रामनवमीं के अवसर पर भए प्रगट कृपाला दीन दयाला कौसल्या हितकारी प्रो. अश्विनी केशरवानी श्रीरामचंद्र को भगवान विष्णु का पूर्ण अवतार माना गया है...
रामनवमीं के अवसर पर
भए प्रगट कृपाला दीन दयाला कौसल्या हितकारी
प्रो. अश्विनी केशरवानी
श्रीरामचंद्र को भगवान विष्णु का पूर्ण अवतार माना गया है। अवतार के प्रयोजन और उसके महत्व का विशद विवेचन विभिन्न पुराणों में मिलता है लेकिन भगवद्गीता में इसका स्पष्ट उल्लेख हुआ है। उसमें बताया गया है कि भगवान विष्णु के अवतारों में सृष्टि के विकास का रहस्य छिपा माना गया है। भगवान विष्णु के अवतारों की तीन श्रेणियां क्रमशः पूर्ण अवतार, आवेशावतार और अंशावतार है। श्रीराम और श्रीकृष्ण को पूर्णावतार और भगवान परशुराम को आवेशावतार माना गया है। विभिन्न ग्रंथों में उनके 24 और 10 अवतारों का उल्लेख है जिसमें मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, और कल्कि प्रमुख हैं। भगवान विष्णु के अवतारों का सामूहिक या स्वतंत्र निरूपण कुषाणकाल के पूर्व नहीं मिलता। इस काल में वराह, कृष्ण और बलराम की मूर्तियां बननी प्रारंभ हुई। गुप्तकाल में वैष्णव धर्मावलंबी शासकों के संरक्षण में अवतारवाद की धारणा का विकास हुआ। गुप्तकाल के बाद 7 से 13 वीं शताब्दी के मध्य लगभग सभी क्षेत्रों में दशावतार फलकों तथा अवतार स्वरूपों की स्वतंत्र मूर्तियां बनीं। इसमें वराह, नृसिंह और वामन स्वरूपों की सर्वाधिक मूर्तियां बनीं। ये मूर्तियां महाबलीपुरम्, एलोरा, बेलूर, सोमनाथपुर, ओसियां, भुवनेश्वर, खजुराहो तथा अन्य अनेक स्थलों से प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त राम, बलराम और कृष्ण की मूर्तियां पर्याप्त मात्रा में मिली हैं। भगवान विष्णु के एक अवतार के रूप में दशरथी राम की लोकमानस से जुड़े होने के कारण ब्राह्मण देवों में विशेष प्रतिष्ठा रही है। यह सत्य है कि भारतीय शिल्प में दशरथनंदन राम की मूर्तियां अन्य देवों की तुलना में गुप्तकाल में लोकप्रिय हुई किंतु विष्णु के एक अवतार के रूप में इनकी कल्पना निःसंदेह प्राचीन है और ब्राह्मण देवों में इनकी विशेष प्रतिष्ठा रही है। यह सत्य है कि भारतीय शिल्प में दशरथनंदन राम की मूर्तियां अन्य देवों की तुलना में बाद में लोकप्रिय हुई। प्रतिमा लक्षण ग्रंथों में आभूषणों और कीरिट मुकुट से सुशोभित द्विभुज श्रीराम के मनोहारी और युवराज के रूप में निरूपण मिलता है। द्विभुज राम के हाथों में धनुष और बाण प्रदर्शित होते हैं, जैसा कि शिवरीनारायण के श्रीराम जानकी मंदिर और खरौद के शबरी मंदिर में मिलता है। कहीं कहीं श्रीरामलक्ष्मणजानकी के साथ भरत और शत्रुघन की मूर्तियां श्रीराम पंचायत के रूप में मिलती है। श्रीराम पंचायत की मूर्तियां रायपुर के दूधाधारी मठ में स्थित हैं।
श्री शिवरीनारायण माहात्म्य में श्रीराम जन्म के संबंध में उल्लेख है जिसमें विष्णु भगवान रामावतार के पूर्व देवताओं को कहते हैं :-
मैं निज अंशहि अवध में, रघुकुल हो तनु चार
राम लक्ष्मण भरत अरू शत्रूहन सुकुमार।
कौशल्या के गर्भ में जन्महु निस्संदेह
महात्मा दशरथ नृपति मो पर करत सनेह।।02/128-129
हे देवों ! मैं अयोध्यापति दशरथ के घर जन्म लेने जा रहा हूं। आप लोग भी वहां जन्म लेकर अपना जीवन सार्थक बनाएं। मैं वहां माता कौशल्या के गर्भ से जन्म लूंगा क्योंकि राजा दशरथ का मेरे उपर बहुत स्नेह है। लोमश ऋषि आगे कहते हैं कि श्रीरामचंद्र जी के अनेक अवतार हुए हैं। उनके विस्तार, जन्म-कर्म का लेखा लगाना बड़ा कठिन है। इसमें तिलमात्र भी संदेह नहीं कि हरि माया बलवती है। उससे ज्ञानी, अज्ञानी और गुणवान भी मोहित हो जाते हैं :-
परमात्मा श्रीराम के भये विविध अवतार
जन्म कर्म के भेद अति हैं विविध विस्तार
यामे नहिं संदेह कछु हरि माया बलवान
अज्ञानी गुनवान हूं मोहि रही जग जान।। 04/5-6
परमात्मा श्रीराम के जब जब भये अवतार
किये राज्य नगरी अवध बल बंधि नीति विचार
तब तब मैं तोहि कुंड में डारे शालिगराम
रत्नमयी उज्जवल तहां है अनन्त छबिधाम।। 04/7-8
श्रृंगि ऋषि के पुत्रेष्ठि यज्ञ कराने पर जो चारू प्राप्त हुआ था उसे महाराजा दशरथ अपनी तीनों रानियों को खिला दिया। कालान्तर में माता कौशल्या के गर्भ से श्रीराम, माता कैकेयी के गर्भ से भरत और माता सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघन का जन्म हुआ। चारों राजकुमारों के जन्म से मानों अयोध्या नगरी को आनंद से भर दिया। सभी अयोध्यावासी आनंद से नाचने गाने लगे जैसे उनकी मुराद पूरी हो गयी हो। देवलोक में भी सभी देवता नाचने गाने लगे और पुष्प वर्षा करने लगे।
पवित्र चैत्र का महिना था, शुक्ल पक्ष की नवमीं तिथि और भगवान का अभिजित मुहूर्त था। दोपहर का समय, न बहुत सर्दी थी न बहुत धूप और वह समय सब लोकों को शांति देने वाला था। शीतल मंद और सुगंधित हवा चल रही थी। देवता बहुत हर्षित हैं, संतों के मन में बड़ा चाव था। फूल खिले हुए थे, पर्वत मणियों से जगमगा रहा था और नदियों में पवित्र अमृतधारा बह रही थी। ऐसे में दीनों पर दया करने वाले कौशल्या जी के हितकारी, कृपालु प्रभु प्रगट हुए। मुनियों के मन को हरने वाले और उनके अद्भूत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गयीं। नेत्रों को आनंद देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर, चारों भुजाओं में आयुध धारण किये दिव्य आभूषण और वनमाला पहने प्रभु प्रकट हुए।
भए प्रगट कृपाला दीन दयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भूत रूप विचारी।।
लोचन अभिरामा तनु घनश्यामा निज आयुध भुजचारी।
भूषन वनमाला नयन बिसाला सोमा सिंधु खरारी।।
राजा दशरथ पुत्र जन्म की बात सुनकर मानो ब्रह्मानन्दमें समा गये। मन में अतिशय प्रेम उमड़ आया, शरीर पुलकित हो उठा। वे विचार करने लगे-
जाकर नाम सुनत शुभ होई। मोरे गृह आवा प्रभु सोई।।
जिनका नाम सुनते ही कल्याण होता है, वही प्रभु मेरे घर आये हैं। राजा का मन आनंदित हो उठा। उन्होंने बाजा बजाने वालों को बुलाकर बजाने को कहा। गुरू वसिष्ठ को बुलाया गया। उन्होंने अनुपम बालक को देखा जो रूप की राशि है और जिसके गुण कहने से समाप्त नहीं होते। पूरी अयोध्या नगरी में खुशी छा गया। पूरे नगर में ध्वज पताका और तोरण लगाये गये। आकाश से जैसे फूलों की वर्षा हो रही है और सब लोग ब्रह्मानन्द में मग्न हैं। इधर राजा जातकर्म संस्कार करके दान-दक्षिणा दे रहे हैं, माताएं निछावर कर रही हैं और पूरा नगर बाजा गाजा के साथ बधावा गीत गा रहे हैं-
गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा केद।
हरषवंत सब जहं जहं नगर नारि नर बृंद।।
नामकरण संस्कार करते हुए ऋषि कहते हैं-ये जो आनंद के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिसके एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं ऐसे प्रजापालक आपके जेष्ठय पुत्र का नाम ‘‘राम‘‘ होगा। जो सुख का भवन और सम्पूर्ण लोकों को शांति देने वाला होगा। तुलसीदास जी लिखते हैं :-
जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी।
सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक विश्रामा।।
वे आगे लिखते हैं-मैं श्री रघुनाथ जी के नाम ‘राम‘ की वंदना करता हूं जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चंद्रमा) का हेतु अर्थात् ‘र‘ ‘आ‘ और ‘म‘ रूप से बीज है। वह ‘राम‘ नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिव रूप है। वह वेदों का प्राण है। निर्गुण, उपमा रहितऔर गुणों का भंडार है।
राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी।।
मामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा।।
श्रीरामचंद्रजी ने भक्तों के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके स्वयं कष्ट सहकर साधुओं को सुखी किया। परन्तु भक्तगण प्रेम के साथ नाम का जाप करते हुए सहज ही में आनंद और मंगलमय हो जाते हैं। इसलिए मैं अति पवित्र श्री अयोध्यापुरी और कलयुग के पापों का नाश करने वाली सरयू नदी की वंदना करता हूं। फिर अवधपुरी के उन नर-नारियों को प्रणाम करता हूं जिनपर प्रभु श्रीरामचंद्रजी की ममता है-
बंदऊं अवधपुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि।।
प्रनवऊं पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरि।।
श्रीराम की प्रारंभिक मूर्तियां देवगढ़ के दशावतार मंदिर में उत्कीर्ण हैं। इसमें श्रीराम धनुष और बाण से युक्त हैं। देवगढ़ में श्रीराम कथा के कई दृश्यों का शिल्पांकन हुआ है। एलोरा के कैलास मंदिर और खजुराहो के मंदिरों से श्रीराम की मूर्तियां मिली हैं। खजुराहो के पार्श्वनाथ मंदिर की भित्ति में सीताराम की एक नयनाभिराम मूर्ति उत्कीर्ण है और पास में हनुमान की मूर्ति भी है जिनके मस्तक पर श्रीराम का एक हाथ पालित मुद्रा में अनुग्रह के भाव में है। यह मूर्ति भक्त और आराध्य के अंतर्संबंधों का सुखद शिल्पांकन है। श्रीराम की स्वतंत्र मूर्तियां तुलनात्मक दृष्टि से दक्षिण भारत में अधिक लोकप्रिय रही हैं। उत्तर भारत में राम की मूर्ति मुख्यतः विष्णु के अवतार के रूप में उत्कीर्ण है। कर्नाटक में राम का एक प्राचीनतम मंदिर 867 ई. का हीरे मैगलूर में है। श्रीराम के दोनों ओर लक्ष्मण और सीता स्थित हैं। चोलकालीन कांस्य मूर्तियों में भी श्रीराम का मनोहारी अंकन उपलब्ध है। स्वतंत्र मूर्तियों के अतिरिक्त रामकथा के विविध प्रसंगों के उदाहरण खजुराहो, भुवनेश्वर, एलोरा, बरम्बा, सोमनाथपुर, खरौद, जांजगीर और सेतगंगा जैसे पुरास्थल में दृष्टिगोचर होता है। इन उदाहरणों में भारतीय जीवन मूल्यों को उद्घाटित करने वाले प्रसंगों जैसे-सीता हरण, जटायु वध, बालि-सुग्रीव युद्ध की सर्वाधिक मूर्तियां हैं। कदाचित् इसीकारण छत्तीसगढ़ गौरव में पंडित शुकलाल पांडेय ने भी गाया है :-
रत्नपुर में बसे रामजी सारंगपाणी
हैहयवंशी नराधियों की थी राजधानी
प्रियतमपुर है शंकर प्रियतम का अति प्रियतम
है खरौद में बसे लक्ष्मणेश्वर सुर सत्तम
शिवरीनारायण में प्रकटे शौरिराम युत हैं लसे
जो इन सबका दर्शन करे वह सब दुख में नहीं फंसे।
प्राकृतिक वैभव से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ का वैविध्यपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना और अपने गौरवमयी अतीत को गर्भ में समाया हुआ है। दक्षिण जाने का मार्ग छत्तीसगढ़ से गुजरने के कारण इसे दक्षिणापथ भी कहा जाता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि अयोध्यापति दशरथ नंदन श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ इसी पथ से होकर आर्य संस्कृति का बीज बोते हुए लंका गये थे। इस मार्ग में वे जहां जहां रूके वे सब आज तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध स्थल हैं। छत्तीसगढ़ प्राकृतिक वैभव से परिपूर्ण, वैविध्यपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना तथा अपने गौरवपूर्ण अतीत को गर्भ में समाए हुआ है। प्राचीन काल में यह दंडकारण्य, महाकान्तार, महाकोसल और दक्षिण कोसल कहलाता था। दक्षिण जाने का मार्ग यहीं से गुजरता था इसलिए इसे दक्षिणापथ भी कहा गया और ऐसा विश्वास किया जाता है कि अयोध्यापति दशरथ नंदन श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ इसी पथ से गुजरकर आर्य संस्कृति का बीज बोते हुए लंका गए। इस मार्ग में वे जहां जहां रूके वे सब आज तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध स्थल हैं। उस काल के अवशेष यहां आज भी दृष्टिगोचर होता है। सरगुजा का रामगढ़, श्रीराम की शबरी से भेंट, उनके बेर खाने का प्रसंग का साक्षी शबरी-नारायण, खरदूषण की स्थल खरौद, कबंध राक्षस की शरणस्थल कोरबा, बाल्मीकी आश्रम जहां लव और कुश का जन्म हुआ-तुरतुरिया, राजा दशरथ के लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ कराने वाले श्रृंगि ऋषि के साथ अन्य सप्त ऋषियों का आश्रम सिहावा, मारीच खोल जहां मारीच के साथ मिलकर रावण ने सीताहरण का षडयंत्र रचा, आज ऋषभतीर्थ के नाम से जाना जाता है। धमतरी जिलान्तर्गत चंद्रखुरी जहां माता कौशल्या का एकमात्र मंदिर है। सुदूर चक्रकोट (बस्तर) और चित्रकोट का वनांचल श्रीराम और लक्ष्मण के दक्षिणपथ गमन के साक्षी हैं।
सहस्त्राब्दियों पूर्व घटित त्रेतायुग का प्रमाण मिलना दुर्लभ ही नहीं असंभव भी है। नदियों ने अपने मार्ग बदले, पर्वतों ने अपने स्वरूप और अरण्यों ने दिशायें बदली, नहीं बदली तो केवल मनुष्यों की आस्था और उनका विश्वास। रामायण के विविध प्रसंग, उस काल की घटनाएं और पात्रों के उपाख्यान तब से लेकर आज तक जनमानस में वाचिक परंपरा के रूप में आज भी विद्यमान हैं। मनुष्य अपनी अनुभूतियों के साथ जनश्रुतियों को जोड़कर इतिहास की रचना करता है। लोककथा, लोकगीत, लोककला, कहावतें और मुहावरें एक दिन लोकवाणी बनकर इतिहास बन जाती है। इनमें जन मान्यताओं और आस्थाओं को स्थापित करने के लिए मंदिरों, गुफाओं आदि का निर्माण करके धन्य होता है। ऐसा ही प्रयास छत्तीसगढ़ में सदियों से होता आ रहा है। आज भी उस काल की अनेक स्मृतियां यहां देखने सुनने को मिलती है। बस्तर के लोकगीत, लोकनाट्य, शिल्पकला आदि में श्रीराम की झलक मिलती है। समूचा छत्तीसगढ़वासी रामनवमीं को बड़ी श्रद्धा के साथ मनाते हैं। इस दिन शुभ लग्न मानकर सभी शुभकार्य करते हैं। शादियां और गृह प्रवेश आदि शुभ कार्य सम्पन्न होते हैं। छत्तीसगढ़ के रामरमिहा लोग अपने पूरे शरीर में राम नाम गुदवाकर श्रीराम नाम की पूजा-अर्चना करते हैं। वे निर्गुण राम को मानते हैं। उनका कहना है के राम से बड़ा राम का नाम है।
राम एम तापस तिय तारी। कोटि खल कुमति सुधारी।।
रिषि हित राम सुकेतु सुता की। सहित सेन सुत कीन्ह बिबाकी।।
सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा।।
भजेऊ राम आपु भव चापू। भव भय भंजन नाम प्रतापू।।
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प्रो. अश्विनी केशरवानी
‘‘राघव‘‘ डागा कालोनी,
चाम्पा-495671 (छत्तीसगढ़)
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