हिन्दी व्यंग्य परंपरा और विवेकरंजन के व्यंग्य हिन्दी साहित्य में व्यंग्य सदियों पूर्व से विद्यमान रहा है कबीर के पूर्व भी हिन्दी कविता में व...
हिन्दी व्यंग्य परंपरा और विवेकरंजन के व्यंग्य
हिन्दी साहित्य में व्यंग्य सदियों पूर्व से विद्यमान रहा है कबीर के पूर्व भी हिन्दी कविता में व्यंग्य वक्रोक्ति के रूप में विद्यमान था । व्यंग्य को हथियार बनाकर सामाजिक विसंगतियों और पाखंड को बेनकाब करने का कार्य कबीर ने किया था । तब से लेकर आज तक व्यंग्य कविता के अतिरिक्त गद्य की अनेक विधाओं में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुका है। आज के परिवेश में व्यंग्य साहित्यिक विधाओं के केन्द्र में है ।
व्यंग्य, जिसे अंग्रेजी में ‘सटायर’ कहते हैं, हास्य से एकदम भिन्न है । हास्य और व्यंग्य की परम्परा के कारण समीक्षकों ने व्यंग्य के भेदों पर पृथक् से विचार नहीं किया है, इस स्थिति का आंकलन करते हुए डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी लिखते हैं - ‘‘व्यंग्य को हास्य के प्रभेद के रूप में स्वीकृति देने वाला हिन्दी का समीक्षक वर्ग व्यंग्य के स्वतंत्र वर्गीकरण से कतराता रहा है। हास्य के विभाजन-प्रसंग में विनोद, व्यंग्य, ब्याजोक्ति, ताना, उपहास आदि सब की एक साथ चर्चा करने की परम्परा रही है। पश्चिम में एच.डब्ल्यू फांडलर से लेकर भारत के डॉ. बरसाने लाल चतुर्वेदी तक ने व्यंग्य के पृथक् वर्गीकरण की आवश्यकता का अनुभव नहीं किया ।’’1 प्रसिद्ध व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई का मानना है कि ‘‘व्यंग्य मानव सहानुभूति से उत्पन्न होता है और मनुष्य के जीवन को बेहतर बनाना उसका उद्देश्य होता है।’’2
आधुनिक युग में भारतेंदु ने व्यंग्य को अंग्रेजों के खिलाफ प्रयुक्त किया । अंग्रेजों के काले कारनामों को आम जनता के सामने लाने के लिए अपनी मुकरियों में व्यंग्य का सफल प्रयोग किया । अंधेर नगरी नाटिका में भी व्यंग्य है। भारतेंदु की रचनाओं का व्यंग्य कालजयी और प्रभावपूर्ण इसलिये हैं, क्योंकि व्यवस्था की त्रुटियों और विसंगतियों पर तीखे किन्तु शिष्ट तेवर में प्रहार करता है । भारतेंदु के बाद द्विवेदी युग में भी अंग्रेजों के शोषण, सामाजिक कुरीतियाँ, धर्माडम्बरों, पश्चिम के अंधानुकरण और फैशन-परस्ती पर हास्य-व्यंग्य से प्रहार करने वाली अनेक कविताएँ लिखी गयीं । महावीर प्रसाद द्विवेदी प्रताप नारायण मिश्र और बालमुकुंद गुप्त द्विवेदी युग के प्रमुख व्यंग्यकार हैं । ‘‘बालमुकुंद गुप्त ने तत्कालीन वाइस राय लार्ड कर्जन को अपने व्यंग्य का निशाना बनाया। छायावादी युग में ईश्वरी प्रसाद शर्मा तथा पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ ने कविताओं और पैरोडियों में अपनी गहरी समझ और निर्भीकता का परिचय दिया । निर्भीकता सफल व्यंग्य की पहली शर्त है। अन्नपूर्णानंद कांतानाथ पांडेय ‘चोंच’, आदि ने हास्य-व्यंग्य से पूर्ण अनेक कविताएँ लिखी ।’’3 इन कविताओं में व्यंग्य की तीव्रता है । निराला नीलकंठ शिव की तरह हैं जिन्होंने सामाजिक विसंगतियों पर कड़े प्रहार किये हैं ।
मेरी नजर में परसाई ही एकमात्र ऐसे लेखक हैं जिन्होंने समाज के प्रत्येक अंग, प्रत्येक वर्ग का बड़ी बारीकी से अध्ययन करते हुए एक कुशल सेनानायक की तरह समाज की कमजोरियों पर, उसमें व्याप्त बुराइयों पर बड़ा ही सबल प्रहार अपने व्यंग्यों के माध्यम से किया। यहाँ तक कि स्वयं को भी उन्होंने उसी समाज का अंग मानते हुए इस परिधि से बाहर नहीं रखा और आत्मालोचन का नश्तर चलाकर सच्चे लेखक का परिचय दिया ।
परसाई जी की सारी रचना प्रक्रिया और उनकी विचार-प्रक्रिया उस समाज के कटु यथार्थ के समानान्तर चलती है जिस समाज में अवसरवादी राजनीति है, अन्याय है प्रजातंत्र अपनी परिभाषा खो चुका है, भ्रष्टाचार रक्तबीज बन गया हो, ऐसे कठिन समय में परसाई ने अपने व्यंग्य में एक ऐसा शिल्प विकसित किया जिसमें कहने की सादगी, संवेदना की तीव्रता और भोगे हुए यथार्थ की तस्वीरें साफ उभरकर आती हैं ।
‘‘शरद जोशी भी हिन्दी के बड़े व्यंग्यकार हैं । उनके व्यंग्य संग्रह ‘जीप पर सवार इल्लियाँ’, ‘प्रतिदिन’, ‘पिछले दिनों’, ‘नावक के तीर’, ‘यथासमय’, ‘परिक्रमा’, ‘किसी बहाने’, ‘तिलिस्म’, ‘रहा किनारे बैठ’, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ एवं दूसरी सतह पर आदमी आदि है । शरद जोशी ने अपने लेखन का आरंभ व्यंग्य विधा से नहीं किया था। अपनी आलोचना से क्षुब्ध होकर आलोचक को करारा जवाब देने के लिये वे व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में उतरे ।’’4 शरद जोशी के व्यंग्यों में गजब की बौद्धिकता, संवेदनशीलता, विसंगतियों पर पैनी नजर के साथ गहन सामाजिक सरोकार और तीव्र दायित्व बोध हैं । उन्होंने लिखा है कि - ‘‘लिखना मेरे लिये जीने की तरकीब है, इतना लिख लेने के बाद अपने लिखे को देख मैं सिर्फ यही कह पाता हूँ कि चलो इतने बरस जी लिया। यह न होता तो इसका विकल्प क्या होता, अब सोचना कठिन है लिखना मेरा निजी उद्देश्य है ।’’
ठाकुर प्रसाद सिंह एक सफल व्यंग्यकार हैं । उन्होंने सामाजिक समस्याओं पर तीखे और गहरे व्यंग्य किये हैं । उनके पास लाक्षणिकता की शक्ति है इस कारण उनके व्यंग्य बहुत पैने कारक क्षमता वाले और दूरगामी होते हैं । बेढव बनारसी के व्यंग्यों में हँसी और विनोद का पुट है उनके व्यंग्य का मूल विषय राजनीति है। श्री नारायण चतुर्वेदी ने विनोद शर्मा के छद्म नाम से व्यंग्य लिखे हैं । राजभवन की ‘सिगरेटदानी’ में उन्होंने बहुत सार्थक और परिपक्व व्यंग्य लिखें हैं । केशवचन्द्र वर्मा, लक्ष्मीकांत वर्मा, भीमसेन त्यागी, रवीन्द्रनाथ त्यागी, नरेन्द्र कोहली, सूर्यबाला और ज्ञान चतुर्वेदी ने व्यंग्य विधा को समृद्ध करने में अपना अमूल्य योगदान दिया है । प्रो. सुरेश आचार्य जी श्रेष्ठ व्यंग्यकार हैं । ‘पूँछ हिलाने की संस्कृति’, ‘ उधर भी हैं, इधर भी हैं’ तथा पोजीशन सॉलिड है आपके प्रसिद्ध व्यंग्य-संग्रह हैं । ‘‘आपके व्यंग्य भी कबीर की भाँति गहन मानवीय संवेदना, समाज के प्रति तीव्र दायित्व-बोध, सामाजिक विसंगतियाँ और विद्रूप से उत्पन्न गहरे क्षोभ से जन्मे हैं । सुरेश आचार्य जी के पास बुन्देली बोली के वजनदार शब्दों से भरपूर ताकतवर भाषा है। सुरेश आचार्य के व्यंग्यों की भाशा अपने तीखेपन के कारण दोषी को घायल करने में समर्थ है। आचार्य जी ने बुन्देलखण्ड के प्रसिद्ध समाचार- पत्र आचरण के लिए व्यंग्य कॉलम ‘आचार्य उवाच’ शीर्षक से लिखना प्रारंभ किया । यह व्यंग्य कॉलम अत्यंत लोकप्रिय हुआ इसने आचरण की लोकप्रियता और बिक्री में वृद्धि की । यह कॉलम परसाई जी के ‘सुनो भाई साधु’ शीर्षक से नयी दुनिया के लिए लिखे कॉलम की भाँति लोकप्रिय हुआ।’’5
ज्ञान चतुर्वेदी विगत तीस-चालीस वर्शों से व्यंग्य लेखन की दिशा में सक्रिय रहने वाले सफल व्यंग्यकार हैं । उनके व्यंग्य वागर्थ, नया ज्ञानोदय, हंस सहित अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए है । उन्होंने अपने लेखन का प्रारंभ सत्तर के दशक में धर्मयुग से की थी । ‘नरक यात्रा’, ‘बारामासी’, ‘मारीचिका’ और ‘हम न मरब’ उनके प्रमुख उपन्यास है। अभी तक आपके लगभग एक हजार से अधिक व्यंग्य प्रकाशित हो चुके हैं । ‘प्रेतकथा’, ‘दंगे में मुर्गा’ मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ, बिसात बिछी है, प्रत्यंचा और बारहखड़ी आदि हैं । विगत दिनों ‘लमही’ पत्रिका के सम्पादक श्री विजय राय ने ‘लमही’ का विशेशांक आप पर केन्द्रित किया है।
इन्हीं व्यंग्यकारों में विवेकरंजन श्रीवास्तव का नाम चर्चित है जिस प्रकार ज्ञान चतुर्वेदी पेशे से चिकित्सक हैं, विवेकरंजन पेशे से अभियंता है किन्तु वे हृदय से साहित्यकार हैं । साहित्य में उनकी आत्मा बसती है, साहित्य के प्रति प्रेम उन्हें अपने पिता श्री चित्रभूषण श्रीवास्तव जी से विरासत में मिला है। उनके व्यंग्यों में उनका विवेक व्यवहारिक बुद्धि, संवेदनशीलता, विसंगतियों के प्रति असंतोष और सकारात्मक परिवर्तन की आकांक्षा है।
विवेकरंजन व्यंग्यकार कैसे बने इस संबंध में वे लिखते हैं कि वे बचपन से ही एक अच्छे पाठक रहें हैं । उनका बचपन मंडला में बीता, उनके पिता जी भी साहित्यकार हैं सो घर में अनेक समाचार पत्र और साप्ताहिक हिन्दोस्तान, ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’ नंदन और पराग जैसी पत्रिकाएँ आती थीं जिन्हें वे चाव से पढ़ते थे । नवीन दुनिया में परसाई जी का एक कॉलम ‘सुनो भाई साधो’ और नवभारत टाईम्स में षरद जोशी का व्यंग्य स्तंभ पढ़कर और इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर देखकर वे बड़े हुए । देश के प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों के व्यंग्य पढ़कर विवेकरंजन का व्यंग्यकार रूप अंकुरित हुआ जो आज वृक्ष बनकर फल-फूल रहा है। उन्होंने मंडला से प्रकाशित साप्ताहिक समाचार पत्र मेकलवाणी में ‘दूरन्देशी चश्मा’ शीर्षक से एक व्यंग्य कॉलम लिखा जो काफी लोकप्रिय हुआ । इसके अतिरिक्त कई व्यंग्य संग्रहों के लेखक विवेकरंजन ने ‘ब्लागर्स पार्क’, ‘विद्युत सेवा’, ‘ब्रम्होति’, ‘रेवा तरंग’, ‘चित्रांश चर्चा’, और ‘शक्ति संदेश’ आदि पत्रिकाओं का सफल संपादन किया। हाल ही में विवेकरंजन ने देश-विदेश के वरिष्ठ लेखकों से लेकर युवा और युवतर व्यंग्यकारों के व्यंग्यों को ‘मिलीभगत’ शीर्षक से संपादित किया है । उन्होंने भूमिका में लिखा है कि ‘‘यदि मिलीभगत आपके आपाधापी और भागदौड़ भरे जीवन में पल भर का सुकून दे सकें, आपके तनाव भरे चेहरे पर किंचित मुस्कान ले जाये, पढ़ते हुए आपको लगे कि अरे यह तो मेरा देखा हुआ भोगा हुआ यथार्थ है जिसे व्यंग्यकार ने अभिव्यक्ति दी है, तो हमारा यह प्रयत्न सफल माना जायेगा ।’’6
विवेकरंजन के व्यंग्यों की दो कोटियाँ हैं । एक तो तात्कालिक और दूसरे तात्कालिक होते हुए भी सार्वकालिक । तात्कालिक व्यंग्य किसी तात्कालिक घटना या समस्या से उपजते हैं जैसे ही घटना या समस्या पुरानी होती है व्यंग्य भी पुराना हो जाता है उसका महत्व कम हो जाता है इस प्रकार के व्यंग्यों में मेरा चैनल तेरे चैनल से तेज हैं, माया जी से नरेश ने बेकअप कर लिया, एटीएम से पाँच रूपैया बारह आना का विथड्रावल, बिन माँगे वादे मिले, माँगे मिले न वोट ये मुआं दिल आदि इसी प्रकार के व्यंग्य हैं जो तत्कालीन घटनाओं की प्रतिक्रिया से जन्मे हैं इन व्यंग्यों में भी पैनापन है, विसंगतियों पर चोट करने का माद्दा है पर ये काल के साथ पुराने पड़ जाते हैं । विवेकरंजन के दूसरी कोटि के व्यंग्यों में शाश्वतता का तत्व विद्यमान है । इन व्यंग्यों में निहित बातों पर को काल की धारा अपने चिह्न नहीं छोड़ पाती । इस कोटि के व्यंग्यों में ‘रिजर्व सीट पर बैठने के ठाठ, सूरज को मोमबत्ती सेल्स एसोसियेशन बरेली का फर्स्ट जुगनू अवार्ड और अंतिम आदमी की तलाश आदि ऐसे ही व्यंग्य है जिसकी प्रासंगिकता बनी रहेगी । इन व्यंग्यों में तीव्र युगीनबोध के साथ इस बोध को व्यक्त करने में समर्थ भाषा की जुगलबंदी है । विवेकरंजन जटिल से जटिल विषय को सीधी सरल भाषा में बेहद परिपक्व चिंतन के साथ अपने व्यंग्यों में प्रस्तुत करते हैं । वे हरिशंकर परसाई के अनुगामी है । परसाई ने कहा था कि ‘व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों-मिथ्याचारों और पाखंड का पर्दाफाश करता है।’’ दरअसल व्यंग्यकार के पास एक पैनी और धारदार भाषा होनी चाहिये तभी उसके व्यंग्य मारक बनते हैं और समय के साथ पुराने नहीं पड़ते । विवेकरंजन ने यह भाषा अर्जित कर ली है । शब्दों की व्यंजकता के साथ, अरबी, फारसी, अंग्रेजी, देशज और संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग वे अपनी आवश्यकतानुसार प्रयोग करते हैं और उसमें गहरी व्यंजना भर देते हैं ।
हिन्दी व्यंग्य विधा में विवेकरंजन श्रीवास्तव ने अपना विशिष्ट स्थान बनाया है । वे एक अच्छे व्यंग्यकार इसलिये हैं क्योंकि वे एक अच्छे समाज दृष्टा हैं । परिवार, समाज, राजनीति, धर्म, अर्थव्यवस्था जैसे विषयों की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी घटना पर वे अपनी पैनी नजर रखते हैं । एक व्यंग्यकार के रूप में उन्होंने अपने संचित अनुभवों और समाज के प्रति प्रतिबद्धता तथा बहुत ही दोस्ताना शैली में समाज के प्रत्येक विषय पर अपनी लेखनी चलायी हैं । जब विवेकरंजन जी सामाजिक विसंगतियों पर, राजनैतिक छद्म पर, धार्मिक पाखंड पर अपनी रचनात्मक कलम चलाते हैं तब उनके मन में समाज को बदलने की बलवती स्पृहा होती है । उनकी इसी सकारात्मक परिवर्तनकामी दृष्टि से उनके व्यंग्यों का जन्म होता है । दरअसल व्यंग्य रचना एक गंभीर कर्म है। विवेकरंजन श्रीवास्तव बीस-पच्चीस वर्षों से अनवरत् व्यंग्य लिख रहे हैं । चाहे कोई भी घटना हो उनका ध्यान उस घटना के मूल कारणों पर जाता है और वे एक मारक व्यंग्य लेख की रचना कर देते हैं । विवेकरंजन के तीन व्यंग्य संग्रह ‘राम भरोसे’, ‘कौआ कान ले गया’, और ‘मेरे प्रिय व्यंग्य लेख’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुके हैं ।
विवेकरंजन जी बहुत ही पारिवारिक अंदाज में अपने व्यंग्यों का प्रारंभ करते हैं बात पत्नी बच्चों से आरंभ होती है और देश की किसी बड़ी समस्या पर जाकर समाप्त होती है ‘भोजन-भजन’, फील गुड, आओ तहलका- तहलका खेलूँ, रामभरोसे की राजनैतिक सूझ-बूझ आदि ऐसे ही व्यंग्य लेख हैं । विवेकरंजन ने अपने व्यंग्य ‘ऑल इनडिसेंट इन ए डिसेंट वे’ में आज के युग में विवाह समारोहों में किये जा रहे वैभव प्रदर्शन, फूहड़ता, आत्मीयता का अभाव, अपव्ययता आदि पर विचार किया है । इस व्यंग्य के मूल में समाज-सुधार का भाव गहराई से निहित है ।
‘नगदीकरण मृत्यु का’, ‘चले गये अंग्रेज’ आदि व्यंग्यों में व्यवस्था के तमाम अंतर्विरोध उजागर हुए हैं । आजादी के बाद भारत में जो स्थितियाँ बनी । सामाजिक राजनैतिक जीवन में जो विसंगत स्थितियाँ बनीं, भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ा, धर्म के क्षेत्र में पाखंडी बाबाओं का अतिचार बढ़ा अर्थात भारतीय समाज के सभी घटकों में इतनी असंगतियाँ बढ़ी कि तमाम साहित्यकारों का ध्यान इस ओर गया । हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, बालेन्दु शेखर तिवारी, श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्र त्यागी, सुरेश आचार्य, के.पी.सक्सेना, लतीफ घोंघी, ज्ञान चतुर्वेदी के साथ विवेकरंजन श्रीवास्तव ने जीवन यथार्थ के जटिलतम रूपों का बड़ी गहराई से अध्ययन करके अत्यंत सूक्ष्म और कलात्मक व्यंग्य लिखे । विवेकरंजन के व्यंग्य एक बुद्धिजीवी, सच्चे समाज दृष्टा, ईमानदार और संवेदनशील व्यक्ति तथा समाज सचेतक की कलम से निकले व्यंग्य है । इन व्यंग्यों में सदाशयता है तो विसंगतियों के प्रति तीव्र दायित्व बोध और आक्रामकता भी है ।
‘जरूरत एक कोप भवन की’ में भगवान राम के त्रेता युग से प्रारंभ करते हुए विवेकरंजन कोप भवन की ऐतिहासिकता को सिद्ध करते हुए वर्तमान युग में कोप भवन की प्रासंगिकता को सिद्ध करते हुए लिखते हैं कि - ‘आज कोप भवन पुनः प्रासंगिक हो चला है । अब खिचड़ी सरकारों का युग है । .......... अब जब हमें खिचड़ी संस्कृति को ही प्रश्रय देना है, तो मेरा सुझाव है, प्रत्येक राज्य की राजधानी में जैसे विधानसभा भवन और दिल्ली में संसद भवन है, उसी तरह का एक कोप भवन भी बनवा दिया जावे । इससे बड़ा लाभ मोर्चा के संयोजकों को होगा । विभाग के बँटवारे को लेकर किसी पैकेज के न मिलने पर, अपनी गलत सही माँग न माने जाने पर जैसे ही किसी का दिल टूटेगा वह कोप भवन में चला जायेगा । रेड अलर्ट का सायरन बजेगा संयोजक दौड़ेगा। सरकार प्रमुख अपना दौरा छोड़कर कोप भवन पहुँचे, रूठे को मना लेंगे, फुसला लेंगे । लोकतंत्र पर छाया खतरा कोप भवन की वजह से टल जायेगा ।’’ इस उद्धरण में हास्य के पुट के साथ देश की राजनैतिक स्थिति पर बड़ा पैना व्यंग्य है। विवेकरंजन ने अपनी एक भाषा निर्मित की है। वे शब्द की स्वाभाविक अर्थवत्ता को आगे बढ़ाकर चुस्त बयानी तक ले जाते हैं । सही शब्दों का चयन उनका संयोजन, शब्दों के पारंपरिक अर्थों के साथ उनमें नये अर्थ भरने की सामर्थ्य ही उनकी व्यंग्य भाषा को विशिष्ट बनाती है । उदाहरण के लिये ‘पिछड़े होने का सुख व्यंग्य के ये पंक्तियाँ जो एक कहावत से प्रारंभ होती है -
‘‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम,
दास मलूका कह गये सबके दाता राम ।’’
‘‘इन खेलों से हमारी युवा पीढ़ी पिछड़ेपन का महत्व समझकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का नाम रोशन कर सकेगी । दुनिया के विकसित देश हमसे प्रतिस्पर्धा करने की अपेक्षा अपने चेरिटी मिशन से हमें अनुदान देंगे। बिना उपजाये ही हमें विदेशी अन्न खाने को मिलेगा । ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का हवाला देकर हम अन्य देशों के संसाधनों पर अपना अधिकार प्रदर्शित कर सकेंगे । दुनिया हमसे डरेगी । हम यू.एन.ओ.में सेन्टर ऑफ अट्रेक्शन होंगे।’’ वस्तुतः यह व्यंग्य हमारे देश में आज तक जारी आरक्षण व्यवस्था पर है । अपने व्यंग्यों के माध्यम से विवेकरंजन जी आज के बदलते परिवेश और उपभोक्तावादी युग में मनुष्य के स्वयं एक वस्तु या उत्पाद में तब्दील होते जाने को, इस हाइटेक जमाने की एक-एक रग की बखूबी पकड़ा है । उनके शब्दों में निहित व्यंजना और विसंगतियों के प्रति क्षोभ एक साथ जिस कलात्मक संयम से व्यंग्यों में ढलता है वही उनके व्यंग्य लेखों को विशिष्ट बनाता है । विवेकरंजन के पास विवेक है जिसका उपयोग वे किसी घटना, व्यक्ति या स्थिति को समझने में करते हैं, सच कहने का साहस है जिससे बिना डरे वे अपनी मुखर अभिव्यक्ति या असंर्गत के प्रति अपनी असहमति दर्ज कर सकते हैं, संत्रास बोध और तीव्र निरीक्षण शक्ति और संतुलित दृष्टि बोध है, परिहास और स्वयं को व्यंग्य के दायरे में लाकर स्वयं पर भी हँसने का माद्दा है । अनुभवों का ताप और संवेदना की तरलता के साथ सकारात्मक परिवर्तनकारी सोच तथा एक धारदार भाषा है जो सीधे पाठक को संबोधित और संप्रेषित है।
निष्कर्षतः स्वतंत्र्योत्तर हिन्दी व्यंग्य परंपरा में विवेकरंजन श्रीवास्तव अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, उनके व्यंग्य पाठक को सोचने के लिये बाध्य करते है क्योंकि वे उपर से सहज दिखने वाली घटनाओं की तह में जाते हैं और भीतर छिपे हुए असली मकसद को पाठक के सामने लाने में सफल होते हैं । हाँ कुछ व्यंग्य लेखों में उतना पैनापन नहीं आ पाया है इस कारण वे हास्य लेख बन गये हैं । यद्यपि ऐसे व्यंग्य लेखों की संख्या कम ही है । उनके सफल व्यंग्यों में जीवन की जटिलता और परिवेशगत विसंगति अपनी संपूर्ण तीव्रता के साथ व्यक्त हुई । वे जितने कुशल सिविल इंजीनियर हैं उतने ही कुशल सोशियो इंजीनियर भी हैं। इसी सोशियो इंजीनियरी ने विवेकरंजन के व्यंग्यों को इतना सशक्त और धारदार बनाया है।
संदर्भ
1. डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी, हिन्दी का स्वातन्त्र्योत्तर हास्य और व्यंग्य, पृ.69
2. हरिशंकर परसाई, मेरी श्रेश्ठ व्यंग्य रचनाएँ, पृ.11
3. हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ. नगेन्द्र एवं डॉ. हरदयाल मयूर बुक्स, दरियागंज, नई दिल्ली, पृ. 421
4. हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ. नगेन्द्र एवं डॉ. हरदयाल मयूर बुक्स, दरियागंज, नई दिल्ली, पृ. 381
5. सुरेश आचार्य सनीचरी का पंडित, संपादक लक्ष्मी पांडेय, अनुज्ञा बुक्स, नई दिल्ली, पृ. 271
6. मिलीभगत, संपादक विवेकरंजन,रवीना प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2019
आधार ग्रंथ
विवेकरंजन के सभी व्यंग्य संग्रह
सारगर्भित प्रस्तुति। आपके सतत् अध्ययन का प्रतिबिंब।
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