नाटक लेखन पुरस्कार आयोजन 2020 - प्रविष्टि क्र. 14 - भूख - सीताराम पटेल सीतेश

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रचनाकार.ऑर्ग नाटक / एकांकी / रेडियो नाटक लेखन पुरस्कार आयोजन 2020

प्रविष्टि क्र. 14 -  भूख

सीताराम पटेल सीतेश

भूख


पात्र परिचय :

सूत्रधार

लालचीप्रसाद : एक लालची सेठ

कांति : लालचीप्रसाद की पत्नी

ललुवा : लालचीप्रसाद का कर्जदार

सत्तू ख्सत्य, : लालचीप्रसाद का नौकर

शांति : सत्तू की पत्नी

सागर : लालचीप्रसाद का बेटा

कलूटी : सत्तू का पड़ोसी, निर्भीक औरत

बापू : कलूटी का बाप

बीजुरी : कलूटी की बेटी

विशु : सत्तू का बेटा

सरस्वती चंद : सत्य का पिताजी

कवि, पुलिस, कंडक्टर, ऑटोवाला, डॉक्टर, नर्स इत्यादि


दृश्य : 1

सूत्रधार - जब भू और ख का महामिलन होता है, तो भू निःवस्त्र हो जाती है, सलिल रूपी प्रस्वेद से भीग जाती है, ख संतुष्ट होकर नीलम हो जाता है, भू में ख का बीज पलता है और भू में ख का अवतार होता है, भूख का हँसना, खिलखिलाना, किलकारी मारना, माँ के वात्सल्य में शामिल है, पिता परदेश में है, ख की नजरों में असमानताएँ है, एक जलाता है, दूसरा ठंडक पहुँचाता है, एक दिवाकर है, दूसरा निशाकर है, बारी बारी से भू को देखते हैं, कभी खिलखिलाता है, कभी रोता है, कभी शाँत रहता है, जहाँ भी भूख जाता है, वहाँ को अपने गिरफ्त में ले लेता है, गाँव, नगर, महानगर, नर, नारी, बच्चे, बूढ़े, शोषक वर्ग, सर्वहारा वर्ग, नेता, अभिनेता, बेरोजगार, ऑफीसर, चपरासी, प्रेमी, प्रेमिका, पति, पत्नी, व्यापारी, किसान, मजदूर यहाँ तक कि ललुवा भी इसी के गिरफ्त में है, लाला लालचीप्रसाद अपनी पत्नी कांति के साथ स्वर्णमहल के अभ्यान्तर के स्वर्णहंस के नरम बिस्तर में सो रहा है, उसके गुण्डे ललुवा को कोड़े मार रहे हैं, जिस कोड़े को उसने बनाया है, वही आज उसके चाम उधेड़ रहे हैं।

-दृश्य परिवर्तन,

लालचीप्रसाद - साले को और मारो, कर्ज लेकर देने का नाम नहीं ले रहा है, साला।

ललुवा - मालिक इस साल फसल ठीक से नहीं हुआ है, बीबी बच्चे भूखे मर रहे हैं।

लालचीप्रसाद - इससे मुझे कोई मतलब नहीं, मुझे ब्याज सहित रूपया चाहिए, तुम्हारी बीबी भूखी मर रही है, मर तो नहीं गई है।

ललुवा - बीबी के बारे में कुछ न बोलना लाला।

लालचीप्रसाद - साला मेरा रूपया चाहिए, रूपया ही मेरा सब कुछ है, माँ बाप भाई बहन सब कुछ है, इसी के लिए मैं जीता हूँ।

दृश्य : 2

स्थान : लालचीप्रसाद का घर समय : सुबह छह बजे

- कांति जगाती है।,

कांति - स्वप्न में ये रूपया रूपया बड़बड़ा रहे थे।

लालचीप्रसाद - कांति मेरे लिए रूपया ही सब कुछ है, मैं रूपया के लिए कुछ भी कर सकता हूँ,।

कांति - मैं तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं हूँ।

- उसकी छाती में हाथ फेरते हुए बोली।,

लालचीप्रसाद - नहीं तुम भी कुछ नहीं हो, तुम स्वार्थ वश मुझ पर टिकी हो, जब तक मेरे पास रूपया है, तब तक मेरी पत्नी हो, फिर मुझे छोड़कर कहीं दूसरे यहाँ चली जाओगी।

कांति - साजन इक्कीस साल के विवाहित जीवन में मुझे यही समझा।

लालचीप्रसाद - मैंने तुम्हें नहीं दुनिया को समझा है, दुनिया अर्थ से ही चलती है, अर्थ ही विश्व की जननी है।

-सहसा उठकर बॉथरूम में चला गया, कांति को बिस्तर काटती रहती है, वह करवट बदलती है, उसे सत्तू नजर आता है, लाला लक्ष्मी की पूजा तुलसीदल से पानी सींचकर, घंटी बजाकर, धूप अगरबत्ती जलाकर करता है, सष्टाँग प्रणाम कर कहता है।,

लालचीप्रसाद - मैं जा रहा हूँ कांति, भोजन पहुँचा देना।

-कांति अंगड़ाई लेते हुए उठती है,

कांति -कुछ नाश्ता करके जाओ साजन।

लालचीप्रसाद - मुझे पेट का नहीं पैसे का भूख है।

-वह चला जाता है, कांति आकर लेट जाती है, सुंदर, सुडौल नौकर सत्तू आता है,

कांति - प्रियतम यहाँ आओ, पलंग पर बैठो।

सत्तू - नहीं मालकिन, मेरा इस पर कोई अधिकार नहीं है।

कांति - तुम्हारा अधिकार मैं जानती हूँ सत्तू, तुम मेरे दिल के मालिक हो, ये लो मोतियों की माला, तुम्हारा किराया, मेरे शरीर पर मॉलिश कर दो।

-सत्तू मॉलिश करता है, कांति सिसकारने लगती है, दरवाजा खट से खुलता है, कांति जागती है, दरवाजे पर सत्तू खड़ा है, सत्तू निर्निमेष नग्न सौन्दर्य का रसपान करता है, कांति उसे झिड़कती है।,

कांति - चल सत्तू भाग, यहाँ क्या कर रहा है?

सत्तू - मालकिन ये माला मालिक ने भेजा है।

कांति - क्या सत्तू माला से मन भरता है?

सत्तू - मैं क्या जानूँ मालकिन, पर जब से दुनिया को जाना है, सभी इसी के पीछे भाग रहे हैं।

कांति - क्या सत्तू तू भी इसी के पीछे भागता है?

सत्तू - हम दीन तो पेट के छोड़ किसी के बारे में सोच नहीं सकते।

दृश्य : 3

स्थान : सत्तू का घर समय : शाम छह बजे

-सत्तू रात को घर पहुँचता है, उसकी बीबी शाँति अशाँति की मूरत बनी बैठी है।,

सत्तू - मेरी देवी आज दरवाजे पर बैठी हो।

शांति - मैंने कहा था न घर में एक दाने भी नहीं है।

सत्तू - तुम्हारी कसम याद नहीं रहा, कल ले आउँगा।

-उसके बाल को सहलाने लगता है, वो हाथ हटा देती है।,

सत्तू - शाँति इतनी नाराज क्यों हो?

शांति - नाराज और तुमसे, तुम तो प्यार करने लायक हो, नौकर नहीं शहंशाह हो गए।

सत्तू - रानी तुम्हारे लिए पगार में से नई साड़ी ला दूँगा।

शांति - सच

-उसने सत्तू को बाँहों में भर लिया, उसे उठाकर झोपड़ी के अंदर ले गया, निशाकर अपना कर बिखेर दिया, झोपड़ी में ज्योत्स्ना छन के आ रही थी, उनके नयनों में नींद कोसों दूर है, निशाकर को मेघ अपने आगोश में ले लिया, वृष्टि वर्षण से चू रहा है, पानी का एक रेला आया और शाँतिमहल को उखाड़कर ले गया, शांति बह रही है, डूबने को हुई चिल्लाई।,

शांति - बचाओ, बचाओ।

सत्तू - क्या हुआ शाँति क्यों चिल्ला रही हो?

शांति - आँ मैं पानी में डूब रही थी, जितनी हाथ पैर मारती, उतनी ही डूबती जाती, तुम्हें कहने को होती, पर आवाज नहीं निकलती थी, जोर जोर से चिल्लाई, हमारा शाँतिमहल भी पानी के रेला में डूब गया।

सत्तू - क्या बकती हो शाँति, दुनिया का कोई भी ताकत शाँतिमहल को नहीं उखाड़ सकता, वह अटल है, शाश्वत सनातन है।

शांति - झोपड़ी की क्या बिसात सत्तू?

सत्तू - यह झोपड़ी आदि से बना हुआ है और अनंत तक बना रहेगा। मानव को अपनी औकात नहीं भूलनी चाहिए, शाँति।

दृश्य : 4

स्थान : सत्तू का घर समय : सुबह छह बजे

-सागर आकर चिल्लाता है।,

सागर - सत्तू ओ सत्तू

सत्तू - कौन है बे वक्त बेवक्त चिल्लाता है?

सागर - तुम्हारा मालिक।

सत्तू - छोटे मालिक तुम, क्या बात है?

सागर - बड़े मालिक बुला रहे हैं।

-शांति दरवाजे पर आती है, रतजगा से उसके नयन रक्तिम लग रहे हैं, आँचल खिसक गया है, बाल बिखरे हुए है, सागर शांति को निर्निमेष देखता है। ,

सत्तू - शाँति बड़े मालिक बुला रहे हैं, मैं जा रहा हूँ, चलिए छोटे मालिक।

शांति - हाँ।

-सागर वापस आता है और बाँहों में भर लेता है।,

शांति - मैं जानती थी राजा, तुम वापस आओगे।

सागर - तुमने कैसे जाना रानी?

शांति - क्या नारी नर की नजर नहीं पहचानेगी?

सागर - रानी तुम बहुत खूबसूरत हो।

शांति - हटो राजा सभी नर नारी को ऐसे ही बनाते हैं।

सागर - सचमुच तुमसा नहीं देखा है।

-अपना अधर शाँति के अधर पर रखना चाहता है, वह एक तरफ आँख मूँदकर हट जाती है।,

शांति - अभी नहीं राजा इसके लिए पुरस्कार देना पड़ेगा।

सागर - पुरस्कार तो मैं साथ में लाया हूँ, लो ये हजार रूपया।

-सागर सत्तू के अधर में अधर रख देता हैं।,

सत्तू - ये क्या कर रहे हो छोटे मालिक?

सागर - ऐं, तुम सत्तू, तुम कुछ उदास लग रहे हो।

सत्तू - नहीं तो ।

सागर - तुम्हारा चेहरा कुम्हलाया हुआ लग रहा है।

सत्तू - हम दो दिन से भूखे है, छोटे मालिक। बड़े मालिक से पगार मांगते हैं तो कल पर टालते रहते हैं।

सागर - ये लो हजार रूपया। रॉशन लेकर घर चले जाओ। कल काम पर आ जाना। मैं पिताजी से कह दूँगा कि सत्तू घर पर नहीं है।

दृश्य : 5

स्थान : सत्तू का घर समय : सुबह आठ बजे

-सत्तू रॉशन लेकर घर पहुँचा, शाँति उछल पड़ी, मरा हुआ चुल्हा जिंदा हो गया, बर्तन में जान आ गया, दिवाकर की कर झोपड़ी में आने लगी, खाना तैयार हो गया, एक थाली में निकालकर परस्पर खाने लगे।,

सत्तू - हाय जल गया शांति इतना गरम मत खिलाओ।

शांति - गरम कहाँ मेरा सत्तू, ये तो ठंडा है।

-वे ठंडा होने तक इंतजार नहीं कर सके। ,

दृश्य : 6

स्थान : लालचीप्रसाद का घर समय : दोपहर बारह बजे

-सागर को उसकी नौकरानी खिला रही है, कलूटी का चेहरा शाँति जैसा लगता है। ,

कलूटी - खाना तो खा लिए राजा, आगे क्या प्रोग्राम है?

सागर - चलो हाथ पैर में मॉलिश कर देना।

कलूटी - हाय दइया, मालकिन देख लेगीं तो नौकरी से निकाल देंगी।

सागर - मेरे होते हुए तुम्हें कौन निकाल सकते हैं। आओ मेरा पैर दबाओ।

-कलूटी पैर दबाने लगी, दरवाजा बंद होने के बाद डर भग गया था। दिवाकर भी मेघ के आगोश में आ गया, पानी गिरने लगा, झंझावात आया, वे उड़ने लगे, सागर गिरने लगा। वो चिल्लाया-,

सागर - बचाओ, बचाओ।

कलूटी - क्या हुआ छोटे मालिक?

सागर - कलूटी, तुम मेरे कमरे में कैसे आई?

कलूटी - तुम्हीं ने बुलाया और तुम्हीं कहते हो कैसे आई, मैं खाना दे रही थी, तुम्हीं बाँहों में उठाकर यहाँ तक लाए।

सागर - ये लो रूपया, ये बात कोई जान न पाए।

कलूटी - तुम लोगन भी कइसे हो छोटे मालिक? पहले नारियों के दिल से खेलते हो, फिर रूपया से खरीदना चाहते हो।

सागर -ले लो ,कलूटी तुम्हारा काम आएगा। कल कह रही थी बापू बीमार है, दवाई के लिए रूपया चाहिए।

कलूटी - मैंने प्रेम किया है तुमसे मेरे राजा, मैंने तुममें नर का आकर्षण पाया और तुम पर आकर्षित हुई, वरना किस नपुंसक नर में इतना दम है, जो मेरी तरफ नजर उठाकर देख सके।

सागर - कलूटी तुममें नारी के सभी गुण मौजूद है।

-साड़ी संभालकर दरवाजा की ओर जाने लगती है, सागर हाथ पकड़कर खींच लेता है।,

सागर - रानी मैं भी तो तुम पर मरता हूँ, तुम्हें अपना बनाना चाहता हूँ, फिर तुम्हारे बापू मेरा क्या हुआ?

कलूटी - नहीं छोटे मालिक, मैं नहीं चाहती, मुझे नारी का अपमान सहना पड़े। नारी सब कुछ सहन कर सकती है, पर नारी का अपमान नहीं। कोई मुझे कहे, धन की लालच में अपने यौवन को बेच दिया, ये मुझे सहन नहीं होगा।

सागर - ठीक है कर्ज के तौर पर रख लो, कभी वापस कर देना।

कलूटी - ऐसी बात है तो ठीक है रख लेती हूँ।

दृश्य : 7

स्थान : कलूटी का घर समय : शाम के सात बजे

-रूपया लेकर घर आई, बापू खाँस रहा है, घर क्या है, घास फूस से बनी झोपड़ी, सत्तू का पड़ोसी, कलूटी दवाई पिलाती है, कुछ देर बाद बापू का खाँसना बंद हो जाता है, भूखा को दवाई नहीं भोजन चाहिए, रूपया तो दवाई के लिए ही ठीक था।,

कलूटी - बापू बापू।

-उसे हाथ से हिलाती है पर वह नहीं उठता है, कलूटी रोती है।

सत्तू और शाँति आते हैं।,

शांति - चुप हो जा कलूटी, बापू को कुछ नहीं होगा।

सत्तू - बापू को शहर अस्पताल ले जाना पड़ेगा।

-कमची का डोली बनाते हैं, बापू को डोली के अंदर रखते हैं, एक तरफ को सत्तू और दूसरी तरफ को शाँति और कलूटी पकड़ते हैं। ख की एक आँख दिवाकर देख रहा है, गाँव से 6 किलोमीटर की दूरी पर पक्की सड़क है।

-दृश्य परिवर्तन,

-सत्तू बस रूकवाता है, पर वह नहीं रूकता है।,

सत्तू - सभी मानव मर गए, नहीं देख रहे हैं, बेहोश मानव डोली पर है।

-एक बस रूकता है, बस में बहुत भीड़ है, कंडक्टर उन्हें चढ़ाने में मदद करता है, बापू को एक सीट पर लिटाते हैं, कंडक्टर अपने पास कलूटी को बिठाता है, शांति और सत्तू बापू को पकड़े रहते हैं, कंडक्टर कोहनी से कलूटी के कमर को स्पर्श करता है, बस पीछे से उचकता है, बाँह उसकी छाती पर पड़ता है, वह दाँत निपोरता है, नारी का स्पर्श नर के लिए क्या अनुभूति देता है, और उसे स्पर्श करना चाहता है, कंडक्टर की भूखी आँखें कलूटी को घूरता रहता है, पास के यात्री भी कलूटी से स्पर्श करने को लालायित हैं। किसी का पैर उसके पैर से स्पर्श कर रहे हैं, किसी के हाथ उसके कुँतल से स्पर्श कर रहे हैं, सभी जान बूझकर ऐसा कर रहे हैं और जता ऐसे रहे हैं, भीड़ के कारण ऐसा हो रहा है। इन सबसे बचकर वे बस स्टेण्ड पर उतरते है।

-दृश्य परिवर्तन,

-ऑटोवाला भी कलूटी को स्पर्श करना चाहता है, आईना उसी पर केन्द्रित कर अस्पताल पहुँचाता है, वे अपनी जीवन में शहर का अस्पताल पहली बार देखे हैं। गाँव में अस्पताल खुले पाँच साल हो गया, वहाँ आज तक कोई डॉक्टर नहीं आया है, जनरल बॉर्ड में जगह मिलती है, स्टेथस्कोप से जाँच कर रहा है, उसकी नजर कलूटी पर टिकी हुई है।,

डॉक्टर - ऐ लड़की, तुम मेरे कमरे में आओ, स्लिप लेकर दवाई ले आना।

-कलूटी आती है, डॉक्टर अपने पास बिठाता है, उसका नाड़ी छूता है।,

डॉक्टर - लड़की उस बेंच पर सो जाओ।

कलूटी - डॉक्टर मैं क्यों सोउँ?

डॉक्टर - तुम्हें तुम्हारे बापू से भयंकर बीमारी है, उसे तो कुछ समय बाद होश आ

जाएगा। पर तुम्हें कभी भी होश नहीं आएगा।

कलूटी - ऐसी क्या बीमारी है डॉक्टर?

डॉक्टर - लेटो फिर बताता हूँ।

-कलूटी लेट जाती है, डॉक्टर उसके शरीर को सहलाने लगता है।,

डॉक्टर - लड़की तुम्हारा शरीर तो तप रहा है।

कलूटी - मेरा नाम लड़की नहीं कलूटी है।

डॉक्टर - क्या टूटी है, साड़ी निकालो, तुम्हारा शरीर बर्फ से ठंडा करना पड़ेगा।

-डॉक्टर कलूटी के कपड़े को अलग कर देता है, रूप को देखकर ठगा सा रह जाता है, उसके उपर झूक जाता है, दिवाकर सब देख रहा है, इस कुकृत्य को देखकर वह भी अपना कर समेट लेता है, नर्स उसे जगाती है।,

नर्स - सर आपको क्या हुआ? ठीक तो हैं न।

डॉक्टर - हाँ बिल्कुल ठीक हूँ, ठंडे पानी लाना।

-नर्स पानी लाती है, डॉक्टर पानी पीता है, रात गहराता जाता है, अस्पताल के पास आज कवि सम्मेलन है, निशाकर आज कवि सम्मेलन देख रहा है, बापू की आँखें उपर पंखे पर टिकी है, एक कवि अपनी कविता पढ़ रहा है, दर्शक ताली पीट पीट कर स्वागत कर रहे हैं। दर्शकों की आवाज में कवि की आवाज दब जाती है, ताली की गड़गड़ाहट में वह ऐसा खोया है, वह ताली के बारे में ही कविता पढ़ने लगा।,

-दृश्य परिवर्तन,

ताली हो सकता है, सबके लिए खाली।

कवि के लिए है, गरम चाय की प्याली।।

वह इसी के लिए जीता है और मरता है,

जिसे पीना चाहता है, वह पाली पे पाली।।

-भूख सभी जगह स्थापित हो चुका है, ख अपने पुत्र को देखकर प्रफुल्लित है, वह धृतराष्ट् है, अपनी महात्वाकांक्षा दुर्योधन में देखना चाहता है, उसके कुकर्म पर पर्दा डालता है। ख भी अपने पुत्र की कुकर्म पर ध्यान नहीं दे रहा है, भूख कुकर्म करता जा रहा है, शाँति गाँव आ जाती है, सत्तू कलूटी में कुछ तलाशने लगा, बापू रात को सोता है, निशाकर अपना कर फैलाता है, कर कलूटी पर पड़ता है, साड़ी छाती से खिसक गया है। सत्तू की नींद कोसों दूर है, वह उसकी छाती को सहलाने लगता है, वह जागती है करवट बदल कर उसे बाँहों में भर लेती है, कंबल के भीतर उसे सुला लेता है, पागल हवा बह रहा है, जिससे कंबल हिलता डूलता रहता है, डबलरोटी वाले की आवाज से उसकी निद्रा भंग होती है, वह जागता है, कलूटी बापू को दवा पिला रही है, बापू के स्वस्थ होने पर उसे गाँव ले आते हैं।,

दृश्य : 8

स्थान : सत्तू का घर समय : दोपहर बारह बजे

-सत्तू को शांति बताती है। ,

शांति - छोटे मालिक आए थे और तुम लोगों को पूछ रहे थे।

सत्तू - तुमने क्या कहा?

शांति - कलूटी के बापू के ठीक होते ही आ जाएँगे। छोटे मालिक बहुत अच्छे हैं सत्तू, उन्होंने मुझे एक हजार रूपये दिए और कहा जब तक वे लोग नहीं आ जाते काम चलाओ।

सत्तू - लगता तो मुझे भी अच्छा है, पर वह हम दीनों पर इतना मेहरबान क्यों है। मुझे तो दाल में कुछ काला नजर आ रहा है।

शांति - मुझे तो ऐसा नजर नहीं आ रहा।

सत्तू - तुम नारी नर के स्वार्थ से अनभिज्ञ हो। तुम भी नर हो नर की बातें नर ही जाने।

-शांति उल्टी करने लगती है।,

सत्तू - तुम्हें क्या हो गया शाँति?

शांति - मैं क्या जानू ? जब से अस्पताल से आई हूँ, ऐसी ही उल्टी हो रही है।

-उसी समय कलूटी आती है।,

कलूटी - क्या तुम्हें भी उल्टी हो रही है शाँति?

शांति - क्या तुम्हें भी?

कलूटी - हाँ जब से अस्पताल से आई हूँ, मुझे भी ऐसी ही उल्टी हो रही है, कल मालकिन कह रही थी, ऐसी उल्टी तो विवाहिता को होती है।

शांति -पर मैं समझ गई, हम माँ बनने वाली हैं।

सत्तू - कलूटी तुम्हारा पेट में किसका बच्चा पल रहा है?

कलूटी - नारी हूँ, तो किसी नर का ही बच्चा पल रहा होगा।

-इतना कहकर वह चली जाती है।,

शांति - मुझे लगता है इसकी कोख में सागर का बच्चा पल रहा है।

सत्तू - मुझे भी ऐसा लगता है, इसीलिए सागर हम पर मेहरबान है।

-दृश्य परिवर्तन,

-बापू ने जाना तो वह सह नहीं पाया और जीवन के आखिरी मंजिल पर पहुँच गया, मौत को टालने के लिए अस्पताल ले गए थे, लेकिन मौत को कौन कितनी देर तक टाल सकता है, कुछ दिन पहले डोली सजाई जा रही थी, आज अर्थी बनाई गई, अर्थी को काँधा सत्तू, सागर, कलूटी और शाँति ने दिया, कलूटी चिता में आग लगाई, बापू का शरीर धू धू कर जलने लगा, थोड़ी देर बाद अस्थि सहित राख बच गया, कलूटी की कल की मौत हो गई, आज वो जीवन जी रही है, कल उसका आने वाला है, सत्तू को अपना कल याद आने लगा।,

-दृश्य परिवर्तन,

-उसका कल इस देश का निर्माता शिक्षक था, जो भ्रस्ट ऑफीसर के आगे सर न झुकाया, तो उसका सर कलम कर दिया, काश उसका कल रहता तो वह इस झोपड़ी में निवास नहीं करता, स्कूल में सरस्वतीचंद पढ़ा रहा है, विद्यार्थी उसके चारों ओर बैठे हैं, सरस्वती चंद कह रहा है।,

सरस्वती चंद - बच्चों भूख को जीत लो, पढ़ाई में इतना तल्लीन हो जाओ कि भूख की नजर न पड़े।

-शिक्षक यश में पेट को भूल गया, परिवार का पेट भी यह नहीं देखता है, भूख अपना ये रूप देखकर अट्टहास करने लगा, यह शिक्षक भी मेरे गिरफ्त में आ गया, वरना इसकी पत्नी बीमार नहीं पड़ती और मौत के मुँह में नहीं पहुँचती, सत्य पाँच बरस का था, तभी भूख ने इससे जुदा कर दिया।,

सत्य -पापा दूध दो न।

-शिक्षक द्रोण जैसे धोए चावल का पानी सत्य की ओर बढ़ा देता है।,

सरस्वती चंद - ये लो बेटा।

सत्य - पापा, माँ के दूध से फीका है।

सरस्वती चंद - बेटा माँ का दूध तो अमृत है।

-दृश्य परिवर्तन,

-सरस्वती चंद को पुलिस डंडा से मार रहा है।,

पुलिस - बोलेगा और बोलेगा साला।

सरस्वती चंद - जब तक मेरे शरीर में जान है, तब तक बोलूँगा, सेठ धर्मदास ने अपनी पत्नी का खून किया है।

पुलिस - तुम नहीं बोलोगे।

-तलवार से गला काट देता है।,

पुलिस - यही पर जला दो।

-दृश्य परिवर्तन,

सत्य अब सत्तू बन गया है और उसका कल काल के गाल में समा गया, यौवन की दहलीज पर शाँति मिली, गुण्डों से बचाकर लाया है, न बाजे, न बराती, उसकी दुल्हन बन गई, उसने गाँव भर में चिल्लाकर कहा-

सत्तू - मैंने शाँति को अपना दुल्हन बना लिया, ये समझौता नहीं है, न कोई बंधन है, शाँति जब तक चाहे मेरे पास रहे वरना वो स्वतंत्र है।

शांति - नारी भी नर में कुछ पाता है सत्तू, इसलिए अपना सब कुछ समर्पण कर देती है, मैं भी तुम पर अपना तन मन धन समर्पण क्रती हूँ।

-शाँति आकर कहती है।,

शांति - कौन सी सोच में डूब गए सत्तू?

सत्तू - शॉति मेरा अतीत पीछा नहीं छोड़ता, जितना उससे भागना चाहता हूँ, उतना मेरा गला पड़ता है, वर्तमान जीने नहीं देता और मैंने भविष्य के बारे में सोचना ही छोड़ दिया है।

शांति - सत्तू वर्तमान में जीओ, अतीत को भूल जाओ।

दृश्य : 09

स्थान : कलूटी का घर समय : दोपहर बारह बजे

-सागर कलूटी के पास आकर कहता है।,

सागर - कलूटी मुझे अपनी झोपड़ी में जगह दे दो।

कलूटी - मैंने अपनी झोपड़ी में नर को रहने का कमरा नहीं बनाया है, मैं अपनी पेट अच्छी तरह से पाल सकती हूँ। जननी बच्चों को छोड़ और कुछ भी नहीं सोचती।

सागर - कलूटी नारी के पास बच्चे को खाने पिलाने के सिवा और कोई समय नहीं रहता।

कलूटी - सागर जननी समय चुरा लेती है, नारी नर पर आश्रित होना नहीं चाहती। उसका भी अपना एक व्यक्तित्व होता है।

-दोनों की आवाज सुनकर सत्तू और शाँति आते हैं, सत्तू कहता है।,

शांति - कलूटी तुम्हें सागर की प्रणय नहीं ठुकरानी चाहिए।

कलूटी - मैं बंधन स्वीकार नहीं करती, चाहे वह फूल का बंधन क्यों न हो। मैं पालतू नहीं हूँ, जिसे नर खूँटे में बाँधकर मनमानी करे।

शांति - नारी का व्यक्तित्व तो नर से समझौता करने पर खिलता है।

कलूटी - शाँति आज तक अपने मन को कोई भी जीत नहीं पाए हैं, जब मन से जीत जाओ तब ये कहना, तुम भी मन से किसी और की ओर आकर्षित होती होगी और दिखावे के लिए सत्तू के पास रहती हो।

शांति - मन तो मन है, उस पर किसी का वश नहीं।

कलूटी - इसीलिए मैं सागर को अपने पास नहीं रखना चाहती, मैं स्वतंत्र हूँ, अभी मेरी कोख में सागर का बीज पल रहा है, कल किसी और का भी पल सकता है।

सागर - फिर तुममें और वेश्या में कोई अंतर नहीं है।

कलूटी - वेश्या पैसा के लिए अपना तन बेचती है, मैं मानव वंश संचालन करती हूँ, स्वार्थों के बीच मैं जीना नहीं चाहती।

सागर - मेरी बाँहों की जरूरत पड़े तो बेहिचक चले आना।

-सागर चला जाता है, उसके सामने कलूटी नहीं झुकी थी। ,

-दृश्य परिवर्तन,

-समय में शाँति और कलूटी ने बच्चे को जन्म दिए, कलूटी ने अपनी बच्ची का नाम बीजुरी और शाँति ने अपने बच्चे का नाम विशु रखा। विशु और बीजुरी समय के साथ बढ़ने लगे। नारी का आकर्षण नर के लिए समाप्त होने लगा, सत्तू का स्पर्श शाँति के लिए असहनीय लगने लगा, वह विक्षिप्त हालत में जीने लगा, वह बलात् शाँति को अपने बाँहों में भरने लगा, उसने झिड़क दिया, वह साड़ी खींचने लगा, वह रोकती रही, वह अट्टहास करता रहा, शांति असह्य दर्द सह न सकी और उसे परे ढकेल दिया, सत्तू खाट से गिर गया, सत्तू का आज मर गया, कल विशु बढ़ता गया, समय के साथ शांति को नर का आकर्षण फिर हिलकोर मारने लगा, वह कल्पना लोक में जीने लगी।,

शांति - सागर तुम आ गए।

सागर - हाँ मैं आ गया।

शांति - मुझे बाँहों में भर लो। कलूटी तो अब दूसरे के बाँहों में कैद है।

सागर - कलूटी में मैंने तो तुम्हें पाया था, तुमसे मिलकर उसकी तरफ मन कहाँ जाएगा?

-उसे बाँहों में भरकर चूमने लगी, विशु रोने लगी, वह जागती है उसे छोड़ देती है।,

दृश्य : 10

स्थान : लालचीप्रसाद का घर समय : सुबह छह बजे

-विशु और बीजुरी भी समय के साथ यौवन की दहलीज पर पहुँच गए। विशु जब लाला लालचीप्रसाद के स्वर्णमहल में कदम रखता है, उसे देखकर वृद्धा कांति का मन उछलने लगा।,

कांति - सत्तू बहुत दिन बाद दर्शन दिए।

विशु - मालकिन मैं विशु हूँ, सत्तू का बेटा।

कांति- कोई बात नहीं आओ मेरे पास बैठो।

विशु - मालकिन मैं तुम्हारा नौकर हूँ।

कांति - कोई भी किसी का नौकर नहीं होता, इतना जान लो, नर और नारी में एक रिश्ता होता है, वो सिर्फ प्रकृति संचालन का, यही आकर्षण जन्म जन्मान्तर तक कभी समाप्त नहीं होगा।

-दृश्य परिवर्तन,

सूत्रधार : भूख को जितना भी मिटाने की कोशिश करो, भूख उतना ही अधिक बढ़ता है, कलूटी को एड्स ने मौत के मुँह में पहुँचा दिया, सागर और शाँति भी इसके चपेट में आ गए, बुढ़ापे में लालचीप्रसाद काँति के पास रहने लगा, बीजुरी और विशु का आकर्षण बढ़ता गया, प्राकृतिक आकर्षण वंश संचालन के लिए ही है।

-दृश्य परिवर्तन,

विशु - बीजुरी, मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ।

बीजुरी -मैं स्वाधीनता चाहती हूँ, अपनी कोख में किसी का भी बीज पालने को स्वतंत्र हूँ।

सूत्रधार : बीजुरी अपने पेट को देखकर फूली नहीं समाती है, उसका पेट भर चुका है, विशु जा रहा है, दूसरी नारी के खोज में, भूख को मिटाने या भूख को बढ़ाने, पर संसार में भूख बढ़ता ही जा रहा है।


सीताराम पटेल सीतेश

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ 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रचनाकार: नाटक लेखन पुरस्कार आयोजन 2020 - प्रविष्टि क्र. 14 - भूख - सीताराम पटेल सीतेश
नाटक लेखन पुरस्कार आयोजन 2020 - प्रविष्टि क्र. 14 - भूख - सीताराम पटेल सीतेश
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