बातचीत: ( हाल ही में प्रख्यात उपन्यासकार प्रबोध कुमार गोविल ने पिछली सदी के सातवें दशक की लोकप्रिय अभिनेत्री साधना की जीवनी "ज़बाने यार...
बातचीत:
( हाल ही में प्रख्यात उपन्यासकार प्रबोध कुमार गोविल ने पिछली सदी के सातवें दशक की लोकप्रिय अभिनेत्री साधना की जीवनी "ज़बाने यार मन तुर्की" शीर्षक से लिखी है जो ऑनलाइन ईबुक के रूप में तो जारी हो चुकी है, अब शीघ्र ही प्रिंट कॉपी के रूप में भी प्रकाशित हो रही है। इस संदर्भ में युवा रचनाकार हिमांशु जोनवाल ने उनसे बातचीत की है, जो प्रस्तुत है।)
हिमांशु : प्रबोध सर, आपसे पहला सवाल तो यही बनता है कि फ़िल्म जगत एक से एक प्रभावशाली, पुरस्कृत और चर्चित लोगों से भरा पड़ा है। ऐसे में गुज़रे ज़माने की मुख्य धारा की एक्ट्रेस साधना जी का ही चुनाव आपने किस आधार पर किया?
प्रबोध कुमार गोविल :: इसके दो कारण हैं। मुझे ऐसा लगा कि किसी ऐसे व्यक्ति पर लिखना चाहिए जिसे मैंने अपने जीवन के बुनियादी, अनछुए दिनों में देखा हो। 1965 से 1971 तक मेरी "टीनएज" थी। अर्थात दुनिया को समझने- देखने की जिज्ञासा भरी उम्र। हाल ही में जब मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा था तो मैंने पाया कि मेरी टीनएज के दौरान फ़िल्म वर्ल्ड पर साधना का ही राज था। इन छः सालों में उनकी "वक़्त, आरज़ू, मेरा साया, इंतकाम,एक फूल दो माली, गबन" जैसी फ़िल्में आईं। इससे ज़रा पहले "मेरे मेहबूब, राजकुमार, वो कौन थी" जैसी सफल फ़िल्मों से वो अपने दौर की सबसे ज़्यादा मेहनताना पाने वाली हीरोइन बन चुकी थीं।
हिमांशु : अगर आप फ़िल्म अभिनेत्री पर ही लिखना चाहते थे तो उस दौर में और कई लोकप्रिय हीरोइनें भी तो रही होंगी? फ़िर आपका ध्यान उन पर नहीं गया? जैसे - वैजयंती माला, वहीदा रहमान आदि।
प्रबोध कुमार गोविल :: हां, ज़रूर थीं। लेकिन मैंने कहा न कि मैंने साधना का चुनाव दो कारणों से किया। तो दूसरा कारण ये था कि साधना सबसे अलग थीं। अगर बाक़ी बड़ी एक्ट्रेसेज की बात करें, तो तब तक नरगिस और मधुबाला शिखर छू लेने के बाद अब उतार पर थीं। मीना कुमारी, नूतन ख़ास तरह की भूमिकाओं के लिए ही उपयुक्त मानी जा रही थीं। आशा पारेख, शर्मिला टैगोर तब चढ़ते हुए सूरज की तरह थीं, पर उनकी गिनती साधना के बाद ही होती थी। वैजयंती माला ज़रूर उनके समकक्ष थीं, किन्तु यहां भी एक बड़ा अंतर था। वैजयंती माला को उनके हीरो प्रमोट करते थे। राजकपूर, दिलीप कुमार वैजयंती माला के बड़े जोड़ीदार थे। उधर साधना अपनी पहली ही फिल्म से उसके डायरेक्टर से प्रेम कर बैठी थीं जिसके कारण उनका कोई हीरो उन्हें प्रमोट करना तो दूर, उनकी शादी तक में शिरकत करने नहीं आया। साधना जो थीं, "सेल्फ मेड" थीं। उनके पैरेंट्स की मर्ज़ी की शादी न होने के कारण साधना के माता - पिता तक उनका साथ नहीं दे रहे थे। फ़िर भी उनमें एक विश्वास भरा अस्तित्व रहता था। ये बात मुझे खींचती थी।
हिमांशु : साधना की कहानी को आप डेढ़ सौ पृष्ठों में ले गए जबकि उन्होंने कुल दो दर्जन फ़िल्मों में काम किया? कैसे सर?
प्रबोध कुमार गोविल :: साधना का शुरुआती स्पार्क जिन लोगों ने देखा है वो जानते हैं कि अगर साधना को बीमारी ने नहीं रोका होता तो उनका कैरियर बहुत लंबा चलता क्योंकि वो 14 साल की उम्र में पर्दे पर अा गईं और 19 साल की उम्र में स्टार एक्ट्रेस बन गईं। कुल 25 साल की उम्र में उन्हें थायरॉयड जैसी बीमारी ने घेर लिया जिसके इलाज ने उन्हें लंबे समय तक फ़िल्मों से दूर कर दिया।
हिमांशु : लेकिन बीमारी का इलाज तो अमेरिका में लेकर वो वापस आ गई थीं। उसके बाद उनकी फ़िल्में भी आईं।
प्रबोध कुमार गोविल :: बिल्कुल, फ़िल्में आईं भी और सफल भी हुईं किन्तु नायिकाओं के लिए उनका चेहरा- मोहरा अहम होता है, साधना के चेहरे और आंखों पर बीमारी ने असर डाल दिया था। इसलिए दो फ़िल्में सफल हो जाने के बावजूद लोग इस बात से घबराते थे कि कहीं उनकी बीमारी फ़िर से सिर उठा कर उनकी फ़िल्म को अधर में न लटका दे।
हिमांशु : सर, अगर साधना की अभिनय क्षमता इतनी सिद्ध हो चुकी थी तो वो बाद में बहन, भाभी, मां आदि की सहायक भूमिकाएं भी तो करती रह सकती थीं, जैसे उनकी अन्य समकालीन आशा पारेख, शर्मिला टैगोर, वहीदा रहमान, नंदा, नूतन, तनुजा, माला सिन्हा आदि करती रहीं। इससे वे फिल्मी दुनिया में बनी रह सकती थीं।
प्रबोध कुमार गोविल :: मुझे लगता है, यही बात तो उन्हें सबसे अलग करती है। वो दर्शकों के दिल में अपने सौन्दर्य, फ़ैशन सेंस और नाटकीयता से अपनी जगह बनाना चाहती थीं, अपनी विवशता से नहीं। उन्होंने ऐसा समय देखा था जब उनके हेयर स्टाइल को पूरा देश "साधना कट" बालों के नाम से अपनाने लगा था। उनका पहना गया चूड़ीदार पायजामा और कुर्ता सारे देश में लड़कियों का पसंदीदा परिधान बन गया था।
हां, ज़िन्दगी के एक मुकाम पर वो इसके लिए भी तैयार हुई थीं कि फ़िल्मों में अपनी वापसी करें, लेकिन तब नसीब को शायद ये मंज़ूर नहीं हुआ। वो फ़िल्म शुरू ही नहीं हो सकी।
हिमांशु : हमने सुना है कि उनकी वापसी के इस प्रोजेक्ट से मुंबई में रहने के दौरान आप भी जुड़े थे। पूरी बात बताइए सर।
प्रबोध कुमार गोविल :: मैं इतना ही जुड़ा था कि फ़िल्म पत्रिका "माधुरी" में छपी मेरी एक कहानी को लेकर अभिनेता- निर्माता राजेन्द्र कुमार ने अपनी एक फ़िल्म "निस्बत" लिखने का काम मुझे दिया था, जिसमें कुमार गौरव, माधुरी दीक्षित के साथ राजेन्द्र कुमार और साधना के लिए भी एक स्पेशल अपीयरेंस का कैमियो रोल लिखवाया गया था। पर राजेन्द्र कुमार की बीमारी के कारण ये फिल्म नहीं बनी, और बाद में वो भी दुनिया से चले गए।
हिमांशु : साधना का राजकपूर के साथ भी एक बार विवाद हो गया था जिसके कारण वो बीच में शूटिंग छोड़ कर सेट से चले गए थे। वो क्या बात थी सर?
प्रबोध कुमार गोविल :: सब यहीं पूछ लेंगे तो फ़िर किताब कौन पढ़ेगा? केवल इतना ही कहूंगा कि बबीता के रणधीर कपूर के साथ रिश्ते को लेकर ये तीखी बात हुई थी, पर इस बात को मुझसे सुनने की जगह किताब में ही पढ़िए क्यों कि ये प्रकरण साधना के "स्त्री विमर्श" को तो उजागर करता ही है, स्त्रियों के प्रति राजकपूर के दृष्टिकोण को भी बेबाकी से सामने रखता है। बबीता साधना की चचेरी बहन थीं।
सेट पर हुई इस बात ने उनके राजकपूर के साथ रिश्तों में खटास भर दी जिसका खामियाजा बाद में साधना ने भुगता। कई फ़िल्मों में बाद में हमने साधना की जगह अन्य अभिनेत्रियों को देखा। साधना ने खुद भी कुछ फ़िल्में छोड़ी। कुछ फ़िल्मों के लिए साधना ने लिया गया एडवांस तक लौटाया।
हिमांशु : इतनी सफल फ़िल्में करने के बाद भी साधना को कभी फ़िल्म फेयर पुरस्कार नहीं मिला, जबकि वो इसके लिए दो बार नॉमिनेट हुईं, क्या इसमें भी कोई विवाद था? क्या कोई लॉबिंग इसके पीछे थी?
प्रबोध कुमार गोविल :: संवेदनशील बातों को आधा - अधूरा नहीं सुनना चाहिए, किताब पढ़िए। पुरस्कार सीमित होते हैं, सबको नहीं मिल पाते।
हिमांशु : साधना की जीवनी क्या पहले भी कभी प्रकाशित हुई है?
प्रबोध कुमार गोविल :: पहले उनकी एक जीवनी सिंधी भाषा में आई थी, दूसरी अंग्रेजी में आई, हिंदी में ये पहली ही है। साधना ने अपनी जीवनी के बारे में एक बार कहा था कि उन्होंने दौलत, शोहरत, चाहत सब हिंदी फ़िल्मों से ही पाई है इसलिए वो चाहती हैं कि उनकी जीवनी हिंदी में भी लिखी जाए। साधना ने जीवन के अंतिम दिन अकेले गुमनामी में बिताए और अजीब बात ये थी कि उन्हें मरने से बहुत डर लगता था। वो लोगों के दाह संस्कार में शामिल होने तक से बचती थीं। इस सबके पीछे क्या था, वो क्या सोचती थीं, ये सब नई पीढ़ी को जानना चाहिए। वो इंडस्ट्री की "मिस्ट्री गर्ल" कहलाती थीं।
हिमांशु : आभार सर। आपकी किताब गोल्डन एरा की एक शख्सियत को नई पीढ़ी से जोड़े, ये शुभकामनाएं!
प्रबोध कुमार गोविल :: शुक्रिया।
- हिमांशु जोनवाल, बरकत नगर, जयपुर (राजस्थान)
- प्रबोध कुमार गोविल, बी 301, मंगलम जाग्रति रेसीडेंसी,447 कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर, जयपुर- 302004(राजस्थान)
ई मेल: prabodhgovil@gmail.com
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