1. पड़ाव लगता रहा था मुझे सबसे कठिन है पढना और छात्र जीवन में कामयाब होना, रात दिन आँखों फोड़ना, एक-एक अंक के लिए संघर्ष करना। जब...
1. पड़ाव
लगता रहा था मुझे
सबसे कठिन है पढना
और छात्र जीवन में कामयाब होना,
रात दिन आँखों फोड़ना,
एक-एक अंक के लिए संघर्ष करना।
जब यह पड़ाव भी पार हुआ,
लग रहा था मुझे सबसे कठिन है
नौकरी पाना
हर तरफ घूमना
और फिर निराश होना,
कहीं पर एक सशक्त मुकाम बनाना।
जब यह पड़ाव भी पार हुआ,
लगता रहा था मुझे
सबसे कठिन है
विवाह के गठबंधन में बँधना,
एक अजनबी के संग
जीवन भर का रिश्ता निभाना,
कभी रूठना तो कभी मनाना,
सुख -दुख का साथी बनना।
जब यह पड़ाव भी पार हुआ,
लग रहा था मुझे
कितना कठिन है
बहू, पत्नी, ननद का रिश्ता निभाना,
घर को कलह से दूर रखना,
बड़ों का मान-सम्मान
और आत्म गौरव बनाए रखना,
संघर्ष से यह तालमेल भी बन गया।
जब यह पड़ाव भी पार हुआ,
लग रहा था मुझे
कितना कठिन है
शिशु को जन्म देना,
नौ महीने गर्भ धारण कर
शिशु की हलचल का अंदाजा लगाना,
इन दिनों स्वयं का बहुत ध्यान रखना
नापसंद चीजें भी रुचि से खाना,
बच्चा स्वस्थ रहे
बस इसी तड जोड़ में रहना।
जब यह पड़ाव भी पार हुआ,
लग रहा था मुझे कि
कितना कठिन है
नवजात शिशु की माँ होना,
शिशु के रोने का कारण पता ना होना,
अनुमान लगाकर सब कुछ है करना,
कभी मूत्र तो कभी दस्त
दिन भर इसी में उलझे रहना।
2.सीता से प्रियंका तक
अंधकारमय थी वह गली
वह वाहन लेकर अकेली ही थी चली,
सोचा था भारत में ही है वह पली
जहाँ संस्कार, सभ्यता की रीत है चली।
अचानक वाहन के चक्के से वायु निकली,
कुछ दूर तक गाड़ी उसने स्वयं ही ढकेली,
अंधकार से तब किसी की आकृति निकली,
देवदूत जानकर उसने मदद माँग ली।
पर वह तो नर पिशाचों की टोली निकली,
चार नराधमों ने उसे जकड़ लिया,
मुँह में कपड़ा ठूंस मोबाइल भी उससे छीन लिया।
बार-बार नराधमों ने उस
असहाय पर आघात किया,
कुकर्म कर दरिंदों ने
इंसानियत को भी शर्मसार किया।
जब घिनौने हाथों ने उसे छुआ होगा ,
कैसे लड़ी होगी वह इन नर पिशाचों से?
कितनी तड़प, कितनी पीड़ा,
उसने सही होगी,
उनके आसुरी प्रहारों से?
चार-चार असुरों का
रक्त पिपासु बनकर
टूट पड़ना ,
जाने कितनी बार उसने
अपनी माँ को पुकारा होगा?
बाबा की उस लाडली ने
कैसे दर्द में पुकारा होगा?
हे ! ईश्वर उस समय
तू कैसे चुप रहा होगा ?
उसकी चीत्कार से क्या
तेरा दिल नहीं दहला होगा?
इतनी सुंदर सृष्टि में
ऐसे नराधम कैसे बनाए तूने?
क्यों कोई माँ देगी बेटी को जीने?
इन नर पिशाचों का निवाला बनने से तो अच्छा है
कोख में ही दे उसे मर जाने।
गा ले ऐ भारत तरक्क़ी के तू कई तराने,
रावण अभी भी ज़िंदा है,
बीत गए कई& जमाने।
कभी सीता तो कभी प्रियंका हरण का
यह खेल कब तक चलेगा न जाने?
हर मुहल्ले, गली में खड़े हैं दानव सीना ताने,
हे राम! कहाँ-कहाँ पहुँचोगे तुम सीता को बचाने।
उस समय केवल एक रावण था तुम्हारे सामने
आज अनगिनत रावण बैठे हैं सीता को ग्रसने।
3.कोई अपना
इंसान ही जब हैवान बन कर
इंसान को सताता है,
तरक्की के नशे में अंधा बन
अपनों को ही दगा दे जाता है,
नेकी सारी भूलकर
बस फरेब का खेल रचाता है,
तब खुदा भेज देता है
किसी अपने को
मरहम उस पर लगाने को।
नाउम्मीदों के डूबते समंदर में
फिर उम्मीदें जब लहरा उठती हैं,
फिर अपना कोई आता है
खोई कश्ती पार लगाने को,
फिर नई आशा जगाकर
रब पर भरोसा दिलाने को,
खुदा भेज देता है
किसी अपने को
अपनों से मिलाने को।
अपनों के ही लफ़्ज़ों से
जब दिल हज़ार बार रोता है,
मायूसी छा जाती है
और जग सूना लगता है,
तब खुदा भेज देता है
किसी अपने को
आँसुओं को थाम लेने को।
शिद्दत से कोशिशों के बाद भी
जब इनाम में तोहमतें मिलती हैं,
तब ज़िन्दगी जुस्तजू बने,
सब सहूलियतें होकर भी
इमानदारी से भरोसा उठता,
मन विद्रोह करता है,
तब खुदा भेज देता है
किसी अपने को
कृष्ण बनकर गीता सुनाने को।
4.डर
ऐ मन तू कब तक डरेगा?
कब तक चिंताओं से घिरेगा?
जो होना है सो होगा,
फिर सोच कर क्या मिलेगा?
ईश्वर पर भरोसा रख कर
तू केवल अपना कर्म किए जा,
परिणाम की चिंता छोड़ कर
तू अपना श्रेष्ठ दिए जा,
ऐ मन तू कब तक डरेगा?
जीवन युद्ध भूमि है
प्रतिक्षण संग्राम है,
कायर बनकर
कब तक जिएगा?
कभी न कभी तो
मृत्यु से गले मिलेगा।
फिर क्यों ना
अभिमन्यु सा लड़कर
जीवन से पलायन करेगा,
ऐ मन तू कब तक डरेगा ?
5.पुरुषार्थ
मनुष्य जन्म दुर्लभ है
मत व्यर्थ में इसे खोना,
परिश्रम करके ही निखरता है
शरीर हो या सोना।
औरों के सुख ना देख तू
इर्ष्या जलन ही पाएगा,
खुद में ही मन लगा
आसमान छू जाएगा।
मत निराश हो यह सोच
तेरी परेशानियाँ अधिक हैं,
परिस्थितियों से जूझ कर ही
और सामर्थ्यवान बन जाएगा।
सूर्य हर रात अंधकार से लड़ता है
तभी जग में प्रकाश होता है,
कर्महीन होकर तो
पशु भी भोजन नहीं पाता है।
वन के राजा सिंह को भी
आखेट के लिए घूमना पड़ता है,
बिना पुरुषार्थ के तो
भाग्य भी कुछ नहीं कर पाता है।
6.कोल्हू का बैल
आज जब तेल लाने मैं घाने पर गया,
घूमते बैल को देख
अपने आपको वहाँ खड़ा पाया।
सोचा हे! ईश्वर यह तेरी कैसी माया,
कोल्हू के बैल और शिक्षक में
तुझे जरा भी अंतर नज़र नहीं आया?
दोनों को तूने एक समान ही बनाया।
ईश्वर भी मुस्कुराया और मुझे दिखाया,
अरे मूर्ख शिक्षक! ध्यान से देख
बैल केवल घाने के अतरफ है घूमता,
शिक्षक होकर तुझे कभी बच्चों के,
तो कभी उच्च अधिकारी के,
तो कभी अभिभावक के
अतराफ है घूमना पड़ता।
और तो और
बैल को मौन रहकर
यह सब है करना पड़ता,
तुझे तो मुँह का पिटारा
दिनभर बजाना है पड़ता।
बैल ना करें काम तो
उसे कोडे हैं खाने पड़ते,
तू न करे काम
तो तुझे नौकरी से ही
हाथ धोना पड़ता।
बैल को नहीं कोई
कॉपी है जाँचनी पड़ती,
ना ही परीक्षक बनकर
बच्चों को घूरना पड़ता।
सुनकर ईश्वर की बातें
शिक्षक कश्मकश में पड़ गया,
प्रभु क्या कहना चाहते हो
पल्ले कुछ नहीं पड़ता?
क्या बैलों से निकृष्ट जीवन
एक शिक्षक को है जीना पड़ता?
ईश्वर हुए कुछ गंभीर और शांत
फिर बोले,
चाहे करनी पड़े तुझे बैल की जैसी मशक्कत,
पर तेरी महिमा के आगे है
संपूर्ण संसार नतमस्तक।
गुरु बिना कोई ज्ञान नहीं है पावत
गुरु बिना संसार नहीं है सुहावत,
इसलिए स्वयं को कभी भी
तू बैल कहना मत
ईश्वर से भी पहले
गुरु आप है विराजत।आज जब तेल लाने मैं घाने पर गया,
घूमते बैल को देख
अपने आपको वहाँ खड़ा पाया।
सोचा हे! ईश्वर यह तेरी कैसी माया,
कोल्हू के बैल और शिक्षक में
तुझे जरा भी अंतर नज़र नहीं आया?
दोनों को तूने एक समान ही बनाया।
ईश्वर भी मुस्कुराया और मुझे दिखाया,
अरे मूर्ख शिक्षक! ध्यान से देख
बैल केवल घाने के अतरफ है घूमता,
शिक्षक होकर तुझे कभी बच्चों के,
तो कभी उच्च अधिकारी के,
तो कभी अभिभावक के
अतराफ है घूमना पड़ता।
और तो और
बैल को मौन रहकर
यह सब है करना पड़ता,
तुझे तो मुँह का पिटारा
दिनभर बजाना है पड़ता।
बैल ना करें काम तो
उसे कोडे हैं खाने पड़ते,
तू न करे काम
तो तुझे नौकरी से ही
हाथ धोना पड़ता।
बैल को नहीं कोई
कॉपी है जाँचनी पड़ती,
ना ही परीक्षक बनकर
बच्चों को घूरना पड़ता।
सुनकर ईश्वर की बातें
शिक्षक कश्मकश में पड़ गया,
प्रभु क्या कहना चाहते हो
पल्ले कुछ नहीं पड़ता?
क्या बैलों से निकृष्ट जीवन
एक शिक्षक को है जीना पड़ता?
ईश्वर हुए कुछ गंभीर और शांत
फिर बोले,
चाहे करनी पड़े तुझे बैल की जैसी मशक्कत,
पर तेरी महिमा के आगे है
संपूर्ण संसार नतमस्तक।
गुरु बिना कोई ज्ञान नहीं है पावत
गुरु बिना संसार नहीं है सुहावत,
इसलिए स्वयं को कभी भी
तू बैल कहना मत
ईश्वर से भी पहले
गुरु आप है विराजत।
7.मौन
जमाने के रंग ढंग देखकर
सीख लिया मैंने हर गम को
रखना अपने अंदर,
बड़बोले हो अगर
दुनिया मारती है उसे ठोकर,
जीता है जो पेट में छिपाकर
वही माना जाता है यहाँ सिकंदर,
निरंतर उन्नति की ओर
होता है वही अग्रसर।
सीख लिया मैंने
जमाने के रंग ढंग देखकर
दबा लेना सब अपने अंदर।
धूर्त और शातिर बनकर
जिए जो केवल दिखावा कर,
कलयुग में उसी को मिलता है आदर।
जिए जो मुस्कुराकर
चाहे मन से मलिन होकर,
छले जो अपनों को
केवल पाने उन्नति के अवसर,
वही बनता है यहाँ श्रेष्ठकर।
सीख लिया है मैंने
जमाने के रंग-ढंग देखकर
दबा लेना सब अपने अंदर,
केवल और केवल मौन रहकर।
8.पेड़ राजा
पाठशाला की इमारत
के पीछे खड़ा
वह नीम का पेड़,
टहनियाँ फैलाकर
यों खड़ा,
जैसे झाँक रहा हो
उन कक्षाओं में
जहाँ मस्ती करते छात्र,
शिक्षा देते अध्यापक,
मस्ती में दौड़ते बच्चे,
इनको निहारता
मन ही मन खुश होता।
सोचता, काश! मैं भी चल पाता,
इनकी तरह बोल पाता,
काटने के लिए मुझे
जब कोई आता
तब मैं भी दौड़ लगा पाता।
तभी एक चिड़िया चहचहाती आई,
ऊँची फुनगी पर बैठी मुस्काई,
मीठे-मीठे फल खाकर हर्षाई।
तभी धरती से,
पेड़ को स्वर दिया सुनाई,
तुमने बाँधा मेरे कणों को
तभी मैं मजबूत हो पाई,
हे पेड़ राजा ! तुमसा परोपकारी नहीं है कोई।
देख चिड़िया की मुस्कान
सुन धरती का स्तुति गान,
पेड़ ने कहा -
सचमुच मैं हूँ बहुत ही भाग्यवान,
मेरा जीवन है ईश्वर का वरदान,
परोपकार करते-करते
दूँगा मैं अपनी जान।
9.रीति बन रही कुरीति है
गणपति बप्पा,
आपके आगमन पर
सब तरफ रौनक है छाई,
बाजे-गाजे की ध्वनि से
सृष्टि में जीवंतता है आई।
मंगलमूर्ति आपकी
कहीं मूषक के साथ
तो कहीं माँ गौरी
के संग हर्षायी,
धूप, अगरबत्ती, सुमन की सौरभ
हर तरफ है छाई।
बड़े-बड़े पंडालों की शोभा निराली
हर तरफ दी दिखाई,
उसमें चांडाल-चौकड़ी गप-शप करती नज़र आई।
कहीं ताश तो
कहीं मोबाइल में मशगूल है हर कोई,
लाउड स्पीकर की कर्ण भेद ध्वनि से
वृद्ध मंडली गुस्साई,
पढ़ाकू छात्रों की चिड़चिड़ाहाट दी दिखाई।
हे गजकर्ण !
उटपटांग अश्लील गानों से वेदना, अपने नहीं पाई ?
आपके नाम पर की जा रही पैसों की बर्बादी से
मन में खिन्नता है छाई।
कुछ तो करो हे बुद्धि विधाता!
क्यों धर्म के नाम पर
हमारी युवा पीढ़ी है भरमाई?
कुछ ऐसा करो कि
धर्म की हानि रुक जाए,
ना हो कहीं जग हँसाई।
10.मन मेरा दुखता है
कक्षा के बाहर देख उसे
मन मेरा दुखता है,
क्यों वह और बच्चों सा नहीं
मन में यह प्रश्न उठता है।
हर शिक्षक की ज़ुबान पर
बस नाम उसी का आता है,
वह गलत है या हम गलत हैं
मन में अंतर्द्वंद्व यह चलता है।
हमें उसकी अपेक्षानुसार बनना है या
उसे अपनी अपेक्षानुसार बनाना है,
प्रश्न यह बहुत ही खलता है?
शिक्षक उसकी कमियाँ बताते,
अक्सर कक्षा में वह सोता है,
जब वह जाग जाए
उधम वह खूब मचाता है,
कह ले कोई कुछ भी
पास तो वह हो ही जाता है।
कैसे हो सकते हैं
सब बच्चे एक जैसे,
फिर क्यों सबको एक साथ
एक जैसे ही पढ़ना है?
अपनी क्षमता के अनुसार
क्यों नहीं उनको ढलना है?
यह कैसी शिक्षा नीति है?
जो सब को साथ चलने को कहती है?
खरगोश और कछुए में दौड़ लगाती
संग-संग उन्हें दौड़ने कहती है।
अब तो कुछ बदलाव आए
हर बच्चा तनाव रहित
मज़े से पढ़ पाए।
भय, तनाव, कुण्ठा का सर्वनाश हो,
केवल और केवल सहजता से
बुद्धिकौशल का विकास हो।
अनुपमा रविंद्र सिंह ठाकुर
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