व्यवहार इंसान अपने जीवन में विभिन्न परिस्थितियों से गुज़रता है और अक्सर इस कारण उसके व्यवहार में परिवर्तन भी आ जाता है। पर कुछ बुराइयाँ ऐसी ...
व्यवहार
इंसान अपने जीवन में विभिन्न परिस्थितियों से गुज़रता है और अक्सर इस कारण उसके व्यवहार में परिवर्तन भी आ जाता है। पर कुछ बुराइयाँ ऐसी होती है जो इन्सान का दामन हर परिस्थिति में थामे रहती है, उन्हीं में से एक है घमंड। घमंड ऐसी बुराई है जो इन्सान को नहीं छोड़ती पर विपरीत स्थिति में अपने चबाने वालों से दूर कर देती है, ऐसा ही कुछ रूपकुमारी राठौड़ के साथ हुआ। वो वीर, पराक्रमी, परोपकारों कटार सिंह राठौड़ की पत्नी थी। कटार सिंह राठौड़ एक रियासत के वफ़ादार सेनापति थे, उन्होंने कई जंग लड़ी भी और जीती भी। प्रजा के लिए वो मसीह से कम न थे, जो अपनी फ़रियाद लेकर राज दरबार नहीं जा सकता था वो अपनी फ़रियाद कटार सिंह से करता। प्रजा के लिए उनका दरबार हमेशा खुला रहता था, कोई भी फ़रियादी उनके द्वार से ख़ाली न जाता था।
द्वार की शोभा भी निराली थी, विशाल लकड़ी के दो पाटों वाला द्वार जिसपर रंग बिरंगी नक़्क़ाशी की गई थी। दोनों पाटों पर दो बड़े मोटे सोने के छल्ले लगे हुए थे,जो द्वार की शोभा और बढ़ा रहे थे। प्रातः जब सेनापति की बग्गी बाहर निकलती तब द्वार खोला जाता ओर सेनापति के लौटने तक द्वार खुला ही रहता तब अन्दर का नज़ारा देखने को मिलता। द्वार के सामने बड़ा सा मैदान जिसके दाईं ओर घोड़ों का अस्तबल जिसमें दस हृष्ट -पुष्ट घोड़े रहते,चार घोड़े जो हमेशा सेनापति की बग्गी में जुटते,दो घोड़े सेनापति के ख़ास थे। इन पर वे सवारी करते और अकसर इन घोड़ों पर शहर पर गश्त लगाते। बाक़ी घोड़ों पर उनके पुत्र सवारी करते थे। द्वार के बाई ओर ख़ूबसूरत बाग़ था,उसके बाद एक गोलाकार इमारत जो परिवार और मेहमानों का मनोरंजन व खेल गृह था। इसकी दीवारों पर अनेक शेर, चीते,भालू,हिरण के कटे शीश सुशोभित थे,जो सेनापति के शिकार की दास्ताँ सुना रहे थे। उसके आगे तीन कमरों वाले दो गेस्ट हाउस थे, गेस्ट हाउस में एक बैठक,दो बेडरूम व रसोईघर भी था। चूंकि उन दिनों भारत अंग्रेज़ों का ग़ुलाम था इसलिए अंग्रेज़ी मेहमान भी आते थे। गेस्ट्ररूम उनकी सुख सुविधा अनुसार ही बना था, जो रसोईघर प्रत्येक गेस्ट्ररूम में थे, उसमें विदेशी रसोईया मेहमानों के स्वाद का खाना बनाता था।
मैदान के बीचों बीच खड़ा था सेनापति का आलीशान महल, जो इन्डो-ब्रिटिश आरकीटेक का अति सुन्दर नमूना था। पाँच छ सीढ़ियाँ चढ़ कर एक बड़ा सा बरामदा आता। वहाँ एक बड़ा सा द्वार था जो कि हाल में खुलता जहाँ सेनापति मेहमानों से मिलते। हाल अत्यन्त सुन्दर फ़र्नीचर से सुशोभित था, हाल में तीन द्वार थे एक मुख्य द्वार,दूसरा बाई ओर का द्वार जो एक बड़े से कमरे में खुलता था। बड़े कमरे से लगा हुआ वेस्टर्न बाथरूम भी था,इस कमरे मे अकसर सेनापति के बड़े भाई ठहरते थे। तीसरा द्वार भीतर आँगन में खुलता था, जिसके बीचों - बीच एक बड़ा ही सुन्दर नक़्क़ाशी वाला फ़व्वारा था, फ़र्श पर बहुत सुन्दर डिज़ाइन था। आँगन के चारों ओर बरामदा था जिसमें अनेक कमरों के द्वार खुलते थे। सेनापति के महल के दो मुख्य द्वार थे, दूसरा मुख्य द्वार एक बड़े हॉल की ओर ले जाता था, जिसमें सेनापति आम जनता से मिलते और विशेष अवसरों पर आम जनता के लिए भोज भी रखते। इन अवसरों पर मैं भी अपने माता पिता के साथ सम्मिलित होता। उस समय पर्दा प्रथा थी इसलिए भोज दो भागों में होता ज़नाना और मर्दाना। सेनापति मर्दाना भाग में अपने आसन पर विराजमान रहते,लोगों से बातचीत करते उनकी तकलीफ़ दूर करने के उपाय खोजते। दूसरी ओर ज़नाना भाग में रूपकवंर थोड़ी देर के लिए आती और बिना किसी से बातचीत किए अपने महल में चली जाती। मैं हमेशा मौक़ा पा कर उनके क़रीब चला जाता और उनका पल्लू खींचता। बच्चा समझ कर वो मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुरा देती, सब को यह देख कर आश्चर्य होता क्योंकि आज तक किसी ने उन्हें मुस्कुराते नहीं देखा। मेरे पिताजी व्यापारी थे,एक बार सेनापति ने लुटेरों से उनके प्राणों की रक्षा की थी। तबले पिताजी अपने आप को उनका ऋणी मानते थे, कटारसिंह की हर बात उनके लिए आदेश होती थी। सेनापति कटारसिंह ने मेरे पिता जी हरिमोहन को अपना निजी सलाहकार नियुक्त कर लिया। २५ जनवरी १९४५ का दिन शहर वासियों के लिए एक दुखद समाचार लेकर आया,सेनापति का देहान्त हो गया। सारा शहर शोकाकुल हो गया,किसी को भी सेनापति की मृत्यु पर विश्वास नहीं हो रहा था। अभी उनकी उम्र ही क्या थी,पैंतीस भी पार न किया होगा।
सेनापति के दोनों पुत्र विदेश में पढ़ रहे थे, उन्हें तत्काल बुलाया गया। पूरा शहर कटारसिंह के अन्तिम दर्शन को उमड़ पड़ा,सबके मन में रूपकंवर के लिए हमदर्दी थी। दो साल बाद देश को आज़ादी मिल गई और नई आशा के साथ सब अपने अपने जीवन में व्यस्त हो गए। पर कटारसिंह की नेकदिली को कोई भूला न सका, उनके एहसानों का ऋण चुकाने लोग कटारसिंह की हवेली जाते। ताकि वे रूपकवंर के दुख बॉट सके और उनके कुछ काम आ सके। पर रूपकंवर किसी से न मिलती, धीरे -धीरे लोगों ने जाना बंद कर दिया, अब हवेली वीरान होने लगी थी, घोड़े बिक चुके थे और नौकर हवेली छोड़ कर जा चुके थे। दोनों पुत्रों ने विदेशी मैडम से शादी कर ली थी और वहीं बस गए थे। तीन चार साल में पुत्र रूपकंवर से मिलने आते,उन्हें अपने साथ चलने का आग्रह करते,पर रूपकंवर अपनी जगह छोड़ने को तैयार न थी। समय अपनी गति से बढ़ता ही जा रहा था, कितने ही वर्ष बीत गए, पिता जी ने भी इस संसार को अलविदा कह दिया। अब हवेली में केवल एक बूढ़ा नौकर रह गया था जो अपनी पत्नी के साथ घुड़साल में रहता था,वो दोनों रूपकंवर की सेवा करते थे। हवेली के सारे कमरों में ताला लगा दिया गया था, केवल दो कमरे ही खुले थे। एक बैठक और दूसरा उसके पास वाला कमरा,जो अब रूपकंवर का शयन तथा भोजन कक्ष था। इस संसार को अलविदा कहने से पहले पिताजी ने हिदायत दी थी कि मुझे रोज़ रूपकंवर से मिलने जाना है, उनकी हर सम्भव मदद करनी है। मैं अपना कर्तव्य समझ रोज़ सुबह हवेली जाता,बैठक में आधा घंटा बैठकर अख़बार पढ़ता, नौकरानी कमला से रूपकंवर का हाल-चाल पूछ अपने दफ़्तर चला जाता। अब हवेली को देखता तो मन में एक टीस उठती थी, बाग़ सूख चुका था,मनोरंजन व खेल कक्ष भी निर्जीव सा खड़ा अपनी क़िस्मत को कोस रहा था।
गेस्ट हाउस पर भी ताले पड़े थे और धूल की चादर ने उसे अपने आग़ोश में ले रखा था। एक दिन अद्भुत घटना हुई मैं हवेली के बैठक में बैठा हुआ अख़बार पढ़ रहा था, कि नौकरानी ने रूपकंवर का फ़रमान सुनाया,"आपको मालकिन ने मिलने बुलाया है"। मेरे क़दम तुरंत रूपकंवर जी के कमरे की तरफ़ चल पड़े। कमरे में घुसते हुए जैसे ही नज़र रूपकंवर जी पर पड़ी, मुख से एक आह निकलते -निकलते रह गई। अब उनके रेशमी सलमा सितारों वाले वस्त्रों का स्थान सूती बेरंग कपड़ों ने ले लिया था। आभूषणों से लदी रहने वाली वो रानी आज एक दासी लग रही थी। आओ भरतमोहन इतने बड़े हो गए,"कैसे हो बचपन में मेरा पल्लू खींचते थे" यह कह कर वो मुस्कुरा दी। मैंने झुक कर उन्हें प्रणाम किया,उनकी ऐसी स्थिति देख शब्द भी जम गए, बड़ी मुश्किल से बस ये पूछ पाया," आप कुवँर सा के साथ विदेश क्यों नहीं चले गए यहाँ अकेले ----" इससे ज़्यादा मैं कुछ कह पाता कि उन्होंने अपने हाथ के इशारे से मुझे रोक दिया और रोबदार आवाज़ में बोली,"बहुएँ न जाने किस कुल की है रंग ज़रूर गोरा है, पर हमारे सामने कुछ नहीं "। मैं उनकी स्थिति भाँप गाया कि आज भी वो घमंड का दामन थामे है। मैंने तुरंत उन्हें सुझाव दिया,"सा क्यों न गेस्ट हाउस और नौकरों के क्वार्टरों को किराए पर दे दिया जाए, कुछ चहल -पहल बनी रहेगी "। कुछ सोचते हुए वो बोली," चहल-पहल की बात तुमने ठीक कही,पैसों की तो हमें ज़रूरत नहीं है तुम्हारे दोनों कुवँरसा डॉलर भेजते है"। उन्होंने अपनी बात जारी रखी " छोटे और सभ्य परिवार को ही मकान किराए पर देंगे, किरदार से मिल कर ही निश्चित करेंगे कि किराए पर दे या नहीं "। मैंने सहमति में अपना सिर हिलाया और उनको प्रणाम करके चल दिया।
रास्ते भर विरोधाभास परिस्थिति के बारे में सोचता रहा, कहते है समय बड़ा बलवान होता है, पता नहीं कब क्या दिन देखने पड़े, बड़े लोग सही कहते है कि घमंड तो करना ही नहीं चाहिए। यही सोचता हुआ मैं अपने दफ़्तर पहुँच गया, वहाँ मैंने अपने सहकर्मियों से अनुरोध किया कि अगर वो किसी सभ्य परिवार को जानते हो जिसे मकान किराए पर चाहिए तो मुझे इत्तिला कर दे। कुछ दिन पश्चात मैं एक सभ्य परिवार को रूपकंवर से मिलाने ले गया, मिस्टर माथुर कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे, उनकी धर्मपत्नी शिक्षित सुशील गृहिणी थी और उनकी एक तीन वर्षीय पुत्री थी। रूपकंवर मिस्टर मिसेज़ माथुर से बहुत देर तक बातें करती रही, शायद पुराने दिन याद आगे हो या इतने सालों का अकेलापन दूर करना चाहती हो। मैं चुपचाप कोने में मौन खड़ा था कि तभी उन्होंने मेरी तरफ़ चाबी का गुच्छा बढ़ाते हुए कहा "ज़रा इन्हें पूरा धर दिखा दो। मैंने चाबियाँ नौकर को दी और मिस्टर मिसेज़ माथुर के साथ नौकर के पीछे-पीछे चल दिया। नौकर ने हवेली के सारे कमरों के ताले खोल दिए,जो वो रूपकंवर के बेटे बहुओं के आने पर ही खोलता था। जब मैं मिस्टर मिसेज़ माथुर को ऐतिहासिक वैभवता के दर्शन कराके लौटा तो देखा रूपकंवर छोटी बच्ची को प्यार कर रही थी और उसकी प्यारी बातों पर हँस रही थी।
माथुर परिवार के साथ मैं भी हवेली को पहली बार देख रहा था,बार -बार आँखों के सामने देखा हुआ नज़ारा घूम रहा था जैसे चाँदी का पलंग, डाइनिंग टेबल और कट्लरी, दीवारों पर की गई नक़्क़ाशी हवेली के वैभव की याद दिला रहा था। तभी रूपकंवर ने मुझे एक और चाबी का गुच्छा पकड़ाया और सामने रखी अलमारियाँ और बक्से की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, " इन्हें खोलकर भी दिखाओ"। मिसेज़ माथुर नग जडित लहंगे,ज़री और काशीदारी की गई साड़ियों, लंहगों को देख अचम्भित रह गई। एक से एक महँगे वस्त्र अलमारी की शोभा बढ़ा रहे थे। जिन्हें देख मेरे मन में एक ही विचार कौंधा कि अगर मेरी पत्नी यह सब देख लेती तो यही अचेत हो जाती या फिर फ़रमाइश करके मुझे अचेत कर देती। जब बक्से खोले तो मेरी छोटी-छटी आँखें भी बड़ी हो गई, बक्से सोने चाँदी के बर्तनों से भरे हुए थे। माथुर परिवार को गेस्ट हाउस पसंद आया, वो वहाँ रहने लगे और वो दूसरे गेस्ट हाउस के लिए किराएदार भी ले आए। मैंने नौकरों के क्वार्टरों को भी किराए पर चढ़ा दिया। मैं अपना कर्तव्य पूर्ण करने रोज़ हवेली जाया करता, अब वहाँ का वातावरण बदलने लगा था। वो वैभव तो वापस नहीं आया था पर चेहरों पर मुस्कुराहट दिखने लगी थी। वहाँ जाता तो छोटी बच्ची को रूपकंवर के साथ बातें करते और खेलते पाता, उनकी हँसी से हवेली भी मुस्कुरा रही थी। कहते हैं मासूम बच्चे ज़िंदगी में बदलाव ले ही आते है, इन छोटे फ़रिश्तों के आगे आपकी बुराइयों को आपका दामन छोड़ना ही पड़ता है।
रुचि प जैन
E mail - ruchipjain11@yahoo.com
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