"विज्ञान समाचार" -डॉ दीपक कोहली- * 2600 वर्षों तक सुरक्षित मस्तिष्क: शोधकर्ताओं को एक ऐसे व्यक्ति की...
"विज्ञान समाचार"
-डॉ दीपक कोहली-
* 2600 वर्षों तक सुरक्षित मस्तिष्क:
शोधकर्ताओं को एक ऐसे व्यक्ति की खोपड़ी और दिमाग मिले हैं जिसका लगभग 2600 वर्ष पहले सिर कलम किया गया था। यह घटना जिस जगह हुई थी वह आजकल के यॉर्क (यू.के.) में है। वर्ष 2008 में शोधकर्ताओं को जब खोपड़ी मिली थी, तो उसमें से मस्तिष्क का ऊतक प्राप्त हुआ जो आम तौर पर मृत्यु के तुरंत बाद सड़ने लगता है। इसलिए यह आश्चर्य की बात है कि यह ढाई हज़ार वर्षों तक संरक्षित रहा। और तो और, मस्तिष्क की सिलवटों और खांचों में भी कोई परिवर्तन नहीं आया था। ऐसा लगता है कि धड़ से अलग होकर वह सिर तुरंत ही कीचड़ वाली मिट्टी में दब गया था।
शोधकर्ताओं ने मामले को समझने के लिए विभिन्न आणविक तकनीकों का उपयोग करके बचे हुए ऊतकों का परीक्षण किया। शोधकर्ताओं ने इस प्राचीन मस्तिष्क में दो संरचनात्मक प्रोटीन पाए जो न्यूरॉन्स और ताराकृति ग्लियल कोशिकाओं दोनों के लिए एक किस्म के कंकाल या ढांचे का काम करते हैं। लगभग एक वर्ष तक चले इस अध्ययन में पाया गया कि उक्त प्राचीन मस्तिष्क में यह प्रोटीन-पुंज ज़्यादा सघन रूप से भरा हुआ था और आधुनिक मस्तिष्क की तुलना में अधिक स्थिर भी था। जर्नल ऑफ रॉयल सोसाइटी इंटरफेस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस प्राचीन प्रोटीन-पुंज ने ही मस्तिष्क के नरम ऊतक की संरचना को दो सहस्राब्दियों तक संरक्षित रखने में मदद की होगी।
पुंजबद्ध प्रोटीन उम्र के बढ़ने और मस्तिष्क की अल्ज़ाइमर जैसी बीमारियों की पहचान हैं। लेकिन शोधकर्ताओं को इनसे जुड़े कोई विशिष्ट पुंजबद्ध प्रोटीन नहीं मिले। वैज्ञानिकों को अभी भी मालूम नहीं है कि ऐसे पुंज बनने की वजह क्या है लेकिन उनका अनुमान है कि इसका सम्बंध दफनाने के तरीकों से है जो परंपरागत ढंग से हुआ होगा। ये नए निष्कर्ष शोधकर्ताओं को ऐसे अन्य प्राचीन ऊतकों के प्रोटीन से जानकारी इकट्ठा करने में मदद कर सकते हैं जिनसे आसानी से डीएनए बरामद नहीं किया जा सकता है।
*प्रथम परोपकारी पक्षी:
अपने परिजनों की रक्षा करना और अजनबियों को आश्रय देना मानवता का एक ऐसा अनिवार्य भाग है जिसको हमने व्यापक रूप से विकसित किया है। मनुष्यों के अलावा ओरांगुटान और बोनोबो जैसे कुछ ही अन्य जीवों में स्वेच्छा से दूसरों की मदद करने का गुण देखा गया है। अब वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्होंने ऐसे गैर-स्तनपायी प्राणि खोज निकाले हैं जो परोपकारी होते हैं।
गौरतलब है कि पूर्व में हुए अध्ययनों से पक्षियों में बुद्धिमत्ता के प्रमाण तो मिले हैं लेकिन अफ्रीकी मटमैला तोता (Psittacus erithacus) एक ऐसा पक्षी है जो परोपकारी भी है। मैक्स प्लांक इंस्टिट्यूट फॉर ओर्निथोलॉजी के पशु संज्ञान वैज्ञानिकों ने असाधारण मस्तिष्क वाले अफ्रीकन मटमैले तोते और नीले सिर वाले मैकॉ (Primolius couloni) की कुछ जोड़ियों पर अध्ययन किया। सबसे पहले शोधकर्ताओं ने पक्षियों को सिखाया कि वे एक टोकन के बदले पुरस्कारस्वरूप एक काजू या बादाम प्राप्त कर सकते हैं। इस परीक्षा में दोनों प्रजाति के पक्षी सफल रहे।
लेकिन अगली परीक्षा में केवल अफ्रीकी मटमैले तोते ने बाज़ी मारी। इस परीक्षा में शोधकर्ताओं ने जोड़ी के एक ही पक्षी को टोकन दिया और वह भी ऐसे पक्षी को जो किसी भी तरह से शोधकर्ता तक या पुरस्कार तक नहीं पहुंच सकता था। अलबत्ता वह एक छोटी खिड़की से टोकन अपने साथी पक्षी को दे सकता था। और वह साथी टोकन के बदले पुरस्कार प्राप्त कर सकता था। लेकिन इसमें पेंच यह था कि काजू-बादाम जो भी मिलता उसे वही दूसरा पक्षी खाने वाला था।
दोनों प्रजातियों में, जिन पक्षियों को टोकन नहीं मिला, उन्होंने हल्के से चिंचिंयाकर दूसरे साथी का ध्यान खींचने की कोशिश की। ऐसे में नीले सिर वाले मैकॉ अपने साथी को नज़रअंदाज़ करते हुए निकल गए लेकिन अफ्रीकी मटमैले तोतों ने पुरस्कार की चिंता किए बिना अपने साथी पर ध्यान दिया। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार पहले ही परीक्षण में 8 में से 7 मटमैले तोतों ने अपने (वंचित) साथी को टोकन दे दिया। जब इन भूमिकाओं को पलट दिया गया तब तोतों ने अपने पूर्व सहायकों की भी उसी प्रकार मदद की। इससे लगता है कि उनमें परस्परता का कुछ भाव होता है।
शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि यदि उनका साथी कोई करीबी दोस्त या रिश्तेदार नहीं है तब भी उनमें उदारता दिखी। और यदि वह उनका करीबी रिश्तेदार है तब तो वे और अधिक टोकन दे देते थे। मैकॉ के व्यवहार से तो लगता था कि उन्हें साथी चाहिए ही नहीं। बल्कि अपने खाने का कटोरा साझा करना भी उन्हें पसंद नहीं था।
शोधकर्ताओं का मानना है कि इन दोनों प्रजातियों के बीच का अंतर उनके अलग-अलग सामाजिक माहौल के कारण हो सकता है। जहां अफ्रीकी मटमैले तोते अपने झुंड बदलते रहते हैं वहीं मैकॉ छोटे समूहों में रहना पसंद करते हैं। वैसे कुछ अन्य पक्षी वैज्ञानिकों को लगता है कि तोतों के परोपकार के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है किवे शायद आपस में भाई-बहन रहे हों, जिनके बीच आधे जीन तो एक जैसे होते हैं।
* उल्टी चलती चीटियां घर कैसे पहुंचती हैं:
चींटियों को भोजन का छोटा टुकड़ा मिले तो वे उसे धकेलकर अपनी बांबी तक ले जाती हैं। लेकिन यदि टुकड़ा बड़ा हो तो वे उसे खींचकर ले जाती हैं। सवाल यह है कि इस तरह उल्टे चलते हुए उन्हें दिशा का अंदाज़ कैसे लगता है। पहले वैज्ञानिक सोचते थे कि चींटियों को अपने सामने की ओर कुछ परिचित चिंह देखना पड़ते हैं और उन्हीं की मदद से वे अपनी मंज़िल तक पहुंच पाती हैं। लेकिन अब एक अनुसंधान दल ने स्पष्ट किया है कि उल्टे चलते हुए भी वे पुराने परिचित दृश्यों को पहचान सकती हैं।
बात स्पैनिश रेगिस्तानी चींटियों (Cataglyphis velox) की है। ये जब उल्टी चलती हैं तो दिशा निर्धारण के लिए ‘पाथ इंटीग्रेशन’ नामक रणनीति का इस्तेमाल करती हैं। वे यह याद रखती हैं कि घर से किसी जगह तक पहुंचने में वे कितने कदम चली थीं और रास्ते में कितने मोड़ या पेंच आए थे। वे अपनी स्थिति को याद रखने के लिए सूर्य से बनने वाले कोण की भी मदद लेती हैं। और वे घर से किसी जगह तक चलते हुए मुड़-मुड़कर देखती रहती हैं और नज़र आने वाले पहचान चिंहों को याद रखती हैं जो वापसी यात्रा में मददगार हो सकते हैं।
लेकिन अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि उल्टे चलते हुए उन्हें पता कैसे चलता है कि वे कहां जा रही हैं। कभी-कभी चींटियां भोजन को नीचे रखकर मुड़कर देख भी लेती हैं। पौल सेबेटियर विश्वविद्यालय के सेबेस्टियन श्वार्ज़ और उनके साथी इसी का अध्ययन करना चाहते थे। उन्होंने उन चींटियों को चुना जो रेगिस्तान में अपने घर से निकलकर गंतव्य तक पहुंच चुकी थीं। यानी पाथ इंटीग्रेशन के ज़रिए उन्हें मालूम था कि वे कहां हैं। शोधकर्ताओं ने घर के एकदम बाहर से कुछ ऐसी चींटियां भी पकड़ी जिन्हें लगता था कि वे घर पहुंच चुकी हैं। इन सब चींटियों को उन्होंने बांबी से थोड़ी दूर उनके पसंदीदा भोजन के टुकड़ों के पास छोड़ दिया।
जब चींटियां भोजन को लेकर घर की ओर चलीं, तो कभी-कभी शोधकर्ता दृश्यों में थोड़ा फेरबदल कर देते। जब ऐसे बदले हुए पहचान चिंहों से सामना हुआ तो चींटियों ने 8 मीटर के रास्ते में 3.2 मीटर चलने के बाद मुड़कर देखा जबकि परिचित रास्ते पर चींटियां बगैर मुड़े 6 मीटर तक चलती रह सकती हैं। इससे पता चलता है कि वे उल्टे चलते हुए अपने आसपास के परिवेश पर ध्यान देती हैं और समय-समय पर पीछे मुड़कर देखती हैं।
उम्मीद के मुताबिक, उन चींटियों का प्रदर्शन कहीं बेहतर रहा जिन्हें पहले से पता था कि वे कहां हैं। वे बगैर मुड़े ज़्यादा दूरी तय कर पार्इं और अपना भोजन लेकर घर भी ज़्यादा संख्या में पहुंचीं। जिन चींटियों के पास रास्ते की जानकारी नहीं थी, उनमें से कुछ तो भटक गर्इं लेकिन शेष चींटियां घर पहुंच गर्इं जबकि उनके पास पाथ इंटीग्रेशन द्वारा मिली जानकारी नहीं थी। वे शायद अपनी दृश्य स्मृतियों अथवा सूर्य से बने कोण की मदद से घर पहुंची थीं।
चींटियों की आंखें काफी विस्तृत दृश्य देख पाती हैं – वे सिरे को घुमाए बगैर लगभग 360 डिग्री का क्षेत्र देखती हैं जबकि मनुष्य अपने आसपास का एक हिस्सा ही देख पाते हैं। श्वार्ज़ का कहना है कि संभवत: कीट घर से दूर जाते समय अपने बाजू और पीछे के दृश्य की जानकारी भी हासिल करते रहते हैं और वापसी में इसका उपयोग कर लेते हैं।
श्वार्ज़ इस संदर्भ में कुछ और प्रयोग करने को उत्सुक हैं। जैसे वे कोशिश कर रहे हैं कि चींटी की एक आंख को बंद करके देखा जाए या उनके लिए एक ट्रेडमिल बनाई जाए।
* खोजा गया माया सभ्यता का महल:
मेक्सिकन नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एंथ्रोपोलॉजी एंड हिस्ट्री के पुरातत्वविदों को माया सभ्यता का पत्थरों से बना एक महल मिला है जो कुछ हज़ार वर्ष से भी अधिक पुराना है। माया सभ्यता वर्तमान के दक्षिणी मेक्सिको से लेकर ग्वाटेमाला, बेलीज़ और होंडुरास तक फैली हुई थी। इस सभ्यता को ऊंचे-ऊंचे पिरामिड, धातुकला, सिंचाई प्रणाली तथा कृषि के साथ-साथ जटिल चित्रलिपि के लिए जाना जाता है।
पुरातत्वविदों का मानना है कि यह महल खास तौर पर समाज के अभिजात्य वर्ग के लोगों के लिए तैयार किया गया था। गौरतलब है कि वैज्ञानिक कई वर्षों से महल के आस-पास माया सभ्यता स्थल की खुदाई और इमारतों के जीर्णोद्धार का कार्य कर रहे थे। यह पुरातात्विक स्थल मशहूर शहर कानकुन से लगभग 160 किलोमीटर पश्चिम में कुलुबा में है।
वैज्ञानिकों ने इस महल पर अध्ययन हाल ही में शुरू किया है। महल में 180 फीट लंबे, 50 फीट चौड़े और 20 फीट ऊंचे छह कमरे हैं। चूंकि यह महल काफी बड़ा था इसलिए इसे पूरी तरह से बहाल करने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। पुरातत्वविदों की टीम के प्रमुख अल्फ्रेडो बरेरा रूबियो के अनुसार इस महल में कमरों के साथ अग्नि-वेदिका, भट्टी और रिहायशी कमरों के अलावा सीढ़ियां भी मौजूद थीं। महल का अध्ययन करने से मालूम चलता है कि दो अलग-अलग समय के दौरान लोग यहां रहे – एक तो 900 से 600 ईसा पूर्व के दौरान और दूसरा 1050 से 850 ईसा पूर्व के दौरान। इस क्षेत्र की स्थापत्य विशेषताओं की जानकारी के अभाव में मुख्य उद्देश्य इस सांस्कृतिक विरासत की बहाली और वास्तुकला का अध्ययन करना था।
अध्ययन के दौरान टीम को कुछ द्वितीयक कब्रें भी मिलीं, यानी पहले कहीं दफन किए शव को निकालकर इन कब्रों में फिर से दफनाया गया था। इनकी मदद से आगे चलकर इस सभ्यता के लोगों की उम्र, लिंग और उनकी तंदुरुस्ती के बारे में पता लगाया जा सकेगा।
हालांकि इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि 800 से 1000 ईसा पूर्व के बीच यह सभ्यता का खत्म क्यों हुई, फिर भी कुछ शोधकर्ता मानते हैं कि वनों की कटाई और सूखे के कारण यह सभ्यता नष्ट हुई होगी।
*गर्भ में शिशु लात क्यों मारते हैं:
गर्भ के कुछ हफ्तों बाद गर्भवती महिलाओं को शिशु के लात मारने का एहसास होने लगता है। लेकिन सवाल यह है कि गर्भ में शिशु लात क्यों मारते हैं। इम्पीरियल कॉलेज लंदन की बायो-इंजीनियर नियाम नोवलन ने लाइव साइंस को बताया है कि गर्भ वैसे तो काफी तंग जगह होती है लेकिन लातें चलाना हड्डियों और जोड़ों के स्वस्थ विकास के लिए ज़रूरी व्यायाम है।
वास्तव में गर्भ के शुरूआती 7 हफ्ते के बाद भ्रूण हरकत करने लगता है जिसमें आहिस्ता-आहिस्ता वह अपनी गरदन घुमाने लगता है। जैसे-जैसे भ्रूण का विकास होता है वह हिचकी, हाथ-पैर हिलाना, अंगड़ाई लेना, उबासी लेना और अंगूठा चूसने जैसी हरकतें भी करने लगता है। लेकिन गर्भवती महिलाओं को हाथ-पैर हिलाने जैसी बड़ी हरकतें 16 से 18 हफ्तों के बाद ही महसूस होने लगती हैं।
हालांकि अध्ययनों में अभी यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि गर्भ में शिशु की हरकतें स्वैच्छिक हैं या अनैच्छिक, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि जन्म के बाद शिशु के अच्छे स्वास्थ्य के लिए गर्भ में हाथ-पैर मारने जैसी ये हरकतें आवश्यक हैं, खासकर जोड़ों और हड्डियों के लिए। युरोपियन सेल एंड मटेरियल में प्रकाशित एक समीक्षा में नोवलन बताती हैं कि कैसे भ्रूण की कम हरकत के कारण कुछ जन्मजात विकार (जैसे छोटे जोड़ या पतली हड्डियां) हो सकते हैं, जिनकी वजह से फ्रैक्चर की संभावना अधिक रहती है।
लेकिन फिलहाल यह कहना मुश्किल है कि गर्भ में शिशु की कितनी हरकत सामान्य कहलाएगी और कितनी कम या ज़्यादा क्योंकि भ्रूण की हरकतों पर निगरानी सिर्फ अस्पतालों में ही रखी जा सकती है और गर्भवती महिलाएं अस्पताल में तो थोड़े समय के लिए ही होती हैं। इसलिए भ्रूण की हरकत का तफसील से अध्ययन करना अब तक मुश्किल रहा है।
इस समस्या के समाधान के लिए नोवलन की टीम ने एक ऐसा मॉनीटर बनाया है जिसे महिलाएं दिन भर पहने रख सकती हैं और रोज़मर्रा के सारे काम भी करती रह सकती हैं। नोवलन के दल ने इस मॉनीटर को 24 से 34 सप्ताह के गर्भ वाली 44 गर्भवती महिलाओं पर आज़माया। इसकी मदद से वे शिशुओं की सांस लेने, चौंकने और अन्य सामान्य शारीरिक हरकतें सटीकता से रिकॉर्ड कर पाए। उनका यह अध्ययन प्लॉस वन नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
हालांकि शिशु की हरकत सम्बंधी कई अध्ययन किए जाना या निष्कर्षों की पुष्टि किया जाना अभी बाकी है – जैसे कौन-सी बार गर्भधारण किया है, क्या इससे शिशु के लात मारने पर कोई प्रभाव पड़ता है? या शिशु के लिंग और लात मारने के परिमाण के बीच कोई सम्बंध है? उम्मीद है कि इस नए विकसित मॉनीटर से शिशु की हरकत के बारे में और विस्तार से जानने में मदद मिलेगी।
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प्रेषक : डॉ दीपक कोहली , 5 /104 , विपुल खंड , गोमती नगर ,लखनऊ - 226010 (उत्तर प्रदेश )
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