महेन्द्र देवांगन माटी खुशी जिंदगी की (गजल) 212 212 212 212 जिंदगी को खुशी से बिताते चलो। फासला तुम दिलों से मिटाते चलो।। शौक पूरा क...
महेन्द्र देवांगन माटी
खुशी जिंदगी की
(गजल)
212 212 212 212
जिंदगी को खुशी से बिताते चलो।
फासला तुम दिलों से मिटाते चलो।।
शौक पूरा करो तुम यहाँ से वहाँ ,
गीत धुन में सभी गुनगुनाते चलो।
बैठ कर यूँ अकेला रहा मत करो ,
बात दिल की हमें भी बताते चलो ।
चैन आये कभी अब न देखे बिना,
हाथ से यूँ न मुखड़ा छुपाते चलो।
आजकल राह में क्यों गुजरते नहीं ,
माथ "माटी" तिलक भी लगाते चलो।
महेन्द्र देवांगन माटी
पंडरिया छत्तीसगढ़
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डॉ. प्रणव भारती
---लम्हे ,कैसे -कैसे -------
कुछ लकीरें सी खिंची रहती है भीतर मेरे
मैं उन्हें हाथ में लेने को बढ़ी जाती हूँ
कभी तो दौड़कर उनको पकड़ भी पाती हूँ
न पकड़ पाऊँ तो बेमौत मरी जाती हूँ
बंद मुट्ठी में छिपी हैं ये लकीरें यूँ तो
जो निकलकर कभी माथे पे चिपक जाती हैं
ये रात तन्हा है,पागल है ,या है दीवानी
दिल के शीशे में मुझे चीर के ले जाती है
क्या ये जुगनू की रोशनी है पिघलती जो है
यूँ ही माथे पे दरारों सी चिपक जाती है
कुछ हवाएँ कभी छूती हैं दिल के पर्दों को
कुछ सदाएँ यूँ ही कुछ झाँकती सी रहती हैं
ये रोशनी का समां पिघलता है आँखों में
और कुछ धडकनें पसरी हुई हैं साँसों में
मेरे भीतर जो घटाएँ सिमटके बैठी हैं
झाँका करती हैं इनसे कुछ शबनमी बूँदें
देती अहसास ये कोई खनक सी अक्सर
जैसे दौलत जहाँ की खनखनाती हो भीतर
मैं सबमें बाँट दूँ दौलत ये सारी की सारी
और फिर मूँद लूँ आँखें जो खुली हैं अब तक ||
डॉ. प्रणव भारती
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सहर इरफान
1.
कहीं वीरान रास्तों पर
तुम्हें
जो में नज़र आऊँ तो
तुम हैरान मत होना
हाँ मेरा वास्ता तो था बहुत रंगीन राहों से
कि जब मैं खिलखिलाती थी
कि जब लड़ती झगड़ती थी
मगर अब मैं नहीं हूँ वो
मैं उसको छोड़ आई हूँ
किसी अंजान मेले में
किसी जंगल की झाड़ी में
मैं जिसको साथ लायी हूँ ,
वो बस खामोश रहती है
मुसलसल सोच में गुम है
किताबों कि सहेली है
मगर फिर भी अकेली है
बड़ी हसास लगती है
बहुत ही प्यार करती है
मगर खामोश रहती है .....
2.
यूं तो दर्द सीने में वो कमाल रखती है ।
सिवाए खुदके वो सबका ख्याल रखती है ॥
हाँ वो नाज़ों से पाली बाबा कि लाड़ली गुड़िया
न जाने कैसे वो हौसला बेमिसाल रखती है
लब पे लाती न थी कभी हर्फ़ ए शिकायत
अब वीरान आँखों में लाखों सवाल रखती है
आँख नम थीं लबों पर थी तबस्सुम उसके
न जाने कैसे अब इतना ज़ब्तो कमाल रहती है
दिल में यूं तो अपने दर्द का एक समुंदर लेकर
न जाने कहाँ आँसू वो सम्हाल रखती है
बेचैन शहर की वो पुरसुकून लड़की
रस्म ए दुनिया का कितना ख्याल रखती है ....
~ सहर इरफान
शिक्षा संकाय
जामिया मिल्लिया इस्लामिया
नई दिल्ली - 110025
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बाबा राम आधार शुक्ल,अधीर
मुक्तक
(1)
पथ प्रदर्शक भी पाये लगे घात में
घुट रहा दम सुधारस की बरसात में
कैसे कह दूं,अमावस्य गुनहगार है
काफिले लुट रहे चांदनी रात में।।
(2)
छू सके जो हदय को वही गीत है,
कर सके मन पे शासन वही जीत है,
सुख दे,शान्ति दे और समय पर मिले,
काम गाढे में आवे वही मीत है।।
(3)
परख मानुष की करना खिलौना नही,
बनके कातर दर-दर में रोना नही
भ्रम में न पड़ो हर चमक देखकर
हर चमकती हुई धातु सोना नही।।
-बाबा राम आधार शुक्ल,अधीर
अधीर कुटी,पूरे नन्दू मिश्र,जखौली, फैजाबाद
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चंचलिका
तन्हा #मन....
सोच की राह में भटकते हुए
ये कहाँ हम आते चले गये
यादों की घनेरी छाँव तले
खुद को दफ़नाते चले गये .....
हम " हम " ना रहे अलसाई शाम में
खुद ब खुद डूबते चले गये ......
बेगानों के बीच अपनों को
हर पल हम ढूँढ़ते चले गये ......
दरिया भी था फिर भी प्यासे हम थे
आँखों से प्यास बुझाते चले गये.....
कोहरे से लिपटी ख़ामोश रात में
दिल से दिल को पुकारते चले गये....
---- चंचलिका.
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मधुकर बिलगे
असल हाल ए जिंदगी छुपाया न होता
खुदा आज हमारा मुखालिफ न होता।
दवाम-ए-दर्द ने रोक दी दवा की ज़ुस्तज़ु
बगैर गम अब बसर नहीं होता।
मंजिल ए है की बस मुस्तक़िल रहूं आज
और कुछ होती गर हाल यह न होता।
अब ना जीने की चाहत है ना मरने का इंतजार
मैं काफिर होता गर कश-ए-दर्द न होता।
बेशक पैदा होती दिल में हसरत-ए-आलम
अगर गम से 'बिलगे' को इश्क़ न होता।
सदाकत-ए-जिंदगी पता नहीं किसी को
फिर खुदा होता मैं,मैं 'मैं' न होता।
-madhukar bilge
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तालिब हुसैन'रहबर'
सुनो!
तुम्हें याद है
वो हमारा बिछड़ना
नहीं हमारी आख़िरी मुलाक़ात
जब तुमने मुझे बेइंतहा
मोहब्बत के साथ
रुख़सत किया था
मैं भूल जाता तुम्हें
हाँ हरगिज़ भूल जाता
अगर उस रुख़्सती में
तुम्हारा गुस्सा होता
बेवफ़ाई के दावे होते
या वादे तोड़ने का दर्द
पर उसमें यह सब न था
थी तो बस
एक दूसरे की सलामती की दुआ
और
रुख़सत-ए-सफ़र-ए मोहब्बत
तुमने कहा था कि मुझे मोहब्बत नहीं तुमसे
एक बात बताऊँ
मैं आज भी
जब बेतकल्लुफी से
कागज़ पर
कलम चलाता हूँ न
तो तुम्हारा नाम लिख जाता है
सुनो मैंने मोहब्बत की थी
या नहीं
इसका मैं दावा नहीं कर सकता
पर आज भी
तुम्हें देख कर
बेजान गोश्त के टुकड़े
जिसे सब दिल कहते हैं
दर्द की सलाखें चुभ जाती है
सोचा था
तुमसे न मिलूँगा
न कभी देखूंगा
बहुत दूर निकल जाऊंगा
इस मोहब्बत के सफर से
पर
आज फिर तुम्हें देखा
तो
यह सफर मीलों- मील फिर
वापस आ गया....
तालिब हुसैन'रहबर'
शिक्षा संकाय
जामिया मिल्लिया इस्लामिया
नई दिल्ली-110025
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सतीश यदु
दुख दारुण हरण, मंगलकरण,
हे ! मारुतनंदन,हम है शरण |
करो यमन, हो जतन,
कोविद ऊनविंशति दमन ||
हे ! प्रभु करो गमन,
लाओ संजीवनी, हो शमन,
हरो यह कष्ट गहन !
बढ़ी अब विपदा सघन,
तेरे चरण में लागी लगन !
दुख दारुण हरण, मंगलकरण,
हे ! मारुतनंदन,हम है शरण |
करो यमन, हो जतन,
कोविद ऊनविंशति दमन ||
हस्त धावन करते निज भवन
कर रहे प्रतिपल यजन
होता देख मानवता रुदन
हरो मानुष का सजल नयन
हो रहा बरबाद चमन
दुख दारुण हरण, मंगलकरण,
हे ! मारुतनंदन,हम है शरण |
करो यमन, हो जतन,
कोविद ऊनविंशति दमन ||
है आपको बारंबार नमन
रक्षा करो तन,मन,धन
रहे बासंती अपना उपवन
त्राहिमाम कर रहा जन जन
अब भयमुक्त करो सुत पवन
दुख दारुण हरण, मंगलकरण,
हे ! मारुतनंदन,हम है शरण |
करो यमन, हो जतन,
कोविद ऊनविंशति दमन ||
कभी न किए तब मनन,
सनातन संस्कृति को रखी रहन,
पाश्चात्य सभ्यता की अरण्य रुदन,
अब ना होता यह सब सहन
कर दे अब हम सबको क्षमन
दुख दारुण हरण, मंगलकरण,
हे ! मारुतनंदन,हम है शरण |
करो यमन, हो जतन,
कोविद ऊनविंशति दमन ||
ए मेरे अहल ए वतन
चलो करें कोविद दहन
हो अमन के लिए हवन
ना रहे अब कोई टशन
रोग शोक दुख भय भंजन
दुख दारुण हरण, मंगलकरण,
हे ! मारुतनंदन,हम है शरण |
करो यमन, हो जतन,
कोविद ऊनविंशति दमन ||
नित कर रहे भजन
हर दिल हो रोशन
वसुंधरा हो निर्मल धवन
बहे निरंतर त्रिविध पवन
देश की माटी हो चंदन
दुख दारुण हरण, मंगलकरण,
हे ! मारुतनंदन,हम है शरण |
करो यमन, हो जतन,
कोविद ऊनविंशति दमन ||
सतीश यदु
कवर्धा, कबीरधाम
छत्तीसगढ़ 491 995
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सुधांशु रघुवंशी
१)वह शब्द जिसका उच्चारण ठीक
नहीं कर पाती थी तुम..
वही अशुद्ध उच्चारण है
मेरी कविता!
~ सुधांशु रघुवंशी
२)तुमने ईश्वर को रोते हुए नहीं सुना
इसलिए ही तुम समझते रहे
वर्षा हो रही है!
जब भरी दोपहर में पड़ रही थी ओस..
~ सुधांशु रघुवंशी
३)तुम्हारी हँसी बेआवाज़ थी
और रोने में शोर..
जब तुम प्रेम में थे!
अब, जब प्रेम तुममें है
तुम्हारी हँसी में शोर है
रोना.. बेआवाज़!
~ सुधांशु रघुवंशी
४)प्रेम ही सिखाता है हमें
हल्की-सी मुस्कान से
ब'आसानी परिवर्तित कर सकते हैं हम
सुख में दु:ख को!
~ सुधांशु रघुवंशी
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डाँ. विभुरंजन जायसवाल
गंगा-शांतनु-देवव्रत
विवाह की थी प्रतीप पुत्र संतन से
एक करार करा कर
इस करार को बरकरार रखी
तू शांतनु को त्याग कर
शांतनु भी सोच लिया
जग में होगा, कोई न कोई
और खेवैया
तेरे जैसी निर्दयी इस जग में
और कोई नहीं है मइया
तूने जन्म दिया
इस पवित्र भूमि पर
आठ-आठ वसुओं को
तेरे संकल्प के कारण
शान्तनु चुप रहा
इसलिए नहीं, कि तुम
वसु देवताओं को मारते जाओ
शान्तनु इस सदमे को
बर्दाश्त नहीं कर पाया
और तोड़ दिया
अपने संकल्प को
संकल्प तोड़कर
उसने बचाया
आठवें वसुओं को
शान्तनु ने बचाया
आठवें वसुओं को
लेकिन त्याग दिया
गंगा मैईया ने
भगवान जैसे पति
शान्तनु को
प्रशिक्षण पूर्ण कराकर
सौंप दिया
पुत्र देवव्रत-भीष्मपितामह
के रुप में शान्तनु को
तेरे जैसी
निर्दयी जग में
नहीं है कोई मैइया
तुझे हर कोई ठोकर मारकर भी
अपने को समझता है धन्य
सोचता है
उतर गया पार
मैं बिन खेवैया
फिर भी है जग में पूज्य तू, हे गंगा मैइया
डाँ. विभुरंजन जायसवाल
PhD
स्थानीय संपादक- सन्मार्ग
(हिन्दी दैनिक)
भागलपुर (बिहार)
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निमय मेवाड़ी
(१) खयालों में भी रहता नहीं है
जो है मन में उसके आजकल वो कहता नहीं है,
लगता है ज्यादा दर्द आजकल वो सहता नहीं है ।
खूब मिले भावों में बहने वाले उसको चौराहे पर,
पर देख के उसको लगा कि वो कभी बहता नहीं है ।
बेजुबान सी है बारिश जो हो रही उसके मोहल्ले में,
मगर मजबूत उसकी नींव जो कभी ढहता नहीं है ।
हर चुप्पी में भी मानो उसके लफ्तों का समंदर है,
सुना है वो जमाने की बातों को ज्यादा गहता नहीं है ।
खूब चाहा उससे मिलना हर आह के बाद ''निमय''
मगर सुना है वो किसी के खयालों में भी रहता नहीं है ।n
(२) दिल तोड़कर जा नहीं सकता
ढूंढ रहा हूँ उसको जिसे कभी पा नहीं सकता,
चाहकर भी हाल - ए - दिल जता नहीं सकता ।
लफ्ज कम हैं पर तन्हाईयाँ भी शोर मचा देती है,
गुजरा हुआ वक्त नहीं मैं जो कभी आ नहीं सकता ।
मेरी ही नामंजूर किस्मत ने गला पकड़ लिया मेरा,
वो कुछ सुनना भी चाहे मुझसे तो सुना नहीं सकता ।
दिल दुखाती है मेरा हिज की शब की इक याद भी
अयस का दिल हो जाए उसका मैं पिघला नहीं सकता
''निमय '' उसके दिल तक दौड़ होती नहीं है अब,
पहरा है नफरतों का,
दिल तोड़कर जा नहीं सकता ।
(३) सवाल हो जाता है
कभी कभी तो एक पल भी साल हो जाता है,
तुम्हें सोचते हुए भी खाली खयाल हो जाता है।
कभी कभी तो दिल का बुरा हाल हो जाता है,
इश्क में पी मय में मानो उबाल हो जाता है।
कभी कभी तो बेबात का मलाल हो जाता है,
याद आये बात तुम्हारी तो खस्ता हाल हो जाता है ।
कभी कभी बड़े खुशकिस्मत मानते हैं खुद को,
जब अदला- बदली उनसे हमारा रुमाल हो जाता है ।
''निमय'' तेरी मोहब्बत बड़ी आवारा सी हो गई,
कभी कभी तो इस पर भी सवाल हो जाता है।
(४) बस रोना माँगता है
वो नहीं किसी से मखमल का बिछौना माँगता है,
फुटपाथ नहीं बस खुद के घर में सोना माँगता है ।
इंसान है,
इंसान के हक तो मिल जायें उसे भी,
बस थोड़े से अधिकारों का खिलौना माँगता है ।
गरीबी में कट चुकी अंतड़ियाँ उसके पेट की,
अमीरों की बस्ती में रोजगार का दोना माँगता है
नहीं पहचान चाहिये उसे दुनियावालों की भीड़ में,
वो खुदा से पहले ही कद अपना बौना माँगता है ।
फिर भी वजूद गर उसका खतरे में हो ' 'निमय' '
वो लाचार बेसहारा जी भर के बस रोना माँगता है ।
(५) मूक बागबाँ फिर क्या करे
कोई अपना अपने को रुलाये तो गैर उसमें क्या करे
दर्द अपनों का हर दम सताए, मर्ज उसका कोई क्या करे ।
रोज रोता हूँ आठों पहर, पर उनको फिक्र होती कह,
गम छलकते हैं आसुओं में तो मय भी उसका क्या करे ।
दूर हूँ बस उनके खातिर, ये कभी समझ ना पाये वो,
हिम्मतें भी गर दम तोड़ देगी, तो उम्मीदें भी फिर क्या करे ।
कहीं जनाजे में बदल ना जाए रोज की ये टकरार इक दिन,
जब खो दे इंसाँ आदमीयत तो खुद खुदा भी उसमें क्या करे ।
प्यार का इक कतरा भी मिलना मुश्किल हो गया ''निमय'',
कटे की हो जब पैरवी तो मूक बागबाँ फिर क्या करे ।
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अमित 'मौन'
अग्निपरीक्षा
व्यर्थ बहाता क्यों है मानव
आँसू भी एक मोती है
जीवन पथ पर अग्निपरीक्षा
सबको देनी होती है
अवतारी भगवान या मानव
सब हैं इसका ग्रास बने
राजा हो या प्रजा कोई
सब परिस्थिति के दास बने
पहले लंका फ़िर एक वन में
सीता बैठी रोती है
जीवन पथ पर अग्निपरीक्षा
सबको देनी होती है
त्रेता, द्वापर या हो कलियुग
कोई ना बच पाया है
सदियों से ये अग्निपरीक्षा
मानव देता आया है
प्रेम सिखाती राधा की
कान्हा से दूरी होती है
जीवन पथ पर अग्निपरीक्षा
सबको देनी होती है
जीवन है अनमोल तेरा
पर क्षणभंगुण ये काया है
दर्द, ख़ुशी या नफ़रत, चाहत
जीवित देह की माया है
पत्नी होकर यशोधरा भी
दूर बुद्ध से होती है
जीवन पथ पर अग्निपरीक्षा
सबको देनी होती है
वाणी में गुणवत्ता हो बस
संयम से हर काम करो
कर्म ही केवल ईश्वर पूजा
जीवन उसके नाम करो
सुख, दुःख के अनमोल क्षणों में
आँखें नम भी होती है
जीवन पथ पर अग्निपरीक्षा
सबको देनी होती है
अमित 'मौन'
महाभारत मैं हो जाऊँ
जो बनना हो इतिहास मुझे
तो महाभारत मैं हो जाऊँ
पांडव कौरव में भेद नही
मैं किरदारों में ढल जाऊँ
जो मोह त्याग की बात चले
मैं भीष्म पितामह हो जाऊँ
सत्यवती शांतनु करें मिलन
मैं ताउम्र अकेला रह जाऊँ
जो पतिव्रता ही बनना हो
मैं गांधारी बन आ जाऊँ
फिर अँधियारा मेरे हिस्से हो
मैं नेत्रहीन ही कहलाऊँ
जो गुरू दक्षिणा देनी हो
तो एकलव्य मैं हो जाऊँ
बस मान गुरू का रखने को
अँगूठा अपना ले आऊँ
बात हो आज्ञा पालन की
तो द्रोपदी सी हो जाऊँ
मान बड़ा हो माता का
मैं हिस्सों में बाँटी जाऊँ
जब बात चले बलिदानों की
तब पुत्र कर्ण मैं हो जाऊँ
तुम राज करो सिंहासन लो
मैं सूत पुत्र ही कहलाऊँ
प्रतिशोध मुझे जो लेना हो
तो शकुनि बन के आ जाऊँ
मोहपाश का पासा फेंकूँ
और पूरा वंशज खा जाऊँ
जो जिद्दी मैं बनना चाहूँ
क्यों ना दुर्योधन हो जाऊँ
पछतावा ना हो रत्ती भर
मैं खुद मिट्टी में मिल जाऊँ
बात धर्म और सत्य की हो
मैं वही युधिष्ठिर हो जाऊँ
हो यक्ष प्रश्न या अश्वत्थामा
मैं धर्मराज ही कहलाऊँ
आदर्श व्यक्ति की व्याख्या हो
बिन सोचे अर्जुन हो जाऊँ
पति, पिता या पुत्र, सखा
पहचान मैं अर्जुन सी पाऊँ
तुम बात करो रणनीति की
मैं कृष्ण कन्हैया हो जाऊँ
बिन बाण, गदा और चक्र लिये
मैं युद्ध विजय कर दिखलाऊँ
अमित 'मौन'
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निशेश अशोक वर्धन
(1)समयचक्र
उदय की गोद में अवसान का लघु बीज पलता है।
गगन से आग बरसाकर प्रखर सूरज भी ढलता है।
बहुत से राजवंशों का हुआ उत्थान धरती पर।
समय की आँधियों में बुझ गए वो दीप-सा जलकर।
अखिल संसार के स्वामी हुए हरिश्चंद्र सतयुग में।
उन्हें जीना पड़ा दासत्व में,चांडाल के घर में।
सकल त्रयलोक की निधियाँ रहीं बलि दैत्य की दासी।
दिवस एक हारकर हरि से हुए पाताल के वासी।
हुआ अभिमान रावण को, अमर उसकी बनी काया।
समय वो भी चला आया,लुटा वैभव,मिटी काया।
युधिष्ठिर की विपुल सुख-संपदा सबको रिझाती थी।
विकट वनवास में निशिदिन,नियति काँटे सजाती थी।
प्रबल गति से निरंतर काल का यह अश्व चलता है।
कभी चढ़ता विकट पर्वत,कभी भू पर उतरता है।
समय की है समझ जिसमें,दशा जो जान लेता है।
मिलाकर ताल चलता है,उसे जग मान देता है।
विषम विपदा के कानन से पवन जब भी निकलता है।
सुरभि अनमोल अनुभव की सदा ले साथ चलता है।
बुरे दिन के हलाहल का,जो हँसकर पान करता है।
वही निर्जीव पत्थर में सदा ही प्राण भरता है।
वृथा जो मानता सुख को,दुखी दुख में नहीं होता।
सदा हिय में परम आनंद का अनुभव उसे होता।
सतत निष्काम हो कर्तव्य का निर्वाह जो करता।
सहजता से विकट भवसिन्धु को वो पार है करता।
(2)आत्मगीत
एक दिन जला देंगे सभी,तुमको विकट शमशान में।
भ्रम पालना अविवेक है,इस देह के अभिमान में।
तुमको समझ आती नहीं,यह सृष्टि का सिद्धांत है।
निज हाथ से विधि ने लिखा,सब प्राणियों का अंत है।
जो है यहाँ अधिकार में,वह साथ में जाता नहीं।
अच्छे-बुरे सब कर्म का,इतिहास रह जाता यहीं।
उर में बसा लेते यहाँ,शुभ कर्म वालों को सभी।
पापिष्ट नर के नाम से,करते घृणा जग में सभी।
अपने लिए जीना सदा,पशु-जाति की पहचान है।
करुणा-दया-संवेदना,मनुजत्व के वरदान हैं।
जो वार दे निज प्राण भी, इस सृष्टि के उपकार में।
पूजित वही होता सदा,बन युगपुरुष संसार में।
दृग से निरंतर अश्रु में,झरती जहाँ हिय-वेदना।
उन आँसुओं को पोंछ दो,देकर हृदय से सांत्वना।
हरि के विमल आशीष की,छाया रहेगी शीश पर।
निज कर्म के परिणाम को,तुम छोड़ दो जगदीश पर।
श्रम से मिली संपत्ति पर,अधिकार होना चाहिए।
मुख से सदा ही सत्य का,उद्गार होना चाहिए।
सेवित तुम्हारे कर्म से,संसार होना चाहिए।
अघसिन्धु में डूबे धरा,उद्धार होना चाहिए।
जीवन समर्पित हो सतत,संसार के कल्याण में।
मृदुभाव की भागीरथी,बहती रहे तव प्राण में।
वसुधा सदा साधुत्व का,जयघोष है उच्चारती।
सम्मान के शत दीप से,सदियाँ सजातीं आरती।
रचनाकार-----निशेश अशोक वर्धन
उपनाम---निशेश दुबे
ग्राम+पोस्ट---देवकुली
थाना---ब्रह्मपुर
जिला--बक्सर(बिहार)
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दुर्गेश कुमार सजल
निर्लज्जता
सोन चिरैया प्यासी प्यासी,
नदी नीर के बिना मरी |
वलन पड़े मानव हृदय में,
खूब तड़पती है गगरी |
चहक चहक कर बहक रहे हैं,
नव पंखों को पाने वाले |
स्वर्ण चर्वणा दिखा रहे वे,
देते नहीं मगर निवाले |
बैरी मन भी लगा हुआ है,
द्रव्यों के ही सृजन में |
ममता नेह प्रेम की गठरी,
होती क्षीण विसर्जन में |
दिखे नीड़ में अस्थि पंजर,
किसने माँ को रोक लिया |
मत मारो रे पंछी को,
तुम्हें ना उसने शोक दिया |
मानव नहीं रे तू ढाँचा है,
केवल अस्थि मज्जा का |
आज आँकड़े तोड़ रहा है
रे दानव तू निरलज्जा का |
दुर्गेश कुमार सजल
उच्च शिक्षा उत्कृष्टता संस्थान भोपाल
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मधु वैष्णव
।वंदन।
नव संवत्सर आगमन से
झूम उठी झांझर तन मन की।
आदिशक्ति हे अंबा भवानी ,
खिल जाए उम्मीद उमंगों के बाग मां।
कर श्रंगार लगाई अखंड ज्योत,
नवनीत भोग अर्पण करूं तुझे मां।
संकट विपदा हरणी,
तू है जग जननी मां।
रिद्धि सिद्धि से भरे भंडार,
तू है सब कल्याणी मां।
छाया संकट महामारी का
टल जाएगा,
आदि शक्ति है दुःख तरणी मां।
गरबा है प्रतीक सौभाग्य का,
मधु चलो संग सखियों से मुस्कुराती हैं मां।
मधु वैष्णव ( जोधपुर )
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धीरज शाहू, ' मानसी '
अहसास बन कर, रूह में रवा थे वो,
दूर थे मगर दिल से कहां जुदा थे वो.
दूर दूर से सदा परस्तिश की उनकी,
छू कर कैसे देखते उन्हें, खुदा थे वो.
उनकी कुछ मज़बूरी हो सकती थी,
ऐसे कैसे कह दे भला, बेवफ़ा थे वो.
ख्वाबों में, यादों में आते थे मिलने,
दिल कैसे माने, मुझसे खफा थे वो.
दिल ए नज़र से देखते तो दिखते, मानसी
मेरी तो हर तहरीर में ही बयां थे वो.
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रौंदी गई, कुचली गई, छली है बेटियां,
डर औे दर्द के साए में पली है बेटियां.
जुनूनियत, हैवानियत का हुई शिकार,
बारहा तेज़ाब आग से जली है बेटियां.
कहीं कोई हादसा ही न पेश आ जाए,
रास्तों पर डर डर कर चली है बेटियां.
बदलते वक़्त में, रखा आदर्श कायम,
त्याग, ममता के रंग में ढली है बेटियां.
मां बाप का अब तो बनी हुई है सहारा,
कपूतों से तो कई गुना भली है बेटियां.
सहेजो, संभालो, दुलार करो, मानसी
महकती हुई, जूही की कली है बेटियां.
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एक गम भुलाने के लिए दूसरा दर्द उधार ले,
जिंदगी है बड़ी, ऐसे ही, किश्तों में गुज़ार ले.
ख़ुशी के लम्हें, मशरूफ है औरों के लबों पर,
गम है फुर्सत में आ जायेंगे दिल से पुकार ले.
याद कर, आह भर, आंसू बहा, दिल बहला,
कुछ इस तरह से इश्क़ का कर्ज भी उतार ले.
हर ज़ख्म को सीने से लगा, दर्द दिल में दबा,
जख्मों से ही, जिंदगी को सजा ले, सवार ले.
अपने गुज़रे वक़्त से ले सीख कोई, मानसी
अपनी जिंदगी की, सारी गलतियां सुधार ले.
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धीरज शाहू, ' मानसी '
कलमना, नागपुर - 26
0000000000000
आत्माराम यादव पीव
हम इंसान कहलाने योग्य कब होंगे ?
दिल्ली सुलग रही है
ओर देश चुप है
देश का आम आदमी चुप है
पता नहीं क्यों कुछ विशेष आततायी
भीड़ में घिनौना चेहरा लिए
आसानी से फूँक देते है मकान-दुकान
जला देते है राष्ट्र की संपत्ति ।
उखाड़ फेंकते हैं
पीढ़ी दर पीढ़ी रह रहे
लोगों के इंसानी रिश्ते
फूँक देते है उनके आशियाने
तबाह कर देते है
उनकी वर्षों के खून पसीने से
सजाये गए सपनों को ।
सड्कों पर बहा देते है लहू
एक शांत शहर को अशांत कर देती है
छद्म राजनेताओं की कुत्सित चाले
ओर मैं चुप होता हूँ
जनता चुप होती है
देश चुपचाप जलता है ।
ये चुप्पी रोक देती है विकास
जनता का लाचार होना
देश का बेबसी जतलाना
कितना दर्द देता है उन्हें
जिनका जलकर सबकुछ स्वाहा हो जाता है ।
जनता क्यों नहीं तोड़ती है चुप्पी
नफरत की जंग लड़ने वाले
अमानवीय चेहरों को
बेनकाब क्यों नहीं करती
जाति रंगभेद की दीवारें
क्यों खत्म नहीं करती
क्यों स्वार्थलोलुप दल
दल-दल से बाहर नहीं निकलते हैं
ये चुप्पी खत्म होनी चाहिए
नियम कानून बनाना-हटाना
देश के संविधान के दायरे मेँ हो
राजनीति का कुरूप चेहरा
तभी बेनकाब होगा
जब जनता जागेगी
पीव हम योग्य कब होंगे ?
जब भारत में इंसान कहला सके ।
--
मेरा घर बने न कभी पराया
माता पिता ने दी दुआयें , आसमान में बिखर गयी
बेटा आसमान का तारा बने, प्यारभरी ये दुआ रही।।
दादा-दादी की भी दुआयें, कभी नहीं खाली गयी
कोई नहीं हो उनके पास, किसी से वे नाराज नहीं।।
दिन कट जाये पर रात नहीं कटती, बुढ़ापा कैसा हाये
कसर न छोड़ी लालन पालन में, क्यों बच्चे हुये पराये।।
सोच-सोच कर माता-पिता दुखी है,कैसे दिन थे हमारे
जो ऑखों के तारे थे अपनी, कहॉ गये वे प्यारे-प्यारे।।
जिद कर मॉगी गुड़िया, बचपन के दिन बेटा भूल गया
घोड़ा बना पिता की सवारी, करना बेटे का छूट गया।।
मॉ गोदी में बेटे को लेकर, किस्से परियों के सुनाती थी
आसमान का तारा बेटा, थपकी देकर लोरी गाती थी ॥
पिता दिलाते खेल-खिलौना, हाथी-घोड़ा राजा रानी
और खिलाते मीठे रसगुल्ले, रसमलाई कुल्फी मस्तानी।।
नम ऑखों से सारे किस्से, दोनों एक दूसरे को सुनाते
दिन गुजारे रात गुजारे, हाय बुढ़ापा बेटे काम न आते।।
हौले हौले आसमान पर बेटे को उछालना याद आता है
इतने प्यारे बच्चे सारे, संग उनके जीना याद आता है।।
पीव मुश्किल में है वक्त हमारा, बीमार हुई ये जर्जर काया
काश सभी एक हो जाये, मेरा घर बने न कभी पराया।।
--
आओ शरण धूनीश्वर की
ए दिल, तू पुकार धूनीधर को,
तेरी टेर सुनेंगे कभी न कभी।
वे दीनदयाल हरिहर है
दिन तेरे फिरेंगे कभी न कभी ।
हे मोहन मधुर प्रभाधारी,
जब देखें नजर परम प्यारी।
बस धन्य बने तू उसी क्षण में,
तेरा दर्द हरेंगे कभी न कभी।
दर पर नित फेरी लगाता जा
अपना दुखदर्द सुनाता जा।
जब मौज में आयेंगे मेरे प्रभु,
तब पूछ ही लेंगे कभी न कभी।
जब मश्तह मुक्तभ इठलाते हैं
अरू प्रेम प्रसाद लुटाते हैं ।
जय दादाजी रटते रहना,
तेरी झोली भरेंगे कभी न कभी।
षठ बैरी नित दुख देते हैं
हम दासों से बदला लेते हैं।
पीव आ जाओ शरण धूनीश्वर की
स्वीकार करेंगे कभी न कभी ।
--
सिगरेटी का अंजाम है मरघट
क्यों पीता है तू बीड़ी सिगरेट
मिलने वाली है क्या तुझे भेंट?
तृप्ति नहीं देती है यह तन को
यह उजाड़ रही है तेरे जीवन को।
सिगरेट से क्यों बना हुआ अंजान
यह सिर्फ केन्सर का है सामान।
धंए में क्यों सुलगा रहा है दिल को
खुद ही छल रहा है अपने जीवन को।
अशुभ है सिगरेटं का पहला चुंबन
होठों से लगा लुटता तन मन धन।
होठों से हटा तू यह राख का झाड़
तेरे दिल को जला कर रहा दोफाड़ ।
बददिमागी आज ही तू छोड़ सिगरेट
भाग्य को न रोना पड़े छोड़ तू हट ।
पीव सिगरेटी का अंजाम है मरघट
जीवन से प्रीतिकर भाग तू सरपट।।
--
आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार
काली मंदिर के पीछे, पत्रकार आत्माराम यादव गली
वार्ड नंबर 31 ग्वालटोली होशंगाबाद मध्यप्रदेश
मोबाइल -99933766, 7879922616
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प्रीति शर्मा "असीम"
किताबें भी एक दिमाग रखती है
किताबें भी ,
एक दिमाग रखती हैं।
जिंदगी के,
अनगिनत हिसाब रखती है।
किताबें भी,
एक दिमाग रखती हैं।
किताबें जिंदगी में,
बहुत ऊंचा ,
मुकाम रखती है ।
यह उन्मुक्त ,
आकाश में,
ऊंची उड़ान रखती है।
किताबें भी ,
एक दिमाग रखती हैं ।
जिंदगी के,
अनगिनत हिसाब रखती हैं।
हमारी सोच के ,
एक -एक शब्द को ,
हकीकत की ,
बुनियाद पर रखती है।
किताबें जिंदगी को ,
कभी कहानी ,
कभी निबंध ,
कभी उपन्यास ,
कभी लेख- सी लिखती है ।
किताबें भी,
एक दिमाग रखती है ।
जिंदगी के ,
अनगिनत हिसाब रखती है।
यह सांस नहीं लेती ।
लेकिन सांसो में ,
एक बसर रखती है।
जिंदगी की ,
रूह में बसर करती है।
स्वरचित रचना
प्रीति शर्मा "असीम"
नालागढ़ हिमाचल प्रदेश
----
इसी का नाम है नारी
अपने -आप में,
एक सम्पूर्ण कहानी।
इसी का नाम है नारी।।
जीवन की संवेदना,
मर्म की मूक निशानी।
भाव-मय ,
ममता-मूरत,
समर्पित जीवन की रवानी।।
इसी का नाम है नारी।
कितने रूपों में,
समा जाती .
जीवन को,
स्वर्णिम कर जाती।
घर की परिकल्पना,
तुम्हीं पर धरी जाती।
पूजित हर पल ,
हर कहीं जाती।
सृष्टि को सृजित कर जाती।
कुछ शब्दों में,
कैसे तोलूं,
नपे- तुले शब्दों में,
कैसे बोलूं।
सिर्फ एक दिन तेरे नाम करूँ।
क्यों.......?
ईश्वर का गुनाहगार बनूँ।
तुम तो,
हर शब्द में,
हर दिन में,
हर -पल में समाती हो।
जीवन की,
परिपाटी।
अनुपम कल्पना।
इसी का नाम है नारी।
इसी का नाम है नारी।।
- प्रीति शर्मा "असीम" नालागढ़ हिमाचल प्रदेश
----
प्रकृति ,मानव और कोरोना
प्रकृति और मानव का ,
जब तक संतुलित साथ रहेगा।
जीवन की धारा का,
निरंतर तभी तक विस्तार रहेगा।
कद्र मानव जब तक प्रकृति की।
नहीं करेगा।
तब तक आपदाओं का ,
ऐसे ही मचता संहार रहेगा।
प्रकृति और मानव का,
जब तक संतुलित साथ रहेगा।
मानव ने प्रकृति से ,
जब -जब है खेला ।
कभी भूकंप .....
कभी सुनामी ......
अब आकर भीषण आपदा ,
कोरोना आ घेरा।
प्रकृति को संभालो ,
यह रक्षक है मानव की ,
न दौड़ो विकास की अंधी दौड़।
कहीं नहीं मिटेगी यह लंबी होड़ ।।
नाश जब -जब करोगे ।
तब -तब तुम मानव ,
प्रकृति का सामना करोगे।
किसी न किसी ,
महामारी का सामना करोगे।
स्वरचित रचना
प्रीति शर्मा "असीम"
नालागढ़ हिमाचल प्रदेश
---
-मिलकर कदम बढ़ाना होगा
मिलकर कदम बढ़ाना होगा।
सृष्टि पर आए संकट से ,
सबको हमें बचाना होगा ।।
कोरोना को विध्वंस करके ,
जगत को,
वायरस मुक्त बनाना होगा ।।
संपूर्ण जगत के हर मानव को,
अब, मिलकर
कदम से कदम बढ़ाना होगा।।
सृष्टि पर आए संकट से ,
सबको हमें बचाना होगा।
स्वच्छता का ध्यान ,
अब रखना होगा।
जनसंख्या विस्फोट,
को भी मथना होगा।
बढ़ते कचरे को,
भी थमना होगा।
मिलकर कदम बढ़ाना होगा
तरक्की की अंधी दौड़ में ,
मशीनी मानव बनती दुनिया को,
मानवीय चिंतन का ,
सबक सिखाना होगा।
संपूर्ण जगत के हर मानव को ,
अब मिलकर ,
कदम से कदम बढ़ाना होगा।
जीवन पर जो संकट बना है।
उसका हल ...........
अब सावधानी से पाना होगा ।
फिर से जीवन सजल हो ,
पावन धरा पर ,
सबको
मिलकर कदम बढ़ाना होगा।
प्रीति शर्मा "असीम "
नालागढ़ हिमाचल प्रदेश
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नाथ गोरखपुरी
#कुण्डलियां
रंग लगा के चला गया, पिय मेरा परदेश
रात उलझ के रह गई, जैसे काले केश
जैसे काले केश विषधर हों काले काले
नीला बदन पड़ गया सुन मेरे मतवाले
तेरे प्रीति में मैं पड़कर जैसे पिली भंग
श्याम लवटि के आ फिरै लगा दो रंग
गलती कर स्वीकार , तो मन हल्का होय
उससे अनुभव जो मिले,गलती फिर ना होय
गलती फिर ना होय जो करे सीख पे काज
आगे बेहतर होइहें , करम लीजिये साज
दुनिया का दस्तूर है, ऐसे ही दुनिया चलती
हर कोई है सीखता , सबसे होती गलती
जगमें सबसे तुम रखो, मधुर प्रेम व्यवहार
एक दिन ऐसा आएगा , जीत लोगे संसार
जीत लोगे संसार , बाधाओं से लड़ कर
एक-दूजे के सुख-दुख , बाटों आगे बढ़कर
जीवन पथ के कंटक , नहीं चुभेंगे पगमें
तेरे इस व्यवहार से , यश बढ़ेगा जगमें
#गज़ल
तेरा नाम हवाओं पर लिखा मैंने
सुबहोशाम फिजाओं पर लिखा मैंने
के पहुँचे तुझ तक मोहब्बत मेरी
पैगाम घटाओं पर लिखा मैंने
गुम हो ना जाए ये मोहब्बत की नस्ल
इल्ज़ाम खताओं पर लिखा मैंने
तुझे ना रुसवा करे ये जमाना
कलाम वफाओं पर लिखा मैंने
#काव्यगीत
पलट आ ओ मुसाफ़िर मंजिल के, रास्ता है ग़लत तुमने चुन लिया
अभी है वक़्त सम्भलने का दिल ने धड़कन है सुन लिया
ये राहे हैं मोहब्बत की, तुझे जाना मिलन तक है
ये राहें हैं इबादत की, तुझे जाना सनम तक है
तेरे चाहत ने थोड़ा सा , गलत है ख़्वाब बुन लिया
पलट आ ओ मुसाफ़िर मंजिल के............
मोहब्बत की जो मंजिल है, ख़ुदा की वो ख़ुदाई है
कभी मिलना मोहब्बत है, कभी तो वो जुदाई है
है तड़पा वो मोहब्बत में ,जो फूलों को ही चुन लिया
पलट आ ओ मुसाफ़िर मंजिल के........
तुझे जाना जहाँ तक है, मोहब्बत है अधूरी वह
अगर पाना ही हसरत है मोहब्बत है अधूरी वह
तेरे हिस्से में ग़र सुन ले जुदाई आ ही जाती है
निभाने की ना चाहत है मोहब्बत है अधूरी वह
पलट आ ओ मुसाफ़िर मंजिल के, रास्ता है ग़लत तुमने चुन लिया
अभी है वक़्त सम्भलने का दिल ने धड़कन है सुन लिया
- नाथ गोरखपुरी
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मुरसलीन साकी
आओ इक आशियाँ बनाते हैं,
दूर सारे जहां से जाते हैं।
इक सितारा जो टूट जाये मगर
सब का दामन मुराद से भर दे
एक जुगनू जो मुख्तसर ही सही
दूर हर शैय से तीरगी कर दे
इक दरीचा बहार की जानिब
जिस से खुशबू-ए-अमन आती हो
एक कोयल जो नग्मा गाती हो
उसको अपना चमन बताती हो
एक गुलशन हजार रंगों का
जिस से बाद-ए-सबा गुजरती हो
एक दरिया कि जिस के पानी में
रोज ही चांदनी उतरती हो
कितना पुर कैफ ख्वाब है साकी
हां मगर लायके तगईर नहीं
बारहा हँस के दिल को समझाया
वो एक ख्वाब जो शरमिन्द-ए-ताबीर नहीं
लायके तगईर (बदले जाने के काबिल)
मुरसलीन साकी
लखीमपुर-खीरी उ0प्र0
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निज़ाम-फतेहपुरी
ग़ज़ल- 221 2121 1221 212
अरकान- मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
शिकवा गिला मिटाने का त्योहार आ गया।
दुश्मन भी होली खेलने को यार आ गया।।
परदेसी सारे आ गए परदेस से यहाँ।
अपना भी मुझ को रंगने मेरे द्वार आ गया।।
रंगे गुलाल उड़ रहा था चारों ओर से।
नफ़रत मिटा के देखा तो बस प्यार आ गया।।
ठंडाइ भांग की मिलि हमने जो पी लिया।
बैठा था घर में चैन से बाज़ार आ गया।।
खेलो निज़ाम रंग भुला कर के सारे ग़म।
सबको गले लगाने ये दिलदार आ गया।।
निज़ाम-फतेहपुरी
ग्राम व पोस्ट मदोकीपुर
ज़िला-फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)
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अशोक कुमार
आग लगी हो जब चमन में
कैसे सुखी रह पायेंगे
घुटने लगे जब दम जहरीली हवा में
सांसे कैसे चैन से ले पायेंगे
नफरत फैल रही जिस कदर शहर में
प्यार कैसे इस चमन में फैलायेंगे
नोच रहे गिद्ध कलियों को
गुलशन को कैसे महकायेंगे
झगड़ रहे मजहब के नाम पर सभी
प्रगति कैसे कर पायेंगे
लाशें बिखरी इधर -उधर
इतने कफन कहाँ से लायेंगे
रूह मेरी रोती देख आग इधर -उधर
सुनियोजित होता हमला
इंसानियत जैसे मानो गयी हो मर
चैनल बने तमाशबीन
खाकी हुई शर्मसार
अपशब्दों से करते नेता एक दूसरों का सत्कार
वादे कैसे पूरे करे सरकार
विघ्न हरो विघ्नेश्वर
प्रभु कही भी न हो इस पावन धरा पर संहार
INDIA 17-12-2019
©®
ASHOK KUMAR
(PRINCIPAL)
NEW BASTI PATTI CHAUDHARAN
BARAUT BAGHPAT
UTTAR PRADESH
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डॉ. कन्हैयालाल गुप्ता
108. अभिलाषा
मेरी अभिलाषा है कि मैं तेरा ही बस बन के रहूँ।
तेरी निगाहों के आगे रहूँ,तेरी ही धड़कनों में रहूँ।
तेरी यादों में मै सोऊ,तेरी यादों में मै जागता रहूँ।
तेरी साँसों की खूशबू बन,तेरी मधुबन की फूल रहूँ।
तेरे यौवन का बन श्रृंगार, तेरे मन का मनमीत रहूँ।
तेरे पायल की घूँघरू बन, छनछन मै बस बजता ही रहूँ।
तेरे होठों का गीत बनूँ, तेरे अधरों पे सँजता ही रहूँ।
तेरे आँखों का काजल बन, तेरी आँखों में बसता ही रहूँ।
तेरे नयनों की ज्योति बनूँ, जित जित देखों जलता ही रहूँ।।
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आलोक कौशिक
(1) *प्रेम दिवस*
चक्षुओं में मदिरा सी मदहोशी
मुख पर कुसुम सी कोमलता
तरूणाई जैसे उफनती तरंगिणी
उर में मिलन की व्याकुलता
जवां जिस्म की भीनी खुशबू
कमरे का एकांत वातावरण
प्रेम-पुलक होने लगा अंगों में
जब हुआ परस्पर प्रेमालिंगन
डूब गया तन प्रेम-पयोधि में
तीव्र हो उठा हृदय स्पंदन
अंकित है स्मृति पटल पर
प्रेम दिवस पर प्रथम मिलन
..........
(2) *भारत में*
भारत में पूर्ण सत्य
कोई नहीं लिखता
अगर कभी किसी ने लिख दिया
तो कहीं भी उसका
प्रकाशन नहीं दिखता
यदि पूर्ण सत्य को प्रकाशित करने की
हो गई किसी की हिम्मत
तो लोगों से बर्दाश्त नहीं होता
और फिर चुकानी पड़ती है लेखक को
सच लिखने की कीमत
भारतीयों को मिथ्या प्रशंसा
अत्यंत है भाता
आख़िर करें क्या लेखक भी
यहां पुत्र कुपुत्र होते सर्वथा
माता नहीं कुमाता
..........
(3) *कवि हो तुम*
गौर से देखा उसने मुझे और कहा
लगता है कवि हो तुम
नश्तर सी चुभती हैं तुम्हारी बातें
लेकिन सही हो तुम
कहते हो कि सुकून है मुझे
पर रुह लगती तुम्हारी प्यासी है
तेरी मुस्कुराहटों में भी छिपी हुई
एक गहरी उदासी है
तुम्हारी खामोशी में भी
सुनाई देता है एक अंजाना शोर
एक तलाश दिखती है तुम्हारी आँखों में
आखिर किसे ढूंढ़ती हैं ये चारों ओर
..........
*गीत*
मैं तो हूं केवल अक्षर
तुम चाहो शब्दकोश बना दो
लगता वीराना मुझको
अब तो ये सारा शहर
याद तू आये मुझको
हर दिन आठों पहर
जब चाहे छू ले साहिल
वो लहर सरफ़रोश बना दो
अगर दे साथ तू मेरा
गाऊं मैं गीत झूम के
बुझेगी प्यास तेरी भी
प्यासे लबों को चूम के
आयतें पढ़ूं मैं इश्क़ की
इस कदर मदहोश बना दो
तेरा प्यार मेरे लिए
है ठंढ़ी छांव की तरह
पागल शहर में मुझको
लगे तू गांव की तरह
ख़ामोशी न समझे दुनिया
मुझे समुंदर का ख़रोश बना दो
....................
:- आलोक कौशिक
000000000000000
डॉ यास्मीन अली
अरे!वो मज़दूरिन ही तो है!
अरे!वो एक मज़दूरिन ही तो है!वो भी ध्याड़ी की,
उसके माथे पर लिखा भाग्य उसका
जन्म भी लिया मज़दूर पिता के घर,
देखा उसने बचपन से माँ को पिता का हाथ बंटाते
कभी गारा उठाते,कभी कँकड़- पत्थर उठाते ।।
अरे!वो एक मज़दूरिन ही तो है!!!!....
जो हुई बड़ी तो ब्याह दी गई एक मज़दूर के साथ।
फिर उसका भी जीवन माँ की भाँति चल पड़ा उसी
परिपाटी पर,अब पति -साथ काम पर वो है जाती।
कभी गारा उठाती,कभी उठाती ईंट -पत्थर।।
अरे!वो एक मज़दूरिन ही तो है!!!!!....
हुई गर्भवती पर न बदला जीवन उसका वही दिनचर्या,
वही बोझ उठाना,पोंछकर पसीना है पैसा कमाना।
दिनभर जलती है कड़ी धूप में,तब जाकर शाम में
जलता चूल्हा उसका।
अरे!वो एक मज़दूरिन ही तो है!!!!....
होती है जब कोई हलचल कोख में उसकी,
भर जाता है तब मन मातृत्व-भाव से,पलभर
खो जाती है फिर अगले ही क्षण पुनः कर्मरत्
हो कभी गारा , कभी पत्थर उठाती है।।
अरे!वो एक मज़दूरिन ही तो है!!!!....
हैं भावनाएं उसके भी मन में,पर भावनाओं
पर उसका कोई सरोकार नहीं। वही बोझ,
वही नियति उसकी। खोदना कुआँ रोज़
फिर पीना है पानी,यही है उसकी कहानी।।
अरे!वो एक मज़दूरिन ही तो है!वो भी ध्याड़ी की!!!!!!
डॉ यास्मीन अली
हल्द्वानी,नैनीताल
उत्तराखंड।
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डॉ नन्द लाल भारती
जश्न
हमारी मत पर तुम रोना मत प्यारे
हमारी मौत तुम्हारे लिए
जश्न की बात होगी
हम समझ चुके हैं तुम्हारी समझ को
हमारी मौत के बाद तुम स्वच्छंद हो जाओगे
तुम्हें टोकने वाले ना होंगे
वैसे भी तुम हमारी कहाँ सुनते थे
हमारी हर बात तुम्हें दकियानूसी लगती थी
मां तुम्हें अनपढ़ गंवार लगती थी
तुमने हमें बदनामी के हर खिताब दिये
कब्र के करीब ढकेलते रहे
साजिश में भले ही तुम शामिल न थे
दोषी तो बहुत रहे
ठग सास-ससुर और उनकी कुलक्षणा बेटी को
खुश रखने के लिए
तिल तिल मारते रहे मदहोश तुम
हमारे दर्द का तनिक एहसास ना हुआ तुम्हें
मां की तपस्या पिता के त्याग का चीरहरण
तुम्हारी पत्नी ने तुम्हारे हाथों करवा दिया
तुम खुश होते रहे
अस्मिता की बोटी- बोटी करते रहे
ठग सास ससुर और उनकी
हाफमाइण्ड हाफब्लाइण्ड बेटी के लिए
हम पल-पल मरते रहे और तुम बेखबर थे
हमारी मौत के बाद खबर होगी तुम्हें
मजे की बात होगी कि हम ना होंगे
हाँ हमारा विहसता हुआ फर्ज होगा
जिस तुम्हें भले ही असन्तोष था
लोगों के लिए गुमान की बात होगी
हां तुम अपने कटुबातों सौतेला, बेशर्म,
लोगों के बीच हमारी इज्ज़त का जनाजा भी
पर खुश हो सकते हो
हम जानते हैं पहले तुम ऐसे बेमुरव्वत
बेटा-बेटी ना
पांव जमते सात फेरे पूरे होते ऐसे हो गए
जिसका किसी को अंदाज ना
प्यारे बेटों बेटियों हमारी मौत पर
आँसू नहीं बहाना
जश्न जरूर मनाना,
हमारी मौत तो बहुत पहले हो चुकी थी
तुम लोग जब बागी होकर
हमारे विरोध में कसीदे पढ़ने लगे थे
हमारी दुआएं तुम्हारे साथ सदा रही
और रहेगी
तुम दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करो
यही सपना है और रहेगा
खुश रहना तुम्हारे जीवन बगिया मे
सदा बसन्त रहे
हम बेशर्म -सौतेले बेवफा मां-बाप को भूल जाना
एक बात और हमारी मौत पर झूठे आंसू नहीं
जश्न मनाना .......
डां नन्द लाल भारती
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डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
528 हर्ट्ज़
सुना है संगीत की है
एक तरंग दैर्ध्य ऐसी भी।
जो बदल देती है हमारा डीएनए।
सुनकर 528 हर्ट्ज़ का यह संगीत
बन जाते हैं रावण के वंशज - बच्चे राम के।
हो जाता है कभी विपरीत भी इसका।
कभी खत्म हो जाती है पूर्वजों की दी बीमारियां।
तो कभी नाखूनों में लग जाता है स्वतः ही कोई वाइरस।
यानी कि अच्छा-बुरा सब कर देती है
ये थेरेपी।
और...
सुना है उस तरंग दैर्ध्य का एक नाम-
राजनीतिक दल-बदल भी है।
-0-
मेरे ज़रूरी काम
जिस रास्ते जाना नहीं
हर राही से उस रास्ते के बारे में पूछता जाता हूँ।
मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।
जिस घर का स्थापत्य पसंद नहीं
उस घर के दरवाज़े की घंटी बजाता हूँ।
मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।
कभी जो मैं करता हूं वह बेहतरीन है
वही कोई और करे - मूर्ख है - कह देता हूँ।
मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।
मुझे गर्व है अपने पर और अपने ही साथियों पर
कोई और हो उसे तो नीचा ही दिखाता हूँ।
मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।
मेरे कदमों के निशां पे है जो चलता
उसे अपने हाथ पकड कर चलाता हूँ।
मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।
और
मेरे कदमों के निशां पे जो ना चलता
उसकी मंज़िलों कभी खामोश, कभी चिल्लाता हूँ।
मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।
मैं कौन हूँ?
मैं मैं ही हूँ।
लेकिन मैं-मैं न करो ऐसा दुनिया को बताता हूँ।
मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।
-0-
डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
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संजय कुमार श्रीवास्तव
होली
होली का त्योहार सुहाना लगता है
बीते कल की याद दिलाने आता है
भक्त प्रह्लाद की याद सभी को आती है
होली जब जब रूप रंगों से मिलती है
चाहे दुश्मन हो या हो अपना बेरी
सबको गले लगाये यही है शुभ होली
ब्रज की होली देश में सबसे न्यारी है
श्याम रंग में रंग गई दुनिया सारी है
इस बार होली का रंग कुछ ऐसा खिल जाए
सारे दोस्त पुराने फिर से मिल जाए
खा के गुजिया पीके भंग लगा के थोड़ा थोड़ा सा रंग
बजा के ढोलक और मृदंग खेले होली हम तेरे संग
राधा के रंग और कृष्णा की पिचकारी,
प्यार के रंग से रंग दो दुनिया सारी,
ये रंग ना जाने कोई मजहब ना कोई बोली,
आप सभी को मुबारक हो होली
कवि संजय कुमार श्रीवास्तव
ग्राम मंगरौली
पोस्ट भटपुरवा कलां
जिला लखीमपुर खीरी
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दीपक कुमार शुक्ल दीपू
जहां का रीत सदा मैंने अपनाई ,
उस प्रीत को यहां बताऊं - क्या ?
उन मिट्टी के कण - कण प्रेमनगर की ,
गीत सदा सुनाऊं क्या ?
हूं नहीं मैं ;
हरी - जग - विधाता ,
नहीं है - मेरा ,
मथुरा-वृंदावन से नाता ,
हे - हरी प्रिये ,
सु नन्दन बहुगुणा ,
मैं कान्हा बन जाऊं क्या ?
खेलूं सोचता ;
तेरे संग हर होली ,
इन बहियन में शामिल कर ,
तू कहती ,
हे मेरे प्रीयें - इस हाथों से ,
रंग तुम्हें लगाऊं क्या ?
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अविनाश तिवारी
नारी
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नारी तुू नारायणी ममत्व स्वरूप
तुम्हारा है
सागर सा धैर्य तुझमे जगत की पालनहारा है।
तुम धरनी वसुंधरा हो पालन पोषण करती हो,
कर न्यौछावर सर्वस्व अपना
घर को जीवन देती हो
तुम जननी सखा संगिनी
कितने स्वरूप को पाया है
पुत्री बन कर दो कुलों की
मर्यादा को निभाया है।
तुम चंडी भद्रकाली
विश्वस्वरूपा प्रतिपालक हो
तुम्ही दुर्गा सरस्वती
महिषासुर संहारक हो।
रानी लक्ष्मी पद्मश्वेता सुनीता मेरीकॉम हो
हर क्षेत्र में असीमित अनन्त
सुनीता कल्पना सी उड़ान हो।
तुम परिभाषित ग्रन्थों में सीता
सावित्री परिणीता हो
तुमसे पौरुष समपूर्णित जग में
तुलसी गंगा गीता हो।
नमन मातृशक्ति तुमको है
जीवन की आधार हो
कृतज्ञ तेरे त्याग से हम है
ममता और दुलार हो।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा जांजगीर
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सनिध्य मिश्र
टूटता तारा⭐
टूटता हुआ तारा हूँ मैं,
सभी की मन्नतों का सहारा हूं मैं,
मुझे टूटता देख ,जाने लोग मुझसे,
दुआ मांगते क्यों हैं, वो सभी ये नहीं जानते
खुद टूटकर दूसरों को,
दुआ देना आसान नहीं होता।
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स्मृति झा
मायका
कुछ रिश्ते जाने पहचाने कुछ अनजान हो गए।
हाय हम अपने मायके में ही मेहमान हो गए।।
जाने क्यों मुझको एक बात यह खलती है।
मेरी आने जाने की तारीख निकलती है।।
बचपन की यादें मन में कौंधती है।
मायके की गली में जब गाड़ी मुड़ती है।।
मेरे चेहरे पर सब खुशी ढूंढते हैं।
कितने दिन रहोगी पड़ोसी पूछते हैं।।
मां के चेहरे पर खुशी बार-बार होता है।
मेरा आना भी उनके लिए त्यौहार सा होता है।।
जाते ही पल- पल घड़ियां गिनती रहती हूं।
कुछ पल में ही सारी खुशियां बुनती रहती हूं।।
आंगन बगीचा घर का कोना कोना निहारती हूं।
खामोश होंठों से अपनी बीती यादें पुकारती हूं।।
जिम्मेदारियों का बोझ कंधे से उतारती हूं।
बहू से बेटी वाला कुछ दिन गुजारती हूं।।
कुछ छूट न जाए सामान मां कहती रहती है।
अनजाने में ही मुझको ताना देती रहती है ।।
जब भी जाती हूं सिलसिला हर बार होता है।
एक बैग से बैग हमेशा चार होता है ।।
कुछ थोड़े दिन रहूं ससुराल से अनबन समझते हैं।
क्यों बेटी को सब हमेशा पराया धन समझते हैं।।
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तेरा मेरा क्या होता है सास बहू के रिश्तों में
घर की छोटी छोटी खुशियां बट जाती है किस्तों में
मेरे पति की मां हो तो मेरी भी मां बन जाओ ना
गलती पर ताना मत मारो प्यार से समझाओ ना
मेरा पति बेशक मुझको जान से प्यारा है
कैसे भूलूं मुझसे पहले उन पर अधिकार तुम्हारा है
नहीं बटेगा प्यार तुम्हारा तुम इतना घबराओ ना
मेरे पति की मां हो तो मेरी भी मां बन जाओ ना
मां बेटे के रिश्तों में फुट में कैसे डालूंगी
किस मुंह से मैं फिर अपने बच्चों को पालुंगी
मैं अपनाऊं परंपरा तुम्हारी तुम ,नयी पीढी अपनाओ ना
मेरे पति की मां हो तो मेरी भी मां बन जाओ ना
जिस आंगन से आई हूं मैं उस की राजदुलारी थी
अपने मम्मी पापा की बेटी में जान से प्यारी थी
नहीं बनना है बहु तुम्हारी तुम मुझको बेटी बनाओ ना
मेरे पति की मां हो तो मेरी भी मां बन जाओ ना
मां तुम जैसे बोलोगी मैं वैसे ढल जाऊंगी
तुमने अगर साथ छोड़ा तो एक कदम नहीं चल पाऊंगी
मैं कुछ सीखूंगी खुद से कुछ तुम मुझे सिखाओ ना
मेरे पति की मां हो तो मेरी भी मां बन जाओ।।
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पिंकी
दिव्य कुमकुम
कुसुम किसलय कुञ्ज कोकिल,
कूके रुत मघुमास
तन और मन बसे हुए
पिया मिलन हर्सोल्लास ।
प्रेम और नव संवत्सर उत्साह।
मनमोहित चंद्रमुखी बाबुल का गुरूर,
मां कीआंखों का नूर।
मेंहदी,चुड़ी,बिंदी,
कं-गन लगे कुमकुम
झूमें तन -मन।
तन प्रफुल्लित मन प्रफुल्लित,
प्रथम नव किरण आनंदित
नूतन धवि निरखती नव विवाहिता
कुमकुम संग सुशोभित
आहृलादित प्रीतम प्रेम नव उत्सर्ग में।
ईश् अनुकम्पा बिखेरे,
सुख, शांति, शक्ति,
सम्पत्ति, स्वास्थ्य, स्वरूप,
संयम, सादगी, सफलता, समृद्धि,
साधना, संस्कृति, संस्कार और परस्पर प्रेम
स्नेहसत्कार में,सोलहोश्रृंगारयुक्त ,
सौभाग्य निर्माण करें ,
बन सुख -दुख संगिनी
पिया के दरबार में में।
नव विवाहित अति
अनुरागित
सोलहों श्रृंगार संग कमकुम शोभे
प्रेम नव विवाह नव उत्साह में।
पिंकी ,दरभगा,बिहार।
सर्वाधिकार सुरक्षित।
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रितिक यादव
रंग छा गया.....
कान्हा फाल्गुन में राधा को तंग कीजिये,
उनके गालों को रंगों से रंग दीजिये !
रंग छा भी गया होली आ भी गया,
उनके दिल को शरारत ये भा भी गया !!
ब्रज की नदियों में इक़रार बहने लगा,
हर सितम में मुहब्बत बिखरने लगा !
रंग रंगों पर जाने क्यों मिटने लगे,
आज मिट्टी में खुशबू सिमटने लगे !!
कृष्ण राधा को रंगने के पीछे पड़े,
आज वंशी नहीं रंग लेकर खड़े !
आज मिलकर सभी संग भंग पीजिये,
उनके गालों को रंगों से रंग दीजिये !!
वो तो शर्माएंगी, तुमसे घबरायेंगी,
आज वंशी की धुन में वो ना आयेंगी !
वो कहेंगी की हमको तुम तंग किये हो,
ये शरारत भी ग्वाल बाल संग किये हो !!
धमकी देंगी की आना हमारी गली,
आज दिखाएंगे अपने चमन की कली !
उनकी सखियों से कान्हा संभल लीजिये,
उनके गालों को रंगों से रंग दीजिये !!
आज गोकुल की गालियाँ चमकने लगी,
श्याम !सरयू सी नदियाँ मचलने लगी !
बहती नदियों का पानी बुलाने लगा,
वो गोवर्धन खड़ा मुस्कुराने लगा !!
गोपियों के लिए तुम नायाब हो गए,
उनको लगता हैं सच सारे ख्वाब हो गए !
आज अग्नि से अम्बर आनंद कीजिये,
उनके गालों को रंगों से रंग दीजिये !!
आज कश्ती भी यमुना में सजने लगी,
गीत होली की लहरों में बजने लगी !
फाग महफिल फिजाओं में छाने लगा,
लब की खामोशियाँ गुनगुनाने लगा !!
उनके दिल के भ्रम का भी अंत हो गया,
हमको लगता हैं पतझड़ बसंत हो गया !
आज बरसाने में फिर उमंग कीजिये,
उनके गालों को रंगों से रंग दीजिये !!
--रितिक यादव
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महेन्द्र परिहार
।। वादा रहा ।।
तेरी हर एक ख़ुशी
तेरे चेहरे की हँसी
यूँ ही रखूँगा बरकरार
तुझसे मेरा है इक़रार
इतना तुम्हें चाहूँगा ।।
तू ही हैं मेरी आरजू
तू ही है मेरी आबरू
तू ही है मेरी जुस्तजू
तुम्हीं से करूं गुफ्तगू
वादा रहा है ये तुमसे
तुझी से करूं मैं प्यार।।
गम का न आने दूँगा डेरा
दिल पर लगा दूँगा पेहरा
न कम होने दूँगा ख़ुमारी
बना के रखूँगा राजकुमारी
वादा रहा है तुझसे
तुझी से करू मैं प्यार।।
कातिब :- माही परिहार
( महेन्द्र परिहार
व्याख्याता
पीपाड़ शहर जोधपुर)
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आशीष कुमार जैन
नफरत के कीड़े ने खा लिया सारा वतन
लाक्षागृह भी नहीं हुआ पर जल रहा है सबका मन
महाभारत हुई थी तब भी जब एक पक्ष थे पाण्डव
सोचो अब क्या होगा बने है जब दोनों भाई दुर्योधन
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आज का सच
पढ़ना है अगर गुरू को मानो संसार
एकलव्य बन जाओगे समर्पण रखो अपार
उस माला को तोड़ दो ना हो जिसमें गुरू का धाम
बनकर हनुमत सीना फाड़कर दिखा दो सीताराम
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दूसरों को मत समझाना ज्ञान
पर सीखना कैसे समझे मनोविज्ञान
बहुत शकुनी आएंगे तुम्हारा हक मांगने
पर मत देना उनको दुर्योधन होने का प्रमाण
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समय को कभी भी व्यर्थ ना गंवाना
कभी पानी के नलों को मत फालतू चलाना
गर्भ तक ही बच्चियों को ना हम समेटे
नेता जैसे हो गए है आजकल के बेटे
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