तुमको यूँ ही भुला न पाएंगे उमेश कुमार शर्मा आज जब भी कोई मुझसे मेरा परिचय पूछता है तो मैं असमंजस में पड़ जाता हूँ! सोचने लगता हूँ कि क्या ब...
तुमको यूँ ही भुला न पाएंगे
उमेश कुमार शर्मा
आज जब भी कोई मुझसे मेरा परिचय पूछता है तो मैं असमंजस में पड़ जाता हूँ! सोचने लगता हूँ कि क्या बताऊँ? यह कि मैं भारत का एक आम नागरिक हूँ। उन करोड़ों नागरिकों के समान जो राज और समाज की स्थिति से बेपरवाह अपनी जिंदगी अपने तरीके से जिये जा रहे हैं। या यह बताऊँ कि व्यवस्था के खिलाफ़ खड़े उन लोगों में से हूँ जो परिवर्तन के लिए संघर्षरत हैं। या विश्वविद्यालय में सबसे बड़ी कक्षा में अध्यापन करने वाला शिक्षक हूँ या समतामूलक सामाजिक व्यवस्था के लिए सृजन करने वाला कलमकार हूँ! कि वही बता दूँ जो बीस साल पहले उसने कहा था मेरा और मेरे मित्र का परिचय देते हुए- "यह कोसी के किनारे बालू पर उपजा हुआ फूट और तरबूज है।"
मैं सोचने लगा कि मुझमें से कौन फूट और कौन तरबूज है? फिर मैं जल्दी ही तय कर लिया कि मेरे मित्र कुछ दुबले-पतले हैं। अतः वे फूट ही हो सकते हैं और मैं तरबूज......एकदम गोल- मटोल।
हमारा यह यादगार परिचय उसने दिया था ,जिसे हम अब तक अपना आदर्श मानते रहे थे। जैसा बनने का सपना देखते थे, जिसे देवता समझते थे। जिसकी तारीफ करते-करते दस कोस पैदल नाप गये... भूखे.......प्यासे।
रामबालक भाई शर्मिंदा थे। वे बार-बार मेरी और देख रहे थे और मैं उसकी ओर। यह क्या हो गया? उसे तो लगा था कि हम दोनों को देखकर छोटा बाबू सीने से लगा लेंगे........मेरा बच्चा......प्यारा बच्चा.....मुझे खोजते-खोजते तूँ यहाँ तक आ गया। और हमारी पूरी थकान मिट जाएगी। पर यहाँ तो फूट और तरबूज.....।
यह तब की बात है ,जब हम और रामबालक भाई बारह-तेरह साल के थे। हम दोनों ने सहरसा जाकर मेला देखने की योजना बनाई। मेला हर साल 1 जनवरी से 10 जनवरी के बीच लगता था।
सहरसा की दूरी हमारे घर से दस कोस से कुछ अधिक ही थी। रामबालक साल भर पहले वहीं नौकरी करते थे- छोटा बाबू के घर। छोटा बाबू हमारे घर के पास वाले थाने में जमादार थे। इसलिये हमें भी वे अच्छी तरह जानते थे। हमने भक्ति -भाव से उनकी खूब सेवा की थी। दुकान से सामान लाने से लेकर सिर का मालिश करने और अंगुली फोड़ने तक। उनकी जो अंगुली किसी से फूटती, उसे फोड़ कर मैं खूब वाहवाही लूटता।
लेकिन मेला देखने जाएँ तो जाएँ कैसे? नौकरी छूटने के बाद रामबालक भाई की भी माली हालत मेरे से बेहतर नहीं थी। मेरी आमदनी का मुख्य स्रोत था- पिताजी और दादाजी के जेब से पैसे चुराना, दुकान से सामान लाने में से कुछ पैसे मार लेना तथा टोले भर के आवारे लड़के के साथ पैसे-पैसे खेलकर कुछ रकम अर्जित करना। हालांकि यह हमेशा फायदे का सौदा नहीं था। नौकरी जाने के बाद रामबालक भाई की आमदनी का स्रोत भी बहुत कुछ मेरे टाइप का था।
हम दोनों ने कमर से अपना-अपना बटुआ खोलकर हिसाब मिलाया। मेरे पास सत्ताइस रूपये चालीस पैसे थे और उनके पास पूरे चौबीस रूपये। तय हुआ कि गाँव से सहरसा तक पैदल ही जाना है। गाड़ी पकड़े तो एक सिक्का न बचेगा। फिर मेले में कुछ खरीदारी नहीं हो पाएगी। सारी मनोकामना धरी की धरी रह जाएगी।
अगली सुबह यात्रा प्रारंभ। हाथ में एक- एक नायलून वाला मुँह खुला झोला। झोले में एक-एक पतली चादर और क्षीणकाय मफलर। देह में पायजामा, सर्ट और बड़े भाई का परित्यक्त स्वेटर। पाँव में दया की भीख मांगता हुआ हवाई चप्पल। बाल में चुपड़े सरसों के तेल। दोनों के पेट में बासी रोटी।
दो छोटी नदियों की यात्रा तय। अब बड़ी कोसी नदी सामने खल-खल बह रही थी। उस पार से नाव आयी। हम दोनों तरप कर सवार हो गये। घटवार ने पैसे मांगे! हम दोनों एक-दूसरे को ताकने लगे। इस तरह हर जगह पैसे लुटा दें तो घूम लिये मेला। हो गयी खरीदारी।
"हम छोटा बाबू के नौकर हैं और ये बड़ा बाबू के।" रामबालक भाई ने परिचय दिया।
घटवार फिर एक शब्द नहीं बोला, पर मैं मानो कंठ तक मिट्टी में गड़ गया। मन किया कि डूब जाऊँ इसी कोसी में। किसी दूसरे ने मेरा इस तरह परिचय दिया होता तो माँ-बहन एक कर देता। रामबालक भाई मेरा लंगोटिया मित्र। दुख-सुख का सच्चा साथी। मैं क्रोध को भीतर ही भीतर पी गया।
नवहट्टा पहुँच गये हम। जहाँ से लोग अक्सर छोटी-बड़ी गाड़ियाँ पकड़ कर सहरसा की यात्रा करते। पर हमने गाड़ी की ओर देखा भी नहीं। सीधे चलते रहे अनथक यात्री की भांति। गाड़ी वाले मुँह ताकते रह गये। अब तक ग्यारह बज चुके थे। यहाँ से सात कोस की दूरी तय करनी थी, लेकिन हिम्मत ऐसी कि मानो वामन की भांति सात कदम में नाप लें। हम दोनों चलते रहे......चलते रहे। सामने से सौ गाड़ियाँ गुजरी, पर हम में से किसी ने फूटी नज़र से न देखा उसे।
तीन बजते-बजते सहरसा में प्रवेश। वहाँ से मत्स्यगंधा, जहाँ के विशाल परिसर में मेला लगा था। सैकड़ों दुकानें सजी थीं। हजारों खरीदार मंडरा रहे थे इधर-उधर। इतना बड़ा झूला! रामबालक भाई ने सही कहा था। धरती से आसमान और धरती से आसमान की यात्रा.....।मौत का कुआँ......जादू का खेल देखो जादू का खेल लड़की को लड़का बना दे, लड़के को बकड़ा?
मुझे विश्वास न हुआ तो पूछ बैठा-"ई जादूगर सही में लड़की को लड़का और लड़के को बकड़ा बना देता है?"
रामबालक भाई ने हामी भर दी। मैंने सोचा कि सारी खरीदारी जाय भाड़ में, मुझे जादूगरी देखना है। उसने मना नहीं किया। दस-दस का टिकट लेकर भीतर घुस गए और बीस मिनट बाद उल्लू बन कर निकल आएं।
फिर बचे पैसे से गेंद, चस्मा और घड़ी लेते-लेते बटुआ खाली। बहुत सोचकर आए थे कि एक कैमरा लेंगे। जादूगर ने सारा हिसाब बिगाड़ दिया..... साला ठग कहीं का!
अंधेरा छाने लगा था। पछुआ हवा तेज हो गया। हम दोनों पूर्व निर्धारित स्थल पर छोटा बाबू के घर रात्रि विश्राम के लिए चल पड़े। रास्ते भर रामबालक भाई अंजलि दीदी का चरित्र-चित्रण करते गये। मानो वह कोई स्वर्ग से उतरी हुई अप्सरा हो। हम शीघ्र उनका दर्शन कर धन्य होना चाह रहे थे। पंख होती तो उड़ जाते रे.......।
मैम साहब का चित्रण साक्षात देवी के रूप में। जगत जननी...... रामबालक भाई को घर का नौकर नहीं,अपना सगा संतान समझती है। मैं उस देवी का चरण पकड़कर जीवन कृतार्थ करने के लिए दौड़ने लगा। दौड़ते-दौड़ते पहुँच गये पुलिस लाइन। जमादार साहब का घर कुछ ही दूरी पर था। हम अभी उनके घर के बाहर ही थे कि कुत्ते चिल्लाने लगे। वह हम दोनों जिन्दा चबा जाना चाह रहा था। हम डर गये! भाई ने हमें समझाया कि गोलू है, हमें अच्छी तरह पहचानता है। देखेगा तो शांत हो जाएगा। पर ऐसा हुआ नहीं, गोलू उसे देखकर और भी भड़क गया।
भाई के आवाज लगाने पर दरबाजा खुला। देवी बाहर देवी मंदिर से बाहर आई, पर अपने भक्त को न पहचान सकी। फिर भी हम दोनों उनके चरण पर गिर पड़े। बड़ी मशक्कत के बाद देवी के मुँह से निकला -"रमुवां हो, अरे इधर कैसे आना हुआ? मैंने दूसरे को काम पर रख लिया है। ये कौन है? इसको गाय की सेवा के लिये लाए हो। हम कुछ दिन इंतजार किये कि तुम किसी को लेकर आओगे। नहीं आए तो रख लिए दूसरे को। अब कोई काम नहीं है यहाँ।"
मैं इस बार सच में धँस गया जमीन में आपादमस्तक!
"मालकिन हम काम की तलाश में नहीं आए हैं। मेला घूमने आए हैं। यह मेरा बचपन का दोस्त है।" रामबालक ने मौका देखकर कहा। "सोचा कि रात मालकिन घर ही आराम कर लें। इस बहाने भेंट- मुलाकात भी हो जाएगी। दीदी कैसी है? साहब कैसे हैं?"
"सब ठीक-ठाक है। आओ भीतर।" मालकिन का आदेश पाकर हम कृतार्थ हुए।
थोड़ी देर के बाद छोटा-बाबू अपने एक मित्र के साथ घूम-फिर कर आए। हम दोनों उनके शरणागत हुए। जमादार साहब ने हम दोनों को डाँटते हुए कहा- "इस कड़ाके की ठंड में तुम दोनों को मेला देखने का शौक लगा है! जान निकल जाएगी!" उसके बाद पुलिसिया भाषा में हमें कुछ गालियाँ भी पड़ी। पर हम दोनों निर्विकार भाव से शून्य में देखते रहे।
भोजन बना। दीदी दो थालियाँ परोस कर लायी। रोटी, दाल, आलू-गोभी की सब्जी, भुजिया, सलाद, खीर......हम दोनों के जीभ लपलपाने लगे। भूख अपनी सारी सीमाएं लांघ गये थे।
लगा कि दीदी अब हम लोगों की थाली लेकर आएगी। हम दोनों रसोईघर के दरवाजे पर आँखें बिछाए रहे। दीदी आती रही, जाती रही, कभी घी लगी रोटी लेकर, कभी रसदार सब्जी, कभी भुजिया तो कभी खीर लेकर।
साहब के मित्र ने भोजन का रस लेते-लेते हमारा परिचय पूछा।
उत्तर हमने नहीं साहब ने दिया -" ये दोनों कोसी नदी के किनारे उपजने वाला फूट और तरबूज है।"
फिर जोरदार ठहाका। दीदी भी हँसते-हँसते लोट -पोट हो गयी। मैंने मन ही मन कसम खाई कि इसके घर का पानी तक नहीं पीएंगे। संयोग ऐसा कि मेरी कसम ज्यों का त्यों धरी रह गयी! किसी ने पानी तक को न पूछा।
हम दोनों सोने चले। अपना-अपना झोला थामे हुए , दीदी के पीछे-पीछे। कुछ दूर जाकर दीदी रूक गयी और टार्च जलाकर बोली-"वहाँ देखो। फटकी हटाओ। भीतर एक खाट खड़ी है?"
"जी"। रामबालक भाई ने उत्तर दिया।
"ठीक है, खाट गिराकर दोनों आराम से सो जाओ। चादर है न?"
"जी दीदी?"इस बार मैंने उत्तर दिया।
ऊपर मुह के सामने सौ वार्ड का बल्ब जल रहा था। लगा कि इसे देखकर रात कट जाएगी। गौ माता के शरण में हैं । कुछ अनिष्ट नहीं होगा। हमने एक चादर अभी बिछाया ही था कि घुप्प अंधकार। दीदी ने घर पहुँचते ही चमत्कार कर दिया। हाथ को हाथ न सूझे । वहाँ अगर कुछ चमक रही थी तो वह थीं गौ माता की दो आँखें।
हम दोनों ने एक चादर बिछाया और एक के भीतर घुसकर लेट तो गये ,पर थोड़ी देर में ही दाँत खटाखट बजने लगे। सिर छाती में घुसेड़ डाले......हम दोनों आत्मा और परमात्मा की भांति एकमेक हो गये...... बीच की सारी दूरियां खतम कर दी, पर दाँत का बजना बंद न हुआ।
हम दोनों उठकर बैठ गये। फिर लेट गये। फिर उठे। लेटे। रात है कि बीतने का नाम न लेती।
हमें एक तरकीब सूझी कि क्यों न रात भर के लिए गौ माता की चादर उधार ले ली जाए। उठकर उनकी चमकती आँखों की ओर बढ़ने लगे। बढ़ते गये...बढ़ते गये। पास जाकर पता चला कि वे आँखें गौ माता की नहीं, साँढ़ की आँखें हैं, जो रात के अंधेरे में प्रेमालाप हेतु उपस्थित हुए हैं।
मैं चुपचाप आकर पुनः लेट गया। ठीक उसी प्रकार जैसे कोसी नदी के किनारे बालू पर फूट और तरबूज पड़े रहते हैं।
प्रिय पाठकों! मैं आपको बता दूँ कि फूट आजकल दिल्ली में रहते हैं। उनका करोड़ों का व्यापार है। सैकड़ों लोग उनके यहाँ काम कर परिवार चलाते हैं। आज वे दो टके के जमादार को दिन में कई बार खरीदते और बेचते हैं। और बता दें कि तरबूज आपके सामने है। इसके परिचय की कोई आवश्यकता नहीं है>
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लेखक परिचय :-
डॉ. उमेश कुमार शर्मा
जन्म-15 अगस्त 1985, सहरसा (बिहार)
शिक्षा : हिन्दी विषय में एम.ए., पी-एच.डी.
देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।
ईमेल- उमेश.kumar.sharma59@gmail
संप्रति- अतिथि प्राध्यापक, विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग , ल.ना. मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा, बिहार
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