एक घर की दास्तान- अंधी बूढ़ी माँ फुल्लो का दर्द और अंधा समाज ( आँखोंदेखा वृत्तांत) आत्माराम यादव पीव ज्येष्ठ का महीना था। धरती पर सूरज आ...
एक घर की दास्तान- अंधी बूढ़ी माँ फुल्लो का दर्द और अंधा समाज
( आँखोंदेखा वृत्तांत)
आत्माराम यादव पीव
ज्येष्ठ का महीना था। धरती पर सूरज आग उगल रहा था नर्मदा नदी से तीन किलोमीटर दूर पहाड़ की तलछटी और जंगलों से घिरा हुआ एक गाँव है बगवाड़ा जो सीहोर जिले की बुदनी तहसील में आता है। तब आने जाने के साधन के नाम पर बैलगाड़ी हुआ करती थी जिससे नर्मदा नदी का तीन चार किलोमीटर रास्ता पैदल और बीमारों को बैलगाड़ी से पार करना होता। सरपंच के पास साईकिल थी बाकी दूर तक इस अभाव था। गाँव पहुंचने के लिये सुबह, दोपहर और शाम तय समय पर सडकमार्ग पर बसें रूक जाया करती थी। गाँव के करीब आते ही बसों में लम्बा भोंपू या सायरन बजता तो लोग घरों से टेकरा की ओर भागते थे। टेकरा पर हाथ हिलाने के बाद सड़क पर बस कन्डक्टर बसों को रोक लेता था। बाकी पूरे समय सड़कों पर सन्नाटा छाया रहता था। भीषण गर्मी से बगवाड़ा भी अछूता नहीं रहा। गाँव के पूर्व-उत्तर का अन्तिम घर फुल्लो अम्मा का था। घर के बाद एक किलोमीटर तक टेकरानुमा सपाट मैदान था जिसमें सुबह शाम गाँव भर के गाय-भैंस आदि एकत्र होते और सभी चरवाहे वहाँ से उन्हें जंगल की ओर ले जाते।
दाड़ी पर एक फेफर का बड़ा पेड़ और एक बरगद का पेड़ था जिनके नीचे बनी मढि़या में नगरा बाबा, खूबतबाबा, लालमन बाबा और ग्वाल बाबा को पत्थर की पिण्डियों के रूप में पूजते थे। तब दाने बाबा की पूजा के लिये लोग मूक पशुओं में मेड़ा, बकरे बकरियों की बलि चढ़ाकर प्रसन्न करते थे लेकिन बाबा पर बलि के रूप में काटे गये अपने पशुओं का मांसाहार लोग स्वीकार नहीं करते थे और बलि में चढ़ाये पशुओं का मांस लेने वे समाज के लोग आते जो मांसाहार के शौकीन थे। गाँव के बुजुर्ग दाने बाबा के प्रकोप से डरते थे इसलिये यह सब चलता रहा। गाँव के अनेक बुजुर्ग थे जो चबूतरों पर घूमते जिनके शीश में ये देवता सवारी करते थे। एक बार सभी गाँव वालों ने विचार किया हर साल दाने बाबा को अनेक घरों से निरीह पशुओं की बलि के रूप में भेंट दी जाती है जिसे कोई प्रसाद के रूप में खाता नहीं तब सभी ने चबूतरे पर बैठक में बाबा के शीश आते ही उनसे निवेदन किया कि आपका प्रसाद कोई गाँववाला नहीं लेता। सभी शाकाहारी है इसलिये बाबाजी आप भी हमसे शाकाहारी प्रसाद स्वीकार कर इन पशुओं की बलि को रूकवा दो , तब बाबा ने गुड मलीदा का प्रसाद चढ़ाने पर सभी गाँववालों पर प्रसन्न रहने की बात की तब यह बलि प्रथा समाप्त हुई और दाने बाबा की पूजा में अब भी गुड मलीदा से वे प्रसन्न रहते हैं। जबकि खूबत बाबा को मीठे पुआ का प्रसाद आज भी चढ़ता है और पीरबाबा को चना चिरोंजी पंसद है जबकि मरई मैईया और सती मैईया की पूजा एक विशेष गोत्र के लोग करते हैं पर अब वह पूजा होते नहीं दिखती जबकि गाँव से डेढ़ किलोमीटर पूर्व में नर्मदातट पर खेड़ापति मईया की पूजा साल में एक बार करने सभी जाते हैं जहाँ प्रसादी के बाद भण्डारा होता है।
गाँव में 40 के लगभग मकान ग्वालों के बने थे जिनका अपना एक कुंआ था जिससे सुबह चार बजे से सुबह 8 बजे तक और शाम को चार बजे से छह बजे तक ग्वालिनें पानी भरने आती और सुबह 9 बजे के बाद कुंये पर युवकों की टोली स्नान करते दिखती। गाँव के बीचोंबीच एक चौपाल लगती थी। गाँववाले अपने-अपने घरों में दूध दुहने के बाद जानवरों को चारा-सानी रखकर चौपाल की ओर चले आते थे। शाम को चार पांच बजे से ही हर घर में चूल्हा जल जाता और परिवार के लिये माता-बहिनें खाना पका कर रखती थी। कुछ लोग खाना खाकर चौपाल पर आते और देररात तक बैठते। चौपाल पर गाँव के हर व्यक्ति के सुख दुख की बातें होती। ऐसा ही आलम सुबह शाम कुंये पर देखने को मिलता जहाँ पानी भरने आती महिलायें एक दूसरे के घरों में होने वाले सुख दुख की बातें करती। कुंये पर पता चलता किसके घर में झगडा हुआ है, किसकी सास ने किस बहु पर गुस्सा निकाला है, किसको बुखार आया, किसके घर शराब पीकर झगड़ा हुआ। कुंये की अधिकांश बातें महिलायें रात को अपने पति और घर में बताती फिर वही बातें चौपाल पर होती ।
शाम ढ़लने से पहले आकाश में पक्षियों का कलरव दिल मोह लेता था। हजारों की सॅख्या में पक्षी झुंड बनाकर दानापानी चुगकर घरों को लौटते थे। दो-तीन घन्टे तक आकाश में यह नजारा रहता और और हर झुण्ड का नेतृत्व एक पक्षी आगे दिखता और अनगिनत उसके पीछे होते। दोपहर में कौओं की कांवकांव गाँव में गूंजती और सैकडों की संख्या में गिद्ध आकाश में विचरते थे और जहाँ गाँव के मरे जानवरों को एक समाजवर्ग के लोग उठाकर उस जानवर की खाल उतार लाते उस स्थान पर यह गिद्ध जिन्हें लोग चील के नाम से भी पुकारते वे आ टपकते। ऐसा आलम हर गाँव के आकाश में देखने को मिलता था। दाना चुगने के लिये लाखों की संख्या में तोते खेतों में आते और घर-बाडे सहित पेड़ों पर बैठ कर मधुर कलरव करते थे। फसल की रखवारी के लिये लोग अपने खेतों के बीच मुंडेर बनाकर उसपर चढ़कर गोपिया में पत्थर रखकर तोतों के झुण्ड को भगाया करते थे। जैसे शाम को आकाश लाखों पक्षियों को हर गाँव की परिधि में अपने अपने अंक में लिये होता वैसा ही नजारा सुबह होता जब पक्षी सूर्योदय से पूर्व ही वापिस जंगलों की ओर जाते दिखते और कुछ पक्षी गांवों के खेतों में दाना चुगते थे। तब गाँव में बिजली नहीं आयी थी। हर घर में चिमनी, लालटेन का प्रकाश बिखरा होता था।
गाँव की चौपाल पर ही एक परिवार ने अपने घर के हिस्से की जमीन दे दी जिसमें गाँववालों ने शिवजी का मंदिर बना लिया और सुबह शाम इस मंदिर में आरति को एकत्र होते। युवाओं में तब पहलवानी का जोश था इसलिये वहीं खाली जमीन पर सबने अखाड़ा बना लिया जिसमें पहलवान जोर आजमाईश करते। कुछ युवाओं ने रामायण मण्डल बना लिया जो हर शनिवार ओर मंगलवार को गाँव के किसी एक घर में जाता और ढोलक, झॉझ मजीरों के साथ रामायण का पाठ होता। गाँव में जब भी शादी विवाह होते तो गैसबत्ती के लाईट में बारातें लगती और गैसबत्ती बंद होने पर मेंथल लगाकर हवा भरने वाले व्यक्ति का बहुत सम्मान हुआ करता था। कहते हैं इस गाँव में 1940 में मोतीझिरा नामक बीमारी आयी थी जिसे लोगों ने बड़ीमाता नाम दिया था। इस बड़ी माता में इस गाँव के शोभाराम और उनकी पत्नी फुल्लो बाई की आंखों की रोशनी चली गयी थी। शोभाराम गाँव के धनाडयों में गिने जाते थे,उनके पास खेती बाड़ी थी पर जब दोनों पति पत्नी की आँखें चली गयी तो उन्होंने कुछ लोगों को मदद के लिये जमीन की देखभाल के लिये रखा तब उनकी बड़ी बेटी 14 साल की थी और छोटी छह महीने की तब शोभाराम जी चल बसे। उनकी मौत के बाद उनके द्वारा मटकों में धन छिपाकर रखा था उसकी जानकारी फुल्लो अम्मा को थी वे जब मटकों से धन लेने पहुंची तो सभी खाली मिले, निश्चित ही किसी ने पहले ही जांच परखकर यह धन चुराया था। दूसरी ओर उनकी जितनी भी खेती की जमीनें थी उसकी देखरेख वे ही करते जिन्हें दी थी और वे परिवार के भरण पोषण के लिये अनाज दे देते। फुल्लो अम्मा जिनका मूल नाम फूलवती बाई था के मायके में 30 एकड़ से ज्यादा जमीन थी जिसे उन्होंने होशंगाबाद में अपने भाई ओमकार को दे दी। समय आने पर ओमकार ने जमीन का कब्जा नहीं छोड़ा और उधर गाँव की जमीनों पर जो रिश्तेदार नौकर थे, वे मालिक बन गये, मजबूरी में फुल्लो अम्मा खेतों की मेढ़ों पर जाकर चारा लाती और अपने गाय भैसों के चारे की व्यवस्था करती ।फुल्लो अम्मा के दोनों बेटे गाय,बकरी पालते,चराते और महुआ बीनने के लिये सुबह 4 बजे जंगल निकल जाते, तेंदू लाते, तेज दोपहरी में आचार, तेंदूपत्ता, बॉस काटकर लाते और उन्हें बेचकर अपना पेट पालते।
बात 1970-71 की है जब फुल्लो बाई के बड़े बेटे हेमराज की बारात गाँव से बैलगाड़ी से निकली थी और होशंगाबाद में सिवनीनाके के पास धूमधाम से लगी थी। बहू आने पर फुल्लो अम्मा बहुत खुश थी। कुछ दिनों बाद उनकी खुशियों का ठिकाना नहीं रहा जब बड़ी बहू ने एक सुन्दर सुडौल बेटे को जन्म देकर इस परिवार का पहला वारिस दिया। महिनों तक बच्चों को खिलाने उसकी सभी बुआओं का डेरा गांव में रहा। दो ढाई साल बाद बेटा बीमार हो गया तब हेमराज और उनकी पत्नी बेटे को होशंगाबाद इलाज के लिये पहुंचे परन्तु उन्होंने बच्चों को डाक्टर को नहीं दिखाया। किसी की सलाह पर हेमराज अपने बेटे को बाबई के पास बीकोर गाँव में झड़वाने-फुकवाने ले गये। वहाँ बच्चे ने दम तोड़ दिया तब दोनों बीकारे से सात आठ किलोमीटर पैदल बाबई आये और बाबई में भी उन्हें किसी बस वाले ने सिर्फ इसलिये नहीं बैठने दिया क्योंकि उनके हाथ में उनके बेटे का शव था जिसे वे गले में चिपकाये थे। आखिरकार हेमराज और उनकी पत्नी ने तीन चार घन्टे में 9 किलोमीटर का रास्ता तय कर किया । तब तवापुल के आधे भाग पर पुल था और आधे भाग को पैदल जाना होता था। बरसात में यह मार्ग 4 महिने बंद हो जाया करता था। दोनों बहुत दुखी और परेशान थे, साथ में उनकी गोदी में बेटे का शव था और उनके घर गाँव का रास्ता पैदल में डेढ़ दिन का था। शाम हो गयी थी उन्होंने बच्चे के शव को गाँव ले जाना उचित नहीं समझ कर वहीं तवापुल की रेत में गाड़कर वे बस में सवार होकर होशंगाबाद पहुँचे। हेमराज की ससुराल पहले सिवनी नाके के पास थी लेकिन 1973 की भीषण बाढ़ में मकान ध्वस्त हो जाने पर उनके श्वसुर स्टेशन के पास रहने लगे थे जहाँ दोनों पहुँचे जिन्हें परिजनों ने ढांढस दिलाया और अगले ही दिन सुबह 10 बजे घर से निकलकर नर्मदाघाट स्थित नावघाट पहुँचे जहां नाव में सवार हो उस पार उतरे और पैदल जोशीपुर के खेतों से होते हुये अपने गाँव बगवाडे़ पहुँचे।
इधर बच्चे के बीमार होने की खबर आग की तरह पूरे परिवार में फैल गयी। क्योंकि शोभाराम जी के परिवार में बडे बेटे हेमराज के ज्येष्ठ पु्त्र के रूप में पहला वारिस मिला था । हेमराज की सभी सातों बहनें रामकली, सुन्दो बाई, कस्तूरी बाई, गोरा बाई, भगवती बाई, प्रेम बाई एवं सातों बाई अपने भतीजे की कुशलक्षेम जानने को एक दिन पहले ही डेरा डाल चुकी थी। जैसे ही हेमराज और बहू पहुंची तब उनकी गोद में बेटा नहीं पाकर बहनों ने पूछा- हमारा भतीजा कहॉ है। किसके पास खेल रहा है। तब रोते हुये बड़ी बहू ने अपनी ननदों को सारी दास्तान बता दी तब तक गाँव की अनेक बुजुर्ग मातायें, बहुयें वहाँ एकत्र हो गयी थी। जैसे ही बड़ी बहू और बेटे ने पुत्र के मरने तथा साधन नहीं मिलने के कारण तवा की रेत में दफनाने की बात सुनाई, इस पर बहनों ने बड़ी बहू को खरी खरी सुनाई परन्तु भग्गो बाई अपना आपा खो चुकी थी और उसने बड़ी बहू की जमकर पिटाई कर दी। बड़ी बहू के साथ मायके से एक सदस्य आया था जिसने बड़ी बहू के पिता को खबर भेज दी। खबर मिलते ही बडी बहू के पिता आ गये और परिवार को सान्तवना देने की बजाय अपनी बेटी का पक्ष लेकर गाली बकते हुये अपनी बेटी को अपने घर ले गये और बोल गये कि मेरी बेटी आपके घर नहीं आयेगी । समाज के सभी लोगों ने बूढ़ी अंधी फुल्लों की स्थिति बतलाते हुये घर तोड़ने की बजाय घर बसाने की सलाह दी लेकिन उन्हें समझाने की सारी कोशिश बेकार गयी और वे टस से मस नहीं हुये और उन्होंने कहा कि जैसे मेरा बड़ा जंवाई घरजंवाई बनकर रह रहा है, वैसे अब हेमराज भी रहेगा, लेकिन मेरी बेटी कभी बगवाड़ा नहीं जायेगी।
इस घटना को बीते दिन, महीने, साल गुजरते गये पर बड़ी बहू आने को तैयार नहीं। आखिरकार पूरा परिवार बच्चे का गम भुलाकर सुलह को तैयार थे कि किसी तरह बड़ी बहू घर आ जाये पर बड़ी बहू दो टूक कह चुकी थी कि मै मर जाऊंगी पर अपनी ससुराल नहीं जाऊंगी। तब ऐसे मसलों का हल करने के लिये लोग पुलिस थाने कोर्ट कचहरी नहीं जाते थे और समाज की पंचायतों के माध्यम से सुलह किये जाने का रिवाज था। आखिरकर बगवाड़े के बुजुर्गों और हेमराज के सभी रिश्तेदारों ने विचार किया कि समाज की पंचायत बुलवाकर निर्णय करा ले। उस समय ग्वालटोली काली मंदिर होशंगाबाद में ग्वाल समाज की पंचायत का न्याय सर्वोपरि था, यह पंचायत सभी छावनियों में न्याय के लिये सुप्रीमकोर्ट का दर्जा हासिल किये हुये थी। होशंगाबाद,बगवाड़ा जोशीपुर, जर्रापुर, गडरिया नाला, बुदनी, बुदनीघाट, छैघरा,बाबई शुक्करवाड़ा और बेरखेड़ी तक के सरपंच एकमत होकर इसमें शामिल होते थे और तब पंचों की सॅख्या सात सौ तक पहुंच जाती थी। फुल्लोबाई को अपनी बहू लाने के लिये इस पंचायत पर विश्वास था। पंचायत आखिरी विकल्प हुआ करती थी, इसके पहले परिवार में बातें होती, जहाँ नहीं बनती तब कुटुम्ब के लोग बातें करते, तीसरे विकल्प के रूप में रिश्तेदार सुलह कराते, जब सभी असफल हो जाते तब समाज की पंचायत ही निर्णायक होती और हेमराज को भी इस पंचायत से आखिरी उम्मीद थी।
हेमराज नींम की छाव में अपनी खटिया पर कथरी बिछाकर सोया था। गर्मी से बचने के लिये उसने पानी की नांद में जाकर चादर को गीला कर निचोड़कर ओढ़ रखी थी। आज शनिवार का दिन था, कल होशंगाबाद में पंचायत होना है। पूरे सप्ताह वह घर के पास स्थित महुआवाले खेत से सटी घास की बीड़ काटकर पूला बनाकर गंजी तैयार करता रहा था । उसे तब दिनभर की मजदूरी के 1 रूपये मिलते थे, सुबह ही उसे एक सप्ताह की मजदूरी 6 रूपये मिले थे जो उसने अपनी अंधी बूढ़ी माँ जिन्हें वह अईयो कहता था कि हथेली पर रख दिये थे। शाम को समाज की पंचायत से उसे न्याय मिलेगा और उसकी पत्नी आ जायेगी इसी उधेड़बुन में वह बहुत ही प्रसन्न था और खुशी खुशी में अपनी हैसियत के 25 पैसे के धोबी साबुन को न खरीदकर रईसों के लिये समझे जाने वाले 60 पैसे का खुशबूदार सनलाईट साबुन ले आया और अपने कपड़े धोये । उसे नींद नहीं आ रही थी इसलिये वह मन को समझाने के लिये राधा कृष्ण प्रसंग के सवैया गाकर रोमांचित था। शाम को 4 बजे घर से होशंगाबाद जाते समय फुल्लो अम्मा ने उसे चार रूपये दिये और 2 रूपये घर खर्च के रख लिये। हेमराज नर्मदा तट पर आया वहाँ से नाव में बैठकर होशंगाबाद आया।
हेमराज अपनी ससुराल पहुंचा और ससुर से मिलकर फिर अपनी पत्नी को पहुंचाने के लिये हाथ जोड़े पर ससुर ने कहा जा पंचायत करा ले, पंचायत कहेगी तो भेज देंगे तभी वहां उनके बड़े साले तुलसीराम ने उनकी बेइज्जती कर बहिन को भेजने से मना कर दिया। वह अपनी सास से मिलने पहुंचा जहाँ सालों ने फरमान सुना दिया, हमारी बहिन तुम्हारे घर नहीं जायेगी, तुम चाहो तो हमारे घर आकर बहिन के साथ रह सकते हो। मायूस हेमराज अपने बड़े जीजाओं, मामा ओमकार के घर गया और पूरे घटनाक्रम को बताया। तब सभी ने पंचायत के महाते, चौधरी, दीवान, जमादार को बताया और उनकी सलाह से अगले दिन पंचायत करने की सहमति दे दी। शाम को ही पंचायत का बुलउआ की खबर खबास को दे दी और सुबह 6 बजे ग्वालटोली के सभी मोहल्लों में खबास से पंचायत का हंका दे दिया। दूसरे स्थानों पर खबास ने सुबह ही खबर भिजवा दी। शाम चार बजे काली मंदिर ग्वालटोली पर पंचायत के लिये पंचों का आना शुरू हो गया था। काली मंदिर परिसर सहित पूरा मैदान खचाखच समाज के लोगों से भरा गया था और हेमराज अपने सप्ताह में कमाये पैसों से खरीदी गयी बीड़ी के बन्डल, माचिक, सुपाड़ी,तम्बाखू, लोंग इलायची आदि सहित पीने के पानी पंचों के समक्ष खबास के द्वारा बंटवा रहा था। सभी पंच विराजमान हो गये थे और महाते को छोड़ सभी पदाधिकारी अपना अपना स्थान ले चुके थे। तब नियम था जब तक महाते नहीं आये तब तक पंचायत शुरू नहीं होती थी, पर विषयवस्तु को लेकर चर्चायें और विचारों आ आदान प्रदान जरूर चलने लगता था। महाते का इंतजार करते तीन चार घन्टे बीत गये पर महाते पंचायत में नहीं पहुँचे और वे घर पर भी नहीं थे, पंचों के बार बार कहने पर उन्हें तलाशा जाता पर वे नहीं मिले, तब हेमराज से पूछा क्या तुमने उन्हें खबर नहीं की, तब हेमराज द्वारा कहे जाने कि मैंने उनसे बात करने के बाद अनुमति लेकर पंचायत बुलाई है तब सब शांत हो जाते। इस पंचायत में महाते के नहीं मौजूद होने से सभी पंचगण अगली पंचायत इतवार को करने की सहमति देकर चले गये ।
एक साल तक हर महीने हर इतवार को काली मंदिर ग्वालटोली में पंचायत में अनेक मसले आते और उनका निर्णय हो जाता लेकिन जैसे ही हेमराज का यह मामला शुरू होता उसमें सकल पंच,पदाधिकारी आते लेकिन मुख्य न्यायिक पदाधिकारी मथुरा महाते गायब रहकर अनुपस्थित रहते और हेमराज की मेहनत मजदूरी की पूरी कमाई पंचायत की आवभगत, व्यवस्था में चौपट हो जाती। हर पंचायत में लकड़ी पक्ष से उनके पिता को बुलाया जाता लेकिन वे कभी मौजूद नहीं हुये, पता चला पंचायत के प्रमुख महाते जी की उनसे रिश्तेदारी है और वे जब भी हेमराज द्वारा पंचायत बुलायी जाती वे लड़की के पिता के साथ होते और इस पंचायत बिना प्रमुख के किसी निर्णय पर नहीं पहुंचती। आखिर में पंचों ने पंचायत में आने से मना कर दिया हेमराज और उसकी बूढी अंधी माँ और पूरा परिवार न्याय के लिये इस पंचायत से वंचित रहा। हेमराज हर प्रयास कर चुका था कि उनकी पत्नी उनके घर पहुंच जाये पर गरीबी उसकी कमजोरी थी और पंचायतों में जो पंच लोग पक्ष-विपक्ष में बहस कर निर्णय तक पहुंचाते थे वे हेमराज के साथ नहीं थे। अपनी पत्नी को अपने घर पर नहीं ला पाने के कारण हेमराज पूरी तरह टूट चुका था। वह अब रोज शाम को जोशीपुर जाता और वहाँ से कच्ची शराब पीकर लड़खड़ाता लौटता और माँ को देखकर चिल्लाता अईओ मैं क्या करूं, जीने का मन नहीं होता और मैं अपनी बीबी के बिना नहीं रह सकता। यह क्रम रोजाना का हो गया था इससे हेमराज का स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा।
अंधी बूढी माँ अपने बेटे को इस पर रोजाना रोता और तड़फता नहीं देख सकती थी इसलिये उसने अपनी छाती पर पत्थर रखकर कहा बेटा, तू बहू के मायके चला जा और वहीं घरजवाई बन कर रहना, कम से कम रोज तिल तिल यह जानलेवा शराब पीकर तेरी जान जाये इससे अच्छा है तू भले नजरों के सामने नहीं होगा, पर तेरी जान तो सलामत रहेगी। हेमराज ने सभी को समझाते माँ से कहा -अईओ, अगर मैं वहाँ गया तो फिर वे न मुझे तुझसे मिलने देंगे और न ही मेरी किसी बहन के घर आ जा सकूंगा, सबसे रिश्ता तोड़कर उनकी शर्त में वही जीना होगा। मां रोती पर आंखों में आंसू नहीं आने देती उसकी चाहत थी कि वह किसी तरह अपनी बहू बेटे के साथ अपना बुढावा गुजार दे और बेटा बहू उसकी आँख बन जाये, पर नियति को कुछ और मंजूर था। फुल्लो अम्मा ने उस दिन हेमराज को बुलाकर गले से लगाया और खूब रोयी। हेमराज ने अपनी आँखों में काजल लगाया था और वह गबरू जवान अपनी रौबीली मूछों की शान के कारण गाँव में जाना जाता था, वह अपना घर, गाँव और माँ को सदा के लिये त्यागने से पहले माँ से चिपककर ऐसे बिलख रहा था जैसे कोई बच्चा रोता है। दूसरे कमरे में छोटा बेटा और छोटी बहू भी इस मंजर को देखकर दुखी थे जैसे उनका सब कुछ लुटने जा रहा है। घर की दालान में लालटेन टिमटिमाने लगी तब छोटी बहू आयी और उसने घासलेट भरा, शाम को रोज दो चिमनी घर में जलती थी और एक लालटेन दालान में तथा एक बाहर के लिये थी जब गायों की सार में गायों को चारा डालने, दुहने के लिये या किसी को शौच, लघुशंका आने पर उसका इस्तेमाल बाहर ही होता था।
वह रात उस अंधी फुल्लो के जीवन की सबसे भयानक और डरावनी थी। शाम ढ़लते ही माँ ने अपने हाथों से चूल्हा जलाकर कंडों और लकड़ी जलाकर मिटटी की हांडी में घर की बेला में लगी बल्लर और बाडे से लाल लाल टमाटर की सब्जी बनाई और मिटटी का कल्ला/तवा रखकर रोटी पकाकर बेटे को परौसकर खुश थी। क्या रोशनी,क्या अंधेरा कभी फुल्लो अम्मा को भान नहीं होता था , आँखें की रोशनी खाने के बाद उनके कदम आँखवालों से तेज चलते थे और रास्ते का आभास हो जाता था। घर हो या बाड़ा सभी चीजें उनकी पकड़ में थी। आँखों के बिना कभी चूल्हे में रोटी जली हो यह कभी हुआ नहीं। हाथों से टटोल कर वह जान जाती थी कि आग ठण्डी हो गयी या नहीं, बस एक लकड़ी के टुकडे से चूल्हे से आग निकालकर रोटी सेंकती थी। सुबह हेमराज को अपने ससुर की शर्तों के पालन करने ससुराल में सदा के लिये बस जाना था और आज वह माँ के पास उसके खपरैल मकान के पटमे के नीचे आराम सो रहा था। हेमराज गहरी नींद में था पर उनकी माँ फुल्लो अम्मा की आँखों में नीद नहीं थी वह सारी रात उसके पलंग के पास बैठ उसकी हथेली की ऊंगलियों के पोरों का स्पर्श करती रही। पास ही दूसरी खटिया पर छोटा बेटा लेटा था और उसकी आँखों में भी नींद नहीं थी उसे अपने बड़े भाई के बिछड़ने का दुख था और वह खाट पर बिछी कथरी में मुंह छिपाकर रो रहा था ताकि फुल्लो अम्मा को पता न चल जाये। जब आधी रात हो गयी तो वह चुपके से उठकर माँ के कन्धों पर हाथ रखकर धीरे से फुसफुसाया अम्मा सो जाओ। माँ और छोटा बेटा चूल्हे के पास पहुंचकर रोने लगे जिन्हें छोटी बहू ने रोते हुये सोने को कहा। चूल्हे के पास बैठे बहुत समय हो गया तब माँ ने जान लिया कि रात का तीसरा पहर गुजर गया है। उसने छोटे बेटे और बहू को सोने भेज दिया लेकिन वे सोये नहीं। माँ के कानों में पड़ोस के घरों में जागने वालों की आवाजें सुनाई दी। पूरे गाँव के लोग सुबह 4 बजे उठ आते थे और अपने अपने गाय-भैसों को रहट चराने के लिये ले जाते और छह बजे लेकर लौट आते। फिर सभी दूध दुहने के बाद शहर में बेचने निकल जाते।
जब सांझ फुल्लो अम्मा रोटी बना रही थी तब उन्होंने गेहूँ के चून/आटा के बर्तन को खाली देख लिया था। उसे पता था सुबह हेमराज के लिये रोटी बनाकर खिलाना है इसलिये वो एक परात में गेहूँ लेकर चकिया के पास पहुंची और चकिया को साफ करके धीरे-धीरे गेहूं पीसना शुरू किया और कब चून का बर्तन भर गया उसने चकिया बंद कर चूल्हे में आग सुलगा ली। छोटा बेटा चकिया में आटा पीसे जाने के दरमयान घर से रस्सी बाल्टी,गुंड घघरा लेकर कुंये पर पहुंच गया और छोटी बहू भी कुंए से पानी लाने में जुटी और कुछ समय में जरूरत का पानी भरकर रस्सी लपेटकर आ गये, पता नहीं चला। जब माँ ने चूल्हा जला लिया था तब तब छोटा बेटा बहू दूध दुह चुके थे। तब उनके पास 100 से ज्यादा बकरियां थी जिनमें 30 के लगभग बकरियां दूध देने वाली थी, जिन्हें बहू बेटे ने मिलकर दुहा और घर में पीतल के तीन बड़े तसले जिसमें डेढ़ सौ लीटर दूध रखने की क्षमता थी लेकिन इनके पास 40 लीटर दूध होता था जो 20 पैसे लीटर घर से एक व्यक्ति ले जाता ओर शहर में बेचकर अपना मुनाफा निकाल लेता था। एक समय था जब इस घर में तीनों तसले दूध से भरे होते थे, जिसमें एक तसले में गाय का दूध एक में बकरी का दूध और एक तसले में भैसों का दूध अलग अलग रखते थे। तब मलाई निकालने के लिये अलग डबला था और दही के लिये बडी हांडी थी।
सुबह हुई, यह सुबह हेमराज की थी जो उसके गृहस्थ जीवन की दुबारा जीने का शुभ संकेत लेकर आने वाली थी। यह सुबह हेमराज के ससुराल में उनकी पत्नी की थी। फुल्लो अम्मा के जीवन में अंधेरा ही अंधेरा था। ऊपरवाले ने पहले नेत्र की रोशनी छीन ली, जब हेमराज का जन्म हुआ तो उन्हें खुशी हुई कि यह बेटा जीवन में रोशनी भर देगा, पर यह सपना आज टूटने जा रहा था। कुछ साल गुजरने के बाद फुल्लो अम्मा के पति उनका साथ छोड़कर चले गये और उनके जीवन का अंधकार दुगुना हो गया। पति के जाने के बाद फुल्लों अम्मा की तीन बेटियां एवं दो बेटों के भरण पोषण का प्रश्न था। उनके पति के खेत,खलियान, गौधन सब करीबी रिश्तेदारों ने इस शर्त पर कि बच्चों का लालन पोषण व शादी कर देंगे अपने अपने पास रख लिया और बाद में सभी ने उनकी सम्पत्ति हड़प ली। सब कुछ खोने के बाद भी फुल्लो अम्मा को जितना दुख नहीं पहुंचा उतना दुख उन्हें आज अपने बड़े बेटे को घर से ससुराल में घरजमाई बनकर रहने की रजामंदी में हुआ। फुल्लो अम्मा का दर्द चरम पर था पर वह अंधी रो भी नहीं सकती थी। उसे याद है जब वह ससुराल आयी तब पति का आधे गाँव पर साम्राजय था और वही मायके में उनकी इतनी सम्पत्ति थी कि वह आज करोड़ों की स्वामिनी होती, पर आँख न होने का सभी ने फायदा उठाकर उन्हें छला पर वे कभी अस्थिर नहीं रही। बड़े बेटे हेमराज के जाने के बाद फुल्लो अम्मा कई दिनों तक खामोश रहीं और किसी से बातें न कर रोती रहती। सब समझाते पर वह सुनकर भी अनसुनी करती। उसके मस्तिष्क में सैकड़ों सवाल इस समाज के लिये उठते कि मुझे तो ऊपरवाले ने नेत्रहीन बना दिया लेकिन यह समाज मुझ जैसे लोगों के प्रति दया दिखाने की बजाय इतना कठोर क्यों हो गया जो मुझे अपने बेटे के लिये बहू घर लिवाने में सहायक होने की बजाय पूरा समाज और पंचायत अंधी हो गयी जो न्याय नहीं कर सकी। फुल्लो अम्मा शून्य में ताकते हुये अंधे समाज, अन्याय के खिलाफ बेटे के घर लौटने का इंतजार करती रही लेकिन कई बरस गुजर जाने के बाद उसका बेटा ससुराल में पहुंचकर सरकारी नौकरी करते हुये कभी माँ के पास नहीं आया। ससुराल में बेटे के दिमाग में ऐसा क्या फितूर भरा गया जिससे वह अपनी माँ के घर और अपनी सभी बहनों के घर होने वाले किसी भी सुख-दुख एवं वैवाहिक आयोजनों में नहीं पहुंचा और न ही बड़ी बहू ही शामिल हुई जैसे सवाल फुल्लो अम्मा को मरने तक कुचेटते रहे।
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आत्माराम यादव (पीव) वरिष्ठ पत्रकार
सिटीपोस्ट आफिस के पास, उर्मिल किराना दूकान गली, मोरछली चौक होशंगाबाद मध्यप्रदेश
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