ग़ज़ल- 221 1222 अरकान- मफ़ऊल मुफ़ाईलुन चल चल रे मुसाफ़िर चल। है मौत यहाँ हर पल।। मालूम किसी को क्या। आए की न आए कल।। भूखा ...
ग़ज़ल- 221 1222
अरकान- मफ़ऊल मुफ़ाईलुन
चल चल रे मुसाफ़िर चल।
है मौत यहाँ हर पल।।
मालूम किसी को क्या।
आए की न आए कल।।
भूखा ही वो सो जाए।
दिन भर जो चलाए हल।।
सोया है जो कांटों में।
उठता वही अपने बल।।
वो दिल भी कोई दिल है।
जिस दिल में न हो हलचल।।
ढकते हैं बराबर वो।
टिकता ही नहीं आँचल।।
इतरा न जवानी पर।
ये जाएगी इक दिन ढल।।
विश्वास किया जिसपे।
उसने ही लिया है छल।।
कहते हैं सभी मुझको।
तुम तो न कहो पागल।।
रोशन तो हुई राहें।
घर बार गया जब जल।।
करनी का निज़ाम अपनी।
मिलना है सभी को फल।।
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ग़ज़ल- 122 122 122 122
अरकान- फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
मुझे रास आई न दुनिया तुम्हारी।
परेशां तुम्हारा यहाँ है पुजारी।।
सुखी है वही जो ग़लत है जहाँ में।
सही आदमी बन गया है भिखारी।।
दरिंदे हैं बे-ख़ौफ़ कितने यहाँ पर।
सरेआम लुटती बाजारों में नारी।।
जो सौ में सवा सौ काहे झूठ यारों।
वही रहनुमा बन गया है मदारी।।
यही डर है सबको सही बोलने में।
कहीं घट न जाए ये इज़्ज़त हमारी।।
बड़ा तो वही है जो चलता अकड़ कर।
शरीफों का जीना जहाँ में है भारी।।
निज़ाम अब कहाँ जाए या रब बताओ।
भरी है बुराई से दुनिया ये सारी।।
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ग़ज़ल- 212 212 212 212
अरकान- फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
मौत आई नहीं फिर भी मारा गया।
खेलने जब जुआ ये नकारा गया।।
हार कर भी कभी होश आया नहीं।
कर्ज लेकर हमेशा दुबारा गया।।
जिसको आदत जुआ की बुरी पड़ गई।
समझो गर्दिश में उसका सितारा गया।।
अब बचा पास मेरे है कुछ भी नहीं।
जो था सुख चैन दिलका वो सारा गया।।
मुझको चंदे का देखो मिला है कफ़न।
कैसे ज़िंदा जनाज़ा हमारा गया।।
हर जुआरी का होता यही हाल है।
जिसने खेला इसे वो बेचारा गया।।
कर दिया इसने बदनाम देखो निज़ाम ।
मैं जुआरी भी कह कर पुकारा गया।।
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ग़ज़ल- 122 122 122 122
अरकान- फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
मेरे इश्क़ की जो बनी है कहानी।
सुनाता हूँ यारों सुनो अब जुबानी।।
किसी की नज़र का दीवाना था मैं भी।
मेरे वास्ते भी थी कोई दीवानी।।
बड़े चैन से कट रहे थे मेरे दिन।
वो कितनी हंसी थी मेरी ज़िंदगानी।।
कहर ऐसा आया मेरी ज़िंदगी में।
मिली ख़ाक में सब मेरी शादमानी।।
कभी जो थे अपने हुए वो पराए।
मोहब्बत में ऐसी पड़ी चोट खानी।।
बिछड़ना था उनको तो फिर क्यों मिले थे।
अकेले न दुनिया लगे अब सुहानी।।
जमाने ने लूटा हमें इस तरह से।
कि जैसे कोई दुश्मनी थी पुरानी।।
बचा पास यादों के कुछ भी नहीं अब।
यही एक उनकी बची है निशानी।।
न दिल को लगाते न ये हाल होता।
मुसीबत पड़ी दिल लगाकर उठानी।।
ये दिल क्यों लगाया था पहले उन्होंने।
अगर ज़िंदगी साथ मत थी निभानी।।
निज़ाम अब जिए भी तो किसके सहारे।
अकेले ये दुनिया नहीं है बसानी।।
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ग़ज़ल- 1222 1222 1222 1222
अरकान- मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
कोई भी शख़्स हर मैदान में क़ाबिल नहीं होता।
जो आक़िल है कभी वो मौत से ग़ाफ़िल नहीं होता।।
उसे इंसान कहना भी है इक तौहीन इंसा की।
जो सुख दुख में भी अपनों के कभी शामिल नहीं होता।।
कोई रंजो अलम होता न होता दर्दे-दिल यारों।
सुकूँ से कटते दिन जीना यहाँ मुश्किल नहीं होता।।
सुनाते थक गया हूँ दास्ताने ग़म ज़माने को।
किसी से कुछ बताने के लिए अब दिल नहीं होता।।
है नाशुक्री वफ़ा के बदले में कुछ चाहना यारों।
वफ़ा हासिल है ख़ुद इससे बड़ा हासिल नहीं होता।।
ये है बहरे ग़मे हस्ती इसी में डूबना होगा।
यही साहिल है इसमें दूसरा साहिल नहीं होता।।
लुटाते हैं रहे हक़ में मताए जाँ भी दिल वाले।
जमा करता है धन दुनिया में जो आक़िल नहीं होता।।
मशक्कत के बिना हमने तो कुछ मिलते नहीं देखा।
निवाला तक तो मुंह में ख़ुद-ब-ख़ुद दाखिल नहीं होता।।
जो शेरे दिल है वो डरता नहीं हक़ बात कहने में।
पढ़े कितना भी हो बुज़दिल कभी कामिल नहीं होता।।
गया मकतब न जो पर मुत्तक़ी है वो तो आलिम है।
ख़ुदा को जानने वाला कभी जाहिल नहीं होता।।
किताबें पढ़के हर कोई निज़ाम आलिम न हो पाया।
वो आलिम होके भी जाहिल है जो आमिल नहीं होता।।
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ग़ज़ल- 221 2121 1221 212
अरकान- मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
आंधी चली है देश में साहब के नाम की।
तारीफ़ चारों ओर है उनके ही काम की।।
सीखा नहीं उन्होंने कभी झूठ बोलना।
खाते हैं ख़ुद न खाने ही देंगे हराम की।।
रुख़ देखकर हवा का सदा चलना चाहिए।
अपनी खुशी उसी में है जिसमें अवाम की।।
सच के लिए हमेशा ही लड़ते रहेंगे हम।
दरबार से नहीं हमें चाहत इनाम की।।
शायर वही हुआ है जो डरता नहीं कभी।
लिखती सदा रहेगी क़लम सच निज़ाम की।।
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ग़ज़ल- 221 2121 1221 212
अरकान- मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
जूतों का दौर फिर से चला है इनाम में।
चर्चा यही है चारों तरफ़ अब अवाम में।।
पड़ता नहीं है फर्क़ पुराने हों या नए।
साइज कोई भी हो सभी आते हैं काम में।।
आकर के जोश में कहीं खोना न होश को।
ता उम्र जलना पड़ता है फिर इंतकाम में।।
अच्छा समझ के भेजा था चुनकर के रहनुमा।
बेशर्म नंगा हो गया जाकर हमाम में।।
हलचल मचा के देश में छाए निज़ाम वो।
अपराधी थे पुराने जो खाते हराम में।।
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ग़ज़ल- 121 22 121 22 121 22 121 22
अरकान- फ़ऊल फ़ालुन फ़ऊल फ़ालुन फ़ऊल फ़ालुन फ़ऊल फ़ालुन
वतन का खाकर जवाँ हुए हैं वतन की खातिर कटेगी गरदन।
है कर्ज हम पर वतन का जितना अदा करेंगे लुटा के जाँ तन।।
हर एक क़तरा निचोड़ डालो बदल दो रंगत वतन की यारों।
जहाँ गिरेगा लहू हमारा वही उगेगा हसीन गुलशन।।
सभी ने हम पर किए हैं हमले किसी ने खुलकर किसी ने मिलकर।
खिला है जब-जब चमन हमारा हुए हैं इसके हजारों दुश्मन।।
दिखाएं किसको ये ज़ख्म दिल के खड़े हैं क़ातिल बदल के चेहरे।
जिन्होंने लूटा था आबरू को वही बने हैं अज़ीज़े दुल्हन।।
हमारा बाजू कटा जो तन से वो तेग़ लेकर हमीं पे झपटा।
निज़ाम कुदरत समझ न आया अजब हक़ीकत हुई है रोशन।।
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ग़ज़ल-1222-1222-1222-1222
अरकान- मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
जिगर के ख़ून से लिखना वही तहरीर बनती है।
इन्हीं कागज़ के टुकड़ों पर नई तक़दीर बनती है।।
ग़ज़ल इतनी कही फिर भी न समझा हम भी शायर हैं।
मेरी भी ज़िंदगी गुमनाम इक तस्वीर बनती है।।
किसी को जीते जी शोहरत किसी को मरने पर मिलती।
कहीं ग़ालिब बनी किस्मत कहीं ये मीर बनती है।।
तुम्हारी सोच कैसे इतनी छोटी हो गई यारों।
हमारे नर्म लहजे से भी तुमको पीर बनती है।।
निज़ाम अपनी क़लम फिर से दुबारा क्यों उठाई है।
बुढ़ापे में बता राजू कहीं जागीर बनती है।।
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निजाम-फतेहपुरी
ग्राम व पोस्ट मदोकीपुर
ज़िला-फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)
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