अन्तहीन घण्टी बजी । रणवीर होगा ...। आज शुक्रवार है न .. हर शुक्रवार नियत समय पर मेन गेट पर घण्टी बजती है .. नियत समय पर रणवीर आता है .. नियत...
अन्तहीन
घण्टी बजी ।
रणवीर होगा ...।
आज शुक्रवार है न .. हर शुक्रवार नियत समय पर मेन गेट पर घण्टी बजती है .. नियत समय पर रणवीर आता है .. नियत समय पर बेटियाँ किसी बहाने घर से निकल जाती हैं .. उन्हें कुछ नहीं सुनना .. किसी के बारे में कुछ नहीं जानना ।
रणवीर तिहाड़ जेल गया होगा .. साल भर हो गया रणवीर हर शुक्रवार अरविन्द से मिलने जाता है और फिर वहाँ से सीधा यहीं आता है ၊ अरविन्द का हालचाल बताने ...।
नहीं , मुझे शुक्रवार का इंतज़ार नहीं रहता , न अरविन्द के बारे में जानने की कोई इच्छा ही रहती है ।
नहीं , मैं निर्लिप्त भी नहीं हुई हूँ ... बहुत कोशिश की निर्लिप्त होने की पर सफल नहीं हुई । ये भी सोचा शरीर के गले सड़े अंग की तरह अरविन्द को अपने मन के शरीर से काट फेंकू पर वो तो प्राण था । आज वह प्राण तो नहीं है पर शरीर का वो गला सड़ा अंग है जिसे डॉक्टर ने काटने से मना कर दिया है । डॉक्टर को लगता है अंग काटना मतलब प्राणों के प्रवाह को रोकना ।
रणवीर मौसम की तरह नियत समय पर आता है .. अरविन्द का समाचार देता है ..मैं मुंह फेरे सब सुन लेती हूँ पर उसका हर शब्द कानों को छूकर निकल जाता है हृदय तक नहीं पहुँचता । कानों के आस पास ही घुम्म घुम्म की ध्वनि करता हुआ मंडराता रहता है । मेरे भीतर तक अब कुछ नहीं पहुँचता ।
अरविन्द की बात खत्म होते ही रणवीर मेरे बेटे जैसा बन जाता है .. मैं उसका हालचाल पूछती हूँ .. उसके लिए चाय बनाती हूँ .. उसके बीबी बच्चों का हालचाल पूछती हूँ और उसे आशीर्वाद देती हूँ कि वह इसी तरह एक अच्छा इंसान बना रहे ၊ नहीं , मैं इसलिए आशीर्वाद नहीं देती कि वह मेरे पति से मिलने जाता है ।
जब सारी दुनिया का सामना मुश्किल हो गया था .. दरवाजे खिड़कियाँ तक खोलने से डर लगने लगा था .. हर दस्तक सिर्फ़ भय जगाती थी ..हम तीनों अपने अपने कोनों में सिमट गई थीं .. अपने अपने अन्धेरों में गुम हो रही थीं तब रणवीर हम तीनों को उन अन्धेरी गुफओं से खींच - खींच कर बाहर निकालता था ၊ जब रातें खत्म होने का नाम नहीं लेती थीं तब यही जुगनू बनकर रोशनी का एक संसार रचता था ।
उसकी पत्नी पूरा हफ्ता हमारे घर पर ही रही .. रणवीर जानता था न कुछ बनेगा न कोई खाएगा इसलिए अपनी पत्नी को सप्ताह भर के लिए यहीं ले आया वही बनाती रही और रणवीर किसी तरह हमें ज़िन्दा रखने की कोशिश करता रहा । घर में हमें देखता और पुलिस स्टेशन में अरविन्द के पास जाता ।
कभी -कभी हैरानी होती है .. रणवीर जाने किस मिट्टी से बना है .. इतने पर भी , इतना सब हो जाने पर भी अरविन्द के प्रति उसका आदर और भक्ति कम नहीं हुई है । इस अन्ध भक्ति का फैलाव जहाँ मुझे चकित करता है वहाँ रणवीर के प्रति विश्वास को और गहरा कर देता है । ऐसे हर समय लगता है सघन अंधियारे वन के बीचों बीच एक चमकीली रोशनी एकाएक जीवन से भर रही है । उसका घर आना , हर समस्या से लड़ना या उसके आगे अड़कर खड़े हो जाना हम तीनों को एक रेखा के पार सुरक्षित रखने की हरदम कोशिश करना जैसे उसकी दिनचर्या का अंग बन गया है ।
छोटी बेटी महीना भर कॉलिज जाने की हिम्मत नहीं जुटा सकी .. एक दिन उसकी सहेली उसे जबरन लेकर गई थी ..
कॉलिज से आते ही छोटी बहुत रोई थी क्लास के अधिकतर लड़कों की तंज भरी मुस्कराहट उसे चैन नहीं लेने दे रही थी ।
अपने ग्रुप के लड़के जरूर साथ खड़े दिखे।
" तेरा कोई कसूर नहीं है तू क्यों मुंह छुपाती फिर रही है अब कॉलिज आना बद नहीं करना.. हम देखते हैं कैसे कोई कुछ कहता है ၊" अनिल ने कहा तो कई साथी साथ आ खड़े हुए । लगा जैसे भीख में साँसें मिल रही हैं ।
लेकिन कुछ न कुछ ऐसा होता रहता कि वो मुझसे पूछती आखिर क्यों किया उन्होंने ऐसा ၊ अब वह अरविन्द के लिए पापा शब्द का इस्तेमाल नहीं करती " उन्होंने "कहकर ही बात करती है ।
उसकी आँखें आजकल कई - कई भाव एक साथ अपनी पलकों पर लादे फिरती रहती हैं .. पल में तूफानों में घिरे , अगले ही पल भयावह सन्नाटे से जूझते भाव .. क्षणिक से नज़र आने वाले उद्वेलन , अगले ही पल समूचे अस्तित्व को ललकारते भाव .. नुकीले नश्तर से घायल , कराहते भीतर के कोमल तन्तु कभी उलझते और कभी पछाड़ खाकर गिरते नज़र आते ।
एक दिन गोद में सिर रखकर लेटे - लेटे कहीं शून्य में नज़रें गड़ाए रही फिर धीमे से बोली " मम्मा कभी-कभी लगता है वो लड़की कोई और नहीं मैं ही थी ..उन्होंने मुझे ही नंगा किया.. माँ मैं चीखती रही पर वो मेरे कपड़े उतारते रहे ..जबरन कैसे कर पाए ..कैसे कर पाए जबर्दस्ती ..वो कहते- कहते चुप हो गई । जाने किन भयानक पलों के पीछे - पीछे उनका पीछा करती हुई बढ़ने लगी थी ।उसका आहत मन कभी दीवारों में सिर मारता कभी घर की ही चीज़ें पटकने लगता । ६ोटी सुबकते सुबकते जब थक जाती तो उठकर नहाने चली जाती । नहाती क्या होगी आँसुओं को शावर की धाराओं में बहाती होगी ..कोशिश करती होगी उन चीखों को नालियों में बहा दे या कोशिश करती होगी शावर की आवाज़ में चीखों का स्वर कुछ दब जाए ।
रणवीर एक सेतु था अरविन्द और हमारे बीच में ..उस सेतु के एक किनारे पर अरविन्द खड़े थे और दूसरे पर हम तीनों .. अरविन्द सेतु के उस पार से हमें आँख बचाकर देख लेते थे ..उस सेतु पर धीरे धीरे सरकती हुई उनकी माफी हम तक पहुँचती थी पर हम तीनों सेतु के इस पार उस माफी की सरसराहट को नज़रंदाज़ कर जाते थे .. अरविन्द का कुछ भी हम तक पहुंच ही नहीं पाता था ၊
मैंने अरविन्द के बारे में सोचना छोड़ दिया है ...आसान नहीं था पर मैंने किया है ..कभी -कभी विचलित भी हो जाती हूँ पर फिर दृढ़तापूर्वक अपने आप को समझाती हूँ ၊ बेटियाँ दिन में तो अरविन्द के बारे में कोई बात नहीं करतीं पर कभी -कभी अंधेरे में बालकनी में चेयर पर बैठे बैठे कुछ टटोलती ज़रूर दिखाई पड़ जाती हैं ..। दोनों के चेहरों पर जो छायाएं उभरती हैं उनके बारे में शायद उन्हें ही कुछ पता नहीं होता ..हर क्षण बदलती उन छायाओं को देखकर मैं डर जाती हूँ ၊ मुझे चिन्ता होने लगती है ये दोनों अब जीवन भर किसी पुरुष पर भरोसा कर पाएँगी ? इनकी शादियों में स्थिरता रहेगी ? पतियों के साथ बहुत अंतरंग क्षणों में क्या ये छायाएं कहीं लुप्त हो जाया करेंगी या पूरी कठोरता और वीभत्सता के साथ सामने आकर खड़ी हो जाएँगी ?
बड़ी बेटी ने एक प्रोडक्शन हाउस में नौकरी कर ली है .. वह भी उसके एक दोस्त का प्रोडक्शन हाउस है तभी हो पाया .. वरना सब जगह उससे पहले उसके पिता द्वारा किए इस दुष्कर्म का प्रभाव पहुंचता है .. कई जगह से उसे खाली लौटना पड़ा ၊
बस उसकी तनख्वाह से हमारा गुज़ारा चल जाता है ၊ बेटी की कमाई खाते हुए शर्म भी आती है पर जो काम मैं कर सकती हूँ उसमें अरविन्द के कृत्य दीवार बन कर खड़े हो जाते हैं और खुलती राहें उस दीवार तक पहुँच कर फिर बन्द हो जाती हैं ।
कहने को हमारा जीवन चल रहा है क्योंकि साँसें चल रही हैं इसलिए हम जीवित ही कहे जाएँगे पर देखा जाए तो निरुद्देश्य भटकते शरीर , सपने खो चुकी आँखें , वाष्प बन चुकी इतराती आकांक्षाएँ , सहमी उम्मीदें जब एक साथ मिलकर कुछ रचती हैं तो वह केवल सन्नाटा होता है और उस सन्नाटे को चीर कर अगर कुछ हम तक पहुँचता भी है तो वो केवल भयानक सांय - सांय का डरावना स्वर होता है ၊
छोटी ने कोचिंग जाना छोड़ दिया है .. इस सारे घटनाक्रम के बाद बड़ी मुश्किल से कॉलेज जाना शुरू किया है . . समझा बुझा कर किसी तरह कोचिंग सैंटर भेजा था .. लेकिन घर आते - आते कुछ मनचले हवा में कुछ शब्द उड़ाते चले गए
"बाप ने तो खूब ऐश करी अगर तू चाहे तो तुझे हम करा दें ၊" किसी तरह डरी सहमी घर आई थी , सिकुड़ी सी घण्टों मेरी गोद में सिर रखे पड़ी रही और फिर कोचिंग के लिए कभी नहीं गई ၊ रणवीर हर संडे अपने एक दोस्त को ले आता है जो छोटी के सारे डाउट क्लीयर कर जाता है ၊
चिड़ियों की चहचहाहट अब हमारे आंगन में सुनाई नहीं पड़ती ,बेटियों की आपसी नोंक झोंक सुनने को तो इस धर की हवाएँ भी तरस गई हैं .. अरविन्द को छोटी - छोटी फरमाइशों के लिए पटाते हुए देखकर तो इस घर की तुलसी भी लहलहा उठती थी और जब छोटी अपना आखिरी हथियार इस्तेमाल करती कि पापा आप दी को मुझसे ज़्यादा प्यार करते हैं इसलिए मेरी बात नहीं मान रहे यही बात दी कहती तो छूटते ही कहते जो तुम्हारा मन करे करो ।
मैं मुस्करातीऔर अरविन्द हथियार डाल देते और छोटी जीत का उत्सव मनाने में मशगूल हो जाती ၊ अब उसे देखती हूँ तो दूँढती रहती हूँ उसकी चपलाओं की लम्बी लम्बी लड़ियाँ पर कहीं कुछ दिखाई नहीं देता ၊ कभी बेटियों के भीतर उतरने की कोशिश करती हूँ तो वहाँ गहरी वीरानी होती है और उस वीरानी को दूर करने के लिए मैं जैसे ही कोई कोशिश करती हूँ तो बेटियों के चेहरे का तटस्थ सा भाव चिल्ला चिल्ला कर कहने लगता है ..माँ रहने दो तुम्हारी सब कोशिशों बेकार हो जाएँगी ..सारे प्रयास समय के खाली उजाड़ खंडहरों में जाकर लुप्त हो जाएँगे ၊ मैं मन ही मन खामोशी से रोने लगती हूं ..नहीं , अब शरीर की आँखों में आँसू नहीं आते.. मन भीतर ही भीतर रोता है .. आँसू आँखों के रास्ते बाहर नहीं आते ..भीतर रक्त में मिल जाते हैं और सारे शरीर में प्रवाहित होने लगते हैं ၊
बड़ी शाम को घर आती है तो कुछ रोशनियाँ लाती है उसके घर में घुसते ही ये रोशनियाँ सारे घर को जगमग कर देती हैं पर अगले ही क्षण इन रोशनियों की चमक मन्द पड़ने लगती है क्योंकि वो रोशनियाँ अप्रत्यक्ष रूप से जगह जगह लगी अरविन्द की तस्वीरें पहचान लेती हैं । वैसे मैंने अरविन्द की सारी फोटो स्टोर में अलमारी के पीछे रख छोड़ी हैं कि न दिखाई देंगीं न हर वक्त नोचेंगीं ၊ पर ये रोशनियाँ जाने कहाँ से अरविन्द की फोटो देख लेती हैं और एकाएक लुप्त हो जाती हैं ၊
इस एक साल में दुनिया , समाज , अपने , रिश्तेदार सब अपने वास्तविक रूप में नज़र आ गए ၊ जो अपने नहीं लगे वो साथ खड़े दिखे और जिन पर गुमान था अपने होने का वो नश्तर चुभा - चुभाकर लहूलुहान करने में पल भर भी नहीं हिचकिचाए ၊
"बड़ा दुःख हुआ जीजा जी का सुनकर .. बिचारे अब सात साल तिहाड़ में सड़ेंगे .. जी जी आपसे सन्तुष्ट नहीं थे क्या ?''मुझे काटो तो खून नहीं ..ये मेरे भाई की पत्नी हैं कहने को बहुत अपनी हैं । लगा रिश्तों के सारे भ्रम जाल तार - तार हो गए हैं और हर रेशा मन के इर्द - गिर्द एक ऐसा मवाद इकट्ठा करता जा रहा है जो जब बहना शुरू होगा तो अपने साथ जाने क्या - क्या बहाकर ले जाएगा ၊
घर पर काम करने वाली " दीदी बुरा समय है बस और कुछ नहीं , साढ़ेसाती लगी है , पूरे सात साल चैन नहीं लेने देगी , सब के जीवन में ऐसा समय आता है
, और सब के जीवन से जाता भी है , रुकता नहीं एक जगह ၊ बस इस समय को हिम्मत से निकाल लो ၊ इसमें साहब जी का कोई कसूर नहीं है , समय का कसूर है वही सब करता जाता है और हमें पता भी नहीं चलता ..। "
"चाय बना दूँ , पियोगी ..?
और मैं उसे कुछ देर और रोकने के लिए हाँ कर देती ..।
" अपने लिए भी बना लेना ।"
एकाएक जाने कैसी ज्ञानी हो गई थी ..छोटे-छोटे काम बिना कहे अपने आप करने लगी थी ..।
सब्जी वाला सबसे अच्छी और ताजी सब्जी और फल घंटी बजाकर चुपचाप पकड़ा देता ..बिना ज़ख्म कुरेदे ..
" दीदी ये मेरा नम्बर रख लो ..रात में एक बजे भी कुछ चाहिए होगा तो बस फोन कर देना मैं घर पहुंचा कर जाऊँगा ၊" उसकी भारी सी फटी आवाज़ एकाएक इतनी अपनी लगी कि मन भर आया ।
" दीदी किसी ने सर को फँसाया है ..।"
मैं कुछ नहीं बोली बस सोचती रही कैसा अडिग विश्वास है लोगों का .. अरविन्द इस विश्वास की अनदेखी कैसे कर पाया ।
अरविन्द ने इन दोनों के आवारा लड़कों को स्कूल में एडमिशन दिलाकर , काउंसलिंग कर करके अच्छे अंकों में बारहवीं पास कराई थी ၊ नहीं , अरविन्द ने समय-समय पर भाई की भी बहुत मदद की थी पर ..।
मैं भी समझ नहीं पाती आखिर कहाँ छुपी हुई थी ये हैवानियत .. ? ये नृशंसता मुझे कभी दिखाई क्यों नहीं दी ..?
बड़ी सत्ताइस की हो गई है .. शादी का नाम आते ही बिदकने लगती है ၊ रणवीर ने दो तीन जगह बात चलाई पर फिर अरविन्द का कृत्य दीवार बनकर खड़ा हो गया ၊ मैं दिन रात उसकी शादी की चिन्ता में घुलने लगी हूँ ၊
एक सपना अक्सर डराने लगा है । उस सपने में मैं बूढ़ी दीखने लगी हूँ और मेरी दोनों बेटियाँ कुछ और बड़ी हो गई हैं और हम तीनों एक साथ इसी घर में रह रही हैं । तीन चार दिनों के बाद यह सपना फिर आँखों के आगे घूम जाता है ၊ अरविन्द कहीं नहीं है और हम तीनों एक साथ ..। इसका मतलब दोनों की शादी नहीं हुई ..। बस रातों की नींद उड़ाने के लिए इतना काफी है ।
कई तरह के दबाव बढ़ रहे हैं.. तनाव बढ़ रहा है ..बी ०पी० भी बढ़ रहा है ၊ मैंने बड़ी के दोस्तों के बारे में पूछना शुरू कर दिया है ..रणवीर के साथ बैठकर जीवन साथी डॉट कॉम की परिक्रमा कर आई हूँ ..।
छोटी आकर गुस्से में बोली थी जब उसके फादर के बारे में पूछा जाएगा तो सच बता पाओगी ..? झूठ भी नहीं बोल पाओगी ..कुछ भी नहीं बोल पाओगी .. फिर ऐसे काम ही क्यों करती हो ..? क्यों प्राब्लम्स इंवाइट करती हो..?
" तो हाथ पर हाथ रखकर बैठी रहूँ ..? "
" हाँ ।"
" आजकल लड़कियाँ इतनी स्मार्ट होती हैं कि अपने लिए लड़का खुद ही दूँढ लेती हैं एक तुम हो, तुमसे इतना भी नहीं होता ၊"
"तुम दोनों सुन्दर हो और हर लड़के में सुन्दरता को भोगने की भूख होती है .. किसी भी लड़के को फँसा सकती हो ..पर नहीं , मेरे दुःख को कम करने की कोई कोशिश ये दोनों नहीं कर सकतीं ।" थोड़ी देर बाद समझ आया रणवीर के सामने क्या बोलती चली गई ..। बेटी ने आँख से इशारा भी किया पर मैं कहाँ रुकने वाली थी ।
"रिलैक्स चाची , जब समय आएगा सब ठीक हो जाएगा ၊ ''रणवीर बीच-बचाव करने लगता ।
''अपने आप कुछ ठीक नहीं होगा कुछ तो करना पड़ेगा । "
मन की खिन्नता घर की हवाओं में घुलने लगती ..बेटियाँ चुप रहतीं पर उनके सिर भारी होने लगते ..आँखों में कभी हिंसा होती , कभी बेबसी और मन में अपनी किस्मत को लेकर एक शिकायत , फिर क्षण भर में उँगलियाँ अपना भाग्य स्वयं लिखने के लिए बेचैन हो उठतीं ..।
ऐसे में उनकी रातें आँखों में ही कटतीं दोनों जैसे करवट लेना भी भूल जातीं सीधी पड़ी छत निहारतीं नहीं ..अब आँसू नहीं बहते ၊ जाने कैसे - कैसे सवाल छत से ही पूछती रहतीं ..जैसे छत ही आकाश हो छत ही ब्रह्माण्ड ..छ्त से ही सब सवालों के जवाब मांगती रहतीं ၊ अगला दिन सूजी आँखों के साथ बीतता ၊
एक दिन जाने सू्रज किधर से निकला था .. या फिर छोटी को मिल गए थे उसके सवालों के जवाब ..၊ जवाब कहाँ से मिले ? किसने दिए ? ये तो वही जानती होगी पर हाँ पुलक की एक हल्की सी लकीर उसकी मुस्कान के साथ साफ़ नज़र आ रही थी ၊
सुबह चहकती हुई मेरे पास आई थी ..आँखें अभी भी सूजी थीं पर मन हल्का था ..मन थिरक नहीं रहा था बल्कि हिलती डालियों की तरह हवा के साथ बस थोड़ा मेलजोल बढ़ा रहा था ၊
किसी मकैनिक को फोन किया ..दो घण्टे लगाकर गाड़ी ठीक करवाई ..नई बैट्री डलवाई अरविन्द के जाने के बाद से गाड़ी नहीं चली थी।
"ये उसी प्रिंसीपल का घर है न जिसने ..। "
"हाँ , उसी का घर है । तुम्हारे पैसे मिल गए न , तो दफा होओ यहाँ से ..। "
उसकी आवाज़ में वही पहले वाली मज़बूती थी । या शायद छत ने कोई पाठ पढ़ाया होगा ।
पहले की तरह फुदकती हुई गई और मेरी अलमारी में से एक ग्रेसफुल सी साड़ी निकाल लाई । वही लाड भरा आदेश , वही चहचहाहट .. मैं आँखें फाड़े देखती भर रही थी । पर दिल को राहत ज़रूर मिली थी।
" जल्दी तैयार हो जाओ । "
बड़ी भी छुट्टी करके बैठी थी.. दोनों ने जबरन मिलकर मुझे तैयार किया ..जैसे हर साल करती थीं । मुझे गाड़ी में बैठाया ।
गाड़ी स्टार्ट कर दी तब बोली जैसे पहले बताती तो शायद मैं नहीं जाती ၊
" आपका बर्थ डे हमेशा की तरह पहले हनुमान मन्दिर , फिर नल्लीज़ से एक सिल्क साड़ी , फिर सारा दिन सी० पी ० में आवारा गर्दी , कॉफी होम में कॉफी , फिर रात में घर । "मैं चुप रही । मेरा भी जी चाह रहा था बेटियों को चहकते हुए देखने का ।
ऐसे ही बिताया हमने दिन फिर भी भीतर एक खालीपन बरकरार था ..कॉफी होम में कॉफी की चुस्कियाँ मन को हल्का करती जा रही थीं पर एक बात मैं बड़ी शिद्दत से महसूस कर रही थी कि अरविन्द ने पूरे परिवार को एक ऐसे अन्तहीन सफ़र पर रवाना कर दिया है जहाँ हमेशा छतों से सब सवालों के जवाब नहीं मिलेंगे ।
प्रतिभा
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