी मुसीबत में कला तो कला,
विज्ञान भी हो गया शांत !

   ---
  कोरोना के कारण !

कर लिया है कोरोना भंयकर रूप धारण ,
तंग हूं हम जनता, कोरोना के कारण !
मर रहें हैं हम रोशन ... और लोग साधारण !
कब तक करते रहूं  बिना कमाई का पेट पालन !

लॉकडॉउन है बाहर निकलना असम्भव
क्योंकि कड़ी है शासन !
शान से बैठें हैं अमीर , नेता लोग लगाकर आसन ,
उस आसन से सूनने को मिलती हैं घर-घर
पहुंचेंगे राशन ,
पर राशन कहां , वह राशन , राशन नहीं ,
रहता एक प्रकार की भाषण !

वहीं से सम्बोधित करते जहां रहता उनका सिंहासन ,
कब तक आशा में रहूं हम गरीब कहां दिया अन्न !
कोरोना खराब किया मन ,
और भोग में ले लिया विश्व का धन !

अमीर-गरीब को छांट दिया कोरोना भरी चालन ,
भूखे मर रहें हैं दिहाड़ी मजदूर.. , है इसके उदाहरण !
सेठ गिन रहे हैं धन , हम ग़रीब भूखे कर रहें हैं
राम-राम उच्चारण !
किस लिए ? तो सब कोरोना के कारण !
---
कोरोना चालिसा।   

जय कोरोना जब तोहर वृहान में जन्म खून जागल ,
जय दो हजार बीस , उन्नीस के असर बीस में
विश्व लोक के लागल !

चीन दूत कोरोना धामा ,
चाईना पुत्र कोविड-19 नामा !

सर्दी जुखाम क्रम-क्रम रंगी ,
समझ जाओ ये है कोरोना के संगी !

लक्षण मरण समाज में ऐसा,
दिन रात न यह बढ़े हमेशा !

हाथ ब्रज , मिथिला, मथुरा भारत में थाली बाजे ,
करें ब्रहामण जनेऊ से प्रार्थना कहीं न ये कोरोना
महामारी बीमारी विराजे ! 

अंक्ल जन माक्स लगाकर हुए चाची के बंधन,
तेज प्रताप से कोरोना कर रहे हैं विश्व को खण्डन !

विद्यावान मुनि,कवि, विज्ञान अति बहादुर ,
करें न कोई राहुल,अरूण नेता ऐसी भूल !

चलें समाचार सुनने प्रधानमंत्री मोदी जी न्यूज
पर अमेरिका रसिया,
कोरोना तो हर कहीं हो चुके है बसिया !  

छप्पन इंच छाती बड़ा काज दिखावा ,
अमेरिका के धमकी से न, मानवता के कारण दिये दावा !

भीम रूप कलि, फूल सहारे ,
हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वाइन दवा देकर नमस्ते
ट्रम्प के काज संवारे !  

लाया सा दवा उससे भारत विश्व जियावे ,
तब जग भारत पर फूल बरसावे !

हिन्दुस्तान की गति बहुत बड़ाई ,
तुम चीन सच में दुष्ट है भाई !

सार्क के देश तुम्हारे विरोध में आवें ,
विश्व अंदाज किये है अब तुम्हारे अंत लगावे !

आज़ादी, गांधीवादी पर चले हमारी दिशा ,
पर अब तुम विश्व सम्मेलन में लेना न मित्र हिस्सा !

तुम्हारे यम कोरोना काल जहां ते ,
हम जनता घर में कर्फ्यू लगे वहां थे ! 

तुम हम भारतीयों का उपकार कभी न चिन्हा ,
तुम दुष्ट चीन हमेशा दुख ही दिन्हा !

तुम्हारे मंत्र हम क्या ?  विश्व न माना ,
हम हमारी भारतीयों के कर्मों से विश्व गुरु कहे जमाना !

तब तुम्हें हम कैसे अपना मानूं ,
तबाह है सभी मुख्यमंत्री ममता, नीतीश कुमार
भगाना है कोरोना ये विचार मैं भी ठानू !

पायें न कोई सुख राही ,
क्योंकि कोरोना रूकने पर तैयार नाहीं !

दुख भरी काज तुम जगत के देते ,
कौन ? तुम दुष्ट चीन के बेटे ! 

राम सहारे हम भारतीय दिया जलाकर किये और
करें विश्व के रखवाले ,
हे दुष्ट चीन तू अभी कमा रे ! 

हम तो हम तुम्हें भी है मरना ,
अपनाया तो सनातन धर्म तुम्हें भी है जलना !

तुम्हारे कारण विश्व तापें ,
तुम पर मंडरा रही है सारी पापे !

दुष्ट कोरोना अब निकट न आवे ,
कब ? जब भारत अपना लांकडाउन हटावे !

हंसे मुस्कुराये गांव घर और सब जिला ,
करेंगे भारत मां की पूजा चढ़ायेंगे फल फूल निर्मल
जल और खीरा ! 

विश्व से संकट घड़ी भारत हटावे ,
जब कोई भारत के चरण में आवे !

आदर्श राजन मोदी राजा ,
खूब ठीक तनु वक्ष स्थल से योगी अंदाजा ! 

और दुख जो कोई लावे ,
उसे भारत मां के भारत स्काउट गाइड, सेंट जांन एम्बूलेंस,
एन.सी.सी, और एन.एस.एस के पुत्र ही मिटावे !

हे चीन संकट फैलाना कर्म तुम्हारा ,
है दुनिया को बचाना धर्म हमारा ! 

साधु संत के हम रखवाले ,
तुम्हारे तो सोच ही है काले !

दुख दिया मिटेंगे विधाता ,
हंस-हंस कर दर्द सहे है हमारी भारत माता !

कौन ? रखेंगे तुम पर आशा ,
छल कपट से बढ़ा तू चीन यही है तुम्हारी परिभाषा !

तुम्हारे कर्म विश्व को पावे ,
विश्व सोचा अब तुम्हें हटावे ! 

अंत काल तू (UNO)  यूं.एन.ओ पुर जाई ,
वहां कोई साथ देंगे न ए चीनी भाई !

और चीन अब चिंता मत करिए ,
दुनिया को मारे अब आप भी मरिये !

लांकडाउन हटें मिटे सब पीरा ,
कष्ट से तड़फे न कोई राज्य और जिला !

जय-जय कोरोना कसाई ,
लाट मार कर अब विश्व तुम्हें भगाई !

जो सट कर बात करें न कोई,.
हटी इमरजेंसी,छुटी लांकडाउन, विश्व में महासुख होई !

जो यह जब जब पढ़ें कोरोना चालिसा ,
तब तब चीन को मिलें गाली जैसी भिक्षा !

रोशन सदा गुरु , हम रोशन कुमार उनका चेला ,
कोरोना को दूर कीजो नाथ , यही है ह्रदय से विनती मेरा !
  

              रोशन कुमार झा   
000000000000

संध्या शर्मा


सभी  शादी सुदा पुरुषों को समर्पित....

उठो देव आँखें खोलो
जल्दी से अब मुँह धो लो
बर्तन माजो कपड़े धो लो
अब तुम किचन में जाओ
जल्दी से झाड़ू निकालो
और किचन में पोछा मारो

अलसाओ न , आँखें मूंदो
सब्जी काटो , आटा गुथो
जल्द से खाना बनाओ
तनिक काम से न घबराओ
घी डालकर दाल बघारो

गमलों में तुम पानी डालो
छत की टँकी से तुम गाद निकालो
देखो हमसे खेल न खेलों
छोड़ मोबाइल रोटी बेलो

बिस्तर सारे , धूप में डालो
खाली हो अब काम सम्भालो
नहीं चलेगी अब मनमानी
याद दिला दूँगी नानी

अब मिक्सी में धनिया , मिर्च पीसो
और गेंहू बिनो सारे
अब जल्दी से पैर दबाओ हमारे
और  पिलाओ नींबू - पानी

अब मुझे माफ़ करो मेरी रानी
तुम मुझसे बहोत काम करवातीं
अब कुछ दिन की देदो सिक- लीव
लॉकडाउन में ना जुर्म करो रानी
ऐसी कोई व्यवस्था करो
अब आधा काम तुम करो

अब तुम झण्डू बाम लगाओ ,
कमर में हमारी
और बन जाओ थानेदारनी हमारी
सुन लो सिफारिश हमारी

ये आई , अजब बीमारी
सब पतियों पर विपदा भारी
नाथ अब शरणागत ले लो
कुछ भी हो ये आफ़त ले लो।।
---


हमारी बीवी कोर्ट में बाबू है
ये बात और है कि वह बेक़ाबू है
क्योंकि हमारी बीवी कोर्ट में बाबू हैं।।

एक बार हमारी बीवी गयीं बहार
वहां कर आयीं उधार
विवशता देख के हुई नाराज़
हम भी उसे देख के हुए नाराज़
अब तो सुस्ती और भी बेक़ाबू हैं
क्योंकि वो घूमने जाने वाली माउन्ट आबू हैं
क्योंकि हमारी बीवी कोर्ट में बाबू हैं।।

जब वह मरी
सीधे नरक में जा गिरी
न तो उसे कुछ दुःख हुआ
ना ही वह घबरायी
वो ख़ुशी में झूमकर चिल्लायी
"वाह - वाह क्या व्यवस्था है, क्या सुविधा है
क्या शान है
यमराज भी घबराया
क्योंकि अब वह उसके भी बेक़ाबू है
क्योंकि हमारी बीवी कोर्ट में बाबू हैं।।
---

विहंग......

शुक्र कर तू रब का
तू अपने घरों में है
हाँ, पूछ उनसे जो अटका सफ़र में है........

हाँ, किसी ने आखरी वक्त
माँ, बाप की शकल नही देखी
ऐसी बेबसी मेरी नजर में है........

तेरे घर में राशन है , साल भर का
तू सोच कोई दो वक़्त की
रोटी की फिकर में है.......

तुम्हें किस बात की जल्दी है ,
गाड़ी में घूमने की
यहाँ कोई पैदल मीलों सफर में है..........

अभी भी भ्रम में मत रहना दोस्तों
अब इंसानो की सुनती नहीं कुदरत
वो अब अपने ऑरो में है.......।।
--
परिंदे रुक मत तुझमें जान बाकी है,
मंजिल दूर है बहुत उड़ान बाकी है......

आज या कल तेरी मुट्ठी में होगी दुनिया
लक्ष्य पर अगर तेरा ध्यान बाक़ी है.....

यूँ ही नहीं मिलती किसी को रब की मेहरबानी
एक से बढ़कर एक इम्तेहान बाक़ी है.......

जिंदगी की जंग में है "होसला" जरूरी
जितने के लिए सारा जहान बाक़ी है.......
--
पुरुषों की अरदास...

घर भीतर की यही कहानी
सब जगह रस्साकस्सी खींचातानी।।

पति पर 21 दिन है भारी
पत्नि के निकली दाढ़ी।।

काली रूप खोल के कैशा
बोल रही शब्द विशेषा।।

वो कहती है , ये सुनता है
बाकी जग तो सर धुनता है।।

होता हर घर - घर यही तमाशा
खग जाने खग की भाषा।।

सुनकर उसको जिग्गज डोले
बेचारा पति कुछ न बोले।।

दुःख सतावे नाना भांति
छत पे नहीं पड़ोसन आती।।

प्रेम का तारा कब का डुबा
दिखी नहीं कब से महबूबा।।

कोरोना के बने बराती
बांट रहे है इसे जमाती।।

मोदीजी कर लो तैयारी
भीड़ बढ़ेगी एकदम भारी।।

चीन से आगे हम जाएंगे
विश्व विजेता हम कहलाएंगे।।

घर की फुर्सत रंग लाएंगी
हमको वो दिन दिखलाएंगी।।

कीर्तिमान हम गढ़ जाएंगे
10 करोड़ तो बढ़ जाएंगे।।

घर में लेटे - लेटे ऊबे
सूरज कब निकले कब डूबे।।

दिनचर्या है भंग हमारी
सुनते रहते पलंग पे गारी।।

हारेगा एक दिन कोरोना
बन्द करेंगे बर्तन धोना।।

झाड़ू पोछा करते - करते
जिन्दा है , बस मरते - मरते।।

डाउन होकर लॉक हुए है
हम एकदम से शॉक हुए है।।

बाहर जाने से डरते है
कूलर में पानी भरते है।।

भारत में आकर हारेगा
संयम ही इसको मरेगा।।
---

राधा कृष्ण पद.....

गोधूलि वैला को समय नियारो
सब गोपिन अपने घर बाट निहारो।।

अद्भुत रोचक दृश्य देख
श्याम मन्द मन्द मुस्कायो।।

जब जब तेरी बासुरी सुनाई दे
तब तब दोड़ी चली आये गय्या।।

मोर मुकुट मुख चंदा सोहे

नैननके तीर से घायल करे श्याम
और श्याम ही देख मन मुस्काय।।

गोविन्द तेरे और मेरे इश्क की बस इतनी सी कहानी
जब जब तू बासुरी बजाए
तब तब तेरी बासुरी की धुन सुन
हम दौड़ी चली आये।।

मेरी भोली भाली राधिका रानी
टेढ़े है नन्द कुमार।।

कृष्ण प्रेम की बावरी राधाजी
आस करत कृष्ण चरण की।।

गोकुल की गलिया भली
  जिन पर कृष्ण चरणों की थाप ।
अपने माथे पर लगा कर
हमारे धन्य हुए हैं
भाग।।

वृंदावन की गलियन बोले राधे - राधे नाम।।
कृष्ण प्रेम में डूबी राधा कण -कण बोले श्याम -श्याम


कृष्ण प्रेम में डूबी गोपियां
जोहे बैठ ओटरी पे श्याम की बाट ।
आवे श्याम मुसकाये गोपियाँ
बलाइयाँ लेवे कान्हा की बारम्बार ।।

राधा हुई ऐसी बावरी
करन लागी कृष्ण चरण की आस।।

छलियो मन हर ले गयो,
अब किस पर करे विश्वास,
कृष्ण बिन न लगे कुछ रस,
न भूख लगे न प्यास
तेरी बाट निहारे सखिया प्यारी
केवल कृष्ण मिलन की आस।।

ब्रज की रज बनी राधा रानी
ब्रज है कान्हा को रूप
रोम रोम  में कृष्ण बसे है
वृंदावन को कण-कण है
राधा रानी को रूप

राधा नाम मिश्री सो मिठो,
कृष्ण नाम सो स्वाद
राधा नाम लिया करो
जब जागो श्याम की आस।।

जब यो देह प्राण तजे
यमुना तट हो , वंशी वट हो
और मुँह पर हो राधा नाम।।

कृष्ण राधा की प्रीत ऐसी देखी
राधे जपे कृष्ण - कृष्ण,
कृष्ण जपे राधा नाम
और भक्त कहे राधेश्याम।।


संध्या शर्मा

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अक्षय चौबे


  तुम्हारे एहसास

प्रेम में तुम्हें कुछ ऐसा देना चाहता हूं
जो तुम चाह कर भी लौटा ना सको मुझे
ये खत. खिलौने आसानी से लौटाए जा सकते हैँ 
वह क़िताब
वह ख़त
लौटा सकती हो
वह रास्ता
जिस पर तुम मेरे साथ चली थी

वह ख़याल
क्या तुम लौटा सकती हो
वह नींद
वह ख़्वाब
जो आया था
चुपके से
नहीं लौटा सकती हो तुम
  मेरा  वह प्रेम से भरा स्पर्श
मेरी छाँह
न मेरे बदन की वो  ख़ुशबू
जो तुम्हारे भीतर समा गई थी
  बहुत गहरे अंतर्मन तक
तुम कितनी भी नाराज हो जाओ
  तुम नहीं लौटा सकती
मेरी बेचैनी. मेरा प्यार 
आजीवन मेरी स्मृतियों मे
मेहफ़ूज़ रहेगा

--
  मैं एक नारी हूं
  अपने पापा की प्यारी हूं
ममी की दुलारी हूं
अपने घर की इज़्ज़त हूं
  और हरेक   जिम्मेदारी   पर भारी हूं
  मैं एक भारतीय नारी हूं
किसी के लिए नाजों से पली एक कलि हूं
इज़्ज़त की खातिर हरेक कठिन डगर पर चली हू

नारी हूं
इसलिए सभी सपने , सभी इच्छाएं
अंदर ही दम तोड़ देती हैँ
क्यों की समय आने पर अपने ही छोड़ जाते हैँ
मुझे भी सफलता के शिखर को छूना है
इसलिए मैंने इस कठिन राह को चुना हैँ
पर हर वक्त मेरे सपनों पर
रहती हैँ किसी ना  किसी  की नजर
मैं एक नारी हूं
क्या इसलिए हैँ कठिन डगर
समाज के लिए इतना कुछ करने के बाद
मुझे भोग्या का नाम मिला
समस्याओ का साथ मिला
क्यों की मैं नारी हूं
00000000000000000000000

मौसम


"दो अदृश्य आत्माओं के अस्तित्व पर"

समय की शाख से गिरकर जो पात
कब से रास्ता तकती धूप के आंचल में
देतें हैं स्वीकृति एकाकीपन से एकत्व की

जिस तरह पीड़ा से घृणा करती देह,
  होने देती स्वयं को अग्नि के स्वरूप का भागी
प्रतिकाररहित होकर जो
जल से ताप हों जातीं,

जैसे सोलह की उम्र तक
आँगन दहलीज पर खिलखिलाती,
इठलाती हँसी हो जाती निमज्जित
गहन उदासी में ,
किसी अज्ञात की स्मृतियों का बोझ ले
चंचल नयन की सुबह की किरण
यकायक हों जातीं व्यथा की साँझ में एकाकार

उसी तरह स्वरूप तृष्णा और विक्षोभ के
कुपनुमा पुरुषत्व से ऊपर उठकर मैं,
उसी तरह हम तुम दो अस्तित्व की
अवधारणाओं को तोड़कर जो जाएं एकाकार,
कर विस्मृत दो देह का भान,
दो विलग अकांक्षाओं के पुंज
  फिर अद्वैतवाद को स्वीकारें ,

मेरी दृष्टि में देह होना ही विकृति का होना है
और हो भी तुम पंथ की संकीर्णताओं से बंधी
अभी तक हम मृत्यु के ध्रुव तक भी
अगर एकात्म पथ पर चले
फिर युग दागता रहे गोलियां ,बनाता रहे
कोठिया शताब्दियों की
रूग्णता तोड़ने की सजा के लिए
करता रहे आक्षेप हमारी जन्मगत विषमताओं का

कहो क्या प्रभावी होंगे प्रश्न और आक्षेप
दो अदृश्य आत्माओं के अस्तित्व पर।

2
कविता
           प्रेम और गैंग्रीन
दरअसल
तुम भूल गई थीं ,लेनिन,मार्क्स को पढ़ने के बाद
वारिश शाह  और  मीरा को पढ़ना ,
और अब तक तुमने देखी नहीं
सीरिया और इराक की लड़कियों की
मजहब के आगे गिड़गिड़ाती तस्वीरें ,

पीड़ा में
औऱ कुछ और बुरे होने की सूची में
वाकई प्रेम का न होना
होने से अधिक ऊपर है लेकिन

देह से नफरत करती कोई भी स्त्री
कभी नही चाहती गैंग्रीन जैसी कोई बात
भले ही नाखूनों के चाकू से निकालतीं रहे
  दहशत का मवाद
या की दिए की लौ में जलाती रहे
हथेलियों पर भाग्य रेखाएं

तुमने अंतर्जातीय परिपक्वता के नाम पर
क्या सीखा कि बारिश में मिट्टी की गंध को
अमोनिया की तरह महसूस करना
औऱ हर लिखते हुए हाथ
पूछती हुई आखों को संदिग्ध निगाहों से देखना

मैं इस बात से नहीं बनने देता
अपने भीतर कोई भी धरणा के बिल
कि तुम एक मात्र स्त्री नहीं हो
जिसने प्रेम और गैंग्रीन को एक तरह देखा,

--

कविता...
"हम:एक वीरान घर की तरह"

अच्छे दिनों की कल्पना के साथ
बुरे दिनों से समझौता करते हुए
जी लेते हैं अपना एकाकीपन
नही करते किंतु,
किसी से आग्रह
तुम्हारे स्थान पर एक परछाई के अंश के लिए भी.
वह पल
जिसमें रंगी हैं मन की दीवारें
अपनी विफलताओ के काले रंग से
जी लेते हैं उसे खुद से नफरत करते हुए
जैसे जीतें हैं शरणार्थी
अपने देश से रौंदे हुए किसी दुश्मन देश में.

दुविधाओ की दुर्गंध में मादकता तलाशते हुए,
पा लेते हैं
उन्मादी शत्रु सेना जैसे भाग्य की काल कोठरी में
एक किरण
रोटी
नींद
और हवा के रूप में.

कुछ हो जाने की आशा में
कुछ न हो पाने की घोर निराशा के
आतंक से अनुबंध करते हुए
जी लेते हैं
उन लोगों को
जो पैंतालिस डिग्री के तुलनात्मक कोण से देखते हुए
अस्वीकृत कर देते हैं हमें.
या कि जो उपयोग के बाद फेंक देते हैं हमें
पुराने पाठ्यक्रम की तरह.
               mosam n.

"बीस साल की उम्र में"

भावनाओं की अर्थी पर
फूल फेंकते हुए जाने की
सहानूभूति के सिक्को को ठुकराकर
पीड़ा से संवाद की
किसी मासूम बच्ची की उंगली में उलझे
महीन रेशम के धागे से होती है 20 साल की उम्र

नाकामयाबी में
खुद पर स्याही फेंकने की  हरकत
और अल्हड़ इच्छाओं की हत्या का जुर्म
इसी उम्र में करते हैं हम
राजनीति के काले पर्चों पर
बहस करते हुए होंठ कांपने लगते हैं
और फेंक देतें हैं
  सूची धिक्कार की
शहर में हैं
तो नकारे जाने की संभावनाओं
और गांव में
क्रमबद्ध तुलना की कुंठाओं के बीच
ईयर फोन के दायरे में न चाहकर भी घुटती है
उपमाओं और टिप्पणियों से बचने को
  20 साल की उम्र                     

दरअसल प्रेम की कोई उम्र नहीं होती
का मुहावरा चुभता है सबसे ज्यादा
इसी उम्र में
  काँपती अंगुलियों में
  किसी के स्पर्श की अनुभूति का मर जाना
और स्वयं के लगाए प्रेम पर प्रतिबंध
जेलनुमा कमरे की दीवारों पर उभर आते हैं
अतिमहत्वाकांक्षा के काले दाग

कुछ न बन पाने की व्यथा के बीच
सुलगती है भविष्य की हवाओं में
बुझ रहे कोयले की तरह ,
काँपती उंगुलियों तोड़ती है
रोज व्यथा की रोटी का टुकड़ा ,
और छिपा लेती है मन के किसी कोने में
लौटने का आग्रह करती किसी स्त्री की तस्वीर
जिंदा रहने को
रोज मरती है...
20 साल की उम्र...
                mosam n...


             :मौसम

नाम मौसम राजपुत
पता छनेरा न्यू हरसूद खण्डवा450116 मध्यप्रदेश
ई मेल mousamrajput888@gmail.com
00000000000000000

विशाल श्रीवास्तव


  ( कोरोना वध)
कोरोना वायरस आया लड़ने,
हमारे      हिन्दुस्तान.        से|
इसे  मिटाओ  मिलकर   सब
ये   हमें   मारेगा   जान     से|

घरों से बाहर   मत.  निकलो,
मत    दिखलाओ     नादानी|
सड़कों      पर.   मत     घूमो,
करो   ना   अपनी   मनमानी|

जो जहाँ है,वहीं  यदि  रहता|
देशहित में थोड़ा ,कष्ट सहता|
वो   ही   है ,  सच   में   महान|
उसका मैं करता  हूँ  ,गुणगान|

करता    है     यदि     कोई,
सच्चा भारत माँ  से   प्यार|
जान ले वो एक जगह रहना,
है कोरोना वध का हथियार|

युक्ति   कोरोना     के      वध      की,
कविता के माध्यम से बताता विशाल
एक.    जगह     रहने     से     ही,
आएगा     कोरोना     का     काल|
---
  दु: खी  किसान

अधिक बारिश  होने  से,
हो जाते हैं दु: खी किसान|
सूखा पड जाने से भी,
हो जाते हैं दु: खी किसान|


कीट, रोग लगकर खेतों में,
फसलों का करते है नुकसान|
देख दशा खेतों की ऐसी,
हो जाते हैं दु: खी किसान|


फसल उगाते बड़ी मुश्किल से,
अपनी फसल का रखते है ध्यान|
सस्ता भाव मिलने से फिर,
हो जाते है दु: खी किसान|


कृपा  बनाए रखो किसानों पर,
विनती करता हूँ मैं भगवान|
फसल बरबाद हो जाने से,
हो जाते हैं दु: खी किसान|
---
मेरी विनती|
अविलम्ब  मुझे  दो अवलम्ब,
लगाओ ना तनिक भी देरी|
हाथ जोड मैं  खडा प्रभु,
आकर करो सहायता मेरी|


दुव्य॔सनों  से  दूर  रहूँ ,
अंशु डाल दो ज्ञान की एक|
अविराम बढूँ सच्चाई के पथ पर,
अभिराम गुण आएँ अनेक|
--

शिष्ट बनो
केवल शिक्षा से महानता मिलती नहीं,
महानता   मिलती    है    संस्कार    से|
केवल धनी होने से कोई प्रिय नहीं होता,
प्रिय.  बनता   है   अपने   व्यवहार.  से|

यदि कोई आप के डरता है|
डर से ही सेवा  करता है|
तो उसको मत आप डराओ|
अपनी सेवा मत करवाओ|

मत करो किसी के साथ दुव्य॔वहार|
अपनाओ सब जन शिष्टाचार|
--
  याद करो

अपने देश के वीरों के,
बलिदान को याद करो|
अपने   पूर्वजों   की ,
मेहनत को याद करो|

गुरूओं के विद्या दान को ,
बच्चो तुम याद करो|
माता- पिता के कष्टों को,
संसार के लोगों याद करो|

ईश्वर ने जिसलिए जन्म दिया,
संसार के लोगों याद करो|
जो कर्तव्य तुम्हारा है,
तुम सब उसको याद करो|

कवि:-- विशाल श्रीवास्तव
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सुमन आर्य


  अश्क तेरा

इतने सरल कहाँ हैं रिश्ते
जितना हमने समझा था
जीवन की सबसे कमजोर लङी
सुलझाने में उलझा था ।
अपनी क्षमता से बढकर
पूरा सबका अरमान किया
सबमें नुक्श निकल कर आया
जारी एक फरमान किया ।
पलकों पर अश्रु उभर कर आए
फिर भी होंठ खुशी से गाए
जिनके लिए हर स्वप्न सजाए
होकर भी क्यू हो गये पराए ।
एक हमसफर की ख़ातिर
छूटा माँ- बाबा का प्यार
नजरें बिछाए बैठी थीं पर
मिलता रहा हरदम दुत्कार ।
तुमसे जन्मों- जन्म का नाता है
हदर्दर तुम्हीं से मिलता है
व्यंग्य वाणो से मन  बेधित होता है
पर इन आखों में अश्क तेरा ही
उभरकर आता है ।।



आवेशवतार परशुराम

वैशाख शुक्ल तृतीय को
जिसका अवतरण हुआ
इंदौर जिला मानपुर ग्राम
जन्म हेतु जिसने वरण किया ।
विष्णु के जो आवेशवतार
जामदग्न्य थे कहलाये
भृगु वंश में जन्म लेकर
भारत की धरती  पावन करने आए।
माता रेणुका गुरु थी जिसकी
जमदाग्नी  थे जो कहलाये
अहंकारियो का वध करने
परशु धारण कर आए ।
भीष्म,द्रोण,कर्ण को जिसने
विद्या का वरदान दिया
हैहयवंशो क्षत्रियों का जिसने
इक्कीस वार संघार किया । जिसके कारण गणपति
एक दन्त थे कहलाये
शिवप्रदत परशु धारण कर
परशुराम थे कहलाये ।
पशु- पक्षियों की भाषा भी
वे खूब समझते  थे
खून्खार पशु के संग भी
खेल नए नित रचते थे।
एक दिन पिता के कहने पर
माता का शिरोच्छेद कर डाला
प्रसन्न पिता आग्रह पर
पुनर्जीवित मा की,
स्मृति-विस्मृत होने का वर मांगा।
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मंजू सोनी


मेरे अच्छे वक़्त ने
दुनिया को बताया की
मैं कैसी हूँ…
और अब कोरोना ने
मुझे बताया है की
दुनिया कैसी है…
  जो बनते थे मेरे हमदर्द
आज उनके नकाब उतरते देखे
  बहुत सी अच्छाइयों को लेकर आया है ये कोरोना
बेनकाब किया है कई लोगो को
घर में रहे... सुरक्षित रहे...

मंजू सोनी, शिक्षक, शासकीय माध्यमिक आश्रम शाला, पोंडी, कटनी
[10:37 AM, 4/24/2020] +91 93031 83382: सब कहते है इसे बुरा पर हम तो कहते है अच्छा
कोरोना आया तो हमारे देश की सुरक्षा व्यवस्था का पता चला
कोरोना आया तो डॉ की असलियत सामने आई
मर्ज रहता न था कोई बड़ा इसे बना देते थे नासूर
कर देते थे हमारी जेबे खाली बनाकर हम को मूर्ख
किधर गई सारी बीमारियां क्या गए हम सब उनको भूल

या खा गया कोरोना उनको जिनके लिये लेते थे डॉ हमको लूट
   कोरोना आया हम सब ने अपनो को पहचाना ,

जो रहते थे अपनो से दूर-दूर वो आये करीब ,

संग बैठने लगे संग खाने लगे बच्चों को बड़े पहचानने लगे
  समय समय चिल्लाते थे सब, अब  वही समय कटता  नही

कहने लगे ,क्रियाशीलता ही जीवन है

आलसी भी अब जानने लगे आलसी भी काम की महत्ता पहचानने लगे
    हर बुराई में छुपी रहती है कोई न कोई अच्छाई ,

इसी तरह इस कोरोना नामक बुराई ने कर दी

बहुत सी अच्छाई उजागर जिनसे थे हम सब अनभिज्ञ


         मंजू सोनी, शिक्षक, शासकीय माध्यमिक आश्रम शाला, पोंडी, कटनी
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बजरंगी लाल यादव


आ गए हम कहाँ
छोड़ दी ओ सारी गलियाँ,आ गए हम कहाँ,
चंद पैसों के लिए रह गए अपने जहाँ,
सुबह होते काम है,ना सुकूं,ना आराम है,
फिर भी सिक्को की खनक को मान सुख,हम यहाँ
छोड़ दी ओ सारी गलियाँ,आ गए हम कहाँ,
खुद ही हाथों से बनाना, खुद ही खाना, याद है,
माँ के हाथों का खिलाना रूठना-गुस्सा-मनाना,
माँ का बाहों मे सुलाना,आँचल में उसका छुपाना,
भूल कर ओ सारा ड्रामा,आ गए हम कहाँ,
छोड़ दी ओ सारी गलियाँ,आ गए हम कहाँ,
चंद पैसों के लिए ,रह गए अपने जहाँ|
--
किसान जवान और डाक्टरों को मेंरा नमन
देश विदेश सब जूझ रहे हैं,
  वैश्विक महामारी में,
जब सारी जनता कैद हो चुकी,
अपनी चारदिवारी में,
करता हूँ मैं नमन साथियों,
मुल्क के वर्दीधारी को,
हे स्वास्थ्य कर्मियों नमन तुम्हें है,
जो लगे हैं तीमारदारी में,
अन्त नमन सब कृषक साथियों को,
जो लगे हैं जनता की पालनहारी में|
नाम:- बजरंगी लाल यादव
पता:- दीदारगंज आजमगढ़
उत्तर प्रदेश
--
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दिनेश चन्द्र गहतोड़ी



केविड 19 त्रासदी पर

हमको दीप जलाना है...
तोड़ तमस दीवारों को
ज्योति पुंज झलकना है,
व्यथित... अवसादित...
मनुज मनूँ को,
पुनः जीवंत बनाना है
हमको दीप जलाना है

जो टूट चुके..
असहाय हुए...
व्याधि के अंधे अंधड़ में,
उजड़ गई जिनकी बगिया
विकट विषादी भगदड़ में,
उन अश्रुपूर्ण...
करुण नयनों का,
ह्रदय पुष्प महकाना है
हमको दीप जलाना है,

रही भूल...
जो मानव मन की
निज स्वार्थ सिद्ध करना चाहा,
पीकर स्वयं...
प्राकृत पियूष,
सम्राट शीर्ष बनना चाहा,

हर भूल भुला...
हर ज़ख्म मिटा कर,
लघु अम्ब ह्रदय से...
स्वप्निल स्नेहिल मधुर धरा पर,
पुनः स्नेह बरसाना है
हमको दीप जलाना है
हमको दीप जलाना है,
      
                           
मेरा पता    दिनेश चन्द्र गहतोड़ी
ग्राम  व  तहसील   पाटी (जौलामेल )
जिला  चम्पावत ( उत्तराखंड )  
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आशीष जैन

तू चाहे भूल जावे पर बाप ने बोध से अपनी जिम्मेदारी का
बाप तेरा साईकिल पे चाले
तन्ने चसका रेड फरारी का
बाप मेरा दिनभर करता हैं दहाड़ी
भरी आग में खीचता है फलो की रेहड़ी
मेरी खातिर दाँव लगाया अपना खुन पसीना
पर मन्ने दिल में बसा रखा फोटो  एक छोरी का
बाप तेरा साईकिल पे चाले
तन्ने चसका रेड फरारी का
भरी धूप में जलकर लाता मेरे लिए शैन्ट
खुद घिसा कुर्ता पहनता पर मुझको देता कोट पेन्ट
मेरी खुशियों की ख़ातिर छिड़कता अपनी जान
पर दोस्तों के आगे उसको बाप कहने में नाश होता मेरी इज्जतदारी का
बाप तेरा साईकिल पे चाले
तन्ने चसका रेड फरारी का
उनके शरीर में रह चुके गिने चुने सांस
फिर भी मरकर जीते हैं समझते मुझको आस
पढ लिखकर करेगा मेरा बेटा मेरा नाम रोशन
Facebook, whataap से फुर्सत नहीं मुझको

कब कराऊं इलाज उनकी बीमारी का
बाप तेरा साईकिल पे चाले
तन्ने चसका रेड फरारी का         

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नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: कोरोना विशेष कविताएँ - माह की कविताएँ
कोरोना विशेष कविताएँ - माह की कविताएँ
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रचनाकार
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