1. किसान मुद्दतों का इतवार हूँ मैं जीवन की जद्दोजहद में पल-पल संघर्ष करता झूठी मर्यादाओं से लिपटा शोषित हूँ ,पीड़ित हूँ ,किसान हूँ मै...
1. किसान
मुद्दतों का इतवार हूँ मैं
जीवन की जद्दोजहद में
पल-पल संघर्ष करता
झूठी मर्यादाओं से लिपटा
शोषित हूँ ,पीड़ित हूँ ,किसान हूँ मैं
कलम क्रांति के महासागर में
बची हुई स्याही
फटे हुए कागज का टुकडा़ हूँ मैं।
मुद्दतों का इतवार हूँ मैं
सदियों से गूंजता
निरूतर सवाल हूँ मैं
धूप, शीत में जलता, ठिठुरता
अपने धर की त्रिपाल हूँ मैं
नेता पहनता टोपी
लेकिन चुनाव का बवाल हूँ मैं
देखो! कितना कमाल हूँ मैं ।।
मुद्दतों का इतवार हूँ मैं
हूं धरती मां का लाल
माटी के लिए धूं धूं जला हूँ मैं
फटी एड़ियों सी
बंजर हो चुकी जमीन
कर्ज में लिपटा हूँ
काम बहुत है
अभी कहाँ थका हूँ मैं।
मुद्दतों का इतवार हूँ मैं
जीवन रथ की डगर पे
परिंदे सा फड़फड़ाता
पल पल भूख प्यास में
परिंदे ढूँढ रहा हूँ मैं
खेतों में हल लेकर
माटी की महक को
ओस से सींच रहा हूँ मैं।।
मुद्दतों का इतवार हूँ मैं
तड़पती धरती बाट जोहती
अम्बर के झरनों की
माटी का कर्ज लेकर बैठा मैं
न सोता, न जागता
खेतों का प्रहरी बना हूँ मैं
अम्बर की बौछारें बहती
मेरी टूटी छत से
नाच उठता पागल सा मैं
मुद्दतों का इतवार हूँ मैं।
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2. प्रकृति
ऊंचे पहाडो़ं !
कितने सख्त हो तुम
फिर भी
कितने अलग हो
सौम्यता है तुममें
कितना धैर्य है
मुकुट हो वसुंधरा का
फिर भी घमंड़ छूता नहीं
हर कोई दीवाना है तुम्हारा ।
तुम्हारे भाल से लेकर
धरातल की गहराई तक
शांत चित से
तुम अटल खड़े रहते हो
मगर याराना
सबसे रखते हो
चींटी का घर भी है
तुम्हारे भाल पे
और हरा भरा वैभव
तुम्हारे ऊपर
अक्सर विराजमान रहता है ।
ये प्राकृतिक सम्पति
तुम श्रृंगार की तरह ओढ़े हो
ओर विशाल आंचल में
कितने ही जीव शरण लेकर
जीवन व्यतीत करते है
तुम्हारी ममता,शीतलता
जुदा होने कहाँ देती है
देखो तुम्हारा मोह
रहती है तुम्हारे आंगन में
खरपतवार भी,
फूलों की बहार भी
न स्नेह ज्यादा,न कम ।
उधर भी देखो तुम
इंसान द्वेष में मरा जाता है
भाई -भाई
पड़ोस में कहाँ नज़र आता है
पशु -पक्षी विचरते हैं
तुम्हारे सख्त मगर
शीतल आंगन में
जाति धर्म का बंधन कहाँ
वसुधैव कुटुम्बकम का
एक पौधा लगता है
तुम्हारे खुले आंगन में
हर रिवाज़, हर शख्स की इबादत
तुम्हारे आंगन में महफूज लगती है ।
मासूम बच्चों का खिलौना भी हो
तुम्हारे पत्थर की गोटियां
खिलखिलाकर तुम्ही पे मारते
खुशी से मन जीत जाता उनका
तुम्हारे आंगन के बेर खाकर
बैठ जाते है तुम्हारे पास
गप्प हांकते
अंगडाइयां भरते
तुम्हारे आँगन से सटकर
फिर भी गैरत महसूस नहीं होती ।
तुम राम महसूस करते
ओर रहीम भी
प्रेम का पहरा लगता है
तुम्हारे आंगन के हर कोने पर
रेंग कर कुछ जीव-जंतु
कोशिश करते है
धड़कन महसूस करने की
मगर
तुम मगन रहते हो
अपनी महकती बगिया में।
कभी -कभी
जब तुम्हारा गुस्सा परवान चढ़ता है
सारी गोटियां उखाड़ फेंकते हो तुम
बन जाते हो मौत के सौदागर
लेकिन
तब भी नहीं भूलते तुम
न्याय ओर समता का पाठ
ढ़हा ले जाते हो
पहाड़ के इस तरफ का हिन्दू
ओर उस तरफ का मुस्लमान
पर्दा गिराते हैं
मिलकर राम ओर रहीम ।
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3. धुंध का साया
धुंध का साया
भागता रहा
मैं उससे बचकर
भूख प्यास से बदहाल
छिपने की कोशिश करता रहा
और वह अपना कद
ओर ऊंचा करता गया
ढूँढता रहा मैं
एक गर्म बिछौना
लेकिन ढूंढता भी कहाँ तक
घर तो पूरे शहर में बसा था
दूर देख पाना मुनासिब न था
इस गली उस गली
घेरे बैठा रहा वह
मैंने अपनी गति और बढ़ा दी
और कुछ दूरी पर
एक धूप की चादर दिखी
मैं ओढ़कर बैठ जाना चाहता था
ठिठुरते साये से
एक पर्दा कर लेना चाहता था
लेकिन तब तक
भूख के चूहों ने
मुझे अंदर तक
कुचल कर रख दिया था
भूख और धुंध का साया
एक साथ हमलावर बन चुके थे
मैं धूप की चादर से कुछ दूर
छिलके की भांति
हवा में उड़ता हुआ
धरातल पर गिरा
और चिरनिद्रा में खो चुका था ।
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4. मुँडेर
टेडी सी मुँडेर पर
रह रहकर हाथ रिगसते
अपने ही कदमों का जोड़ भाग करते
अपने जिस्म के खडंहर को
रोज उठाये घुमते
ताकते जीवन की नई क्यारियों को
अरमान पनपते पानी के बुलबलों से
मिट्टी की गंध में बसकर फूट जाते
देखती हूँ चंचल सी झुर्रियां
रोज चुंबन करती
और निशां छोड़ जाती
सिर से पैर तक
एक नया लिबास बना जाती
और एहसास करवाती
मेरे जाने के बहाने का
सजल नेत्रों से फूट पड़ती अश्रुधार
अलकों के छोर से बारिश में बदल जाती
राह तकते जीवन की विनम्र श्रद्धांजलि में।
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5. सत्ता
चलो देश का विकास करते हैं
विद्रोही पार्टी बनाएंगे
लेकिन पहले घोटाला करेंगे
प्रारम्भ तुम करना
फिर हम सब सहयोग करेंगे
विश्वास की धूल झोंककर
सफेदपोश बने घूमेंगे
देश विकास की डफली बजाएगें
गाँव-गाँव ,शहर-शहर फैलती निशा में
अपराध के बीज बोयेंगे
दहशत फैलेगी
जनता झोली फैलाएगी
राहत की भीख मांगेगी
हम भरपूर आश्वासन देंगे
ओर कुछ दिन शांति के गुजारेंगे
फिर हर शख्स की
नब्ज टटोलेगें
और गिरोह में भर्ती करेंगे
नौकरी के लालच में
नौजवान चुम्बक से खींचे आएंगे
दो पैसे के लिए अंधे होकर
हादसों से लेकर दंगे तक कर डालेंगे
घर-घर में द्वन्द्व शुरू होंगे
आरोप प्रत्यारोप होंगे
स्त्री-पुरूष चार दीवारी लांघेंगे
बच्चे-बच्चे के मुख से
विषैली भाषा का उदघोष होगा
दंगों का दौर चलेगा
लहू-लहू होंगी सड़कें
राष्ट्र प्रगति पथ पर अग्रसर होगा
भाई-भाई की ईंटें फूटेगीं
ओर विद्रोह का ढेर लगेगा
संयुक्त राष्ट्र पीठ ठोकेगा
सम्मान में गाई जाएंगी
हृदय को चीरती
मानवता की हत्या करती
अभद्र गालियां
समाज का छलनी होता हृदय
पार्टी का मस्तक
गौरव से धड़ के ऊपर उठ खड़ा होगा
लेकिन देश को सांत्वना हेतु
बारी-बारी से सभाएं आयोजित करेंगे
सब कुछ तबाह कर
शांति की अपील करेंगे
सहायता का ढोंग करेंगे
लोग न्याय की गुहार लगाएंगे
जांच का फ़रमान जारी होगा
पीड़ित के ईर्द गिर्द पूछताछ होगी
घटना के साक्ष्य जुटाए जाएंगे
पीड़ित को ड़राया जाएगा
वह हाथ जोड़ गिड़गिड़ाएगा
चाबुक की बरसात होगी
बेहोशी की हालत में
अंगूठे की छाप
गुनहगार तय कर देगी
गर्व से दोषी की घोषणा होगी
जनता में जीत की लहर होगी
फिर से पार्टी सत्ता में होगी
देश का विकास करेंगे
पहले घोटाला करेंगे
प्रारम्भ तुम करना
फिर हम सब सहयोग करेंगे।
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6. गाय आजकल गोबर नहीं करती
गाय आजकल सत्ता में है
लेकिन गोबर नहीं करती
घर-घर वोट लेकर
हजम करने की कोशिश में
बदहज़मी से दस्त कर देती है
ना योजनाओं के उपले बनते हैं
ना आंच के लिए कोर बनती है
दस्त पे हाथ सेंककर
जनता अपना काम चलाती है ।
गाय आजकल सत्ता में है
लेकिन गोबर नहीं करती
सत्ता के हालात मंदे हैं
क्यूंकि हर कोई गाय लेकर खड़ा है
मगर मुसीबत ये है
सबकी गाय वोट खाकर
दस्त ही करती है
देश की प्रगति देखकर
भावविभोर हो गई है गाय ।।
गाय आजकल सत्ता में है
लेकिन गोबर नहीं करती
सुबह-शाम के आलस
एसी में निपटाती है
जनता बाल्टी लेकर बैठी है
गाय कुर्सी की आह में!
बाल्टी लात मार के गिराती है
योजना आने से पहले
दूध की भांति फट जाती है
हर गरीब की उम्मीदें कट जाती है
बाल्टी नहा धोकर
स्वच्छ अभियान का हिस्सा है
भगवान झूठ ना बुलवाए
ये हमारे देश का किस्सा है ।
गाय आजकल सत्ता में है
लेकिन गोबर नहीं करती
गाय की चिंता देख
जनता मोम हो जाती है
और जनता चारा चरकर
गाय के निशान पे
वोट का बटन दबाती है
गाय फिर से विजयी दिवस मनाती है
किसानों की जमीन पे
पकोडे़ तलकर खा जाती है
आतंकवादी पकडा़ नहीं जाता
गरीबों के लिए कुछ किया नहीं जाता
उठाकर एनकाउंटर कर दो
जब तक देश से गरीब खत्म नहीं हो जाता ।।
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7. अर्धांगिनी
दिल मोम सा लिए
आए थे दिल के दरवाजे तक
हाथ पैरों में
मौहब्बत की कम्पन थी
माथे पर सिलवटें
और मासूम सा चमकता पसीना
कांपता हुआ हाथ आया था तुम तक
तुम्हारे हाथ में
सदैव के लिए ठहर जाने को
मगर
ये मुनासिब न हो सका
शायद तुम्हें भी जरूरत न थी
इन प्रेम का पैगाम देते हाथों की
न जाने कैसे भड़कते हुए तुम
मुझ पर, मेरे अक्स पर
एक सांस में चिल्ला उठते हो
मानों खरीद रखा हो
तुमने मुझे जन्मजात
अपने एहसान तले दबा रखा हो
और मुँह सी लेने को विवश हूँ मैं
सहती रही सदियों से
तुम्हारा असीम प्रेम समझकर
उठाती रही
तुम्हारी भौंडी मानसिकता का बोझ
अपना कर्तव्य समझकर
लेकिन तुमने माना ही नहीं
मुझे अपना आधा हिस्सा
अर्द्धांगिनी का
जो तुम्हारे कंधे का बोझ
हल्का कर लेना चाहती थी
मन में तुम्हारा नाम बसाकर
अपना घर तक छोड़ा था
मैंने तुम्हारे लिए
रोते हुए मां, बाऊजी
दरवाजे तक बिलखते रहे
और चारों तरफ यादों का डेरा
नम आंखों का कटोरदान
हरपल भीगा रहता होगा अब
फिर भी सबकुछ भूलकर
तुम्हारा साथ चाहती रही
तुम्हें, तुम्हारे परिवार
तुम्हारे अक्स को अपना बनाने की जद में
झेलती रही
तुम्हारे तीर से चुभते शब्दों को
परन्तु ,तुमने सिर्फ तराजू में तौला है
मेरे मासूम से प्रेम को
औरत न होकर
एक प्रयोगशाला बन गई हूँ
भाँति भाँति के रसायनों से
रोज गुजरी हूँ मैं
जो तुम्हारे मन के मर्तबानों में
जन्म लेते रहते हैं
और उंडे़ल देते हो
वर्षों तक संग्रह के लिए
लेकिन मेरा मन
जो चाहता था
सिर्फ तुम्हारी खुशी
मन मयूर हुआ जाता था
तुम्हें हंसते हुए देखकर
मगर
तुम्हारे मर्दाने अहंकार में
पीसती रही मेरी भावनाएं
इन सबके बीच
मालूम नहीं कैसे नहीं दिखी
तुम्हें मेरी आधी खुशी
जो बाहर आकर
खिलना चाहती थी
चमकते दांतों के साथ
लेकिन घुटती रही
तुम्हारी दी हुई
यातनाओं के धुएँ में
बहते रहे आँसू
भीगता रहा दुपट्टे का पल्लू
जो मेरे लाख चाहने पर भी
कभी धूप में सूखा ही नहीं ।
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8. वक्त और साजिश़
देखो !हमारे तुम्हारे जमाने की
बरसात हुई है
कुछ तो बादलों की साजिश हुई होगी
आओ और
चलकर देखते हैं
हथेली फैलाओ
और देखो तो
आसमान से कहीं
इंसानियत गिरी क्या
अरे! नहीं नहीं
वहम भी तो देखो
कैसा बच्चों सा हो चला है
इंसानियत तो
हमारे तुम्हारे बीच ही गिर जाती है
और आसमां की सीढ़ियाँ तो
बहुत लम्बे सफर पे है ।
हम तुम तो
दो आंखों के अंधे ठहरे
संवारने को बहा लेते हैं
स्वार्थ का काजल
और सब जानकर
मुस्करा देते हैं ।
देखो तो जरा अखबार
शहर में खबर फैली है
साजिश के ओले गिरेंगे
अरे! नहीं नहीं
ओले तो गिर चुके हैं
हमारी तुम्हारी जुबान से
अभी आसमां इतना भी नहीं गिरा
झांक न सके
खुदी के गिरेबान में।
बहुत तरफरदारी करते हो
बाहर निकलकर देखा भी है कभी
सुनो तो तुम
सड़कें बहुत भीगी रहती हैं आजकल
लगता है
अम्बर बेवफ़ाई करने आता है
अरे! नहीं नहीं
हमारी तुम्हारी पीढियां
रखती है बेवफ़ाई का हुनर
मुहब्बत, इश्क और बेफिक्र
अम्बर में कहाँ है इतना जिगर ।
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9. मानुष और किसान
बन चुका होता
अब तक मनुष्य नरभक्षी
खाने को लालायित रहता
सर्वत्र फैले आदिम जहां को
गर होता इंसान भी जानवर ।
होती दुश्वारियां जीने की
खेल की भांति छिपता इंसान
जीने को फिर निकलता
पीछे से दबोच लिया जाता
कोई छिपकर बैठा हैवान ।
माटी न सींची होती
बहाकर खून पसीना
ना होता कोई साग, सब्ज
ना लहलाते खेत
नहीं बहा पाते तुम
दूध, दही की नदियाँ
कुपोषण की पीड़ा में
भूख से तड़पता इंसान
हो जाते निष्क्रिय
बुलंदियों को छूने में ।
ना प्रेम के रिश्ते होते
ना रिश्तेदारियां होती
रातों-रात जुल्मी बनने की
खुमारियां होती।
संस्कारों की चिड़िया
संरक्षण के अभाव में
पलायन कर जाती ।
इश्क ढूंढे से भी न मिलता
मुहब्बत के वादे कौन करता
बेवफ़ाईयों की चादर पे
ना बहते सिलवटों के आँसू ।
खा जाने को आतुर
खून पी जाने को व्याकुल
आंखों में खौलती भूख
चबाकर भस्म कर डालती
इंसानियत के दरवाजे।
बंजर पड़ी होती भूमि
चरवाहों का अस्तित्व
ढूँढे से भी न मिलता
डरकर भागते जानवर
अपनी जान बचाने को
खूंटे खाली रहते
भूख की बेडि़यों में बंधा
सिसकता इंसान!
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10. साहित्य
मैं एक लंबी ज़बान हूँ
बहते साहित्य की
डूबते साहित्यकार की
उठते तरंगों के विषय
टपकती लार में
समेंटकर लिपिबद्ध करता हूँ
मैं एक लंबी जबान हूं
कभी अकाल का सूखापन झलकता है
कभी बाढ़ सा विद्रोह करते हर्फ
कितना अजीब है
साहित्य को जानना
टिप-टिप की गहराई में डूबकर
अथाह सागर तक
बहते हुए हिलोरे लेना
मैं एक लंबी जबान हूं।
साहित्य का अलग-थलग बिखरकर
नित नई पौध में बदलना
जुबान के कारतूसों से
मंच पर विस्फोट करना
और तालियों में साहित्य के लिए
अगाध श्रद्धा प्रकट हो जाना।
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11. यादों का सामान
हर रात की तरह
तकिये पे गिरते आँसू
जिंदगी के हर्फ लिख रहे थे
मगर तभी गमों को
खटखटाया किसी ने
मैं रूकी रही ख्वाब सोचकर
बहती सांसों ने
यादों का सामान बांधा
और गठरी उठाये चलने लगी
लेकिन फिर से आवाज गूंजी
और शुरू हो गई राजनीति
तन्हाई में लिपटी
मेरी सिसकती करवटों पर
मेरे सीने से एक
दर्द का टुकड़ा टूटकर भागा
जिस्म के अगले हिस्से पर
चुभने के शौक में।
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12. मैं हूं रेत
मैँ हूं रेत
समय पथ की
अविरल प्रगति करती
बिना सवारी
रथ की
मेरी आयु का
प्रातः सांय ढले
दुःख दरिद्रता मेँ भी
मेरा जीवन चक्र
तन मन से चले
मैँ हूं रेत
समय पथ की . . . . . .
इस सृष्टि मेँ
अविरल गति से
स्वंय के पथ पे
भ्रमण करती
इस श्रृष्टि का
वक्त आधारी है
मैं हूँ रेत
समय पथ की . . . . .
चाहे किस्मत का पृष्ठ
रूठ सा जाता
प्रत्येक पल
वक्त के साथ
पिछडता जाता
वक्त के नेत्र
आगामी पथ पर
चाहे छाया
या रश्मि रथ पर
मैं हूं रेत
समय पथ की . . . . .
न नीरसता है
न उत्श्रृंखलता
समायी मुझमे
भावसाम्यता
न कठोर हूं
न सौम्य
न अधिर मन
न वैमनस्यता
मुल्जिम ठहरा
फिर भी वक्त ही
हे मानुष !
निरन्तर प्रवाहित होता
तेरा आरोप प्रत्यारोप
व्यर्थ ही
मै हूं रेत
समय पथ की . . . . .
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13. धरती का गौरव
हे वसुंधरा!
धरती का गौरव
आकाश का प्रकाश
ईश से मिलन हो गया
था पुंज प्रकाश ।
मानवता की मिसाल
जाति धर्म से परे
माना सदैव
हिन्दुस्तान ही सरताज
देश की गरिमा
और मिसाइल से बेपनाह प्यार ।
जीवन भर की
कर्म की साधना
ईश की आराधना
दिया सफलता का सूत्र
बच्चे बच्चे को है
दृढ इच्छा से बांधना ।
छोड गये विशिष्ट शक्ति
प्रेरणा की सद्भावना
निश्चलता का वास
जटिल रेखाओं में
होगा सरलता का प्रवास ।
हे मातृभूमि !तुने बुला लिया
भारत का सच्चा सपूत
दृढ निश्चयी रहा वो जीवन भर
तुझे किया कर्म धर्म से आहूत ।
विकास को हवा दे गया वो
तीव्र वेग से बहे
ऐसी दिशा दे गया वो ।
होगा न केवल
सपना पूरा
पूरा होगा
हमारा लक्ष्य अधूरा ।
हे वसुंधरा !
जो निकला तुमसे एक वट वृक्ष
जीवन भर दिया जिसने भारत को
समा गया वो तुझमें
लक्ष्य दे गया विकासशील भारत को ।
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14.उडा़न
मैं स्वप्न बुनती हूँ
सहसा अलख जगाता है कोई
तार-तार बुनकर
एतबार बनाता है कोई
आंखों की कनखियां
झांक-झांककर
एहसास जगाता है कोई ।
मैं शब्द बुनती हूँ
झोंका हवा का आता है कोई
वाग्बद्ध होकर
लिपटता है कागज़ पे
मानों छोड़कर जाता है कोई
शब्दों को एहसासों से फैलाकर
जीवन ग्रंथ बन जाता है कोई ।
मैं फर्श से अर्श बुनती हूँ
तूफान रह-रहकर आता है कोई
मुश्क (भुजा) फैलाकर
कठोर परिश्रम की धार पे
उड़ान भर जाता है कोई
राहों को रोशन करके
मिसाल बन जाता है कोई ।
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15.कोपल
बहुत कुछ था
जो तुझसे कहना था
बारिश से भी ज्यादा
भीगा था मेरा मन
यादों के एहसासों से
तेज बरसती बूँदों में
एक झटका सा लगा
सामने की टहनी पर
टूटकर आहिस्ता सा
छू लेता जमीन
गर सूखकर गिरा होता
मगर कोपल सी उम्र थी
हवाएं जमाने से बेख़बर थी
बूँद बूँद तोड़ा उसने रातभर
लाली भी खिलकर
हरी फिजाओं में बही न थी
बहने से पहले ही
छिन गया जीवन
हवा के बहाव में तैरता
धक से जमीन से टकराता
और जीवन की रूपरेखा
समझे बिना ही
इतिश्री के दस्तखत
कर बैठा था हुक्मरान।
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16. रेत
मैँ हूं रेत
समय पथ की
अविरल प्रगति करती
बिना सवारी
रथ की
मेरी आयु का
प्रातः सांय ढले
दुःख दरिद्रता मेँ भी
मेरा जीवन चक्र
तन मन से चले
मैँ हूं रेत
समय पथ की . . . . . .
इस सृष्टि मेँ
अविरल गति से
स्वंय के पथ पे
भ्रमण करती
इस श्रृष्टि का
वक्त आधारी है
मैं हूँ रेत
समय पथ की . . . . .
चाहे किस्मत का पृष्ठ
रूठ सा जाता
प्रत्येक पल
वक्त के साथ
पिछडता जाता
वक्त के नेत्र
आगामी पथ पर
चाहे छाया
या रश्मि रथ पर
मैं हूं रेत
समय पथ की . . . . .
न नीरसता है
न उत्श्रृंखलता
समायी मुझमे
भावसाम्यता
न कठोर हूं
न सौम्य
न अधिर मन
न वैमनस्यता
मुल्जिम ठहरा
फिर भी वक्त ही
हे मानुष !
निरन्तर प्रवाहित होता
तेरा आरोप प्रत्यारोप
व्यर्थ ही
मैं हूं रेत
समय पथ की . . . . .
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17. मौसम
हर बार की तरह
इस बार भी
मेरे जख्मों को धोने
बारिश आई है
थोड़ी सी आंधी भेजी थी
बहते दर्द पे
मलहम लगाने को
दर्द बांटने आजकल
घर पे रिश्तेदार नहीं आते
लेकिन भूला नहीं मौसम
आज भी बिना बुलाए
दस्तक दिए बैठा रहा
थोड़ा आराम मिला है
आज कई दिनों से
बुढ़िया गई थी ये आंखें
अपनों की राह ताकते
लेकिन कोई आया ही नहीं
जिसे सामने बैठाकर
मैं दर्द नर्म करके निगल सकूं ।
मौसम अभी-अभी निकला है
मुझसे घंटों बतियाकर
अभी नुक्कड़ पर ही पहुंचा होगा
बड़ा सा खाली थैला लिए
जिसमें सबके लिए
सुकून भरकर लाया था
गली के बच्चे
देखते ही उमड़ पड़े थे
अपनी अपनी उमंग के साथ
गली की आशाएं
झाँक रही हैं बाहर
कैमरे की तरह मेरी आंखें भी
टकटकी लगा रही है
फिर कब आएगा सुकून का थैला लिए
और मैं पलक झपकाकर
सुकून कैप्चर कर लूंगा।
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शालिनी शालू 'नज़ीर'
जिला अलवर
राजस्थान
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