अधिक जानकारी के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक / टैप करें - रचनाकार.ऑर्ग नाटक / एकांकी / रेडियो नाटक लेखन पुरस्कार आयोजन 2020 प्रविष्टि क्र. 29 ...
अधिक जानकारी के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक / टैप करें -
रचनाकार.ऑर्ग नाटक / एकांकी / रेडियो नाटक लेखन पुरस्कार आयोजन 2020
प्रविष्टि क्र. 29 - गोपी गोपाल
सीताराम पटेल "सीतेश"
गोपी-गोपाल
पात्र परिचय
सूत्रधार :
सत्या : सूत्रधार की संगिनी
गोपी : एक किशोरी
गोपाल : एक किशोर
ललिता, कस्तूरी, चित्रा, चंपा, इंदु, लीला, पद्मा, चंद्रा : गोपी की अष्ट सखियाँ
नंदबाबा : गोपाल के पिताजी
--
दृश्य : 01
(मंच पर सभी पात्र आकर मंगलाचरण गाते हैं।)
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
प्रलय में मत्स्य रुप धरे, वेद डूबने बचाए भले।।
मत्स्य रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
मंथन में कच्छप रुप धरे, धरा डूबने बचाए भले।।
कच्छप रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
धरा गिराए पताल असूरे, वराह बनकर दौड़ पड़े।।
वराह रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
प्रहलाद के रक्षा करे, नरसिंह अवतार धरे।।
नरसिंह रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
बलि दान का अभिमान करे, वामन अवतार धरे।।
वामन रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
उदंडता सभी क्षत्रिय करे, परशुराम रुप धरे।।
परशुराम रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
रावण अत्यधिक पाप करे, श्रीराम के हाथों तरे।।
श्रीराम रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
प्रेम का रस गोपी भरे, गोपाल के मुख फूल झरे।।
गोपाल रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
पशु बलि को खतम करे, बुद्ध अवतार धरे।।
बुद्ध रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
आतंकवाद को खत्म करे, कल्कि अवतार धरे।।
कल्कि रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
(परदा गिरता है।)
दृश्य : 02
(मंच पर सूत्रधार आते हैं।)
सूत्रधार : सत्या ! ओ सत्या! जल्दी से आओ।
(सत्या आती है।)
सत्या :- इतने क्यों मरे जा रहे हो? आ ही तो रही थी।
सूत्रधार :- तुम मरी जा रही हो कह रही हो। मंगलाचरण गान किये पाँच मिनट से ज्यादा हो गए हैं। दर्शकगण बोर हो रहे हैं, पात्रों को जल्दी तैयार होने को कहो।
सत्या :- पर आज कौन सा नाटक करना है, स्वामी!
सूत्रधार :- तुम मेरे अर्द्धांगिनी होकर भी नहीं समझ पा रही हो , आज कौन सा नाटक करना है। समाज में वासना का जहर उद्वेलित हो रहा है, चारों ओर अविश्वास ही अविश्वास फैला हुआ है, घृणा एक दूसरे में समाई हुई है, लोगबाग इंच भर जमीन के लिए लड़ रहे है, आज चारों ओर मानवीय मूल्य खत्म हो रहे हैं, आज मानव में प्रेम की आवश्यकता है, प्रेम ही वह ताकत है, जो एक दूसरे को जोड़ सकती है, सबके आत्मा का योग कर सकती है, धन को आज प्रेम से अधिक महत्व दे रहे हैं।
सत्या :- स्वामी! तो हम भगवान के प्रेम अवतार का नाटक करेंगे।
सूत्रधार :- तुम ठीक समझी, सत्या! आज हम नटवर नागर गोपाल और रासेश्वरी गोपी के प्रेम लीला का नाटक करेंगे। तो दर्शकगण दिल थाम के देखिए :- नवरस कला मंदिर की पेशकश - स्नेह के शहद से सने, चाहत के चाशनी में चूरे, मोहब्बत के मिश्री में पगे, रति रस के सागर में डूबे आपके सामने हम लेकर आ रहे हैं- गोपी-गोपाल
(दोनों जाते हैं।)
(परदा गिरता है।)
दृश्य : 03
( परदे पर जंगल का दृश्य है, गोपी और गोपाल जंगल में कदंब पेड़ के नीचे मिलते हैं, गोपाल गोपी को एकटक देख रहा है।)
गोपी :- पागल, इतना मग्न होकर क्या देख रहे हो?
गोपाल :- पीले पीले पके रसाल का दर्शन कर मेरे युगल नयन भ्रमर सा मेरे श्रवणेन्द्रीय में गुंजायमान कर रहे हैं। रसना रस पाने को लालायित हो रहे हैं, मुँह से लार निकल रहा है, हृदय धक धक कर रहे हैं।
गोपी :- पागल हो सचमुच के, पतझड़ में तुम्हें मधुमास सूझ रहा है, विरह में गीत गा रहे हो।
गोपाल :- गोपी! मैं कहाँ गा रहा हूँ, अमराई मे वसंतदूत गा रहा है।
गोपी :- तो क्या तुम भी उसके समान रस को पाओगे?
गोपाल :- मुझमें क्या कमी है, गोपी!
गोपी :- जानते हो गोपाल ! मोती को प्राप्त करने के लिए गोताखोर समुन्दर के बहुत नीचे गहराई में जाता है, तभी उसे वह प्राप्त हो पाता है, पर उसे प्रतिदिन प्राप्त हो, ऐसे भी बात नहीं हैं।वह निराश नहीं होता है और वह फिर फिर जाता है। तुम्हें गोताखोर के समान इसकी गहराई में उतरना पड़ेगा, तभी तुम्हें प्राप्त होगा।
गोपाल :- मैं तैयार हूँ, गोपी!
गोपी :- अपने जो भी परिधान पहने हुए हो गोपाल! क्या उसे तुम उतार सकते हो।
गोपाल :- मुझे तुमसे प्यार है गोपी!
गोपी :- तलवार के तेज धार में चल सकोगे?
गोपाल :- मैं मरा हुआ हूँ। मुझे और कौन मार सकता है।
गोपी :- जलते हुए जंगल में जा सकोगे?
गोपाल :- जले हुए को और कौन जला सकता है।
गोपी :- तुम में इतनी शक्ति है?
गोपाल :- मुझमें इतनी शक्ति कहाँ है, गोपी! तुम्हारी शक्ति के भरोसे मैं इतना तैर रहा हूँ। तुम ही मेरी शक्ति हो गोपी।
गोपी :- मुझमें भी कोई शक्ति नहीं है, गोपाल!
गोपाल :- फिर किसकी शक्ति से भ्रमर गान कर रहा है?
गोपी :- प्रेम की शक्ति, प्यार के ताकत से ही दिवाकर प्राची में उदयमान होते हैं और पश्चिम में अस्तगान होते हैं। प्रेम के प्रकाश से ही प्राणियों के प्राण को भरतें हैं।
गोपाल :- ठीक कह रही हो, गोपी! प्रेम की शक्ति से क्या मैं रसाल के खट्टा-मीठा रस का पान कर सकता हूँ।
गोपी :- रसपान करोगे, फिर भी तुम्हारा प्यास नहीं बुझेगा।
गोपाल :- रस के सागर में रहकर प्यास की चिन्ता किसे होगी, गोपी! प्रेम का रस पीकर ही प्रेम पक्का होता है।
गोपी :- तुम ठीक कह रहे हो, मेरे गोपाल!
( दोनों परस्पर गले मिलते हैं। ) (परदा गिरता है।)
दृश्य : 04
(गोपी अपनी अष्ट सखियों के साथ पानी भरने पनघट जा रही है, रास्ते में गोपाल मिलता है।)
गोपाल :- कहाँ जा रहे हो, ललिता?
ललिता :- गोरस बेचने जा रही है, गोपाल!
कस्तूरी :- बहुत झूठ बोलती हो, ललिता! हम लोग तेल लेने जा रहे हैं, गोपाल!
चित्रा :- इनके बातों पर विश्वास नहीं करना, गोपाल! हम लोग मिट्टी लेने जा रहे हैं।
चंपा :- क्या गोपाल तुम इनकी बातों पर विश्वास कर रहे हो? क्या कोई मटका से मिट्टी लायेगा। क्या इसका भरतार वहाँ पर खोद के रख दिया है? क्या खोदने के लिए कोई चीज नहीं रखते। हम लोग तो मिट्टी का तेल लाने जा रहे हैं।
इंदु :- ला ला! क्या ये सच बोल रही है? हम तो गन्ना का रस लेने जा रहे हैं, गोपाल!
लीला :- क्यों झूठ बोलती हो , रे ! गोपाल! हम लोग गुड़ लाने जा रहे हैं।
पद्मा :- सब के सब झूठी हैं , गोपाल! इनके बात पर विश्वास नहीं करना, हम लोग तो दही बेचने जा रहे हैं।
चन्द्रा :- गोपाल! मैं एक शर्त पर बताऊँगी, जब तुम हमारे साथ नाचने का वादा करो।
गोपाल :- मुझे नाचना कहाँ आता है, चंद्रा!
पद्मा :- तुम झूठ बोल रहे हो , गोपाल!
लीला :- तुम तो नृत्य के गुरु हो, गोपाल!
इंदु :- तुम नटवर नागर हो, गोपाल!
चंपा :- तुम बहुत अच्छा नाचते हो, गोपाल!
चित्रा :- तुम नृत्य करते बहुत ही अच्छे लगते हो, गोपाल!
कस्तूरी :- अब नाचो भी न गोपाल!
ललिता :- अब नाच भी दो न गोपाल!
गोपाल :- (गोपी की ओर इशारा करके) तुम्हारी सखी तो कुछ नहीं कह रही है।
सभी सखियाँ :- तुम कह दो ना गोपी बहन!
गोपी :- अब कह रहे हैं, तो हमें अपने नृत्य का दर्शन करा कर कृतकृत्य करो।
गोपाल :- मेरी एक शर्त है, तुम्हें भी मेरे साथ नृत्य करना होगा।
(गोपी और उनके अष्ट सखियों के साथ गोपाल रास नृत्य कर रहे हैं।)
हमारी मानस में बसे हो तुम्हीं गोपाल।
हमको दुनिया के माया से जल्दी निकाल।।
अंग से अंग मिलाकर सजन हमें रंग दो।
रंग दो, रंग दो, रंग दो, रंग दो, रंग दो,
रंग दो, रंग दो, रंग दो, हमें रंग दो।
नवरंगी प्रेम के रंग से हमें रंग दो।
हर पल हर क्षण घड़ी घड़ी तुम्हारा संग दो।।
झूठ बोलना तो बस एक ही बहाना था।
तेरे संग हमें ज्यादा समय बिताना था।।
तुम्हारे दिल अंदर का पिला हमें भंग दो।
रंग दो, रंग दो, रंग दो, रंग दो, रंग दो,
रंग दो, रंग दो, रंग दो, हमें रंग दो।
नवरंगी प्रेम के रंग से हमें रंग दो।
हर पल हर क्षण घड़ी घड़ी तुम्हारा संग दो।।
हम तेरे ही आगे पीछे घूमते रहें।
तुम कहीं भी रहें, हम सबको देखते रहें।।
मरते तक वो न मिटे वैसा हमें रंग दो।
रंग दो, रंग दो, रंग दो, रंग दो, रंग दो,
रंग दो, रंग दो, रंग दो, हमें रंग दो।
नवरंगी प्रेम के रंग से हमें रंग दो।
हर पल हर क्षण घड़ी घड़ी तुम्हारा संग दो।।
जब हम आँखें बंद करें पी तुमको देखे।
जब हम आँखें खोले बस पी तुमको देखे।।
नवरंग में डूबे हुए हमारा अंग हो।
रंग दो, रंग दो, रंग दो, रंग दो, रंग दो,
रंग दो, रंग दो, रंग दो, हमें रंग दो।
नवरंगी प्रेम के रंग से हमें रंग दो।
हर पल हर क्षण घड़ी घड़ी तुम्हारा संग दो।।
महाकाल को बस करना आप जानते हो।
तुम हमें अपने माप का सखी मानते हो।।
दुनिया जीतने के लिए प्रेम का जंग दो।
रंग दो, रंग दो, रंग दो, रंग दो, रंग दो,
रंग दो, रंग दो, रंग दो, हमें रंग दो।
नवरंगी प्रेम के रंग से हमें रंग दो।
हर पल हर क्षण घड़ी घड़ी तुम्हारा संग दो।।
आज शरद की पूनम की अनोखी रात है।
सोम की सुधा का खाते सौगंध सात है।।
सिलवा दो नूतन, हो रहा चोली तंग जो।
रंग दो, रंग दो, रंग दो, रंग दो, रंग दो,
रंग दो, रंग दो, रंग दो, हमें रंग दो।
नवरंगी प्रेम के रंग से हमें रंग दो।
हर पल हर क्षण घड़ी घड़ी तुम्हारा संग दो।।
दुनिया की रीत देख देख रात भर रोते।
प्रेम के बिना भरी जवानी कैसे खोते।।
मिलने का बहाना बनाते हमें दंग हो।
रंग दो, रंग दो, रंग दो, रंग दो, रंग दो,
रंग दो, रंग दो, रंग दो, हमें रंग दो।
नवरंगी प्रेम के रंग से हमें रंग दो।
हर पल हर क्षण घड़ी घड़ी तुम्हारा संग दो।।
दुध दही मक्खन घी, सबको तुम हमारा पी।
तेरे बिना हम लाश, तुमको पा जायें जी।।
हमें पिला दो चम्मच प्रेम का जल गंग दो।
रंग दो, रंग दो, रंग दो, रंग दो, रंग दो,
रंग दो, रंग दो, रंग दो, हमें रंग दो।
नवरंगी प्रेम के रंग से हमें रंग दो।
हर पल हर क्षण घड़ी घड़ी तुम्हारा संग दो।।
संसार कह रहा है, तुम यहाँ अवतार हो।
पर हम इतना जाने तुम हमारा प्यार हो।।
हमारे चंचला मन को सदा कर पंग दो।
रंग दो, रंग दो, रंग दो, रंग दो, रंग दो,
रंग दो, रंग दो, रंग दो, हमें रंग दो।
नवरंगी प्रेम के रंग से हमें रंग दो।
हर पल हर क्षण घड़ी घड़ी तुम्हारा संग दो।।
( सभी एक साथ गोपाल से गले मिलते हैं। )
(परदा गिरता है।)
दृश्य : 05
( परदे पर जंगल का दृश्य है, गोपी और गोपाल जंगल में कदंब पेड़ के नीचे मिलते हैं, दोनों परस्पर बातें कर रहे हैं।)
गोपी :- मैं बुद्धिहीन हूँ, गोपाल!
गोपाल :- तो कौन सा मैं बुद्धिमान हूँ, गोपी!
गोपी :- मैं कुछ भी नहीं जानती हूँ, तुम पर भरोसा है, इतना जानती हूँ।
गोपाल :- गोपी! बस एक राह पकड़कर चल, तुम्हें मंजिल मिल जाएगी।
गोपी :- तुम ही तो मेरा राह हो, तुम ही मेरा मंजिल हो, गोपाल!
गोपाल :- प्रेम में बुद्धि का क्या काम है, गोपी! बुद्धि तो दिमाग का काम है, प्रेम तो हृदय का काम है। मैं प्रेम को बुद्धि से बड़ा मानता हूँ।
गोपी :- मैं मानस को मनीषा से महान मानती हूँ, गोपाल!
गोपाल :- तुम और कुछ कहना चाह रही हो, पर मुझसे छिपा रही हो, गोपी!
गोपी :- जिसे मैं अपना सब कुछ मानती हूँ, उसे क्या छुपाऊँगी, गोपाल।
गोपाल :- तुम्हें डर तो नहीं लग रहा है, गोपी! हमारा प्रेम अब दुनिया में प्रसारित हो रहा है।
गोपी :- प्रेम को एक न एक दिन प्रसारित होना ही है, फिर डर कैसा, मेरे गोपाल! प्रेम अपने आप में अभय है।
गोपाल :- मेरी गोपी तो सचमुच निडर है।
(नंदबाबा आते हैं।)
नंदबाबा :- यहाँ क्या कर रहे हो, गोपाल!
गोपाल :- गोपी के संग बतिया रहा हूँ, बाबा!
नंदबाबा :- ये गोपी कौन है, गोपाल!
गोपाल :- बरसाने की है बाबा।
नंदबाबा :- बरसाने की है, तो बरसाने में रहे, यहाँ क्या कर रही है।
गोपाल :- बोला तो बाबा, मुझ संग बतिया रही है।
नंदबाबा :- बेटा, ये समय बतियाने का नहीं है। कहीं तुम पर यह डोरे तो नहीं डाल रही है।
गोपाल :- डोरी या डोरा एक तरफ से नहीं डाला जाता है, बाबा! डोरी तो दोनों तरफ से डाला जाता है।
नंदबाबा :- ऐसी बात है तो ठीक है, बेटी तुम किसकी बेटी हो।
गोपी :- बाबा! मेरे बापू वृषभानु हैं।
नंदबाबा :- तुम वृषभानु की पुत्री हो, बेटी। मुझे अभी काम से दूसरे जगह जाना है। आकाश में काली घटा छाई हुई है, फिर ये जंगल तमाल तरुवरों से भरा हुआ है, मेरा बेटा डरपोक है, बेटी। रात को अकेले में जंगली जानवरों को देखकर डरता है। बेटी तुम तो जानती हो, इसे छोड़कर मत जाना, तुम पहले इसे राह बताते सही सलामत घर पहुँचाना, फिर अपने घर जाना।
गोपी :- हाँ, बाबाजी! इसे सही सलामत घर पहुँचा दूँगी।
( नंदबाबा चले जाते हैं।) ( इधर गोपी और गोपाल भी घर जा रहे है।)
गोपी :- इधर आओ, गोपाल!
गोपाल :- तुम्हारे पास नहीं जाऊँगा, गोपी!
गोपी :- ज्यादा नखरा मत करो, पीछे पछताओगे, गोपाल!
गोपाल :- किसको पछताउँगी, गोपी!
गोपी :- प्रेम के पल बार बार नहीं मिलते हैं, गोपाल!
गोपाल :- क्या कह रही हो, नहीं समझ पा रही हूँ, गोपी!
गोपी :- (बंदर और बंदरी को दिखाते हुए) देख रहे हो ना, गोपाल!
गोपाल :- किसको? मैं तो नहीं देख पा रहा हूँ, गोपी!
गोपी :- पागल कहीं का, नहीं देख रहे हो, उस तमाल के तरुवर को देखो ना, कैसे बंदर और बंदरी प्रेम का रस लूट रहे है, गोपाल!
गोपाल :- हाँ देखे ना, क्या कह रही हो? गोपी!
गोपी :- चलें, हम भी प्रेम का रस लूटे, गोपाल!
गोपाल :- गोपी! फिर मुझे कुछ नहीं कहोगे।
गोपी :- गोपाल! प्रेम का रस पीकर प्रेम पक्का हो जाता है।
गोपाल :- सचमुच।
गोपी :- तेरी कसम! सचमुच, गोपाल!
( दोनों परस्पर गले मिलते हैं। ) (परदा गिरता है।)
दृश्य : 06
( परदे पर जंगल का दृश्य है, अष्ट सखियाँ गोपी के पास आकर गाते हुए बताते हैं।)
गली गली में हो रहा शोर। गोपाल तेरा नामी चोर।।
श्याम शरीर में लगा चंदन। घूम रहा है सारा मधुवन।।
मधुवन में करता है विहार। दूसरे के संग करे प्यार।।
गोपियों के पास हृदय हार। गोकुल में मनाता त्यौहार।।
उसे मिलता नहीं ओर छोर। तन में दिखता प्रेम के डोर।।
गली गली में हो रहा शोर। गोपाल तेरा नामी चोर।।
योग प्रेम में हिलता कुंडल। प्रेम करते सभी सखियाँ बल।।
बाला देखे चंचल चितवन। मदन फैलाएँ गोपाल मन।।
बाँसुरी के लय वो मिलाते। कंगन के लय में मिल जाते।।
प्रेम वो करते होते भोर। उनके मानस नाचता मोर।।
गली गली में हो रहा शोर। गोपाल तेरा नामी चोर।।
कानाफूसी वो सब करते। गोपाल के गालों चूमते।।
अपने उन्नत उरोज मोहे। पीला पीताम्बर है सोहे।।
पहना सभी बाँहों का हार। जुड़ता सभी मानस के तार।।
बंशी धुन में नाचता ढोर। हम सभी यहाँ नाचे अघोर।।
गली गली में हो रहा शोर। गोपाल तेरा नामी चोर।।
( गोपी उदास हो जाती है।)
(परदा गिरता है।)
दृश्य : 07
( परदे पर जंगल का दृश्य है, गोपी और गोपाल जंगल में कदंब पेड़ के नीचे मिलते हैं, गोपी दूसरी तरफ अपने मुख को की है, गोपाल उसे मना रहे हैं।)
गोपाल :- गोपी, अपना मुख मेरी ओर करो ना।
गोपी :- ( चुप रहती है।)
गोपाल :- तनिक हमसे कुछ बतियाओ, गोपी!
गोपी :- ( चुप रहती है।)
गोपाल :- तुम्हें किस बात का दुःख है, गोपी।
गोपी :- ( गुस्सा से कहती है।) मेरी अष्ट सखियाँ कह रही थी, कि तुम दूसरों के साथ रास लीला कर रहे थे।
गोपाल :- और तुमने विश्वास भी कर लिया, गोपी तुम्हारे बिना गोपाल आधा है, तुम तो मेरे मानस में समाई हो, गोपी!
गोपी :- ( पिघल जाती है।) तुम ठीक कह रहे हो, मेरे गोपाल! क्या तुम मेरे मानस से बाहर जा सकते हो? मैंने अपने मानस मंदिर में ताला लगायी हूँ और उसकी चाबी को छिपा दी हूँ। कहाँ पर छिपायी हूँ, भूल चुकी हूँ। मैं तुम्हें अपने दिल के अंदर बंद कर सकती हूँ। क्या प्रेम बंधन है? प्रेम तो स्वच्छंद है, मैं तुम्हें बाँधना चाहा, क्षमा! क्षमा! क्षमा! मेरे गोपाल, क्षमा! मैंने सखियों के बातों पर विश्वास कर लिया। ओ कह रहे थे कि तुम उसके मुख का चुंबन ले रहे थे। छीः! छीः! छीः! ये मैं क्या सुन रही थी? मेरे गोपाल! वसंत ऋतु प्रेम की ऋतु है। आओ हम दोनों प्यार करें।
( दोनों परस्पर गले मिलते हैं। )
(परदा गिरता है।)
दृश्य : 08
(मंच पर सभी पात्र आकर मंगलाचरण गाते हैं।)
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
प्रलय में मत्स्य रुप धरे, वेद डूबने से बचाए भले।।
मत्स्य रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
मंथन में कच्छप रुप धरे, धरा डूबने से बचाए भले।।
कच्छप रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
धरा गिराए पताल असूरे, वराह बनकर दौड़ पड़े।।
वराह रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
प्रहलाद के रक्षा करे, नरसिंह अवतार धरे।।
नरसिंह रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
बलि दान का अभिमान करे, वामन अवतार धरे।।
वामन रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
उदंडता सभी क्षत्रिय करे, परशुराम रुप धरे।।
परशुराम रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
रावण अत्यधिक पाप करे, श्रीराम के हाथों तरे।।
श्रीराम रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
प्रेम का रस गोपी भरे, गोपाल के मुख फूल झरे।।
गोपाल रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
पशु बलि को खतम करे, बुद्ध अवतार धरे।।
बुद्ध रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।
आतंकवाद को खत्म करे, कल्कि अवतार धरे।।
कल्कि रुप धर्ता हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
ऊँ जय जगदीश हरे , स्वामी जय जगदीश हरे।।
(परदा गिरता है।)
--
सीताराम पटेल "सीतेश"
COMMENTS