* मेल कराते ये मेले-2 * -डॉ आर बी भण्डारकर

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* मेल कराते ये मेले-2 *                -डॉ आर बी भण्डारकर सामान्य रूप से मेले का आशय "मिलने" से है; पर मेला शब्द इसके अतिरिक्त भी ...

* मेल कराते ये मेले-2 *

               -डॉ आर बी भण्डारकर

सामान्य रूप से मेले का आशय "मिलने" से है; पर मेला शब्द इसके अतिरिक्त भी अन्य अर्थ प्रकट करता है। जैसे उत्सव,देव-दर्शन,लोगों का जमावड़ा,तीर्थ स्थान पर लोगों का जमा होना आदि।

  • वास्तव में मेला का अर्थ किसी स्थान विशेष पर किसी विशेष आयोजन में लोगों के एकत्र होना है। यह आयोजन धार्मिक, वाणिज्यिक, सांस्कृतिक, किसी लोकोत्सव या किसी खेल से सम्बंधित हो सकते हैं।
  • इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जब किसी एक स्थान पर बहुत से लोग किस धार्मिक,सामाजिक खेल सम्बन्धी ,व्यापारिक या अन्य कारणों से एकत्र होते हैं तो उस जन जमाव को मेला कहा जाता है।
  • व्याकरण की दृष्टि से मेला शब्द संज्ञा है, पुलिंग है। लेकिन मिलन या मिलाप अर्थ लेने पर यह स्त्रीलिंग होता है। मेला शब्द विशेषण के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।
  • हमारे देश मे प्रायः प्रत्येक माह कहीं न कहीं कोई न कोई मेला लगता ही रहता है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि यह मेले भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। पर सब में बाजार और मनोरंजन दो बातें होती ही हैं।
  • आशय यह कि मेला कोई भी हो,किसी भी प्रकार का हो,किसी भी अवसर पर आयोजित हुआ हो,प्रत्येक मेले का अपना महत्त्व होता है । पहला महत्त्व यही कि मेला जन- साधारण के मनोरंजन का अत्युत्तम साधन होता है। चूँकि व्यापारिक मेलों के अलावा भी प्रत्येक मेला एक बाजार भी होता है इसलिए कुछ मेलों में लोगों की छोटी मोटी आवश्यकता की सामग्रियाँ मिल जाती हैं तो कुछ में प्रायः समस्त प्रकार की सामग्रियाँ उपलब्ध हो जाती हैं। इनके अतिरिक्त मेले में सामाजिक महत्त्व के अन्य कार्य भी सम्पन्न होते हुए देखे जाते हैं।
  • भारत में लगने वाले तमाम मेलों की तरह ही मिहोना के बालाजी मंदिर पर रँगपंचमी के अवसर पर लगने वाला मेला भी अंचल में काफी प्रसिद्ध है। यह एक बहुआयामी धार्मिक मेला है।
  • ग्वालियर चंबल सम्भाग में बाला जी नाम से भगवान सूर्य के दो मंदिर हैं। एक मंदिर दतिया जिले के उनाव कस्बे में है जबकि दूसरा भिण्ड जिले में मिहोना कस्बे के समीप है। मिहोना के पास आज जहाँ सूर्य मंदिर है वहाँ पहले बड़ा जंगल था। कहा जाता है कि यहाँ एक बार महान संत हरिदास महाराज का पदार्पण हुआ ,उन्हीं के प्रयास से सम्वत 1907 में(1850 ई.) इस सूर्य मंदिर का निर्माण हुआ। इसके बाद ग्यारहवीं शताब्दी में यहां इंदुर्खी राज्य के महाराजा दूधाराव का पदार्पण हुआ। बाद में उनके पुत्र महाराज वीकलदेव ने इस सूर्य मंदिर पर एक विशाल यज्ञ किया। उनके द्वारा ही मंदिर में चबूतरे पर निर्माण कराया गया। मंदिर में स्थापित कुंड की यह विशेषता बताई जाती है कि इसके जलके स्पर्शमात्र से ही तमाम प्रकार के चर्म रोग ठीक हो जाते हैं। कहा तो यहां तक जाता है कि इस जल के लेप से किसी भी प्रकार का कुष्ठ रोग भी ठीक हो जाता है। अतः यहाँ प्रति रविवार को चर्म रोगसे पीड़ित व्यक्ति अपने रोग से जल का स्पर्श करते हैं। छाजन चर्म रोग से पीड़ित व्यक्ति यहाँ छजनियाँ(सरकंडे के बना एक यंत्र जैसा) भी चढ़ाते हैं।
  • यहाँ मुख्य मंदिर के चारों ओर बड़ा परिक्रमा-पथ है जबकि मंदिर के ठीक सामने महाराज हरिदास की आदमकद प्रतिमा स्थापित है। मंदिर क्षेत्र में जगह जगह धर्मशालाएँ बनी हुई हैं। बताया गया है कि यह धर्मशालायें आस-पास के विभिन्न समुदायों द्वारा अपने अपने समुदाय-नाम से अपने सामाजिक उद्देश्यों के लिए बनवाई गई थीं।

भक्तों में ऐसा विश्वास है कि यह भगवान बालाजी सूर्य मंदिर प्राचीन समय से ही अत्यंत फलदायी व अलौकिक है। यहॉं सच्चे मन से की गई हर मनोकामना पूर्ण होती है। इसलिए आपको प्रायः प्रत्येक रविवार को यहाँ दूर-दराज से आया हुआ कोई न कोई भक्त मिल ही जायेगा। इनमें से कुछ मनोकामना लेकर आये हुए होते हैं तो कुछ मनोकामना पूर्ण होने के बाद नमन करने आये हुए होते हैं। एक धारणा यह भी है कि यहाँ

भगवान भास्कर के दर्शन करने से,उन्हें जल अर्पित करने से युवाओं में सकारात्मक ऊर्जा और विश्वास का स्व-स्फूर्त संचार होता है।

  • जैसा कि बताया जा चुका है कि यहाँ प्रत्येक रविवार को मेला लगता है। मेले में आसपास के लोग आते हैं। वे मंदिर में दर्शन कर धर्म-लाभ लेते हैं और मेले में से अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ भी खरीदते हैं।
  • यहां संत हरिदास महाराज ने वर्षों पूर्व मेले का आयोजन शुरू कराया था। वस्तुतः प्राचीन समय में ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को अपनी दैनिक आवश्यकताओं की खरीदारी के लिए दूरस्थ बाजारों में जाना पड़ता था। आमजन की इस विकट समस्या को देखते हुए ही महाराज हरिदास जी ने इस मेले का आयोजन शुरू किया था।
  • वस्तुतः यहाँ हर रविवार को लगने वाले मेले का महत्त्व तो है ही लेकिन सर्वाधिक महत्त्व रँगपंचमी के अवसर पर लगने वाले मेले का है। यह मेला 15 दिन चलता है। परम्परा के अनुसार मेले में आने वाले भक्त सबसे पहले बालाजी मंदिर में भगवान सूर्यदेव के दर्शन करते हैं,जल चढ़ाते हैं। भगवान के दर्शन कर भक्त अपने को धन्य मानते हैं। उनका मत है कि रँगपंचमी के अवसर पर भगवान भास्कर के दर्शन बड़े सौभाग्य से ही होते हैं।
  • इस मेले में ग्रामीण व्यक्तियों के उपयोग में आने वाले प्रायः सभी सामग्रियों की दुकानें लगती हैं। लोगों के पास सरसों,सिहुँआ,अलसी,मसूर जैसी नगदी फसलों से काफी धन आ चुका होता है इसलिए लोग अपनी अपनी आवश्यकता की वस्तुओं की जमकर खरीदी करते हैं। चूँकि यह एक धार्मिक मेला है इसलिए यहां दूकानों का कतारबद्ध संयोजन और उनकी सजावट बड़ी लुभावनी होती है। यहाँ की हरियाली, मंदिर के पास स्थित तालाब का सौंदर्य सैलानियों के लिए आकर्षण का केंद्र बना जाता है।

· बालाजी मंदिर पर लगे मेले में करीब 400-500 दुकानें सजाई जाती हैं। यहां दूर दूर के व्यापारी अपनी-अपनी दुकानें लगाते हैं। दूकान लाइन से लगती हैं। एक लाइन में वर्तन वाले,तो दूसरी लाइन में लोहे आदि के समान की दूकान लगती हैं। किराने की दुकानों की अलग पंक्ति होती है तो बिसरात वालों की दूकान अलग लाइन में होती हैं। मेले में खिलौनों की दुकानों का अपना आकर्षण होता है। कुछ लोग घूम-घूम कर खिलौने बेचते हैं। मिष्ठान की दुकानों पर भी खूब भीड़ होती है। गर्मी का मौसम इस क्षेत्र में सहालग का मौसम होता है इसलिए कपड़ों की दूकान वाली गली में खूब भीड़ बनी रहती है। बताया गया है कि इस मेले की व्यवस्था बालाजी न्यास समिति द्वारा की जाती है।

चूँकि इस क्षेत्र में रँगपंचमी के आसपास से ही गर्मी पड़ना प्रारम्भ होता है इसलिए मेले में मिट्टी के घड़ों(मटकों), सुराहियों की बिक्री खूब होती है। इन बर्तनों का पानी ठंडा तो होता ही है, स्वादिष्ट भी होता है और स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभकारी भी होता है। मेले में झूलों का विशिष्ट आकर्षण होता है। बच्चों के झूले छोटे होते हैं तो बड़ों के लिए विशालकाय झूले होते हैं। मेले में परंपरागत रेंहचकुआ भी दिखते हैं तो आधुनिक विद्युत चलित झूले भी दिखते हैं। मनोरंजन के लिए सकर्स वाले, जादू वाले,मौत का कुँआ वाले और अन्य तरह तरह के करतब दिखाने वाले भी आकर्षण का केंद्र बनते हैं।

· मेले में सबसे बड़ा आकर्षण फगुआरों की टोलियाँ होती हैं। प्रायः प्रत्येक टोली अपनी अपनी धर्मशालाओं के आसपास बैठकर फागें गाती हैं जिनमें खूब रंग गुलाल उड़ता है।

· इस मेले में विभिन्न गाँवों,समाजों के लोग अपने अपने विवाद भी मिल बैठकर सुलझाते हैं। कई समाजों के लोग अपने विवाह योग्य बेटे बेटियों की शादियाँ भी इसी मेले में तय करते है । हालांकि अब यह दोनों बातें अब नाम मात्र को ही रह गयीं हैं।

· संसार में कितनी ही आधुनिकता आ गयी हो,भले ही मॉल व शॉपिंग काम्प्लेक्स की संस्कृति आ गयी हो लेकिन हमारे लोक में इन मेलों की महत्ता अभी भी अक्षुण्ण है।

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रचनाकार: * मेल कराते ये मेले-2 * -डॉ आर बी भण्डारकर
* मेल कराते ये मेले-2 * -डॉ आर बी भण्डारकर
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रचनाकार
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