पुस्तक-समीक्षा व्यंग्य-संग्रह: एक दीवार सौ अफ़साने कृतिकार: डॉ. स्नेहलता पाठक प्रकाशक: नीरज बुक सेंटर, दिल्ली-110092 मूल्य: 350.00 रुपये व्यं...
पुस्तक-समीक्षा
व्यंग्य-संग्रह: एक दीवार सौ अफ़साने
कृतिकार: डॉ. स्नेहलता पाठक
प्रकाशक: नीरज बुक सेंटर, दिल्ली-110092
मूल्य: 350.00 रुपये
व्यंग्य की किसी सशक्त पुस्तक पर कुछ लिखने का अवसर मिले तो हार्दिक प्रसन्नता होती है। और यदि यह पुस्तक डॉ. स्नेहलता पाठक जैसी विदुषी की हो जो पिछले 40 वर्षों से अपने व्यंग्य-लेखन को समाज का दर्पण बनाये हुए हैं तो मन आह्लादित हो जाता है। व्यंग्य-सृजन के श्रीमती स्नेहलता जी के योगदान को देखते हुए निःसंदेह वे देश की महिला व्यंग्यकारों में शीर्ष पर स्थापित हैं। कोई भी रचनाकार इस स्थिति को अनायास ही नहीं पा लेता है। इसके पीछे उसके समर्पण, लगन, धैर्य, अध्ययन और श्रमसाध्य सृजन का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इस लिहाज से श्रीमती स्नेहलता जी ने न केवल खुद को सिद्ध किया है बल्कि अब वे और उनकी रचनाएं नए व्यंग्य लेखक-लेखिकाओं के लिए एक प्रेरणास्रोत और स्थापित मानदंड हैं। मैं हमेशा व्यंग्य के नैसर्गिक संस्कारों की बात करता हूं। मेरा स्पष्ट मानना है कि जब तक किसी भी विधा के लेखन का नैसर्गिक सॉफ़्टवेयर लेखक के पास नहीं होगा, वह लेखक नहीं बन सकता। व्यंग्य के संदर्भ में ये सॉफरवेयर हैं ईमानदारी, नैतिकता, दायित्वबोध, सूक्ष्म दृष्टि, विसंगतियों पर पकड़, उनकी तथ्यपरक विश्लेषण क्षमता और हास्य-वृत्ति। ये ऐसे गुण हैं जिन्हें हम अभ्यास के द्वारा प्राप्त नहीं कर सकते। अलबत्ता व्यंग्य के टूल्स का प्रयोग, भाषा का कलेवर, लेखन के अन्य कलापक्षों का अभ्यास कर इनमें महारत हासिल की जा सकती है। इन्हें मैं लेखन का हार्डवेयर समझता हूं। श्रीमती स्नेहलता पाठक जी आज इसीलिए इस मुकाम पर पहुंची हैं क्योंकि उन्होंने सतत अध्ययन और अथक प्रयासों के द्वारा अपने नैसर्गिक गुणों एवं लेखन कौशल को समायोजित किया है।
लेखन वास्तव में देश, काल और परिस्थितियों के मद्देनजर व्यक्ति और समाज के अध्ययन से जन्मता है। लेखन का निर्झर तभी आकार लेता है जब व्यक्ति और समाज के लिए इंसानियत के पैमाने पर स्थापित व्यवहार और नैतिक मानदंडों की कसौटी पर व्यक्ति और समाज का आकलन किया जाता है। यहां मैं एक अपना व्यक्तिगत विचार व्यक्त करना चाहूंगा कि यदि व्यक्ति एवं समाज का व्यवहार स्थापित मानदंडों के अनुसार हो तो शायद समाज को दर्पण दिखाने की ज़रूरत ही न पड़े। ऐसे में सिर्फ वैसा ही साहित्य रचा जाय जैसा भक्तिकाल और रीतिकाल में रचा गया था। पर समाज को दर्पण दिखाने की ज़रूरत इसलिए पड़ी क्यों कि व्यक्ति और समाज के आचरण में पतन होने लगा, नैतिकताओं का ह्रास होने लगा। विसंगतियों को उजागर करने ही जरूरत महसूस हुई ताकि इसके प्रति लोगों को सचेत किया जा सके, उनमें चेतना जगाई जा सके। इस तरह विसंगतियां, आडंबर, अंधविश्वास, भ्रष्टाचार, सामाजिक भ्रांतियां और मानव प्रवित्तियां व्यंग्य और व्यंग्य के जागरणकाल का जनक बने।हमारे व्यंग्य पुरोधाओं ने हमें व्यंग्य की एक विरासत सौंपी जिसे आगे बढ़ाने के लिए कई व्यंग्यकारों ने खुद को व्यंग्य-लेखन के प्रति समर्पित कर दिया। श्रीमती स्नेहलता जी उसी पीढ़ी की महत्वपूर्ण महिला लेखिका हैं जिन्होंने अपने रचनात्मक योगदान से व्यंग्य-साहित्य को समृद्ध किया है।
पूर्णकालिक रूप से व्यंग-लेखन को समर्पित होने से पहले स्नेहलता जी ने गहन अध्ययन और मनन कर अपनी बौद्धिक चेतना को सम्पन्न किया है। आप शिक्षण कार्य से सम्बद्ध रही हैं और अपने सजसकीय महाविद्यालय, रायपुर में हिंदी के प्रोफेसर से लेकर विभागाध्यक्ष तक की गुरुतर ज़िम्मेदारी का निर्वहन किया है। गुरु होने की गरिमा व्यक्ति को अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति चेतना-सम्पन्न बनाती है। साथ ही साथ उसकी चिंतनशीलता और वैचारिक प्रतिबद्धता को भी प्रौढ़ता प्रदान करती है। स्नेहलता जी की जिम्मेदारियों के कई आयाम थे। घर-परिवार की जिम्मेदारियां, बच्चों की परवरिश, रिश्तेदारी के चक्रव्यूह, शिक्षण-संस्थान का समयबद्ध कार्य निष्पादन, अध्ययन, चिंतन-मनन इत्यादि। उनकी ज़िम्मेदारियाँ जीवन के कई मोर्चों पर तैनात थीं। अपने समाज में एक सामान्य गृहणी का जीवन ही बहुत चुनौती भरा होता है। ऊपर से यदि नौकरी का आयाम जुड़ जाय तो चुनौतियां कई गुना बढ़ जाती हैं। अपने बहुआयामी व्यक्तित्व और प्रतिभा के बल पर श्रीमती स्नेहलता जी ने हर मोर्चे पर सफलता प्राप्त की। अपने साहस और सूझ-बूझ के बल पर उन्होंने चुनौतियों को अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया। और संभवतः यह उनका जोखिमों से जूझने का साहस और सरोकारों के प्रति प्रतिबद्धता ही थी जिसके कारण उन्होंने व्यंग्य-विधा को लेखन का माध्यम बनाया।
व्यंग्य-लेखन के अपने जोखिम हैं और समझौतों की कहीं कोई गुंजाइश नहीं होती है। सफल डॉक्टर बीमारियों से समझौता नहीं करता और आवश्यकतानुसार चीड़-फाड़ से नहीं कतराता है। व्यंग्यकार भी समाज का डॉक्टर होता है और यदि वह सामाजिक बुराइयों को उजागर करता है तो खतरा मोल लेता है। स्नेहलता जी कविता-विधा को चुन सकती थीं जिसमें आधुनिक एब्स्ट्रैक्टनेस की सरलता है या कथासाहित्य को सृजन का माध्यम बना सकती थीं जिसमें पर्याप्त स्वायत्तता है। सरल मार्ग छोड़कर उन्होंने तलवार की धार पर चलकर मुकम्मल होने वाले व्यंग्य-लेखन की चुनौती भारी विधा चुनी, इसके लिए में व्यक्तिगत रूप से उनका प्रशंसक हूँ। स्नेहलता जी के अब तक सात व्यंग्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें से "सच बोले कौआ काटे" और "व्यंग्यकार का वसीयतनामा" संग्रह की रचनाएं मैंने पढ़ी हैं। प्रस्तुत संग्रह "एक दीवार सौ अफ़साने" इनका आठवां व्यंग्य-संग्रह है। इसमें इनकी 31 रचनाएं शामिल हैं। बहुत सतर्कतापूर्वक किये गए विषयों का चुनाव और अनुशासनात्मक भाषा इनके लेखन की मुख्य विशेषताएं होती हैं। लेखनशैली में स्नेहलता जी प्रयोगधर्मिता की पक्षधर हैं पर अनावश्यक चमत्कारिक प्रतीकों से अपनी रचनाओं को बोझिल नहीं बनाती हैं। कुल मिलाकर इनकी रचनाएं सहज, सरल होकर भी विसंगतियों पर गहन प्रहार करती हैं।
अपनी पहली ही रचना 'आओ झाँसेबाजी खेलें' में यह बात बहुत रुचिकर ढंग से स्थापित होती है कि झाँसेबाजी जैसी विसंगति को कैसे हमने कला के स्तर तक पहुंचा दिया है। 'अजी सुनते हो' में पति-पत्नी के बीच अहमियत का वर्ग संघर्ष है तो 'अथ गंगू बाई व्रत-कथा-महात्म्य' द्वारा यह बात स्थापित होती है कि समाज मे अंध-विश्वास की जड़ें गहरी हैं। रचना 'बोलना ज़रा संभल के' पढ़कर बहुत करुणा उभरती है कि कैसे गरीब के द्वारा सार्वजनिक रूप से पानी मांगने को उसका अपराध समझ लिया जाता है। स्नेहलता जी छोटे-छोटे महत्वपूर्ण सामाजिक विषयों को उठाती हैं चाहे वह इस हाथ ले उस हाथ दे की अवांछित परंपरा हो, स्वार्थ-सिद्धि हेतु चरण पूजन के माध्यम से व्यक्ति पूजा की चापलूसी हो, सत्ता-पक्ष की जनकल्याण योजनाओं के कार्यान्वयन का विश्लेषण हो या संग्रह की प्रतिनिधि रचना 'एक दीवार सौ अफसाने' में एक दीवार के असंख्य आयामों में दखल की विवेचना हो। 'एक मुलाकत शूर्पणखा से' में शूर्पणखा के माध्यम से पौराणिक पात्रों का आज के संदर्भ में मानकीकरण किया गया है और नए तथ्यों को उजागर किया गया है। साहित्यकार को साहित्य के प्रसाद की ललक और पुरस्कार के बनते-विगड़ते समीकरण, होली के माध्यम से पत्नी और प्रेमिका की लालित्यपूर्ण समीक्षा, बसंत का प्रतीक लेकर मध्यमवर्गीय की व्यथा का निरूपण भी अन्य कुछ रचनाओं में प्रभावी ढंग से उभरता है।
डॉ. स्नेहलता पाठक जी की रचनाओं में शैलीगत पारंपरिक विशेषताएं दिखती हैं। निबंध-शैली का व्यावहारिक समदर्शी विश्लेषण का निर्वाह भी दिखता है और कथा-शैली में पौराणिक मिथकीय प्रतीकों और पात्रों का समावेश भी। पौराणिक संदर्भों को आज के परिवेश में सहजता से पिरो देना इनके लेखन की विशेषता है। हमारी सभ्यता और संस्कृति से खिलवाड़ करती हमारी ढुलमुल शिक्षा प्रणाली, कौमी एकता के नाम पर आयोजनों की आडम्बरयुक्त खानापूरी, देश में परिवर्तन की हवा में नैतिकताओं का विघटन और आहत होती देश-काल-परिस्थितियां, इंसानियत के ब्रांड को धराशायी करती जूतों की ब्रांड-कांशशनेन्स और राजनैतिक जूतमपैजार, सफ़ेद बालों का सहारा लेकर सफ़ेदपोश बूढ़ों का आखेटक चरित्र इत्यादि पर बड़ी सशक्त रचनाएं हैं इस संग्रह में। 'पांचाली भू लोक में' रचना जहां समाज में नारी की अस्मिता का जायज़ा लेती है वहीं 'रिसर्च ऑन गोबर' विश्वविद्यालयों में हो रहे शोध-प्रबंधों से जुड़ी विसंगतियों की बड़ी बारीकी से छिद्रान्वेषण करती है। 'सारंगा तेरी याद में...' नौकरानी बिना सब सून और जीवन की निस्सारता का लेखा-जोखा है तो 'सितंबर की रानी हिंदी' में हिंदी को समृद्ध करने के बहाने खुद को समृद्ध करने की होड़ और हिंदी की नाटक-नौटंकी का सफल चित्रण है।
डॉ. स्नेहलता पाठक व्यंग्य की उर्वरा भूमि छतीसगढ़ से हैं जहां स्व. लतीफ़ घोंघी और स्व. विनोद शंकर शुक्ल जैसे व्यंग्यकारों का वर्चस्व रहा है। इन्होंने अपने वरिष्ठों और समकालीनों से बहुत कुछ सीखा है। इन्होंने अपनी व्यस्तताओं के बावजूद आत्मानुशासन और बेहतर समय प्रबंधन के द्वारा बहुत लिखा है, गुणवत्ता से कम्प्रोमाइज किये बिना। इनकी लालित्यपूर्ण भाषा में परंपरागत सौंदर्य और अनुशासन है तो लेखन शैली के स्तर पर इनकी रचनाओं में पर्याप्त प्रयोगवाद नज़र आता है। आप पारंपरिक विषयों के साथ-साथ सामयिक विषयों पर भी बराबर कलम चलाती हैं। संग्रह की कुछ रचनाएं हैं 'सुनते थे बहुत शोर कुत्ते की वफ़ादारी का', 'थूकिये मगर संभल के', 'त्रासदी व्यंग्य लेखिका के पति की' और 'उमड़ता प्यार' इत्यादि जो पारंपरिक विषय हैं जिनपर विभिन्न विसंगतियों के संदर्भ में लगभग हर व्यंग्यकार ने लिखा है या लिखना चाहता है। दूसरी ओर 'तहलका-ए-'मी-टू'', 'ठेले पर वैलेंटाइन डे' या 'तलाश आत्म मोक्ष की' जैसी रचनाएं ज्वलंत सामाजिक समस्यायों की ओर इंगित करती हैं और इन पर स्नेहलता जी ने बड़े दायित्व के साथ लिखा है। खासकर ' तलाश आत्म मोक्ष की' बहुत हृदयस्पर्शी रचना बन पड़ी है।
संग्रह की तीन रचनाएं विशिष्ट हैं और इन्हें क्रम में पहले रखा जा सकता था। इनमें 'तुम सूरज, हम सूरजमुखी', रचना में हमारे देश की समग्र राजनैतिक विरासत का यथास्थिति उल्लेख किया गया है और यह बात स्थापित होती है कि इस देश मे राजनीति के कुचक्र ने व्यक्ति और समाज की सोच को भी भ्रष्ट कर दिया है। 'वह अब न झुकेगी' रचना में हमारे समाज में नारी की पराधीन स्थिति करुणा उत्पन्न करती है। ऐसे में वह अपने अस्तित्व, अपने अधिकारों के प्रति सजग होती है तो पुरुष प्रधान समाज को और चुभने लगती है। इसी तरह 'ये कहाँ आ गए हम' में आदर्श पारिवारिक संस्कारों और अवधारणाओं के पतन का अध्ययन करते हुए विकासवाद और बाज़ारवाद की भूमिका को सामूहिक पारिवारिक परंपरा के लिए घातक निरूपित किया गया है। कुल मिलाकर प्रस्तुत संग्रह की रचनाएं समाज को आइना दिखाने में समर्थ हैं। इन रचनाओं की सम्प्रेषणीयता आश्वस्त करती है कि ये रचनाएं पाठकों से जुड़कर उनकी चेतना को झकझोरेंगी। आज व्यंग्य में इस बात की भी जरूरत है कि विसंगतियों के सुधार और समस्याओं के निराकरण की भी बात की जाए क्योंकि आज के व्यंग्यकार का दायित्व बहुत बड़ा है। आशा है डॉ. स्नेहलता पाठक जी अपनी आगामी रचनाओं में इस बात का ख्याल रखेंगी। एक बात और कहना चाहूंगा। रचनाओं के शीर्षक पर विशेष ध्यान देना चाहिए। मैं खुद अपनी रचनाओं में इस बात का खास ख्याल रखता हूँ।
आशा है डॉ. स्नेहलता पाठक जी का प्रस्तुत व्यंग्य-संग्रह पाठक-वर्ग का स्नेह पायेगा। शुभकामनाओं सहित-
श्रवण कुमार उर्मलिया
19/207 शिवम खंड, वसुंधरा,
गाज़ियाबाद-201012
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