कोरोना लॉक डाउन पर....... एकांत श्राप नहीं, सृजन की झंकार है ******************************* लॉक-डाउन को वरदान में बदलना मुश्किल नहीं...
कोरोना लॉक डाउन पर.......
एकांत श्राप नहीं, सृजन की झंकार है
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लॉक-डाउन को वरदान में बदलना मुश्किल नहीं..........
सदियों बाद एक बड़ी आपत्ति ने हम सभी को घरों में कैद कर दिया है । पूरी दुनिया इस समय एकांतवास में चली गई है ।बाहर का हो- हल्ला और दौड़ती- भागती जिंदगी से हम सभी बे- खबर हो चले हैं । जो व्यक्ति अपने कर्तव्य की प्रतिपूर्ति में दिन भर यहाँ- वहाँ भागता फिरता है ,उसे यह एकांतवास किसी जेल से कम नही लग रहा है । खुद के साथ ही अन्य लोगों के जीवन को सुरक्षित रखने घरों पर बने रहना हम सबके लिए सुकून भरा भी हो सकता है । जरूरत है समय के अनुसार खुद के विचारों में परिवर्तन लाने की । हम चाहें तो इस अकेलेपन को सृजनात्मकता के मार्ग में प्रशस्त कर अपने जीवन के स्वर्णिम पलों के रूप में सँजो सकते हैं । हमेशा नकारात्मकता में उलझे रहना हमारी सृजन शक्ति का सबसे बड़ा शत्रु माना जाता रहा है । सकारात्मक विचारों के साथ अकेले कमरे में बैठे हम अपनी भावनाओं को नए पंख प्रदान कर उड़ान भर सकते हैं । हो सकता है हमारी यही उड़ान हमारे जीवन के सबसे अच्छे समय के रूप में इतिहास लिख जाए । समय बेशकीमती होता है । कालांतर में ही इसके मूल्य एवम महत्व को समझा जा सकता है । समय अपने साथ अनूठे अवसर लेकर आता है । यदि एक क्षण भी व्यर्थ चला गया तो वह अमूल्य अवसर सदा के लिए हमसे दूर चला जाता है । समय का महत्व समझने वाला ही आसमान की बुलंदियों को छू पाता है ।
कोरोना वायरस नामक जानलेवा बीमारी के संक्रमण से देश वासियों को बचाने के सबसे बड़े उपाय के रूप में "लॉक - डाउन " जैसी प्रक्रिया को अंजाम देना हम सबके लिए एक संकट के रूप में सामने आया है । इसका दूसरा पहलू इस तरह भी समझा जा सकता है कि कुछ लोग कुछ लोग इसे एकांतवास से जोड़कर देख रहे हैं ,तो कुछ लोग अकेलापन भी मान रहे हैं । सवाल यह उठता है कि एकांत और अकेलापन भला अलग कैसे हो गए ? दोनों का अर्थ तो एक ही होता है । जहाँ तक मैं मानता हूँ ये दोनों शब्द एक समान होते हुए भी अलग मायने रखते हैं ।अकेलापन तब होता है ,जब हम अपने अकेले रहने से व्यथित रहते हैं , दुःखी होते हैं अथवा परेशान होते हैं । हमारा मन उस अकेलेपन से भागने लगता है और अपनों की भीड़ में समा जाना चाहता है । अकेलेपन में दुखद और कष्टप्रद अनुभव होने लगते हैं ।इसके विपरीत एकांत हमें शांति एवम सुकून प्रदान करता है ।एकांत में हमारे जीवन का संगीत फुट पड़ता है । यह संगीत किसी भी सृजन से संबंधित हो सकता है । हम अपने अच्छे विचारों को कलमबद्ध कर साहित्य की सेवा कर सकते हैं । ऐसे समय में हम अपने आस- पास की समस्या पर चिंतन करते हुए उस पर अपने सुझाव कार्यपालिका और न्यायपालिका तक पहुंचाकर अपनी समाज के प्रति जवाबदारी को पूरा कर सकते हैं ।
वास्तव में देखा जाए तो एकांत एक वरदान है तो दूसरे रूप में यह एक अभिशाप भी है । एकांत को हम अपने मन की प्रवृति के अनुरूप परिभाषित कर सकते हैं । एक साधक के लिए एकांत का क्षण समाधि का सोपान है । एक भक्त के लिए भगवान से मिलन का मधुर अनुभव और एक वैज्ञानिक के लिए शोध तथा विचार का क्षण है । यदि हमारा मन स्वस्थ ,सुदृढ़ और शांत रहता है तो एकाकीपन हमारे लिए सबसे बड़ा मित्र एवम शुभेच्छु बन जाता है । इसके विपरीत रुग्ण एवम दुर्बल मन के लिए अकेलापन किसी दुःस्वप्न के समान भीषण एवम डरावना लगता है । सच्चाई के आईने में देखें तो जिससे हम डर रहे हैं या जो हमें डरा रहा है, वह कोई और नहीं बल्कि हमारे नकारात्मक कर्मों का परिणाम ही है । इन सारे विकारों से बचने के लिए जरूरत है -- सकारात्मक सोच की , रचनात्मक चिंतन की एवम सद्व्यवहार या सदाचरण की । अकेलेपन को दूर करने में अच्छी एवम शिक्षाप्रद किताबें सबसे बड़ा औजार बनकर हमारे समक्ष आती हैं । इनका साथ मिलते ही हमारा मन सदविचारों से अभिप्रेरित होने लगता है । हमें ऐसे समय का सदुपयोग करने की नियत से रचनात्मक एवम अच्छे कार्यों की एक सूची तैयार कर लेनी चाहिए ताकि हमारा मन किसी भी स्थिति में अनियंत्रित न होने पाए । मन यदि मजबूत हो तो अकेलेपन में ही सर्वश्रेष्ठ कार्य का संपादन किया जा सकता है । हमारे ऋषि- मुनियों द्वारा रचित ग्रंथ इसके जीवित प्रमाण हैं ।
हमारा मन यदि मजबूत है तो अकेलेपन में ही सर्वश्रेष्ठ कार्य का संपादन किया है सकता है । इतिहास इस वात का साक्षी रहा है कि विश्व के श्रेष्ठतम कार्य एकांत में ही सम्पन्न हो पाए हैं । जिस एकांत से लोग भागते रहे ,उसी एकांत में महान विचारकों ने दुनिया को अचंभित करने वाले आविष्कार एवम अनुसंधान कर दिखाए । जीवन के प्रति गंभीर दृष्टि रखने वाले संत - महात्मा जीवन को सर्वोच्च ग्रंथ मानते रहे हैं । जिन ग्रंथों एवम आविष्कारों का जन्म केवल एकांत में हो पाया ,वह जनसभाओं अथवा भीड़- भाड़ में संभव नहीं था । शायद इसी एकांतपन के सकारात्मक एवम सृजनात्मक परिणाम को देखते हुए कविवर रबिन्द्रनाथ टैगोर ने --" एकला चलो रे ! एकला चलो रे !! " का नारा बुलंद किया था । हमारा देश ऋषि- मुनियों का देश रहा है । आध्यात्म हमारी आत्मा का मुख्य अंग रहा है । हमारे ऋषियों ने कभी अकेलापन महसूस नहीं किया । जंगलों में कई - कई वर्षों तक तप करते हुए अपने अंदर अद्भुत शक्ति का संचय किया । दूसरा अकेलेपन के संदर्भ में स्वामी विवेकानंद जी ने उपदेश देते हुए कहा था --" अकेले रहो ! अकेले रहो !!" जो अकेला है ,न तो वह दूसरों को परेशान करता है और न ही दूसरों से परेशान रहता है । जीवन में अकेलेपन को वरदान बनाओ न कि अभिशाप । अतः हमें अकेलेपन में श्रेष्ठ विचार, पवित्र भाव एवम सदाचरण की संगति करते हुए उसे मूल्यवान क्षण में परिवर्तित करना चाहिए ।
अकेलेपन की तन्हाई एकांत के सरगम में बदलकर एक दिव्य संगीत की सृष्टि करती है और संगीत के स्वर में अकेलापन बुलबुले के समान विलीन हो जाता है । एकांत में अनगिनत रहस्यों से सिमटा हुआ जीवन परत- दर - परत खुलने लगता है और अज्ञात के विविध आयाम प्रकट होने लगते हैं ।
डॉ. सूर्यकान्त मिश्रा
न्यू खंडेलवाल कॉलोनी ममता नगर
प्रिंसेस प्लैटिनम ,हाउस नंबर 05,
राजनांदगाँव, (छ. ग.)
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