"भारतीय संस्कृति में पेड़ -पौधों एवं पर्यावरण का महत्व" -डॉ दीपक कोहली- भारतीय संस्कृति में पेड़-पौधों की पूज...
"भारतीय संस्कृति में पेड़ -पौधों एवं पर्यावरण का महत्व"
-डॉ दीपक कोहली-
भारतीय संस्कृति में पेड़-पौधों की पूजा की परंपरा सदियों पुरानी रही है। हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में भी वृक्षों की महिमा का वर्णन मिलता है। वृक्षों की पूजा और प्रार्थना के नियम बनाए गए है। "औषधय: शांति वनस्पतय: शांति:" जैसे वैदिक मंत्रों से वृक्षों और वनस्पतियों की पूजा की जाती है। संपूर्ण आयुर्वेद विज्ञान प्रकृति की इसी देन पर आधारित है। हमारे ऋषियों द्वारा वन में रहते हुए धर्मग्रंथों की रचना करने का यही कारण है कि वहां का शांत और सुरम्य वातावरण उनके अनुकूल था, जो उनके मन को एकाग्र रखने में सहायक होता था। वृक्षों द्वारा उनकी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी। धान व कंद-मूल-फल उनके आहार के साधन होते थे। वे फूलों या लताओं के रस से स्याही व लकड़ी सेकलम बनाकर भोजपत्र पर अपनी रचनाएं लिपिबद्ध करते थे। प्राचीन औषधीय गुणों वाले पौधों और वृक्षों को आज सदियों बाद भी पूजनीय माना जाता है और उनकी विधिवत पूजा-अर्चना की जाती है। विशिष्ट धार्मिक महत्व रखने वाले कुछ प्रमुख पेड़- पौधे इस प्रकार है :
तुलसी: हिंदू धर्म में तुलसी का स्थान सर्वोपरि माना गया है। तुलसी ही एक ऐसा पौधा है जो अनवरत रूप से वायुमंडल में ऑक्सीजन छोड़ता है। तुलसी के पत्ते, बीज, तना, जड़ और यहां तक कि उसके आसपास की मिट्टी भी विभिन्न प्रकार के रोगों को दूर करने में सहायक होती है। चरणामृत में तुलसी दल का प्रयोग किया जाता है।
वटवृक्ष :भारतीय संस्कृति में वटवृक्ष को समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करने वाला कल्पवृक्ष माना जाता है। औषधीय गुणों से युक्त इस विशालकाय और छायादार वृक्ष का उल्लेख कई धार्मिक ग्रंथों में है। ऐसी कथा प्रचलित है कि वटवृक्ष के नीचे ही सावित्री ने यमराज से सत्यवान के पुनर्जीवन का वरदान मांगा था। इसी दिन की स्मृति में प्रतिवर्ष जेयष्ठ माह की अमावस्या के दिन सौभाग्यवती स्त्रियां वट सावित्री का व्रत रखती है। इस दिन वे वटवृक्ष की पूजा-अर्चना और परिक्रमा करते हुए अपने पति की लंबी आयु के लिए प्रार्थना करती है। इसके अलावा प्राचीन हिंदू तीर्थ प्रयागराज में स्थित सदियों पुराने वटवृक्ष अक्षय वट को अमरत्व के वृक्ष की संज्ञा दी जाती है और ऐसा माना जाता है कि इस वृक्ष का अस्तित्व आदि काल से धरती पर है और सृष्टि के समाप्त हो जाने के बाद भी यह वटवृक्ष नष्ट नहीं होगा।
पीपल : पीपल के वृक्ष के विषय में भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि पीपल का वृक्ष ब्रह्म स्वरूप है। हिंदू धर्म में ऐसी मान्यता है कि पीपल के वृक्ष की जड़ से लेकर पत्तियों तक तैंतीस कोटि देवताओं का वास होता है और इसलिए पीपल का वृक्ष प्रात: पूजनीय माना गया है। लोग इसे देव स्वरूप पवित्र मान कर इसकी पूजा करते है। ऐसा माना जाता कि गौतम बुद्ध की तपस्या पीपल के वृक्ष के नीचे ही पूर्ण हुई थी। आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा भी पीपल के औषधीय गुणों की पुष्टि की गई है।
नीम : आयुर्वेद में नीम के वृक्ष का विशेष महत्व बताया गया है, इसे 'कृमि:हर:' भी कहा जाता है। इसके पत्तों व छाल से विभिन्न रोगों के कीटाणु नष्ट हो जाते है। विषैले जीवों के काटने पर अगर इसकी कोपलों का सेवन किया जाए तो शरीर में विष नहीं फैलता। खसरा और छोटी चेचक जैसी त्वचा संबंधी बीमारियों में नीम की पत्तियों को उबाल कर उसके पानी से स्नान करना बहुत फायदेमंद साबित होता है। ऐसी मान्यता है कि नीम के वृक्ष पर देवी शीतला माता का निवास होता है, जो सारे दुखों को दूर कर देती है।
केला : सुस्वादु और स्वास्थ्यवर्धक फल केले के वृक्ष को भारतीय संस्कृति में अत्यंत शुभ माना जाता है। विवाह और पूजा-पाठ जैसे शुभ अवसरों पर केले के पत्तों या कदली स्तंभ से मुख्य द्वार और मंडप को सजाया जाता है। भगवान जगन्नाथ को केले के पत्ते पर भोग लगाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि केले के वृक्ष में भगवान विष्णु का वास होता है और बृहस्पतिवार के दिन केले के वृक्ष की पूजा करने से परिवार में सुख-समृद्धि बनी रहती है।
हिंदू धर्म और संस्कृति में स्वास्थ्यवर्धक और उपयोगी पेड़-पौधों का सम्मान और उनका पूजन करने की परंपरा सदैव से रही है क्योंकि वृक्षों के जीवन का उद्देश्य ही परोपकार है। वृक्ष अपने पत्ते, फूल और फल दूसरों के सुख के लिए देते है और अंत समय में अपना शरीर भी दूसरों की आवश्यकताओं के लिए समर्पित कर देते है।
वेदों का संदेश हैं कि मानव शुद्ध वायु में श्वास ले, शुद्ध जलपान करे, शुद्ध अन्न-फल का भोजन करे, शुद्ध मिट्टी में खेले कूदें और कृषि करे, तब ही वेद प्रतिपादित उसकी आयु ‘‘शं जीवेम् शरदः शतम्’’ हो सकती है। वृक्ष वनस्पति भगवान नीलकंठ का रूप हैं क्योंकि वे विषेली गैसों को पीकर अमृतमयी गैस निकालते हैं। अतः वृक्षों को सींचना भगवान शिव को जल चढ़ाने के समान हैं। वेदों में इस बात का संकेत हैं कि पीपल के नीचे बैठना स्वास्थ्यप्रद हैं तथा पलाश (ढाक) के पेड़ दिन-रात सुगन्ध और प्राणवायु छोड़ते हैं। वृक्ष हमारी संस्कृति की धरोहर हैं। इसीलिए अनेक वृक्ष पूज्य माने जाते हैं। तुलसी को विष्णुप्रिया माना गया हैं। विष्णु पुराण में सौ पुत्रों की प्राप्ति से बढ़कर एक वृक्ष लगाना माना गया हैं। भक्त व भगवान के तिलक लगवाने के लिए चन्दन सर्वमान्य हैं। मत्स्य पुराण में दस कुओं, बावडियो, व तालाबो से भी बढ़कर वृक्ष लगाने को विशेष मान्य किया गया हैं। पुराकाल में यदि अपरिहार्य कारणों से किसी वृक्ष को काटना पड़ता था तो वृक्ष से क्षमा माँगने का प्रावधान था। राजस्थान में विश्नोई समाज द्वारा जोधपुर जिले में खेजड़ी के वृक्ष को बचाने हेतु लोगों ने बलिदान दिए हैं। पीपल और बरगद के पेड़ो को तो ब्राह्नण माना गया हैं। अतः उन्हें काटना ब्रह्न हत्या के समान है। तुलसी का पौधा तो इतना पवित्र माना गया हैं कि हर भारतीय उसे घर में लगाता है तथा उसके विवाह की भी परम्परा भारतीय समाज में रही है। हमारे ऋषि महात्माओं के आश्रम वन खण्डों में स्थित है। अनेक पेड़ों के संबंध देवी देवताओं से संलग्न किये गये हैं। पीपल में विष्णु वास, नीम को नारायण कहा गया है। बरगद को भगवान शंकर से संबद्ध माना और तुलसी को सालिगराम की पत्नी के रूप में स्वीकार किया गया है। वैसाख में पीपल पूजा, कार्तिक में आँवला व तूलसी पूजा, मिगसर मास में कदम्ब के वृक्ष को पूजने की परम्परा रही है। पेड़ों की स्थिति पर भी विचार किया जाता है। नीम का पेड़ गाँव की चौपाल पर और पीपल का पेड़ गाँव के बाहर जलाशय के किनारे शोभायमान होता है। हमारे धार्मिक ग्रंथों में यह भी उल्लेख हैं कि पीपल, बरगद को ब्राह्नण माना जाता था और उन्हें काटना ब्रह्न हत्या के समान माना जाता है। जिस वृक्ष पर पक्षियों के घौसलें हों तथा देवालय और श्मशान भूमि पर खड़े पेड़ों को नहीं काटना चाहिए जैसे बड़ ,पीपल, आक, नीम आदि। भारत में आर्यों के आगमन से पूर्व सिंधु घाटी की सभ्यता में प्राप्त मुहरों पर अंकित चित्रों से स्पष्ट हैं कि सिन्धु घाटी के निवासी वृक्षों की पूजा किया करते थे। प्राचीनकाल से ही पेड़ो को सीचनें की परम्परा चली आ रही है। वैसाख महीने में भारतीय नारियाँ व बालिकाएं पीपल के पेड़ को सींचती हैं। इसके पीछे यही धारणा हैं कि ज्येष्ठ मास की भीषण गर्मी से इन पेड़ों को बचाया जा सकें। पेड़ों के बचाव व संरक्षण हेतु गोचर भूमि, डोली और ओरण आदि व्यवस्थाओं को क्रियान्वित किया गया। मंदिरों के पुजारी वन संरक्षण में अपनी भागीदारी का निर्वहन कर सके।
वन्य जीव जन्तु भी हमारे पर्यावरण के प्रमुख अंग माने जाते हैं। इनका सही सन्तुलन होने पर पर्यावरण शुद्ध तथा स्वच्छ रहता है। इनकी सुरक्षा के लिए वन्य जीवों को पूज्य मानकर इनकी पूजा का भी प्रावधान हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं में रखा गया है। भारतीय संस्कृति में दस अवतारों में चार अवतार पशुओं व जन्तुओं से संबद्ध हैं जैसे मत्स्य अवतार, वराह अवतार, कच्छप अवतार तथा नृसिंह अवतार आदि। विशेषतः गणेश, हनुमान और नागपूजा की व्यवस्था की गई हैं ताकि लोगों में पशु प्राणियों के लिए आस्था अक्षुण्य बनी रहे। गायों की महत्ता को प्रकट करने हेतु गोपाष्टमी, बछबारस का त्योहार मनाया जाता हैं। गाय किसानों की जीवन धारा है। कृषि भूमि में उत्पादन को हानि पँहुचाने वाले चूहों पर नियन्त्रण रखने वाले सांपों के प्रति श्रद्धा सूचक नाग पंचमी व गोगानवमी का त्यौंहार मनाया जाने लगा। पशु पक्षियों के संरक्षण हेतु अनेक परम्पराएं भारतीय समाज में प्रचलित है। शनिवार के दिन ‘कीड़ी नगरा’’ सींचने की परम्परा में उन चींटिंयों की सुरक्षा की व्यवस्था दी गई है जो हानिकारक उदई तथा बर नियन्त्रण करती है, जो नई मिट्टी बाहर निकालते है। मरे हुए जानवरों की गंदगी को दूर करने वाले कौओं के प्रति श्रद्धा स्वरूप श्राद्व पक्ष में उनको भोजन खिलाने की परम्परा है। विवाह के समय तोरण लगाने की परम्परा में भी पक्षियों को याद किया है। तोरण पर प्रतीकात्मक रूप से पक्षियों की आकृतियाँ बनाई जाती है। भोजन से पहले एक रोटी अथवा पाँच ग्रास चींटी, कौए, कुत्ते आदि के लिए निकालकर उन्हे जीवित रखने की व्यवस्था प्रकट की गई है। ‘‘जल ही जीवन है’’ ।अतः जल के शुद्धीकरण एवं पवित्रता बनाये रखने का प्रयत्न प्राचीन काल से चला आ रहा है। जल को भारतीय समाज में देवता माना गया है। जल संरक्षण की परम्परा से नदियों को ‘‘माता’’ का स्थान दिया गया है। इनकी पूजा की जाती है। गंगाजल को समस्त संस्कारों में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। कुंआ, बावड़ी, तालाब तथा झीलों के निर्माण की धार्मिक प्रथाएं रही है। गाँवों में आज भी जल स्त्रोतों को गंदा करने पर सामाजिक प्रतिबन्ध रहता है। लोग शिवरात्रि पर हरिद्वार से कावड़ में गंगाजल लेकर कई मीलों तक यात्रा करते हुए घर पहुंचने की प्रथा चली आ रही है। नदियाँ भूमिगत जल का स्तर ऊँचा उठाती हैं और प्राकृतिक सौन्दर्य में वृद्धि करती है। पृथ्वी पर जल का तीन चौथाई हिस्सा होते हुए भी पीने योग्य जल का हिस्सा 0.33 प्रतिशत हैं। जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ जल संकट बढ़ता जा रहा हैं। अतः जल संरक्षण आवश्यक हो गया है। संसार में पर्यावरण संरक्षण का कार्य सर्वप्रथम ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक ने किया था। प्रकृति की महत्ता को स्वीकारते हुए वन्य जीव जन्तुओं के शिकार पर प्रतिबन्ध लगाया जो आज भी अशोक के शिलालेखों में अंकित है। जल को आदि काल से शुद्ध व पवित्र बनाए रखने का प्रयास किया जाता है। पवित्र नदियों के जल को बड़ी धूमधाम से गृह प्रवेश कराया जाता है। गंगा प्रसादी के रूप में भोज का आयोजन होता है। पुरातन जल संसाधनों के रख रखाव पर बड़ा ध्यान था। कुए, बावड़ी, झालरों का निर्माण कराना धार्मिक कृत्य माना जाता है। जल स्त्रोंतों को गंदा करने पर दण्ड का विधान था। प्राचीन काल में ऋषि आश्रमों में शिक्षा प्राप्ति के साथ साथ विभिन्न प्रकार के पेड़ लगाने तथा उन्हें सिंचित करने का पुनीत कर्म करना आवश्यक था। यदि कोई दंपति निसंतान होता तो पेड़ लगाने या कुआं या बावड़ी बनवाने से उससे मुक्ति मिलने की मान्यता थी। धर्म परायण व्यक्ति जलाशय बनाकर, वृक्षारोपण कर, देवालय बनवाकर धर्म में संवर्धन करते थे।
हमारे पुरातन साहित्य में पर्यावरण की महत्ता को विभिन्न प्रकरणों एवं तरीकों से समझाने का प्रयास हुआ है। पर्यावरण सुरक्षा व संवर्धन ने विभिन्न उपायों का उल्लेख हुआ है। तत्कालीन साहित्य में पर्यावरण संतुलन बनाये रखने के अनेक सुझाव प्रस्तुत हुए है। ज्ञान और नीतिपरक पंचतंत्र की कहानियों तथा जातक कथाओं में वन्य जीवन सें संबंधित अनेकानेक प्रसंगों को उद्घाटित किया गया है। सभी ग्रहों नक्षत्रों के साथ पंचतत्वों पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि एवं आकाश तथा प्रकृति पर्वत तथा नदी, वन को देवता मानकर उनकी पूजा अर्चना का प्रावधान है। यजुर्वेद में भूमि प्रदुषण पर नियंत्रण हेतु उल्लेख है कि- ‘‘पृथिवी मातर्मा मा हिंसीर्मो अहं त्वाम’’ – यजुर्वेद 10/23अर्थात् हे! माता तुम हमारा पालन पोषण उत्तम रीति से करती हो। हम कभी भी तुम्हारी हिंसा (दुरुपयोग) न करें। रासायनिकों व कीट नाशकों के अति प्रयोग से तुम्हारा कुपोषण न करें बल्कि फसल हेर-फेरकर बोने तथा गोबर, जल आदि से तुम्हें पोषित करें। क्षरण की रोक हेतु वृक्ष लगाये क्योंकि तुम्हारे पोषण पर ही हमारा पोषण निर्भर है। भूमि की उपजाऊ क्षमता न्यून व क्षीण हो गई है तो इस भूमि पर कुछ समय खेती बाड़ी नहीं करे, जिससे प्रकृति ,वायु, सूर्य, रश्मि वर्ष भर में उन्हें उर्वरा बना देगें, ऐसे निर्देश वेदों में प्रकट हुए है। इस संबंध में इन सराहनीय सुझावों की क्रियान्विति से पर्यावरण संरक्षण की व्यवस्था को बल मिलेगा। सूखी पहाड़ियों पर तरुपुत्र यज्ञों के माध्यम से वृक्षारोपण द्वारा स्मृति उपवन बनाना। मंदिरों और उद्यानों में वृक्ष वाटिकाओं का निर्माण करना। नदी किनारे खेतों की मेंड़ो आदि पर भूमि कटाव को रोकने हेतु छायादार वृक्ष लगाना। मंदिर व धार्मिक स्थलों पर त्रिवेणी- (पीपल ,बरगद, नीम), पंचवटी( नीम, पीपल, बरगद,जामुन, आँवला), हरिशंकरी- ( बरगद, पीपल, पाकड़) का वृक्षारोपण करना। प्रत्येक गाँव में देवालयों व गोचर भूमि तथा बंजर भूमि में वृक्षारोपण करना। शिक्षण संस्थानों में तरुमित्र योजनान्तर्गत विद्यार्थियों से वृक्षारोपण कराना। श्मशान घाटों पर धार्मिक महत्व के छायादार पेड़ लगाना। राजमार्गों के किनारों पर छायादार वृक्ष लगाना।
आज हमारी पुरातन परम्पराएं और रीति रिवाज समाप्त प्रायः हो गये है। वर्तमान सभ्यता और भौतिकता विषबैल इतनी फलित हो गई हैं कि समग्र संस्कृति को पाला मार गया है। तुलनात्मक दृष्टि से यह देखा जाए तो आज के इस भौतिक युग में मनुष्य अपने व्यक्तिगत स्वार्थ में अंधा हो गया हैं और हमारी प्राचीन धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं की मान मर्यादाओं और भावनाओं को जीवन से तिरोहित करता जा रहा है। पूर्व की हमारी प्रकृति-उपासना की आस्थाएं समाप्त हो गई है। जिस श्रद्धा और आस्था के साथ हम प्रकृति की पूजा करते थे, आज वह भावना समाप्त हो गई है। प्रकृति के दोहन से अधिकाधिक अर्थलाभ की भावना में वृद्धि हो गई हैं। वृक्ष पूजा केवल प्रतीकात्मक रह गई है। आज बरगद, पीपल, नीम, आंवला आदि का महत्व कम होता जा रहा है। गोचर भूमि पर अत्यधिक अतिक्रमण हो रहे है। वहां आवासीय भवन खड़े किए जा रहे है। पशु पक्षियों की जातियाँ लुप्त होती जा रही हैं। हमारे जल स्त्रोत अब बस्ती के कचरादान बनते जा रहे है। जिन नदियों को हम मातृवत् पूजते रहे हैं , अब उनमें कल-कारखानों का प्रदूषित जल प्रवाहित हो रहा है। आज भी हमारी पुरातन पर्यावरण संरक्षण की प्रथाओं को सामाजिक स्तर पर प्रधानता देते हुए, इन परम्पराओं का अनुगमन दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ किया जाए तो पर्यावरण संतुलन तथा संरक्षण को प्रगाढ़ता मिलेगी।
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लेखक परिचय
*नाम - डॉ दीपक कोहली
*जन्मतिथि - 17 जून, 1969
*जन्म स्थान- पिथौरागढ़ ( उत्तरांचल )
*प्रारंभिक जीवन तथा शिक्षा - हाई स्कूल एवं इंटरमीडिएट की शिक्षा जी.आई.सी. ,पिथौरागढ़ में हुई।
*स्नातक - राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, पिथौरागढ़, कुमायूं विश्वविद्यालय, नैनीताल ।
*स्नातकोत्तर ( एम.एससी. वनस्पति विज्ञान)- गोल्ड मेडलिस्ट, बरेली कॉलेज, बरेली, रुहेलखंड विश्वविद्यालय ( उत्तर प्रदेश )
*पीएच.डी. - वनस्पति विज्ञान ( बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान, लखनऊ, उत्तर प्रदेश)
*संप्रति - उत्तर प्रदेश सचिवालय, लखनऊ में उप सचिव के पद पर कार्यरत।
*लेखन - विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लगभग 1000 से अधिक वैज्ञानिक लेख /शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं।
*विज्ञान वार्ताएं- आकाशवाणी, लखनऊ से प्रसारित विभिन्न कार्यक्रमों में 50 से अधिक विज्ञान वार्ताएं प्रसारित हो चुकी हैं।
*पुरस्कार-
1.केंद्रीय सचिवालय हिंदी परिषद नई दिल्ली द्वारा आयोजित 15वें अखिल भारतीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी लेखन प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार, 1994
2. विज्ञान परिषद प्रयाग, इलाहाबाद द्वारा उत्कृष्ट विज्ञान लेख का "डॉ .गोरखनाथ विज्ञान पुरस्कार" क्रमशः वर्ष 1997 एवं 2005
3. राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान ,उत्तर प्रदेश, लखनऊ द्वारा आयोजित "हिंदी निबंध लेख प्रतियोगिता पुरस्कार", क्रमशः वर्ष 2013, 2014 एवं 2015
4. पर्यावरण भारती, मुरादाबाद द्वारा एनवायरमेंटल जर्नलिज्म अवॉर्ड्, 2014
5. सचिवालय सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजन समिति, उत्तर प्रदेश ,लखनऊ द्वारा "सचिवालय दर्पण निष्ठा सम्मान", 2015
6. राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उत्तर प्रदेश, लखनऊ द्वारा "साहित्य गौरव पुरस्कार", 2016
7.राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान ,उत्तर प्रदेश, लखनऊ द्वारा "तुलसी साहित्य सम्मान", 2016
8. पर्यावरण भारती, मुरादाबाद द्वारा "सोशल एनवायरमेंट अवॉर्ड", 2017
9. पर्यावरण भारती ,मुरादाबाद द्वारा "पर्यावरण रत्न सम्मान", 2018
10. अखिल भारती काव्य कथा एवं कला परिषद, इंदौर ,मध्य प्रदेश द्वारा "विज्ञान साहित्य रत्न पुरस्कार",2018
11. पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ द्वारा वृक्षारोपण महाकुंभ में सराहनीय योगदान हेतु प्रशस्ति पत्र / पुरस्कार, 2019
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डॉ दीपक कोहली, पर्यावरण , वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग उत्तर प्रदेश शासन,5/104, विपुल खंड, गोमती नगर लखनऊ - 226010 (उत्तर प्रदेश )
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