हनुमान जयंती पर विशेष.......... पांडित्य नहीं ,विनयशीलता के प्रतीक हैं हनुमान जी ************************* सेवा को ही लक...
हनुमान जयंती पर विशेष..........
पांडित्य नहीं ,विनयशीलता के
प्रतीक हैं हनुमान जी
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सेवा को ही लक्ष्य माना हनुमान जी ने.......
हिन्दू धर्म- ग्रंथों में भगवान श्री राम के सेवक हनुमान जी से बड़ा सेवक कोई और नहीं । मर्यादा पुरषोत्तम भगवान श्री राम की मर्यादा हनुमान जैसे सेवक को पाकर और अधिक गौरवशाली हो गई । वन में भटकते राम - लक्ष्मण से मुलाकात भी बड़े ही मर्यादित आचरण के साथ हुई । ब्राह्मण रूप में प्रभु श्री रामचंद्र जी के समक्ष अपनी सारी शंकाओं को दूर करने के लिए हनुमान जी ने अपनी विद्वता का परिचय संस्कृत में वार्तालाप के साथ दिया । जब हनुमान जी पूर्ण रूप से आश्वस्त हो गए कि दोनों सन्यासी रूप ,वीर युवा और कोई नहीं ,प्रभु श्री राम और लक्ष्मण ही हैं ,जिनकी मित्रता उनके राजा सुग्रीव से कराए हने पर सुग्रीव का भला हो सकता है , तभी उन्होंने राम- लक्ष्मण को अपने बलिष्ठ कंधों पर आसन देकर सुग्रीव तक पहुंचाया । पवन- पुत्र हनुमान के इस कार्य में भी राजा के प्रति सेवा का भाव स्पष्ट झलकता है । पूरी रामायण और राम चरित मानस में जहाँ प्रभु श्री राम के मर्यादित आचरण की कथा हमें मर्यादा का पाठ पढ़ाती है , वहीं हनुमान जी के आते ही रामायण हमें एक सच्चे सेवक के आदर्शों से भी परिचित कराती है । सुग्रीव से भगवान राम की मित्रता से पूर्व और फिर माता सीता की खोज और रावण की सभा में उपदेश देते हनुमान सच्चे सेवक के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं ।
भगवान श्री राम के अनन्य भक्तों में हनुनान जी ही सर्वोपरि गेन । भगवान राम पर वनवास के दौरान आये संकट तथा राम - रावण युद्ध के दौरान लक्ष्मण के घायल होने पर उत्पन्न व्यथा को हनुमान जी ने ही अपने ओआरकर्म और तीक्ष्ण बुद्धि द्वारा दूर कर इस बात का प्रमाण दिया कि उनका जन्म प्रभु सेवा के लिए ही हुआ है। हनुमान जी ने अपना समस्त जीवन अपने प्रभु श्री राम के लिए समर्पित कर दिया । लंका दहन से लेकर शक्ति सम्पन्न राक्षसों का विनाश करने में उन्होंने अपनी बुद्धि का लोहा मनवाया । इतना ही नहीं राम राज्य की व्यवस्था में हनुनान जी का योगदानअविस्मरणीय है । हनुमान जी के शरीर तथा आत्मा में जो अलौकिक शक्तियों का उदय हुआ वह भगवान राम के कृपा पात्र होने का ही सुपरिणाम रह है । हनुमान जी अपनी नाता अंजनी के भी अनन्य आज्ञाकारी पुत्र थे ।शास्त्रों में आयी कथा से ज्ञात होता है कि भगवान सूर्य से दीक्षित होने के बाद एक बार वे मतंग ऋषि के आश्रम में अपनी माता अंजनी के साथ पहुंचे । भगवान सूर्य ही उनके आचार्य भी हैं । उन्होंने ही हनुमान जी का उपनयन संस्कार भी कराया था । अतः माता अंजनी ने हनुमान जी से कहा की आगे की शिक्षा प्राप्त करने हेतु तुम राम नाम का स्मरण करते हुए सूर्य लोक को जाओ । अत्यंत दुर्गम सूर्य लोक के लिए हनुमान जी ने माता की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए प्रस्थान किया ।
हनुमान जी की भक्ति से केवल राम अथवा अयोध्या नगरी ही प्रभावित नहीं थी बल्कि,बड़े-बड़े ऋषि- मुनि भी उनके तेज जा लोग मानते थे । एक बार हनुमान जी की मुलाकात महर्षि भारद्वाज से हुई । जैसे- ,जैसे संवाद का क्रम आगे बढ़ रग था, वैसे- वैसे महर्षि भारद्वाज हनुमान जी के व्यक्तित्व की नवीनता से परिचित होते जा रहे थे । वे अनुभव कर रहे थे कि हनुमान जा व्यक्तित्व अतिशय प्रेरक व प्रभावशाली है । उनके प्रत्येक विचार स्पष्ट ,वाणी में मिठास, भाषा त्रुटिहीन और उनके मुख से कहा गया एक - एक शब्द भावों में समा हने वाला था । उनसे अत्यंत प्रभावित होते हुए मुनि भारद्वाज ने हनुमान जी से कहा - वत्स! तुमने न केवल भगवान सूर्यदेव से शिक्षा पायी है बल्कि उनके तेज को भी प्राप्त किया है । मैं चाहता हूँ कि यहाँ के आचार्य एवम विद्यार्थी तुम्हें सुने और प्रेरित हों । इसे सुनकर हनुमान जी ने बड़ी विनम्रता के साथ कहा - भगवन ! भक्त जा कर्त्तव्य भगवान की महिमा को पप्रकाशित और प्रसारित व प्रतिष्टित करना होता है । इस कर्तव्य को पूरा कर भक्त कृतार्थ और कृत- कृत्य होता है । हनुमान जी की इस विनम्रता पर महर्षि मुग्ध हुए और कहा हनुमान ! तुम्हारी रामभक्ति प्रत्येक युग में भक्तों के लिए आदर्श एवम प्रमाण वनी रहेगी ।
हनुमान जी के हृदय में बसी विनयशीलता भी उन्हें वह स्थान दिलाती है जिसके लिए बड़े- वड़े तपस्वी अपना पूरा जीवन लगा देते हैं । मर्यादा पुरषोत्तम भगवान श्री राम वनवास काल के दौरान संकट में हनुमान जी द्वारा की गई अनूठी सहायता से अभिभूत थे । राजमहल लौटने पर एक दिन उन्होंने हनुमान जी से कहा हे ! हनुमान संकट के समय तुमने जो सहायता की है मैं उसे याद कर गदगद हो उठता हूँ ।सीता जी का पता लगाने से लेकर लंका दहन और रावण जा अंहकार चूर- चूर कर तुमने वह जारी किया है जो किसी अन्य के लिए सहज नहीं था । सजल नयनों से श्री राम ने यह भी कहा कि शक्ति बाण से घायल लक्ष्मण जे प्राण वचाने के लिए यदि तुम संजीवनी बूटी न लाते तो ,न जाने परिबम क्या होता ? इस पर सीता जी ने कहा तीनो लोकों में ऐसी कोई वस्तु नही जो हनुमान जी को उनके उपकारों के बदले में दी जा सके । श्री राम ने पुनः जैसे ही कहा- हनुमान तुम स्वयं बताओ की मैं तुम्हारे अनंत उपकारों के बदले तुम्हे क्या दूं ? जिससे मैं रिन मुक्त हो सकूँ । इतना सुनते ही हनुमान जी ने प्रेम में व्याकुल होकर कहा - भगवन मेरी रक्षा कीजिए , अभिमान रूपी शत्रु कहीं मेरे तमाम सत्कर्मों को नष्ट न कर डाले ? प्रशंसा एक ऐसा दुर्गुण है, जो अभिमान पैदा कर तमाम संचित पुण्यों को नष्ट कर डालता है , कहते- कहते वे श्री राम के चरणों में लेट गए । हनुमान जी की यह विनयशीलता कहीं और देखने नही मिलती ।
हनुमान जी ने बगरी सभा में अपने द्वारा किये गए सारे उपकारों को भी प्रभु एम के मार्गदर्शन के रूप में स्पष्ट कर दिखाया । उन्होंने कहा कि जब वे अशोक वाटिका में माता सीता से वार्तालाप कर रहे थे ,तब उन्हें लंका दहन का थोड़ा भी आभास नही था । वह तो त्रिजटा ने ही अपनी अन्य राक्षसियों से यह कहते हुए मेरा काम आसान कर दिया कि लंका में एक वानर आएगा, और वह लंका जलाकर वापस लौटेगा । इस मार्गदर्शन को भी आपने त्रिजटा के माध्यम से मुझ तक पहुंचाया । दूसरा बड़ा सवाल यह भी था कि आखिर लंका दहन के लिए मैं घी - तेल आदि कहाँ से लाता ? इसे भी आपने लंकापति रावण से पूरा करा दिया और उसने अपने सभासदों को आदेश दे डाला कि वानर की पूंछ में कपड़ा लपेटकर उसे तेल और घी में डुबाकर आग लगा दी जाए । प्रभु जब आओ रावण से भी अपना काम कराया सकते हैं तो मैं तो आपका सेवक हूँ ।इस तरह हनुमान जी ने किसी प्रकार के उपकार का बोझ अपने प्रभु राम पर न होना सिद्ध कर दिखाया ।
डॉ सूर्यकांत मिश्रा
न्यू खंडेलवाल कॉलोनी, ममर नगर
प्रिंसेस प्लैटिनम, हाउस नंबर 05
राजनांदगाँव(छ. ग.)
बहुत बढ़िया
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