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रचनाकार.ऑर्ग नाटक / एकांकी / रेडियो नाटक लेखन पुरस्कार आयोजन 2020
प्रविष्टि क्र. 22 -गोरखधंधा
: हरीश कुमार 'अमित',
गोरखधंधा
पात्र परिचय
डॉ. दामिनी सरकारी दफ़्तर में उच्च अधिकारी. उम्र लगभग अट्ठावन वर्ष. काफ़ी मोटी. चेहरे पर रौब का भाव (जो हमेशा नहीं रहता). सारा काम अपने अधीनस्थों पर टाल देने वाली, पर सारा श्रेय ख़ुद लेने वाली. आरामतलब. बहुत चालाक. अपनी कही बात से अक्सर पलट जाने वाली. एक-एक पैसे को दाँतों से पकड़ने वाली. कपड़े बढ़िया. कभी साड़ी-ब्लाउज़ में तो कभी सलवार-कमीज़ में. पढ़ते-लिखते वक़्त चश्मे का प्रयोग.
नीरज उसी सरकारी दफ़्तर में एक अधिकारी. डॉ. दामिनी का अधीनस्थ. उम्र लगभग पचास वर्ष. काया सामान्य. रंग गोरा. चेहरे पर मासूमियत, शराफ़त और ज़िम्मेदारी के भाव. कपड़े बढ़िया और सलीकेदार. आँखों पर चश्मा.
निशा उसी दफ़्तर में अधीनस्थ कर्मचारी. उम्र लगभग पैंतीस वर्ष. रंग गोरा. शरीर पतला. चेहरे पर मासूमियत, मगर आँखों से झाँकती चालाकी. कपड़े ठीक-ठाक. अक्सर सलवार-कमीज़ में.
वीना किसी परियोजना (प्रोजेक्ट) के अर्न्तगत रखी गई कम्प्यूटर ऑपरेटर, पर असल में डॉ. दामिनी के कार्यालय में कार्यरत. काम में बेहद दक्ष. रंग गोरा. कद लम्बा. शरीर सामान्य. उम्र तीस के आसपास. कभी साड़ी और कभी सलवार-कमीज़ में. चेहरे पर चश्मा.
कुसुम वीना की तरह किसी परियोजना के अर्न्तगत रखी गई तकनीकी सहायक, पर असल में डॉ. दामिनी के यहाँ कार्यरत. उम्र तीस साल के आसपास. थोड़ी मोटी. पहनावे में सलवार सूट या पाजामी-सूट.
रामपाल डॉ. दामिनी के कार्यालय का चपरासी. उम्र लगभग पचपन वर्ष. बेहद काइयाँ. शरीर थोड़ा स्थूलकाय. पैंट-कमीज़ का पहनावा.
सुरेश परियोजना के अर्न्तगत रखा गया अस्थायी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी. काम में बेहद चुस्त. उम्र पच्चीस साल. साधारण, पर सलीकेदार कपड़ों में. वेतन के लिए डॉ. दामिनी पर निर्भर, क्योंकि उसका वेतन परियोजना वाले डॉ. दामिनी को भेजते हैं.
गुप्ता डॉ. दामिनी का पी.ए.
(पात्र परदे पर नहीं)
अंक - एक
परदा उठने पर डॉ. दामिनी के कार्यालय का कमरा नज़र आता है. कमरा बहुत बड़ा नहीं, पर सलीके से सजा हुआ है. उसमें बड़ी मेज़, कुर्सियाँ, सोफा, फैक्स मशीन आदि सब है. डॉ. दामिनी की कुर्सी के पीछे वाली जगह में दीवार पर लकड़ी के खाने बने हैं जिनमें दो कम्प्यूटर रखे हैं. डॉ. दामिनी की कुर्सी के एकदम पीछे पड़ा कम्प्यूटर कपड़े से ढककर रखा हुआ है और उसके बाईं ओर रखे दूसरे कम्प्यूटर पर वीना कुछ काम कर रही है. कम्प्यूटरों के ऊपर वाले खानों में बहुत-सी ट्राफियाँ वगैरह पड़ी हैं. एक खाने में डॉ. दामिनी की कई साल पुरानी बड़ी-सी तस्वीर भी रखी है, जिसमें वे काफ़ी कम उम्र की नज़र आती हैं. डॉ. दामिनी अपनी मेज़ पर बैठी किसी कागज़ को आराम से पढ़ रही हैं. उनकी कुर्सी के बाईं तरफ कुसुम हाथ पीछे बाँधे सावधान की मुद्रा में खड़ी है.
डॉ. दामिनी (ग़ुस्सैल स्वर में) : यह स्पीच बनाई है तुमने? इसमें तो कोई दम ही नहीं है.
कुसुम (घबराए-से स्वर में) : मैम, मैंने तो बहुत मेहनत की है.
डॉ. दामिनी : ख़ाक मेहनत की है.
तभी कमरे के दरवाज़े को दो बार खटखटाकर नीरज का हाथ में एक फाइल लिए प्रवेश. वह डॉ. दामिनी की मेज़ के सामने आकर वहाँ पड़ी दो कुर्सियों में से एक को खींचकर बैठने लगता है. तभी डॉ. दामिनी उसकी ओर देखती हैं.
नीरज : (आदरपूर्ण मगर सधे हुए स्वर में) : नमस्कार, मैडम.
डॉ. दामिनी (अधिकारपूर्ण स्वर में) : नमस्कार.
डॉ. दामिनी नीरज को कुर्सी पर बैठने का इशारा करती हैं.
डॉ. दामिनी (कुसुम की ओर देखकर अपनी बात दोहराते हुए) : यह स्पीच बनाई है तुमने? इसमें तो कोई दम ही नहीं है.
कुसुम (उसी घबराए-से स्वर में) : मैम, मैंने तो....
डॉ. दामिनी (तेज़ स्वर में) : मेरी पिछली स्पीचें देखो और उनमें से मतलब की चीज़ें निकालकर डालो इस स्पीच में.
कुसुम (उसी स्वर में) : मैम, ऐसा ही तो किया है.
डॉ. दामिनी (कुसुम की बात अनसुधी करते हुए अधिकारपूर्ण स्वर में) : इसे ले जाओ और बढ़िया-सी बनाकर लाओ.
(कागज़ को अपने सामने मेज़ पर पटक देती है. कुसुम कागज़ को उठाकर कमरे से बाहर जाने लगती है. बाहर जाते वक़्त उसकी नज़रें नीरज से मिलती हैं और वह नमस्कार की मुद्रा में सिर हिलाती है. नीरज भी हल्का-सा सिर हिलाकर नमस्कार का उत्तर देता है.)
डॉ. दामिनी (अफसराना आवाज़ में) : हाँ, नीरज. बोलो, फाइल लाए हो?
नीरज (विनीत मगर सधे हुए स्वर में) : मैडम, यह फाइल आपको पुट अप की थी. इस पर डिस्कस करने के लिए आपने इसे वापिस भेजा था.
कहते-कहते फाइल का फीता खोलकर सामने बैठी डॉ. दामिनी की ओर बढ़ा देता है.
डॉ. दामिनी (फाइल को सरसरी निगाह से देखते हुए अधिकारपूर्ण स्वर में) : क्या है इसमें?
नीरज (उसी स्वर में) : मैडम, इस फाइल में तो डॉ. सोमदत्त वाले प्रोजेक्ट को छह महीने तक और बढ़ाने की प्रपोज़ल है. इसे सेक्रेटरी साहब को भेजना है एप्रूवल के लिए.
डॉ. दामिनी (उसी अधिकारपूर्ण स्वर में) : देख लिया है न सब अच्छी तरह से?
नीरज (सधे स्वर में) : हाँ मैडम. टास्क फोर्स ने पिछले महीने हुई मीटिंग में इस प्रोजेक्ट को छह महीने बढ़ाने की सिफारिश की थी.
डॉ. दामिनी (जैसे बात समझ आ गई हो) : अच्छा-अच्छा, ठीक है. मैं इसे मार्क कर देती हूँ सेक्रेटरी को.
कहते-कहते फाइल को बिना पढ़े उसकी नोट शीट पर हस्ताक्षर कर देती है और फाइल का फीता बाँधे बिना उसे नीरज की ओर पटक देती है. फाइल उठाने के बाद नीरज दो-तीन पल किंकर्त्तव्यविमूढ़-सा बैठा रहता है. फिर फाइल का फीता बाँधकर अपने बाईं तरफ फर्श पर पड़ी दूसरी फाइलों के ऊपर रख देता है और सीधा होकर बैठ जाता है.
डॉ. दामिनी (अधिकारपूर्ण मगर कुछ नरम स्वर में) : नीरज, ये देखो, मेरा क्रेडिट कार्ड का बिल आया है. मुझे पढ़कर बताओ कि ठीक आया है क्या? मुझे तो बहुत ज़्यादा लग रहा है.
कहते-कहते मेज़ पर पड़े बिल को नीरज की तरफ़ पटक देती है. नीरज एकाध पल वैसे ही बैठा रहता है, फिर हाथ आगे बढ़ाकर बिल उठा लेता है और उसे पढ़ने लगता है.
नीरज : आपने पिछले महीने करीब दस हज़ार रुपए टाइम पर अदा नहीं किए थे क्या?
डॉ. दामिनी (जैसे कुछ पता ही न हो) : यह तो तुम मेरे पी.ए. से पूछ लो.
नीरज : ऐसा लगता है पिछले महीने की बकाया रकम पर ब्याज लगाकर इस बिल में जोड़ा गया है.
तभी फोन की घंटी बजने लगती है. सामने वाले कमरे में बैठे अपने पी.ए. द्वारा फोन उठाए जाने से पहले ही डॉ. दामिनी अपने बाईं तरफ वाले रैक पर रखा फोन उठाकर 'हैलो' बोलती हैं. फिर भी जब घंटी बजती रहती है तो वे दूसरा फोन उठा लेती हैं, मगर फोन की घंटी फिर भी बजती रहती है. तभी जैसे उन्हें कुछ याद आता है और वे दूसरे वाले फोन का रिसीवर रखकर पहले वाले फोन का रिसीवर फिर से उठा लेती हैं. उसके बाद दूसरे हाथ से उस फोन का एक बटन दबाकर बात करने लगती हैं.
डॉ. दामिनी (रूखे-से स्वर में) : हैलो.
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डॉ. दामिनी : (एकाएक प्रसन्न हो आए स्वर में) : हाँ, डॉ. पुष्पेन्द्र. मैं डॉ. दामिनी बोल रही हूँ. हाऊ आर यू?
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डॉ. दामिनी : आई एम फाइन. और बताइए, क्या ख़बर है?
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डॉ. दामिनी : अभी तक मिला नहीं पैसा आपको?
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डॉ. दामिनी : ज़रा रूकिए, मैं पूछती हूं नीरज से. सामने ही बैठा है वह.
डॉ. दामिनी (रिसीवर को कान और मुँह के पास रखे-रखे बड़ी ग़ुस्सेभरी आवाज़ में) : क्यों नीरज, डॉ. पुष्पेन्द्र को पैसा नहीं मिला अभी तक?
नीरज (सधी हुई आवाज़ में) : मैडम, हमने तो ऑर्डर निकाल दिया था कई दिन पहले.
डॉ. दामिनी (उसी स्वर में) : तो पहुँचा क्यों नहीं पैसा अब तक?
नीरज : मैडम, पैसा भेजने के लिए चैक बनवाकर भेजना तो कैश सैक्शन वालों का काम है. यह तो उन्हें ही पता होगा.
डॉ. दामिनी (उसी अधिकारपूर्ण स्वर में) : आप फौरन चैक करके बताना मुझे. (फिर फोन के रिसीवर को अपने कान और मुँह से सटाकर बड़े मुलायम स्वर में) डॉ. साहब, हमने तो ऑर्डर इशू कर दिया था. चैक करके बताएँगे कि क्यों नहीं पहुँचा पैसा.
तभी नीरज की जेब में पड़ा मोबाइल फोन बजने लगता है. वह जल्दी से फोन निकालकर देखता है. फिर फोन को ऑन करके 'हैलो' कहता हुआ कुर्सी से उठकर कमरे से बाहर चला जाता है.
डॉ. दामिनी : ऐसा ही है डॉ. पुष्पेन्द्र. यहाँ सब काम मुझे ही करने पड़ते हैं. यह नीरज तो किसी काम का नहीं. जब देखो, तब रोता रहता है कि बहुत काम है, बहुत काम है.
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डॉ. दामिनी : आप चिन्ता न करें. मैं चैक करवा के आपको फोन करवा दूँगी. और हाँ, उस मीटिंग का क्या हुआ जो आप हैदराबाद में रखने वाले थे?
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डॉ. दामिनी (पीछे बैठी वीना की तरफ़ हल्का-सा मुड़कर आदेशपूर्ण स्वर में) : ए लड़की, कैलेंडर पर अगला महीना निकालो.
वीना अपना काम छोड़कर तत्परता से उठती है और कैलेंडर के पास जाकर उसका एक पृष्ठ ऊपर उठाकर खड़ी हो जाती है.
डॉ. दामिनी (कैलेंडर की ओर देखते हुए कुछ देर सोचने के बाद फोन पर) : ऐसे है डॉ. साहब. अगले महीने आठ तारीख़ को थर्सडे है. आप इसी दिन की मीटिंग रख लें. मैं सात को पहुँच जाऊँगी. नौ-दस को घूमना-फिरना हो जाएगा. ग्यारह की सुबह मैं लौट आऊँगी.
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डॉ. दामिनी आपके अगले प्रोजेक्ट के बारे में तभी बात कर लूँगी.
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डॉ. दामिनी आप चिन्ता न करें. मैं टास्क फोर्स से रिकमेंड करवा दूँगी इसे. बस आप... (अर्थपूर्ण हँसी हँसती हैं)
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डॉ. दामिनी ओ.के. डॉक्टर साहब, मिलते हैं फिर हैदराबाद में. (कहते हुए फोन रख देती हैं)
वीना कैलेंडर का पन्ना छोड़कर अपनी कुर्सी की तरफ़ आने लगती है.
डॉ. दामिनी (आदेशपूर्ण स्वर में) : ज़रा देखो, यह नीरज कहाँ चला गया.
वीना (मिमियाते-से स्वर में) : मैम, फोन आया था उनका कोई.
डॉ. दामिनी (क्रोधभरी आवाज़ में) : दफ़्तर में फोन सुनने आता है या काम करने? मैंने बुलाया है तो सिर्फ़ मेरी ही बात सुननी चाहिए उसे.
तभी दरवाज़ा खोलकर जल्दी-जल्दी चलता हुआ नीरज कमरे में वापिस लौटता है और उसी पहले वाली कुर्सी पर बैठ जाता है. नीरज को आता देखकर वीना वापिस अपनी कुर्सी की ओर बढ़ने लगती है.
डॉ. दामिनी : ए लड़की, चाय तो लाओ हमारे लिए. सुरेश तो आया नहीं आज. फोन पर कह रहा था कि तेज़ बुख़ार है.
अपनी कुर्सी की ओर बढ़ती हुई वीना एकदम से रूक जाती है और कमरे से बाहर जाने लगती है.
डॉ. दामिनी (गुस्से भरी आवाज़ में) : ऐ लड़की, ये पहलेवाला कप तो उठा लो. इसके लिए भी कहना पड़ेगा क्या?
वीना रूक जाती है और डॉ. दामिनी की मेज़ पर पड़ा जूठा कप-प्लेट उठाकर बाहर जाने लगती है. उसके चेहरे से साफ़ ज़ाहिर हो रहा है कि वह अपने आप को बड़ा अपमानित महसूस कर रही है.
डॉ. दामिनी (नीरज को सम्बोधित करते हुए) : क्या बात है नीरज, काम हो नहीं रहा स्पीड से. फटाफट निकाला करो फाइलें.
नीरज (आवेशपूर्ण आवाज़ में) : मैडम, स्टाफ तो है नहीं पूरा. ले-देकर एक निशा ही तो है. कितनी फाइलें निकालेगी वह?
डॉ. दामिनी (अधिकारपूर्ण स्वर में) : स्टाफ की कमी से किसी की फाइल तो नहीं रूकनी चाहिए न. शिक़ायत नहीं आनी चाहिए किसी से कि मेरा काम नहीं हुआ.
नीरज (मजबूरी-भरी आवाज़ में) : मगर मैडम, कितनी फाइलें निकालें हम? हर फाइल को अच्छी तरह चैक करके ही आपको पुट अप कर सकते हैं न. सरकारी पैसों का मामला है आख़िर!
डॉ. दामिनी (उसी स्वर में) : निशा को खींच के रखो. उसकी क्लास लेते रहा करो. काम निकलवाओ उससे और भी ज़्यादा.
नीरज (समझाने के-से स्वर में) : मैडम, निशा भी आख़िर कितना काम करेगी. चार आदमी होने चाहिए स्टाफ में. सिर्फ़ वही अकेली है. कम-से-कम एक सेक्शन ऑफिसर भी होता तो फाइलें कुछ स्पीड से निकल पातीं.
डॉ. दामिनी : कुसुम भी तो है प्रोजेक्ट से.
नीरज : वो ठीक है मैडम. पर वह तो सरकारी कर्मचारी नहीं है न. वह न तो कहीं साइन कर सकती है, न उसे लिखकर कह सकते हैं कुछ काम करने के लिए.
डॉ. दामिनी (थोड़ा नरम पड़ते हुए) : आप मेरी तरफ़ से एक नोट बनाओ सेक्रेटरी के लिए कि स्टाफ की बहुत कमी है.
डॉ. दामिनी की बात सुनकर नीरज का चेहरा ऐसा बन जाता है जैसे कोई कड़वी चीज़ खा ली हो.
नीरज : मैडम, ऐसा नोट तो तीन महीने पहले भी बनाया था, पर हुआ कुछ नहीं. आप अगर ख़ुद बात करें सेक्रेटरी साहब से या फिर जे.एस. से, तो कुछ हल निकले.
डॉ. दामिनी : वो हम देखेंगे, पर तुम नोट तो बनाओ.
नीरज (थोड़े आवेश के साथ) : मैडम, जितनी देर में नोट बनेगा, उतनी देर में तो दो-तीन फाइलें निकल जाएँगी.
तभी वीना हाथ में एक कप-प्लेट लिए कमरे में आती है और उसे डॉ. दामिनी के सामने मेज़ पर रख देती है.
डॉ. दामिनी : (अधिकारपूर्ण स्वर में) नीरज के लिए भी लाओ.
नीरज (अनिच्छापूर्ण स्वर में) : नहीं, मुझे नहीं चाहिए.
वीना अपनी कुर्सी की तरफ़ बढ़ जाती है और कम्प्यूटर पर काम करने लगती है. डॉ. दामिनी चाय का कप उठाकर पीने लगती है.
नीरज (हिचक-भरी आवाज़ में) : मैडम, आधे दिन की छुट्टी चाहिए थी आज.
नीरज की बात सुनते ही डॉ. दामिनी का मुँह बुरा-सा बन जाता है.
डॉ. दामिनी (हल्के ग़ुस्से-भरी आवाज़ में) : क्यों, क्या बात हो गई?
नीरज (विनीत स्वर में) : मैडम, वो किसी रिश्तेदार की किरया में जाना है.
डॉ. दामिनी : रिश्तेदार बहुत मरते रहते हैं आपके!
नीरज : मैडम, किरया में तो जाना ही पड़ता है रिश्तेदारी में वरना सारी उमर की नाराज़गी बन जाती है.
डॉ. दामिनी : कोई ज़रूरी काम तो बाकी नहीं है?
नीरज : (तत्परता से) नहीं, मैडम. ज़रूरी फाइल तो कोई बाकी नहीं है.
डॉ. दामिनी : वो डॉ. सक्सेना वाली फाइल का क्या हुआ? पुट अप करो जल्दी. पहले भी कहा था.
कहते-कहते डॉ. दामिनी के चेहरे पर ऐसे भाव आ जाते हैं जैसे कोई बहुत बड़ी जीत हासिल कर ली हो.
नीरज (सधे हुए स्वर में) : मैडम, वो फाइल तो आपको परसों सुबह ही भेज दी थी.
डॉ. दामिनी (कुछ दबे हुए-से स्वर में) : मेरे पास है फाइल? निकालो ज़रा, कहाँ है फाइल?
नीरज मेज़ पर पड़ी फाइलों को हाथ से छूकर देखता है.
नीरज : इनमें तो नहीं है, मैडम. आपने भेज तो नहीं दी फाइल ऊपर?
डॉ. दामिनी (असमंजस-भरी आवाज़ में) : मेरे ख़याल से तो भेजी नहीं है मैंने. (एक-दो पल रूककर आदेशपूर्ण स्वर में) वो सामने रैक पर पड़ी फाइलों में देखो.
नीरज नज़रें उठाकर अपने बाई तरफ़ पड़े रैक की ओर देखता है. जिस पर बहुत-सी फाइलें पड़ी हैं. वह दो-चार पल असमंजस की स्थिति में रहता है.
नीरज (वीना को संबोधित करते हुए) : वीना, ज़रा इन फाइलों में डॉ. सक्सेना की फाइल देखना.
डॉ. दामिनी नीरज की ओर इस तरह देखती हैं जैसे उसने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो. वीना अपनी कुर्सी से उठकर रैक पर पड़ी फाइलों को उलटने-पलटने लगती हैं. कुछ पल बाद ही वह एक फाइल निकाल लेती हैं और उसका फीता खोलकर उसे डॉ. दामिनी के सामने रख देती है.
डॉ. दामिनी (अधिकारपूर्ण स्वर में) : ज़रा देखो नीरज, क्या लिखा है फाइल में.
नीरज अनिच्छापूर्वक फाइल उठा लेता है.
नीरज : मैडम, डॉ. सक्सेना ने अपने प्रोजेक्ट के लिए चालीस लाख की मशीनरी और माँगी है.
डॉ. दामिनी (उसी अधिकारपूर्ण स्वर में) : तो कर दिया आपने पुट अप एप्रूवल के लिए?
नीरज (हिचकते से स्वर में) : मैडम अभी पिछले महीने ही तो डॉ. सक्सेना को यही मशीनरी किसी दूसरे प्रोजेक्ट के लिए दी है. इसलिए हम वही मशीनरी इस प्रोजेक्ट के लिए भी कैसे दे सकते हैं. वैसे भी यह प्रोजेक्ट तीन महीने बाद ख़त्म होने वाला है.
डॉ. दामिनी आपको क्या पता ख़त्म होने वाला है? मैं अभी फोन करके डॉ. सक्सेना को कह देती हूँ कि इस प्रोजेक्ट को एक साल के लिए बढ़ाने का प्रपोज़ल भेज दें. एक साल का लिखेंगे तो छह महीने तो बढ़ ही जाएगा.
नीरज (बहस करने के-से स्वर में) : मगर मैडम, डॉ. सक्सेना का यह प्रोजेक्ट पहले भी दो बार छह-छह महीने के लिए बढ़ चुका है. पिछली बार भी सेक्रेटरी साहब ने बड़ी मुश्किल से इसे एक्सटेंशन दी थी और फाइल में यह भी लिखा था कि यह लास्ट एक्सटेंशन है.
डॉ. दामिनी (चालाकी-भरे स्वर में) : वो सब मैं देख लूँगी. आप बस फाइल में यह लिखो कि डॉ. सक्सेना ने चालीस लाख की मशीनरी देने के लिए कहा है और हम इस प्रपोज़ल को मान सकते हैं.
नीरज (हिचक-भरे स्वर में) मगर, मैडम...
डॉ. दामिनी (आदेशपूर्ण स्वर में) : मगर-वगर कुछ नहीं. जैसा कहा है वैसा करो.
नीरज (उसी हिचक-भरे स्वर में) : कोई चक्कर न पड़ जाए कल को.
डॉ. दामिनी कोई चक्कर नहीं पड़ेगा. आप यूँ ही बाल की खाल निकालते रहते हो. किसे पता है कि डॉ. सक्सेना को पिछले महीने किसी दूसरे प्रोजेक्ट में यही मशीनरी दी गई है. आप बस फाइल ठीक तरह से पुट अप कर दो.
नीरज तो आप कुछ लिखकर वापस कर दीजिए यह फाइल मुझे.
डॉ. दामिनी (अधिकारपूर्ण स्वर में) : मैंने क्या लिखना है? पहले वाला नोट बदल दो और जैसा कहा है वैसा नोट बनाकर ले आओ.
नीरज (दोनों हाथ कुर्सी के हत्थों पर रखकर उठने की-सी मुद्रा में) : ठीक है मैडम, देखता हूँ.
डॉ. दामिनी (थोड़ी नरम मगर अधिकारपूर्ण आवाज़ में) : देखना-वेखना नहीं है कुछ. बस कर देना है यह काम. मैंने प्रॉमिस किया है डॉ. सक्सेना को. उन्हीं का इंस्टीट्यूट तो मुझे अगले महीने टूर पर लंदन भेजने का खर्च उठा रहा है. अब हमें भी कुछ तो करना ही चाहिए न उनके लिए!
नीरज (अनिच्छापूर्ण स्वर में) : ठीक है, मैडम.
डॉ. दामिनी : छुट्टी पर जाने से पहले वो क्रेडिट कार्ड वाली बात पूरी समझा कर जाना मुझे.
डॉ. दामिनी की बात सुनकर नीरज का चेहरा ऐसा बन जाता है जैसे वह कोई कड़वी बात कहना चाह रहा हो. फिर अगले ही पल उसका चेहरा सामान्य बन जाता है.
नीरज : देखता हूँ मैडम. वैसे उसकी लास्ट डेट में तो कई दिन पड़े हैं.
डॉ. दामिनी (तनिक ग़ुस्से से) : वो ठीक है, पर मुझे बताकर जाना है सब. जो काम कहा है, वह होना चाहिए पूरा.
नीरज (कुर्सी से उठते हुए) : ठीक है, मैडम.
नीरज दरवाज़े की ओर जाने लगता है.
डॉ. दामिनी : छुट्टियाँ बहुत करने लगे हैं आप.
नीरज (आधे खुले दरवाज़े के बीच खड़े हुए) : ज़्यादा कहाँ, मैडम. जब बहुत ज़रूरी हो, तभी तो लेता हूँ छुट्टी.
डॉ. दामिनी : अभी पिछले दिनों ही तो छुट्टी की थी कि नहीं?
नीरज : मैडम, वो तो दस दिन पहले की बात है. वाइफ़ को दिखाना था डॉक्टर को. आप तो जानते ही हैं कि ट्यूमर है उसके दिमाग़ में.
डॉ. दामिनी : वो ठीक है, पर छुट्टी कम-से-कम किया करो.
नीरज (तनिक आवेशपूर्ण स्वर में) : मैडम, मेरी तो हर साल दस-बारह छुट्टियाँ लैप्स ही हो जाती हैं. ले ही नहीं पाता छुट्टी ऑफिस के काम के मारे.
डॉ. दामिनी कुछ कहने को होती हैं कि फोन की घंटी बजने लगती है. वे पी.ए. के फोन उठाने से पहले ही फोन उठा लेती हैं. नीरज दो-चार पल दरवाज़े पर खड़ा डॉ. दामिनी की ओर देखता रहता है. फिर वह दरवाज़े से बाहर निकल जाता है.
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अंक - दो
परदा उठने पर नीरज का कमरा नज़र आता है. डॉ. दामिनी के मुकाबले यह कमरा काफ़ी छोटा है - लगभग आधा. कमरे की सजावट के नाम पर नीरज की कुर्सी के पीछे वाले शो-केस में नए साल/दीवाली के चार ग्रीटिंग कार्ड बड़े सलीके से रखे हुए दिखाई देते हैं. नीरज की मेज़ पर फाइलों के कई ढेर हैं, पर वे सब फाइलें बड़े व्यवस्थित तरीके से रखी हुई हैं. कमरे में स्टील की एक छोटी अलमारी है, जिस पर भी दो ग्रीटिंग कार्ड रखे हैं. कमरे के एक कोने में कम्प्यूटर टेबल पर कम्प्यूटर है, जिसके सामने एक बगैर हत्थे वाली कुर्सी पड़ी है. नीरज मेज़ के सामने पड़ी कुर्सी पर बैठा बड़े ध्यानपूर्वक एक फाइल को पढ़ रहा है. तभी दरवाज़ा खुलता है और निशा हाथ में एक फाइल लिए अन्दर आती है.
निशा (आदर भरे स्वर में) : नमस्ते सर.
नीरज (फाइल से सिर उठाकर निशा की ओर देखते हुए बड़े ख़ुशमिजाज़ स्वर में) : नमस्ते-नमस्ते, आइए बैठिए.
नीरज अपनी मेज़ के सामने पड़ी कुर्सियों की ओर इशारा करता है. निशा पहली कुर्सी पर बैठ जाती है.
निशा : सर, इस फाइल में यह लैटर बनाने के लिए आपने लिखा है. इसमें क्या लिखें?
नीरज हाथ आगे बढ़ाकर निशा के हाथ से फाइल ले लेता है. उसके बाद अपने सामने रखी फाइल को बाईं तरफ रख देता है और फिर बड़े ध्यान से निशा से ली फाइल पढ़ने लगता है. इस बीच निशा मुँह पर हाथ रखकर जम्हाई लेती है.
नीरज : बस, इसमें यही लिखना है कि हमें जो काग़ज़ भेजे गए हैं, वे पूरे नहीं हैं, इसमें ये-ये कमियाँ हैं.
निशा : ठीक है, सर.
नीरज : बना लेंगी न आप लैटर का ड्राफ्ट?
निशा (अनिश्चयपूर्ण स्वर में) : जी, सर. बना लूँगी.
निशा का जवाब सुनकर नीरज कुछ पल सोचता रहता है. फिर अपनी मेज़ के बाईं तरफ़ पड़े रैक का ड्राअर खोलकर एक काग़ज़ निकालता है. फिर उस काग़ज़ को वापिस रखकर ड्राअर बंद कर देता है. उसके बाद उसके ऊपर वाला ड्राअर खोलकर उससे एक और काग़ज़ निकालता है.
नीरज (स्वगत) : ड्राफ्ट के लिए नया काग़ज़ क्यों ख़राब किया जाए. (फिर निशा से सम्बोधित होकर) : कुछ ज़्यादा नहीं लिखना है लैटर में. लीजिए, मैं ही बना देता हूँ ड्राफ्ट.
नीरज मेज़ पर झुककर बड़ी गम्भीरतापूर्वक काग़ज़ पर लिखने लगता है. निशा कुछ देर तक कमरे की खिड़की से बाहर देखती रहती है और फिर नीरज पर अपनी नज़रें जमा लेती है.
नीरज : लीजिए, बन गया ड्राफ्ट. अब इसे टाइप करके फाइल में पुट अप कर दीजिए. और क्या.
काग़ज़ को फाइल में रखकर नीरज उसका फीता बाँधता है और फाइल निशा की ओर बढ़ा देता है. निशा फाइल ले लेती है और कुर्सी से उठने लगती है.
नीरज : कल पता है क्या हुआ. मैडम ने बुलाया था एक फाइल डिस्कस करने के लिए. तभी डॉ. पुष्पेन्द्र का फोन आ गया कि उनको चैक नहीं मिला अभी तक.
निशा (कुर्सी पर फिर से बैठते हुए एकदम से) : उनका ऑर्डर तो निकाल दिया था हमने!
नीरज : यही तो मैंने भी कहा मैडम से. यह भी कहा कि अब बाकी का काम तो कैश वालों का है. अब अगर डॉ. पुष्पेन्द्र को चैक नहीं पहुँचा, तो इसमें हमारा क्या कुसूर है? हमने तो अपना काम कब का कर दिया हुआ है.
कहते-कहते नीरज थोड़ा आवेश में आ जाता है.
निशा (शांत आवाज़ में) : सही बात है, सर. हमारा काम तो पूरा है.
नीरज (आवेशपूर्ण स्वर में) : मगर मैडम को तो मज़ा आता है न दूसरों की इन्सल्ट करने में. डॉ. पुष्पेन्द्र को सुनाते हुए मुझसे कहने लगीं कि मैं कैश सैक्शन से पता करके बताऊँ. फिर डॉ. पुष्पेन्द्र को बोलीं कि हम लोग चैक करके फोन पर देंगे उन्हें. ये मेरा काम है कि मैं कैश सैक्शन वालों से ऐसी बातें चैक करता फिरूँ? फिर तो कैश वाले यही समझने लगेंगे न कि मेरा कोई पर्सनल इंटरेस्ट है इन बातों में. मैं तो अपने ख़ुद के काम के लिए भी इस तरह बार-बार पूछताछ नहीं किया करता.
निशा (नकली-से स्वर में) : सही बात है, सर.
नीरज (उसी स्वर में) : और मुझसे बात करते हुए फोन का रिसीवर भी इस तरह मुँह के पास रखा हुआ था कि डॉ. पुष्पेन्द्र को सारी बातें सुनाई दे सकें. जो काम हमारा है ही नहीं, वह भी करते रहेंगे, तो ये अनगिनत फाइलें कैसे निकलेंगी? रिसर्च डिवीजन का काम भी अपने जिम्मे ले लिया मैडम ने.
निशा (हल्के-से हँसते हुए) : सर फॉरेन टूर हैं न बहुत रिसर्च डिवीजन वाले काम में और मैम तो शौकीन हैं टूरों की. घर की तो कोई चिन्ता है नहीं. न हस्बैंड हैं, न बच्चे.
नीरज ख़ैर, हमें किसी की पर्सनल लाइफ से क्या लेना-देना है.
निशा और सर, रिसर्च डिवीज़न का काम लेने से मैम को एक फायदा और भी तो हो सकता है न.
नीरज (प्रश्नवाचक मुद्रा में निशा की ओर देखते हुए) : क्या फायदा?
निशा अगले महीने इंटरव्यू होने हैं प्रमोशन के लिए. उस वक़्त मैम इस बात का पूरा फायदा उठाएँगी कि वे इतना सारा काम कर रही हैं और उन्हें बहुत एक्सपीरिएंस है.
नीरज ख़ैर, हमें उस सबसे क्या. मगर यह जो एडीशनल काम ले लिया है मैडम ने, करना तो उसे हम लोगों ने ही न. मैडम ने तो बस फाइलों पर साइन करने हैं और फायदा उठाना.
तभी रामपाल एक हाथ में तीन फाइलें और दूसरे हाथ में एक काग़ज़ लिए कमरे का दरवाज़ा खटखटाए बिना अन्दर आता है. रामपाल को देख नीरज चुप हो जाता है. रामपाल नीरज के दाईं तरफ़ पड़ी ट्रे में फाइलों के ढेर पर वे तीनों फाइलें रख देता है. फिर दूसरे हाथ में पकड़ा काग़ज़ नीरज के सामने कर देता है.
नीरज (समझकर भी अनजान बनते हुए) : यह क्या है?
रामपाल (नरम परन्तु थोड़े उदण्डता-भरे स्वर में) : ओवरटाइम का नोट है सर. साइन कर दीजिए.
नीरज (हैरानी से) : ओवरटाइम? पाँच बजे से पहले तो चले ही जाते हो आप!
रामपाल (थोड़ी बेशर्मी-भरे स्वर में) : काम तो पूरा करते हैं सर! मैडम का भी, आपका भी और सेक्शन का भी!
नीरज मेरा तो क्या काम करते हैं. बस ये फाइलें ही तो लाते-ले जाते हैं.
रामपाल (उसी स्वर में) : फाइलों का काम कम है क्या सर! (कहते-कहते हाथ में पकड़े काग़ज़ को एक-दो बार हिलाता है, मानो नीरज को उस पर हस्ताक्षर कर देने के लिए ज़ोर डाल रहा हो)
नीरज (टालने के-से अंदाज़ में) : आप रख जाओ इस नोट को. मैं देखूँगा.
रामपाल (उसी बेशर्मी-भरे स्वर में) : देखना नहीं है सर, करना है नहीं तो मैं मैडम से करवा लूँगा साइन.
नीरज (थोड़े आवेशपूर्ण स्वर में) : तो ठीक है, आप मैडम से ही करवा लो इसको.
नीरज की बात सुनकर रामपाल झटके से मुड़ता है और दरवाज़ा खोलकर कुछ बड़बड़ाता हुआ बाहर चला जाता है.
निशा (समझाने के-से स्वर में) : सर, आप कर देते साइन. मैम से तो यह करवा ही लेगा.
नीरज (हल्के-से आवेशपूर्ण स्वर में) : पूरे महीने में एक दिन भी दफ़्तर में देर तक बैठा है यह आदमी? हम लोग भी आमतौर पर साढ़े पाँच बजे के बाद नहीं रूकते. फिर किस बात का ओवरटाइम?
निशा (उसी स्वर में) : वो तो ठीक है सर, मगर... (कहते-कहते बात को बीच में ही अधूरा छोड़ देती है)
नीरज चलिए छोड़िए इस बात को. आप पता करवा लेना डॉ. पुष्पेन्द्र के चैक वाली बात कैश सेक्शन से और बता देना मैडम को.
निशा (खोख़ले-से स्वर में) : ठीक है सर, मैं किसी को भेजकर पता करवा लूँगी.
नीरज (आवेशभरी आवाज़ में) : सरकारी काम तो सारे-का-सारा करना ही है हमको, मैडम के पर्सनल काम करना भी हमारी ड्यूटी है क्या?
निशा (भोलेपन के साथ) : क्यों, क्या हो गया सर?
नीरज कल मैडम के पास गया था तो मुझसे कहने लगीं कि मेरे क्रेडिट कार्ड का बिल देखकर बताओ कि ठीक आया है या नहीं. बिल देखकर जब मैंने पूछा कि पिछले महीने का बिल क्या देर से अदा किया था, तो मुझसे कहने लगीं कि मेरे पी.ए. से पूछ लो. अब मैं यही सब काम करता रहूँगा क्या?
निशा : आप कह देते सर यह बात मैम को.
नीरज : मुँह पर यह सब कहना ठीक नहीं लगता न. मैंने मिस्टर गुप्ता से पिछले महीने की पेमेंट के बारे में पूछा तो पता चला कि टूर पर गए होने की वजह से चैक देरी से भिजवाया था मैडम ने, इसलिए इस महीने की स्टेटमेंट में सूद लगकर आया है.
निशा कुछ बोलती नहीं. बस गहरी नज़रों से नीरज की ओर देखती रहती है.
नीरज : मैं सारे काम छोड़कर बात समझाने के लिए मैडम के कमरे में गया तो पता चला कि वे तो हॉस्पीटल चली गई हैं अपनी आँखें चैक करवाने.
निशा : हाँ, मैम कह रही थीं कई दिनों से कि आई स्पेशलिस्ट से मिलना है.
नीरज : मैंने तो कल आधे दिन की सी.एल. ली थी, किसी किरया में जाना था, पर मैडम ने कहा कि जाने से पहले क्रेडिट कार्ड वाली सारी बात उन्हें समझाकर जाऊँ. अगर ख़ुद कहीं जाना था तो ऐसी क्या जल्दी थी क्रेडिट कार्ड वाली? अभी तो पूरा हफ़्ता पड़ा है उसकी पेमेंट करने को. (थोड़ा रूककर उसी आवेशपूर्ण स्वर में) : बाद में मैडम वापिस आई थीं क्या ऑफिस?
निशा (बात छुपाने के-से अंदाज़ में) : नहीं, शाम को साढ़े पाँच बजे मेरे घर जाने तक तो नहीं आई थीं.
नीरज : (व्यंग्यपूर्ण स्वर में) : उसके बाद क्या आई होंगी? और यह भी क्या ज़रूरी है कि वे आई स्पेशलिस्ट के पास ही गई हों. क्या मालूम किसी के साथ लंच करने गईं हों और फिर शॉपिंग करने निकल गई हों या घर ही चली गई हों आराम करने.
तभी फोन की घंटी बजने लगती है. नीरज अपने बाईं तरफ पड़े रैक पर रखे फोन को उठाता है.
नीरज : हैलो.
.........................
नीरज (तटस्थ स्वर में) : जी कहिए.
.........................
नीरज (उसी स्वर में) : सैंकड़ों फाइलों में से आपके केस के बारे में एकदम बताना तो पॉसीबल नहीं है. मैं चैक करवा लूँगा.
.........................
नीरज : ओ.के.
नीरज फोन के रिसीवर को क्रेडिल पर रख देता है.
नीरज (संयत स्वर में) : निशा, डॉ. अख़्तर का फोन था. उनका केस तो पुट अप हुआ ही नहीं अभी तक.
निशा (बेचारगी-भरे स्वर में) : सर, इतना काम है, क्या-क्या करें?
नीरज : वो तो ठीक है, पर इनका केस तो कई हफ़्तों से पेंडिंग पड़ा है. पहले भी दो-तीन बार आपको कहा था.
निशा : मैं देखती हूँ, सर.
नीरज (स्वर में हल्की-सी सख़्ती के साथ) : केस मुझे पुट अप नहीं हुआ, यह तो मुझे पता ही था, पर मैंने फोन पर किसी तरह बात बना दी. अब आप एक-दो दिन में पुट अप कर दीजिए फाइल. कोई दिक्कत हो तो मुझे बताइए.
निशा (आश्वस्ति-भरे स्वर में) : ठीक है, सर.
नीरज अपनी मेज़ के दाईं तरफ वाला ड्राअर खोलकर उसमें से एक पतली-सी नोट बुक निकालता है. फिर उसका पहला पन्ना खोल लेता है. उसके बाद मेज़ पर पड़ा अपना पैन उठाकर उसे भी खोलकर दाएँ हाथ में ले लेता है.
नीरज (उसी स्वर में) : अपनी मर्ज़ी से पुट अप करती हैं आप फाइलें. कुछ फाइलें तो जेट स्पीड से पुट अप कर देती हैं आप और कुछ फाइलें कई-कई हफ्तों तक पेंडिंग पड़ी रहती हैं, कई-कई बार कहने पर भी.
जवाब में निशा कुछ नहीं बोलती, पर उसका चेहरा रुआँसा हो जाता है.
नीरज (तनिक आवेशपूर्ण स्वर में) : ये देखिए, न डॉ. बैनर्जी की फाइल पुट अप हुई है, न डॉ. रमणी की, न डॉ. कुलभूषण बतरा की और न निवेदिता शर्मा की. (एक-दो पल रूककर) और ये डॉ. फर्नांडीस की फाइल तो मैंने वापिस भेजी थी. बजट के टोटल ही ग़लत थे, पर कई दिन हो गए फाइल आई ही नहीं लौटकर.
निशा (आहत से स्वर में) : मैं देख लूँगी, सर.
नीरज (उसी स्वर में) : फिर से लिखकर दूँ काग़ज़ पर इन सारी फाइलों के नाम? पहले भी दो-तीन बार लिखकर दे चुका हूँ.
निशा (कुछ संभले हुए स्वर में) : कई फाइलें तो पुट अप हो गई हैं, सर. डॉ. आज़मी की फाइल भेजी है आपको, डॉ. मेहरोत्रा की फाइल भी पुट अप की थी. डॉ. महापात्र की फाइल तो आज ही पुट अप की है.
नीरज (किंचित नरम स्वर में) : भई, जो फाइलें पुट अप हो गई हैं, उनका नाम मैंने लिया ही नहीं. फाइल आते ही मैं उसे एक बार तो सरसरी निगाह से देख ही लेता हूँ. एग्ज़ामिन भले ही बाद में करूँ.
निशा (थोड़े दृढ़ स्वर में) : कोशिश तो पूरी करते हैं सर, पर फिर भी रह ही जाती हैं कुछ फाइलें. काम ही इतना ज़्यादा है.
नीरज (नरम पड़ते हुए) : चलिए, देख लीजिएगा आप. वैसे काम है ही बहुत ज़्यादा.
निशा : वो तो है ही, सर.
नीरज : और करना भी हमें ही है. स्टाफ पूरा है नहीं और काम ज़रूरत से ज़्यादा है.
निशा : सही है, सर.
नीरज : इससे पहले स्टील में जब मैं था, तो काम भले ही इससे भी ज़्यादा होता था, पर वहाँ स्टाफ तो पूरा था न. यहाँ तो देर तक बैठना नहीं पड़ता, वहाँ तो कभी-कभी रात के नौ-दस भी बज जाया करते थे. दो-तीन बार तो ग्यारह भी बज गए थे. कई बार शनिवार को भी आना पड़ता था ऑफिस. साल में पाँच-सात बार तो शनिवार के बाद इतवार को भी आते थे.
निशा कुछ बोलती नहीं, बस गहरी नज़रों से नीरज को देखती रहती है.
नीरज (शेख़ी भरे स्वर में) : वहाँ काम बेशक ज़्यादा था और यहाँ के मुकाबले मुश्किल भी था, पर वहाँ काम करने का अपना मज़ा था. बड़ी-बड़ी मीटिंगें अटैण्ड करते थे, टूर लगते थे. साल में पाँच-सात टूर तो आराम से लग जाते थे. सुबह-शाम कम्पनियों के लोग 'सर' 'सर' किया करते थे. यहाँ तो जो देखो, घोड़े पर सवार होकर आता है और लगे हाथों बस यही पूछता है कि मेरा पैसा रिलीज़ हुआ या नहीं. कुछ लोग तो सेक्रेटरी तक पहुँच जाते हैं शिक़ायत लेकर.
तभी निशा को जैसे कुछ याद आ जाता है. अपने हाथ में पकड़ी फाइल मेज़ पर रखकर वह कुर्सी से उठ खड़ी होती है. फिर नीरज के दाईं तरफ़ वाली ट्रे में ऊपर-ऊपर पड़ी उन तीन फाइलों में से, जो थोड़ी देर पहले रामपाल रखकर गया था, एक फाइल निकालकर उसे सबसे ऊपर रख देती है.
नीरज : कोई जल्दी है क्या इसमें?
निशा (कुर्सी पर बैठते हुए) : हाँ सर, फोन आया था डॉ. सलीम का. मैम भी कह रही थीं इस फाइल को जल्दी निकालने के लिए.
नीरज (थोड़े आवेशपूर्ण स्वर में) : ऐसी क्या जल्दी है इस फाइल की? इससे पुरानी-पुरानी फाइलें तो आई नहीं अब तक मेरे पास. यह तो अभी काफ़ी नया केस है. मैडम के लिए तो हर केस अर्जेंट है. खुद तो कुछ करना नहीं है. बस साइन ही तो मारने हैं.
निशा (जैसे डॉ. दामिनी का पक्ष लेते हुए) : सर, मैम को भी फ़ोन आया था न.
निशा की बात सुनकर नीरज का मुँह बुरा-सा बन जाता है. वह कुछ कहने को होता है, पर फिर चुप रह जाता है.
नीरज (काफ़ी दोस्ताना से स्वर में) : और आपके हस्बैंड के क्या हाल हैं?
नीरज की बात सुनते ही निशा का चेहरा तमतमा-सा जाता है.
निशा (आवेशपूर्ण स्वर में) : वे सब लोग तो वैसे-के-वैसे ही रहेंगे. मेरी तो ज़िन्दगी तबाह हो गई है इस घर में शादी करके.
नीरज (थोड़ा चिंतित स्वर में) : क्यों, क्या हो गया?
निशा (उसी स्वर में) : होना क्या है? हस्बैंड को अपने माँ-बाप ज़्यादा प्यारे हैं. न मेरी परवाह है न बेटे की.
नीरज : भई माँ-बाप का ध्यान रखना तो कोई ग़लत बात नहीं है.
निशा (उसी तमतमाए स्वर में) : रक्खें, ध्यान रक्खें. मैं कहती हूँ जितना ध्यान रखना है, रक्खें. पर हम लोगों की भी तो परवाह हो न. उनको तो वही करना है जिसमें उनके माँ-बाप ख़ुश रहें.
नीरज : क्यों, आपका ध्यान नहीं रखते क्या आपके हस्बैंड?
निशा (उसी स्वर में) : क्या ध्यान रखना है इन्होंने. मेरा नहीं तो कम-से-कम हमारे बेटे का तो ध्यान रक्खें. इनको न तो बेटे की पढ़ाई की फिकर है, न उसकी किसी और चीज़ की चिन्ता है. सब बातों के लिए बस मैं ही हूँ. दहेज में लाई थी न मैं बेटे को जैसे.
नीरज कुछ बोलने को होता है कि तभी सुरेश एक कप-प्लेट हाथ में लिए कमरे का दरवाज़ा खोलता है. फिर नीरज के पास आकर बड़े आदर से कप-प्लेट उसकी मेज़ पर रख देता है.
सुरेश (निशा से) : मैम, चाय ले आऊँ आपकी यहीं?
निशा (अधिकारपूर्ण स्वर में) : नहीं, मैं आ रही हूँ सेक्शन में ही.
निशा कुर्सी से उठकर कमरे से बाहर चली जाती है.
नीरज (अपनी मेज़ पर पड़ी उस फाइल को देखते हुए जो निशा लेकर आई थी प्यार भरे स्वर में सुरेश से) : यह फाइल तो निशा यहीं भूल गई है, दे देना उसे.
कहते हुए नीरज एक फाइल की तरफ़ इशारा करता है. सुरेश आगे बढ़कर वह फाइल उठा लेता है और मेज़ से कुछ हटकर खड़ा हो जाता है.
नीरज (चाय का कप उठाकर पीते हुए, मीठी आवाज़ में) : और क्या हाल हैं आपके?
सुरेश (परेशान स्वर में) : बहुत बुरे हाल हैं, सर.
नीरज : क्यों, क्या बात है?
सुरेश (उसी परेशान-से स्वर में) : तनख़ा तो दे नहीं रही मैडम.
नीरज (थोड़ी हैरानी से) : मिली नहीं क्या अब तक आपकी तनख़्वाह?
सुरेश : चार महीने हो गए हैं. पैसे के बग़ैर गुज़ारा कहाँ चलता है, सर. और फिर छुट्टी वाले दिनों में जो अपने घर के कामों के लिए बुलाती हैं, उसका भी तो मेट्रो का किराया लगता है. कभी-कभी तो किराए तक के पैसे नहीं होते. कहीं से उधार लेने पड़ते हैं. किसी छुट्टी वाले दिन तबीयत खराब हो और इनके घर न जा सको तो कहेंगी कि तू कामचोर है. बीमारी का बहाना बना रहा है. तेरी आज की तनखा काट लूँगी. और काट भी लेती है. (कहते-कहते रूआँसा हो जाता है)
नीरज : कहा नहीं आपने मैडम से तनख़्वाह के लिए?
सुरेश : दिन में कई-कई बार कहता हूँ, सर. बस टालती रहती हैं. सुबह कहो तो बोलेंगी कि बाद में बात करेंगे. दोपहर को कहो तो बोलेंगी कि शांति से लंच भी करने दोगे या नहीं. शाम को बोलो तो कहेंगी कि तुम्हें तो पैसे के अलावा और कोई काम ही नहीं है. फिर बात करेंगे.
नीरज (कुछ सोचते हुए) : चार महीने से कुछ भी नहीं मिला?
सुरेश : सर, बहुत ज़्यादा कहो तो कभी दो सौ रुपए दे देंगी, तो कभी पाँच सौ रुपए पकड़ा देंगी.
नीरज (चाय ख़त्म करके कप को मेज़ पर पड़ी प्लेट में रखते हुए) : हूँ.
सुरेश : मैडम ये नहीं सोचतीं कि अब तो मेरी शादी हो गई हुई है. मुझे भी घर चलाना है. कब तक मेरे माँ-बाप हमारा खर्च.....
तभी झटके-से दरवाज़ा खुलता है और निशा अन्दर आती है. निशा को देखते ही सुरेश चुप हो जाता है और आगे बढ़कर नीरज की मेज़ पर पड़े खाली कप-प्लेट को उठा लेता है और 'ओ.के., सर' कहता हुआ कमरे से बाहर चला जाता है. नीरज की शक्ल पर हड़बड़ाहट के-से भाव आ जाते हैं कि कहीं निशा ने सुरेश की बातें न सुन ली हों.
निशा : वो फाइल भूल गई थी मैं यहाँ.
नीरज : वो फाइल तो ले गया सुरेश.
निशा : सर, मैम कह रही हैं कि वो क्रेडिट कार्ड वाला केस आप उन्हें समझा दें.
निशा की बात सुनते ही नीरज का मुँह बुरा-सा बन जाता है.
नीरज (मेज़ की दाईं तरफ़ वाली दराज़ खोलते हुए) : अरे, यह कौन सा केस है. क्रेडिट कार्ड का बिल ही तो है.
निशा : वो तो है, पर मैम के लिए तो यह बहुत बड़ी बात है.
नीरज : अब यही काम करते रहेंगे, तो ये फाइलों के कुतुब मीनार कौन देखेगा?
निशा कुछ बोलती नहीं, बस अर्थपूर्ण नज़रों से नीरज की ओर देखती रहती है. नीरज हाथ में क्रेडिट कार्ड की स्टेटमैंट लिए आवेशपूर्ण मुद्रा में कुर्सी से खड़ा हो जाता है. तभी फोन के साथ पड़े इन्टरकॉम पर घंटी बजने लगती है.
नीरज (इंटरकाम का रिसीवर उठाकर) : हैलो.
.........................
नीरज (थोड़े दबे स्वर में) : नमस्कार, मैडम. बस आपके पास ही आ रहा हूँ.
.........................
नीरज : (विनीत स्वर में) अभी-अभी बताया है मैडम. मैं आ ही रहा था आपके पास.
नीरज इंटरकॉम का रिसीवर रख देता है.
नीरज (तनिक क्रोधभरी आवाज़ में निशा से) : मैडम ने एक घंटा पहले कहा था क्या आपको मुझसे क्रेडिट कार्ड वाली बात समझाने के लिए?
निशा (आवाज़ में थोड़ी बेशर्मी के साथ) : हाँ, सुबह जब वे ऑफिस आई थीं, तो कहा था, पर मैं भूल गई आपको बताना.
नीरज (उसी आवाज़ में) : कुछ देर पहले बात तो हुई थी आपसे क्रेडिट कार्ड के बिल के बारे में. तब भी याद नहीं आया आपको मुझे बताना?
निशा (खोखले स्वर में) : सॉरी, सर.
नीरज (थोड़े चिढ़े स्वर में) : अब यह ज़रा-सी बात बताने के लिए जाऊँगा, तो आधे-पौने घंटे से पहले आने नहीं देंगी. इतनी देर में तो एक-दो फाइलें निकल सकती हैं. फिर कहती हैं काम की स्पीड बढ़ाओ! (तभी जैसे अचानक कुछ याद आ गया हो) : और वो डॉ. सक्सेना वाली फाइल का क्या हुआ? 'प्लीज़ स्पीक' लिखकर भेजा था न मैंने कल आपको?
निशा (जैसे मामले को अच्छी तरह समझती हो) : सर, वो केस तो हमें करना ही पड़ेगा. मैंने तो अपने नोट में यही लिखा था कि डॉ. सक्सेना को चालीस लाख की मशीनरी दे दी जाए, मगर आपने उस फाइल पर उससे उल्टा लिख दिया था. नोट लिखने से पहले मैंने मैम से बात भी की थी, सर. डॉ. सक्सेना पर तो मैम हमेशा ही मेहरबान रहती हैं.
नीरज (हैरानी से) : क्यों, कोई ख़ास बात है क्या?
निशा (अर्थपूर्ण स्वर में) : ख़ास ही है सर. इन दोनों की दोस्ती तो बहुत पुरानी है. दोस्ती क्या, याराना है. (हल्के-से हँसती है)
नीरज (तटस्थ स्वर में) : ख़ैर, मुझे क्या लेना-देना है इन लोगों की दोस्ती से. मुझे तो बस मतलब है डॉ. सक्सेना वाली फाइल से. तीन महीने बाद प्रोजेक्ट ख़त्म होने वाला है और अब भी मशीनरी चाहिए चालीस लाख की!
निशा (जैसे डॉ. दामिनी का पक्ष लेते हुए) : हम फाइल से पुराना नोट हटाकर नया नोट लिख देते हैं मशीनरी देने के लिए. यह तो करना ही पड़ेगा, और कोई चारा नहीं है, सर. नहीं तो मैम खा जाएँगीं हम लोगों को.
नीरज (ग़ुस्से भरी आवाज़ में) : फ़ायदे इन लोगों ने उठाने हैं और अपनी आत्मा को मारें हम! आपने फाइल में जो लिखना है, लिखिए. मैं तो इस गोरखधंधे का हिस्सा बन नहीं पाऊँगा. (तभी अचानक जैसे कुछ याद आ गया हो) (व्यंग्यपूर्ण लहजे में) चलो, मैं मैडम को समझाकर आता हूँ क्रेडिट कार्ड वाला केस!
कहते-कहते नीरज दरवाज़े की ओर बढ़ने लगता है. नीरज के कमरे से बाहर चले जाने पर निशा फुर्ती से नीरज की मेज़ पर पड़ी फाइलों को उलट-पुलटकर देखने लगती है.
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अंक - तीन
डॉ. दामिनी का कमरा. डॉ. दामिनी की मेज़ के बाईं तरफ़ निशा हाथ पीछे बाँधे खड़ी है. डॉ. दामिनी के पीछे वाली जगह में कुर्सी पर बैठी वीना कम्प्यूटर पर कुछ काम कर रही है. डॉ. दामिनी हाथ में एक काग़ज़ पकड़े कुर्सी पर सीधी बैठी हैं.
निशा : मैम, मैंने डॉ. पुष्पेन्द्र के केस के बारे में कैश सैक्शन से पता लगा लिया है.
डॉ. दामिनी (जैसे कुछ याद ही न हो) : कौन सा केस?
निशा : मैम, उनका चैक नहीं पहुँचा था न. उनका फ़ोन आया था तो आपने नीरज सर को पता लगाने के लिए कहा था.
डॉ. दामिनी (जैसे कुछ याद आ गया हो) : हाँ-हाँ, डॉ. पुष्पेन्द्र का फ़ोन आया था कुछ दिन पहले.
निशा : मैम, मैने पता लगा लिया है उनका चैक परसों ही भेजा गया है. मैंने चैक नम्बर भी ले लिया है.
कहते-कहते निशा पीछे बाँधे अपने हाथों में से दाँया हाथ आगे करती है और उस हाथ में पकड़ा काग़ज़ डॉ. दामिनी के सामने कर देती है. डॉ. दामिनी काग़ज़ हाथ में लेकर माथे पर चढ़ाया चश्मा आँखों के सामने लाकर उस काग़ज़ पर लिखा हुआ पढ़ने लगती हैं.
डॉ. दामिनी (अधिकारपूर्ण स्वर में) : ठीक है, डॉ. पुष्पेन्द्र को फ़ोन करके भी बता दो.
निशा (थोड़ी तेज़ आवाज़ में) : मैंने बता दिया है मैम फ़ोन पर उन्हें.
डॉ. दामिनी (प्रसन्न स्वर में) : ठीक है, गुड.
निशा (थोड़ी धीमी आवाज़ में) : मैम, नीरज सर तो बड़ा गुस्सा कर रहे थे.
डॉ. दामिनी (प्रश्नवाचक मुद्रा में निशा की ओर देखते हुए तनिक क्रोध भरे स्वर में) : क्यों? क्या हो गया उसको?
तभी कम्प्यूटर पर काम कर रही वीना कुर्सी से उठ खड़ी होती है और डॉ. दामिनी के पास विनीत मुद्रा में खड़ी हो जाती है. डॉ. दामिनी और निशा उसकी ओर देखते हैं.
वीना (मुलायम और दबे हुए स्वर में) : मैम, वो ज़रा बैंक तक जाना था.
डॉ. दामिनी (कड़क आवाज़ में) : क्यों, क्या बात हो गई?
वीना (उसी स्वर में) : मैम, वो एक ड्राफ्ट बनवाना है.
डॉ. दामिनी (सख़्त आवाज़ में) : क्यों, क्या करना है ड्राफ्ट का?
वीना : मैम, मेरे हस्बैंड को अप्लाई करना था किसी पोस्ट के लिए.
डॉ. दामिनी (उसी स्वर में) : तो जिसको चाहिए ड्राफ्ट, वही बनवाए. तुम क्यों इस चक्कर में पड़ रही हो?
वीना : मैम, वे दो-तीन दिनों के लिए कहीं बाहर गए हैं, आज रात को आएँगे. कल तक लास्ट डेट है अप्लाई करने की.
डॉ. दामिनी (अधिकारपूर्ण स्वर में) : ठीक है, जल्दी आना लड़की.
वीना (जैसे कोई बड़ी सफलता मिल गई हो) : ठीक है, मैम.
वीना जल्दी-जल्दी कदम उठाती कमरे से बाहर जाने लगती है.
डॉ. दामिनी (वीना से) : सुनो.
दरवाज़े के पास पहुँची वीना रूक जाती है.
डॉ. दामिनी : बाहर सुरेश को बोल देना लैमन-जिंजर वाली चाय के लिए.
वीना : ठीक है, मैम.
वीना दरवाज़े से बाहर निकल जाती है.
डॉ. दामिनी (निशा से) : हाँ तो, क्या कह रही थी तुम?
निशा : मैम, मैं यह कह रही थी कि नीरज सर तो बड़ा गुस्सा हो रहे थे.
डॉ. दामिनी : (नाराज़गी भरे स्वर में) : किस बात पर हो रहा था ग़ुस्सा?
निशा : मैम, आपने कल कह दिया था न उनको डॉ. पुष्पेन्द्र के चैक का पता लगाने के लिए.
डॉ. दामिनी (थोड़े आवेशपूर्ण स्वर में) : तो लगाए पता.
निशा : मैम, पता तो मैंने लगा ही लिया है. पर वो मुझे कह रहे थे कि यह हमारा काम थोड़ा ही है. हमारा काम तो ऑर्डर इशु करने तक का है.
डॉ. दामिनी (तिरस्कारपूर्ण स्वर में) : अरे, वह तो ख़ामख़ाँ ऐसे ही रोता रहता है.
निशा (भेद-भरे स्वर में) : मैम, वो तो आपके खिलाफ़ पता नहीं क्या-क्या बोलते रहते हैं.
डॉ. दामिनी हाथ में पकड़ा काग़ज़ मेज़ पर रख देती है और सीधी होकर बैठ जाती है.
डॉ. दामिनी : अच्छा? क्या कहता फिरता है वो?
निशा (उसी स्वर में) : मैम, यही कि....
तभी सुरेश हाथ में कप-प्लेट लिए कमरे में आता है और बड़े अदब के साथ कप-प्लेट डॉ. दामिनी की मेज़ पर रख देता है.
डॉ. दामिनी (अधिकारपूर्ण स्वर में सुरेश से) : डाला है न इसमें लेमन और जिंजर?
सुरेश (विनीत स्वर में) : यस, मैम.
डॉ. दामिनी (आदेशपूर्ण स्वर में) : पानी तो पिलाओ ज़रा.
सुरेश सोफे के पास पड़ी तिपाई की तरफ जाता है. फिर तिपाई पर पड़े गिलास का कवर उठाकर नीचे रखता है और जग में से पानी उॅडेलकर गिलास को भरता है. उसके बाद डॉ. दामिनी के पास जाकर आदरपूर्ण ढंग से पानी का गिलास उन्हें दे देता है. डॉ. दामिनी एक ही साँस में गिलास खाली कर देती हैं और उसे मेज़ पर रखने लगती हैं. सुरेश उनके हाथ से गिलास लेकर कमरे से बाहर चला जाता है.
डॉ. दामिनी : हाँ, क्या कह रही थी तुम?
निशा : मैम, वही नीरज सर की बात. वे कह रहे थे कि सारा काम तो मैं ही करता हूँ और मैडम सिर्फ़ साइन करती हैं फाइलों पर.
डॉ. दामिनी : अच्छा, ऐसा कह रहा था वो?
तभी सुरेश धुला हुआ गिलास लेकर कमरे में वापिस आता है और उसे कवर से ढककर तिपाई पर रख देता है.
डॉ. दामिनी (अधिकारपूर्ण स्वर में सुरेश से) : देखो, दरवाज़े के बाहर खड़े रहना और कोई अन्दर न आने पाए. मैं कुछ ज़रूरी बातें डिस्कस कर रही हूँ.
सुरेश 'यस, मैम' कहता हुआ कमरे से बाहर चला जाता है.
निशा : मैम, वो तो आपके खिलाफ़ बहुत कुछ कहते रहते हैं.
निशा की बात सुनते ही डॉ. दामिनी का चेहरा ग़ुस्से से लाल हो जाता है.
डॉ. दामिनी (क्रोधपूर्ण मुद्रा में) : और क्या कहता रहता है वो?
निशा : मैम, अब एक बात हो तो बताऊँ.
डॉ. दामिनी (आदेशपूर्ण स्वर में) : नहीं, बताओ मुझे. सब कुछ बताओ.
निशा : मैम, वे तो यह भी कह रहे थे कि मैडम के क्रेडिट कार्ड की स्टेटमैंट देखना उनका काम थोड़े ही है.
डॉ. दामिनी : ऐसा क्या पहाड़ टूट पड़ा उस पर अगर उसे कह दिया मैंने यह काम.
निशा : वो तो यह भी कह रहे थे कि पूरा स्टाफ है नहीं और मैडम स्टाफ के लिए बात करती नहीं सेक्रेटरी या जे.एस. से.
डॉ. दामिनी (थोड़ी ढीली पड़ते हुए) : नोट लिखकर दिया तो था सेक्रेटरी को तीन-चार महीने पहले. जे.एस. से भी बात की थी एक बार स्टाफ के लिए.
निशा : मैम, आपने शायद नीरज सर को स्टाफ के लिए एक और नोट बनाने के लिए कहा था.
डॉ. दामिनी (थोड़ी तेज़ आवाज़ में) : हाँ, कहा था.
निशा : मैम, वो कह रहे थे यह भी मेरा काम थोड़ा ही है.
डॉ. दामिनी (क्रोधपूर्ण स्वर में) : एक नोट बनाने में कौन सी जान निकल रही है उसकी.
निशा : मैम, वे तो कहते हैं कि नोट बनाने में तो दस-पन्द्रह मिनट लगते हैं, पर मैडम इतनी बार उसमें काट-छाँट करती हैं कि आधा दिन तक नोट फाइनल नहीं हो पाता. इतनी देर में तो चार-पाँच फाइलें निकाल सकते हैं.
डॉ. दामिनी (उसी स्वर में) : बहुत बातें करने लगा है यह.
निशा (उसी उकसाने वाले स्वर में) : मैम, वो तो डॉ. सक्सेना वाले केस के बारे में भी उल्टा-सीधा बहुत कुछ कह रहे थे.
डॉ. दामिनी (उत्सुकता से) : क्या कह रहा था यह नीरज का बच्चा!
निशा (भेद-भरे स्वर में) : मैम, वो कह रहे थे कि फायदे तो आप लोगों ने उठाने हैं और अपनी आत्मा को मारें हम.
डॉ. दामिनी (क्रोधभरे स्वर में) : बहुत बक-बक करने लगा है यह.
निशा उन्होंने तो यह भी कहा है कि वे इस गोरखधंधे का हिस्सा नहीं बनेंगे.
डॉ. दामिनी (ग़ुस्से से भड़कती आवाज़ में) : बहुत ऊँचा उड़ने लगा है यह नीरज का बच्चा!
निशा (उसी उकसाने वाले स्वर में) : मैम, वो तो आपके और डॉ. सक्सेना के बारे में भी उल्टा-सीधा न जाने क्या-क्या कह रहे थे.
डॉ. दामिनी (क्रोधित स्वर में) : पर कतरने पड़ेंगे इसके.
निशा : मैम, इनकी सी.आर. (कॉन्फिडेंशियल रिपोर्ट) पड़ी हैं न आपके पास.
डॉ. दामिनी : हाँ, तीन साल हो गए हैं इसे यहाँ आए हुए. मैंने तो इसकी सी.आर. अब तक कोई लिखी नहीं.
निशा : मैम, मेरे हिसाब से इनकी दो सी.आर. आपके पास होंगी. तीसरी इन्होंने दी नहीं होगी अभी तक आपको.
डॉ. दामिनी : चैक करवाना पड़ेगा रिकॉर्ड.
निशा : मैम, लिखनी है फिर इनकी सी.आर.?
डॉ. दामिनी : आज तो डॉ. चक्रवर्ती आने वाले हैं. एक बजे आना था. फिर लंच पर भी जाना था उनके साथ बाहर. कितना टाइम हो गया?
कहते-कहते डॉ. दामिनी दाईं तरफ़ दीवार पर लगी दीवार घड़ी की ओर देखती हैं. निशा भी सिर घुमाकर पीछे देखती है.
डॉ. दामिनी : अरे, एक तो बजने भी वाला है.
निशा (सिर वापिस डॉ. दामिनी की तरफ़ घुमाकर) : मैम, फिर कब लिखनी है इनकी सी.आर.?
डॉ. दामिनी : मैं तुम्हें चाबी देती हूँ. तुम निकाल लो अलमारी से सी.आर. उसकी, जितनी भी हैं.
डॉ. दामिनी अपने बाईं तरफ़ वाले रैक पर पड़ा अपना पर्स उठाती हैं. फिर पर्स को खोलकर उसमें से चाबियों का एक गुच्छा निकालती हैं. उसके बाद उस गुच्छे में से कोई चाबी ढूँढने लगती हैं. चाबी मिल जाने पर फिर उस चाबी से वह अपने पीछे पड़े एक और रैक की दराज़ खोलने लगती हैं. उस दराज़ से चाबियों का एक और गुच्छा निकालकर मेज़ पर रख देती हैं और दराज़ का ताला बन्द करने लगती हैं. ताला बन्द करने के बाद वे दराज़ को दो-तीन बार खींचकर देखती हैं कि कहीं खुला तो नहीं रह गया. पूरा इत्मीनान हो जाने पर वे कुर्सी पर सीधी होकर बैठ जाती हैं और पर्स से निकाला चाबियों का गुच्छा पर्स में डालने लगती हैं.
डॉ. दामिनी (मेज़ पर पड़ी चाबियों के गुच्छे की ओर इशारा करते हुए) : ये चाबियाँ उठाओ और सी.आर. निकाल लो उसकी.
निशा : जो लिखना है आपको मैं उसका ड्राफ्ट बना देती हूँ.
डॉ. दामिनी : हाँ-हाँ, वह तो तुम जानती ही हो कि क्या लिखना होता है.
निशा : कैसी देनी है सी.आर., मैम?
डॉ. दामिनी : पर कतरने हैं इसके, और क्या. ज़्यादा हवा में जो उड़ रहा है.
डॉ. दामिनी धीमे-से हँसती हैं. निशा के चेहरे पर भी भेद-भरी मुस्कुराहट आ जाती है.
निशा (दृढ़ स्वर में) : लेकिन मैम, सिर्फ़ सी.आर. खराब करने से कोई ज़्यादा फर्क़ नहीं पड़ने वाला. अगली प्रमेाशन एक-दो साल देर से मिलेगी, बस. ऐसे आदमी को तो कोई तगड़ा सबक सिखाना चाहिए.
डॉ. दामिनी (जैसे उनके मन की बात कह दी हो) : बात तो तुम्हारी बिल्कुल ठीक है निशा. बताओ क्या करें?
निशा (भेद-भरे धीमे-से स्वर में) : मैम, इन्हें किसी केस में फँसा देते हैं.
डॉ. दामिनी (कुछ सोचते हुए) : हूँ, मगर यह पूरा ईमानदार आदमी है. काम भी इसका बिल्कुल ठीक है.
निशा मैम, जिन लोगों को ग्रांट का पैसा रिलीज़ करने में ज़्यादा टाइम लगा है या जिनकी ग्रांट में कुछ कट लगा है, ऐसे तीन-चार करीबी लोगों को कहकर आप नीरज सर के खिलाफ़ कम्प्लेंट करवा दीजिए कि नीरज सर जानबूझकर केस लटकाते हैं या ग्रांट का पूरा पैसा नहीं देना चाहते.
डॉ. दामिनी (प्रसन्न स्वर में) : वो तो मैं बड़ी आसानी से करवा दूँगी. बड़े दुःखी हैं कई लोग इस हरीशचन्दर की औलाद से!
निशा (प्रसन्न स्वर में) : बस, फिर तो केस चलता रहेगा और नीरज सर उसमें उलझे रहेंगे. (फिर अचानक रूककर कुछ सोचते हुए) वैसे इनको एक और मामले में भी फँसाया जा सकता है.
डॉ. दामिनी (प्रश्नवाचक नज़रों से देखते हुए) कैसे?
निशा (भेद-भरे धीमे स्वर में) मैम, सेक्सुअल हरासमेंट की कम्पलेंट करके.
डॉ. दामिनी (हल्के-से हँसते हुए) मगर यह बेचारा तो बिल्कुल शरीफ़ बन्दा है.
निशा (उसी भेद-भरी धीमी आवाज़ में) मगर मैम, जब कम्पलेंट कर देंगे तो इनकी शराफ़त पर विश्वास करेगा कौन!
डॉ. दामिनी हाँ, वो तो है. चलो देख लेंगे, अगर ज़रूरत पड़ेगी तो कर देंगे ऐसी कम्पलेंट भी. (थोड़ा रूककर) तुम कर देना कम्पलेंट.
निशा (तत्परता से) ठीक है, मैम. मैं कर दूँगी, इसमें क्या.
डॉ. दामिनी (चहकते-से स्वर में) : फिर या तो यह हमारी कही राह पे चलने लगेगा, नहीं तो इसके बदले कोई दूसरा आदमी ले लेंगे यह कहकर कि यह तो भ्रष्टाचारी है और बदमाश भी! (कहते-कहते हँसती हैं)
निशा (उसी स्वर में) : और रास्ते का काँटा साफ़ हो जाएगा!
(दोनों की सम्मिलित हँसी का स्वर)
(परदा गिरता है)
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संक्षिप्त परिचय
नाम हरीश कुमार ‘अमित’
जन्म मार्च, 1958 को दिल्ली में
शिक्षा बी.कॉम.; एम.ए.(हिन्दी); पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
प्रकाशन 800 से अधिक रचनाएँ (कहानियाँ, कविताएँ/ग़ज़लें, व्यंग्य, लघुकथाएँ, बाल कहानियाँ/कविताएँ आदि) विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
एक कविता संग्रह ‘अहसासों की परछाइयाँ’, एक कहानी संग्रह ‘खौलते पानी का भंवर’, एक ग़ज़ल संग्रह ‘ज़ख़्म दिल के’, एक लघुकथा संग्रह ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’, एक बाल कथा संग्रह ‘ईमानदारी का स्वाद’, एक विज्ञान उपन्यास ‘दिल्ली से प्लूटो’ तथा तीन बाल कविता संग्रह ‘गुब्बारे जी’, ‘चाबी वाला बन्दर’ व ‘मम्मी-पापा की लड़ाई’ प्रकाशित
एक कहानी संकलन, चार बाल कथा व दस बाल कविता संकलनों में रचनाएँ संकलित
प्रसारण लगभग 200 रचनाओं का आकाशवाणी से प्रसारण. इनमें स्वयं के लिखे दो नाटक तथा विभिन्न उपन्यासों से रुपान्तरित पाँच नाटक भी शामिल.
पुरस्कार (क) चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट की बाल-साहित्य लेखक प्रतियोगिता 1994,
2001, 2009 व 2016 में कहानियाँ पुरस्कृत
(ख) ‘जाह्नवी-टी.टी.’ कहानी प्रतियोगिता, 1996 में कहानी पुरस्कृत
(ग) ‘किरचें’ नाटक पर साहित्य कला परिष्द (दिल्ली) का मोहन राकेश सम्मान 1997 में प्राप्त
(घ) ‘केक’ कहानी पर किताबघर प्रकाशन का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान दिसम्बर 2002 में प्राप्त
(ड.) दिल्ली प्रेस की कहानी प्रतियोगिता 2002 में कहानी पुरस्कृत
(च) ‘गुब्बारे जी’ बाल कविता संग्रह भारतीय बाल व युवा कल्याण संस्थान, खण्डवा (म.प्र.) द्वारा पुरस्कृत
(छ) ‘ईमानदारी का स्वाद’ बाल कथा संग्रह की पांडुलिपि पर भारत सरकार का भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार, 2006 प्राप्त
(ज) ‘कथादेश’ लघुकथा प्रतियोगिता, 2015 में लघुकथा पुरस्कृत
(झ) ‘राष्ट्रधर्म’ की कहानी-व्यंग्य प्रतियोगिता, 2017 में व्यंग्य पुरस्कृत
(ञ) ‘राष्ट्रधर्म’ की कहानी प्रतियोगिता, 2018 में कहानी पुरस्कृत
(ट) ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’लघुकथा संग्रह की पांडुलिपि पर किताबघर प्रकाशन का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, 2018 प्राप्त
सम्प्रति भारत सरकार में निदेशक के पद से सेवानिवृत्त
पता 304, एम.एस.4 केन्द्रीय विहार, सेक्टर 56, गुरूग्राम-122011 (हरियाणा)
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