मेरी पड़ोसन के कुत्ते कुछ दिन पूर्व समाचार-पत्रों में विमान की सीढ़ियों से उतरते एक, दो, तीन, चार, पांच प्यारे-प्यारे, छोटे-छोटे कुत्तों को द...
मेरी पड़ोसन के कुत्ते
कुछ दिन पूर्व समाचार-पत्रों में विमान की सीढ़ियों से उतरते एक, दो, तीन, चार, पांच प्यारे-प्यारे,
छोटे-छोटे कुत्तों को देखा तो मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि ये कुत्ते आखि़र घुस कैसे गये विमान में ? विमानों के भी कुछ कायदे-कानून हैं । मैंने फटाफट उस समाचार को पढ़ डाला ।
आप भी पढ़िए...ये कोई साधारण कुत्ते नहीं, इंगलैंड की महारानी के कुत्ते हैं, जिन्हें वे यात्रा के दौरान कहीं भी जाते समय साथ ले जाना नहीं भूलतीं । तस्वीर में कभी हम उन प्यार-े प्यारे कुत्तों को झांक रहे थे, तो कभी विमान की उन भाग्यशाली सीढ़ियों को, जिन पर कुत्तों के संग महारानी ने भी पांव धरे थे । हमने एक लम्बी सांस ली और मुंह से यकायक निकल गया...हम से महारानी के कुत्ते भले ।
सचमुच कितनी विडम्बना है कि हमने तो आज तक विमान तल तक नहीं देखा, हवाई जहाजों की सैर तो दूर मगर महारानी हैं कि कुत्तों को साथ लिए एक से दूसरे देश घूम रही हैं । उनके आराम व देखभाल के लिए कुछ लोगों का दल भी साथ-साथ रहता है । इसीलिए सोचता हूं हमसे तो महारानी के कुत्ते भी भले और कुत्तों की देखभाल करने वाले नौकर भी ।
हमने अपने घर में कभी कुत्ता नहीं पाला शायद इसलिए कि बहुत वर्ष पहले हमारे पड़ोसी के कुत्ते ने मेरे बेटे को काट लिया था और बाद में टीके लगवाने पर हजारों रुपए खर्च हो गए, जो टैंशन मिली वह अलग ।
एक दिन हमारे इलाके की एक औरत मैडम निशा अपने कुत्ते को प्रातः काल में नित्य कर्म निवृत्ति के लिए, साथ लेकर टहल रही थी तो तुरन्त मेरे बेटे विशाल ने, जो मेरे साथ ही सैर के मैदान में था, कह डाला..‘पापा इसी कुत्ते ने कल हमारे घर के गेट पर पेशाब किया था...’ मैंने तुरन्त बेटे को समझाया...‘चुप...धीरे बोल..आंटी ने सुन लिया तो नाराज़ हो जाएंगी...’ ‘क्यों पापा...?’ बेटे ने प्रश्न दागा ।
मैंने कहा...‘इसलिए कि तुमने उनके कुत्ते को कुत्ता कहा है...मैडम निशा कभी बर्दाश्त नहीं करेंगी कि उनके कुत्ते को कोई कुत्ता कह दे...हां...उन्हें जो मर्जी कह दो...बेटे...जिस कुत्ते को पाल रही हैं...वह साधारण घर का कुत्ता नहीं है...इसलिए उसका हक है कि वह जहां चाहे पेशाब करे या...’
हम टहलने लगते हैं तो हमारे कान में मैडम निशा की आवाज़ पड़ती है जो आधे घंटे से सड़क के किनारे-किनारे अपने प्रिय कुत्ते के साथ टहल रही हैं । जल्दी करो स्पोर्टी...नाऊ डू इट प्जीज़... । मैडम निशा की बात पर कुत्ता तो ध्यान नहीं दे रहा मगर मेरा बेटा हंस पड़ता है । मुझे उसे फिर डांटना पड़ता है...‘हंसो मत बेटे यह तो मजबूरी है उसकी...’
मगर आधे घंटे से आंटी मिन्नतें कर रही है और कुत्ता है कि कुछ करता ही नहीं...कहते-कहते वह मुझे कहता है...‘पापा...! हम भी एक कुत्ता रख लें...’
‘नहीं बेटे...हमसे यह सब कुछ नहीं होगा...’ मेरे समझाने पर वह कारण पूछने लगता है । आखिर बच्चा है न । मैं उसे फिर कहता हूं...‘बेटे...न तो हमसे कुत्तों की शोशेबाजी होगी...और...न ही ड्रामेबाजी...कुत्तों को इंसानों से बढ़िया ट्रीटमैंट देना हमारे बस की बात नहीं है...’ विशाल चुप हो जाता है ।
मैडम निशा के निकट से गुज़रते हुए विशाल उसे बुला लेता है...‘आंटी...गुड मार्निंग...सुमित कैसे हैं...?’ आंटी को शायद यह अच्छा नहीं लगा । मुझे लगा कि मैडम निशा से अगर उनके बेटे की बजाय उनके कुत्ते का हाल पूछ लिया जाता तो वह अधिक प्रसन्न होतीं...
फिर भी वह कह देती हैं...‘सुमित तो जल्दी उठता ही नहीं...उसे कई बार कहती हूं...स्पोर्टी को घुमाने के बहाने तुम भी सैर कर लिया करो मगर...बच्चे तो बच्चे हैं...मर्जी करते हैं...’ वह फिर स्पोर्टी को ताकने लगती हैं और कह देती हैं...‘नाऊ डू इट प्लीज़...बहुत देर हो गई है भई...’
श्रीमती निशा कही क्यों, अनेक निशाएं हैं जो जब घर से गाड़ी में निकलती हैं तो उनके संग-संग गाड़ी की प्रायः अगली सीट पर उनके कुत्ते विराजमान रहते हैं । हमारे मित्र डॉक्टर आलोक हैं, जिनकी श्रीमती जी को भी कुत्ते पालने का शौक है । एक दिन मैं अपनी मैडम के साथ उनके घर गया तो उनकी श्रीमती जी कहने लगीं...‘भाई साहब...!...हमारा सीज़र...डॉग शो में भाग लेने जा रहा है...आजकल उसकी तैयारियों में जुटी हूं...’ वह अलमारी खोलकर एक सुनहरी जंजीर हमें दिखाती हैं ।
‘यह मैंने डॉग शो के लिए मंगवाई है...’ हमारी मैडम को साथ लेकर वो पिछले कमरे में चली जाती हैं और कहती हैं...
‘वन्दना जी...आपको भी अब हमारी सोसाइटी में शामिल हो ही जाना चाहिए...डॉग तो अब स्टेटस सिम्बल हैं और इस सिम्बल के साथ घूमने में मज़ा भी आता है...’
वन्दना उन्हें बता नहीं पा रही थी कि उन्हें बचपन से ही कुत्तों से नफ़रत है । मैडैम निशा हमारी श्रीमती को उसी कमरे में बनी एक अल्मारी में पड़े विभिन्न प्रकार के देशी-विदेशी शेम्पुओं की शीशियों और साबुनों को दिखाती हुई कहती हैं...‘इंसानों से भी ज़्यादा केयर करनी पड़ती है...इनकी...’
हम लौट पड़ते हैं तो हमारे संग-संग जिम्मी नाम का एक कुत्ता भी चलने लगता है जो हमारे पड़ोसी पंडित जी ने अपने ससुराल से लाकर बड़े प्यार से पाला था । जिम्मी आजकल पंडित जी से प्यार कम करता है और मुझसे ज़्यादा । चलते-चलते मैं सोचने लगता हूं...कुत्ते पालना हमारे बस की बात नहीं है, आखिर मैं कोई भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॅा. शंकर दयाल शर्मा का बेटा थोड़े हूं, जिनके पालतू कुत्तों की कीमत ही पांच-पांच लाख रुपए थी । मैं तो ज़मीन से जुड़ा एक अदना-सा व्यक्ति हूं जिसके पास न तो कुत्तों को खिलाने के खुराक है, न विदेशी शैम्पू और साबुन और न ही इंगलैंड की महारानी-सा हूं, जिसके पास अरबों पौंड की सम्पत्ति है । मेरा और मेरी श्रीमती जी की इन कुत्तों से दूर से ही तौबा ।
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