" विज्ञान - समाचार" - डॉ दीपक कोहली - * लंबे जीवन का रहस्य: लोगों से उनकी लंबी उम्र का राज़ पूछो तो वे इसका श्रेय अपने खान-पान, व्...
" विज्ञान - समाचार"
- डॉ दीपक कोहली -
* लंबे जीवन का रहस्य:
लोगों से उनकी लंबी उम्र का राज़ पूछो तो वे इसका श्रेय अपने खान-पान, व्यायाम, नृत्य, दिमागी कसरत जैसी तमाम गतिविधियों को देते हैं। 109 वर्षीय जेसी गैलन से जब उनकी लंबी आयु का राज़ पूछा गया तो उन्होंने एक जवाब यह भी दिया कि वे पुरुषों से दूर रहती हैं। लेकिन किसी के मन में यह ख्याल नहीं आता कि इसमें गुणसूत्र (क्रोमोसोम) की भी भूमिका हो सकती है। इसी संदर्भ में हाल ही में बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि असमान लैंगिक गुणसूत्र वाले जीवों की तुलना में समान लैंगिक गुणसूत्र वाले जीव अधिक जीते हैं।
अधिकतर जानवरों में नर और मादा का निर्धारण लैंगिक गुणसूत्रों से होता है। स्तनधारियों में, मादाओं में दोनों लैंगिक गुणसूत्र समान (XX) होते हैं जबकि नर में असमान (XY) होते हैं। पक्षियों में नर में लैंगिक गुणसूत्र समान (ZZ) होते हैं जबकि मादा में असमान (ZW) होते हैं। नर ऑक्टोपस जैसे कुछ जीवों में एक ही लैंगिक गुणसूत्र होता है।
युनिवर्सिटी ऑफ न्यू साउथ वेल्स के इकॉलॉजिस्ट ज़ो ज़ाइरोकोस्टास और उनके साथी जानना चाहते थे कि क्या असमान लैंगिक गुणसूत्र (जैसे XY) वाले जीवों में आनुवंशिक उत्परिवर्तनों का खतरा अधिक होता है, जिसके कारण उनका जीवन काल छोटा हो जाता है? शोधकर्ताओं ने वैज्ञानिक शोध पत्रों, किताबों और ऑनलाइन डैटाबेस को खंगाला और लैंगिक गुणसूत्र और आयु सम्बंधी डैटा निकाला। उन्होंने 99 कुल, 38 गण और 8 वर्गों की 229 प्रजातियों के नर और मादाओं के जीवन काल की तुलना की। उन्होंने पाया कि किसी भी प्रजाति में समान लैंगिक गुणसूत्र वाले लिंग का जीवन काल 17.6 प्रतिशत तक अधिक होता है। जीवन काल का यह पैटर्न मनुष्यों, जंगली जानवरों और पालतू जानवरों में दिखाई दिया।
शोधकर्ताओं का कहना है कि लिंगों के बीच जीवन काल का यह अंतर विभिन्न प्रजातियों में अलग-अलग होता है। जैसे जर्मन कॉकरोच (Blattellagermanica प्रजाति) के नर (सिर्फ X) की तुलना में मादा (XX) 77 प्रतिशत अधिक जीवित रहती है। यह अंतर इस बात पर भी निर्भर करता है कि समान लैंगिक गुणसूत्र वाला जीव नर है या मादा। अध्ययन में उन्होंने पाया कि समान लैंगिक गुणसूत्र वाली मादा (स्तनधारी, सरीसृप, कीट और मछलियां) अपनी प्रजाति के नर की तुलना में 20.9 प्रतिशत अधिक समय तक जीवित रहती हैं। दूसरी ओर, समान लैंगिक गुणसूत्र वाले नर (पक्षी और तितलियां) अपनी प्रजाति की मादाओं की तुलना में सिर्फ 7 प्रतिशत ही अधिक जीते हैं।
शोधकर्ताओं का कहना है कि समान लैंगिक गुणसूत्र वाले नर और मादा के जीवन काल में फर्क देखकर लगता है कि दीर्घायु को लैंगिक गुणसूत्र के अलावा अन्य कारक भी प्रभावित करते हैं। इनमें से एक कारक हो सकता है प्रजनन-साथी चयन का दबाव। मादाओं को रिझाने के लिए कुछ प्रजातियों के नर की शारीरिक बनावट और व्यवहार आकर्षक होते हैं, जिसके लिए उन्हें काफी ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है जिसका खामियाज़ा उनके स्वास्थ्य को भुगतना पड़ता है और जिससे उनकी मृत्यु जल्दी हो जाती है।
आगे शोध से यह समझने में मदद मिलेगी कि लैंगिक गुणसूत्र जीवन काल को कैसे प्रभावित करते हैं। जैसे क्या एक लैंगिक-गुणसूत्र का छोटा आकार नर और मादाओं की आयु में अंतर के लिए जि़म्मेदार है।
*कोशिकाओं की इच्छा मृत्यु:
वर्षा ऋतु में प्रकृति सजीव हो उठती है। कीट-पतंगे, मकडि़यां और नाना प्रकार के जीव जंतु दिखाई पड़ने लगते हैं। मेंढकों का भी यह प्रजनन काल होता है। नर मेंढक ज़ोर-ज़ोर से टर्रा कर मादा को आमंत्रित करते हैं। और मादा भी उनके प्रणय निवेदन को स्वीकार कर खिंची चली आती है।प्रजनन के दौरान मादा मेंढक पानी में अंडे देती है और नर अपने शुक्राणु उनपर छिड़क देता है। अंडों से टैडपोल बनता है और उसके बाद मेंढक। संरचना और स्वभाव में टैडपोल मेंढक से काफी भिन्न होते हैं। टैडपोल पानी में रहते हैं, गलफड़ों से श्वसन करते हैं, शाकाहारी होते हैं और काई कुतर कर खाते हैं। इनकी आंत बहुत लंबी होती है और तैरने के लिए इनमें पूंछ भी होती है। दूसरी ओर, मेंढक पानी और ज़मीन दोनों जगह रहते हैं। त्वचा और फेफड़ों से श्वसन करते हैं। मांसाहारी होते हैं, छोटे-मोटे जीव जंतुओं का शिकार करते हैं। इनकी आंत भी छोटी होती है, पूंछ नहीं होती लेकिन चलने और तैरने के लिए इनके पास बढि़या अनुकूलित टांगें होती हैं।
जब टैडपोल से वयस्क मेंढक बनता है तो उसकी पूंछ और गलफड़े कहां चले जाते हैं? ये टूट कर गिरते नहीं बल्कि अवशोषित कर लिए जाते हैं।
टैडपोल से मेंढक बनने जैसा ही कुछ-कुछ तितली के जीवन में भी घटता है। इनके अंडों से कैटरपिलर (इल्ली) निकलते हैं। कैटरपिलर खूब फूल-पत्तियां खाते हैं। उसके बाद वे एक प्यूपा (शंखी) में बदल जाते हैं। और फिर एक दिन प्यूपा में से तितली निकलती है। तितली कैटरपिलर से बिल्कुल अलग होती है। जहां लंबे कैटरपिलर में चलने के लिए अनेक टांगों जैसी रचनाएं होती हैं, पत्तियों को कुतर-कुतर कर खाने के लिए मज़बूत जबड़े होते हैं वहीं तितलियों में फूल का रस पीने के लिए लंबी स्ट्रॉ के समान सूंड (प्रोबोसिस) नाम की नली होती है, चलने के लिए 3 जोड़ी टांगें और उड़ने के लिए पंख होते हैं।
टैडपोल और कैटरपिलर दोनों में ही अनेक अंग वयस्क होने पर बदल जाते हैं। पुराने अंग नष्ट होकर अवशोषित हो जाते हैं और नए अंगों का निर्माण होता है। अर्थात प्रत्येक प्राणी में विकास के दौरान अनेक पुरानी और टूटी-फूटी कोशिकाएं बेकार हो जाने पर निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार नष्ट हो जाती हैं। कोशिका के नष्ट होने की इस प्रक्रिया को एपोप्टोसिस या तयशुदा कोशिका मृत्यु (प्रोग्राम्ड सेल डेथ) कहते हैं।
हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका की निश्चित आयु होती है। जैसे रक्त में पाई जाने वाली लाल रक्त कोशिकाएं मात्र 120 दिन जीवित रहती हैं। इनकी भरपाई के लिए कोशिका विभाजन द्वारा निरंतर नई कोशिकाएं बनती रहती हैं।
प्राय: कोशिकाओं की मृत्यु चोट, संक्रमण, विकिरण या रसायनों आदि के कारण होती हैं। यह आत्मघात नहीं है। इसे नेक्रोसिस कहते हैं। इसमें कोशिकाएं स्वेच्छा से नहीं मरतीं, उनकी हत्या होती है। किन्तु एपोप्टोसिस आंतरिक या बाह्य कारणों से, शरीर के हित में स्वैच्छिक आत्म बलिदान है, मृत्यु का वरण है। शरीर के रोगों से और दर्द से बचाने का तरीका है।
नेक्रोसिस और एपोप्टोसिस में कोशिकाएं भिन्न प्रकार से नष्ट होती हैं। कोशिका मृत्यु के दोनों प्रकार नेक्रोसिस और एपोप्टोसिस की विधियों में भिन्नता आसानी से पहचानी जा सकती है।
नेक्रोसिस के प्रारंभ में प्राय: कोशिकाओं में सूजन आ जाती है और सूजन के सभी लक्षण परिलक्षित होते हैं। दर्द महसूस होता है। कोशिकाएं फूल जाती है और उनका ढांचा और उनकी अखंडता नष्ट हो जाती है। कोशिकांग फूल कर फूटने लगते हैं। यह सब अव्यवस्थित ढंग से होता है।
एपोप्टोसिस में कोशिकाएं फूलने के बजाए सूखने और सिकुड़ने लगती हैं, छोटी हो जाती हैं। कोशिका झिल्ली की बाहरी सतह पर बुलबुलों के समान रचनाएं (ब्लेब) बनने लगती हैं। कोशिका द्रव्य और केन्द्रक सिकुड़ने लगते हैं। क्रोमेटिन यानी डीएनए और प्रोटीन नष्ट होने लगते हैं और अन्तत: कोशिका छोटे-छोटे पैकेट्स में टूट जाती हैं जिन्हें भक्षी कोशिकाएं (फेगोसाइट्स) अपने अंदर लेकर नष्ट कर देते हैं।
कोशिकाएं आत्मघात क्यों करती हैं? शरीर की वृद्धि के लिए जिस प्रकार कोशिका विभाजन आवश्यक है उसी प्रकार स्थान बनाने के लिए आत्मघात भी आवश्यक है। कुछ कोशिकाएं विशेष कार्य के लिए बनती हैं। कार्य की समाप्ति पर ये अनावश्यक और शरीर पर अवांछित बोझ हो जाती हैं। जैसे मेंढक की पूंछ, गलफड़े और लंबी आंत।
इसी प्रकार नए अंगों के निर्माण में भी आत्मघात महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए मानव भ्रूण में हाथ-पैर चप्पू जैसे होते हैं। उंगलियों के बीच में जाल होने के कारण उंगलियां पकड़ के लिए स्वतंत्र नहीं होती। अंगूठा भी उंगलियों से जुड़ा होता है और पकड़ने लायक नहीं होता। आत्मघात से ही कार्यशील उंगलियां निर्मित होती हैं। शरीर की वे कोशिकाएं जो संक्रमित हो जाती हैं उन्हें भी आत्मघात के द्वारा संक्रमण को बढ़ने से रोक कर पूरे शरीर को संक्रामक रोग से बचा लिया जाता है।
कैंसर का एपोप्टोसिस से गहरा नाता है। वायरस कैंसर कोशिकाओं को आत्मघात नहीं करने देता अन्यथा वायरसयुक्त कोशिकाएं आत्मघात करके शरीर को कैंसर जैसे घातक रोगों से बचा सकती हैं। अंग प्रत्यारोपण में आत्मघात की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि किसी प्रकार से प्रतिरक्षा कोशिकाएं आत्मघात से नष्ट हो जाएं तो प्रत्यारोपित अंगों को शरीर स्वीकार कर लेता है।
आत्मघात के अध्ययन में सिनोरैब्डाइटिस एलेगेंस नामक कृमि को मॉडल जीव के रूप में प्रयुक्त कर बहुत से रहस्यों पर से पर्दा उठाने में मदद मिली है।
सन 2002 में चिकित्सा/कार्यिकी का नोबेल पुरस्कार तीन वैज्ञानिकों को मिला था। इन्होंने भ्रूणीय विकास के दौरान अंगों के निर्माण तथा कोशिका आत्मघात में आनुवंशिक नियंत्रण की भूमिका को समझाने के लिए मौलिक खोज की थी। छोटी आयु, भरपूर प्रजनन क्षमता, पारदर्शी शरीर एवं आसानी से प्रयोगशाला में कल्चर हो जाने की सुविधाओं के कारण वैज्ञानिकों ने सिनोरैब्डाइटिस एलेगेंस कृमि का चुनाव किया था। उन्होंने पाया कि कृमि के 1090 में से 131 कोशिकाएं नियत समय पर कोशिका आत्मघात से मर जाती है।
उन्होंने यह भी बताया कि भ्रूण से कृमि बनने की प्रक्रिया के दौरान कुछ कोशिकाएं कोशिका आत्मघात से गुजरती हैं क्योंकि उनका कार्य कृमि शरीर में खत्म हो चुका होता है। उन्होंने कोशिका आत्मघात की प्रक्रिया के लिए जि़म्मेदार जीन भी खोज निकाला। आत्मघात के लिए जि़म्मेदार जीन में म्यूटेशन होने से मरने की बजाय कोशिकाएं विभाजन करने लगती हैं। उन्होंने यह भी बताया कि ये जीन मानव में भी पाए जाते हैं।
जब टैडपोल या कैटरपिलर को क्रमश: मेंढक और तितली (यानी वयस्क) में बदलने का समय आ जाता है तो उनकी अनेक कोशिकाओं को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ता है। टैडपोल के परिवर्धन में थायरॉइड हार्मोन की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। थायरॉइड हार्मोन वहां पर जुड़ जाता है जहां कोशिका के केन्द्रक में थायरॉइड ग्राही हो। थायरॉइड हार्मोन के जुड़ते ही कोशिका आत्मघात करने वाले जीन को अभिव्यवित करने लगती है। इसके साथ ही आत्मघात के आंतरिक एवं बाहरी रास्ते भी खुल जाते हैं।
* एम्बर में सुरक्षित मेला डायनासोर का सर:
लगभग दस करोड़ वर्ष पुराने एम्बर में अब तक पाए गए सबसे छोटे डायनासौर का सिर सुरक्षित मिला है। रेजि़न में फंसा यह सिर (चोंच सहित) लगभग 14 मिलीमीटर का है। इससे लगता है कि यह डायनासौर बी-हमिंगबर्ड जितना बड़ा रहा होगा। यह सिर जिस डायनासौर समूह का है, माना जाता है कि उससे आधुनिक पक्षियों का विकास हुआ है।
म्यांमार से प्राप्त इस जीवाश्म को ओकुलुडेंटेविस खौंगरेई यानी आई-टूथ बर्ड का नाम दिया गया है। आधुनिक छिपकली की तरह, इसके सिर के दोनों ओर बड़ी-बड़ी आंखें हैं। और इसकी आंखों का छिद्र छोटा है जो आंखों में प्रवेश करने वाली रोशनी को सीमित करता है। इससे लगता है कि यह जानवर दिन में सक्रिय रहता था।
आदिम पक्षियों की तरह ओकुलुडेंटेविस के ऊपरी और निचले जबड़े में नुकीले दांत थे, जिससे लगता है कि यह एक शिकारी जीव था जो कीटों और छोटे अकशेरुकी जीवों का शिकार करता था। नेचर पत्रिका में प्रकाशित शोध में शोधकर्ताओं को लगता है कि डायनासौर की यह प्रजाति द्वीपीय बौनेपन का एक उदाहरण है, जो टापुओं की उस अर्ध वलय पर रहते थे जहां वर्तमान म्यांमार स्थित है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि शरीर के बाकी हिस्सों के बिना पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि ओकुलुडेंटेविस अन्य डायनासौर से कितना करीबी था, या वह उड़ सकता था या नहीं। लेकिन उन्हें लगता है कि यह शायद आर्कियोप्टेरिक्स और जेहोलॉर्निस प्रजाति के पक्षियों के समान है जो लगभग 15 से 12 करोड़ वर्ष पूर्व अस्तित्व में थे।
* 17 वीं शताब्दी की पहेली भंवरे की मदद से सुलझी:
साल 1688 में एक आयरिश दार्शनिक विलियम मोलेनो ने अपने सहयोगी जॉन लॉके से एक सवाल पूछा था: कोई जन्मजात दृष्टिहीन व्यक्ति जिसने मात्र स्पर्श से चीज़ों को पहचानना सीखा है, यदि आगे चलकर उसमें देखने की क्षमता आ जाए, तो क्या वह सिर्फ देखकर चीज़ों को पहचान पाएगा? उनका यह सवाल मोलेनो समस्या के नाम से जाना जाता है। सवाल मूलत: यह है कि क्या मनुष्य में आकृतियां पहचानने की क्षमता जन्मजात होती है या क्या वे देखकर, स्पर्श से और अन्य इंद्रियों के माध्यम से इसे सीखते या अर्जित करते हैं? यदि दूसरा विकल्प सही है, तो इसमें बहुत समय लगना चाहिए।
कुछ वर्ष पूर्व इस गुत्थी को सुलझाने के एक प्रयास में कुछ ऐसे बच्चे शामिल किए गए थे जो जन्म से अंधे थे लेकिन बाद में उनकी दृष्टि बहाल हो गई थी। ये बच्चे तत्काल तो देखकर आकृतियां नहीं पहचान पाए थे लेकिन बहुत समय भी नहीं लगा था। लेकिन कुछ तो सीखना पड़ा था। यानी परिणाम अस्पष्ट थे। हाल ही में लंदन स्थित क्वीन मैरी युनिवर्सिटी के लार्स चिटका और उनके साथियों ने इस सवाल का जवाब खोजने की कोशिश एक बार फिर से की है।
प्रयोग भंवरों पर किया गया। अपने अध्ययन में उन्होंने पहले भंवरों को उजाले में गोले और घन में अंतर सीखने का प्रशिक्षण दिया – उजाले में, दो बंद पेट्री डिश में गोले और घन आकृतियां रखी गर्इं और उनमें से किसी एक को चुनने पर शकर का इनाम दिया गया। गोले और घन बंद पेट्री डिश में रखे थे इसलिए भंवरे उन्हें देख तो सकते थे लेकिन छू नहीं सकते थे। देखा गया कि भंवरे उस आकृति के साथ ज़्यादा समय बिताते हैं, जिसका सम्बंध शकर रूपी इनाम से है; यानी वे उस आकृति को पहचानते हैं।
इसके बाद उन्होंने यही जांच अंधेरे में की। यानी भंवरे वस्तुओं को छू तो सकते थे लेकिन देख नहीं सकते थे। शोधकर्ताओं ने पाया कि जिस आकृति के लिए भंवरों को शकर का पुरस्कार मिला था, उस आकृति के साथ भंवरों ने अधिक समय बिताया।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने यही अध्ययन उल्टी तरह से किया – पहले उन्हें अंधेरे में प्रशिक्षित किया और उजाले में जांच की। इसमें भी, दोनों ही स्थितियों में जहां उन्हें वस्तु छूकर पहचानना था या देखकर, जिस आकृति के लिए भंवरों को शकर दी गई थी उस आकृति के पास अधिक वक्त बिताया।
कीटों में दृश्य पैटर्न को पहचानने की क्षमता का काफी अध्ययन हुआ है। शोधकर्ताओं को यह तो पहले से पता था कि कीट फूलों और मनुष्य के चेहरों के पेचीदा रंग-विन्यास को पहचान सकते हैं। लेकिन विन्यास पहचान के लिए ज़रूरी नहीं है कि मस्तिष्क में उस विन्यास का कोई चित्र बने। तो सवाल यह था कि क्या हमारे मस्तिष्क के समान कीटों के मस्तिष्क में भी वस्तु का कोई चित्रण बनता है।
लेकिन शोधकर्ताओं का मत है कि उनके अध्ययन में ये कीट एक किस्म की संवेदना से प्राप्त सूचना को किसी अन्य किस्म की संवेदना में तबदील करके वस्तु का चित्रण कर पाए। इसके आधार पर उनका कहना है कि इन भंवरों ने मोलेनो के सवाल का जवाब दे दिया है। अर्थात एक किस्म की संवेदना से निर्मित चित्र दूसरे किस्म की संवेदना द्वारा इस्तेमाल किया जा सकता है।
अलबत्ता, अन्य वैज्ञानिक इस प्रयोग की वास्तविक दुनिया में वैधता के बारे में शंकित हैं। जैसे भंवरे फूलों को पहचानने के लिए दृष्टि और गंध दोनों संकेतों पर निर्भर होते हैं। इसलिए ऐसे अध्ययन करना होंगे जो भंवरों की प्राकृतिक स्थिति से मेल खाएं।
* वृद्धावस्था की जड़ में एक एंजाइम:
परिवर्तन और वृद्ध होने की प्रक्रियाएं ही हैं जो हमें समय बीतने का एहसास कराती हैं। और समय बीतने का एहसास न हो तो मानव विकास, कला व सभ्यता काफी अलग होंगे।
प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ (पीएनएएस) में ए एंड एम विश्वविद्यालय, एरिज़ोना स्टेट विश्वविद्यालय, चाइना कृषि विश्वविद्यालय और स्कोल्वो विज्ञान व टेक्नॉलॉजी संस्थान के शोधकर्ताओं के एक शोध पत्र में सजीवों में बुढ़ाने की प्रक्रिया की क्रियाविधि की एक समझ एक कदम आगे बढ़ी है।
इस कदम का सम्बंध कोशिकाओं में उपस्थित डीएनए के एक अंश से है, जो कोशिकाओं के विभाजन और नवीनीकरण में भूमिका निभाता है। यह घटक सबसे पहले ठहरे हुए पानी की एक शैवाल में खोजा गया था और आगे चलकर पता चला कि यह अधिकांश सजीवों के डीएनए में पाया जाता है। पीएनएएस के शोध पत्र में टीम ने खुलासा किया है कि यह घटक पौधों में कैसे काम करता है। धरती पर सबसे लंबी उम्र पौधे ही पाते हैं, इसलिए इनमें इस घटक की समझ को आगे चलकर अन्य जीवों और मनुष्यों पर भी लागू किया जा सकेगा।
सजीवों में वृद्धि और प्रजनन दरअसल कोशिका विभाजन के ज़रिए होते हैं। विभाजन के दौरान कोई भी कोशिका दो कोशिकाओं में बंट जाती हैं, जो मूल कोशिका के समान होती हैं। यह प्रतिलिपिकरण कोशिका के केंद्रक में उपस्थित डीएनए की बदौलत होता है। डीएनए एक लंबा अणु होता है जिसमें कोशिका के निर्माण का ब्लूप्रिंट भी होता है और स्वयं की प्रतिलिपि बनाने का साधन भी होता है। डीएनए की प्रतिलिपि इसलिए बन पाती है क्योंकि यह दो पूरक शृंखलाओं से मिलकर बना होता है। जब ये दोनों शृंखलाएं अलग-अलग होती हैं, तो दोनों में यह क्षमता होती है कि वे अपने परिवेश से पदार्थ लेकर दूसरी शृंखला बना सकती हैं।
लेकिन इसमें एक समस्या है। प्रतिलिपिकरण के दौरान ये शृंखलाएं लंबी हो सकती हैं या किसी अन्य डीएनए से जुड़ सकती हैं। ऐसा होने पर जो अणु बनेगा वह अकार्यक्षम होगा और इस तरह से बनने वाली कोशिकाएं नाकाम साबित होंगी। लिहाज़ा डीएनए में एक ऐसी व्यवस्था बनी है कि ऐसी गड़बड़ियों को रोका जा सके। प्रत्येक डीएनए के सिरों पर कुछ ऐसी रासायनिक रचना होती है जो बताती है कि वह उस अणु का अंतिम हिस्सा है। और डीएनए में यह क्षमता होती है कि वह अपने सिरों पर यह व्यवस्था बना सके।
सिरे पर स्थित इस व्यवस्था को टेलामेयर कहते हैं। यह वास्तव में उन्हीं इकाइयों से बना होता है जो डीएनए को भी बनाती हैं। और यह टेलोमेयर एक एंज़ाइम की मदद से बनाया जाता है जिसे टेलोमरेज़ कहते हैं। कोशिकाओं में किसी भी रासायनिक क्रिया के संपादन हेतु एंज़ाइम पाए जाते हैं।
बुढ़ाने की प्रक्रिया की प्रकृति को समझने की दिशा में शुरुआती खोज यह हुई थी कि कोई भी कोशिका कितनी बार विभाजित हो सकती है, इसकी एक सीमा होती है। आगे चलकर इसका कारण यह पता चला कि हर बार विभाजन के समय जो नई कोशिकाएं बनती हैं, उनका डीएनए मूल कोशिका के समान नहीं होता। हर विभाजन के बाद टेलोमेयर थोड़ा छोटा हो जाता है। एक संख्या में विभाजन के बाद टेलोमेयर निष्प्रभावी हो जाता है और कोशिका विभाजन रुक जाता है। लिहाज़ा, वृद्धि धीमी पड़ जाती है, सजीव का कामकाज ठप होने लगता है और तब कहा जाता है कि वह जीव बुढ़ा रहा है।
उपरोक्त खोज 1980 में एलिज़ाबेथ ब्लैकबर्न, कैरोल ग्राइडर और जैक ज़ोस्ताक ने की थी और इसके लिए उन्हें 2009 में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया था। अच्छी बात यह थी कि इन शोधकर्ताओं ने एक एंज़ाइम (टेलोमरेज़) की खोज भी की थी जिसमें टेलोमेयर के विघटन को रोकने या धीमा करने और यहां तक कि उसे पलटने की भी क्षमता होती है। टेलोमरेज़ में वह सांचा मौजूद होता है जो आसपास के परिवेश से पदार्थों को जोड़कर डीएनए का टेलोमरेज़ वाला खंड बना सकता है। इसके अलावा टेलोमरेज़ में यह क्षमता भी होती है कि वह पूरे डीएनए की ऐसी प्रतिलिपि बनवा सकता है, जिसमें अंतिम सिरा नदारद न हो। इस तरह से टेलोमरेज़ विभाजित होती कोशिकाओं को तंदुरुस्त रख सकता है।
टेलोमेयर और टेलोमरेज़ की क्रिया कोशिका मृत्यु और कोशिकाओं की वृद्धि में निर्णायक महत्व रखती है। वैसे किसी भी जीव की अधिकांश कोशिकाएं बहुत बार विभाजित नहीं होतीं, इसलिए अधिकांश कोशिकाओं को टेलोमेयर के घिसाव या संकुचन से कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन स्टेम कोशिकाओं की बात अलग है। ये वे कोशिकाएं होती हैं जो क्षति या बीमारी की वजह से नष्ट होने वाली कोशिकाओं की प्रतिपूर्ति करती हैं। उम्र बढ़ने के साथ ये स्टेम कोशिकाएं कम कारगर रह जाती हैं और जीव चोट या बीमारी से उबरने में असमर्थ होता जाता है। दरअसल, कई सारी ऐसी बीमारियां है जो सीधे-सीधे टेलोमरेज़ की गड़बड़ी की वजह से होती हैं। जैसे एनीमिया, त्वचा व श्वसन सम्बंधी रोग।
इसके आधार पर शायद ऐसा लगेगा कि टेलोमरेज़ को प्रोत्साहित करने के तरीके खोजकर हम वृद्धावस्था से निपट सकते हैं। लेकिन गौरतलब है कि टेलोमरेज़ का बढ़ा हुआ स्तर कैंसर कोशिकाओं को अनियंत्रित विभाजन में मदद कर नई समस्याएं पैदा कर सकता है। अत: टेलोमरेज़ की क्रियाविधि को समझना आवश्यक है ताकि हम ऐसे उपचार विकसित कर सकें जिनमें ऐसे साइड प्रभाव न हों।
पीएनएएस के शोध पत्र के लेखकों ने बताया है कि वैसे तो टेलोमरेज़ की भूमिका सारे जीवों में एक-सी होती है, लेकिन यह सही नहीं है कि उसका कामकाजी हिस्सा भी सारे सजीवों में एक जैसा हो। कामकाजी हिस्से से आशय टेलोमरेज़ के उस हिस्से से है जो कोशिका विभाजन के दौरान डीएनए को टेलोमेयर के संश्लेषण में मदद देता है। इस घटक को टेलोमरेज़ आरएनए (या संक्षेप में टीआर) कहते हैं। शोध पत्र में स्पष्ट किया गया है कि टीआर की प्रकृति को समझना काफी चुनौतीपूर्ण रहा है क्योंकि विभिन्न प्रजातियों में टीआर की प्रकृति व संरचना बहुत अलग-अलग होती है।
टीम ने अपना कार्य एरेबिडॉप्सिस थैलियाना नामक पौधे के टेलोमरेज़ के साथ प्रयोग और विश्लेषण के आधार पर किया। एरेबिडॉप्सिस थैलियाना पादप वैज्ञानिकों के लिए पसंदीदा मॉडल पौधा रहा है। शोध पत्र के मुताबिक अध्ययन से पता चला कि टीआर अणु में विविधता के बावजूद इस अणु के अंदर दो ऐसी विशिष्ट रचनाएं हैं जो विभिन्न प्रजातियों में एक जैसी बनी रही हैं। पिछले अध्ययनों से आगे बढ़कर वर्तमान अध्ययन में एरेबिडॉप्सिस थैलियाना में टीआर का एक प्रकार पहचाना गया है जो संभवत: टेलोमेयर के रख-रखाव में मदद करता है और टेलोमेयर की एक उप-इकाई के साथ जुड़कर टेलोमरेज़ की गतिविधि का पुनर्गठन करता है।
अध्ययन में पादप कोशिका, तालाब में पाई जाने वाली स्कम और अकशेरुकी जंतुओं के टीआर के तुलनात्मक लक्षण भी उजागर किए हैं। इनसे जैव विकास के उस मार्ग का भान होता है जिसे एक-कोशिकीय प्राणियों से लेकर वनस्पतियों और ज़्यादा जटिल जीवों तक के विकास के दौरान अपनाया गया है। इस मार्ग को समझकर हम यह समझ पाएंगे कि टेलोमेयर के काम को किस तरह बढ़ावा दिया जा सकता है या रोका जा सकता है।
टेलोमेयर घिसाव की प्रक्रिया अनियंत्रित कोशिका विभाजन को रोकने के लिए अनिवार्य है। इसी वजह से जीव बूढ़े होते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसीलिए जंतुओं की आयु चंद दशकों तक सीमित होती है। दूसरी ओर, ब्रिासलकोन चीड़ और यू वृक्ष हज़ारों साल जीवित रहते हैं। यदि हम यह समझ पाएं कि पादप जगत वृद्धावस्था की प्रक्रिया से कैसे निपटते हैं, तो शायद हमें मनुष्यों की आयु बढ़ाने या कम से कम जीवन की गुणवत्ता बेहतर बनाने का रास्ता मिल जाए।
*प्राचीन एम्बर में सुरक्षित मिला तिलचट्टा:
एम्बर (जीवाश्मित रेजि़न) में तिलचट्टों का मल सुरक्षित मिलना तो काफी आम है। लेकिन उत्तरी म्यांमार की हुकॉन्ग घाटी से बरामद किए गए करीब 1 करोड़ वर्ष पुराने एम्बर नमूनों में तिलचट्टा (कॉकरोच) और उसका मल दोनों साथ मिले हैं। एम्बर में किसी जीव का मल और सम्बंधित जीव दोनों का साथ मिलना काफी दुर्लभ है।
नेचरविसेनशाफ्टेन (प्रकृति विज्ञान) में प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ताओं ने मल का बहुत बारीकी से अवलोकन किया है। उन्हें कॉकरोच की विष्ठा में संरक्षित परागकण दिखे, जिससे पता चलता है कि साइकस वृक्षों के परागण में तिलचट्टों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। (साइकस वृक्षों से ऐसा रस निकलता है जिसमें यह बदकिस्मत कॉचरोच फंस गया।) विष्ठा में शोधकर्ताओं को प्रोटोज़ोआ और बैक्टीरिया भी मिले हैं जो आजकल की दीमक और कॉकरोच की आंतों में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवों से मिलते-जुलते हैं, जिससे लगता है कि कीट और उनकी आंत के सूक्ष्मजीवों का साथ लगभग एक करोड़ वर्ष पहले से है।
वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि यह अध्ययन अन्य वैज्ञानिकों को रेजि़न में फंसे जीवों की ही नहीं बल्कि उनकी विष्ठा का भी बारीकी से पड़ताल करने को प्रोत्साहित करेगा।
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लेखक परिचय
*नाम - डॉ दीपक कोहली
*जन्मतिथि - 17 जून, 1969
*जन्म स्थान- पिथौरागढ़ ( उत्तरांचल )
*प्रारंभिक जीवन तथा शिक्षा - हाई स्कूल एवं इंटरमीडिएट की शिक्षा जी.आई.सी. ,पिथौरागढ़ में हुई।
*स्नातक - राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, पिथौरागढ़, कुमायूं विश्वविद्यालय, नैनीताल ।
*स्नातकोत्तर ( एम.एससी. वनस्पति विज्ञान)- गोल्ड मेडलिस्ट, बरेली कॉलेज, बरेली, रुहेलखंड विश्वविद्यालय ( उत्तर प्रदेश )
*पीएच.डी. - वनस्पति विज्ञान ( बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान, लखनऊ, उत्तर प्रदेश)
*संप्रति - उत्तर प्रदेश सचिवालय, लखनऊ में उप सचिव के पद पर कार्यरत।
*लेखन - विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लगभग 1000 से अधिक वैज्ञानिक लेख /शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं।
*विज्ञान वार्ताएं- आकाशवाणी, लखनऊ से प्रसारित विभिन्न कार्यक्रमों में 50 से अधिक विज्ञान वार्ताएं प्रसारित हो चुकी हैं।
*पुरस्कार-
1.केंद्रीय सचिवालय हिंदी परिषद नई दिल्ली द्वारा आयोजित 15वें अखिल भारतीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी लेखन प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार, 1994
2. विज्ञान परिषद प्रयाग, इलाहाबाद द्वारा उत्कृष्ट विज्ञान लेख का "डॉ .गोरखनाथ विज्ञान पुरस्कार" क्रमशः वर्ष 1997 एवं 2005
3. राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान ,उत्तर प्रदेश, लखनऊ द्वारा आयोजित "हिंदी निबंध लेख प्रतियोगिता पुरस्कार", क्रमशः वर्ष 2013, 2014 एवं 2015
4. पर्यावरण भारती, मुरादाबाद द्वारा एनवायरमेंटल जर्नलिज्म अवॉर्ड्, 2014
5. सचिवालय सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजन समिति, उत्तर प्रदेश ,लखनऊ द्वारा "सचिवालय दर्पण निष्ठा सम्मान", 2015
6. राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उत्तर प्रदेश, लखनऊ द्वारा "साहित्य गौरव पुरस्कार", 2016
7.राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान ,उत्तर प्रदेश, लखनऊ द्वारा "तुलसी साहित्य सम्मान", 2016
8. पर्यावरण भारती, मुरादाबाद द्वारा "सोशल एनवायरमेंट अवॉर्ड", 2017
9. पर्यावरण भारती ,मुरादाबाद द्वारा "पर्यावरण रत्न सम्मान", 2018
10. अखिल भारती काव्य कथा एवं कला परिषद, इंदौर ,मध्य प्रदेश द्वारा "विज्ञान साहित्य रत्न पुरस्कार",2018
11. पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ द्वारा वृक्षारोपण महाकुंभ में सराहनीय योगदान हेतु प्रशस्ति पत्र / पुरस्कार, 2019
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डॉ दीपक कोहली, पर्यावरण , वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग उत्तर प्रदेश शासन,5/104, विपुल खंड, गोमती नगर लखनऊ - 226010 (उत्तर प्रदेश )
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