हिंदी साहित्य में उभरे अनेक विमर्श - दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, स्त्री विमर्श,किन्नर विमर्श के बाद वृद्ध विमर्श उभरकर हमारे सामने आ रहा है...
हिंदी साहित्य में उभरे अनेक विमर्श - दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, स्त्री विमर्श,किन्नर विमर्श के बाद वृद्ध विमर्श उभरकर हमारे सामने आ रहा है.समाज में उद्भवित अनेक समस्याओं में वृद्धों की समस्या विशेष रूप से देखने को मिलती है.जिस तरह से युवा पीढ़ी की चर्चा ज़ोरों पर है,उसे देखते हुए वृद्ध विमर्श का होना उचित लगता है.आज वृद्ध हमसे,हमारे परिवार से उपेक्षित होते जा रहे है.सही माहौल,सही सोच,दो पीढ़ी के बीच का अंतर तथा शैक्षिक और सांस्कारिक विचारों का आदान – प्रदान ,शैक्षिक,सामाजिक तथा सांस्कारिक अनुभवों में अंतर आदि के कारण बुज़ुर्गों के प्रति हमारी सोच तथा व्यवहार में काफी अंतर आ गया है.अपने आप को educated समझनेवाले हम तथा युवा पीढ़ी उनके साथ adjust नहीं हो पाते है.
वृद्धों या बूढ़ों को लेकर आमतोर पर ऐसे लोगों की तस्वीर उभरती है जो सफ़ेद बाल, झड़े हुए दाँत, शिथिल – ऊर्जा – हीन शरीर लेकर जीवन यापन करते है.इस संदर्भ में केशवदास की उक्ति चर्चित है –
केशव केशन असकरी जस अरिहु न कराय ,
चंद्रवदन मृगलोचनी बाबा कहि कहि जाए .
अर्थात चंद्रवदन मृगलोचनी वनिताओं को आकृष्ट करने की सामर्थ्य से चूक जाने का नाम बुढ़ापा है.जिन्होंने वृद्धावस्था को दंतहीन,जर्जर काया, शिथिल इंद्रियों की दशा के रूप में देखते हुए चित्रित किया है.हम वृद्ध के रूप में एक बुजुर्ग, निस्सहाय, क्षीण काया मगर फिर भी सोच – विचार तथा अनुभवों से परिपूर्ण एक व्यक्ति को अपमानित करते है.
‘वृद्धावस्था पर अपने विचार व्यक्त करते हुए प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक अनातोले फ्रांस का यह कथन याद आता है – काश ! बुढ़ापे के बाद जवानी आती !’अनातोले का यह कथन बड़ा ही सांकेतिक है.जवानी वह शारीरिक अवस्था है,जो जोश ऊर्जा से ओत – प्रोत होती है, जिसका उपयोग करते हुए हर व्यक्ति अपने – अपने ढंग से जीवन जीता है और इस क्रम में वह बुढ़ापे तक पहुँचता है.बुढ़ापे में जवानीवाली ऊर्जा शक्ति तो रह नहीं जाती,रह जाता है विविध अनुभवों का भंडार.इन अनुभवों के आलोक में व्यक्ति को जवानी के अनुभव रहित जोश में किये गए अपने कई गलत निर्णयों और कार्यों का एहसास होता है.तब वह अनुताप की आँच में तपते हुए सोचता है कि अगर उसे बुढ़ापे में जवानी जैसी ताकत, स्फूर्ति मिल जाए तो वह पहले से बेहतर, श्रेयस्कर कार्य कर सकता है.
दरअसल , बुढ़ापे को निष्क्रिय और शिथिल शारीरिक अवस्था समझकर बहुत ही काम की चीज नहीं समझा जाता.बचपन से लेकर जवानी तक के जीवनानुभवों का कोश होता है,ऐसा प्रकाश पुंज होता है जिसके आलोक में युवा पीढ़ी अपने वर्तमान को संवारते हुए भविष्य का शृंगार कर सकती है.इसी कारण से भारतीय और पाश्चात्य दोनों परम्पराओं में वृद्ध या वृद्धावस्था के प्रति सम्मानजनक भाव रहा है.बड़े – बूढ़ों के अनुभवों और परामर्शों से लाभ उठानेवाली युवा पीढ़ी ही नव – निर्माण कर पाती है, जबकि इसके विपरीत मार्ग पर चलनेवाली युवा पीढ़ी युवा शक्ति विध्वंस की वीरानगी छोड़ जाती है। इसके संदर्भ में हम रामायण , महाभारत की कथाओं को देख सकते है.
महाभारत में एक तरफ भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य , विदुर जैसे तपे – तपाए , अनुभव – सिद्ध – ज्ञानी तत्वेत्ता है, तो दूसरी तरफ जवानी की शक्ति और जोश से उफनते दुर्योधन, दु:शासन , कर्ण आदि जैसे युवकों वृद्धों, बुजुर्गों ने युवा कौरव मंडली को बहुत समझाया कि पांडवों से युद्ध करने में अहित ही अहित है, फिर भी अहंकार को उतना महत्व देते हुए अंततः युद्ध का मार्ग अपनाया । परिणामतः महाविनाश हुआ.न वृद्ध बचे, न जवान, बचे सिर्फ पाँच भाई पांडव और बेशुमार विधवाओं का चहुं ओर विलाप । इतना ही नहीं, इच्छा मृत्यु का वरदान पाए हुए भीष्म पितामह का महत्व अब अधिक बढ़ जाता है जब वे शर शैय्या पर पड़े हुए अपने अनुभवों के आधार पर युधिष्ठिर को नीति , शांति, अहिंसा, राजधर्म आदि के संबंध में उपयोगी उपदेश देते है , जिन्हें युधिष्ठिर पाथेय स्वरूप स्वीकार करते हुए अपने राजधर्म का निर्वाह करते है .
इसके अलावा हिन्दी की कई कहानियों में वृद्धों की समस्या को निरूपित किया गया है.प्रेमचंद की ‘बूढ़ी काकी’ की वृद्धा के लिए जिव्हा स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी.समस्त इंद्रिया- नेत्र , हाथ और पैर जवाब दे चुके थे.पृथ्वी पर पड़ी रहती थीं.घरवाले उनके खाने – पीने के समय का ध्यान नहीं रखते थे।और चीजों के प्रति वे उतना आकर्षण या तीव्रता नहीं जताती थी मगर भोजन का समय टल जाता या उसका परिणाम पूर्ण न होता अथवा बाजार से कोई वस्तु आती और उन्हें न मिलती तो ये रोने लगती .उनका रोना – सिसकना साधारण रोना न था, वे गला फाड़ – फाड़कर रोती थीं.बूढ़ी काकी जब घर में अपना राग अलापने लगती तब घरवाले आग हो जाते और घर में न जाकर ज़ोर से डांटते.लड़कों को बूढ़ों से स्वाभाविक विद्वेष होता ही है और फिर माता – पिता का ये रंग देखकर वे बूढ़ी काकी को और सताया करते. कोई चुटकी काटकर भागता , कोई उनपर पानी की कुल्ली कर देता. काकी चीख मारकर रोतीं.परंतु यह बात प्रसिद्ध थी कि वह केवल खाने के लिए रोती हें अतएव उनके संताप और आर्तनाद पर कोई ध्यान नहीं देता था। काकी क्रोधातुर होकर जब भी बच्चों को गालियाँ देने लगतीं तो बहू रूपा के वहाँ पहुँचते ही वे अपनी जिव्हा कृपाण का कदाचित ही प्रयोग करती थीं.यद्यपि उपद्रव – शांति का यह उपाय रोने से कहीं अधिक उपयुक्त था।
संपूर्ण परिवार मे यदि काकी से किसी को अनुराग था तो वह बुद्धिराम की छोटी लड़की लाड़ली थी. लाड़ली अपने दोनों भाइयों के भय से अपने हिस्से की मिठाई – चबैना बूढ़ी काकी के पास बैठकर खाया करती थी.यही उसका रक्षागार था.कई बार काकी की शरण उनकी लोलुपता के कारण बहुत महंगी पड़ती थी , तथापि भाइयों के अन्याय से सुरक्षा कहीं सुलभ थी तो बस यहीं. इसी स्वार्थानुकूलता ने उन दोनों में सहानुभूति का आरोपण कर दिया था. वैसे भी बच्चे अपने बुजुर्ग अर्थात नाना – नानी , दादा – दादी ,या अन्य कोई बुजुर्ग जो उनके प्यार का, दैनिक प्रवृत्तियों का तथा उनके खेल का सहभागी हो , उन्हें बहुत प्रिय होता है और अन्य किसी के अधिकार से पहले वे उनपर अपना अधिकार समझते है तथा उससे बहुत प्यार करते है।
भीष्म साहनी की ‘चीफ की दावत’ कहानी की वृद्धा शामनाथ की माँ है. शामनाथ अपनी तरक्की के लिए माँ को जरिया बनाता है. माँ वृद्ध हें बाल बिखरे है, आँखों से धुंधला दिखाई देता है, कानों से सुनाई नहीं देता.रात – दिन माला जपती रहती है और प्रभु के नाम का रटन करती है। तीर्थ यात्रा पर जाने की इच्छुक माँ मन की अभिलाषा व्यक्त नहीं कर पाती है.बेटे की तरक्की के लिए लोकगीत गाकर चीफ को खुश करती है.फुलकारी के काम में निपुण माँ ,आँखों से कम दिखाई देने पर भी बेटे की तरक्की के लिए चीफ को फुलकारी बना देने के लिए तैयार हो जाती है.आज मनुष्य बहुत स्वार्थी हो गया है. समर्थ होने पर भी बूढ़े माँ – बाप उसे बोझ लगते है.पाश्चात्य सभ्यता की अंधी दौड़ में वह अपने कर्तव्य और संस्कारों को भूलता जा रहा है. जो माँ शामनाथ को हीन,तुच्छ और हँसी का पात्र प्रतीत होती थी , जिसको व्यवहार कुशलता और आधुनिकता का ज्ञान नहीं था.वही माँ अंत में चीफ की दावत में चार चाँद लगा देती है और उसकी फुलकारी ही उसकी पदोन्नति का रास्ता खोल देती है.
मन्नू भंडारी की ‘अकेली’ कहानी की सोमा बुआ अकेली है, वृद्ध है.पति छोड़कर चले गए है.पुत्र की मौत और पति के हरिद्वार चले जाने के पश्चात सोमा बुआ अकेली रह जाती है. उनके वर्ष के ग्यारह महीने हरिद्वार में और सिर्फ एक महीना अपने घर में बीतता था. इस एक महीने में वे बुआ से दो मीठे बोल भी नहीं बोलते थे.इसके बजाय उन्हें अलग – अलग कारणों से दिनभर डाँटते रहते थे. अतः वह अपने आपको समाज को सौंप देती है अर्थात सामाजिक कामों में अपना मन रमा लेती है.पति के न होने पर बुआ आस - पड़ोस के लोगों के भरोसे अपना समय काट लेती थी.किसी के घर कोई भी कार्य वे करती.उनकी रोक – टोक पर वे कहतीं :– ‘इन्हें तो नाते – रिश्तेवालों से कुछ लेना – देना है नहीं ,पर मुझे तो सबसे निभाना पड़ता है .’
आधुनिक दौर संतानों की अपेक्षाओं और वृद्धों की उपेक्षाओं का दौर है. भारतीय संस्कृति की पाश्चात्य संस्कृति से मुठभेड़ है.यह देश राम और श्रवणकुमारों का रहा है.मगर वर्तमान में व्यक्तिवादी सोच के बढ्ने के कारण भारतीय वृद्ध परिवार हाशिये पर है .युवाओं में भारतीय संस्कारों का अभाव है. परम्पराओं को दक़ियानूसी मानकर कथित आधुनिकता की दौड़ में माता – पिता को घर से बाहर का रास्ता दिखाने से ये नहीं चूकते .नई पीढ़ी पाश्चात्य दिखावे की शिकार होने के कारण बुरी तरह भटक रही है.इस दौर में जब मूल्यों पर व्यक्तिवादिता और दिखावा हावी हो चला है तब वृद्धों के लिए क्या वृद्धाश्रम ही अंतिम शरण स्थली है ?
अंत में अनामिका के शब्द – ‘जो घर में हो कोई वृदधा –
खाना ज्यादा अच्छा पकता है ,
परदे – पेटीकोट और पायजामे भी दर्जी और रफूगरों के मोहताज नहीं रहते
रहती है वृदधाएँ, घर मेँ
लेकिन ऐसे जैसे अपने होने की खातिर हों क्षमाप्रार्थी
लोगों के आते ही बैठक से उठ जाती ,
छुप – छुपकर रहती है छाया - सी , माया –सी ।
*** ‘ उन्हें सबसे अच्छे लगते है वे लोग
जो पास नहीं आते और कभी जान नहीं पाते
की छाले हें छालों के भीतर .’
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